लड़का-लड़की (कहानी) : अमरकांत

Ladka-Ladki (Hindi Story) : Amarkant

सितंबर बीतते-बीतते बरसात समाप्त हो चुकी थी और आकाश निर्मल एवं नीला दिखाई देने लगा था। चंदर ने उन्हीं दिनों एक फिल्म देखी। वह एक गोरा, खूबसूरत और पतला-छरहरा नौजवान था, जिसको चलते हुए देखकर किसी वायु-प्रकंपित ताजे बेंत कि याद आ जाती। वह लाड़-प्यार में पला एक अच्छे खाते-पीते देहाती परिवार का लड़का था, जो बी.ए. की शिक्षा ग्रहण कर रहा था और विश्वविद्यालय के पास स्थित एक मोहल्ले में एक किराए के कमरे में रहता था। उस फिल्म का मुख्य अभिनेता उन्हीं फिल्मी लोकप्रिय नायकों की तरह था,जो सर्वगुण संपन्न होते हैं और उछलकूद, फन, होशियारी और भावुकता का प्रदर्शन करके अंत में लड़की का हृदय जीत लेते हैं। फिल्में तो उसने बहुत देखी थीं, लेकिन इसने उस पर गहरा असर डाला और कई दिनों तक वह सड़कों पर बैचैन घूमता रहा और अँधेरी रातों में आकाश एवं तारों की रहस्यमयता को निहारता रहा। उसके बाद वह शहर की उग्र राजनीतिक हलचलों में भाग लेने लगा। वह कभी किसी जुलूस या प्रदर्शन में शामिल होकर नारे लगाता, कभी किसी सार्वजनिक सभा में भाषण करता और दो बार आगे बढ़ कर उसने छात्रों की हड़ताल में हिस्सा लिया। इसी रास्ते से वह महानता के शिखर पर पहुँचेगा और अपने देश को महान बनाएगा। लेकिन कुछ ही दिनों बाद वह तेजी से साहित्य की ओर मुड़ा, क्योंकि किसी पत्रिका में एक कहानी पढ़ कर उसको सहसा महसूस हुआ था कि साहित्य का क्षेत्र ऊँची प्रतिभाओं से शून्य है।

वह अब लंबी प्रेम-कहानियाँ और कविताएँ लिखने के साथ रतजगा करने लगा। उसने संपादकों के पास अपनी कुछ रचनाओं के साथ कुछ लंबे आदर्शवादी और व्यक्तिगत पत्र भेजे और जब कुछ रचनाएँ लौट आईं, तो वह शहीदाना ढंग से व्यंग्यपूर्वक मुस्कुराया कि ये लोग एक दिन उसके पैरों पर गिरेंगे। वह अब अपने से बेहद संतुष्ट रहने लगा और अब उसको एक सुंदर लड़की की जरूरत महसूस होने लगी, जो उसकी अद्वितीयता से प्रभावित हो कर उस पर अपना जीवन न्योछावर कर दे, किंतु बहुत-सी घटनाओं में तलाश करने के बाबजूद जब उसे ऐसी लड़की नहीं मिली, तो वह अत्यधिक परेशान हो उठा क्योंकि वह अधिक प्रतीक्षा नहीं कर सकता था।

एक दिन सवेरे, जब हवा तेज चल रही थी तथा वह अपने कमरे के सामने टहल रहा था, तो उसकी दृष्टि तारा की ओर गई, जो खुली छत पर खडी अपने बाल सुखा रही थी। वह उसी मकान में रहने वाले एक क्लर्क की लड़की थी, जिसके एक कमरे का वह किराएदार था। लड़की का रंग साँवला था शरीर लंबा तथा दोहरा, जिसके अलावा और कोई खास बात उसमें न थी। वह बार-बार अपने बालों को झटक रही थी और उन पर धूप पूरी तरह पड़ सके, इसके लिए शरीर को कभी बाईं ओर मोड़ लेती थी और कभी दाईं ओर। एक बार हवा इतनी तेज चली कि उसके बाल उड़ने लगे, गोया असंख्य काले सर्प भाग रहे हों। उसका आँचल भी उड़-उड़ जाता, जिसको सँभालने में उसको खेल का मजा आने लगा और वह शरारत से मुस्कुराई और और तभी उसकी नजर नीचे चंदर की ओर गई और वह बेहद संकुचित हो गई और अपने शरीर को सिकोड़ तथा झुका कर घर के अंदर भाग गई।

चंदर को बेहद आश्चर्य हुआ। उसने कभी सोचा भी न था कि उस लड़की में इतनी चंचलता और शोखी हो सकती है। कमल के नाल कि तरह झूलती नंगी बाँहें और हथिनी कि तरह मांसल शरीर। दरअसल उसने उस लड़की को कभी महत्व नहीं दिया था, यहाँ तक कि उसको ठीक से देखा भी नहीं था यद्यपि वह उसके घर के अंदर आता-जाता था और उसके यहाँ दावतों और समारोहों में कई बार शामिल भी हो चुका था। उसका खयाल था कि वह एक भोंदू, गंदी और आलसी लड़की है, जैसे कि क्लर्कों की लड़कियों के बारे में उसकी राय थी। वह तीन मील पैदल चल कर कालेज पहुँचती थी, उतनी ही वापस लौटती थी, मामूली कपड़े पहनती थी तथा घर में डाँट-फटकार सुनती रहती थी।

यह सब सोच कर चंदर को उस लड़की पर इतनी दया आई कि वह वर्तमान सामाजिक व्यवस्था के प्रति प्रबल आक्रोश से भर उठा। वह उस लड़की के भाग्य को सुधारेगा और इस तरह समस्त सामाजिक व्यस्था पर क्रूर प्रहार करेगा तथा एक साधारण लड़की को प्यार करके देश के सामने अपनी महानता को सिद्ध कर देगा और इस महत्वपूर्ण निश्चय पर पहुँच कर उसको अपने ऊपर एक वीर नायक की तरह गर्व हुआ। वह बहुत ही आसानी से उत्साह एवं उमंग की मूर्ति बन गया और दूसरे दिन से ही उस लड़की को एक ऐसे प्रेमी की नजर से देखना लगा, जो अपने प्यार की खातिर बड़ा से बड़ा त्याग करने को तैयार हो। जब वह कॉलेज जाने लगती, तो वह साफ-सुथरे कपडे पहनकर कमरे से बाहर आकर खड़ा हो जाता और कॉलेज से लौटने के समय भी वह मौजूद मिलता, कभी-कभी वह कुछ दूर तक उसका पीछा करता, कभी रास्ते में ही खड़ा दिखाई देता और कभी-कभी छुट्टी होने के समय कॉलेज के गेट के सामने व्यस्ततापूर्वक इधर- उधर जाते हुए नजर आता। इसके बाद वह उससे बातचीत करने की कोशिश करने लगा।

'क्या समय हैं?'

'आज देर से क्यूँ जा रही हो?'

'कॉलेज में आज छुट्टी नहीं है?'

उखड़े-उखड़े से प्रश्न। आँखों में दया, दुख और शहादत की भावनाएँ तैरा करतीं। फिर तो उसकी गतिविधियाँ कुछ इस ढंग से बढ़ी कि लड़की को सचेत हो जाने के लिए मजबूर होना पड़ा। पहले तो उसको अचंभा हुआ, फिर वह उसको अविश्वास से देखने लगी, यहाँ तक कि कुछ ही दिनों बाद उसकी आँखों से एक अजीब भय झाँकने लगा।

उस दिन चंदर काफी आगे बढ़ गया, जब वह अपने कमरे में बैठा था और तारा कॉलेज से वापस आई थी। चंदर ने पहले कमरे के दोनों दरवाजों के बाहर देखा और जब कोई दिखाई न पड़ा तो गलियारे से जल्दी-जल्दी गुजरती हुई तारा को उसने पास बुलाया। तारा ने उसको चौंक कर देखा, फिर उसका चेहरा फक पड़ गया और वह डरती-डरती कमरे के अंदर आई और सर झुका कर खड़ी हो गई।

'तुम्हारी पढ़ाई कैसी चल रही है तारा?' चंदर ने किसी हितैषी के अधिकार से पूछा।

'ठीक चल रही है।'

'कोई कठिनाई है?'

'नहीं।'

'कठिनाई महसूस होने पर पूछ सकती हो। मैं कोई भूत नहीं हूँ। बस, यही समझ लो कि मैं तुम्हारा कोई नुकसान नहीं देख सकता।'

तारा का सर झुका-का-झुका रहा। चंदर ने उठ कर कमरे में दो बार चहलकदमी की, फिर वह तारा के एकदम निकट आकर बोला - 'तारा, तुमको डरना नहीं चाहिए। अपने को हीन नहीं समझना चाहिए। तुममें बहुत सी अच्छाइयाँ हैं। डरने की क्या जरूरत है?'

उसकी बातों का तारा पर न जाने कैसा असर हुआ कि उसका चेहरा रुदन की हलकी लकीरों में खो गया और वह अचानक छटक कर कमरे के बाहर निकल गई।

तारा ने जल्दी से किताबें रखीं और एकांत कमरे में बैठ कर चुपचाप आँखें पोछने लगी वह सचमुच अपने को बहुत छोटा महसूस करने लगी।, गोया किसी ने संकेत करके यह बता दिया हो कि उसका स्थान कहाँ है। वह अपने माँ-बाप की प्रथम भूख-प्यास की लड़की थी और उसको कभी बहुत लाड़-प्यार भी मिला था। उसक दिमाग बहुत अच्छा था और अपने इम्तिहान बहुत अच्छे नंबरों से पास करती रहती थी। लेकिन धीरे-धीरे उसके परिवार की संख्या बढ़ती गई और बाजार में जरूरी सामान की कीमतें चढ़ती गईं और उसके परिवार पर काली छाया मंडराने लगी। अब घर में रोज ही लड़ाई झगड़ा होने लगा। मामूली बात पर चख-चख और गाली-गलौज। पिता नाराज होकर घर से निकल जाते। कभी मान खाना-पानी छोड़कर अपने को कमरे में बंद कर लेती। स्वयं उस पर भी रोज डाँट-फटकार ही पड़ती। उसको छाती फाड़कर काम करने पड़ते, बच्चों को सँभालना पड़ता और छोटे भाई को गोद लादना पड़ता।

कई बार उसकी पढ़ाई छुड़ाने की बात आई, जिसके लिए कई बार उसकी माँ ने जिद ठान ली, लेकिन उसके पिता की वजह से ऐसा नहीं हो पाता था क्यूँकि वह जानते थे कि बिना पढ़ाई-लिखाई के शादी नहीं हो पाएगी और यदि शादी जल्दी न भी हो तो लड़की अपने पैरों पर खड़ी तो हो जाएगी, लेकिन घर के घुटन भरे वातावरण ने उसकी उमंग को समाप्त कर दिया था और वह घर तथा काम से भागने लगी। जब कॉलेज जाने का समय होता तो उसके उत्साह की सीमा न होती। उसकी टाँगों में अजीब सी स्फूर्ति आ जाती और वह सारा काम जल्दी निपटा कर बाहर निकल जाती। फुर्र-फुर्र बाहर निकलकर उसको अजीब सी शांति महसूस होती। काश वह अपने घर कभी न आ पाती और इसी तरह सड़कों पर घूमती रहती। लेकिन शाम को जब वह घर लौटती, तो उसको महसूस होता कि मानो उसके पाँवों में मन-मन के बोझे बाँध दिए गए हो और हृदय पर एक भारी शिला रख दी गी हो। कैसी मजबूर और हीनतभरी जिंदगी थी।

उसका रुदन सिसकियों में बदल गया, जिसके थमने पर वह चंदर कीई बातें सोचने लगी और उसको एक अजीब ताजगी और नवीनता का अनुभव होने लगा तथा यह भी कि उसका भी कुछ महत्व है। बादलों की तरह निरुद्देश्य भागते हुए उसके मन को एक ठोस आधार प्राप्त हुआ था। देखते ही देखते सब कुछ उलट-पुलट हो गया और उसके मन में एक प्रबल आँधी चलने लगी। रात में वह चारपाई छोड़कर चुपके से खुली छत पर आ जाती और अंधकार में कुछ तलाश करने लगी। लगातार बरसते हुए पानी को देखकर उसकी आँख भर आती और कुछ ही दिन बाद वह कुछ पूछने के बहाने किताब लेकर चंदर के कमरे में पहुँच जाती और शीघ्र ही इस पूछने और बताने के बीच प्यार का नाटक खेला जाने लगा। अंत में वे छिप-छिप कर मिलने लगे, कभी रात के अँधेरे में और कभी कॉलेज के फाटक पर।

'मेरा साथ दोगी?' चंदर कभी पूछता था।

'मैं नहीं जानती!' तारा शरमा जाती थी।

'नहीं मैं साफ-साफ बातें सुनने का आदी हूँ।'

'दूँगी... दूँगी !'

'मैं दुनिया को दिखा दूँगा...' चंदर गर्व से कहता था। इसके बाद चंदर बहुत ही ऊँचाई से अपना जीवन दर्शन पेश करने आ जाता। उसकी बात 'मेरे विचार में' या 'मैं यह सोचता हूँ' से शुरू होती थी। उसको पूरा विश्वास था कि वह एक महान क्रांतिकारी परोपकार का कार्य कर रहा है, जिसमें अपनी पूर्ण विजय और सर्वोच्चता की बात सोच कर वह सारे समाज को अपने शत्रु के रूप में कल्पना करने लगता। अपने प्यार को लेकर वह निरंतर संघर्ष और लड़ाई की बात सोचता था और इसी लिए तारा को तैयार करना चाहता था।

'तारा, तुमको बड़ी से बड़ी कुरबानी के लिए तैयार रहना चाहिए। तुमको किसी से डरना नहीं है, तुमको अधिक से अधिक परिश्रम करके, अधिक से अधिक पढ़ना है। किसी के सामने आने सर झुकाने की जरूरत नहीं है। मैं सबको देख लूँगा। तारा मुझे योग्य स्वाभिमान स्त्रियाँ पसंद है। तुम्हें मेरे विचारों के योग्य बनना है।'

जाड़ा और गर्मी बीत गई और फिर बरसात आ गई। तारा इंटरमीडिएट पास करके बी.ए. में पहुँच गई। इन कुछ महीनों में चंदर के प्यार और विचार ने उसके जीवन को संपूर्णतः बदल दिया। उसकी आँखों में सदा एक चमक दिखाई देती, जैसे प्रातःकाल पूर्वी क्षितिज का अँधेरा फट जाता है। उसने अपने और जीवन के दोषों को नई दृष्टि से देखा और वह जल्दी से जल्दी चंदर के अनुकूल बनने के लिए उत्सुक हो उठी।

उसके होठों पर सदा एक मधुर और विश्वासपूर्ण मुस्कराहट छाई रहती और वह उत्साह, स्फूर्ति, स्नेह और सद्भाव की मूर्ति बन गई। वह तड़के ही उठ जाती, घर की सफाई-वफाई करके खुद नहाकर अँगीठी जला देती और समय पर नाश्ता करके सबको आश्चर्यचकित कर देती। उसने दूसरों की अन्य आवश्यकताओं पर ध्यान देना शुरू किया। उसने सबके कपड़े प्रेस करने, पिता जी तथा छोटे भाइयों के जूते पालिश करने तथा माता जी के लिए तमाखू चढ़ाने का नियम बना लिया। अब माँ को सवेरे नियमित रूप से पानी भरे लोटे में रखी नीम की दातुन तथा भोजन के समय सबको प्याज और चटनी अवश्य मिल जाती। वह छोटे भाई-बहनों को समय पर उठाकर तैयार करा देती तथा उनको खिला पिला कर पढ़ने के लिए बिठा देती। जब वह कॉलेज जाती, तो उसका मन सदा चंदर के प्यार से पुलकित रहता और वह अपनी सहलियों के सामने भी बातचीत में सदा चंदर के विचारों को ही दुहराती रहती। उसका जीवन एक महान दिलचस्पी, विश्वास एवं प्रतीक्षा में परिवर्तित हो गया था।

एक दिन जब वह कॉलेज से लौटी तो उसकी माँ उसके छोटे भाई पप्पू को गालियाँ दे रही थी।

'माँ, यह ठीक नहीं है', तारा ने कहा

'क्या ठीक नहीं हैं?'

'गालियाँ देना।'

'अरे मेरी भौजी! तू मुझे सिखाने चली है? आओ तो झाड़ू से बात करूँ।'

तारा का मुँह क्रोध से तमतमाने लगा और आँखें चमकने लगी। उसने झनझनाती आवाज में कहा, 'आप मेरे प्रति ऐसी जबान में नहीं बोल सकती।'

'क्या? तेरी यह हिम्मत?'

'मैं अब बड़ी और जिम्मेदार हो गई हूँ। मैं यह सब बर्दाश्त नहीं करूँगी।'

'अरे पप्पू, बुला अपने बाप को!' उसकी माँ चीख पड़ी, 'आने दे उनको, मैं तेरा दीदा नवाती हूँ। बाप रे, यह लड़की हाथ से निकलती जा रही है! ठहर जा, मैं तेरा पढ़ना-लिखना छुड़ाती हूँ और इसी साल तुझे घर से भगाती हूँ...'

'मैं कहीं नहीं जाऊँगी।' तारा ने दृढ़ स्वर में कहा।

'क्या कहा? तू शादी नहीं करेगी?'

'नहीं... नहीं।'

'तो क्या करेगी, छाती पर मूँग दलेगी ?'

'मूँग क्यूँ दलूँगी? मैं अधिक से अधिक पढ़ूँगी और अपने पैरों पर खड़ी होऊँगी। मैं अपनी समस्या खुद हल करूँगी, तुमको चिंता करने की जरूरत नहीं है।'

'पढ़ूँगी!' माँ होठ विकृत करके बोली - 'तू पढ़ेगी क्या, सारे खानदान की नाक कटाएगी! रह, जबान लड़ाने का मजा चखाती हूँ!' उसके बाद उसकी माँ ने पास में रखे एक डंडे को उठा लिया और आगे लपक कर उस पर प्रहार करने लगी। तारा पहले चीखी। इसके बाद काठ की तरह खड़ी होकर मार खाती रही। उसका मुँह लाल हो गया था और आँखों से झरझर आँसू गिर रहे थे। आँसुओं से भीगे हुए होठों में वह बुदबुदाई - 'मार कर तुम मेरी जान ले सकती हो, लेकिन मेरे विचारों को बदल नहीं सकती...'

तारा ने भोजन त्याग दिया। वह पहले की तरह ही सब काम करती रही, लेकिन अन्न को हाथ न लगाती। पहले तो मान जिद में कुछ न बोली लेकिन जब दो दिन बीत गए तो माथा ठनका। इसको पता नहीं इधर क्या हो गया है, कहीं सचमुच जान न दे दे! इसके लक्षण इधर समझ में नहीं आते! देर तक बनाव-श्रृंगार करती रहती है। बातें भी बुजुर्ग की तरह करती है। लड़की को यह सब शोभा नहीं देता है। इज्जत आबरू के साथ दिन कट जाए, यही बहुत है। उसने अब पति से सारी बात कह देना उचित समझा और कह कर स्वयं रोने लगी।

पति ने पहले पत्नी को बहुत फटकारा, फिर वह तारा के पास जाकर बैठ गए। उन्होंने साफ-साफ बात करना उचित समझा। प्रश्न-पर-प्रश्न! तारा पहले हिचाकिचाई। लेकिन पिता ने कहा कि वह पढ़ी-लिखी लड़की है वह उससे साफ-साफ बातें सुनना चाहते है। पिता के स्वर में अपार सहानुभूति थी। तारा अपने को रोक न सकी। उसने सब कुछ बता दिया और उसकी हिचकियाँ बँध गईं।

पिता का चेहरा गंभीर हो गया और वह वहाँ से उठ आए। वह टहलने लगे। चुपचाप। कभी यह लड़की इतनी कितनी छोटी थी और आज बड़ी होकर ऐसी बातें कर रही है। जमाना कितना बदल गया है। क्या ऐसा हो सकता है? काश, ऐसा हो सकता। विभिन्न जातियों के बीच आज शादियाँ होने लगी है, इसमें क्या खास बात है? फिर वह तिलक, दहेज से बच जाएँगे, जिसके लिए कर्ज के अलावा कोई और चारा नहीं है। लड़का बुरा नहीं है। वह देर तक सोचते रहे, फिर भी किसी निश्चय पर नहीं पहुँच पाए, क्योंकि तर्क एवं सच्चाई के सहारे जब वह दो कदम आगे बढ़ते थे, पुराने संस्कार उनके कदम को पीछे खीच लेते थे।

रात में देर तक पति-पत्नी खुसुर-फुसुर करते रहे। बीच में पत्नी रोयी-चिल्लायी। फिर पति देर तक समझाते रहे। स्पष्ट, दृढ आवाज। तर्कसंगत बाते। नए जमाने के विचारों को स्वीकार करने की दलीले। पत्नी का विरोध मंद पड़ने लगा। फिर पता नहीं कब से सब-कुछ खामोशी में खो गया। तारा सारी बातें छिप कर सुन रही थी। जब वे सो गए, तो वह चुपके से पैर दबा कर निकली। खुशी के मारे उसकी देह थरथरा रही थी। चंदर को वह कब यह-सब सुनाएगी? चारों और घना अँधेरा कुंडली मार कर बैठा था। हवा गुमसुम थी, जैसे किसी षड्यंत्र में लीन हो। चंदर अभी सोया नहीं था। खटखटाहट सुनते ही दरवाजा खोल दिया और हाथ बढ़ाकर तारा को अपने पास खींच लिया।

'मैं आज बहुत खुश हूँ।' तारा ने मुस्करा कर कहा। उसकी आँखें प्यार से चमक रही थीं।

'क्या बात है? चंदर ने लापरवाही से पूछा।

'मिठाई खिलानी पड़ेगी।'

'जरूर! अब बताओ।'

'पिताजी राजी हो गए हैं।'

'राजी हो गए हैं? क्या मतलब?' चंदर कुछ समझ नहीं पाया था।

तारा ने विस्तार से सब बात सुनाई। उसके स्वर में उमंग की तेजी और चमक थी। चंदर का चेहरा सहसा फक पड़ गया। उसने अपने को आलिंगन से मुक्त कर लिया और खिड़की के बाहर अँधेरे में देखने लगा। शादी! वह अपने को महान समझाता था और उसकी कल्पना थी कि उसका प्यार महान संघर्ष, महान तूफान और महान कुर्बानी के दौर से गुजरेगा। उसके प्यार की ऐसी साधारण परिणति होगी, ऐसा उसने सोचा भी न था। उसका मुँह देखते ही देखते कठोर हो गया।

'क्या बात है?' तारा डर गई।

'यह धोखा है!' उसने घृणा से मुँह बिचकाते हुए कहा।

'क्या धोखा है?'

'तुम धोखेबाज हो। तुमने शुरू से आखिर तक मेरे साथ धोखा किया है।'

'क्या धोखा किया है, आप बताते क्यूँ नहीं?' तारा ने रुआँसे स्वर में कहा...

'हाँ, किया है। इसी के लिए तुम मेरे पीछे पड़ी हुई थी, पर आज मैं समझ गया कि तुम जीवन में कुछ नहीं कर सकती। तुमसे कोई बड़ा काम नहीं हो सकता।'

'बड़ा काम और कैसे हो सकता है? तारा का चेहरा अपमान से तमतमाने लगा।

'बड़े काम करने के बड़े तरीके होते हैं। उसके लिए बड़े संघर्ष से गुजरना पड़ता है। तुम उनके काबिल नहीं हो।'

'मैं अब समझ गई।' तारा के स्वर में तीखापन था।

'क्या समझ गई?'

'आप मुझे प्यार नहीं करते। आप प्यार कर ही नहीं सकते।'

'क्या मतलब?' चंदर चौंक पड़ा।

'मतलब स्पष्ट है। प्यार की चरम परिणति है शादी, इसी मंजिल तक पहुँचने के लिए संघर्ष और कुरबानियाँ दी जाती है। लेकिन अब यह मंजिल प्राप्त हो जाती है, तो आपको खुशी नहीं होती। इसका अर्थ है कि आपके संघर्ष की बातें जिम्मेदारियों से बचने और स्वार्थ को छिपाने का बहाना है। मैंने तो जीवन के आरंभ से ही संघर्ष किया है, आपने क्या किया? आप भूख जानते हैं? आपको गरीबी, जलालत, घुटन, ऊब, निराशा का पता है? साफ तो यह है कि आपको एक नारी-देह की जरूरत है और जरूरत है अपने अहंकार की तृप्ति की।'

'तुम वाहियात बक रही हो।' चंदर ने घूरकर कठोर स्वर में कहा।

'हाँ, वाहियात बक रही हूँ।' तारा और भी तीखी आवाज में बोली - 'लेकिन आज आपको सब कुछ सुनना पड़ेगा। मैं आपको कितना प्यार करती हूँ यह नहीं बता सकती, लेकिन आज आपकी भी गलत बातों को मैं बर्दाश्त नहीं कर सकती। आपका भी ऐसा ही कहना है। आपके लिए तो मैं बड़ा से बड़ा त्याग करने को तैयार थी, लेकिन इधर मैंने यह महसूस करना शुरू कर दिया है कि आप केवल अपनी बातों को महत्व देते हैं, दूसरों की भावनाओं की आपकी कतई परवाह नहीं। कितनी बार मेरी इच्छा हुई कि आपसे अपने मन की बाते कहूँ...। अपने दुख-सुख की, अपनी कल्पनाओं की, भविष्य की। कई बार मैं कोई अच्छी किताब पढ़ कर आती थी और उसके बारे में आपसे बातें करना चाहती थी, लेकिन आप मेरी हर बात को काटकर अपनी बातें शुरू कर देते थे, वही उपदेश। वही छात्र आंदोलन के अनुभव। आपको दो ही बातों से मतलब है, एक मेरी देह से और दूसरे मुझे उपदेश देने से। मैं मेहनत करूँ, मैं कुरबानी देने को तैयार हो जाऊँ। आप क्या करोगे? आप क्या मेहनत करते हैं? बात तो यह है कि आप सदा हवा में उड़ते रहना चाहते हैं और आज जब जमीं पर उतरने का मौका आया है त्याग करने का समय आया है, तो आप जान बचाना चाहते हैं, इसलिए आप नाराज हैं, अपने लिए मौजपूर्ण गैरजिम्मेदार और दूसरों के लिए परिश्रम, कर्तव्य और जिम्मेदारी, यही आपका जीवन दर्शन है। पर मैं आपसे यह पूछती हूँ कि आपने मेरा जीवन क्यों बरबाद किया? खैर आप यह बात गाँठ बाँध कर रख लीजिए कि मैं किसी की दया पर निर्भर नहीं रहा चाहती।'

अंत मैं अपनी बातें रुदन में बिखर गईं और वह तेजी से बाहर निकल गई।

चंदर कुछ देर तक कमरे में सुन्न खड़ा रहा। ऐसी उम्मीद उसको न थी। कुछ क्षणों के लिए उसको लगा कि तारा की बातें सही हैं। तब वह अपने को बहुत ही छोटा महसूस करने लगा। लेकिन शीघ्र ही उसने अपने को इस भावना से मुक्त कर लिया। अब उसका मुँह क्रोध और घृणा से विकृत हो गया। एहसान करने का यह फल मिलता है! जिसको उसने कीचड़ से निकाला था, वह अब उसी पर प्रहार कर रही है! यह है दुनिया! उसने अँधेरे में थूका और जोर से दरवाजा बंद कर लिया।

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