कुछ विचार (निबंध) : महादेवी वर्मा
Kuchh Vichar (Hindi Nibandh) : Mahadevi Verma
हमारे इस विशाल देश की बाह्य अनेकता जिस सीमा तक अपरिचय का कोहरा फैलाती है, उसी सीमा तक इसकी सांस्कृतिक एकता से, परिचय-जनित आस्था की किरणें फूटती रहती हैं। इस प्रकार उसके बहिरंग में अंतरंग को देखना, निरंतर नवीनता में चिरंतन परिचित को पाना हो जाता है ।
यह भौतिक अनेकता और तात्विक एकता इस देश की विभिन्न भाषाओं और उनके साहित्य संपूर्ण मार्मिकता के साथ व्यक्त हुई है। प्रादेशिक लिपियों तथा शब्दावली विशेष की ऊँची-नीची प्राचीरों के ऊपर उठ कर एक प्रदेश की, जीवन, धर्म, सौंदर्य संबंधी जिज्ञासाएँ और समाधान एक सामान्य वायुमंडल में उसी प्रकार एकाकार हो जाते हैं, जिस प्रकार अनेक फूलों के हृदय से निकला हुआ परिमल घुलमिल कर एक हो जाता है। इसी से समग्र देश की जिज्ञासाओं और समाधानों में एक ऐसी विशेषता उत्पन्न हो गई है, जो भारत में अनेक नाम पाकर भी विश्व भर में एक भारतीय नाम से जानी-पहचानी जाती है।
एक महती भाषा सब का उद्गम होने के कारण हमारी विविध प्रादेशिक भाषाएँ सामान्य शब्द भंडार से अपना दाय भाग पाती रही हैं और हमारा एक लोक-जीवन अपने हृदय और बुद्धि के संस्कार के लिए एक से साधन खोजता रहा है।
हिंदी की सहोदराओं में महाराष्ट्री प्राकृत से प्रसूत मराठी उसकी निकटतम सहयोगिनी कही जा सकती है, क्योंकि दोनों के बीच में लिपि की भित्ति भी नहीं है। नागपुर, गोमंतक और पश्चिमी घाट के त्रिकोण में 1,33,000 वर्ग मील में बोली जाने वाली इस भाषा के साहित्य ने सदियों के सात सोपान पार किए हैं और हिंदी के समान ही उसके जीवन में भी आलोक - अंधकार ने अविरल चित्र - रचना की है। समग्र देश की संघर्ष कथा में उसका परिच्छेद उज्ज्वल है। इतना ही नहीं, उसकी वीरता पर साधना का पानी है।
हिंदी के समान ही मराठी के साहित्यिक उपक्रम का श्रेय उन साधकों को है, जिन्होंने संस्कृत की कठिन सीमा में आबद्ध धर्म और संस्कृति को जन भाषा में मुक्त प्रवाह दिया।
श्री ज्ञानदेव, नामदेव, एकनाथ, तुकाराम, रामदास आदि संतों की परंपरा में हम मानवमात्र की समानता और मुक्ति के अधिकार की जैसी स्वीकृति पाते हैं, वह हिंदी के संत-साहित्य के लिए नवीन नहीं है।
सत्य तो यह है कि हमारे देश की भौगोलिक सीमाओं ने कभी हमारे विचारों के आदान-प्रदान का पथ नहीं अवरुद्ध किया। उत्तर के नाथ पंथ का ज्ञान जैसे बे रोक-टोक दक्षिण के समुद्रतटों को छू आया, दक्षिण की भक्ति का प्रवाह वैसे ही विंध्य की श्रेणियाँ पार कर हिमालय से जा टकराया।
भारतीय संस्कृति के हृदय से उद्भूत ज्ञान और भक्ति की गंगा-यमुना हर प्रदेश की सरस्वती से मिल कर ऐसे नए प्रयोगों की रचना करती गई है, जो रूप से भिन्न ज्ञान पड़ने पर भी तत्वतः एक ही कहे जाएँगे ।
महाराष्ट्र प्रदेश पर जैसे यादवों का स्वर्ण काल, यवनों की पराधीनता, शिवाजी का संघर्ष, अंग्रेजी शासन आदि अनेक युगों के प्रवाह बह चुके हैं, वैसे ही उसके साहित्य को विविध धूप-छाया और आँधी-तूफान के भीतर से मार्ग बनाना पड़ा है और यह निर्विवाद है कि राजमार्ग पर चलने वाले साहित्य से वह साहित्य अधिक समर्थ होगा, जिसे अपना पथ स्वयं प्रशस्त करना पड़ता है।
यह संयोगजनित न होकर तत्कालीन सामान्य परिस्थितियों का परिणाम है कि हमारी प्रादेशिक भाषाओं के आदिम साहित्य, धर्म की सीमा में उत्पन्न और साधना द्वारा पोषित हुए हैं। केवल विशेष संघर्ष और जय-पराजय ही इस समानता में व्यतिक्रम उपस्थित कर सके हैं।
श्री विट्ठल की भक्ति में केंद्रित वारकरी संप्रदाय, ज्ञानाश्रयी नाथ पंथ, कृष्णभक्ति प्रधान महानुभाव पंथ आदि से मराठी वाङ्मय को गरिमा और माधुर्य की जो विविधता मिली है, वह किसी भी साहित्य के लिए गर्व का कारण हो सकती है।
ज्ञानेश्वरी टीका तथा दासबोध जैसे तत्वपरक ग्रन्थों, भक्ति से रससिक्त अभंग पदों, वीरगाथाओं में मुखर प्रवादों या पोवाड़ों, शृंगार से छलकती लावण्यमयी या लावनियों के प्रहर पार कर मराठी साहित्य ने आधुनिक युग की उस सीमा रेखा पर पैर रखा है, जिसने उसकी दृष्टि के सामने नए रूप रंगों के विस्तृत क्षितिज को आवरण मुक्त कर दिया।
कथा, उपन्यास, नाटक, निबंध, आलोचना आदि में तरंगायित होकर जीवन के असीम आकाश को अनंत रूपों में बिंबित - प्रतिबिंबित करने वाला गद्य साहित्य आधुनिक युग का महत्वपूर्ण दान है, इसमें संदेह नहीं ।
पौराणिक गाथाएँ, इतिहास के आख्यान, विशिष्ट जन-कथाएँ आदि का क्रम पार कर हमारा आख्यान-साहित्य सामान्य जन के धूल भरे आँगन में आ खड़ा हुआ है। आज आँसू पवित्र इसलिए नहीं है कि वह किसी देवता की मूर्ति की स्थिर पुतलियों में छलक उठा है, हँसी सुंदर इसलिए नहीं है कि वह किसी दिव्य अधर पर झलक उठी है और स्पंदन महत्वपूर्ण इसलिए नहीं है कि वह किसी अमर के वक्ष को चंचल करता है। वरन् इन सब के पूत, सुंदर और मूल्यवान होने का एकमात्र कारण है कि वे साधारण मनुष्य की जन्मजात विशेषताएँ हैं।
इस प्रकार आधुनिक युग का साहित्य, पूर्ण देवता पर अपूर्ण मानव की विजय का लेखा है ।
दीर्घ पराधीनता के विरोध में जाग्रत राष्ट्रीय चेतना तथा सामाजिक रूढ़िग्रस्तता के विद्रोह में उत्पन्न सुधार आंदोलनों ने हिंदी और मराठी दोनों के गद्य को प्रगतिशील विकास दिया है। अनुवाद, जिसका अर्थ कहा जा सकता है वह गद्य, आदर्श, आदर्शोन्मुख यथार्थ और कठोर यथार्थ की अनेक भूमियाँ पार करता हुआ आज मनुष्य के मनस्तत्व की ऐसी भूमि पर प्रतिष्ठित हो चुका है, जहाँ से वह मनुष्य के प्रत्येक कार्य और जीवन की प्रत्येक घटना को ही नहीं, उस कार्य और घटना की पृष्ठभूमि में छिपे असंख्य संस्कारों और आवेगों का भी परीक्षण कर सकता है।
कादंबरी की अनुकृति से आकार पाकर उपन्यास और बालबोध कथा से गति पाकर कहानी-साहित्य आज जीवन के कोमलतम स्तरों के प्रत्यक्षीकरण और परिष्करण में समर्थ हो सके हैं। ललित साहित्य ही नहीं, कोश रचना, व्याकरण जैसा उपयोगी साहित्य भी मराठी के कोष की बहुमूल्य निधि है।
नाट्य - साहित्य का प्रश्न उठते ही हमारा ध्यान सबसे पहले संस्कृत नाटकों की ओर जाता है, जो अपने देश में ही नहीं, विदेशी विद्वानों से भी अभिनंदित हो चुके हैं।
नाटक की दृष्टि से संस्कृत-साहित्य इतना अधिक समृद्ध है कि संस्कृत से जन्म और विकास पाने वाली प्रादेशिक भाषाओं के लिए अनुवाद का उपक्रम ही स्वाभाविक कहा जाएगा। हिंदी के राजा लक्ष्मणसिंह, भारतेंदु हरिश्चंद्र और मराठी के कृष्ण शास्त्री राजवाडे, देवल और किर्लोस्कर ने संस्कृत नाटकों के रूपांतर को हिंदी और मराठी में प्रतिष्ठित किया। सन् 1874 से लेकर वर्तमान काल तकनाटक-साहित्य ने परिमाण से लेकर प्रकार तक और तंत्र से लेकर ध्येय तक विकास की जैसी चित्रशाला प्रस्तुत की है, वह विस्मय की वस्तु है।
रंगमंच नाटक की कसौटी है, अतः ये दोनों अविच्छिन्न संबंध में बँधे रहेंगे।
जिन परिस्थितियों के कारण हिंदी की वीर गाथाओं और मराठी के शाहिर काव्य के बीच में कई सदियों का व्यवधान आ पड़ा है, उन्हीं परिस्थितियों ने दोनों के नाट्य-साहित्य के विकास में भी अंतर उपस्थित कर दिया हो तो आश्चर्य की बात नहीं।
देश के अन्य भागों से अपेक्षाकृत पहले हिंदी का क्षेत्र संघर्ष का केंद्र बना और इस संघर्ष की समाप्ति पराजय में होने के उपरांत परिस्थितियाँ इतनी बदल गईं कि साहित्य के नाटक जैसे प्रकार का विकास कठिन ही था। फिर रंगमंच की स्थिति तो और दूर की कल्पना कही जाएगी।
धर्म के क्षेत्र में रासलीलाएँ, रामलीलाएँ ही रंगमंच का अभाव जैसे-तैसे पूरा करने लगीं और लोक-जीवन में स्वाँग, नौटंकी आदि ही मनोरंजन के साधन रह गए। जब स्थिति में कुछ परिवर्तन संभव हुआ, तब व्यावसायिक पारसी थियेटर ही रंगमंच की भूमिका में आ उपस्थित हुआ, जो उर्दू की सस्ती रंगीनी से रंगीन, पर यहाँ के सांस्कृतिक स्पंदन से शून्य था । जीवन की गहराई में जड़ें न होने के कारण ही वह व्यवसाय का साधन, सवाक चलचित्रों के तूफान में खो गया है।
हिंदी भाषी क्षेत्र की सामाजिक रूढ़िवादिता ऐसी रही कि संस्कृत और शिष्ट व्यक्ति के लिए रंगमंच पर खड़ा होना भी लज्जा का कारण माना जाता था।
हिंदी नाटक, अनूदित, पौराणिक, ऐतिहासिक, सामाजिक, समस्यामूलक आदि परिचित क्रमों को पार कर एकांकी तक पहुँच जाने पर भी जिस प्राप्य से दूर है, वह मराठी नाटक को अपने शैशव में ही प्राप्त हो गया था। इस दृष्टि से मराठी अधिक भाग्यवती कही जाएगी, क्योंकि नाट्य-साहित्य के साथ ही उसके रंगमंच का जीवन दीर्घ और विकास स्वस्थ है।
किर्लोस्कर के शाकुंतल, सौभद्र, देवल के मृच्छकटिक, खांडिलकर के कीचक वध, स्वयंवर जैसे नाटकों से लेकर आधुनिकतम नाटक तक, रंगमंच की कसौटी पर परखे भी गए हैं और उन्होंने रंगमंच की सीमा और संभावनाओं का परीक्षण भी किया है।
लोक-जीवन पर व्यापक और स्थायी प्रभाव डालने के साधनों में अन्यतम नाटक है, इस सत्य का बोध तो मनुष्य को युगों पहले हो चुका है; पर इस साधन की प्रयोगात्मक रूपरेखा युग विशेष की समस्याओं के साँचे में ढलती निखरती रही है।
जीवन भीतर से अनेक संस्कारों और मानसिक विकारों का और बाहर से घटनाओं का संघात है। इन घटनाओं की नाटकीय स्थितियाँ कभी-कभी मानसिक द्वंद्वों और संघर्षों की ओर इस प्रकार संकेत कर देती हैं कि घटना अकेली न रह कर जीवन के निरंतर क्रम में स्थान पा लेती है। नाटक, सामान्य घटनाओं में से ऐसी ही विशेष घटना का प्रत्यक्षीकरण है। जिस नाटककार की दृष्टि मानव प्रकृति के गहनतम स्तरों तक पहुँचने की शक्ति रखती है, वही बिखरी घटनाओं की संगति बैठा सकता है और उसी का चयन और प्रत्यक्षीकरण जीवन को गहराई में स्पर्श कर पाता है।
साहित्य जीवन का चित्र अवश्य है; परंतु वह फोटोग्राफी मात्र नहीं कहा जा सकता। वस्तुतः वह स्वप्नद्रष्टा चित्रकार की कुशल उँगलियों से आँका गया ऐसा चित्र है, जिसमें हर रेखा किसी संभाव्य यथार्थ को सत्य बनाती है और रंग किसी अलक्ष्य स्वप्न को धरती पर उतारता है। आज जीवन की वह परिस्थिति नहीं है, जिसमें कण्व का आश्रम संभव हो सकता; पर इससे शकुंतला की मर्म-व्यथा अपरिचित नहीं हो जाती। साहित्य और कला के लिए, 'क्षणं क्षणं यन्नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयतायाः ' ही कहा जा सकता है। यह नवीनता वस्तु सापेक्ष न होकर तत्वगत है और यह तत्व असीम विविधता का कारण बनता रहता है।
आदिम युग से आज तक मनुष्य अपने हृदय और बुद्धि का परिष्कार करता आ रहा है; पर इस क्रम के किसी भी बिंदु पर उसकी मानसिक तथा बौद्धिक वृत्ति का तारतम्य नहीं टूटा। किसी भी युग में मनुष्य, जीवन की धोई-पोंछी स्लेट पर अपने अनुभवों की वर्णमाला नहीं आरंभ करता। मनुष्य के आँसू-हँसी के कारण भिन्न हो सकते हैं; परंतु उनके मूलगत विषाद, आनंद एक ही रहेंगे।
इन मूल भावों की स्थिति को स्वीकार कर समाज अपनी स्थिति की रक्षा के लिए कुछ विधान रचता है, व्यक्ति अपनी हित रक्षा के लिए कुछ नियम बनाता है। परंतु मनुष्य से मनुष्य का संपर्क केवल विधान और नियम से संचालित नहीं होता, क्योंकि वह प्रत्येक आदान-प्रदान को किसी अलक्ष्य तुला पर तोल कर उसका मूल्य निश्चित करता रहता है। संसार के सारे विधान, जीवन के सारे नियम, मनुष्य को, मनुष्य के लिए प्रसन्नतापूर्वक छोटा-सा त्याग करने पर भी बाध्य नहीं कर सकते; पर वह स्वेच्छा से प्राण तक दे डालता है। अतः सामाजिक संबंधों का, इस अत्यंत व्यावहारिक पक्ष से लेकर एक अति मानवीय दार्शनिक पक्ष तक, विवेचन किया जा सकता है। दूसरे व्यक्ति की व्यथा से तादात्म्य ही हमें उसकी दुःखद स्थिति में परिवर्तन लाने की प्रेरणा देता है; पर इस तादात्म्य की सीमा हमारे मानसिक संस्कार की सापेक्ष्य है। इस प्रकार मानवीय संबंधों में सामंजस्य की स्थिति संयोग-साध्य ही रहती है।
('क्षणदा' से)