कुंती देवी का झोला (व्यंग्य) : श्रीलाल शुक्ल

Kunti Devi Ka Jhola (Hindi Satire) : Shrilal Shukla

वसंत का प्रभात था। कहने की जरूरत नहीं कि सुहावना था। कविता की परंपरा में वह इसके अलावा और क्या-क्या था, यह कहने की तो बिल्कुल जरूरत नहीं। जो कहना है वह यह कि ऐसे ही प्रभात में कुंती देवी के साथ के पाँच आदमी, जिन्हें आप बढ़ई-लुहार की तरह उनके व्यावसायिक नाम से पुकारना चाहें तो डकैत कह सकते है - हिम्मतपुरा गाँव में आए और नीम की छाँव में उसी कुएँ की जगत पर बैठ गए यहाँ वे कल दोपहर को भी आ कर बैठे थे। फर्क इतना था कि कल पाँच की जगह वे ग्यारह थे और उनके साथ कुंती देवी भी थीं।

जिस तरह बढ़ई-लुहार और दूसरे कामगार अपने काम से फुरसत पाकर चना-चबेना करने के लिए अपने औजारों के साथ किसी भी कुएँ की जगत पर बेखटक बैठ सकते है, लगभग उसी इत्मीनान से, अपनी-अपनी बंदूके और राइफलें लिए, वे पाँचों भी वहाँ बैठे रहे और जिंदगी के बारे में छोठी-मोटी बातें करते रहे। पर जिस लड़के को भेज कर उन्होंने पूरे गाँव के आदमियों को कुएँ पर आने के लिए बुलाया था उसके गाँव के दूसरे छोर तक पहुँचते-पहुँचते चारों ओर सन्नाटा छा गया। धीरे-धीरे गाँववाले वहाँ सिमट कर आते गए और जमीन पर बैठते गए। प्राचीनकाल होता तो वे मुँह में तिनके दबा कर और अपने आगे-आगे कोई गाय लेकर आते, पर बिना इन अलामतों के भी उनके चेहरे बता रहे थे कि वे सभी अपने प्राणों की भीख चाहते हैं।

जो पहले ही खेतों पर चले गए थे, डकैतों ने उन सबके लौटने का इंतजार नहीं किया। उनके काम-भर का श्रोता-वर्ग आ चुका था। एक से दूसरे सिरे तक उस पर पैनी निगाह डाल कर एक डकैत ने कहा, 'कुंती देवी का झोला कहाँ है?'

कुंती देवी इस गिरोह की नेता थीं और सिर्फ इस कारण कि वे महिला और दस्यु साथ-साथ थीं, पुलिस और प्रेस के बीच दस्यु सुंदरी कही जाती थी। गाँववालों को उनकी सुंदरता का पता न था, उनके पल्ले कुंती देवी की दस्युता-भर पडी थी। यह अकेला जुमला सुन कर गाँववालों की तुरंत समझ में आ गया कि कोई एक झोला है जो कुंती देवी का है और जो खो गया है। यह भी समझ में आ गया कि वे गहरे संकट में हैं।

डकैतों ने डाट-डपट नहीं की। ताकत के एहसास से उपजी जिस शिष्टता का परिचय नादिरशाह ने शहंशाह मुहम्मद शाह से कोहेनूर हीरा हासिल करने के लिए दिया होगा, उसी के साथ वे गाँववालों को अपनी बात समझाते रहे। कल उनका गिरोह इसी गाँव से निकला था। इसी कुएँ पर रुक कर उन्होंने रोटी खाई थी। चलते वक्त कुंती देवी अपना झोला यहीं कहीं भूल गई थी। अभी उसका पता नहीं चला है। गाँववालों को चाहिए कि वह जहाँ कहीं भी छिपा कर रखा गया हो, उसे निकाल कर वापस कर दें।

'दो-एक दिन में हम लोग फिर आएगें, दूसरे डकैत ने कहा, 'अगर तब तक तुम लोगों ने झोला वापस नहीं किया तो बरबाद हो जाओगे।'

यह धमकी थी पर आशीर्वाद की तरह दी गई थी। इसके झटके से गाँववाले उबर भी न पाये थे ऐसी कड़क के साथ जो फिल्मों और नाटकों में डकैतों के लिए खासतौर से सुरक्षित की गई है, तीसरे डकैत ने कहा, 'और खबरदार, अगर इस सबके बारे में पुलिस को बताया तो किसी की खैर नहीं। तुममें से एक-एक को गोलियों से भून दिया जाएगा।'

आवाज ही नहीं, संवाद भी फिल्मी था। पर उससे गाँववालों का संकट घटा नहीं उन्हें, जकड़ कर वहीं जम गया। कोई कुछ नहीं बोला। सिर्फ जब वे पाँचों चलने को तैयार हुए तब एक बुड्ढे ने बैठे-ही-बैठे, हाथ जोड़ कर पूछा, 'मालिक यह झोला कैसा है? मतलब, कपड़े का है कि कुछ और? रंग-वंग?'

एक डकैत ने कहा, 'गाँधी आश्रम का है।'

बुड्ढे के चेहरे ने बता दिया कि वह कुछ समझ नहीं पाया है। तब डकैत ने उसे धीरज से समझाया, 'खादी का है। हरे और सफेद रंग का कंधे से लटकाया जानेवाला।'

उसी दिन सरे शाम गाँव में पुलिस ने धावा बोला। आते ही उन्होंने एक-एक घर की तलाशी ली और जब उन्हें कुंती देवी का झोला नहीं मिला तो दो घरों में उन्हें देसी कारतूसी तमंचा मिल गया। उसके बाद जिन पर तमंचे का इल्जाम था, उनकी रस्मी पिटाई करके पुलिस ने भी गाँववालों को उसी तरह एक जगह इकठ्ठा किया और कहा, 'हमें पता चल गया है कि कुंती का गिरोह आज यहाँ आया था। तुमने हमें इसकी इत्तिला क्यों नहीं दी? क्यों बे प्रधान के बच्चे?'

प्रधान का बच्चा यानी हेकड़ी के साथ गाँव सभा चुनाव जीत कर जो प्रधान बना था वह पीछे दुबका खड़ा था। उसने कहा, 'हमारी जानकारी में यहाँ कोई नहीं आया सरकार!'

इसके जवाब में पुलिस ने गालियों की बौछार शुरू की और जब तक वह बदल कर मूसलधार बारिश बनी तब तक प्रधान के इस वाक्य से गाँववालों ने आपस में कोई बात किए बिना एक बात तय कर ली। सभी गुहार मचाने लगे कि उनके गाँव में कुंती देवी या उनके गिरोह का कोई आदमी कभी नहीं आया। यह बात हाथ हिला कर, रो कर, बहक कर, घिघिया कर, कसमें खा कर, अकड़ कर और वे सारी मुद्राएँ दिखा कर कही गईं जो झूठ का इल्जाम लगने पर हर सच्चे आदमी को दिखानी पड़ती हैं। जवाब में पुलिस ने कुछ और गालियाँ दीं, ज्यादा उत्साह से बोलनेवालों को एकाध बेंत भी लगाए।

तब दरोगाजी ने कहा, 'तुम सभी जानते हो कि हरगाँव में परसों भारी डाका पड़ा है। यह कुंती देवी के गिरोह का काम है। डाके में दो किलो वजन के सोने के जेवर लूटे गए है। उनकी कीमत जानते हो? पाँच लाख रुपए। हमें पता है कि कुंती ने जेवर इसी झोले में रखे थे। तुम लोग यह पाँच लाख का माल चुपचाप हजम करना चाहते हो? ट्रक के पहियों में जिस पंप से हवा भरी जाती है, उसी से मेंढक के पेट में हवा भर दी जाए तो क्या होगा? पेट भड़ाम से फूट जाएगा। तुम्हारा भी यही हाल होनेवाला है। पाँच लाख रुपया हजम करना तुम्हारे बूते का नहीं है। पूरे गाँव पर दफा चार सौ बारह चलेगी।' फिर कड़ककर, 'निकालो झोला!'

पर जिसका झोला था, जब वही गाँव में नहीं आई तो झोला कहाँ से आता? फिर भी पुलिस ने गाँववालों को झोला बरामद करने के लिए चौबीस घंटे का समय दिया, दूसरे दिन फिर शाम को दुबारा आने की धमकी दी और दो देसी तमचों और उतने ही अभियुक्तों के साथ थाने की ओर वापस चले गए।

गाँव बहुत छोटा था, यही चालीस-पचास घर, यानी बीहड़ के एक सिरे पर झोपड़ियाँ, जैसे किसी चुचके, मटमैले चेहरे पर मुँहासे फैले हों। सभी धरती के छोटे-छोटे, रूखे-सूखे टुकड़े जोत कर ज्वार, चना या अरहर पैदा करते जो कभी होती और कभी न होती। इतना अच्छा था कि एक ओर बस्ती के पास ही जहाँ धरती इतनी ऊबड़-खाबड़ न थी, कँटीली झाडियों का एक छोटा-सा जंगल था और कुछ महुए के बाग थे। चना और अरहर का उतना नहीं, जितना गाँववालों को महुए का सहारा था। वे सफेद तिल मिला कर उन्हें कूटते और उसे खाते। फल के छिलके की गर्मियों में सब्जी पकाते, फल का तेल निकालते और साल में एकाध बार जब तीज-त्यौहार में पूड़ी खाने की धार्मिक मजबूरी होती तो इसी तेल में पूड़ियाँ तलते। महुए के पत्तों का पत्तल में उपयोग करते। महुए की लकड़ी कमजोर होती है। दरवाजे और चौखट उतने अच्छे नहीं बनते। पर वे दरवाजे और चौखट भी बनाते। मर जाने पर महुए की लकड़ी अपनी चिता में जलाते, जिसके लिए वह घरेलू फर्नीचर के मुकाबले सचमुच ही ज्यादा कारगर सिद्ध होती।

ऐसे लोगों को सामने पाँच लाख रुपए की गिनती मोटर पंप की मदद के बिना ही उनके पेट को गुब्बारे-जैसा फुला कर फोड़ने के लिए काफी था। बचत इसी में थी कि झोला खोज निकाला जाए और इसके पहले कि उनके पेट भक्क-से फूटें उसे सही हाथों में सौंप दिया जाए। पर सही हाथ सवेरे के मेहमानों के होंगे कि शामवालों के, यह तय नहीं हो पाया। फिर भी वे रात-भर अपने-अपने घरों के पास झोले की तलाश करते रहे, लालटेन लटका कर कुएँ में कई बार काँटा भी डाला गया। सवेरा होते ही उन्होंने आसपास का जंगल, बारों और बीहड़ भी छाना। पर झोला नहीं मिला। उनकी जगह उन्हें गाँव के दूसरी ओर के बीहड़ की राह से आते हुए वे पाँच आदमी मिले जो द्वापर होता तो कुंती के पाँचों पति होते, कलजुग में केवल उसके कारकून थे।

तीन दिन तक यही होता रहा। कभी डाकू आते, कभी पुलिसवाले। गाँववालों की छाती पर बिछे हुए किसी अनदेखे तख्ते के एक ओर छोर पर डाकू और दूसरे छोर पर बैठे पुलिस के लोग 'सी-सा' का खेल खेलते रहे। हर बार गाँव का कोई-न-कोई आदमी पिटता, उसकी छाती की ओर राइफलें तनती, गाँव को जला देने की धमकी मिलती और उनके दिलों में इतनी ठोस दहशत पैठ जाती कि रात को घंटो धोने पर भी महुए का ठर्रा उसे धो नहीं पाता।

तब चौथे दिन प्रधान ने बुंदेलखंडी चमरौधा जूतों पर मैली धोती, उजला कुर्ता, टोपी और अँगोछा पहना, दो जवानों को साथ लिया और और सबकी आँख बचा कर कई कोस दूर उस कस्बे का रास्ता पकड़ा जहाँ उनके एम.एल.ए. रहते थे। पर यह विदेश यात्रा और एम.एल.ए. के साथ हुई शिखर-वार्ता भी असफल रही।

हुआ यह कि एम.एल.ए. सिद्धांतवादी निकले। उन्होंने कहा कि मामला पाँच लाख रुपए के जेवरों का है। पुलिस अगर उसकी तलाश कर रही है तो ठीक ही कर रही है। अगर वे जेवर तुममें से किसी के पास है तो उन्हें तुरंत थाने पर जमा कर देना चाहिए। इससे मै तुम्हारी क्या मदद कर सकता हूँ? चाहो तो बस इतना कि वह झोला तुम मेरे हवाले कर दो और तुम्हारी तरफ से मैं उसे थाने पर जमा कर दूँगा। तुम्हें खुद थाने पर नहीं जाना पड़ेगा। पता नहीं वहाँ पर क्या बीते। यह और देख लूँगा कि पुलिस तुम्हारा चालान न करे, मुकदमे में तुम्हे सरकारी गवाह बना ले।

उस दिन, अपनी भावी योजना की बानगी के तौर पर डाकुओं ने तीन झोपड़ियाँ जला दी और पुलिस ने उतने ही आदमियों का नाजायज शराब बनाने के जुर्म में चालान कर दिया।

पाँचवें दिन दोहपर को दो लड़के, अपने एक निजी काम से कँटीले जंगल की ओर गए। उनमें उनमें बड़ा बारह और छोटा दस साल का था। कहा जा चुका है कि वसंत की सुहानी ऋतु थी और हर सुहानी ऋतु में उन्हें जंगल में भटकना अच्छा लगता था। निजी काम यह था कि उन्हें घुँघची इकठ्ठी करनी थी। भगवान ने घुँघुची के लाल दानों के ऊपर जो काली बुंदी लगा दी है, वह इन लड़कों को खासतौर से अच्छी लगती थी और आज उन्होंने सोचा था कि वे चुपके से जंगल में निकल जाएँगे और ढेर सारी घुँघची इकठ्ठा कर लेगें।

उन्होंने किया भी उसी धुन में उस झुरमुट के पास पहुँच गए। जहाँ महुए के दो-चार पे‌ड़ों के इर्द-गिर्द झाड़ियाँ बड़ी गझिन हो गई थी। उनके अंदर घुसना आसान न था। पर भीतरी अँधेरे को बेध कर आती हुई धूप के चकत्तों में उन्हें घुँघची की दुबली-पतली लताएँ न दीखते हुए भी दीख पड़ीं। उन्होंने इस माहौल में उनसे लटकी हुई कुछ फलियाँ भी देखीं जो आधा सूख कर बीच से फट गई थीं और जिन पर चिपके हुए घुँघची के दाने उन्हें अपनी लाल-काली चिकनी चमक के साथ अपनी और खींच रहे थे। झाडियाँ के नीचे से घुटनों के बल खिसक कर वे धीरे-से झुरमुट के बीच जा पहुँचे और अपनी पीठ एक महुए के तने से टिका कर धूपछाँही धुँधलके में चारों ओर निहारने लगे। वहाँ उन्होंने तने के दूसरी ओर पड़े हुए हरे-सफेद झोले को देखा।

दोनों के चेहरे ठस हो गए। उनकी आँखे फैल गईं और कुछ देर वे एक-दूसरे को बिना पलक माँजे देखते रहे। धीरे-धीरे उनके चेहरों में हरकत आई और बड़े के ओठों पर एक हल्की मुस्कान उतरी। बाद में उसके ओंठ फैल गए। वह जोर से हँसने ही वाला था कि छोटे ने उसके मुँह पर अपना छोटा-सा पंजा उठाकर ढक्कन-जैसा लगा दिया। तब बड़े ने उसकी सूझ की तारीफ में सिर हिलाया, एक हाथ से उसका हाथ अपने मुँह से हटाया और दूसरा हाथ ले जाकर झोले को अपनी ओर खींच लिया।

छोटि ने फुसफुसकर कहा, 'देख क्या है?'

झोला खींच तो लिया था पर बड़े की उँगलियाँ ठीक से चल नहीं रही थीं। मुश्किल से उसे खोल पाया।

ऊपर एक मैला तौलिया था। उसे धीरे-से झटक कर उसने जमीन पर डाल दिया। उसके नीचे एक कपड़े की छोटी-सी पोटली थी। उसे खोलने पर चार सूखी रोटियाँ मिली, एक बड़ा-सा प्याज भी। कपड़े के खूँट में एक गाँठ बँधी थी। खोलने पर नमक निकला।

'फेंक दे। रोटी कई दिन की बासी है।' छोटा वैसे ही फुसफुसाया। पर बड़ा बोला, 'रहने दे। गरम कर लेंगे तो बुरी नहीं लगेंगी।'

सूखे चमड़े के टुकड़ों-जैसी इन रोटियों को दोनों गंभीरता से देखते रहे। तब छोटे ने कहा, 'यह तो हमसे भी ज्यादा गरीब है।'

बड़ा बड़ी देर सोचता रहा, बोला, 'पता नहीं क्या दुख है उसे जो चार रोटी बाँधे बीहड़ों में भटक रही है।"

आगे के सामान की तलाशी उसने ज्यादा कारगर उँगलियों से ली। एक काँसे का गिलास निकला, फिर एक तीन इंची शीशा और एक कंघा। बड़े ने शीशे में मुँह देखा, रोब से आँखे मत्थे पर चढ़ा लीं।

अब छोटे के हँसने की बारी थी, पर बड़े ने हँसने नहीं दिया।

नीचे कागज में लिपटी हुई कोई चीज थी। छोटे ने बड़ी दिलचस्पी से कहा, 'इसमें गुड़ होगा।'

"तमंचा।" बड़ा बोला और इस बार अपनी ही आवाज से सकपका गया।

वे अंग्रेजी जानते होते तो समझ जाते कि वह बत्तीस बोर का एक छोटा-सा स्मिथ एंड बेसन रिवाल्वर है। इस्पात का नीला-सा खूबसूरत खिलौना। उन्होंने गाँव में एकाध बार देसी कारतूसी तमंचे देखे थे। पर वे बहुत बड़े और बदरंग होते है। यह सचमुच ही खिलौना-जैसा प्यारा और चिकना था। उनके मन में आतंक था, पर उसका चिकनापन उन्हें मजबूर कर रहा था।

बड़े ने उसे कई बार बारी-बारी से दोनों हथेलियों में उलट-पुलट कर देखा। तमंचा चलाने की मुद्रा में उसका हत्था भी एक बार हथेली में पकड़ा। तब तक छोटे का धीरज जवाब देने लगा। उसने भी हाथ बढ़ा कर बड़े की हथेलियों में बँधे हुए इस खिलौने को सहलाना शुरु किया। तभी तमंचे से एक गोली छूटी और पता नहीं किधर गई। झुरमुट का सन्नाटा छिन्न-भिन्न हो गया। अचानक ऊपर के पेड़ों और झाड़ियों से सैकड़ों चिडियाँ चीखती हुई निकली और चारों ओर उड़ चलीं। वे उन चिड़ियों को देख नहीं सकते थे पर उनकी विकृत आवाजें, घबराहट और जड़ता के बावजूद, उन्हें सुनाई पड़ रही थीं। ज्यादातर कौवे थे, उनसे भी ज्यादा तोते थे।

रिवाल्वर उनके हाथ से नीचे गिर गया, उन्होंने एक-दूसरे के कंधे भींच लिए। अचानक बड़े ने कहा, 'उठ।'

सबकुछ वहीं, जैसे का तैसा, छोड़ कर वे भागे। पर उसके पहले उन्हें कुछ देर पेट के बल घिसटना पड़ा। कोई दबाव था, जिससे कारण वे गाँव की ओर नहीं, बीहड़ की ओर भागे। झुरमुट पार करते-करते उन्हें दूर से अपने पीछे गोली चलने की आवाजें सुनाई दीं। वे झुके-झुके कुछ और तेजी से भागे और एक कम गहरे भरके में कुद गए। वहाँ उन्होंने रुक-रुक कर दागी जानेवाली गोलियों को कई आवाजें सुनीं।

वे टेढ़े-मेढ़े भरकों में भागते हुए काफी देर भटकते रहे। उन्हें हर तीसरे कदम पर गोलियों की आवाज सुन पड़ती और बार-बार उन्हें लगता कि अगली गोली उनकी पीठ में लगेगी। बिना कुछ सोचे-विचारे, टोटका जैसा करते हुए, वे अपनी हाफ पैंट की जेबों में भरी हुई घुँघची बीहड़ रास्ते में फेंकते गए। जब उनकी जेबें खाली हो गईं तब उन्होंने चैन की साँस ली। पर गोलियों की आवाजें भरकों में अब भी गूँज रही थीं।

बड़ी देर तक लंबा चक्कर काट कर वे एक भरके से गाँव के दूसरे छोर पर निकले और सबसे पासवाली झोपड़ी में घुस गए। वहाँ उन्हें सुनने को गोलियाँ नहीं, गालियाँ मिलीं। जो बुड्ढा चारपाई पर सिकुड़ा पड़ा था गालियाँ खत्म करके अंत में बोला, 'भाग जाओ। चुपचाप घर में बैठो जा कर।'

बदहवास चेहरे लिए, छिपे-छिपे एक से दूसरी दीवार का सहारा लेकर वे अपने घर पहुँचे। बाहर गलियारों में कोई न था। अंदर सब लोग दुबके बैठे थे। रुक-रुक कर चलनेवाली गोलियों की आवाज यहाँ ज्यादा साफ सुनाई देती थी। सन्नाटा था, चिड़ियों ने चीखना बंद कर दिया था। थोड़ी देर में उन्हें दूर किसी मोटर की घरघराहट सुनने को मिली। एक बुजुर्ग ने कहा, 'पुलिस की दूसरी मोटर आई होगी।'

बुजुर्गों की बातों से पता चला कि आज भी दोपहर में पुलिस गाँव में आई थी। पर लौटते-लौटते उनका दस्ता जंगल के पास अचानक रुक गया। उन्होंने जंगल की तीन तरफ से घेराबंदी कर ली है। पुलिस का एक जत्था अब बीहड़ की तरफ बढ़ रहा है। शुरू में एक गोली चला कर डाकू जंगल में चुपचाप घात लगाए बैठे हैं। लगता है कि मुठभेड़ घंटों चलेगी। जब डाकू भी जवाबी गोलियाँ चलाएँगे तो घमासान लड़ाई होगी। पर पुलिस को उन्हें अँधेरा होते-होते मार लेना चाहिए नहीं तो मुश्किल होगी। अँधेरा हो गया तो डाकू बीहड़ में कूद जाएँगे।

छोटे ने यह सब बड़े ध्यान से सुना। वह कुछ कहना चाहता था पर बड़े ने हाथ दबा कर उसे रोक दिया। कुछ देर में एक-दूसरे को चोर निगाहों से देखते हुए वे दहलीज पार करके अंदर आँगन में चले आए।

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