कुछ विचार (सम्भाषण) : महादेवी वर्मा

Kuchh Vichar (Sambhashan) : Mahadevi Verma

(उत्तर प्रदेश विधान परिषद में भाषण)

अंकों की वर्णमाला जीवन की अपूर्णतम संकेतलिपि है। जब हम उसके अतीत की उपलब्धि वर्तमान की आवश्यकता और भविष्य की रूपरेखा के साथ रख कर देखते हैं तभी हमें अर्थ बोध प्राप्त होता है। जनता शासन तंत्र को करों के रूप में कुछ अर्थही देती है परंतु प्रतिशत में वह ऐसे साधन और उपकरण चाहती है जो उसके समग्र जीवन को स्पर्श कर उसे विकास दे सके। कोई भी सरकार और किसी प्रकार का भी शासन तंत्र खाद्य को तो महत्व देगा ही। माता अपने बालक को भोजन देती है और इक्केवाला अपने टट्टू की भी व्यवस्था करता है परंतु दोनों के लक्ष्य में अंतर है। माँ बालक में अपनी आत्मा का अवतार देखना चाहती है, उसमें अपने स्वप्नों को साकारता देती है और पशु का पालक केवल उससे भार वहन का कार्य लेना चाहता है। विदेशी सरकार के संबंध में यह कहा जा सकता है कि वह हमारा सांस्कृतिक उत्थान नहीं चाहती थी। हमारे चरित्र का निर्माण उसे अभीष्ट नहीं था । परंतु आज अपने शासन-तंत्र से तो हम ऐसी अपेक्षा नहीं करते। मनुष्य केवल समूह जीवी नहीं है। वह ऐसे समाज का अंग है जिसमें व्यक्तिगत स्वार्थ को समष्टि के स्वार्थ की छाया में चलना पड़ता है। अतः मनुष्य के हृदय और बुद्धि को ऐसे परिष्कार की आवश्यकता होती है जिससे वह इस सहयोग को सामंजस्यपूर्ण बना सके । विदेशी शासन तो हमें अपनी सत्ता की स्थिति के लिए जीवित रखना चाहता था परंतु आज हम अपने राष्ट्र की प्रतिष्ठा के लिए जीवित रहना चाहते हैं। स्वतंत्रता के इतने वर्षों में हम अपने नैतिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक धरातल को ऐसा नहीं बना सके कि हम विवेकशील मानव कहे जा सकें। हमारे शासन- तंत्र की दृष्टि में शिक्षा प्राथमिक आवश्यकता नहीं है, दूसरी भी नहीं है, तीसरी भी नहीं है। इसका हमारे जीवन में कहाँ और कौन-सा स्थान है यह कहना कठिन है।

जहाँ तक मुझे स्मरण है सन् 1998-99 के अनुमान पत्रक में शिक्षा पर 16 प्रतिशत के लगभग व्यय किया गया था और आज हम 11 प्रतिशत से अधिक नहीं कर सके और हम विश्वास करते हैं कि इससे अधिक किया ही नहीं जा सकता। इस सत्य को स्वीकार करके भी हमें परिणाम से ही इसका मूल्याँकन करना चाहिए। जब हम किसी बीज को बो देते हैं तो धूप, हवा या जल की नाप-तौल कर उसे नहीं देते परंतु उसके विकास से ही अपने प्रयत्न का परिणाम निकाल लेते हैं। जब उसमें हरे पत्ते निकलते हैं, फूल आते हैं, शाखाएँ फैलती हैं तब हम समझते हैं कि हमारा प्रयत्न ठीक था । हम जो दे रहे हैं उससे विकास में प्रगति हो रही है। जब ऐसा नहीं होता तो हम समझते हैं कि हमारे साधनों में कहीं विषमता है। गत कुछ वर्षों में हमारे जीवन का स्तर निम्न से निम्नतर हुआ है । हमारा बुद्धिजीवी वर्ग चाहे वह साहित्यकार हो, चाहे पत्रकार, चाहे अध्यापक हो, चाहे विद्यार्थी, ऐसी स्थिति में पहुँच गया है जिसे बनाए रख कर हम एक पग भी आगे नहीं बढ़ सकते और संभव है कि यह स्थिति परिणाम में हमारे लिए दुःखद ही सिद्ध हो। शिक्षा के संबंध में हमारी नीति अनिश्चित है। हमारे कुछ स्कूल खुलते हैं और कुछ बंद होते हैं। पढ़ाई की जाए या न की जाए इस पर विवाद होते हैं और परिणाम अनिश्चित रहता है। यह विवाद बहुत कुछ वैसा ही है जैसा यह विवाद कि बीज पहिले हुआ या वृक्ष पहिले हुआ। यह भी सत्य है कि बीज से वृक्ष उत्पन्न होता है और यह भी असत्य नहीं कि वृक्ष से बीज की सृष्टि होती है। शिक्षा के संबंध में कोई निश्चित योजना न होने के कारण ही हम यह नहीं कह सकते कि आगामी पाँच वर्षों में हम कितने प्रगतिशील व्यक्तियों को साक्षर बना लेंगे अथवा अपने बौद्धिक विकास के लिए किस दिशा में प्रयत्न करेंगे। अतीत के ज्ञान की नींव पर बना हुआ हमारा शिक्षा का प्रसाद कलश तक हिल उठा है। उसके मूल में ऐसा भूकंप है कि जिसकी ओर ध्यान न देने से उसका ठहरना कठिन होगा।

यह कहना कि हमारे विद्यार्थी अनुशासनहीन हैं और उनकी अनुशासनहीनता का कारण हमारे अयोग्य अध्यापक हैं, हमारी समस्या का कोई हल नहीं माना जा सकता। हमें यह देखना होगा कि हमारी शिक्षा में कहाँ भूल है। व्यक्ति एक सामाजिक क्षेत्र में एक मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि में कार्य करता है। जब हम किसी बड़े अभाव से पीड़ित और चिंतित होते हैं तब सामान्यतया सुंदर और रम्य दृश्यों की ओर भी हमारी दृष्टि नहीं जाती । आत्मीय जनों के प्रति भी हम खीजते हैं। जब मैं ऐसे अध्यापकों की कल्पना करती हूँ कि जो अपने बच्चों को दवा नहीं दे सकते, उसको पुस्तकें खरीद कर नहीं दे सकते तो उनकी मानसिक स्थिति की कल्पना भी सहज हो जाती है। ऐसी स्थिति में स्वाभाविक है कि वह दूसरों के स्वस्थ बालकों को देख कर प्रसन्न न हों, उसके वस्त्र और खिलौने देख कर अपनी असमर्थता पर क्षोभ हो । वे उस स्नेह को न दे सकें जो अध्यापक से विद्यार्थी को प्राप्य हैं। जीवन में अनेक दुर्वह कष्ट जिन्हें घेरे हुए हैं वे दूसरे को स्वस्थ विकास के साधन देने में समर्थ नहीं होते। हमारी प्राथमिक शिक्षा जिस वातावरण में चल रही है, उस वातावरण में बालक को विकास के साधन अप्राप्त ही रहेंगे।

माध्यमिक शिक्षा की स्थिति भी इससे भिन्न नहीं, अनिश्चय उसकी भी रूपरेखा को अस्पष्ट बनाए हुए है। वैसे सैनिक का जीवन भी और विशेषतः मोर्चे पर खड़े सैनिक का जीवन भी अनिश्चित होता है परंतु उस अनिश्चय के साथ कोई महान आदर्श हो तो मृत्यु का कारण जीवन से अधिक मूल्यवान जान पड़ता है। हमारी अनिश्चित स्थिति के साथ किसी ऊँचे आदर्श की पृष्ठभूमि नहीं है। इसी से उसके लिए किसी त्याग का महत्व नहीं रह जाता। आज न अध्यापक यह विश्वास कर पाता है कि वह समाज का आवश्यक अंग है और न विद्यार्थी, और बिना इस आस्था के कष्ट सहिष्णुता उसके लिए एक प्रकार की यातना ही है। हम यह कहने के अभ्यस्त हो गए हैं कि उनमें त्याग की कमी है परंतु हम यह भूल जाते हैं कि जो वस्तु उनके पास नहीं है उसका त्याग कैसे करेंगे। जब तक वह वस्तु प्राप्त नहीं कर लेते तब तक त्याग की बात कल्पना मात्र है। विश्वविद्यालय का प्रश्न भी समस्या बन जाता है । समस्या को सुलझाने के लिए या भूल जाने के लिए हम सोचते हैं कि उन्हें बंद कर दें या जिज्ञासुओं की संख्या कम कर दें। हमारा विश्वास है कि हम, महान होने वाले हैं, विद्यार्थियों को पहिले से चुन लेंगे और अपने प्रयत्न से उन्हें महान बना लेंगे। शिक्षा के क्षेत्र में ऐसा संभव नहीं होता जब अनेक व्यक्ति दर्शन पढ़ेंगे तो एक राधाकृष्णन् जैसा दार्शनिक पैदा होगा। जब अनेक व्यक्ति विज्ञान के खोजी होंगे तब कोई एक जगदीश चंद्र वसु उत्पन्न होगा। ज्ञान के क्षेत्र में किसी महान व्यक्तित्व को पाने के लिए हमें अनेक व्यक्तियों को सुविधा देनी पड़ती है । पर्वत को तोड़ कर ही हम रेडियम का एक कण पाते हैं। यदि हम इसके लिए प्रस्तुत नहीं हैं तो हमें कुछ मूल्यवान् प्राप्त नहीं हो सकेगा। ज्ञान के क्षेत्र में काम करने वालों को न हम आर्थिक सुविधा दे सके हैं न सम्मान दे सके हैं। हमसे उन्हें केवल उपेक्षा और निंदा ही प्राप्त होती है। जहाँ तक साहित्यकार का प्रश्न है उसकी स्थिति इससे भी दयनीय है। साहित्य के माध्यम से संस्कृति का विकास होता है और आज उसके लिए न समाज में कोई महत्वपूर्ण स्थान है और न शासन तंत्र में सरकार साहित्य के विकास के लिए 50,000 रुपए की निधि रखती है और इस निधि से पुरस्कार दिए जाते हैं। वस्तुतः स्थिति ऐसी है कि साहित्यकार यदि अपनी पुस्तक प्रतियोगिता में भेजना चाहता है तो या तो उसे चार प्रतियाँ टाइप करानी होती हैं या उसे किसी प्रकाशक का सहारा लेना पड़ता है। टाइप कराने में 150-200 रुपया तक व्यय हो जाना सहज है और प्रकाशक तो उसकी आवश्यकता जान कर बिना कुछ दिए ही उसकी पुस्तक छापना चाहता है। इस प्रकार पुरस्कार की निधि से उन्हें 300 या 500 जो कुछ प्राप्त हो जाता है उन्हें भी इसके अतिरिक्त कोई लाभ नहीं होता । पहले प्रकाशक कुछ देकर पुस्तकों का कापीराइट खरीदता था और अब सरकार कुछ देकर उनके लिए कापीराइट सुलभ कर देती है। एक विशिष्ट विद्वान ने एक कोष बनाया है, प्रकाशक उसका कापीराइट 200 रुपए में खरीदने के लिए प्रस्तुत है । यदि वह दे देता है तो उसके जीवन भर की पूँजी चली जाती है और यदि नहीं देता तो पुस्तक अप्रकाशित रह जाती है। इस प्रकार के उदाहरण एक दो नहीं असंख्य हैं। सरकार को ऐसी निधि अवश्य रखनी चाहिए जिससे पुस्तकों का प्रकाशन किया जा सके। प्रकाशन की योजना को कार्यान्वित करने के लिए वह विद्वानों, साहित्यकारों की सरकारी और गैरसरकारी संस्था बना सकती है। गत वर्ष मैंने श्री निराला जी की स्थिति के विषय में सदन में विस्तार से कहा था किंतु उनकी स्थिति आज भी वैसी ही है। गोली से मरना साहस का काम है किंतु यह भी कम साहस का काम नहीं है कि हम अपने आत्मीयजनों को बूँद-बूँद विष पीकर दम तोड़ते देखें और इस प्रकार का साहस आज प्रत्येक साहित्यकार को करना पड़ता है। पत्रकार की स्थिति तो इससे भी कठिन हो जाती है। साहित्यकार यह सोचकर संतोष कर सकता है कि कालोहियम् निरवधि विपुला च पृथ्वी किसी समय कोई समानधर्मा उत्पन्न हो सकता है जो हमारे ग्रन्थ को समझेगा परंतु पत्रकार को तो तात्कालिक समस्या पर लिखना पड़ता है और उसका महान से महान लेख भी दूसरे दिन महत्व खो देता है। यदि उसे जीवन की सुविधा और समाज का विश्वास न मिले तो उसका कार्य दुर्गम हो जाता है। आज हमें मनस्वी पत्रकार कम मिलते हैं, क्योंकि ऐसे वातावरण में इनका उत्पन्न होना उत्तरोत्तर असंभव होता जाता है।

विदेशी शासन तंत्र से हमारा सक्रिय विरोध था। उस समय शिक्षा के क्षेत्र में जितना निर्माण हुआ वह उसी विरोध का परिणाम था । महाकवि टैगोर का श निकेतन, गुरुकुल, काशी विद्यापीठ और अनेक राष्ट्रीय विद्यालय उत्पन्न हुए जिन्होंने बौद्धिक तथा सांस्कृतिक दृष्टि से देश को बहुत आगे बढ़ाया। जब किसी देश का बौद्धिक, नैतिक और सांस्कृतिक स्तर गिरता है तब समझना चाहिए कि वह जाति रसातल की ओर जा रही है क्योंकि मनुष्य केवल बाहर से नहीं बनता, वह यंत्र मात्र नहीं है। उसके समग्र निर्माण के लिए अंतर्जगत का निर्माण होना अनिवार्य है । एक दिन हमारी दृष्टि का केंद्र स्वतंत्रता थी परंतु जब से हमारी दृष्टि उस केंद्र से हटी है तब से हमारे पास कोई केंद्र नहीं रहा। हम स्वयं नहीं जानते कि हम क्या करना चाहते हैं। हमारे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपराधों की आवृत्तियाँ हो रही हैं। इसके प्रतिकार के लिए हम यही चिंता करते हैं कि पुलिस बढ़ावें, सेना बढ़ाएं परंतु इन साधनों से मन के भीतर बढ़नेवाली विषमता और अपराधों की प्रवृत्ति की रोकथाम नहीं हो सकती। हम कटघरा बना कर इतने अधिक व्यक्तियों को अभियुक्त के रूप में नहीं खड़ा कर सकते। बौद्धिक विकास की इस स्थिति के समान ही हमारी सामाजिक संस्थाओं की दुर्गति है। आज भी हमारे यहाँ ऐसे अनाथालय हैं जिनके बच्चे भीख माँगते घूमते रहते हैं। जिस दिन वह भिक्षाटन में कुछ माँग कर नहीं लाते अनाथालय का प्रबंधक उन्हें भोजन नहीं देता। स्वतंत्र देश में कोई अनाथ क्यों कहा जाए और भिक्षुक बनाने वाली संस्थाएँ क्यों रहें ? हमारे विधवा आश्रमों की स्थिति भी भीषण है। जीवन का गर्हित व्यापार मात्र उनकी विशेषता है। ऐसी स्थिति में यह कल्पना करना कि शिक्षा हमारी प्राथमिक आवश्यकता नहीं है और जब जीवन के अन्य क्षेत्र विकास कर चुकेंगे तब हम इसके विकास पर ध्यान देंगे, कितनी बड़ी भूल है यह कहना व्यर्थ है। मनुष्य का सबसे बड़ा निर्माण मनुष्य ही है। शासन- तंत्र का भी सबसे बड़ा सृजन मनुष्य में ही मिलता है। सुंदर प्रासाद बनाने वाले को समाज भूल जाता है और प्रासाद भी खंडहर हो जाता है परंतु जिन्होंने राष्ट्र को बनाया मनुष्य को बनाया उनके निकट मनुष्यता कृतज्ञ रहती है।

आज विचार और विचार का संघर्ष है और विश्व दो खेमों में बँट गया है। विचारों की लड़ाई में वही सफल होता है जिसकी दृष्टि जीवन को गहराई में पकड़ती है। यदि हम यह विचार करें कि व्यक्ति की विकृतियाँ सामूहिक विकृतियाँ नहीं हैं तो हमारा यह विश्वास हमारे लिए आत्मघाती सिद्ध होगा । यंत्र में यदि एक पुरजा भी खराब है तो वह कार्य नहीं कर सकता । व्यक्ति भी समाज में ऐसी ही इकाई है। जिस समाज के इतने अंग खराब हों उसे चला लेना संभव न होगा । हमें अपने सामाजिक धरातल को ऊंचा उठाने के लिए अविलंब कोई योजना बनानी है। आज से कुछ पहिले जितने कलाकार, विद्वान, तपस्वी थे, आज वे हमें नहीं दीखते क्योंकि हम उन विशेषताओं को महत्व देना भूल गए हैं। समय हमारे लिए रुक नहीं सकता। समय के प्रवाह के साथ हमें अपनी गति की संगति बैठानी होगी। इसमें विवाद का, मतभेद का अवसर नहीं है। दो खंभे नहीं मिल सकते किंतु जल की दो धाराएँ मिल सकती हैं और उन धाराओं से बनने वाली नदी समुद्र में मिल सकती है। जीवन में ऐसी ही तरलता गतिशील होती है। शासक और शासित दोनों मिल कर एक ऐसी नदी बन जाएँ तो जीवन को विकास के महान समुद्र तक पहुँचा सकें।

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