कुनु (कहानी) : प्रकाश मनु
Kunu (Hindi Story) : Prakash Manu
1
आज सुबह से फिर कुनु की याद। अपने उस लाड़ले बेटे का लड़ियाना याद आया आज फिर। आज फिर कुनु की मरती हुई आँखें याद आईं।
जाने क्या बात है, जब-जब बाहर की मार और घमासान से भीतर का कोई हिस्सा मरता है, भीतर का कोई बेशकीमती, मूल्यवान और अंतरंग हिस्सा...या फिर ऐसे ही किसी मरे हुए की, ऐसी ही अपनी किसी मौत की याद आती है, तो उस बेतरह छटपटाहट में कुनु पूँछ हिलाता हुआ सामने आ खड़ा होता है। फिर कुछ ऐसी अजब-सी प्यारभरी आँखों से देखता है कि मैं एक साथ हँसता हूँ, रोता हूँ। रोता हूँ, हँसता हूँ और उस पर निसार जाता हूँ।
कुनु! आखिर क्या था कुनु मेरे लिए? उसकी कहानी भी क्या किसी कहानी जैसी कहानी में आएगी? और मैं किसे सुना रहा हूँ उसकी कहानी...किसलिए? क्यों? लेकिन सुनाए बिना रह भी तो नहीं सकता।
कुनु—यही नाम दिया था शुभांगी की ममतालु पुचकार ने उसे। पता नहीं कहाँ से फूटा था यह उसके भीतर से। मिट्टी और चट्टानों को फोड़कर आए किसी शांत, भीतरी सोते की एक लहर की तरह, कुनु! जंगल में गूँजती किसी आकुल पुकार की तरह—कुनु! कुनु! कुनु! और हमें लगने लगा था, हम दोनों को—कि इससे शानदार नाम इस शानदार जीव का कोई और हो ही नहीं सकता।
आज फिर मेरी कलम उसके ‘होने’ और ‘न होने’ के बीच थरथरा रही है।
2
आखिर क्या था कुनु मेरे लिए, मेरे और शुभांगी के लिए? हमारे दांपत्य जीवन के पहले ही अध्याय में, जो धूल-धक्कड़ और आँधियों से सना हुआ था!...मगर आखिर यही समय क्यों तय किया था उसने हमारे घर, हमारी जिंदगी के उदास रंगमंच पर प्रवेश के लिए। और आया भी तो ऐसा क्यों, कैसे होता चला गया कि उसके बिना जीना हमें अपराध लगने लगा।
उफ! आज फिर कुनु के मरती हुई आँखें याद आ रही हैं। और उन आँखों में छलछलाता प्यार, मनुहार, जिदें—सभी कुछ।
एक छोटा-सा जीवन जिसने छह-आठ महीनों में मार तमाम ऊधम मचा के रख दिया था। कू-कू-कू से लेकर भौं-भौं-भौं तक। जब उसे नुकीली चोंचों से हलाल करने को तैयार, शैतान ‘काक मंडली’ से बचाया था, तब क्या पता था कि वह नन्हा-सा काला चमकीला पिल्ला इस कदर घर बना लेगा हमारे भीतर...कि हर वक्त होंठों पर ‘कुनु...कुनु!’ और कुनु यहाँ, कुनु वहाँ...कुनु कहाँ-कहाँ नहीं। हर जगह वह मौजूद था। हमारे पूरे घर में नटखट स्नेह और शरारतों की शक्ल में व्याप्त थी उसकी उपस्थिति। और वह इस कदर लाड़ला हो गया था कि जोर-जबरदस्ती से अपनी जिदें मनवाने लगा था। हमारे बाहर जाने पर वह रोता था। अकुलाकर पंजे मारता था दीवारों पर, खिड़कियों पर और सात तालों के बावजूद किसी जादूगर की तरह निकल आता था बाहर!
ओह, जिस क्षण बिजली की तरह दौड़ता और खुद को विशालकाय शेरनुमा जबर कुत्तों से बचाता हुआ, वह सड़क पर आकर हमारे पैरों पर लोट जाता था, उस क्षण का गुस्सा, प्यार, गर्व, रोमांच...! वह सब, अब क्यों कहें, कैसे! अलबत्ता सब कुछ भूलकर उस क्षण हम उसे सारे रास्ते भीमकाय कुत्तों से बचाने और सुरक्षित घर ले आने की पारिवारिक किस्म की चिंताओं से घिर जाते थे। हालाँकि कुनु के गर्वोद्धत चेहरे पर जरा भी डर तो क्या, एक शिकन तक नजर नहीं आती थी। जैसे इन बड़े-बड़े झबरीले कुत्तों को चरका देना उसके बाएँ हाथ का खेल हो। और घर में तो वह शेर होता ही था। चाहे बगल वाली सड़क पर हाथी आए या ऊँट या विशाखनंदन या शूकर, कुनु की भौं-भौं वाली गुर्राहट से बचकर जाना मुश्किल था। पट्ठा पूरा दम लगाकर भौंकता था। और उसकी उम्र के लिहाज से वह इतना ज्यादा होता था कि कभी-कभी कोई पक्की उम्र का बंदा या पग्गड़धारी राहगीर मुसकराकर टोक भी देता था, “बस कर...हुण बस कर, थक गया होएँगा।”
कुनु की सबसे खास बात यह थी कि वह कुनु था। महज एक पिल्ला नहीं, वह कुनु था। उसकी अपनी एक शख्सियत थी और इसे वह हर तरह से साबित करता था। मसलन रसोईघर के एकदम द्वार पर बैठकर गरम फुल्का खाना उसे प्रिय था और साथ में गुड़ भी हो, तो क्या कहने! ऐसे क्षणों में उसकी आँखों से आनंद, अनहद आनंद बरस रहा होता और जरा छेड़ते ही उसकी ‘गुर्र-गुर्र’ चालू हो जाती। जैसे वह जता देना चाहता हो कि इन क्षणों में छेड़ना या डिस्टर्ब किया जाना उसे सख्त नागवार है।
कभी सुबह की रोटी दोपहर या दोपहर की रात को मिल जाए, तो न सिर्फ उसकी भूख-हड़ताल चालू हो जाती, बल्कि उसके चेहरे पर एकदम सत्याग्रहियों वाला भाव नजर आने लगता। शांत और मौन प्रतिरोध...! वह उठता, रोटी के पास जाकर अनमने ढंग से उसे सूँघता और फिर इस तरह अपनी बोरी पर आकर बैठ जाता, जैसे कि वह रोटी उसके लिए नहीं थी। या वह रोटी जैसी चीज के अस्तित्व से पूरी तरह बेखबर हो। कभी घर में उसकी पसंद की कोई चीज बने, खासकर गाजर का हलवा, जो कि सर्दियों में दस-पंद्रह दिन में एकाध बार बनता था, तब देखो उसकी बसब्री। ऐसे वक्त में उसे दूसरे कमरे में बंद करके रखना पड़ता था, वरना न जाने क्या कर डाले। और हलवा बनते ही गरम-गरम गपक जाने की कोशिश में अक्सर वह जीभ जला बैठता।
उफ, बावला। एकदम बावला...!
3
सच तो यह है हमने उसे बिलकुल अपना बेटा ही मान लिया था।
हमारे वे दुखभरे दिन थे। कुछ अजीब-सी आत्महीनता और अर्ध-बेरोजगारी के दिन। और हम कुछ तो समय और कुछ अपने आदर्शों के मारे थे। हालाँकि इसी आदर्शवाद ने हमें जिलाया भी था। इसी आदर्शवाद ने हमें, यानी मुझे और शुभांगी को मिलाया भी था और एक-दूसरे के लिए जरूरी बना दिया था। तपती हुई सड़कों पर साथ चलते-चलते हम एक छोटे-से घर तक आ पहुँचे थे।...
हाउसिंग बोर्ड का किराए का वह छोटा-सा मकान हमारे सुख-स्वप्नों का आशियाना था, जहाँ हमें अपनी बिखरी हुई दुनिया के तिनके समेटने थे और एक अदृश्य भविष्य को आकार देना था। वहीं हमें कुनु मिला था। और कुछ इस कदर आत्मीयता से गदबदाया हुआ-सा वह मासूम जीव शुभांगी की गोद में आ टपका था, मानो शादी के फौरन बाद ही उसकी गोद भर गई हो।
लेकिन जैसा कि ऊपर बताया गया है, वे सख्त, बहुत सख्त दिन थे और हम तिल-तिल जल रहे थे। हमारे आदर्शवाद ने हमें उन्हीं ‘महान जी’ के खिलाफ खड़ा कर दिया था जिनके निर्देशन में हम रिसर्च कर रहे थे।...हेड ऑफ द डिपार्टमेंट!
हेड साहब के दिमाग में न जाने कैसे यह बात बैठ गई थी या बैठा दी गई थी कि शुभांगी और मैंने यह जो खुद अपनी मर्जी से विवाह किया है, इसमें जरूर कोई भारी गड़बड़ है। और इससे यूनिवर्सिटी की मर्यादा की नींव हिल गई है, जिसे जमाए रखना उनका महान कर्तव्य है।
तो मर्यादा की उस हिलती हुई नींव को फिर से सधाने के लिए उन्होंने हमें कानूनी फर्रा पकड़ा दिया कि आप लोगों के खिलाफ क्यों न अनुशासनहीनता की कार्रवाई की जाए और क्यों न आपका स्कॉलरशिप रोक दिया जाए?...यह साँसों की उस डोर को काट देने की कोशिश थी, जिसके सहारे हम जिंदा थे। लिहाजा हमें भड़कना ही था। और हमारे भड़कने का सीधा नतीजा यह हुआ कि शादी के तुरंत बाद हमें हेड साहब की ओर से यह तोहफा मिला कि शुभांगी का स्कॉलरशिप बंद कर दिया गया।
अब हमारे घर का जो बुनियादी गणित था, वह यह कि चार सौ जमा तीन सौ बराबर सात सौ...यानी घर! घर की शांति। घर की सुरक्षा। शुभांगी का स्कॉलरशिप बंद होने से हमारे घर की जो दो मुख्य कडिय़ाँ थीं, उनमें से एक टूट गई। सात सौ में से तीन सौ रुपए निकल गए, तो नतीजा एकाएक देखने को मिला। घर की दीवारें डगमगाने लगीं, छत हिलने लगी और हवा में अपकशुन होने लगे।
यह हमारा दुख से सहमा हुआ दांपत्य जीवन था, जिसकी शुरुआत ही एक ‘निजी प्रलय’ से हुई थी और एक तीखा भय हमारे भीतर उतर गया था। अक्सर मुझे लगता, कोई अनजान छाया हमारा पीछा कर रही है और हमें मार डालेगी। हमें इस बात की सजा मिलेगी कि हमने अपनी मर्जी से विवाह क्यों किया? मैं खाना खाने बैठता तो लगता, अभी हेड साहब का लंबा और शक्तिशाली हाथ आगे आएगा और मेरे सामने रखी खाने की थाली उठाकर भाग जाएगा। मेरे हाथ का कौर हाथ में रह जाता और आँखों से आँसू टपकने लगते। खाना खाना मुश्किल हो जाता।
4
यही वे दिन थे, जब कुनु हमें मिला था। और उसका मिलना भी कुछ ऐसा था, मानो वह किसी महानाटक का ऐसा अध्याय हो जो खासकर हमारे लिए ही लिखा गया है।
हम एक दिन सुबह-सुबह घूमकर आए और सदा की तरह किताबों की चर्चा और दिन के कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार करने में व्यस्त थे, कि दूर से ही देखा—वह है। एक छोटा-सा, बेचारा-सा काला जीव। मुश्किल से दस-पंद्रह दिन का रहा होगा। वह काक-मंडली का भोजन बना हुआ था और मूक आँखों से गुहार कर रहा था। शायद कौओं की कुछ चोंचें भी उसके शरीर में गड़ी थीं और वह मारे पीड़ा के तिलमिला रहा था। लेकिन हलकी, बहुत हलकी और अस्पष्ट ‘गुर्र-गुर्र’ के सिवा उसके मँुह से कोई शब्द नहीं निकल रहा था।
शुभांगी ने उसे देखते ही, बगैर वक्त खोए झपटकर उठा लिया और माँ जैसी ममता से भरकर छाती से लगा लिया।
उफ! उस क्षण किस कदर सिंदूरी आभापूरित था शुभांगी का चेहरा। किसी स्त्री का जिसे आप प्यार करते हैं, माँ बन जाना क्या होता है, शायद पहलेपहल उसी क्षण मैंने जाना था।
और हमारा जीवन तनाव के जिन दो मोटे लौह-शिकंजों में कसा हुआ था, पहली बार उनकी जकड़न से छूटकर एक कदम आगे बढ़ा। बहुत दिनों से रुकी हुई मुसकान फिर से हमारे होंठों पर थी और मैंने शुभांगी को और शुभांगी ने मुझे एक नई ही पुलकभरी दीठ से देखा।
और वह घर जिसमें किताबें थीं और ज्यादातर किताबों पर ही बातचीत होती थी, धीरे-धीरे एक बच्चे की उपस्थिति से गुलजार होने लगा।
हमारा वह बच्चा कुनु था, जो कभी बाहर लॉन में मेरी कुर्सी के चारों ओर दौड़ता, कलामुंडियाँ खाता और नाचता फिरता, कभी दूर बैठा पूँछ हिलाता अपनी उपस्थिति जतलाता रहता। जरा सा पुचकारो तो उछलकर गोद में बैठता। मैं और शुभांगी गंभीर शोध-विषयक चर्चा में लगे होते, तो वह जरूर कुछ न कुछ ऐसा करता कि हमारी गंभीरता की ऐसी-तैसी हो जाती ओर अक्सर कुनु और उसकी खरमस्तियाँ ही हमारी बातचीत का केंद्रीय विषय हो जातीं। ऐसे में अक्सर शुभांगी ही उसे बढ़ावा देती और तब उसकी सर्कसबाजी, जोकरबाजी, नाचना और कभी-कभी पीठ के बल लेटकर पंजे हिलाना और लड़ियाना ऐसे तमाम खेल-तमाशे शुरू हो जाते। और उफ! आँखें किस कदर चमक उठती थीं उसकी।...शैतान! महाशैतान!!
कभी-कभी वह ज्यादा छूट ले लेता और जिस चारपाई पर मैं पढ़ रहा होता, उसी पर आकर एकदम मासूम बच्चे की तरह लेट जाता और अत्यंत तरल और आग्रहयुक्त आँखों से मुझे देखता रहता। असल में उसे यह बेहद प्रिय था कि मैं एक हाथ में किताब पकड़े पढ़ता रहूँ और दूसरे हाथ से उसे चुपचाप सहलाता रहूँ। ऐसे क्षणों में एक घरेलू अपनापन और अधिकार उसके व्यवहार में नजर आता। और यही अपनेपन का अधिकार उसमें तब भी नजर आता, जब शुभांगी रसोई में खाना बना रही होती। ऐसे में वह दौड़कर आता और एक सभ्य बच्चे की तरह मूक आँखों से खाना माँगता और रसोई की चौखट पर बैठ, चुपचाप खाना खाने लगता।
फिर थोड़ा बड़ा हुआ, तो उसने एक विचित्र चाल यह निकाली कि रोटी खाने की इच्छा न होती, तो अपने हिस्से की रोटी लेकर दौड़कर बाहर चला जाता और थोड़ी ही देर बाद खरामाँ-खरामाँ टहलता हुआ लौट जाता। काफी दिन बाद हमें इस ‘रहस्य’ का पता चला कि वह रोटी कहीं छिपाकर आता है, ताकि ज्यादा भूख लगने पर यह आपात-काल में काम आ सके।
यानी अपने भविष्य के लिए ऐसी दुर्दम्य चिंता! शायद अपने मित्र कुत्तों से उसने यह सीखा था।...लेकिन हमें हँसी आती। एक असुरक्षित घर में भला कैसे उसने भविष्य की सुरक्षा की जरूरत भाँप ली थी।
5
सोने के रात और दिन के कुछेक घंटों को छोड़ दें, तो कुनु ज्यादातर सक्रिय रहता था। यानी कुनु का मतलब था, गति...छलाँग! वह दिन भर घर के दोनों कमरों और बरांडे में इधर से उधर घूमता रहता और कहीं जरा भी खड़का होते ही दौड़कर वहाँ पहुँच जाता। खासकर दरवाजे पर किसी के आते ही उसकी गर्व से लबालब ‘भौं-भौं’ शुरू हो जाती।
लौटकर आता तो पूँछ उठी हुई और आँखें शाबाशी का भाव लेने को उत्सुक। मानो कोई वीर बाँका युद्ध के मैदान से लौटा हो!
कभी ज्यादा मूड में होता तो वह घर भर की चीजें छेड़ता फिरता। खासकर जूते, चप्पलें, किताबें...! हालाँकि जूते या चप्पलें उसने चाहे भले ही काटे हों, यह गनीमत थी कि किताबें कभी नहीं फाड़ीं।
हाँ, मेरी ही तरह उसे भी लगभग रोज आने वाली चिट्ठियों की तलब रहती थी। कोई चिट्ठी आती और मेरे ध्यान से छूट जाती तो दौड़कर आता। मेरे और दरवाजे के बीच उसके कई चक्कर लग जाते, जब तक कि मैं दरवाजे तक आकर वह चिट्ठी, अखबार या पत्रिका उठा न लेता।...
लेकिन हैरानी की बात यह है कि जब मैं गंभीरता से कुछ लिख या पढ़ रहा होता, तो वह अक्सर शोर मचाने या छेडख़ानी से परहेज करता और दूर बैठा, टकटकी लगाए देखता रहता। इतना सतर्क, चौकन्ना कि अगर मक्खी भी उड़कर मेरे माथे या नाक तक आए, तो उसे पीस डाले।
मैं हैरान था कि ऐसी यह ‘महान शुभचिंतक आत्मा’ किस दुनिया से चलकर मेरे इतने निकट आ गई है! न जाने किस जन्म का पुण्य था, जो इस जन्म में कई गुना होकर प्रतिदान के रूप में मिल रहा था। और मैं चकित था, मुग्ध!
शायद मेरा और शुभांगी का यही भाव रहा होगा, जिसके कारण बाज दफा हमें अजब-से हालात का सामना करना पड़ता था। मसलन जब भी हमारे मेहमान, खासकर रब्बी भाई सपरिवार आते, अपनी पत्नी सविता और बिटिया अंजू के साथ, और कुनु को देखकर दूर-दूर से पैर बचाते हुए निकलते, “अरे भई, इस कुत्ते को देखना!” टाइप वाक्य उच्चारते हुए, तो हमें बड़ा अजीब लगता। मानो हमें अपने कानों पर विश्वास ही न हो रहा हो! इसलिए कि हमारा ख्याल था, यह तो कुनु है, इसे भला कुत्ता कैसे कहा जा सकता है?
हमारी दीवानगी की हालत तो यह थी कि जब कोई मेहमान हमारे घर आकर अपने बच्चों और उसकी चंचल शरारतों का जिक्र करता, तो हम तत्काल दोगुने गर्व से भरकर कुनु की प्रशंसा का पुराण ले बैठते। सामने वाले के माथे पर बल पड़ जाते, भला हमारे बच्चों की मनमोहक अदाओं की तुलना में कुनु—एक कुत्ता कैसे सामने ला खड़ा किया जा सकता है!
पर हम जिस दीवानगी में थे, उसमें ऐसी छोटी-छोटी बातों पर भला ध्यान कैसे जा सकता था। आज जाता है, तो जाने क्यों, बुरी तरह हमारी हँसी छूट निकलती है!
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लेकिन उस दुष्ट ने हमें तंग भी कम नहीं किया।
एक दिन देखा, पूरे घर में से एक बेहद सड़ी हुई गंध उठ रही है। उस नागवार गंध से दिमाग भन्ना गया।
दौड़कर इधर-उधर देखा, तो लॉन में एक किनारे पर ढेर-सा सड़ा हुआ मांस पड़ा था। थोड़ी देर के लिए तो हम भौचक्के ही रह गए। यह क्या! बदबू के मारे नाक सड़ी जा रही थी। शायद सामने वाले मैदान में कोई कुत्ता या सूअर मरा था और आसपास के सब कुत्तों की जमकर दावत हुई थी। तब अपना यह नन्हा कुनु भी शौर्य प्रदर्शन करके अपने हिस्से का मांस ले आया था। और उसे कोई और छीन-झपट न ले, इसलिए लॉन के एक कोने में...
इससे पहले भी उसे उस मौसम में कूड़े के ढेर पर कुछ तलाशते हुए, घूमते-भटकते देखा था। पर उसकी तलाश इस चीज के लिए है, यह हमें पता न था।
थोड़ी देर बाद कुनु मेरे पास आया, तो मैंने देखा, वही सड़े हुए मांस की गंध उसके मुँह से भी आ रही है। मैंने गुस्से में आकर उसे डाँटा, ‘जा, भाग जा...!’ और वह कू-कू-कू करता भाग गया।
बड़ी मुश्किल से पड़ोसी से फावड़ा माँगकर और नाक जबरन बंद करके उस सड़े हुए मांस से मुक्ति पाई गई।
वह दिन मेरे और शुभांगी के लिए यातनाभरा दिन था। हमें एक साथ दुख भी था, गुस्सा भी! हालाँकि कुनु बेचारा यह सब क्या जाने! अगर मांस हमने उसे नहीं खिलाया, तो क्या मांस खाने की अपनी जैविक प्रवृत्ति ही भूल जाएगा?
हम यह जानते थे, पर अपने गुस्से के आगे लाचार थे।
थोड़ी देर बाद वह आया, तो मेरा गुस्सा एकाएक भड़क गया। मैंने एक के बाद एक, तड़ातड़ कई चाँटे उसे लगाए और गुस्से में चिल्लाकर कहा, “जा, भाग जा...अब कभी यहाँ मत आना।”
हमारे शब्दों का मतलब वह जानता हो या न जानता हो, पर गुस्से का मतलब तो जानता ही था। एक छोटे बच्चे की तरह वह सिर झुकाए चुपचाप मार खाता रहा। और उसे जी भर पीटने के बाद मैं दुखी होकर अपनी आरामकुर्सी पर ढह गया। कुनु चुपचाप लॉन के एक कोने में जाकर लेट गया और दिन भर वहीं लेटा रहा।
इसके बाद कम से कम घर में तो वह मांस कभी नहीं लाया। लेकिन मांस खाने का उसका शौक बना रहा। और उसके लिए सामने मैदान में कूड़े के ढेर पर उसकी खोज जारी रहती। खराब मांस खाने के कारण ही शायद यह रोग उसमें पनपा कि उसे भूख लगनी बंद हो गई और वह जब-तब उलटी कर देता। फिर एक दुखी या उदास सा चेहरा लिए हुए एक तरफ बैठा रहता और उसकी प्रिय चीज, मसलन गुड़ या चीनी-रोटी उसके आगे रखी जाती, तो भी वह अपनी जगह से न उठता। सिर्फ गरदन उठाकर देखता और निढाल-सा पड़ जाता।
कुछ दिनों बाद थोड़ी ठीक और सामान्य हालत में होता, तो हमें खुशी होती, पर जल्दी ही वह फिर रोग की चपेट में आ जाता।
इसी के साथ एक रोग ने उस पर और जोर-शोर से आक्रमण किया—खुजली। और उसके बाल गिरने शुरू हो गए। लिहाजा उसे पानी में डिटॉल डालकर नियमित रूप से हर इतवार को नहलाने का क्रम जारी हो गया।
इससे उसे निस्संदेह फायदा हुआ। पर कुनु को नहलाना एक बड़ी तपस्या और धैर्य की माँग करता था। क्योंकि नहाना उसे एकदम नापसंद था और हमें उसके लिए तैयारियाँ करते देख, अक्सर वह हमें चकमा देकर भाग निकलता था। और फिर बड़ी देर तक काबू में नहीं आता था। नहाते समय भी तमाम उछल-कूद, पर आखिर वह समर्पण कर देता था। डिटॉल से शायद उसे खुजली से कुछ राहत मिलती हो।
नहाने के बाद उसकी शक्ल बहुत बुरी निकल आती थी और वह एक पतली हड्डीनुमा विचित्र आकार ग्रहण कर लेता था। पर थोड़ी देर की भाग-दौड़ के बाद, फिर उसमें धीरे-ध्ीारे वही पुराना ‘कुनु’ लौट आता था, जो हमारा रोज का जाना-पहचाना था। और फिर वह वैसी ही जिंदादिल शरारतों और छेड़छाड़ पर उतर आता था।
7
कुनु का एक दिलचस्प किस्सा तब का भी है, जब हम मकान बदल रहे थे।...
हाउसिंग बोर्ड के अपने किराए के मकान को खाली करके, हमें एक दूसरे मकान में जाना था। लिहाजा बड़ी तत्परता से हम किताबको बाँध रहे थे। बरतन बाँध रहे थे। कपड़ों की छोड़ी-बड़ी पोटलियाँ बाँधी जा रही थीं। गरज यह कि घर का सब सामान इधर से उधर हो रहा था। और यह कुनु को बेहद नागवार लग रहा था। हर बार सामान खिसकाने पर वह भौंक-भौंककर अपना गुस्सा और नाराजगी जताता। शायद उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि यह क्या उखाड़-पछाड़ हो रही है, किसलिए? हो सकता है कि इसमें उसे किसी भावी अनर्थ की भी छाया दिखाई दी हो।
यही हालत उसकी तब भी थी, जब ये गठरियाँ उठा-उठाकर ताँगे पर रखी जा रही थी। उसने भौंक-भौंककर हमारी नाक में दम कर दिया। लेकिन जब ताँगा चला, और आगे राह दिखाने के लिए साइकिल पर दो-एक थैले टाँग, मैं आगे-आगे हो लिया, तो कुनु भी दौड़कर आ गया और ताँगे के आगे-आगे मेरी साइकिल के समांतर दौड़ने लगा, मानो घर का खास प्राणी होने के कारण उसे भी ताँगे का मार्गदर्शन करने का हक हो। यह दीगर बात है कि जब तक घर नहीं आ गया, मेरी जान साँसत में फँसी रही कि कहीं यह नन्हा जीव मेरी साइकिल या फिर ताँगे के पहिए या घोड़े की टापों के नीचे न आ जाए!
लेकिन कुनु के दुस्साहस की एक घटना तो ऐसी है कि आज भी मन रोमांचित हो उठता है।
हुआ यह कि एक दिन हमें शहर जाना था, शुभांगी के माता-पिता से मिलने। रास्ते में कुत्तों से बचाते हुए कुनु को साथ ले जाना सचमुच किसी आफत से कम नहीं था। लिहाजा कुनु को चुपके से कमरे में बंद किया और हम बाहर आ गए। हालाँकि दूर तक और देर तक उसका हृदयद्रावक क्रंदन हमारा पीछा करता रहा।
शहर में सास जी के हाथ की बनी बेहद मीठी, नायाब चाय पीते हुए भी, कानों में कुनु की कू-कू-कू ही बसी हुई थी। यहाँ तक कि हमारी उदासी भाँपकर उन्होंने पूछ लिया कि क्या बात है, तुम लोग कुछ परेशान से हो। और हमारे बताने पर द्रवित होकर बोलीं, “अरे, तो तुम लोग ले आते उसे! लाए क्यों नहीं उस नटखट को?”
महीनों पहले जब कुनु एकदम छोटा था, हम उसे गोदी में लेकर आए थे और गली के कुत्तों ने हमारी आफत कर दी थी। और अब तो उसे गोदी में लाना ही मुश्किल था। पैरों पर चलकर आता, तो क्या यहाँ पहुँच सकता था? रास्ते में धड़धड़ाती गाडिय़ों वाले स्टेशन को पार करना होता था। और फिर मोटरें, गाडिय़ाँ, ट्रकों और ताँगों की रेल-पेल और पों-पों, पैं-पैं वाली खतरनाक सड़क। वहाँ लोगों का चलना ही मुश्किल था, तो फिर यह नन्हा जीव...!
अभी हम यह सब सोच ही रहे थे कि अचानक सास जी का ध्यान गेट पर गया। चौंककर बोलीं, “अरे वो तो रहा कुनु! वो...देखना, कुनु ही है न।”
और अभी हम कुछ सोच पाते, इससे पहले ही कुनु बारी-बारी से मेरे, शुभांगी के, सास जी के, ससुर जी के...और घर में जितने भी छोटे-बड़े थे, सबके आगे लोट-लोटकर प्यार जता रहा है। और कुछ ऐसी आवाज निकाल रहा है, जैसे वह एक साथ रो रहा हो। और उल्लास और खुशी के नशे में भी हो।
बड़ी देर तक हमारी समझ में ही नहीं आया कि यह हुआ क्या! कुनु वहाँ से आ गया—कैसे? और जब समझ में आया तो एक अविश्वसनीय आनंद के धक्के से हमारी ऊपर की साँस ऊपर, नीचे की नीचे! शुभांगी तो उसे गोद में लेकर बाकायदा रोने ही लग गई थी, “मूर्ख!...पागल!! कैसे आया तू? सड़क पर कुत्ते नहीं पड़े तेरे पीछे? और किसी बस के, ट्रक के पहिए से कुचल जाता तो?”
और वह शुभांगी की छाती से लगा, पूँछ हिला रहा था, किलक रहा था और उसकी आँखें खुशी और आनंद से चमक रही थीं।
छोटा-सा कुनु उस दिन से हमारा बच्चा ही नहीं, हमारे परिवार का ‘हीरो’ भी बन गया था।
8
एक बार, बस, एक बार—याद पड़ता है, उसे पीटा था मैंने, जब उसने मेरी हवाई चप्पल दाँतों से चबा डाली थी। पूरे पचीस रुपए का खून!...देखकर मेरी आँखों में खून उतर आया था और फिर हाथ में जो भी चीज आई, उससे मैंने उसे पीटा, बल्कि धुन दिया। तब शुभांगी का बड़ा गुस्सा मुझे झेलना पड़ा था। तीन दिन तक शुभांगी मुझसे बोली नहीं थी और तीन दिन तक एक ‘गिल्ट’ मुझे खाता रहा था। तब हमारे बच्चे नहीं थे और कुनु ही हमारा बेटा था। हम बोलचाल में उसे ‘बेटा’ कहकर ही बुलाते थे और इस बारे में खुशी-खुशी दोस्तों का मजाक भी सह लेते थे। पर शुभांगी ने उसे सच में बेटा मान लिया था, मुझे क्या मालूम?...अलबत्ता उसे पीटने के बाद दो-तीन दिन जो कुछ मैंने सहा, जो संताप मैंने झेला, उस सबको याद करके अभी रुलाई आती है। कुनु भी मुझसे रूठा-रूठा रहा दो-चार रोज, लेकिन फिर मेरे पुचकारने पर गोदी में आ गया। और बड़ी अजीब निगाहों से मुझे देखने लगा था, जिनमें ‘जा, माफ किया...!’ वाला फटकारता भाव भी था।
हाँ, एक आखिरी बात और। कुनु की बात करता हूँ जब भी, तो विनी की बड़ी याद आती है। हमारे पड़ोस की एक चंचल, खिलंदड़ी लड़की विनी। बिलकुल गुलाबी-गुलाबी, गुलाब के फूल की तरह। तब होगी कोई छह-सात बरस की। दिन भर हमारे घर रहती थी। दिन भर खेलती, दिन भर बातें करती कुनु से। कभी अपने घर जाएगी तो थोड़ी ही देर में फिर दौड़ी चली आएगी ‘कुनु...कुनु’ पुकारती। मानो कुनु ही एकमात्र उसका सखा हो। अंतत: हमारे बहुत कहने और माँ-बाप का डर दिखाने पर शाम को वह जाती थी।
जाते-जाते (सर्दियों के दिन थे)...उसे कुनु को सर्दी लग जाने का भय सताता था। वह एक बड़ी-सी बोरी की ओर इशारा करके कहती थी, “कुनु को इसमें बड़ा दूँ अंकल?” और आखिर कुछ हिंदी, कुछ पंजाबी में कुनु को बडे़ आराम से और आहिस्ता से बोरी में ‘बड़ाकर’ (घुसाकर) ही वह घर जाती थी।
विनी की गुलाबी देह और ‘गुलाबी सेहत’ वाली अल्ट्रा माडर्न मम्मी को बड़ा अजीब लगता था विनी का दिन-दिन भर हमारे घर रहना। पर न विनी को कुनु के बगैर चैन था और न कुनु को...
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ओह, समय किस तरह से आता है, किस तरह से जाता। और कैसे साबित करता है कि अंतत: वही बादशाह है, हम सब उसकी सूइयों से बँधे हुए हैं।
गुलाम! पूरी तरह गुलाम और अदने जीव।
याद आता है फिल्म ‘वक्त’ का गाना, ‘वक्त के दिन और रात...’ और उसी गाने की एक और पंक्ति, ‘आदमी को चाहिए वक्त से डरकर रहे!’ अच्छे वक्तों में अपने पुट्ठों पर ताल ठोंकता बलराज साहनी, ‘ओ मेरी जोहरा जबीं, तुझे मालूम नहीं, तू अभी तक है हसीं और मैं जवाँ...!’ और बुरे वक्तों में भूख-प्यास से बेहाल, सड़क पर चलता हुआ, आफत का मारा बलराज साहनी। आँखें में भयावह खालीपन, किसी रोते हुए खँडहर जैसा—
‘आदमी को चाहिए, वक्त से डरकर रहे!’
संगीत थम गया है। संगीत अब विलाप है।
वही वक्त एक दिन ले गया कुनु को, जिसने कभी एक दिन शुभांगी की वत्सल गोदी में उसे टपका दिया था दूध की, अमृत की एक बूँद की तरह!
धीरे-धीरे ठंडी होती आग। और आग के बगैर जीवन मिट्टी! मिट्टी होने से पहले उसने जो एक लाचार नजर मुझ पर डाली, उसमें क्या था? सामने के मैदान में, पेड़ के नीचे मिट्टी होने से पहले एक कमजोर-सा आग्रह कि उसे अकेला छोड़ दिया जाए। शायद हाँ। शायद...
आ-खि-री-स-ला-म...!! ओ नन्हे से फरिश्ते...नन्हे से फरिश्ते...नन्हे से फरिश्ते...!
10
कुनु की वे मरती हुई आँखें मेरे भीतर से कभी नहीं गईं। ठीक वैसे ही...जैसे कभी नहीं गई माँ की मिट्टी हुई देह मेरे भीतर से, जिसे आग को सौंपना था। माँ भी यों ही देखते ही देखते चली गई थीं। अभी तीन दिन पहले मैं उनसे मिलकर चला आया था। लौट रहा था तो उन्होंने टोका, “फिर मैं तैनूँ नहीं मिलना पुत्तर!”
हँसकर मैंने कहा था, “नहीं माँ, जल्दी आऊँगा!” और सचमुच जल्दी ही तो आया मैं, सिर्फ तीन दिन बाद। और मुझे मिली माँ की मिट्टी हुई देह जो कह रही थी, “पुत्तर, मैं तैनूँ कहया सी न!” मिट्टी हुई माँ, जिस पर मैं पछाड़ें खा रहा था, हा-हा-हा-हा...हा-हा-कार।
ओह, मिट्टी हुई माँ और मिट्टी हुआ कुनु दोनों एक साथ दफन हैं मेरे भीतर। एकांत में कभी-कभी दोनों मिलकर रोते हैं। और अगले ही क्षण दोनों मिलकर खेलने लगते हैं। माँ देखते ही देखते बच्ची बन जाती है, विनी...!
दोनों की करुण आँखें मिलाकर एक करुणा भरा विश्वास। मेरे जीवन का भावुक स्पेक्ट्रम! जहाँ आज भी मैं अवाक, व्यथित, मौन सिर झुका देता हूँ।
11
आज तक किसी कथाघाट पर नहीं समा पाई कुनु की कहानी...और न माँ, माँ जो मेरे लिए ईश्वर से कहीं बढक़र है। जी हाँ, मैं मानता हँू ईश्वर को! मैं मानता हूँ कि ईश्वर है, इसलिए कि जिसने मेरी माँ जैसी माँ को बनाया, वह कुछ न कुछ तो जरूर होगा...यानी ईश्वर है, क्योंकि माँ है!
ठीक इसी तरह, ईश्वर है क्योंकि कुनु है—और मरकर भी है!
ताज्जुब है, कुनु और माँ की आँखों में एक जैसा तारल्य था। सारी दुनिया पर एक साथ करुणा बरसाता तारल्य, मानो वे आँखें एक साथ बनाई गई हों। माँ को तो खैर, बचपन से ही देखता आ रहा हूँ और उनके आशीर्वाद भरे हाथ ने कभी टूटकर गिरने नहीं दिया। पर कुनु! उसे तो शायद मेरे टूटे, थके, दुखी दिनों में मुझे गड्ढे से बाहर निकालने और जीवन के समतल पर लाने के लिए ही भेजा गया था। मानो उसने अपना काम किया और जैसे ही उसकी भूमिका खत्म हुई, मंच से उतरकर चुपचाप नेपथ्य में चला गया।
संगीत फिर उठ रहा है। दिशा-दिशा में फैलता धीमा मगर भर्राया हुआ संगीत। और उसमें एक बाप का अपने बेटे को खो चुके अभागे बाप का रोना भी शामिल है।
“आखिरी सलाम...!! ओ नन्हे-से फरिश्ते, नन्हे-से फरिश्ते...नन्हे-से फरिश्ते...!”