कुत्ते की मौत : मृणाल पाण्डे

Kutte Ki Maut : Mrinal Pande

जब वे उसे लाये थे तो उसकी आँखें बस खुली ही थीं।धुनकी रुई के फाहे-सा गदगदा ललछौंहा पिल्ला, जिसका अपना बदन खुद उसके लिए भी एक अजूबा था। हर एक-एक कदम वह लड़खड़ा-लड़खड़ाकर बढ़ाता था, अपने पंजों की लचक से अपनी देह का भार टोहते हुए। फिर जब कुछ-कुछ झूलते हुए, रेंगते हुए वह हर हथेली में थूथन घुसाकर माँ का स्तन ढूंढ़ने लगा तो अचानक मां को लगा कि वे लोग उसे जल्दबाजी में ही उठा लाये थे। यह बडी खराब आदत थी उन लोगों की। मौके की मुलायमियत से अभिभूत होकर बात की औकात और अपनी जिम्मेदारी की गंभीरता भुला बैठना । आखिर पिल्ले को वे देखने-भर ही तो गये थे। कोई स्टांप लगाके दरख्वास्त तो नहीं दी थी कि ले ही लेंगे, पर जब देख लिया तो कहने में अजीब झेंप-सी लगने लगी कि नहीं लेंगे। हालांकि वे पिल्ले काफी भद्दे थे, सभी । देसी कुतिया के भोंड़े पिल्लों को घर ले जाने को जान-बूझकर लोग उन्हीं सरीखे मूर्खों को बुलाते होंगे। मां मन-ही-मन अपने को कोसने लगी, पिता भी। उन्हीं के से लोगों के सहारे तो माया संसार को बस में किये रहती है, है कि नहीं? जो हर बार जिंदगी के सुथरेपने में अपने-आप बेवजह एक बेहूदी खलबली मचाकर निरीहता से वह बस एक मुहलंत और मांगने लगते हैं, प्यार करने की, तरने की।

"अब क्या खिलाना है इसे?" गाल पर हाथ रखकर वह बोली। पिता बच्चों के साथ घुटनों के बल बैठा निहाल हो रहा था। अपनी सारी झुंझलाहट के बावजूद उसने भी अपने-आपको धीमे-धीमे निहाल होता पाया। यहाँ तक कि अंत में वह भी फर्श पर उकडूँ बैठकर उसे आ-आ करने लगी।

उस सारी रात पिल्ला न खुद सोया, न ही उसने किसी को सोने दिया। जाड़े के दिन थे ।टोकरी में बिछे शाल के बावजूद उसे अपनी माँ की बदन की गर्मायी नहीं मिल पा रही थी। एक पतली आवाज में देर तक कर्णकटु कूँ-कूँ करता रहा, जैसे खूब जंग-खाये पहियोंवाली गाड़ी खेंची जा रही हो और वे सब बारी-बारी से झल्लाते और उसे चुपाने के उपाय सोचते रहे। तभी किसी को याद आया कि उसने पढ़ा था कि अलार्म घड़ी के टिक्-टिक से पिल्ले चुप हो सकते हैं । अलार्म घड़ी लायी गयी । ले-देकर पूरे घर में यही तो एक अलार्म घड़ी थी। मां हर बार यह बात दुहराती थी, जब भी बच्चे उसके करीब से दहलानेवाली तेजी से खेल में मगन गुजरते या पिता उसे चाभी देना भूल जाता। इस बार भी उसने वही बात दुहरायी। तब एक छोटे अंगोछे में लपेटकर घड़ी पिल्ले की बगल में रख दी गयी । कुछ पल वह चुप रहा। शायद घड़ी की टिक-टिक से नहीं, बल्कि उनके सजग सान्निध्य से, पर फिर यकायक रो पड़ा। कींsss उसके हिलने से अलार्म की कोई कल भी हिल पड़ी शायद और क्षण-भर को उसकी 'कीं कीं' के ऊपर घनघनाता कर्कश अलार्म भी बज उठा। तब कुछ हँसते, कुछ खीझते, कुछ झेंपते पिता ने घड़ी हटा ली। इन सारी नेकनीयत, पर बेहूदा और नाकामयाब प्रक्रियाओं से गुजरते-गुजरते सड़क पर दूधवालों की सायकिलों की खटर-पटर भी चालू हो गयी थी।

उफ्, देखो तो सवेरा हो गया है, अब इस बेहूदा बला को हटा ही देना है-माता-पिता ने ऐलान किया, बच्चे चुप रहे, फिर खेलने चल दिये, समझदारी से ।
खेल से घर आते ही बच्चों ने गोली-सा प्रश्न दागा-"इसकी जात क्या होगी माँ?"

"किसने पूछा?" पता चला कि इत्ती की मौसी ने । इत्ती का घर उनके घर से सटा हुआ था। भरी-भरी छातियों वाली औरतों का एक झुंड सदा उसकी बाल्कनी पर मुझे सलवार-कुर्ते में, बगैर दुपट्टे के खड़ा-खड़ा पड़ोस पर गीध-सी खुर्दबीनी नजर गाड़े रखता था। वे इत्ती की मौसियाँ थीं या बुआएँ भी हो सकती थीं, क्योंकि इन सबको वह आंटी बुलाती थी। एक अदद मां भी थी शायद, क्योंकि कभी मम्मी की गुहार भी लगती थी। इत्ती के पिता कनखजूरे-सी पतली मूंछों वाले एक अधगंजे और बेवजह पुलकित रहने वाले इंसान थे, जो खिजाब के बल से जाती जवानी की दुम पकड़े अभी तक लटके हुए थे। हमेशा स्कूटर से उतरकर वे अंग्रेजी धुन गाते हुए सीढ़ी चढ़ते थे। उनसे नमस्ते कहो तो हल्लो कहते थे और माँ को देखकर बड़े अदब से गुडमार्निंग वगैरह भी।

माता-पिता को वे फूटी आँखों नहीं सुहाते थे, वे भी और चपाती-सी छातियों वाली उनके घर की वे औरतें भी, जो निरंतर बुनाई के चीर लहराती हर फेरी वाले के कर्कश स्वर में मजाक और तकरार करती थीं, पर इसके बावजूद दोनों परिवारों में एक सभ्य दुआ-सलाम का नाता बरकरार था। "जात ? अरे कुछ भी होगी।" मां ने किंचित तल्खी के कहा-"कह दो कि देसी है। इसकी माँ माथुर माहब के घर में परच गयी थी, सो उठा लाये ।" और फिर उसने यह भी कुछ रुककर कहा, "दुनिया-भर को पिल्ले की जात-पात की खबर करना भी ऐसा क्या जरूरी है ? जिन्हें जरूरत हो सो बढ़िया नस्ल वाले छाँटके ले आयें, हाँs नहीं तो। अरे, जब लाये हैं तो पालेंगे ही। गृहस्थ के घर में हर किसिम के जीव पलते हैं कि नहीं?"

सो देखते-देखते पिल्ला पल भी गया, नामकरण भी हो गया, लालू। लालू उस्ताद । अपनी छोटी-छोटी भूरी आँख सिकोड़कर वह जब देखता तो सच में गुंडा लगता था।

"क्यों बे, जेल जायेगा?" बच्चे एक लंबी सुतली फहरा रहे थे। वह भी उसे नोंच-नोंचकर खेलने लगा, जैसे हथकड़ी छुड़ा रहा हो। मां ने कहा कि पता नहीं ऐसी भाषा वे कहाँ से सीख आते हैं। खबरदार, पर लालू उस्ताद चोर-चोर खेलते रहे। पिल्ला हिल गया था । और फिर से एक बार उनका निर्णय भी।

ज्यों-ज्यों लालू बढ़ रहा था, उसकी देसी नस्ल भी स्पष्ट होती जा रही थी। गुलाबी और लंबा थूथन, कुछ-कुछ लोमड़ी का-सा चेहरा, झब्बेदार पूंछ, और नीचे को दबे कान। पहले बच्चों ने कहा कि उसके कान खड़े होने लगे हैं, अल्सेशियन की तरह, पर कुछ शोध के बाद पता चला कि वह चौकन्ना होने पर कानों को खड़े करने का आभास-भर देता। दुम तो टेढ़ी रहनी ही थी, रही। एक बात थी, जो कतई छुप नहीं सकती थी, और वह था उसका खौरहापन । या तो कभी उसे किसी सायकिल सवार ने टक्कर मारी थी या फिर किसी ने डंडे से मारा था, क्योंकि एक बार वह लँगड़ाता-सा घर में आया और कई दिनों की दवाई-सिंकाई के बाद ठीक हो पाया।

और इसके बाद वह हर सायकिल सवार या डंडा पकड़े आदमी का पक्का दुश्मन हो गया था । एक बार मां घर में नहीं थी तो एक आदमी देरी तक सड़क से उनकी खिड़की को ताक-ताककर चिल्लाता रहा कि इस कुत्ते की खातिर उन्हें कभी जुरमाना देना होगा, वे समझ लें, राह चलना साले ने मुहाल कर रखा है, वगैरह । अब घर के अंदर लालू सिर्फ रात-गये आता था और अपना खाना खाकर अपनी एक निश्चित जगह पर बैठकर गंभीरता से सो जाता था। और कुत्तों की तरह उससे तुतलाकर बचकाने खेल करो तो वह अपनी पीली आँखें सिकोड़कर हिकारत से हट जाता। खुश होने पर वह खड़ा होकर दुम हिलाता था और कभीकभार मां का हाथ चाट भी लेता था, पर उसके सिर के पास लाल-सुनहरे बालों का जो भंवर था, वहाँ वह किसी को हाथ न रखने देता था। कभी भी। मां को भी नहीं।

बैठकखाने में भी खास दाहिने कोने में एक जगह उसने अपने खास अड़ियल ढंग से हथिया ली थी, मां के प्रतिवादों की ऐसी-की-तैसी करते हुए। एक-दो बार उन लोगों ने उसे वहाँ से हटाना चाहा, पर गुर्राहट से डरकर हिम्मत नहीं हुई। छोड़ो भी, उन लोगों ने आजिजी से कहा, जो भय से उपजती है। मां और बच्चे धीमे-धीमे उससे काफी डरने लगे थे, पर जब हर सुबह वह कुछ देर बारी-बारी से सबके कमरों में जा-जाकर और दुम हिलाकर अपनी पारिवारिक सदस्यता का भावभीना सबूत दे जाता था तो उनकी कमजोरी को यही बहुत होता । “है तो वफादार," हर सुबह, उसे देखकर वे कहते और हर सुबह पिछले दिन का पूरा मनोमालिन्य न जाने कहां गायब हो जाता। प्यार में हार मानने में आदमी से बढ़कर नाकामयाब कोई प्राणी नहीं ।होते-होते घर का कोई सदस्य ऐसा न बचा जिस पर वह खोखियाया न हो। इसके सदा तीन-चार बंधे-बंधाये कारण होते थे-एक तो उसकी नींद में खलल पड़ना; दूसरा, उसके हड्डी चबाते वक्त किसी का पास खड़े रहना; और तीसरा, अगर वह सोफे या तखत पर अपना कोना छाँटकर बैठा हो तो उसे वहाँ से उठाने की किसी तरह की अधिकृत-अनधिकृत चेष्टा। तब एक छन में उसका रुख बदल जाता था-रूप भी। और वह अपने पूर्वज भेड़ियों से हूबहू मिलने लगता था । उसके जबड़े ऊपर सिमटकर तीखे मांसखोरे दांत बाहर आ जाते, आँखों के पपोटे चढ़ने से आँखें सफेद और पुतलियाँ स्याह हो जातीं और गले से एक भीषण घुरघुराहट निकलती, बच्चे तो उसके क्रोध के लक्षणों से इतने वाकिफ हो चले थे कि उसका ऊपरी होंठ सिमटते ही तितरबितर हो जाते, पर अगर कोई नया बाहरी व्यक्ति घर में आया हो तो जोखिम खड़ा हो जाता था। शर्म आती थी, सो अलग। कई लोग जो साफ-सीधी बात कह डालने के अपने ठेठ हिंदोस्तानी गुण से अभिभूत थे, साफ-सीधे ढंग से कह जाते कि ऐसे कुत्ते का बच्चों के घर में पलना ठीक नहीं। कमाल है, पढ़े-लिखे होकर भी-पर इसी 'भी' पर दो साल गाड़ी अटकी रही। मां उसकी गुर्राहट सुनकर भी हर रोज नियमित समय पर रातब देती रही, पिता अखबार पढ़ने वाली अपनी नर्म धूपभरी कुर्सी का मोह त्यागकर बगल की चौकी पर बैठ तकलीफदेह कोणों में अखबार और चाय की प्याली हाँ-हाँ करता संभालता रहा, और बच्चे हर मित्र को लालू के खौरहेपन से आगाह कर, चोरी-छिपे अपने हिस्से के बिस्कुट और मक्खन लगी डबलरोटी उसे खिलाते रहे। लालू अब एक भरपूर कद्दावर कुत्ता था। स्पष्ट और निखालिस रूप से देसी और एक मँझोले ढंग से गठे कड़ियल बदन का ऐंठभरा मालिक । प्रायः गलियों में वह देसी कुतियों के साथ घूमता दीखता था और कभी दो-दो तीन-तीन रात तक गायब भी रहता, पर घर के बिगड़ैल नशाखोर निखट्टू सदस्य की तरह तब भी उसका आबोदाना घर के कोने में पड़ा ही रहता । नाराजगी, डर और प्यार के गड्डमगड्डपने में।

तभी एक दिन लालू ने माँ को काट खाया और सब कुछ जन्नाटे से हिल गया। समय आ गया था कि चीजों के गड्डमड्डपने को दुनियादारी से साफ कर निश्चित किया जाता कि घर में लालू का करना क्या है? हुआ यह कि बरसात के दिन थे और मां अक्सर लालू के कान और गर्दन के पास 'टिक' चिपके देखती थी। छोटे-छोटे खटमल से कीड़े जो कि खून पीकर अंगूर से गोल और नरम होकर झड़ जाते और एक फुड़िया पीछे छोड़ जाते । हिम्मत कर उस दिन मां एक टूटी प्याली में मिट्टी का तेल लेकर बैठी और हाथ से चुन-चुनकर उन्हें निकालती प्याले में डालने लगी । छह-सात तक तो मामला ठीक रहा और माँ जानवरों की देखभाल और घर की सफाई से अपने को जोड़कर कोई गर्वभरी बात कहने ही जा रही थी कि तभी लालू खौखियाकर उठ खड़ा हुआ और माँ के हाथ में काटकर चारपाई के नीचे घुस गया । घाव इतना गहरा नहीं था, जितना कि घटना की आकस्मिक क्रूरता का धक्का । थोड़ी देर मां बैठी रह गयी, फिर दवा की तलाश होने लगी और हाथ धोया जाने लगा। इस सारी हड़बड़ी के बीच पूरे दिनभर लालू उस्ताद गायब रहे और दूसरे दिन सुबह सिर झुकाये घर के भीतर आये और चुपचाप जाकर कोने में पहुँड रहे। मां उसके पास से गुजरी तो पूंछ आदतन दोतीन बार सलूट में हिली और भूरी पुतलियों में मैत्रीभाव-सा कुछ काँपा, पर दिलों में हौल बैठ गया था। कल किसी बच्चे को या पड़ोसी को किया तो?

उस शानदार पशुचिकित्सालय का डॉक्टर झुंझलायी भवोंवाला एक मोटासा शख्स था । उसने पूरा ब्यौरा सुनकर उँगलियों से भीतर को इशारा किया- "मेरी राय में आप इसे खतम करवा दें तो ठीक रहेगा। स्वभाव तो अब इसका दवा-दारू, विटामिन किसी से बदलेगा नहीं। बच्चों का क्या है ! बढ़िया नस्ल का दूसरा ला दीजिए, दो दिन में पूछेंगे भी नहीं कि कहाँ गया। देसी कुत्ता ही तो है। किसी को काटा तो नहीं इधर इसने ?" माँ को स्वीकार करना पड़ा। हाथ में अभी भी पट्टी बंधी थी। छुपाती तो कैसे? डॉक्टर का चेहरा और भी गंभीर हुआ-"तब तो हफ्ताभर इसे देखना पड़ेगा । कहीं 'रेबीज' न हो, वर्ना आपको चौदह सुइयाँ लेनी होंगी। हफ्ते-भर बाद आप फोन करके पूछ लें, अगर 'रेबीज' हुआ तो शर्तिया खुद-ब-खुद मर चुका होगा, अगर नहीं हुआ तो फिर आपकी मर्जी, वैसे पंद्रह रुपये में इंजेक्शन आता है-एकदम बिना तकलीफ के जानवर को मारता है-आप फोन पर बता दें तो बस।" उन्होंने हाथ से खलास का इशारा किया-"बीस रुपये इन आठ दिनों उसके अस्पताल में रहने-खाने के होंगे। आपका फोन नहीं आया तो हफ्तेभर बाद हम खुद इसे खत्म करा देंगे। ठीक ?"

पैतीस रुपये भरकर वे जब घर लौटे तो एक-दूसरे से आँखें चुरा रहे थे। हफ्ते भर के बाद मां ने पिता से पूछा-"क्या फोन किया था उन्हें ?" "हाँ, किया था," पिता ने कहा-"वह जिंदा है, जाहिर है कि उसे 'रेबीज' नहीं है।"
"तब?"

"तब ? तब? तब क्या," पिता ने झल्लाकर कहा। मां ने सोलह साल की गार्हस्थिक समझदारी से मुंह सी लिया और नल के नीचे साग धोने लगी, चुपचाप । उसने अपनी पराजय स्वीकार कर यूँ मूक सहमति दे दी तो पिता अपनी इच्छा से माँ की सहमति आ जुड़ने की शर्म से बौखला गया था । अब वे मुहलत भी नहीं मांग सकते थे।

मरना तो उसे था ही, मरवा दिया, सो ठीक किया। बाल्कनी की औरतों में से किसी एक ने कहा-"अरे कुत्ता हो तो कुत्ते की औकात में रहे। कुत्ता भी आदमी जैसा तुनकमिजाज हो जाये तो हम लोग पालतू बनाकर किसे रखेंगे, है कि नहीं?"