कुंजामूला (मलयालम कहानी) : ई.पी. ज्योति
Kunjamula (Malayalam Story in Hindi) : E. P. Jyothi
चकीरियन और शिवशंकरी को कुंजामूला के दिल में बसे आज पाँच साल हो गए। दिन...महीने कैसे गुजरे, उन्हें पता भी नहीं चला। चकीरियन शिवशंकरी को अपलक निहारता रहा। उसे वह बहुत थकी-थकी मालूम लगी, उसके करीब उसका दूध पीता बच्चा बेसुध पड़ा था। पेटभर के माँ का दूध पीना उसके भाग में कहाँ? छिपकर ही सही, अपनी बिटिया को पुचकारने की आजादी पर पाबंदी लगा रखी है, इस काले प्रभुत्व ने। जिंदगी के बारे में सोचना हम भूल गए हैं। अन्य राज्यों से कोषिक्कोड आए चार सौ मजदूरों में से थे—चकीरियन और शिवशंकरी। जानवरों से हाँकते-हाँकते आज यहाँ तक पहुँच गए, पर जानवरों से भी बदतर है उनकी जिंदगी, यह सोचते ही उनका दिल दहल जाता था। पल-पल बदलती जिंदगी से वे बेखबर थे।
उनके काम की एक झलक दूर से ही सही...।
रेत और सीमेंट मिलाकर टोकरियों में भरते हुए पुरुष, टोकरी के भार से दोहरी होती महिलाएँ, भीषण गरमी से झुलसती देह और बहते पसीने की परवाह न करते हुए आगे बढ़ते कदम। उनके बीच एक परछाईं सी वो—मेरी शिवशंकरी। जो इतनी देर तक मेरे स्पर्श की दूरी पर थी, न जाने कब उनके बीच पहुँच गई।
मेरी एक झलक से ही उसका मुख खिल गया। मेरा हाथ थामकर, मेरी जिंदगी में आनेवाली छरहरी साँवली लड़की। जिंदगी के थपेड़ों से भी उसकी सुंदरता कम नहीं हुई। पलभर में चकीरियन के भीतर गम के बादल घने हो गए। अपने गाँव को छोड़कर अन्य राज्यों में अपना घरौंदा बनाते समय हर बार एक नई आशा फूट पड़ती थी। परंतु सिर्फ आशाओं को ही नवजीवन मिला मालिकशाही का मजदूरों से पक्षपात हमारा शिकार करती रही। अपनी बीवी से प्यार जताना तो दूर, अपनी बच्ची को पुचकारने तक की अनुमति नहीं देते हैं ये मालिक लोग। यह सोचकर चकीरियन का दिल खून के आँसू रो रहा था। अपनी बीवी की नजदीकियों और उससें दो शब्द कहने के लिए उसका मन मचल रहा था। उसकी यह करतूत शिवशंकरी के होठों पर मुसकान ले आई। अन्य महिलाएँ न देख लें, यह डर होते हुए भी वह शिवशंकरी के करीब आया।
समय की आड़ी-तिरछी रेखाओं से अंकित उस चेहरे की आँखें धँसी हुई थीं। चकीरियन के भीतर से एक आह निकली। विरोध की ज्वाला भड़क उठी। समाज से चीख-चीखकर कुछ कहने का मन कर रहा था।
‘मियाँ-बीबी ने क्या नौटंकी लगा रखी है। क्या सोचा था मुफ्त में पैसे मिलेंगे, सीधे-सीधे काम कर।’
मिस्त्री नंपाडन के आक्रोश ने दोनों को चौंका दिया। अब आज पूरे दिन उसकी जबान बंद नहीं होगी।
नंपाडन का गुस्सा..., शिवशंकरी जल्द ही वहाँ से हट गई। चकीरियन की भीगी सी पुकार शायद उसने सुनी ही नहीं।
उसके मुख पर दुःख की बदली छा गई। मेरे और यहाँ रुकने से सजा तो मेरे पति को ही भुगतनी होगी। उसकी आँखों से बिखरे आँसुओं के कतरे गिरकर तितर-बितर हो गए।
‘क्या बे, तुझे अलग से कहना पडे़गा।’ अचानक ही मिस्त्री का हाथ चकीरियन की पीठ पर आ पड़ा, मुड़कर देखा तो मुँह पर धर दिया एक थप्पड़। ‘क्यों बे, आँखें दिखा के डरा रिया है हमको।’ मिस्त्री खड़ा लाल-पीला हो रहा था।
‘मैं कहाँ घूर रहा हूँ।’ दबी आवाज में बोला तो मिस्त्री का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया।
‘उल्टा जवाब देता है साला, जानवर कहीं का।’ अंदर गुस्सा लावा बनकर उबल रहा था, मगर वह चुपचाप खड़ा रहा। यह बात वह अच्छे से जानता था कि एक उसके अकेले के मालिकशाही के खिलाफ खड़े रहने से कोई फायदा नहीं।
हजारों वादे करके एजेंसी उन्हें यहाँ लाई थी, मगर सरकार के कहे अनुसार कुछ भी यहाँ नहीं हो रहा।
दिन-रात काम करनेवाले हम मजदूरों से जानवरों से भी बदतर सलूक किया जाता है। कोई भी यहाँ सुरक्षित नहीं, मैं भी नहीं। शिकायत करें तो किससे? इसी तरह सोचनेवाले और मालिक की ओर उँगली उठानेवाले कनकन को उसके बाद किसी ने जीवित नहीं देखा। नई खड़ी की गई बारह मंजिली इमारत की ऊपरी मंजिल में जब बारिश के कारण रिसाव हुआ तो मिस्त्री ने मजदूरों की मारकर हड्डी चूर-चूर कर दी थी। आज भी यह एक कड़वी याद बनकर मन को कचोटती है। सवाल करने की जुर्रत करनेवाले कनकन की लाश कीडे़ रेंगती हुई पड़ी रही उसी इमारत के एक कमरे में। आत्महत्या का नाम देकर मसल डाला सोने के कंगनवाले प्रभुता के हाथों ने। जितना भी काम करो, मिलती तो वही डाँट-फटकार ही है। इस लाचारी से हमारी कोई मुक्ति नहीं।
‘पेटभर के खाना हो तो काम करो नासपीटो।’ मिस्त्री फिर भी चुप नहीं बैठा। रात के बारह बजे भी रोज यही सुनने को मिलता है। पेट की भूख को आए दिन मन ही शांत करता है। अनजाने में गुजरी जवानी, दीमक लगी सेहत, काँटों से चुभते तानों की बरसात का दर्द बिना जवाब दिए सहते हुए जीवन की इस तंग गली से बिना मुडे़ हम आगे बढ़ रहे हैं। जिंदगी इन मालिकों के पैरों तले कुचले जाने पर आँखों से गिरते खून के आँसू भी अपनी रंगत खो बैठते हैं। इन जल्लादों के सामने अपना सीना फाड़ के कलेजे को भी गिरवी रखना पड़ता है।
किसे श्राप दें—सरकार को, मालिकों को, एजेंसी को या खुद को?
रात गहरी हो रही है। घने होते अँधेरे के सिलवटों में अपनी ही धुँधलाती छवि ढोए वह आगे बढ़ा।
‘अप्पा!’ बिटिया की पुकार की गूँज। सबकुछ भूलकर वह उस आवाज के पीछे भागा। उस अँधेरे में भी पूरे कुंजामूला में उसकी आह गूँज रही थी।
(अनुवाद : निपुणा एस. धरन)