कुत्ते की दुम और शैतान; नए टेकनीक्स (कहानी) : रांगेय राघव

Kutte Ki Dum Aur Shaitan : Naye Techniques (Hindi Story) : Rangeya Raghav


फरवरी
इलाहाबाद के एक पत्र में छपा–
उपसंहार
‘‘कहने के लिए जो कुछ कहा जाए, उस पर विश्वास कर लेना ही तो काफी नहीं।’’ दोनों आँखें उठाते हुए उसने कहा।
चंचल समझा नहीं। उसने फिर कहा, ‘‘पर तुम मेरी बात मानती क्यों नहीं?’’

‘‘मैं यही जानती हूँ कि लेखक अपने बारे में जो कुछ कहता है, वही सब उसके बारे में काफी नहीं होता। लोग उसके बारे में क्या कहते हैं, मैं इसी पर अधिक ध्यान देती हूँ।’’ सुषमा ने चाय में चीनी मिलाते हुए कहा।
चंचल ने सुनकर भी नहीं सुना।
बाहर धूप सुनहरी पड़ गई थी। चंचल ने सामने की ओर इशारा करके कहा, ‘‘झील पर अब कुहरा नहीं है, घूमने चलती हो?’’
‘‘जरूर।’’
चंचल ने जर्किन ठीक की, बालों पर कंघा फेरा और जूते साफ किए। सुषमा ने ओवरकोट पहनकर एक बार आदमकद शीशे में झाँककर देखा और दोनों पहाड़ से उतरने लगे।

ऊबड़-खाबड़ ढोंकों पर सँभलते हुए वे नीचे उतरकर सड़क पर आ गए। सड़क अभी तक बस-स्टैंड के पास गीली थी, झील के फर्न मटमैले-से दिखाई दे रहे थे। मैले और फटे कपड़े पहने पहाड़ी कुली जिंदगी की भयानक कशमकश में दुहरे होकर पीठ पर बोझ ढोते पहाड़ पर जंगलों की ओर चढ़ रहे थे।
सुषमा ने पल भर को भी उधर दृष्टि नहीं टिकाई। कहा, ‘‘वह देखो, बादल उधर मुड़ गया! चलो, राइडिंग करेंगे।’’
चंचल ने सिगरेट सुलगा ली और झील के किनारे की रेलिंग थामकर कहा, ‘‘आज फिर?’’
सुषमा झुँझला उठी। बोली, ‘‘क्यों? आज क्या कोई मुसीबत है? या आपके दिमाग में कोई प्लॉन आ रहा है?’’

चंचल ने सिगरेट का धुआँ एक बार आकाश की ओर छोड़ा और कहा, ‘‘तुम जा सकती हो। जब तक मैं तुम्हारे साथ रहूँगा, तब तक मेरी कला मेरा साथ न देगी। मैं आज तक विश्वास के बल पर जीता रहा हूँ सुषमा! मुझे अपनी रिक्ति से बढ़कर प्यारा कुछ नहीं है।’’
सुषमा ने देखा। आँखों में एक तिक्त व्यंग्य-सा छलका और चला गया। क्षण-भर वह उसे घूरती रही।
फिर चंचल ने देखा। सुषमा घोड़े पर दौड़ी जा रही थी, साईस पीछे-पीछे दौड़ रहा था। फ्लैट के मोड़ तक चंचल की आँखें उधर ही लगी रहीं, फिर वह पेड़ों की ओट में ओझल हो गई।
चंचल ने पानी में कंकड़ फेंका। लहरियाँ दूर-दूर तक फैल गईं।

अंधकार घिरता आ रहा था। झील के किनारे की बत्तियाँ जगमगा रही थीं। पहाड़ों पर बसे नैनीताल के घरों की खिड़कियाँ बिजली की रोशनी से चमकने लगी थीं। झीनी ठंड अब तीखी हो चली थी। चंचल ने देखा, वह अकेला रह गया था।
–सरदार जसवंतसिंह, बंबई


मार्च
पटना के एक पत्र में छपा–

यों तो आजकल कई कहानियाँ लिखी जाती हैं, किंतु सरदार जसवंतसिंह की ‘कुत्ते की दुम और शैतान’ पढ़कर बड़ी राहत मिली। कहानी का अंत बहुत ही जानदार हुआ है। मेरी आँखों में अभी तक चंचल खड़ा है। झील को वह देख रहा है–यहाँ तक कि लगता है जैसे झील एक बड़ी आँख है, जो चंचल को देख रही है। दोनों में हमें बड़ा अजीब-सा अपनापन दिखाई देता है।

सुषमा का चरित्र पारे की तरह का ढुलमुल नहीं है। उसमें स्त्री जाति के उस वर्ग का वर्णन है, जो पुरुष की विशेष प्रसिद्धि के पीछे दौड़ती है और अपने यश की प्यास में यह नहीं देखती कि यश कमाना सहज नहीं होता। उसके लिए त्याग और साधना की आवश्यकता पड़ती है।

हिंदी में देखा जाए तो प्रेमचंद के बाद कोई कहानीकार नहीं हुआ। प्रेमचंद में एक चीज थी, जो अब नहीं मिलती। वह है–एक सुव्यवस्थित कथानक का कहानी में आवश्यक रूप से बना रहना। मैं बड़े संतोष के साथ स्वीकार करूँगा कि सरदार के कथानक में एक व्यवस्था है और आश्चर्य यह कि नितांत साधारण होते हुए भी घटना अपनी छाप छोड़ जाती है।

यथार्थ के दृष्टिकोण से हम यही कह सकते हैं कि आज जिस सीमित दायरे में मनुष्य को बाँधा जा रहा है, वह युग-युग का साहित्य नहीं बनने देगा। राजनीति ही सब कुछ नहीं हो सकती। मैं जानता हूँ, सरदार की कहानी की तुलना मैं समरसेट मॉम की किसी कहानी से नहीं कर सकता, परंतु जहाँ तक वातावरणपरक (ऐटमॉस्फेरिक) कौशल है, उसमें लॉर्ड डन्सनी से कम ताकत नहीं है।

कला प्रचार ही तो नहीं है। वह तो मनुष्य की इकाइयों को जुटाती है, पाठक अपने बल से ही रचना से साधारणीकरण करे, तो ही हम विकास के पथ पर हैं। हमारा युग लघुता का युग है और विराट् सृष्टि के क्षेत्र में इस लघुता का जो नया सामंजस्य है, वह एक ओर सुषमा की उपेक्षा में है, तो दूसरी ओर चंचल की अतृप्ति में, जिसमें उपेक्षा निरासक्ति की सीमा तक पहुँच गई है।

सरदार जसवंतसिंह ने इधर कई कहानियाँ लिखी हैं और यदि वे शिल्प की ओर और थोड़ा ध्यान देते तो अवश्य वे उपन्यासकार लायन फ्यूकवेंगर का-सा सजीव चित्रण करते। अमेरिका में जो सार्त्र का अस्तित्ववाद अपना प्रभाव डालते-डालते रह गया, उसका कारण यही था कि यौन विकृतियाँ वहाँ अभी उतनी नहीं फैल सकी हैं–मेरा तात्पर्य सांस्कृतिक उपचेतन के स्तर से है–जितनी फ्रांस में, जिसका बाह्य आपको पियरे लुई की ‘किंग पॉसौल्स एडवेंचर्स’ में मिल जाएगा। हिंदी में भी कृतित्व होगा और वह दिन दूर नहीं है, जब अच्छी कहानियाँ लिखी जाएँगी। उस समय लोग यह देखेंगे कि सरदार की कहानी उन कहानियों में से थी, जिसने नए रास्ते की तरफ मोड़ लिया।
–वामन पांडुरंग चरमरकर, पूना


कलकत्ता के एक पत्र में छपा–

कल ही एक महिला ने मेरे पास एक पत्र भेजा था। महत्त्वपूर्ण समझकर इसे आपके पास भेज रहा हूँ, क्योंकि इसमें एक साधारण पाठिका का स्वर है। हमारे दिग्गज लेखक अपने गुरुत्व में बैठे हैं, साधारण पाठक-पाठिकाओं का कोई ध्यान नहीं रखा जाता। सरदार की कहानी पर ध्यान देना आवश्यक है। पत्र यों है, संदर्भ-वाक्यों को उद्धृत करता हूँ–
अभी सरदार जसवंतसिंह की ‘कुत्ते की दुम और शैतान’ कहानी पढ़ी।

कहानी क्या है, जी हुआ, पत्रिका को जला दूँ। बारह आने और आठ घंटे का खून था। अच्छा होता, मैं इसे खरीदकर पढ़ने की बजाय सिनेमा देख आती।

यह आधुनिक युग! और उसमें एक स्त्री को सारी स्त्रियों का प्रतिनिधि बनाकर इस तरह ‘पेंट’ करना! पता नहीं किस तरह इस ‘पैट्रिआर्किकल सोसायटी’ के ‘ट्रेडीशंस’ को ‘रिप्रेजेंट’ करती है यह! जैसे स्त्री का कोई चिंतन नहीं, कोई अस्तित्व ही नहीं!! लेखक इस पर जरा भी जोर नहीं देता कि चंचल में पौरुष नहीं! घोड़े पर चढ़ते डरता है, बस सिगरेटें फूँकता है! और काम क्या करता है कि झील को देखता रहता है!

मैं तो कहूँगी कि शायद वह सरदार जसवंतसिंह जैसे तृतीय श्रेणी के लेखक का प्रतिबिंब है, जो शायद ही कभी कुछ पढ़ने योग्य लिखते हों। वैसे मैं तो नाम देखकर ही उनकी कोई चीज नहीं पढ़ती, क्योंकि वह पढ़ने योग्य होगी भी क्या?

पर तुर्रा देखिए कि लेखक किस तरह चंचल से सहानुभूति और पक्षपात दिखाता है! वह चाहता है कि सुषमा सिर्फ यही ज्यों का त्यों मान ले कि जो चंचल अपने बारे में कहता है, वही ठीक है। क्यों माने वह? आजकल भी क्या मान जाने की विवशता कायम रह सकती है? गस्ताव फ्लॉबेअर, डिकेंस और दोस्तोएवस्की को पढ़ने वाले बिना तर्क के कभी भी कैसे स्वीकार कर लेंगे कि आज की कहानी का आयाम पहले से भी छोटा हो गया है? सरदार की कहानी की इनसे तुलना करने पर ही कला का दायित्व प्रकट होता है।
यों तो पत्र और भी हैं, पर इत्यलम्।
–जगभूषण मतवाला, नागपुर


बंबई के एक पत्र में छपा–

सरदार जसवंतसिंह प्रगतिशील लेखक कहलाते हैं, लेकिन प्रगति यदि ‘‘भाभीवाद’ और ‘प्रियावाद’ है तो वह कैसी प्रगति है, यह हमारी समझ में नहीं आता।

दोब्रोल्युवस्की और बेलिन्स्की के युग में जो कला का रूप था, वह प्लेखेनॉक के युग में बदल चुका था। यहाँ मैं साफ कर दूँ कि लेनिन ने जो प्लेखेनॉफ के विषय में लिखा है, मैं उससे पूरी तरह सहमत हूँ, भले ही मुझे मार्क्स का ऐंगिल्स को लिखा हुआ वह पत्र याद है जिसमें उसने कहा है कि कला का स्थायी मूल्य भी होता है।

हाल में जो माओत्से तुंग ने कला और रूप के बारे में लेख लिखा है, उससे वह भ्रम भी दूर हो जाता है जो ल्यूकस को हुआ था। ल्यूकस की वर्गचेतना ने वही किया, जो बुर्जुआ देशों में लाइसैन्को के विरुद्ध हुआ है। कॉडवेल ने इस सुपरमैन थिअरी की जैसी काट की, वह ‘संतवादियों’ की हलकी चप्पलों को युग के सर्वहारा के भारी बूटों के सामने नहीं ठहरने देंगी।

तो सरदार की कहानी इस दृष्टि से देखने पर भले ही बाह्य रूप से इब्सेनियन प्रतीत हो, किंतु मैं उसे हास्य की एक विकृति मात्र कहूँगा। क्योंकि यदि आप कहानी के अंतिम अक्षर से प्रारंभ तक पलटकर लिखते जाएँ, तो आपको ‘प्रयोगवाद’ का नया स्थिर रूप मिल जाएगा।

मैंने, कुछ दिन हुए, राष्ट्रीय जागरण का जो रूप देवकीनंदन खत्री की ‘चंद्रकांता संतति’ के इंद्रदेव और भूतनाथ के संघर्ष में दिखाया था, उसी से स्पष्ट हो जाना चाहिए था कि नई कहानी का रूप क्या होना है। मैं बहुत दिन से कहता रहा हूँ कि हमें प्रेमचंद की विरासत चाहिए, वही हमारे आंदोलन का रूप आगे बढ़ाएगी। यहाँ मैं आपको बता दूँ कि कला में वस्तु-विषय की समानता से प्रायः सार्वकालिक और सार्वजनीन रूप से हमारी करोड़-करोड़ मजदूर-किसान जनता को एक जैसा रूप मिलता है।

मुझे जो चीज बहुत पसंद है, वह यह कि प्रेमचंद और गोर्की की मूँछें बिलकुल एक-सी ही लगती हैं। महामानव निराला यदि मूँछें रखते और जरा सौम्य आकृति से फोटो खिंचाते, तो शायद वे भी उतने ही प्रभावशाली लगते। वैसे उनका व्यक्तित्व वे ही लोग जानते हैं, जिन्होंने उनके पास रहकर देखा है कि वे कितने जोर की चपत लगाते हैं। पंजा लड़ाने में तो साहित्य-क्षेत्र में उनका कोई मुकाबला ही क्या करेगा। वे ढुलमुल, स्त्रियों की तरह बनने वाले, सरकारी नौकरी जो कि ऊर्ध्वचेतना की आड़ में एक हाथ में कामशास्त्र और दूसरे में दर्शनशास्त्र लिए फिरते हैं, वे यह सब क्या कर सकते हैं?

मुझे इस पर याद आया कि मेरे एक मित्र हैं, जो देखते भी हैं। और नहीं भी देखते, और जब नहीं देखते तब देखते हैं और देखते समय नहीं देखते। किंतु समय आ गया है कि अब यदि उद्जन बमों का साम्राज्यवादियों को इतना घमंड है तो वे समझ लें कि जनशक्तियों के पास भी काफी बम हैं, जो इन शोषकों को दूर से ही खत्म कर सकते हैं।

और हमारी भारतीय जनता, विशेषकर हमारे हिंदी क्षेत्र की, यह पुकार-पुकारकर कहना चाहती है कि कांग्रेस को वह वोट देती है तो इसका यह मतलब नहीं कि वह प्रगतिशील ताकतों की तरफ नहीं है। वह है इधर ही, भले ही आज वह कुछ हद तक प्रतिक्रियावादियों की असलियत खोल देने को उन्हें समय दे रही है। केरल का सबक काफी है कि वह भारतीय च्यांग काई शेकों का तख्ता हिला डाले। वही बताता है कि रूसी साहित्य इसलिए नहीं कि उसकी आलोचना की जाए। हमें तो उससे कुछ सीखना है।

सरदार की कहानी में मुझे यह तार मिला। किंतु फिर भी उनका मित्र होने के नाते मैं कहूँगा कि यशपाल की यौन प्रवृत्ति (मेरा मतलब उनके साहित्य की प्रवृत्ति से है) अभी उनमें बाकी है। उसे दूर होना है। कला जनता में पलती है, जिसे स्तालिन ने प्रकट किया था। यह और बात है कि खुश्चेव और अन्य सोवियत नेताओं ने इसके बारे में बुर्जुआ संस्कारों के कारण गड़बड़ पैदा की है। उसका इलिया एहरेनबुर्ग ने स्पष्ट उत्तर दिया भी है कि संस्कार नाम की मनुष्य में कोई चीज नहीं होती, केवल समाज-संसर्ग होता है। और क्रांति के लिए आवश्यक है कि हम अपने दिलों को टटोलें, प्रतिक्रियावादियों के भेजों को टटोले। सरदार की कहानी उसी ओर इंगित करती है।
–रणछोड़दास, तुलसीदास के आँगन की कुटी, लखनऊ


अप्रैल
पूना के एक पत्र में छपा–

यूरोप का सांस्कृतिक ह्नास हमारे सामने यह प्रश्न लाकर खड़ा करता है कि व्यक्ति का विकास किस प्रकार हो? यह सर्वनाशी दानव, जो यांत्रिकता में व्यक्तित्व को घोंटकर एकदम सारे विकास को वनौकस यूथों की आदिम बर्बरता की ओर लौटाकर ले जाना चाहता है, जो दमन, आतंक और विद्रूप की सहायता से व्यक्ति की लघुता को ही उसकी स्थायी चेतना बनाकर खरल में डालकर घोंटते रहना चाहता है, वह केवल सरकारी मोल बिके चेतनाहीन लेखकों या उन केंद्रच्युत रेखाओं जैसे मानसों को संतोष दे सकता है, जो हर प्रकार से इस बर्बरता को सहायता देकर मूल प्रश्न को दूर रखना चाहता है। हम लोग, जो कि गुट नहीं बनाते, यह कह सकते हैं कि सारी साहित्य चेतना हमारे पास है, और वह आगे ले जाने वाली है। जो इसे नहीं मानता, वह गलत है और उसके दृष्टिकोण को मानने वाला है, जो संघ का रूप धारण करके नए आयामों को रोकता है।

सरदार जसवंतसिंह की ‘कुत्ते की दुम और शैतान’ को लेकर जो गलत प्रचार किए जा रहे हैं, वे सत्य से कितनी दूर हैं, इसे पढ़कर आश्चर्य होता है। इलियट जैसे भोज और हिंदी में उसके गंगू की बात मैं क्या कहूँ, परंतु अखाड़िए लोग उस कहानी को जो रूप दे रहे हैं, वह वास्तव में विचित्र है। कहानी अपने आप में पूर्ण है, उसका अपना त्रिकोणात्मक आयतन है, जो भले ही कोर्स की ही किताबें पढ़ाने वाले या सरकारी इनामों पर पलने वाले या गुटबंदी करके सरकारी पदों पर किसी तरह घुस बैठने वाले लोगों को पसंद न आए, लेकिन उसमें तीखा व्यंग्य है।

कला नया जीवन चाहती है। सरदार की पुरानी बोतल में नई शराब है। साधारणीकरण का अब पुराना राग अलापना व्यर्थ है। लेखक ही ऐसी मुश्किल क्यों उठाए? नए युग में पाठक को ही अब लेखक की कृति से साधरणीकरण करना होगा, अन्यथा वही भाव, वही चित्रण लेकर लेखक क्या बँधा बैठा रहेगा? पाठक को भी अपना विकास करना पड़ेगा। सरदार की कहानी में यद्यपि इसका पूर्ण निर्वाह नहीं है, फिर भी अपनी सारी कमजोरियों के बावजूद वह ध्यान देने लायक है। उसे लोग चाहे गिराना चाहें, परंतु हम जो गुटबंदी को स्वीकार नहीं करते, इस झगड़े से दूर रहकर ही साहित्य की सतपरंपरा का निर्वाह करना चाहते हैं।
–राजेश्वर गुरुनाथ तवक्कले, इलाहाबाद


जबलपुर के एक पत्र में छपा–

अभी आपका पत्र मिला। सरदार की कहानी पढ़ी। उस समय मेरे साथ वहाँ अन्य कई प्रतिष्ठित साहित्यिक भी थे। कहानी की चर्चा चल पड़ी।

श्री क्षेमराज हिंदी के गण्यमान्य ऋषि हैं। उनके विषय में गांधीजी के एक परम सुहृद् ने कहा भी है कि जब-जब क्षेमराज जी की कहानी पढ़ी, तब-तब उन्हें यही लगा कि टॉल्स्टॉय की आत्मा बोल रही है। तो क्षेमराज जी से इस कहानी पर बातचीत हुई। उन्होंने पढ़ी तो नहीं थी, पर उनकी राय का साहित्य में मान होना चाहिए। मैंने उसी समय उसे लिख लिया। क्योंकि यह राय क्या दर्शनशास्त्र का एक टुकड़ा है; आपको भेजता हूँ–

‘कहानी क्यों लिखी गई? क्योंकि शायद कहने को कुछ था नहीं। होता तो वह नहीं लिखी गई होती। कलाकार अभिव्यक्ति कब करता है? जब उसका व्यक्तित्व युद्ध चाहता है। युद्ध? किससे? औरों से? नहीं। और यानी आप! आपका यहाँ तात्पर्य किससे होगा? उस शांति से जो मनुष्य में होते हुए भी नहीं है। सरदार जसवंतसिंह ने कहानी लिखी है और जो मैं कहूँ, नहीं लिखी है, तो? लिखते सब हैं, मगर लिखता कौन है? सरदार नहीं लिखते। मैं नहीं लिखता। कला अभिव्यक्ति नहीं, दुराव है। किससे दुराव? गति से। तो गति ही जब फल है तो कोई करे भी क्या?’’

मेरी अपनी राय यह है कि कहानी ठीक ही है। और अच्छी होती तो मैं उसे और श्रेष्ठ कहता। वैसे ठीक है। प्रेमचंद के बाद के अकाल के नए पौधों में उसका विशेष स्थान है।
–परशुराम त्रिपाठी, बनारस


बनारस के एक पत्र में छपा–

आपके पत्र में सरदार जसवंतसिंह की ‘कुत्ते की दुम और शैतान’ छपी। मैंने यही प्रयत्न किया कि उसे भी उस सारे साहित्य जैसा समझूँ जो नित्य कूड़े-करवट के रूप में हिंदी की पत्र-पत्रिकाओं में छप रहा है, परंतु उसकी इतनी चर्चा हुई कि मुझे बाध्य होकर पढ़ना पड़ा। किंतु पढ़कर इतनी अधिक निराशा हुई, जितनी शायद बिना पढ़े हुए साहित्य के प्रति भी नहीं है।

क्यों लिखते हैं लोग? कोई उद्देश्य है सामने? जनता को मिलता है कुछ? लेखक का व्यक्तित्व किन साधनों में से निकला है, जो वह कुंदन दे सकेगा? आरामकुर्सियों पर बैठकर कहानियाँ लिखना फैशन है तो जनता से संपर्क ही कहाँ है?

मैं कुत्सित समाजशास्त्रियों की बात नहीं करूँगा, क्योंकि वे हर चीज को रूस का चश्मा लगाकर देखते हैं। इतना ही कहूँगा कि उस कहानी में नयापन है, मगर उसमें गहराई की कमी है, और इसीलिए उसमें वह चेष्टा नहीं है जो हमें आगे ले जाए, उदास बना सके। और मैं क्या कहूँ?
–श्रीधरसिंह पांडेय, आगरा


दिल्ली के एक पत्र में छपा–
किसी कहानी की कितनी प्रशंसा की जाए, यह एक विचारणीय प्रश्न है।

हिंदी में यह रोग हो गया है कि लोग या तो साहित्य पढ़ते नहीं, या पढ़ते हैं तो फिर अपनी-अपनी डफली, अपना-अपना राग छेड़ देते हैं। मैं उनमें नहीं, क्योंकि मुझे राग से ज्यादा डफली प्यारी है।

अभी आचार्य भगवतप्रसाद जी शर्मा से वर्तमान साहित्य पर बातें हुई थीं। वे उसी समय राष्ट्रपति से मिलकर आए थे। उन्होंने हँसकर कहा कि ‘गुरुदेव कहा करते थे कि नए लेखकों को उनकी राह पर स्वतंत्र छोड़ना चाहिए, क्योंकि बुद्धि किसी एक पीढ़ी की नहीं होती। गुरुदेव महामानव थे और उनकी बात आज क्या सदैव लागू होगी। सरदार जसवंतसिंह में प्रतिभा है, तो वे अवश्य बढ़ेंगे, उन्हें कौन रोक सकता है?’’

परंतु मैं यही कहूँगा कि कहानी कठिन बला की वस्तु है। किसी भी रचना को इतना तूल देना ठीक नहीं। आजकल हिंदी में डॉक्टरों की भरमार है, और जो कुछ भी लिखने लगता है, हमें मर्यादा से काम लेना चाहिए। अभी एक सज्जन का लेख पढ़ा कि कहानी बहुत रद्दी है, मगर मैं ऐसा नहीं कहूँगा। विद्वेष की दृष्टि से नीचे गिराना ही ध्येय हो तो सरदार ही क्या, कालिदास को भी नीचे गिराया जा सकता है।

कहानी मैंने सरसरी निगाह से पढ़ ली है, शास्त्रीय दृष्टि से नहीं। उस दृष्टि से पढ़कर उसके बारे में फिर लिखूँगा। आपका पत्र जिस लगन से साहित्य की सेवा कर रहा है, उसका अभिनंदन करता हूँ। मेरी ओर से सरदार जसवंतसिंह बधाई स्वीकार करें।
–डॉ. रघुनंदनसिंह, पटना

पुनश्च : इस कहानी में सर्वोदय विचारधारा का जो प्रभाव मिल रहा है, वह मुझे हिंदी में एक नए मोड़ की तरफ ले जा रहा है। मेरा विचार हो रहा है कि नई कहानी पर मैं एक निबंधमाला लिखूँ और उसमें विभिन्न विचारधाराओं का सांगोपांग विवेचन करूँ। हम सब शायद एक ही लक्ष्य की ओर खिंच रहे हों। हमें भरतमुनि से लेकर पंडितराज जगन्नाथ तक के काव्य-रूपों का अध्ययन करके उनका पाश्चात्य चिंतन से तुलनात्मक अध्ययन करना है। आप लिखें।
–डॉ. र. सिंह


जून
इलाहाबाद के उसी पत्र में छपा–
संपादकीय

हमारे पत्र में इधर जसवंतसिंह जी की ‘कुत्ते की दुम और शैतान’ कहानी छपी थी। उसके संबंध में हमें काफी गण्यमान्य लेखकों की सम्मतियाँ प्राप्त हुईं। वे सब हमने ज्यों की त्यों छाप दी थीं।

हमारा सिद्धांत यह है कि हम हर लेखक की विचार-स्वतंत्रता का सम्मान करते हैं और यही हमारे जीवन-दर्शन का मूलभूत आधार है। किसी कहानी की इतनी चर्चा हो, और वह भी जो हमारे पत्र में छपी हो, यह स्पष्ट प्रकट करता है कि हमारा पत्र कहानी को निरंतर आगे ले जा रहा है। शीघ्र ही हिंदी में भी टॉल्स्टॉय, गोर्की, मोपासाँ और बाल्जाक जैसे लेखकों का उदय होगा। हमारे एक मित्र का तो यहाँ तक कहना है कि सरदार में हरिश्चंद्र की चुटीली चोट है, तो मायकोव्स्की की कसक। सरदार सिनेमा क्षेत्र में भी खूब लिखते हैं, इससे हिंदी का नाम बढ़ेगा।

सरदार साहब बहुत लिखते हैं और इसीलिए मेरी अपनी राय है कि वे कुछ ढीले पड़ जाते हैं। उनकी यह कहानी अच्छी बन पड़ी है। वैसे कमियाँ इसमें भी हैं, पर मैं कहूँगा, अब वे शायद ही ऐसी कहानी लिख पाएँगे। शायद ही क्यों, बल्कि यही कहना ठीक होगा कि नहीं ही लिख पाएँगे। वे वैयक्तिक समस्याओं में समाज के संघर्ष को भूलते जा रहे हैं और इससे उनको ‘मुक्ति’ या ‘मोक्ष’ भले ही मिल जाए, किंतु कला का निश्चय ही हास हो जाएगा।

१०
जुलाई
इलाहाबाद के उसी पत्र में छपा–
संपादकीय

गत अंक छप चुका तब सरदार जसवंतसिंह का पत्र आया। उसे नीचे दे रहे हैं। आशा है, इससे पाठकों को नई रोशनी मिलेगी और आलोचकों को भी।
प्रिय भाई,

जनवरी में आपका एक पत्र कहानी के लिए आया था। मैं उस समय अपनी फिल्म के एक जरूरी काम से लोणावाला जा रहा था। मेरे क्लर्क उस दिन आए नहीं थे, इसलिए मैं अपनी श्रीमतीजी से कह गया था कि क्लर्क से कहकर मेज पर रखी कहानी आपको भिजवा दें।

दोपहर के करीब बारह बजे मेरे क्लर्क जब मेरे घर पहुँचे तो श्रीमतीजी ने उन्हें कहानी भेजने की बात बताई। दुर्भाग्य से उन्होंने मेरी एक अधूरी कहानी आपको भेज दी, परंतु वह कहानी भी काफी प्रभावोत्पादक रही।

मेरे पास कई पत्र आए हैं जिनमें कई युवकों ने प्रतिज्ञा की है कि जब तक वे प्रसिद्ध नहीं हो जाएँगे, तब तक विवाह या कोर्टशिप भी नहीं करेंगे। मश्कजी की राय से मैंने इस कहानी का ध्वनिनाटक रेडियो में भेजा, वह स्वीकृत हो गया, और अब इसी को बढ़ाकर उपन्यास लिखा, वह भी स्वीकृत हो गया। प्रकाशक महोदय ने कोर्स में लगवाने के लिए इसका एक संक्षिप्त संस्करण भी मुझसे तैयार करवाया है।

मैं कह सकता हूँ, यह कहानी विश्व साहित्य में रखी जा सकती है। हिंदी में आलोचक अच्छे पढ़े-लिखे लोग नहीं, वर्ना गुलेरीजी की तरह मुझे यही कहानी अमर करने को काफी थी। हाँ, मैं बड़ा आभारी होऊँगा यदि मेरी उस अधूरी कहानी का शेषांश भी छाप दें। शेषांश साथ में ही नत्थी है।
भवदीय
–सरदार जसवंतसिंह
शेषांश–

उसका जी किया कि वह फूट-फूटकर रो उठे। अब उसका सहारा ही कौन था? क्या यही था स्त्री का प्रेम? उसके मन में आ रहा था कि वह कमरे में जाकर अपनी लिखी हुई कॉपियों को फाड़-फूड़कर फेंक दे।

धीरे-धीरे चारों तरफ सन्नाटा छा गया था। रात का एकाकी विरही पक्षी पुकार उठा। आवाज चंचल के रोम-रोम में बिंध गई। उसे लगा, आसमान नीले पहलवान की तरह पेड़ों का काला जाँघिया पहने झील में उतर आया था। हवा लँगड़ाती हुई सन्नाटे की बैसाखियों पर चल रही थी। आलीशान इमारत में रहने वाले रईस की तरह मुफलिस-दिल चाँद निकल आया था।

दूर कहीं घटें बजे...एक...दो...तीन...! पाँवों की चाप सुनकर उसने मुड़कर देखा। कौन? सुषमा! घंटे बज रहे थे...दस...ग्यारह...बारह...! कलाकार स्नेह और सौंदर्य की भुजाओं में सिसक उठा।
११
अगस्त

किताब मंदिर प्रकाशन के अपने पत्र में छपा–
हिंदी की सर्वश्रेष्ठ पुस्तकों के सर्वक्षेष्ठ प्रकाशक
किताब मंदिर प्रकाशन
शाखा : बंबई, मद्रास, कलकत्ता, पटना, जबलपुर,
इंदौर, मैसूर, अजमेर, दिल्ली, इलाहाबाद, जयपुर
की नई भेंट
हिंदी के चोटी के कलाकार, सरदार जसवंतसिंह का नया कहानी-संग्रह–
‘कुत्ते की दुम और शैतान’ तथा अन्य कहानियाँ

यह प्रचार का युग है, अतः हम कुछ न कहकर हिंदी के गण्यमान्य लेखकों की राय उद्धृत करते हैं, जिनसे पाठकों को ज्ञात होगा कि शायद ही एक कहानी लिखकर किसी लेखक को इतना यश मिला हो–

‘कुत्ते की दुम और शैतान’ पढ़कर बड़ी राहत मिली। कहानी का अंत बहुत ही जानदार हुआ है।...मैं बड़े संतोष के साथ स्वीकार करूँगा कि सरदार के कथानक में एक व्यवस्था है।...जहाँ तक वातावरणपरक कौशल है, उसमें लॉर्ड डन्सनी से कम ताकत नहीं है। वह दिन दूर नहीं है जब...लोग यह देखेंगे कि सरदार की कहानी उन कहानियों में से थी, जिसने नए रास्ते की तरफ मोड़ लिया।

–वामन पांडुरंग चरमरकर, पूना। यशस्वी आलोचक, दिग्गज विद्वान्। मराठी और हिंदी पर समान अधिकार से राय देने की शक्ति रखने वाले हिंदी के शीर्षस्थ विचारकों में से एक।
‘सरदार की कहानी पर ध्यान देना आवश्यक है।’
–जगभूषण मतवाला, नागपुर। प्रसिद्ध उदीयमान कहानीकार, जिनमें प्रेमचंद और चॉसर की सम्मिलित प्रतिभा है। इन्हें पुरानी पीढ़ी का नए कलेवर में विशेषांक भी कहा जा सकता है।
एक अप्रसिद्ध साधारण पाठिका लिखती हैं–और हमारे प्रकाशन ने सदैव लोकमत को बड़ा महत्त्व दिया है, इंग्लैंड-अमेरिका में तो सुव्यवस्थित प्रकाशन संस्थाएँ ऐसा करती ही हैं–

‘गस्ताव फ्लॉबेअर, डिकेन्स और दोस्तोएवस्की को पढ़ने वाले लोग कभी भी बिना तर्क के कैसे स्वीकार कर लेंगे कि आज की कहानी का आयाम पहले से भी छोटा हो गया है? सरदार की कहानी की इनसे तुलना करने पर ही कला का दायित्व प्रकट होता है।’
मार्क्सवादी आलोचना के कर्णधार, हिंदी की प्रखर खड्ग-प्रतिभा, श्री रणछोड़दास, लखनऊ, कहते हैं–

‘कांति के लिए आवश्यक है कि हम अपने दिलों को न टटोलें, प्रतिक्रियावादियों के भेजों को टटोलें। सरदार की कहानी उसी ओर इंगित करती है।’
और–

‘ ‘कुत्ते की दुम और शैतान’ को लेकर जो गलत प्रचार किए जा रहे हैं, वे सत्य से कितने दूर हैं, इसे पढ़कर आश्चर्य होता है।...कहानी अपने आप में पूर्ण है, उसका अपना त्रिकोणात्मक आयतन है।...उसमें तीखा व्यंग्य है...सरदार की पुरानी बोतल में नई शराब है। उसे लोग गिराना चाहें...परंतु हम...साहित्य की सत्परंपरा का निर्वाह करना चाहते हैं।’
–राजेश्वर गुरुनाथ तवक्कले, इलाहाबाद। नई समीक्षा की नींव रखने वाले मनस्वी गद्य-लेखक, जिनकी कलम में जादू है या गजब की छड़ी।
‘सरदार नहीं लिखते। मैं नहीं लिखता।’
–श्री क्षेमराज, हिंदी के गण्यमान्य ऋषि। टॉल्स्टॉय की आत्मा के बिंब। परिचय की आपको आवश्यकता नहीं।
‘प्रेमचंद के बाद के अकाल के नए पौधों में उनका विशेष स्थान है।’
–परशुराम त्रिपाठी, बनारस। नई कलम के सिद्धहस्त लेखक।
‘मुझे बाध्य होकर पढ़ना पड़ा।...इस कहानी में नयापन है...और मैं क्या कहूँ?’’
–श्रीधरसिंह पांडेय, आगरा। नए ढंग से सोचते हैं, लिखते हैं। बात में तथ्य हो इसी पर जान देते हैं।
‘सरदार जसवंतसिंह में प्रतिभा है, तो वे अवश्य बढ़ेंगे, उन्हें कौन रोक सकता है?’’
–आचार्य भगवतप्रसाद शर्मा। हिंदी के भीष्म। इनको कौन नहीं जानता? गुरुदेव ने इनकी प्रतिभा को स्वीकार किया था।

‘विद्वेष की दृष्टि से नीचे गिराना ही ध्येय हो तो सरदार ही क्या, कालिदास को भी नीचे गिराया जा सकता है। मेरी ओर से सरदार जसवंतसिंह बधाई स्वीकार करें।’
–डॉ. रघुनंदनसिंह, पटना। शोध-क्षेत्र में कोलंबस।

जो इस संग्रह को नहीं पढ़ता–खरीदकर–(क्योंकि हमें हिंदी में यह राष्ट्रीय पैमाने पर आंदोलन करना है कि निजी पुस्तकालय बनाना भी सत्साहित्य के सिरजन के बराबर है) वह विश्व साहित्य की प्रगति के साथ नहीं बढ़ सकता। आज ही ऑर्डर बुक कराइए...
पृष्ठ संख्या १९२, मूल्य छह रुपए और पचास नए पैसे।

१२
अक्टूबर
दिल्ली की एक अंग्रेजी पत्रिका में छपा–

If I were to name something mentionable in modern Hindi literature, I, without the least delay, will put before the Western readers, the remarkable and unique short story of Sarder Jaswant Singh–‘Kutte ki dum aur Shaitan.’ Here you find one whole tradition that…
–Sr. J. Siene

अनुवाद–यदि मुझसे पूछा जाए कि वर्तमान हिंदी साहित्य में उल्लेखनीय कौन-सी रचना है, तो मैं अविलंब पश्चिम देशीय पाठक के सामने सरदार जसवंतसिंह की ‘कुत्ते की दुम और शैतान’ नामक जबरदस्त और अपने ढंग की एक ही कहानी रखूँगा। यहाँ आप एक पूरी परंपरा पाएँगे जो...
–एस-आर.जे. सीने

१३
(नवंबर, दिसंबर, जनवरी, फरवरी, मार्च, अप्रैल, मई, जून तक कहीं कुछ नहीं छपा) जुलाई

काशी के एक पत्र में तीन पुस्तकों की आलोचना प्रकाशित हुई। उनमें महत्त्वपूर्ण बातें ये थीं, जिन्हें यहा उद्धृत किया जाता है–

‘नए लेखकों में सरदार जसवंतसिंह का भी कहानी के क्षेत्र में उल्लेख किया जा सकता है।’ ‘हिंदी साहित्य का विकास’/लेखक : आचार्य भगवतप्रसाद शर्मा और डॉ. रघुनंदनसिंह/ पृ. ३९८, फुटनोट नंबर ३.

‘कहानियों में सरदार जसवंतसिंह की ‘कुत्ते की दुम और शैतान’ उल्लेखनीय है, जिसकी एस-आर.जे. सीने जैसे हिंदी के प्रेमी किसी फ्रेंच साहित्यकार तक ने प्रशंसा की है।’ ‘हिंदी कहानी : नए आयाम और प्रमाण’/लेखक : राजेश्वर गुरुनाथ तवक्कले, पृ. ४८१.

‘नए साहित्य में सरदार जसवंतसिंह की कहानी ‘कुत्ते की दुम और शैतान’ काव्य में नई ओर पग बढ़ाती है।’ ‘नया साहित्य–नई समीक्षा’/लेखक : रामदुलारे विजयवर्गीय/प्राध्यापक.../पृ. सं. ८७२.

(१९६० से पूर्व)

  • मुख्य पृष्ठ : हिंदी कहानियां; रांगेय राघव
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण हिंदी कहानियां, नाटक, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां