कुम्भा की तलवार (कहानी) : आचार्य चतुरसेन शास्त्री
Kumbha Ki Talwar (Hindi Story) : Acharya Chatursen Shastri
(इस कहानी में एक राजपूत बालिका और उसकी वीर माता के साहस और तेज़ की अमर गाथा है।)
चितौड़ के अजेय दुर्ग का पतन हो चुका था। महाराणा उदयसिंह लापता थे और जयमल फत्ता ने प्राणों की आहुति दे दी थी। क़िले पर दखलकर सम्राट अकबर उसे एक अधिकारी को सौंप आगरा लौट आए थे। अधिकारी को आज्ञा थी कि आसपास के सभी क़िलों को अधीन कर ले और उनके अधिपतियों का, जो राणा के सरदार थे, या तो अपने अधीन कर ले या युद्ध में पराजित कर ले। इस कार्य के लिए एक भारी सेना छोड़ भी दी गई थी।
रणथम्भोर का दुर्ग अत्यन्त अजेय था । वह एक दुर्गम विशाल चट्टान पर निर्भयता से खड़ा था। दुर्ग पर चढ़ने को मीलों तक कहीं भी सुविधा न थी । केवल एक ढालू नाले द्वारा, जो मुड़कर इधर-उधर बहुत टेढ़ा हो रहा था, एक भयानक रास्ता क़िले तक गया हुआ था। इसके चारों ओर दुर्गम अरावली की अनगिनत श्रेणियां थीं।
इसकी रक्षा राव सुर्जन हाड़ा की नवविधवा पत्नी कर रही थी । इस युद्ध में हाड़ा सरदार पुत्रसहित काम आए थे। क़िला घेर लिया गया था। सिंहिनी रानी पति और पुत्र का घाव छिपाए यत्न से क़िले की रक्षा में तत्पर थी। इस समय मेवाड़ में। मुग़ल सिपाही ही सिपाही नज़र आते थे । इस क़िले में महाराणा कुम्भा की वह रत्न जटित तलवार धरोहर के तौर पर रखी थी जो उन्हें मालवशाह की विजय में भेंट दी गई थी। सिंहविक्रम सुर्जन के पूर्वजों ने सैकड़ों बार प्राण देकर भी इस तलवार की रक्षा की थी।
परिस्थिति गम्भीर होती चली जा रही थी, क्योंकि आक्रमण बराबर जारी थे । खाद्य- सामग्री और युद्ध-सामग्री बराबर क्षय हो रही थी और शत्रुओं के हटने की कोई आशा न थी। मुग़ल सेनापति क़िले की चाबियां मांग चुका था, जिसे देने से रानी ने दर्प से इनका कर दिया था। उसके पूर्वजों पर जो भार था, वह इस समय इस असहाय दुखिता वीर बाला पर था, जिसे इस समय कहीं से कोई सहारा न था और प्रबल प्रतापी अकबर से मोर्चा लेना था।
वह क़िले के पूर्वीय बुर्ज की खिड़की में मलिन वस्त्र पहने बैठी गौर से मुग़लों के टिड्डी- दल को देख रही थी। मनुष्यों की चिल्लाहट, घोड़ों की हिनहिनाहट, इधर-उधर डेरे गडने की खटपट की आवाज यहां भी उसके कानों में पड रही थी । उसी के पास उसकी पुत्री बैठी किसी राजपूत सिपाही का फटा वस्त्र सी रही थी ।
रानी ने भग्न मन से कहा- बेटी, अब नहीं। अब एक क्षण भी नहीं चल सकता, मुझे न अपनी परवाह है, न तेरी और न किसी और वीर पुरुष या स्त्री की । हम सब सच्चे राजपूत की भांति भूख और मृत्यु का सामना कर सकते हैं, परन्तु वह तलवार जो मेरे श्वसुर के पड़दादा ने अपनी पाग पर रखकर राणाकुम्भा से ग्रहण की थी और उसकी रक्षा का वचन दिया था, उसका क्या होगा? उसकी रक्षा किस भांति की जाएगी? क्या वह मुग़ल बादशाह के क़दमों में पेश की जाने को दिल्ली भेज दी जाएगी ? वह विजयी महाराणा कुम्भा की तलवार, जिसे उन्होंने मालवे के प्रतापी सुलतान महमूदशाह ख़िलजी से बलपूर्वक हरण किया था ? रानी की दृष्टि ऊपर उठकर क़िले की बुर्जी पर अटक गई। वह अत्यन्त गम्भीर और शोकपूर्ण विचारों में मग्न हो गई।
बालिका ने हाथ का काम रख दिया। वह उठकर माता के पास आई और माता के मुख पर अपना मुख रख दिया। वह अति सुन्दर मुख था, पर भूख और वेदना के कारण वह गुलाब की सूखी हुई पंखुड़ी की भांति शोभाहीन हो रहा था। आंखों का सभी रस सख गया था। उसने करुण कम्पित स्वर में कहा हम चालीस भी तो नहीं हैं मां, फिर हम सब भूख से अधमरे हो रहे हैं। हाय, आज हमें रोटी का एक टुकड़ा भी इतना दुर्लभ है!
बालिका ने एक सिसकारी भरी और माता से लिपट गई। रानी ने सहज - गम्भीर स्वर में कहा – धीरज, बेटी धीरज, यह समय भूख और मृत्यु की चर्चा का नहीं; इस समय हमें तलवार की रक्षा का विचार करना चाहिए, जो हमारे कुल की प्रतिष्ठा की चीज़ है।
एकाएक बालिका के मस्तिष्क में कोई विचार उठा । उसने दोनों हाथों से माता का मुख अपनी तरफ़ फेरा। क्षण-भर दोनों आंख से आंख मिलाकर एकटक एक दूसरे को देखती रहीं । पुत्री की अर्थपूर्ण दृष्टि और कम्पित होंठ देखकर उसने कहा तू क्या सोच रही है लड़की?
'मां, मैंने तलवार की रक्षा का उपाय सोच लिया है। मुझे साहस करने दो।' इसके बाद उसने माता के कान में झुककर कहा । रानी ने सहमति नहीं दी, परन्तु बालिका ने हठ करके रानी को सहमत कर ही लिया ।
भयानक रात थी और आकाश पर बदली छाई थी । क़िले के पृष्ठभाग की बुर्जी पर चार प्राणी एक दूसरे से सटे खड़े थे ।
रानी ने कहा- बेटी, अब हम न मिलेंगे ?
'नहीं मां, हम मिलेंगे, आनन्द और सुख के अक्षय स्थल स्वर्ग में शीघ्र ही ।'
उसने फ़सील पर लटकती हुई रस्सी अपने कोमल हाथों में पकड़ी।
एक वृद्ध योद्धा ने कम्पित स्वर में कहा :
'बाईजीराज, मुजरा ।'
'ठाकरां, माता की प्रतिष्ठा आपके हाथ है।'
बालिका साहसपूर्वक रस्सी पर से उतरने लगी और उस अन्धकार में लीन हो गई ।
दूसरे दिन प्रात:काल एक बालक धूल और कालख से अत्यन्त गन्दा, फटे वस्त्र पहने, नंगे पैर, सिर पर घास का एक बड़ा सा गट्ठा लिये, लड़खड़ाती चाल से मुग़ल-शिविर में प्रवेश कर रहा था। एक प्रहरी ने कड़ककर पूछा :
'कहां जाता है बदज़ात ?'
‘सरकार, मुहम्मद इब्राहीम का नौकर हूं, उनके घोड़े की घास ले जा रहा हूं।'
उस अनन्त लश्कर में कौन इब्राहीम है, यह प्रहरी क्या जाने ? उसने पीनक में ऊंघते हुए कहा- जा, मर।
यवन-दल पड़ा सो रहा था। बहुत कम लोग जागे हुए थे। बालक को और भी एक- दो बार टोका गया और उसने यही उत्तर दिया। वह मुग़ल सेना को चीरता चला गया। एक चौकी पर सिपाही ने घुड़ककर कहा :
'इधर आ बे, घास इधर ला ।'
'बहुत अच्छा सरकार ।'
'कै पैसे ?'
'हुजूर ग़रीब लड़का हूं, जो मर्ज़ी हो दे दें,' बालक ने घास सामने फेंक दी। उसमें से रस्सी खोली। खुरपी और रस्सी लपेटकर हाथ में ले ली और फिर थककर वहीं बैठ गया। सिपाही ने कुछ नर्म होकर कहा :
'इतनी जल्दी घर से क्यों निकला ?'
'सरकार भूखा हूं, पेट सब कराता है।'
'नौकरी करेगा ?'
‘करूंगा मालिक, पर मेरी बुढ़िया मां तीन दिन से भूखी बीमार पड़ी है, उसे कुछ खाना...'
'ले' सिपाही ने थोड़े पैसे निकालकर फेंक दिए । 'हमारा नाम ताजरखा है, नौकरी करना हो तो इधर आ जाना।'
'बहुत अच्छा सरकार, पर कोई रोकेगा ?"
सिपाही ने एक पुर्जा लिखकर उसे दिया और कहा - जो तुझे रोके उसे यह दिखा देना । बालक सलाम करके धीरे-धीरे आगे बढ़ा। शिविर की समाप्ति पर प्रहरी ने उसे टोका, पर वह पुर्जा देखकर सन्तुष्ट हो गया ।
बालक ने सकुशल यवन शिविर पार किया । वह कुछ दूर बढ़ा चला गया। इसके बाद वह ऊंची पहाड़ी पर चढ़ गया और वहां से सूखी लकड़ी बटोरकर आग जला दी।
रानी ने कहा लड़की सुरक्षित यवन-शिविर को पार कर गई। अब विलम्ब काम नहीं। ठाकरां, अब तुम सब कै जने हो ?
'सब मिलाकर छत्तीस हैं, महारानी ।'
‘अच्छा, मैं सबको नौकरी से मुक्त करती हूं, जिसकी इच्छा हो यवन-सेनापति को आत्मार्पण कर दे।'
'माता, केसर का कड़ाह भरा जाए, हम साखा करेंगे।'
'ठाकरां, जीते जी प्रतिष्ठा न जाने पाए । '
'ऐसा ही होगा माता । '
केसर का भारी कड़ाह भरा था। प्रत्येक योद्धा अपना अंगरखा उसमें रंग - रंगकर पहन रहा था। यह स्वेच्छा सेना थी। रानी ने कहा- तो तुम तैयार हो ?
'हां, मां।'
'अच्छा, ज्यों ही हम अपना कार्य समाप्त कर लें, तुम क़िले का फाटक खोल शत्रुओं पर टूट पड़ना ।'
'जो आज्ञा ।'
'और जब तक एक भी जीवित रहे, यवन क़िले के फ़ाटक को न छू सकें।'
'जो आज्ञा ।'
'तुम कुल कितने हो ?'
'सब छत्तीस हैं।'
'तुम छत्तीस हज़ार हो, जुहार ठाकरां ?' रानी महलों में चल दी।
एक बार छत्तीसों कंठों ने गरजकर कहा :
'जय रानी माता की !'
प्रत्येक वीर नंगी तलवार लिये दृढ़ निश्चय कर पंक्तिबद्ध खड़ा था। राजमहल में भीषण धड़ाका हुआ और क्षण-भर में ही आग की लपटें आकाश को छूने लग गईं। यवन-शिविर में हलचल मच गई। छत्तीसों वीर नंगी तलवार लेकर आगे बढ़े। उन्होंने फाटक खोल दिया। वे सब भूखों मर रहे थे । उनकी आंखें निकली पड़ती थीं फिर भी वे लौहपुरुष की भांति दृढ़ थे। उनका कर्तव्य पूरा हो चुका था। उन्होंने क़िले का फाटक खोल दिया और देखते ही देखते जूझ मरे ।
बालक के पैर लहूलुहान हो रहे थे। पग-पग पर वह लड़खड़ा रहा था। धरती तपते तवे की भांति तप रही थी । वह भूख-प्यास से अधमरा हो रहा था। उसके वस्त्र चिथड़े हो गए थे। उनमें कांटे और गुल्मों ने लिपटकर उसका अद्भुत स्वरूप बना दिया था। वह किसी भांति साहस करके दुर्गम-दुरूह घाटी में बढ़ा चला जा रहा था । सामने की टेकड़ी पर जो बटिया दीख रही थी, उसी पर चढ़ने का उसका इरादा था ।
टेकड़ी पर एक भील धनुष पर बाण चढ़ाए इसी ओर देख रहा था। उसने ललकारकर बालक से कहा- वहीं खड़ा रह। यहां आने का क्या काम है? – उसने बाण बालक की ओर साधा। बालक ने हाथ के संकेत से उसे रोका। उसने भरपूर शक्ति लगाकर पुकारा - राणा जी ! और वह मूच्छित हो वहीं गिर पड़ा।
तुरन्त ही बलिष्ठ पुरुष कुटिया से बाहर निकल आए। उनके हाथों में तलवारें थीं। दोनों व्यक्तियों ने नीचे उतरकर बालक को उठाया। बालक ने जल का संकेत किया । राणा ने वस्त्र उठाकर देखा, वह बालक नहीं बालिका थी । उसकी छाती पर गूदड़ से लपेटी हुई वह तलवार थी, जो गूदड़ हटाते ही सूर्य की भांति चमकने लगी।
बालिका ने भग्न स्वर में कहा महाराणा की जय हो, मैं रणथम्भोर के दुर्गपति सुर्जनहाड़ा की पुत्री हूं। महाराज, चित्तौड़ - पतन के बाद रणथम्भोर भी घेर लिया गया। पिता और भाई तो चित्तौड़ में ही काम आए थे। हम लोगों ने बहुत चेष्टा की पर महाराज, हम भूखों मरने लगे । अन्त में हमारा प्यारा रणथम्भोर... बालिका बोल न सकी । उसके होंठ फड़ककर रह गए। बालिका के प्राण निकल गए। राणा के हाथ से तलवार छूट गई। बालिका की निर्जीव देह गोद में लेकर वे बालकों की भांति रोने लगे।