लछमा/बालिका माँ (अतीत के चलचित्र) : महादेवी वर्मा

Lachhma (Ateet Ke Chalchitra) : Mahadevi Verma

धुल-धुल कर धूमिल हो जाने वाले पुराने काले लहँगे को एक विचित्र प्रकार से खोंसे, फटी मटमैली ओढ़नी को कई फेंट देकर कमर से लपेटे और दाहिने हाथ में एक बड़ा-सा हँसिया सँभाले लछमा, नीचे पड़ी घास-पत्तियों के ढेर पर कूदकर खिलखिला उठी। कुछ पहाड़ी और कुछ हिंदी की खिचड़ी में उसने कहा - 'हमारे लिए क्या डरते हो ! हम क्या तुम्हारे जैसे आदमी हैं ! हम तो हैं जानवर ! देखो हमारे हाथ-पाँव ! देखो हमारे काम !'

मुक्त हँसी से भरी यह पहाड़ी युवती, न जाने क्यों मुझे इतनी भली लगती है।

धूप से झुलसा हुआ मुख ऐसा जान पड़ता है जैसे किसी ने कच्चे सेब को आग की आँच पर पका लिया हो। सूखी-सूखी पलकों में तरल तरल आँखें ऐसी लगती हैं, मानो नीचे आँसुओं के अथाह जल में तैर रही हों और ऊपर हँसी की धूप से सूख गई हों!

शीत सहते-सहते ओठों पर फैली नीलिमा, सम दाँतों की सफेदी से और भी स्पष्ट हो जाती है। रात-दिन कठिन पत्थरों पर दौड़ते-दौड़ते पैरों में और घास काटते-काटते और लकड़ी तोड़ते-तोड़ते हाथों में जो कठिनता आ गई है, उसे मिट्टी और गोबर की आर्द्रता ही कुछ कोमल कर देती है ।

एक ऊँचे टीले पर लछमा का पहाड़ के हृदय पर पड़े छाले जैसा छोटा घास-फूस का घर है। बाप की आँखें खराब हैं, माँ का हाथ टूट गया है और भतीजी - भतीजे की माता परलोकवासिनी और पिता विरक्त हो चुका है। सारांश यह कि लछमा के अतिरिक्त और कोई व्यक्ति इतना स्वस्थ नहीं, जो इन प्राणियों की जीविका की चिंता कर सके। और इस निर्जन में लछमा कौन-सा काम करके इतने व्यक्तियों को जीवित रखे, यह समस्या कभी हल नहीं हो पाती। अच्छे दिनों की स्मृति के समान एक भैंस है । लछमा उसके लिए घास और पत्तियाँ लाती है। दूध दुहती, दही जमाती और मट्ठा बिलोती है। गर्मियों में झोंपड़े के आस-पास कुछ आलू भी बो लेती है; पर इससे अन्न का अभाव तो दूर नहीं होता ! वस्त्र की समस्या तो नहीं सुलझती !

लछमा की जीवन-गाथा उसके आँसुओं में भीग भीगकर अब इतनी भारी हो गई है कि कोई अथक कथावाचक और अचल श्रोता भी उसका भार वहन करने को प्रस्तुत नहीं ।

सभ्यता के शेष चिह्नों से साठ मील दूर स्थित एक गाँव में लछमा का विवाह हुआ था। उसकी ससुराल में बहुत जमीन थी, बहुत खेती होती थी, बहुत गाय, भैंस, बैल पले थे- सारांश यह कि सभी कुछ बहुत था; पर कठोर भाग्य ने अपना व्यंग छिपाने के लिए एक स्थान निकाल ही लिया। उसका पति पागल तो नहीं कहा जा सकता; पर उसका मानसिक विकास एक बालक के विकास से अधिक नहीं हो सका । पागल लड़के की बुद्धिमती और परिश्रमी बहू को सास-ससुर चाह सकते हैं; पर देवर जेठों के लिए तो वह एक समस्या ही हो सकती है, क्योंकि उसकी उपस्थिति में भाई की संपत्ति का प्रबंध करना भी आवश्यक हो जाता है और उसे आत्मसात् करने की इच्छा रोकना भी अनिवार्य हो उठता है।

अनेक अत्याचार सहकर भी जब लछमा ने अपना अधिकार छोड़ने की इच्छा नहीं प्रकट की, तब एक बार वह इतनी अधिक पीटी गई कि बेहोश हो गई और मृत समझकर खड्ड में छिपा दी गई। कैसे वह होश में आई और किस असह्य कष्ट से घसिट घसिटकर खड्ड के पार दूसरे गाँव तक पहुँच सकी, यह बताना कठिन होगा। अपने संबंधियों के अत्याचार के संबंध में उसने एक शब्द भी मुँह से न निकलने दिया, क्योंकि इससे उसके विचार में 'घर की मर्जाद चली जाती। इसके अतिरिक्त अपने मारे-पीटे जाने की बात अभिमानिनी लछमा कैसे बताती ! अचानक बहुत ऊँची शिला से गिरकर चोट खा गई है, इस कल्पित कथा के असत्य में जिस साहस का परिचय मिलता था, वह पीटे जाने की क्रूर कहानी के सत्य में दुर्लभ हो जाता।

मार्ग में तीन दिन तक कुछ खाने को न मिल सका। लछमा हँसकर कहती है- 'जब बहुत भूखा हुआ, तब पीली मिट्टी का एक गोला बनाकर मुँह में रखा और आँख मूँद कर सोचा- 'लड्डू खाया, लड्डू खाया।' बस फिर बहुत-सा पानी पी लिया और सब ठीक हो गया। मृत्यु की वैतरणी पार करके आई हुई लछमा को देख कर जब नैहरवालों ने उसकी ससुराल वालों को दंड देना चाहा, तब लछमा के तीव्र विरोध ने ही एक महाभारत का सूत्रपात रोका।

इस अभागी स्त्री की छाया में मानो दुःख स्थायी रूप से बस गया है। उसके लौटते ही भौजाई ने एक बालिका और एक मास-भर के शिशु पुत्र को उसकी गोद में रखकर चिर काल के लिए विदा ली। टूटे शरीर और फूटे भाग्य के साथ लछमा को जो पूर्ण और स्वस्थ हृदय मिला है, उसी को लेकर उसने यह मधुर कटु कर्तव्य - भार सँभाला; पर वह बेचारी संतान पालन क्या जाने न तो आस-पास किसी छोटे बालक की माता ही मिल सकी और न वह शिशु कटोरे से दूध पीना ही सीख सका। तब लछमा की बुद्धि ने नया उपाय खोज निकाला। वह अनुनय-विनय करके किसी से तेल की बोतल खाली करा लाई और उसमें कपड़े की, बत्तीनुमा कुछ ढीली डाट लगाकर बच्चे को पानी मिला भैंस का दूध पिलाने लगी। ससुराल के अत्याचार से उसकी हड्डी हड्डी ढीली हो गई है। कुछ देर बैठने से रीढ़ का दर्द व्याकुल कर देता है और खड़े रहने से घुटनों में चिलक उठती है । पर उसने बिना किसी की सहायता के रात-रात भर खड़े रहकर, दिन-दिन भर झुके रह कर अपनी भाभी की धरोहर को पाल लिया। और आज तो वह शिशु इतना बड़ा हो गया है कि पालतू पशु की तरह बुआ का मूक अनुसरण करता फिरता है।

पहली बार लछमा को देख कर मेरे मन में उसे प्रयाग लाकर पढ़ाने लिखाने का विचार उठा था; पर प्रस्ताव के उत्तर में लछमा ने केवल अपने जीर्ण-शीर्ण घर की ओर देख कर सिर झुका लिया। उतने प्राणियों को वह किसके भरोसे छोड़ आती ? उस समय आशा थी कि पत्नी वियोग से अव्यवस्थित भाई संभवतः लौटकर अपना कर्तव्य सँभाल ले; पर उस आशा के दुराशा सिद्ध होने पर भी लछमा की उजली हँसी निराशा की छाया से म्लान नहीं हुई । सहज भाव से मुस्कराकर कह देती है कि जंगल में पढ़-लिख कर क्या होगा । यहाँ तो पेड़ पर चढ़ कर लकड़ियाँ और पत्तियाँ तोड़ना आना चाहिए। जब बूढ़े माँ-बाप नहीं रहेंगे और बच्चे बड़े हो चुकेंगे, तब भगवान् उसे संसार में क्यों पड़ा रहने देंगे! फिर उसे अवश्य ही ऐसा जन्म मिलेगा, जिसमें मेरे पास रह कर पढ़-लिख भी सके और कर्तव्य का पालन भी कर सके।

यदि मैं उसे पढ़ाना चाहूँ, तो कम-से-कम दूसरे जन्म तक प्रतीक्षा करूँ, इस विचित्र कथन में यदि कर्तव्य के प्रति इतनी निष्ठा और जीवन के प्रति इतना सरल विश्वास न होता, तो पगली लछमा पर हँसने को जी चाहता।

समता के धरातल पर सुख-दुःख का मुक्त आदान-प्रदान यदि मित्रता की परिभाषा मानी जावे, तो मेरे पास मित्र का अभाव है।

अपने आनंद के प्रकाशन के लिए मेरे निकट कला ही नहीं, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे भी महत्त्व रखते हैं, क्योंकि उन पर भी अपनी प्रसन्नता व्यक्त करके मुझे पूर्ण संतोष हो जाता है। रहा दुःख का प्रकटीकरण - तो उसका लेशमात्र भी, भार बना कर किसी को देना मुझे अच्छा नहीं लगता ।

दूसरे के सुख में एक प्रकार की निश्चितता का अनुभव करके मैं दूर ही रह जाती हूँ और दुःखग्रस्त से मेरे संबंध का आधार वात्सल्य ही रहता है।

पर कँटीली डालियों से छिदे हाथों और पैने पत्थरों से क्षतविक्षत पैरों वाली मलिन; पर हास से उज्ज्वल लछमा के प्रति मेरे मन में सम्मानयुक्त सख्यत्व की भावना ही प्रधान है। वह अपने दुःख में न इतनी अस्थिर है, न हल्की कि उसे मेरे सहारे की आवश्यकता जान पड़े। और अनेक अवसरों पर तो मैंने उसे अपने-आप से बहुत गुरु और ऊँचा पाया है।

लछमा के व्यवहार में भी मुझे एक ऐसी समानता का अनुभव होता है, जिसका अन्य पहाड़ी स्त्रियों में अभाव है। मेरे अपने बीच का अंतर वह अपनी सहज समता से भर लेती है, अतः मुझे उस तक पहुँचने के लिए कोई प्रयास नहीं करना पड़ता ।

मैं अच्छे-अच्छे व्यंजन खा सकती हूँ, यह जानकर भी वह बड़े यत्न से ऐसी वस्तुएँ लाती ही रहती है, जो जंगल में प्राप्य हैं। एक दिन वह छत्ते के मोमी टुकड़ों के साथ हाल का निकाला हुआ शहद लेकर दौड़ी आई और तुरंत खा लेने के लिए अनुरोध करने लगी। मीठा मुझे वैसे ही कम रुचता है, उस पर मधु को देखते ही मुझे मधुमक्खियाँ इस तरह स्मरण आने लगती हैं कि खाना कठिन हो जाता है; पर लछमा के अनुरोध की रक्षा के लिए कुछ चखना ही पड़ा।

वहाँ तो अनेक व्यक्ति मधुमक्खियाँ पालकर मधु का व्यापार करते हैं; पर लछमा न तो मधुमक्खियों को पालने के लिए काठ का बना घर खरीद सकती थी और न उसके घर की दीवारें ही ऐसी थीं, जिनमें ऐसा घर बनाया जा सकता। पूछने पर पता चला कि एक दीवार फट गई है। लछमा को उसकी दरार में मधुमक्खियाँ पालने की इच्छा हुई; पर मक्खियाँ वहाँ पहुँचें तो क्योंकर, प्रतीक्षा करते-करते थककर लछमा मधुमक्खियों को पकड़-पकड़ कर उस दरार में बैठाने लगी। कई बार उनके काटने से उसके हाथ सूज गए कई बार वे उस दरार के संकीर्ण घर को नापसंद कर उठ गईं; पर अंत में कुछ उदार मक्खियों ने वहाँ बसकर बेचारी लछमा को कृतार्थ किया। उन्हीं के छत्ते का पहला मधु वह मेरे लिए लाई है।

एक बार इसी प्रकार मेरे आने के दिन सब जगह घूम-घूमकर, वह मुझे विदा में देने के लिए काले अंगूरों का गुच्छा ले आई थी। भैंस जब दूध देती है, तब कभी काठ की प्याली में दूध, कभी दोने में दही और कभी पत्ते पर मक्खन लिए लछमा दौड़ती चली आती है और गोबर-मिट्टी से गीले पैरों के द्वारा सूखे फर्श पर मटमैले चित्र-से बनाती हुई मेरी चौकी के पास पहुँचकर थोड़ा-सा खा लेने के लिए हठ-भरा अनुरोध करने लगती है। आदि से अंत तक मेरी शिक्षा छात्रावास में रहकर ही हुई है-बीच में घर जाने पर माँ ही खिलाने-पिलाने की विशेष चिंता करती थीं; पर उनका चिंता करना नियम का अपवाद जैसा लगता रहा है, इसी से मैं ऐसी चिंता की अभ्यस्त नहीं हूँ ।

पढ़ना समाप्त करते ही मैंने स्वयं अनेक विद्यार्थियों की चिंता करने का कर्तव्य स्वीकार कर लिया, अतः मुझे हठ कर खिलाने वाले व्यक्तियों का अभाव ही रहा है। लछमा का हठ करना मेरे आरोपित और कल्पित बड़प्पन को दूर कर मुझे फिर बचपन की सहज और स्वाभाविक स्थिति में पहुँचा देता है।

वह अपनी ममता में सरल है। अपने लिखने-पढ़ने में बहुत व्याघात पड़ते देख एक दिन मैंने खिजलाकर लछमा से कहा-‘अब आने पर मैं सामने वाले पहाड़ की सुनसान चोटी पर कुटी बनाकर रहूँगी, जहाँ कोई न पहुँच सके।'

निरंतर सबके भोजन की चिंता करते-करते वह जान चुकी है कि भोजन की समस्या सहज सुलझने वाली नहीं होती और बिना उसे सुलझाए संसार का कोई काम संभव नहीं । निर्जन में कहीं मैं भी इसी समस्या में उलझ कर न रह जाऊँ, यही सोचकर उसने जो उपदेश-गर्भित अनुरोध किया, वह उसी के योग्य था। लछमा की इच्छा है कि जब उसकी भैंस की दो वर्ष की पड़िया चार की होकर दूध देने लगे, तब पहाड़ की ऊँची चोटी पर जाकर रहूँ। तब एक भैंस का दूध बूढ़ा बूढ़ी और बच्चों के काम आएगा और दूसरी का मेरे । वह प्रतिदिन नियम से एक सेर दूध, एक सेर दही, दो-चार आलू और लकड़ी, पानी आदि वहाँ पहुँचा आया करेगी। वह बोलेगी भी नहीं, देखेगी भी नहीं - केवल दरवाजे पर सब कुछ रख कर लौट आया करेगी। फिर जब मेरी मोटी पोथी लिखी जा चुके और मैं अकेले रहते-रहते ऊब जाऊँ, तो 'लछमा !' पुकारते ही वह सौ काम छोड़ कर वहाँ जा पहुँचेगी और सब सामान, यहाँ तक कि कुटी का छप्पर भी ढोकर नीचे ले आवेगी। इस महत्त्वपूर्ण प्रस्ताव के अंत में जब लछमा बड़ी विनीत गंभीरता से मेरे मुख की ओर देखने लगी, तब मैं विस्मय से बोल ही न सकी। एकांत और निर्जन सहज प्राप्य है, मोटे-मोटे पोथे लिख लेना भी कठिन नहीं; पर लछमा जैसा अकारण ममतालु सहायक दुर्लभ ही रहेगा।

लछमा का यह कथन कि उसके पास भाग्य की कमी है, समझ की नहीं, बहुत कुछ सत्य है ।

एक बार मेरा हिमालय का चित्र बनाना देखते-देखते वह बोल उठी- 'सामान मिलता, तो मैं ठीक-ठीक बर्फान उतार देती।' मैंने उपहास के भाव से प्रश्न किया- 'क्या क्या चाहिए ?' लछमा ने कुछ विचित्र भाव-भंगी से जो उत्तर दिया, उसका अर्थ था कि उसे एक बड़ा-सा नीला कागज चाहिए और सफेद और हरा रंग । फिर वह एक बहुत ऊँची चोटी पर किसी समतल चट्टान के ऊपर अपना नीला कागज बिछाकर दिन भर बैठेगी और कहीं दीवार की तरह खड़े, कहीं छप्पर की तरह फैले और कहीं मंदिर के समान कलशदार हिमालय को उतारेगी। नीला कागज आकाश रहेगा, सफेद रंग से बर्फ बनेगी और हरे से देवदार के पेड़ । छोटी लछमा की बुद्धि का इतना विशाल परिचय पाकर चकित होना ही स्वाभाविक था। मुझे सफेद कागज पर बड़े प्रयास से नीला आकाश बनाते देख उसने नीले कागज की बात सोच ली होगी ।

पूछने पर पता चला कि बिना सिखाये ही लछमा को फूल-पत्ती, बेल-बूटे बनाने की इतनी चाह है कि वह अपनी ही नहीं, पड़ोस के घरों की दीवारों को भी गेरू और चावल से गोद चुकी है। उसकी चित्र - रचना में चाहे अर्थ कुछ न रहे; पर बनाने वाली उँगलियों का अपटु परिश्रम और साधनहीनता तो प्रत्यक्ष हो ही जाती है।

इसी प्रकार देखते-देखते वह कुछ-कुछ बुनना भी जान गई है; पर ऊन और सलाइयों के अभाव में बूढ़े बाप के लिए स्वेटर बुनने की इच्छा साकार न हो पाई। दूसरों से उसकी निराशा का कारण जानकर मैंने उसे वे वस्तुएँ मँगवा दीं अवश्य पर यदि सर्दी में पिता की रक्षा का प्रश्न न होता, तो वह उन सब को छोड़कर भाग खड़ी होती, इसमें संदेह नहीं। मुझ पर उसका स्नेह कम नहीं है; पर उस स्नेह को साधन बनाकर छोटे-से-छोटे स्वार्थ की सिद्धि भी उसे अभीष्ट नहीं रही ।

साधारणतः असंख्य असुविधाएँ और विविध अभाव पहाड़ी जीवन में स्वार्थ भावना को बहुत स्थूल और स्पष्ट रूप दे देते हैं; पर लछमा के जीवन को मैंने इसका अपवाद ही पाया।

मुझे उसकी स्वाभाविक हँसी में छिपे आँसुओं को खोजना पड़ता है और उन आँसुओं के नीचे छिपे कारणों का पता लगाना पड़ता है। फिर अंत में, 'हम तो ऐसे ही जंगली हैं, हमें क्या चाहिए', आदि के द्वारा लछमा मेरा सारा परिश्रम निष्फल किए बिना नहीं रहती ।

हृदय से इतनी स्वच्छ लछमा को बाहर से मलिन ही रहना पड़ता है। कभी-कभी तो अपनी मलिनता पर आप ही झुंझलाकर कह उठती है- 'मैं तो इतनी मैली हूँ। मुझे भीतर मत आने दो, बाहर ही रोक दिया करो। देखो तो, सारा का सारा घर कैसा लगने लगता है।' उसके इस प्रकार के उद्गार स्वयं अपने ही प्रति हुआ करते हैं, क्योंकि उनके उपरांत वह मुझे सफाई देने लगती है- 'पाँव तो सवेरे ही मल-मलकर धोये थे; पर आधे रास्ते से भैंस को घास डालने लौट जाना पड़ा। लहँगा तो कल पत्थर पर मोगरी से पीट-पीटकर छाँटा था; पर बच्चे ने मिट्टी भरे हाथ पोंछ दिए । ओढ़नी तो परसों झरने में धोकर सुखाई थी; पर घास बाँधने की रस्सी बीच में टूट गई और इसी से बाँधकर लाना पड़ा।'

न जाने किस युग में लछमा के पास एक काठ की कंघी थी। फिर जब से वह खोई, तब से झरने में धोकर बहुत उलझे बालों को नोचकर फेंक देना ही उसका प्रसाधन हो गया है। मेरे यहाँ एक पुराने काले कंघे का उपहार पा लेना उसके लिए एक असंभावित घटना हो गई। उस कंधे को दराती के साथ कमर में खोंसकर वह पहाड़ के किस-किस कोने में किस-किस झरने की सहायता से शृंगार नहीं करती फिरी, यह बताना कठिन है; पर उसकी विचित्र केश- रचना जनित प्रसन्नता देखकर आँसू आए बिना नहीं रहते ।

शृंगार के असंख्य अभूतपूर्व साधनों से भरी बीसवीं शताब्दी में भी जिस स्त्री के लिए इतनी तुच्छ वस्तु दुर्लभ है, उसके दुर्भाग्य को कौन-सा नाम दिया जावे !

एक बार अन्य स्त्रियों से सुना कि लछमा न जाने क्या धूप-दीप करके उनकी संतान का अमंगल मनाती रहती है। पूछने पर पता चला कि वह संतान का तो नहीं; पर कुछ आँखों का अमंगल अवश्य मनाती है। उसके घर न जाने कब की पुरानी और कीड़ों की खाई हुई दुर्गा की तस्वीर है । सवेरे-साँझ उसके सामने कुछ अंगारे रखकर और उन पर कुछ सूखी; पर सुगंधित पत्तियों की धूप डालकर वह कह लेती है कि जो उस पर बुरी दृष्टि डाले, उसकी आँखें जल कर क्षार हो जावें ।

दूसरों की आँखों का अमंगल चाहने से किसी की पवित्रता की रक्षा नहीं होती, क्योंकि वास्तविक पवित्रता का प्रमाण तो यही है कि मलिन-से-मलिन दृष्टि भी उसका स्पर्श कर पवित्र हो जावे, इस सत्य को समझाना सहज नहीं था; पर लछमा को मेरे कथन के सूक्ष्म भाव तक पहुँचने में कठिनता नहीं हुई । तब से उसके धूप-दीप में अपनी ही नहीं, सबकी कल्याण - कामना रहती है ।

यह पर्वत की कन्या जितनी निडर है, उतनी ही निश्चल। जिस प्रकार अपनी दराती के साथ वह अँधेरी-से-अँधेरी रात में भी मार्ग ढूँढ़ लेती है, उसी प्रकार अपने निश्चय के साथ वह घोर से घोर विरोध में भी अटल रह सकती है।

कुछ वर्ष पूर्व लछमा के जीवित हो जाने का समाचार पाकर ससुराल के कुछ संबंधी उसके अबोध पति को लेकर उसे बुलाने आए। उसने अपने बालक-बुद्धि पति से अनुरोध किया कि वह अपने भाइयों को सब कुछ सौंपकर आ जावे और उसी के पास रहे। वह स्वयं भैंस की गोठ में पड़ी रहेगी; पर पति के रहने के लिए एक लिपी - पुती स्वच्छ कोठरी का प्रबंध करेगी। स्वयं चाहे मलिन दुर्गंधित घास में पड़ी रहेगी; पर उसके लिए गाँव वालों से चारपाई माँग लावेगी। आप भूखी रहेगी; पर रात-दिन मजदूरी करके भोजन का प्रबंध करेगी। लछमा के साथ उसका विवाह हुआ है; अतः उसे वह जीवन भर न छोड़ेगी। पर वह उसके घर नहीं जा सकती, क्योंकि वहाँ लोग उसे मार डालेंगे और उसके माता-पिता, भतीजा-भतीजी भूख से अपने-आप मर जाएँगे ।

संबंधियों ने उसके पति को वहाँ न छोड़ा, क्योंकि उन्हें मर कर जीवित हो जाने वाली मायाविनी बहू की सच्चाई पर विश्वास नहीं ।

लछमा के इस व्यवहार से आस-पास असंतोष की लहर सी फैल गई और वह अनेक प्रकार की चर्चा का आधार बनने लगी।

समाज के मनोविज्ञान का जैसा परिचय समतल में मिलता है, वैसा ही पर्वत की विषम भूमि में । एक पुरुष के प्रति अन्याय की कल्पना से ही सारा पुरुष समाज उस स्त्री से प्रतिशोध लेने को उतारू हो जाता है और एक स्त्री के साथ क्रूरतम अन्याय का प्रमाण पाकर भी सब स्त्रियाँ उसके अकारण दंड को अधिक भारी बनाए बिना नहीं रहतीं।

इस तरह पग-पग पर पुरुष से सहायता की याचना न करने वाली स्त्री की स्थिति कुछ विचित्र सी है। वह जितनी ही पहुँच के बाहर होती है, पुरुष उतना ही झुंझलाता है और प्रायः यह झुंझलाहट मिथ्या अभियोगों के रूप में परिवर्तित हो जाती है। यह स्वाभाविक भी है; क्योंकि जो अप्राप्त है, उसी को प्राप्त प्रमाणित करके हमें संतोष होता है; जो प्राप्त है, उसे प्राप्त प्रमाणित करने की आवश्यकता ही नहीं रहती ।

पर खड़ा हुआ व्यक्ति यदि अपने गिरने की घोषणा सुनते-सुनते खड़े होने के प्रयास को व्यर्थ समझने लगे, तो आश्चर्य क्या इसी कारण, जब तक स्त्री स्वभाव से इतनी शक्तिशालिनी नहीं होती कि मिथ्या पराभव की घोषणा से विचलित न हो, तब तक उसकी स्थिति अनिश्चित ही रहती है।

लछमा में मैंने अविचलित रहने की शक्ति भी देखी और बड़े-से-बड़े अपकार को क्षमा कर देने की उदारता भी । न वह दूसरों की निंदा करके हल्की बनती है और न अपनी सफाई देकर आत्मविश्वास की न्यूनता प्रकट करती है। उसका दर्पण जैसा मन स्वयं ही अपनी स्वच्छता का प्रमाण है। एक बार तो जब एक सज्जन मेरे घर में बैठकर मुझे लछमा के कल्पित दोष गिना रहे थे, तब वह दरवाजे के बाहर खड़ी होकर उन्हें छोटे बच्चों की तरह मुँह चिढ़ा रही थी।

गाँव के बुरे से बुरे व्यक्ति की भी चर्चा चलते ही वह सरल भाव से कह देती है- 'अपने आप रहेगा' उसके स्वनिर्मित शब्दकोष में इसका अर्थ है- 'रहने दो, जैसा करेगा वैसा पाएगा।'

मार्ग में आने-जाने वाले सभ्य जब चरने वाली भैंस और चराने वाली लछमा के साथ एक-सा उपेक्षा-भरा व्यवहार करते हैं, तब वह रुष्ट नहीं होती-उल्टे उनकी सफाई देने लगती है- 'हम तो आदमी जैसे नहीं । वे बहुत अच्छे हैं, फिर हमसे कैसे बोलें, हम भी नहीं बोलते; तुम बहुत अच्छा नहीं करते, क्योंकि हमसे बोलते हो-पर तुम हमसे अच्छा बोलते हो, इसी से हम तुमको घेरते हैं, ऐसे टूटे-फूटे वाक्यों में लछमा का जो तात्पर्य छिपा रहता है, उसे पूर्णतः समझ लेना चाहे सहज न हो; परंतु इतना तो समझ में आ ही जाता है कि उसके अपनी लघुता पर संकुचित हृदय में किसी के प्रति कोई दुर्भावना रखने का स्थान नहीं ।

मेरे आने का दिन लछमा के लिए बहुत व्यथा-भरा दिन रहता है। भैंस दुहकर वह मेरे यहाँ दौड़ आती है। पानी भरकर वह फिर एक चक्कर लगाने चल देती है। बच्चों को रोटी देकर वह फिर एक फेरी दे जाती है। जैसे-जैसे मेरा सामान बँधता है, वैसे-वैसे मानो लछमा के जोड़-जोड़ के बंधन शिथिल होते जाते हैं।

एक मील तक मुझे पहुँचाने का उसका नियम है। मील का दूसरा पत्थर आते ही, जब मैं उसे लौट जाने का आदेश देती हूँ, तब वह खोई सी खड़ी हुई, बार-बार आँखें पोंछकर दृष्टि से ही कुछ दूर तक मेरा अनुसरण करती रहती है।

पहाड़ी राह तो हमारे यहाँ की लंबी-चौड़ी सड़क नहीं है। चार पग चल कर ही कभी दाहिनी ओर मुड़ जाना पड़ता है, कभी बाईं ओर; कभी कोई पेड़ दृष्टि रोक लेता है, कभी कोई शिला-खण्ड। मेरे दृष्टि से ओझल हो जाने पर भी लछमा का आँसुओं से गीला कंठ दूर तक सुनाई देता रहता है - 'सँभाल के जाना-जल्दी लौटना- अच्छा-अच्छा-'

इन दिनों लछमा के सामने भूखे मरने का प्रश्न नहीं रहता। सेब के बाग फलों से लदे हुए हैं। पेड़ों के नीचे गिरे कच्चे और खट्टे सेब वहीं सूख या सड़ जाते हैं, इसी से कोई उन्हें लेने से नहीं रोकता। आज कल किसी भी पेड़ के नीचे बैठकर लछमा सेर-तीन पाव खट्टे और न खाने योग्य सेब गले के नीचे उतार लेती है और फिर दो-दो दिन तक निराहार काम में लगी रहती है।

पर धीरे-धीरे वह जाड़ा आ रहा है, जब धरती के हृदय पर दुःख भार के समान तीन-तीन फुट ऊँची बर्फ जम जाएगी, जब लोग अपने-अपने घर में आग तापते हुए पुरानी कथाओं को नए ढंग से कहेंगे, जब संपन्न और निर्धन सब अपने संचित अन्न के भरोसे प्रकृति की तरल; पर क्रूर क्रीड़ा का उपहास करेंगे, जब कुछ पशु नीचे के गर्म गाँवों की ओर भेज दिए जाएँगे और कुछ सुखाई हुई घास देकर गर्म गोठों में सुरक्षित रखे जाएँगे। और तब विकलांग बूढ़ों, असमर्थ बालकों तथा अरक्षित पशुओं को लेकर लछमा क्या करेगी ?

मुझे उसका कोई समाचार नहीं मिलता, यह सत्य भी है और नहीं भी। वह पढ़ी-लिखी होती, तो पत्र लिखने की सुविधा रहती, यह सुनकर लछमा एक विचित्र भाव-भंगिमा के साथ अपनी अटपटी-सी भाषा में उत्तर देती है- 'हम तो अपने जैसी लिख लेते हैं। एक टीले पर बैठकर सोचते हैं, यह लिखा वह लिखा, यह ठीक लिख गया... वह लिखना अच्छा नहीं हुआ। जब मन में आता है कि चिट्टी गई, तब उठकर खुशी से घास काटते हैं, लकड़ी तोड़ते हैं। क्या हमारा लिखा नहीं पहुँचता ?"

कागज, कलम, स्याही और अक्षरों से शून्य तथा पोस्ट आफिस की सहायता के बिना भेजी गई चिट्ठी की बात सुनकर किसे हँसी नहीं आवेगी !

पर जब सर्दियों में मैं अचानक ही यहाँ के कमरे को छोड़कर उस हिम से मूर्छित पर्वत की ओर जाने को उद्यत हो जाती हूँ, गर्मियों में सभ्य समारोह से मुखरित पर्वतीयसौंदर्य का निरादर कर, उस व्यथा से नीरव हिमानी के कोने में पहुँचने के लिए विकल हो उठती हूँ, तब मुझे निरक्षर लछमा की चिट्ठी नहीं मिलती, यह कौन कह सकता है ?

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