क्या यही प्यार है : मंगला रामचंद्रन

Kya Yehi Pyar Hai : Mangala Ramachandran

वैसे तो पूरा ग्रुप ही बुद्धिमान छात्रों के मेल से ही बना था। याने बुद्धिजीवी छात्र, औसत छात्रों से स्वयं को अलग और श्रेष्ठ माने जाने वाले छात्रों का दल। उस दल में भी कई परतें हैं, जैसे क्रीमी लेयर जो सदा स्वयं को नंबर गेम में श्रेष्ठ साबित करे। मिडिल ऑर्डर याने वो लोग जिन्हें महज कुछ अंकों से क्रीमी लेयर से हटना पड़ा पर फिर भी शामिल होने की पूरी-पूरी संभावना हो तीसरे स्थान पर वो लोग जो भले ही उनको या नंबरों के हिसाब से उन लोगों से कम हो पर लोकप्रियता के हिसाब से बहुत आगे हों। कॉलेज के विभिन्न क्रियाकलापों में भाग लेने वाले ईनाम जीतने वाले और अनेक विधाओं में पारंगत सो विश्वविद्यालय में जाने पहचाने नाम। हालांकि मजाक-मजाक में ही इस तरह की ग्रुपईसम् की शुरुआत हुई और सब उसी तरह हल्के में लेते हैं। पर कुछ ऐसे भी हैं जो स्वयं को बेताज का बादशाह मानते हैं, भले ही रटंत विद्या या अन्य प्रकारों से सबसे अधिक अंक पाने में सक्षम हो जाए।

यश का तो सिद्धांत ही था कि कांसेप्ट क्लियर हो या ना हो, समझ में आए या ना आए बस सारा समय और सारी ऊर्जा बस याद करने में लगा देता। सबसे अधिक नंबर भी ले आता पर उनके सर उसे चेतावनी देते रहते की बिना समझे याद करना कभी ना कभी खतरनाक सिद्ध होगा। पर यश को अपनी याददाश्त पर गुमान था। यहां तक तो ठीक था और साथी उसे बर्दाश्त कर लेते थे। पर उसमें जो सर्वोपरि होने का अहंकार का भाव कूट-कूट कर भरा था उसे सहना सरल नहीं था। कुछ छात्र-छात्राएं स्कूल में भी साथ पढ़े और बाद में विश्वविद्यालयीन शिक्षा भी साथ ही ग्रहण कर रहे सो एक दूसरे के बारे में बहुत कुछ जानते हैं। वैसे भी यामी इन सबमें सबसे स्मार्ट है और सबसे ऑलराउन्डर याने हरफनमौला भी है। उसे संगीत की तमीज़ है तो वाद- विवाद में भी शील्‍ड जितावाने में उसका बहुत बड़ा सहयोग होता है। पढ़ाई में भी तेज पर सारे समय किताबी कीड़ा नहीं बनी रहती।

यामी को यश अपनी अमानत मानता है और अक्सर ही हक जताने से बाज नहीं आता। भले ही कई बार इस कारण उसे हंसी का पात्र भी बनना पड़ता। पर जिस तरह वह अपने पढ़ाई करने का तरीका नहीं बदलता उसी तरह हठ और ज़िद में बंधा हुआ इंसान है। उसके साथी उसे चिढ़ाते कि ‘यश ने कह दिया है तो उसकी मुर्गी की तो तीन टांग ही होगी’।

ऐसा भी नहीं कि रटंत विद्या के कारण वो मुसीबत में नहीं पड़ा। कई बार परीक्षा में वो रटे हुए उत्तर की एक कड़ी भूल कर आगे का लिख ही नहीं पाया। उसको अपनी याददाश्त पर जो गुरूर था वो तब भी कायम रहा। भले ही मार्क्स कम आए या रैंक बहुत पीछे सरक गई हो। ‘अच्छे से समझ कर पढ़ने पर भी तो तुम लोगों के मार्कस कभी कम कभी अधिक नहीं आते हैं क्या?’ - यश बाकी लोगों से कहता। बात एकदम गलत भी तो ना थी। पर बाकी छात्र-छात्राएं बहस में लग जाते कि क्या ठीक है, क्या नहीं है, पढ़ाई का तरीका कैसा होना चाहिए आदि-आदि। पर यामी इन सब बातों में हिस्सा ही नहीं लेती, उसे यह सब व्यर्थ समय गवाना लगता। खींझ कर बोलती – ‘सूत न कपास, जुलाहों में लठ्ठम-लठ्ठा, कितने पागल हो यार तुम लोग। जिसको जैसे पढ़ाई करनी है वैसे करने दो, बिना मतलब की चिलप्‍पों। न आपको कोई रोके ना आप किसी को, सब अपने-अपने मस्त क्यों नहीं रहते।

तभी समीर बोला – ‘अरे हां, आते रविवार को शहर को पर्यावरण और स्वच्छता का संदेश देते हुए साइकिल रैली है। जिसे भी भाग लेना हो अपना नाम व अन्य विवरण लिखवा दें और नियम आदि भी जान लें।

सारे छात्रएक दूसरे का मुंह ताकने लगे कि कौन हां बोले तो वो भी हांमी भरे। पर यामी को किसी ओर की हां की भी आवश्‍यकता नहीं, तुरंत बोली – ‘मैं तो जाऊँगी ही और फॉर्म लेने चली भी गई।‘

कुछ यामी के पीछे गये, कुछ घर जाने की तैयारी में थे और यश कुछ क्रोध और खीझ में। ‘इनके बिना तो जैसे कोई कार्यक्रम सम्‍पन्‍न ही नहीं होगा। हर बात में, हर फालतू की – व्‍यर्थ की बल्कि ‘सिली’ काम में तो इनको पार्टिसिपेट करना ही है। पढ़ाई में फोक्‍स करे तो कक्षा में प्रथम आ जाये।' – कुछ देर यूं ही व्‍यर्थ में बड़बड़ा कर अपनी खीझ को कम किया।

समीर को और अन्‍य सभी के लिए यश का ये रूप नया तो है नहीं। स्‍कूल में भी वो यामी के लिए इसी तरह का बर्ताव करता था, मानों यामी पर मालिकाना हक हो। जबकि यामी उसकी ओर तनिक सा भी ध्‍यान नहीं देती। स्‍कूल से ही यश के मन में एक धारणा सी जम गई थी कि कक्षा का सबसे जीनीयस लड़का वही है और लड़कियों में यामी। यानी यश की जोड़ीदार यामी है। हालांकि मुंह खोल कर, ठीक इन्‍हीं शब्‍दों में उसने इस बात को व्‍यक्‍त नहीं किया, पर जिस तरह से व्‍यवहार करता था उससे बाकी लोगों को समझ आ जाता था। पर उस दिन समीर से रहा नही गया, - ‘बड़बड़ा कर अपना मूड खराब क्यों कर रहा है? तुझे किसी क्रियाकलाप में हिस्सा नहीं लेना है तो मत ले पर बाकी सबके लिए ये कैसे कह सकता है कि व्यर्थ समय जाया कर रहे हैं।'

‘बाकी सबकी बात कौन कर रहा है, मैं तो मात्र यामी की बात कर सकता हूं। ......... यश ने बड़े ठसक से कहा।

‘यामी की भी तो स्वयं की इच्छा-अनिच्‍छा या क्या करना, क्या नहीं करना आदि सोच होगी ना। तू अपने लिए जैसा चाहे वैसा कर और दूसरे को उनकी मर्जी पर छोड़ दे।' समीर ने बड़े सहज स्‍वर में अपनी बात रखी।

दूसरे साथी कैलाश ने भी अपनी राय रखी – ‘हम लोग अब इतने बड़े तो हो गए हैं कि स्वयं निर्णय कर सकें, खासकर खुद के क्रियाकलापों के लिए। यह छ: महिने यू निकल जाएंगे फिर जीवन की राह खुद ही तो तय करनी पड़ेगी। कब तक मां-बाप के पैसों पर रोटी तोड़ेंगे।

तभी एक और साथी बोल पड़ा – ‘अरे यार हम लोगों को तो इतनी उम्र तक माता-पिता उंगली पकड़कर चलाते हैं। मेरी कजिन जो यू एस में है, वह बताती है कि सोलह वर्ष के होते न होते लड़के-लड़कियां पार्ट- टाइम जॉब करके स्कूल और कॉलेज की फीस जुटाना शुरू कर देते है।'

यश ने मुंह बनाते, नाक चढ़ाते हुए कहा – ‘हां, कॉफी कैफे में कुछ घंटे वेटर या वेटरस् बन कर या बाथरूम साफ कर या ऐसे ही छोटे-मोटे काम जिनको हम क्‍भी करना ही नहीं चाहें ................

उसकी बात बीच में ही काटते हुए लता बोल पड़ी – ‘इन श्रम में छिपा हुआ डिगनिटी ऑफ लेबर (Dignity of Labour) तुमको दिख ही नहीं रहा है। जो श्रम करता है उसका आदर करना सीखो। मैं तो कहूँगी हम भारतीयों में झूठा स्‍वाभिमान तो भरा पड़ा है पर सही अर्थों में आत्‍माभिमान तनिक भी नहीं।

तभी यामी और कुछ साथी फार्म भर कर जमा कर आ चुके। और यामी आश्‍चर्य से बाली – ‘तुम लोग अभी तक यहीं हो, मुझे तो लगा था सब अपने-अपने निकल गये होंगे। चलो अच्‍छा ही हुआ, समीर तुम से रविवार की साईकिल रैली की कुछ बात करनी है, चलो साथ चलते हैं।' यश का तमतमाता चेहरा कितना कुछ बता रहा था पर ना यामी का ध्‍यान उधर गया ना अन्‍य सा‍थियों का, मात्र समीर को छोड़ कर।

‘यहीं बात कर लेते हैं, मुझे दूसरे काम भी हैं, मम्‍मी को ऑप्टिाशियन के पास ले जाना है।' – समीर समझदारी से बोला।

’ऐसा करते हैं साथ-साथ तुम्‍हारे घर चलते हुए बात भी हो जायेगी और आंटी से मिलना भी हो जायेगा। वहां से मैं अपने घर चली जाऊँगी। - यामी जितनी सहजता से बोल कर समीर के साथ जाने लगी कि समीर भी आश्‍चर्य करने लगा कि यामी सही में यश के व्‍यवहार को समझ नहीं पाती है या समझ कर भी अनदेखा करती है। एक बात जरूर गौर करने वाली होती कि यामी का व्‍यवहार सभी साथी छात्रों के साथ एक जैसा पारदर्शक ही होती है, बिना किसी लड़के-लड़कियों वाले भेद के। अधिकतर छात्र-छात्रायें उसके साथ आसानी से घुल मिल जाते थे और वो एक तरह से उस दल की प्राणवायु थी। सदैव उत्‍साह से भरी, सचेत सोच रखने वाली जो अन्‍य लोगों को भी सामाजिक रूप से क्रियाशील कर देती थी। एक बंधन मुक्‍त हवा की तरह यूं बहती रहती थी कि स्‍वयं तो प्राकृतिक और सहज रूप से खुश रहती ही थी, आस-पास का माहौल भी स्‍वत: ही प्रसन्‍नता से भर जाता था। इसीलिये उसके सारे साथी उसकी संगत में सहज और मुक्‍त महसूस करते थे।

शायद यश यामी के इस स्‍वच्‍छंद-सरल, दोषमुक्‍त स्‍वभाव की कोमलता और पारदर्शिता को समझ नहीं पा रहा था। बस उसे या उसके मन को जो ठीक लगा उसे पकड़ कर एक अड़ियल टट्टू की तरह कब से जिद्द पकड़ कर बैठा है। कई बार इशारों में, बातों-बातों में यामी का ध्‍यान खींचने की कोशिश की, ‘क्‍यों इन सब के साथ इतना समय, एनर्जी और दिमाग खराब करती है, हम दोनों कंबाईन्‍ड स्‍टडी करें तो कोई मतलब भी है।'

‘हम दोनों, कंबाईन्‍ड स्‍टडी ?’ – कह कर यामी जिस तरह खुलकर हंसती है उससे भी यश ना जाने क्‍यों वो कुछ समझ नहीं पाता या समझना नहीं चाहता। हो सकता है उसने यामी पर मन ही मन मालिकाना हक पा लिया, स्‍वरचित एवं स्‍वयं ही ‘सील’ लगा कर।

‘यश, तुम्‍हारा पढ़ाई करने का तरीका कहीं से भी मेरे तरीके से मेल खाता है क्‍या? वैसे भी यश तुम सिर्फ स्‍वयं की तरफ से कुछ भी सोच सकते हो, सामने वाले की इच्‍छा कभी जानने की कोशिश भी नहीं करते हो स्‍वयं ही उसे भी तय कर लेते हो।' - यामी कुछ मज़ाक कुछ व्‍यंग्‍य के स्‍वरों में बोली।

‘तुम्‍हारे लिए तो मैं तय कर ही सकता हूँ ना, और किसी के लिए थोड़ी ना करुँगा !

यामी ने बीच में ही टोक दिया – ‘क्‍यों, मेरे लिए तुम क्‍यों तय करोगे, मैं अपाहिज हूँ या स्‍वयं के लिए भी सोच नहीं सकती।' - बात के अंत तक पहुँचते हुए यामी तैश में आ गई थी।

‘अरे ये क्‍या बात हुई, जैसे कुछ नया कह रहा हूँ। याद है, स्‍कूल में हमारी जोडि़यां तय हुई थी। लड़कों में सबसे अधिक नंबर मैं लाया था और लड़कियों में तुम, तभी से। .......’

यश रूआंसा सा होते हुए बोला।

‘ओह माय गॉड, स्‍कूल मे, नासमझ उम्र में, खेल-खेल में हुई बात को कोई समझदार व्‍यक्ति यूं ले लेगा, सोच भी नहीं सकती। तुम्‍हे तो पिछली सदी में पैदा होना था। छी: मैं तुम्‍हे सनकी समझती थी पर तुम तो .........’ यामी पैर पटक्‍ते हुए जाने ही वाली थी कि तेजी से पलट कर आई।

‘पिछले सप्‍ताह तुमने पापा-मम्‍मी से क्‍या कहा था, कि यामी को पढ़ाई पर ही सिर्फ फोकस करना चाहिये। यामी न जाने क्‍या ऊल जूलूल बातों में उलझी रहती है और इसमें-उसमें हिस्‍सा लेती रहती है।‘

‘तुम्‍हारे अच्‍छे के लिए ही बोला था, तुम यदि ‘टॉप’ कर सको तो तुम्‍हारे पैरेन्‍टस् को फक्र नहीं होगा क्‍या? ये बताओ तुम भी खुश हो जाओगी ना, अगर ऐसा हुआ तो !’ – यश की आवाज यामी के सामने स्‍वयं ही धीमी होती जा रही थी मानों उससे कुछ गुनाह हो गया हो।

‘यश, इतने वर्षों तक हम सब पढ़े, खेले, कूदे और सबने दोस्‍ती या मित्रता का आनंद लिया हे, सिवाय तुम्‍हारे। तुम मात्र मार्क्‍स और नंबरों के बंधन में बंधे रह गये इसीलिए हम लोगों की तरह सहज, सरल प्रकृति सम्‍मत व्‍यवहार नहीं कर पाये। कक्षा में प्रथम आ जाना ही मात्र लक्ष्‍य नहीं है मेरा। मेरे पैरेन्‍टस् मेरे चहुँममुखी विकास से इतने संतुष्‍ट और प्रसन्‍न है कि तुम्‍हारी बातें सुन कर तो दोनों हंसते रहे।'

यश को समझ नहीं आ रहा था कि वो बोले तो क्‍या बोले या चुप्‍पी ही साध ले। तभी यामी ने कहा – ‘एक और बात गांठ में बांध लो, मैं जिसे भी जोड़ीदार चूनूँगी वो प्रथम तो मेरा सबसे अच्‍छा और वास्‍तविक मित्र होगा। याने मित्रता के नाते दोनों अपने-अपने आसमान के विस्‍तार को नापने और एकसप्‍लोर करने के लिए आज़ाद होंगे और सबसे बड़ी बात, दोनों में से कोई भी दूसरे पर हक नहीं जतायेगा।' यश स्‍वयं को संभालते हुए बोला – ‘हक नहीं यार, प्‍यार का भी तो एक बंधन होता है कि नहीं, दोनो का बांधने वाला।

‘वही आपको बताने जा रही थी कि पहले अच्‍छे मित्र बनेगें तभी एक-दूसरे को ढंग से समझेगें। एक-दूसरे की भावनाओं का इच्‍छा-अनिच्‍छा, पसंद-नापसंदगी का ख्‍याल रखेगें और अपने-अपने क्षेत्र में प्रगति करने का समान मौका देगें तो वो होगा सच्‍चा प्‍यार। एक दूसरे पर हक जताने से नहीं वरन् एक दूसरे का सम्‍मान करना आवश्‍यक है।' – यामी तो अपना गुबार निकाल कर चलती बनी।

यश असंमजस में पढ़ा कुछ समझा, कुछ नहीं और भ्रमित सा खड़ा रह गया।

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