कृतज्ञ (कहानी) : मैत्रेयी पुष्पा

Kritagya (Hindi Story) : Maitreyi Pushpa

सारी रात अनुपम सो नहीं सके, हालाँकि सोते समय उन्होंने लारपोज की गोली ली थी। वे जानते थे कि नींद आना सम्भव नहीं–चिन्ताओं के बवंडर मस्तिष्क को मथने पर निरन्तर आमादा हैं।

दवा ने प्रभाव नहीं दिखाया। वे पलक झपकाने को तरस गए। ‘यदि कल रुपया नहीं मिल पाया तो…? पूरा भुगतान जमीन के मालिक को नहीं कर पाए तब? पूरा पच्चीस हजार अग्रिम राशि का मारा जाएगा। जीवन-भर की कमाई से ले-देकर यह जमीन खरीदने की सोची थी, वह भी हाथ से जाती रहेगी।’

लगभग रात के तीन बजे नींद की एक गोली पानी के साथ और निगल ली।

‘‘तुम सोते क्यों नहीं? सवेरे फिर जल्दी उठकर चलना है। कार ड्राइव करनी है तुम्हें।’’ वसुधा औघियाये स्वर में बोलकर फिर गहरी नींद सो गई।

वे मुँह अँधियारे ही चल दिए थे। साथ में वसुधा थी। बैंक खुलने के समय से पहले ही पहुँचने की हड़बड़ी में उन्होंने कई बार कार हाई स्पीड पर चलाई और मथुरा यथासमय पहुँचने में सफल हो गए।

शनिवार का दिन। बैंक में केवल बारह बजे तक पैसे का लेन-देन। दिल्ली में ही प्रबन्ध हो गया होता तो यह मारामारी न मचती। वे झुँझला उठे। अपने मित्रों पर भारी क्षोभ था, जो कहकर भी मुकर गए, असमर्थता में दाँत निपोर उठे… वह भी ऐन वक्त पर।

मथुरा बहुत दिन बाद आए थे। रिक्शे, साइकिल और रेहड़ियों के उफनते सैलाब में चलने की आदत छूट चुकी थी अनुपम को। आपस में भिड़कर कार निकालना दुष्कर था और बेहद खतरनाक भी। लोगों की छोटी-छोटी लापरवाही पर वे अनायास ही उबल पड़ते–‘‘साले देखकर नहीं चलते। ट्रैफिक डिस्पिलन है ही नहीं यहाँ।’’ वसुधा ने कुछ कहना नहीं चाहा। व्यर्थ ही तन्मयता में व्यवधान पड़ता।

इस मटमैले पुराने उजड़े खण्डहर-से शहर में वे कैसे रहा करते थे, सोच नहीं पा रहे थे।

खैर, एक कोने में कीचड़ के ढेर को बचाकर नरम मुलायम सफेद खरगोश-सी मारुति सँभालकर खड़ी कर दी। दो बार पीछे को लौट-लौटकर स्थान का मुआयना किया, फिर आश्वस्त होकर आगे बढ़े।

पुराने गोलाकार किलेनुमा द्वार से बैंक के भीतर प्रवेश किया था। वसुधा को एक स्थान पर खड़ी रहने का आदेश दे गए और स्वयं एक सीट से दूसरी पर झपटके-से फिर रहे थे। हर बाबू के पास जा-जाकर अपनी व्यथा उगल रहे थे।

‘‘आप तो बैंक की हालत देख रहे हैं साहब! इमारत बन रही है, रजिस्टर-फाइलें सब उलट-पुलट हो गई हैं।’’ सीट पर बैठे सज्जन ने चल रहे काम की ओर इंगित किया।

टूटी-फूटी इमारत, कुछ एक कमरों में सिमटा-बटुरा पूरे बैंक का असबाब। ईंटों तथा सीमेंट से पटा पड़ा धरातल। राज-मजदूरों की कन्नी-तसला, बालू-रेता के साथ एक होती भुड़भुड़ी देहें। ऊपर सीढ़ियों पर टँगी हुईं, नीचे काम में तन्मय डोलती हुईं।

फर्श पर मिट्टी से बनी खेतों की-सी छोटी-छोटी क्यारियाँ–सभी में भरा हुआ पानी–ऊपर तक लबालब। उसी गंगा में जूते भिगोते ही तो वे वसुधा के साथ अन्दर पहुँचे थे।

सब देख-सुनकर उनका चेहरा उतर गया। क्लर्क तरस खाने लगा–‘‘ऐसा करो, उन साहब से मिल लो, शायद आपका काम आज ही हो जाए।’’

वे लपककर उस सीट पर पहुँचे।

‘‘आप सोमवार को आ जाओ तो तसल्ली से आपका काम कर देंगे उसी दिन, वादा करते हैं। फिक्स पर ऋण की औपचारिकताएँ भी तो कम नहीं होतीं। जमा करना हो तो पाँच मिनट नहीं लगते।’’ कहकर वह लाचार हो उठा।

‘‘मैनेजर कहाँ हैं?’’ वे अफसरी लहजे पर उतर आए।

‘‘अभी-अभी गए हैं बाहर, जरूरी काम से।’’ सपाट-सा उत्तर मिला।

वे चुप बैठ गए, हताशा की परिधि में समाए। तनाव के नीचे दबे हुए, कुछ थरथराए-से।

‘‘और कोई युक्ति नहीं?’’ उन्होंने बाबुओं को चारा डालकर ललचाने का यत्न किया।

‘‘कैसी बातें करते हैं आप! यदि हो सकता होता तो हम आज ही न कर देते आपका काम!’’

‘‘अच्छा, आपके बैंक में कोई हरीश काम करता है–हरीशकुमार गुप्ता?’’

‘‘हाँ-हाँ, आप जानते हैं उन्हें?’’

हरीश नाम सुनते ही वसुधा के मुख पर प्रश्नावाचक चिह्न उभर आए–‘‘कौन हरीश?’’

‘‘अरे वही मुरली…अपने हरीशंकर चाचा का। किसी ने बताया था कि इसी बैंक में लग गया है।’’

‘‘हरीश नाम है मुरली का?’ वसुधा मन में सोचती रही।

सफेद कमीज-पैंट पहने कद्दावर छरहरा युवक सामने आकर खड़ा हो गया–ताजगी-भरा खिला हुआ चेहरा।

‘‘भाभी…! भाई साहब…!’’ हर्षित-विस्मित स्वर। वसुधा को तुरन्त पहचान गया वह। पाँवों पर झुककर उसकी आँखें बाह्लादी भाव से चमक उठीं।

‘‘गुप्ता जी, ये बेचारे बड़ी देर से आए बैठे हैं। ऋण लेना है–आज ही। बैंक की यह हालत!’’ हरीश का सहयोगी उसे पूरी स्थिति समझा रहा था।

महज संयोग था कि मुरली उसी बैंक में मिल गया, देव-दूत की तरह…निस्सीम मरुस्थल में स्वच्छ शीतल प्रताप-सा।

अनुपम को आरामदेह कुर्सी देकर आत्मीय वरिष्ठ स्वजन की तरह बैठा गया। भाभी के लिए स्वयं कुर्सी खोजकर डाल गया। चपरासी से बीच-बीच में कोल्ड ड्रिक्स, चाय, कुछ खाने को लाने के लिए कह गया।

स्वयं उस सीमित पलक झपकते समय में रजिस्टरों की खोज करता पसीने में नहाता रहा। फार्म भरकर सम्बन्धित लोगों के हस्ताक्षर कराने को मिन्नतें करता, रिरियाता एक से दूसरे पर भागता रहा। कमीज भीगकर पूरी पीठ से चिपक गई थी। हुमस-भरी दमघोंटू गर्मी में माथे पर पसीने की धार अबाध गति से बहती रही। कभी यहाँ, कभी वहाँ, वसुधा उसे मुँह सुखाए दौड़ते-भागते देखती रही।

किसलिए ऐसी जी-तोड़ मेहनत और किसलिए अपने बूते से बाहर की पुरजोर कोशिश! किस बात का प्रतिदान कर रहा है यह? बरसों पहले जब यह हमारे यहाँ आया था…।

भयंकर शीत-लहर थी। ओले गिरने के बाद की सनसनाती तेज हवा। कपड़ों के मोटे लबादों के बीच से शरीर छेदती हुई। नौ-दस बजे तक सूरज नहीं दिखता था। घड़ी-दो-घड़ी को उदय भी होता तो ठंडा, पीला, कमजोर-सा…अस्तित्व-विहीन। चारों ओर धुंध की चादर से ढका निस्सीम संसार।

कोई पाखी-पखेरू न दिखता था। आदमी सड़क पर चलते बौने-से हो उठते–ठंड से सिकुड़े हुए। अखबार में छपा था, पिछले पचास वर्षों में ऐसा शीत नहीं पड़ा।

ऐसी ठिठुरती सुबह के धुँधलके में द्वार पर दस्तक हुई–बहुत हल्की, शालीन। उसके ठीक पश्चात् घंटी का अनायास नन्हा-सा स्वर, जैसे किसी का हाथ अनजाने ही स्विच बटन पर धर गया हो। भ्रम हुआ कि सचमुच द्वार पर कोई है? या हों ही?

वसुधा ने शॉल चारों ओर से कसकर लपेट ली, फिर भी सीधी खड़ी होने में देह साथ नहीं दे रही थी। सिकुड़ी-सिमटी दरवाजा खोलने चल दी।

किवाड़ों के दोनों पल्लों के बीच खड़ी वह आगन्तुक को कुछ पल देखती रही–निर्निमेष। अपलक। चीन्हने का भरसक प्रयत्न।

पहचान मजबूत थी–‘‘मुरली हो न?’’

‘‘…।’’ उसने सिर हिलाकर स्वीकृति दी।

‘‘मैंने तुम्हें बच्चा देखा है, छोटा-सा। तुम्हारे बचपन में।’’

‘‘भाभी…!’’ कहता हुआ वह वसुधा के पाँवों पर झुक आया।

उसके ओठों का रंग ठंड के कारण गहरा जामुनी हो गया था। बोलते समय दाँत स्पष्ट किटकिटाहट में बजने लगे। बे-नाप लम्बा-सा रेतीले रंग का जीर्ण स्वेटर–जगह-जगह से छेददार। बालों में भोर के गीले कुहासे की धुँधआई सफेदी–महीन बर्फ की दानेदार परत-सी। रह-रहकर प्रकम्पन की ठंडी फुरहरी उठ रही थी उसके शरीर में।

चौदह-पन्द्रह वर्ष का वह किशोर बालक बड़ों के-से गाम्भीर्य में सिमटा, प्रौढ़त्व के भार से दबा-सा…।

‘‘अन्दर आ जाओ।’’ वसुधा के मन की ममता छलक पड़ी।

वह ठिठका ही रहा–सहमे शश-शावक-सा।

‘‘आ जाओ ना!’’ दृढ़ आग्रह पर वह सुगबुगा उठा।

गीले रेत-मिट्टी में सने-लिसढ़े हुए सैंडिल संकोचमयी स्थिति में डूबा बाहर ही खोलने लगा। झिझके हुए नत-नेत्रों से फर्श को टटोलता वह अन्दर कमरे में सरक आया।

वसुधा ने हाथ से बैठने का संकेत किया। वह पल-भर सोफे के पास पड़ी कुर्सी को घूरता रहा। दूसरी बार हुक्म पाकर सिकुड़कर बैठ गया।

‘‘कैसे आए मुरली?’’ साधारण-सा प्रश्न था, मगर आत्मीयता-भरी अनुगूँज से सराबोर हुआ वह मुख पर घिर आए संकोची भावों से पल-भर को मुक्त हुआ। सहज भाव से कुर्सी के हत्थे पर अपनी ठिठुरी हथेलियाँ फेरता रहा। शायद कहने के लिए शब्द-संयोजन कर रहा था।

‘‘अच्छा, मैं तुम्हारे लिए चाय लेकर आती हूँ, फिर बातें होंगी।’’ वसुधा मथुरा में छूटे अतीत से जुड़ने की हिलोरमयी उत्फुल्लता में जल्दी-जल्दी पाँव बढ़ाने लगी।

वह रसोईघर की ओर मुड़ी ही थी कि–‘‘भाभी…’’ सहसा मुरली का भर्राया स्वर गूँजा।

वह पलट पड़ी।

‘‘भाभी, बाबूजी…!’’ आवाज अधिक भारी हो उठी, अवरुद्ध कंठ में भिंची हुई-सी।

‘‘क्या हुआ बाबूजी को?’’ वसुधा का चिन्ताग्रस्त विस्मित प्रश्न। ‘‘बच पाएँगे कि नहीं…उन्हीं को लेकर तो…।’’ कहते-कहते उसकी आँखें तरल हो आईं। घनी पलकों के बीच से मोती-सी सफेद बूँदें पानीदार राह बनाती हुई कपोलों पर ढुलकने लगीं।

‘‘मुरली!’’ सांत्वना-भरी हथेली का ऊष्म आत्मीय स्पर्श पीठ पर महसूसते ही उसके भीतर के धीरज की दीवार यकायक ढह गई। वह जार-जार रो उठा। बरसों का अन्तराल पल-भर में पिघलकर वसुधा को बच्चे से जोड़ उठा।

‘‘कहाँ हैं बाबूजी?’’

‘‘यहीं…मेडिकल…इंस्टीट्यूट के बाहर…गहरी हिचकी के बावजूद वह वाक्य के टूटते खण्डों को जोड़ने का प्रयास कर रहा था।

‘‘अकेले?’’

‘‘नहीं, साथ में माँ हैं।’’ उसने हथेलियों से आँसू पोंछ लिए। नाक लाल थी, जुकाम जैसा हो आया।

करुणा में समाई वसुधा चाय का प्याला उसके हाथ में थमाकर अपने बेडरूम की ओर दौड़-सी गई, जहाँ अनुपम रजाई में दुबके अखबार देख रहे थे। ब्लोअर गर्म हवा फेंक रहा था निरन्तर। कमरे का तापमान बाहर की अपेक्षा आरामदेह था–सुन्न हाथ-पाँवों में चेतना का आभास कराने में सक्षम।

‘‘कौन था?’’ अनुपम के चेहरे पर जिज्ञासा फैल गई।

‘‘मुरली हैं अनुपम!’’ कहते-कहते वसुधा का मन भर आया, करुणा उमड़ने लगी।

‘‘कौन मुरली…?’’ प्रश्नात्मक स्थिति में उलझे अनुपम की भवों के बीच की जगह सिकुड़कर छोटी हो गई।

‘‘वे ही मुरली, अरे वे, जो मथुरा में अपने पड़ोस में रहते थे–मीरा के छोटे भाई।’’

‘‘इतने सवेरे?’’ असमय किसी के घर का द्वार खटखटाने की धृष्टता पर अनुपम के मुख पर क्रोधमिश्रित अचरज की तीखी रेखा खिंच गई। वे फिर अखबार के भीतर सिमट गए। देश-विदेश की खबरों को आत्मसात करते हुए।

‘‘परेशान हैं बेचारे। उनके बाबूजी विकट बीमार हैं अनुपम! यहीं मेडिकल में बिठा आए हैं।’’

अनुपम ने तनिक देर को अखबार से सिर निकाला और फिर यथावत् समाचारों में तन्मय हो गए।

‘‘साथ में चाची जी आई हैं।’’ वह अनुपम द्वार बिछाई गई उपेक्षा को फलाँगकर अपनी रौ में बही चली जा रही थी।

अनुपम ने अखबार के पीछे से सहसा चेहरा उठाकर उसके आगे तान दिया। आँखों में गहरे सोच की झाइयाँ मँडराने लगीं।

उन्हें उसी मुद्रा में छोड़ वह उठ आई, दुश्चिता में डूबे उस बालक के पास।

‘‘भाभी, भाई साहब तनिक मेरे साथ…।’’अधूरा वाक्य छोड़ वह आशा एवं आतुरता से उसे निहारने लगा। बुझी आँखें चमक आईं।

वसुधा फिर उलटे पाँव अनुपम के पास लौट गई–‘‘अनुपम, तुम जल्दी से तैयार हो जाओ न, अखबार फिर पढ़ लेना। मुरली के साथ जरा अस्पताल तक…। तुम तो सब डॉक्टरों को जानते हो। थोड़ी सहूलियत…।’’ पति से अधिकारपूर्वक कहकर स्वयं रसोई में चली गई।

‘‘बेचारे भूखे-प्यासे! सर्दी में ठिठुरते…हाय राम!’ सोचकर महरी को बर्तनों से हटाकर हाथ धोकर आटा गूँधने का आदेश दे डाला और स्वयं सब्जी काटने में लग गई।

ड्राइंगरूम में वसुधा की निगाह गई तो मुरली के पास सामने ही गाउन की जेबों में हाथ गरमाते अनुपम खड़े दिखाई दिए। वह तनिक आश्वस्त हुई–अनुपम कुशल-मंगल, आपत्ति-विपत्ति की खबर लेंगे तो आत्मविश्वास बँधेगा बालक को।

‘‘हम क्या कर सकते हैं भाई! करना तो डॉक्टर को ही है।’’ अनुपम के सपाट बेलाग वाक्य। सहानुभूति से अछूते। आलू की त्वचा छीलते वसुधा के हाथ सहसा थम गए।

‘‘मैं चलता तेरे साथ, पर जरूरी काम है मुझे। तू ऐसा कर, केजुअलिटी में दिखा ले। मरीज सीरियस होगा तो वे स्वयं भर्ती कर लेंगे। मैं डिपार्टमेंट से फोन कर दूँगा।’’ अपनी बात कहकर अनुपम कुर्सी पर बैठे कमरे में सजी एंटीक, सीनरीज और शो-पीसेज पर तैरती निश्चित दृष्टि का वृत्त बनाते विरक्त भाव से बैठे रहे।

मुरली मूक बधिर-सा…। वह स्तब्ध-अवसन्न। असम्भावित नितान्त रूखापन। अनुपम का इकहरे टूटते तार-सा लटकता आश्वासन। कल्पना नहीं की थी ऐसी। पति के विरक्त भाव पर एक पल को विश्वास नहीं कर पाई वह।

‘‘क्या कह रहे हो अनुपम! चाचा जी सिर्फ एक मरीज…और कुछ नहीं? इस बच्चे को कौन पूछेगा इतने बड़े अस्पताल में…? मरीजों की धक्कम-धक्का, परिचारकों का जन-समुद्र। तुम चले जाते तो…।’’ एक ओर को ले जाकर उसने चिरौरी-भरा मनुहार कर उनकी बाँहें थाम ली…आत्मीयता से, अधिकार से।

‘‘इसमें पूछने न पूछने की कौन-सी बात है! इतनी दूर से बाप को लेकर भी तो यह बालक ही आया है। इमरजेंसी में दिखा लेगा।’’ उन्होंने साधारण तर्क की छुरी पर धरकर पत्नी के गहरे अपनत्व को उड़ा दिया।

‘‘अनुपम! ये कोई सड़क चलते राहगीर नहीं, अपने घर से घर मिला था इनका, छज्जे से छज्जा और फिर अपनी बिट्टू…अपनी बिट्टू इन्हीं के हाथों…याद है कुछ, शीत-सरकती रात को दाई के लिए भागे फिरे थे चाचा जी।’’

‘‘तुम भी कब-कब की पुरानी बातें उखाड़कर बैठ जाती हो। समझतीं क्यों नहीं, एक बार अपनी जिम्मेदारी पर मरीज भर्ती करा दो, फिर बस…सुबह, शाम…हर समय–वह तुम्हारा खाना-पीना-जीना हराम कर देगा–आज दवा नहीं, कल डॉक्टर से कह दो, ध्यान से देखे, खाने का प्रबन्ध, रहने का इन्तजाम…सौ झंझट! कौन करेगा यह सब…बे-बात का बबाल, बे-मतलब। मुझे और भी काम हैं अपने।’’ अनुपम ने लम्बा-सा क्षुब्ध भाषण देकर बलपूर्वक उसके हाथों से अपनी बाँह खींच ली।

वह मूर्ख-सी देखती रह गई अनुपम को, एकटक। ‘इतना गूढ़ ज्ञान, सही समीकरण!’ दुःखद आश्चर्य और विस्मयभरा खिसियानपन आत्मा को काँच की तीखी धार-सा काटता चला गया। अब तक का पाला हुआ व्यामोह मुलम्मे के पत्तर-सा लोहे की कठोर सलाख से उतरता चला जा रहा था–शेष क्या था–अकथनीय कचोट। आस्था को ध्वस्त करता अव्यक्त गणित-ज्ञान।

लखनऊ से अनुपम के मित्र के कोई दूर के रिश्ते के बीमार मामा आए थे, तब तो ऐसा नहीं हुआ था। पूरा असबाब उन्होंने हमारे घर पटक दिया था। दर्पभरी उनकी पत्नी के नाज-नखरे अलग। ड्राइवर, नौकर और चमचों की जमात। सुबह उठकर दसियों बार तो चाय बनती, फिंकती, फिर बनती। नाश्ते में बारह बज जाते, फिर अस्पताल खाना ले जाने उनका नौकर डेढ़ बजे ही सिर पर सवार हो जाता। अनुपम चकर घिन्नी की तरह कभी डिपार्टमेंट, तो कभी घर, घुमेर खाते रहते। पालतू पशु-से उन्हीं के हुक्म पर उठते-बैठते। एक बार भी माथे पर शिकन नहीं देखी थी। वह ही झुँझला उठती–‘‘क्या है, जैसा हम खाते हैं ये नहीं खा सकते? बच्चे छोटे हैं। क्या-क्या करूँ?’’

‘‘अरे भई, भारी ओहदे पर हैं। मंत्रियों को भी नचा दें, ऐसी पोस्ट है इनकी। होटल का खाना कितने दिन खा सकता है कोई? इस समय संकट में हैं। हमारा कोई काम पड़ेगा तो आनन-फानन में…।’’ अनुपम उसे समझाते।

पर आज…? ड्राइंगरूम की ओर बढ़ नहीं पा रही थी। जहाँ खड़ी थी, उसी सीमेंट के फर्श से चिपके पाँव उठते न थे। कैसे जाती उस आगन्तुक के समीप जो सहज विश्वास बाँधे इस देहरी पर बैठा था! डॉक्टरों से अधिक आस्था वह अनुपम पर टिकाए बीमार ढहते पिता के साथ मथुरा से यहाँ तक आपत्तियां झेलता-सहता विपदा का मारा आया था। अपनी ओर आती हुई पाँवों की आहट पर कान लगाता हुआ, आतुरता से अनुपम की प्रतीक्षा में, उठने की सी अधर मुद्रा में कुर्सी पर टिका था।

‘‘मुरली, तुम चलो। केजुअलिटी लिखा है न जहाँ…वहीं। दरबान से पूछ लेना–डॉक्टर कहाँ है।’’ वह उसे कैसी सतही बातें समझाने का प्रयत्न कर रही थी, जैसे किसी अनजान राहगीर को उसके गूढ़ गंतव्य की ओर उँगली दिखाकर तटस्थ भाव से अपने घर की ओर चल दी हो।

‘‘भाई साहब कब आएँगे भाभी?’’ जिस प्रश्न का उत्तर वसुधा के पास नहीं था, उसे ही अधीरता से वह उसके समक्ष पसार बैठा।

‘‘भाई साहब को बड़ा जरूरी काम है मुरली…! आवश्यक मीटिंग।’’ वह किसी तरह उसके प्रश्न को फलाँग गई।

वह बेहद हताश हो उठा। सूनी सपाट आँखों में पनीली परत उतर आयी। फिर–‘‘नमस्ते भाई साहब’’–अन्दर की ओर से चले आ रहे अनुपम की ओर हाथ जोड़ दिए।

‘‘भाभी, माँ मिलने को कह रही थीं।’’ सीढ़ियों पर उतरते उसे अचानक याद हो आया। वह इस घर से मिले परायेपन के कसैले स्वाद को गले में उतारकर भी आत्मीयता जोड़ने में लगा था।

‘‘हाँ’ न ‘ना’ कुछ भी नहीं कह पायी वह…केवल कातर भाव से उस निरीह भोले बालक को देखती रही, जब तक वह सीढियाँ उतरा, जब तक कि वह सड़क के ठंडे धुँधलके में खो नहीं गया।

अनुपम के जाते ही कटोरदान में परांठें भरकर अस्पताल की ओर भागी थी वसुधा। तेज़ चाल और भीतर उठ रहे चक्रवात से हाँफती हुई। साँस जुड़ती न थी। भरी ठंड में अन्दर से गरमी का भभूका-सा उठने लगा। ज्यादा दूरी नहीं थी, केवल एक सड़क को पार करना था, फिर भी साँसों की तेज धौंकनी।

हाँफते हुए केजुअलिटी में घुस गयी–‘‘डॉक्टर साहब, हरीशंकरनाम का कोई मरीज…हरीशंकर गुप्ता! कहाँ है…?’’ स्वर अन्त में रिरिया उठा।

डॉक्टर जब तक रजिस्टर में नाम खोजते तब तक केबिनों के परदों को उठा-उठाकर देखने लगी–एक, दो, तीन…नहीं! चौथे परदे के पास आँखें ठिठकी रह गयीं–पत-झिन्ना तार-तार धोती में लिपटी बुढ़ियाती कमजोर काया–उसे चाची जी की अनुकृति-सी लगी थी।

रोगी पर झुकी हुई वृद्धा उसके कान के पास मुँह ले जाकर पूछने का यत्न कर रही थी।

वह पल-दो-पल अनचीन्हे भ्रम में खड़ी रही। धीरज नहीं बँध सका। पीछे से पीठ छूकर अपनी ओर उन्मुख करने का झिझकता-सा प्रयास। सहसा बुढ़िया माँ पलटीं।

‘‘चाची जी!’’ अनायास ही मुख से निकल पड़ा। त्वचा में लिपटें अस्थिपंजर को निस्संदेह वह पहचान गयी थी। पल-भर ठहरकर पाँवों पर झुक गयी।

वे अपलक, पहचानने के प्रयत्न में खड़ी निस्संग दृष्टि से निहारती रहीं–देरतक। फिर–‘‘बहू? तू? अकेली? अनुपम नाँहि आयौ?’’

इतने सारे प्रश्नों का सुदृढ़ उत्तर वसुधा के पास था ही कहाँ? बस, इतना ही–‘‘हाँ चाची जी, मैं…।’’

‘‘बहू, तेरे चाचा जी…।’’ वे उनकी ओर इंगति करके कँपकँपाते स्वर में रोने लगीं…विकल वेदना से छटपटाती-सी।

क्या कहकर धीरज बँधाती वसुधा! सजल आँखों से कभी उन्हें देखती, कभी चाचा जी को! मोटी नसों के जाल में बँधे उनके हाथों को खड़ी-खड़ी सहलाती रही।

‘‘चाची जी…यह!’’ कटोरदान आगे कर दिया।

‘‘जा में का है बहू?’’ उनकी मद्धिम-सी आवाज।

‘‘ऐसे ही, कुछ थोड़ा-सा।’’

‘‘खानौ है? खानौ तौ हम घर से बनाय लाये हैं बहू! तू काहे को दिक्कित में परी बेटा?’’ आर्द्र भाव झुर्रियों के बीच फैल गया।

साँझ को अनुपम के लौटने पर वसुध ने उनके बिना पूछे ही सारी व्यथा-कथा सुना दी। वे मूक श्रोता बने सुनते रहे–ध्यानपूर्वक।

कटोरदान में खाना ले जाने वाली बात के मुहाने पर यकायक अनुपम के चेहरे की नसें तन गयीं, वे भभक उठे, नाक क्रोध में उठने-गिरने लगी।

‘‘ऐसा करो तुम, वहीं जाकर रहने लगो। उन्हीं के साथ। यहाँ लौटकर ही क्यों आयीं?’’ अपरिमित आक्रोश का उफनता ज्वार…अप्रताशित, बे-अर्थ रोष…वह दहलकर रह गयी।

‘‘अनुपम, क्या कह रहे हो तुम? बस, चार-छः रोटी! और क्या…बस! इतना ही तो, और तो कुछ नहीं!’’

‘‘चार-छः रोटी की बात नहीं है। गलत लिफ्ट दे रही हो तुम। व्यर्थ में मुँह लगा रही हो। कौन है ये हमारे, जो मुँह उठाए यहाँ चले आए हैं? कौन लगते हैं हम इनके? बोलो? न उठने की तमीज, न बोलने का शऊर! कंजर…साले!’’

घर में बे-नाप सन्नाटा पसर गया। हर कोना स्तब्ध, हर दीवार सहमी हुई। कानों में सनसनी के बेरोक चक्रवात। बच्चे अनुपम की गुर्राहट-भरी गर्जना सुनकर सिकुड़कर बिस्तर में दुबक गए। बिट्टू किताब निकालकर पढ़ने का नाटक करने लगी। मनु क्षोभ-भरी आँखें पापा पर गाड़कर पलक झपकाना भूल गया। हत् प्रभा वसुधा…वहीं जम-सी गयी, बर्फ की तरह।

न कहने को कुछ था, न समझाने को…। अनुपम ऐसी करुणाविहीन कठोर पाषाणी छाती के भीतर साँस लेते होंगे, उसने कभी सोचा न था। रात-भर सम्मिलित बिस्तर पर पड़ी आँसुओं से तकिया भिगोती रही–‘‘इतना हक नहीं कि दो रोटी किसी को…?’ गृहस्वामिनी का आहत स्वत्व कुचले-नाग-सा बार-बार फुफकार भरता, लेकिन…।

अगले दिन किसी काम में उसका मन नहीं लग सका। मुरली का बेबस उदास चेहरा, चाची जी की झुर्री-भरी सूरत पर याचक-सी दो आँखें और चाचा जी की रुग्ण कंकाल काया–उसके मन पर तस्वीर-सी छप गयी।

उनके पास अस्पताल में अधिक आना-जाना न हो सका। पाँवों के आगे स्तर की सीमा-रेखा खिंच गयी। मन बार-बार अग्नि-रेखा लाँघ जाना चाहता था, लेकिन–‘मुरली बार-बार घर आने लगा तो…? चाची जी रोज सवेरे नहाने-धोने को दरवाजा खटखटाने लगीं तब…?’ इन विचारों के नुकीले अंकुश राह रोक लेते। अनुपम की चबा जाने वाली नजरों को झेल पाना…अतिथि के अपमान की आशंका…उसके पाँवों को देहरी के पीछे धकेल देती।

काम समाप्त करके स्वेटर की सलाइयाँ उतारने वह बॉलकनी में फैले धूप के नन्हे टुकड़े पर जा बैठी। तभी दरवाजे पर हल्की-सी थपथपाहट हुई। वसुधा के कान चौकन्ने हुए। फिर वही दुहराव। द्वार खोला। सामने एक सीढ़ी उतरकर चाची जी खड़ी थीं। नीचे से ऊपर तक देखती रही–उनके पाँवों में रबड़ की पुरानी गठी चप्पल, मटमैली धोती पर सूती चादर लपेटे हुए झुकी हुई मुट्ठी-भर कद में सिमट आयी वृद्धा।

‘‘आओ चाची जी।’’ वसुधा ओठों में बुदबुदाकर रह गयी। न गहककर बुला सकी, न हिलककर मिल सकी। सहसा अपनत्व को रौंदता एक दुर्भेद्य प्राचीन उठ खड़ा हुआ जिसमें कैद मोह-माया से पनपते विद्रोह को पीती हुई…

कहाँ मथुरा से चली थी तो सौ-सौ बार कहकर आयी थी–‘‘चाची जी, दिल्ली आना। अपनी बहू के घर को अपने चरणों से पवित्र करना। माँ और सास तुम्हीं तो हो चाची…बस तुम!’’

वे कुर्सी पर बैठने में अचकचा रही थीं। वसुधा ने कंधों से पकड़कर हठात् बैठाने का प्रयत्न किया।

कमरे में चारों ओर नजरें फेरती वे सिहा उठीं, सन्तोषी भाव चेहरे पर उभर आए, कुछ मधुर बोल–‘‘बड़ौ अच्छौ है री बहू! हमारौ अनुपम खूब फूलै-फलै। हजारी उमर करै भगमान! तू राजरानी बनी रहै बेटी! बालक बने रहे।’’ आशीषों की बौछारों के बीच वे भूले-बिसरे आह्वाद में आकंठ डूब गयीं।

दुखी भावों से एक पल को पल्ला झटक बैठीं।

‘‘बिट्टू कहाँ है बहू?’’ वे चाव और लाड़ से पूछ रही थीं।

‘‘स्कूल गयी है चाची।’’

‘‘और मुन्ना?’’ वे मनु के लिए पूछ रही थीं।

‘‘चाची, अब चाचा जी की तबीयत कैसी है?’’ वसुधा ने बीच में ही उनकी बात काट दी।

‘‘जई लियें आयी हूँ बहू, तू कहाँ ढूँढैगी फिर!’’ उन्होंने सलूका की जेब से एक पर्ची निकालकर उसके समक्ष रख दी।

लिखाई मुरली की होगी–वार्ड-डी-२, बेड नम्बर ३६, दूसरी मंजिल।

चाय का गिलास थमाकर वह उनके पास ही बैठ गयी। वे पति की बीमारी को लेकर दुःखत बीच-बीच में रोने लगतीं–‘‘मथुरा-आगरे के सब अस्पताल छान मारे बहू, पर रोग की जड़ नाँहि पकरि पायौ कोई। जाने मिटी कौन-सी बिस-बेल सरीर में फैल गयी है। मुरली अकेलौ कहा-कहा करै! जे तो महिनन से काम पै नाँहि गए। मीरा कूँ घर छोड़ि कें आयी हूँ सिलाई-कटाई करकें एक बखत की रोटी…।’’ कहते-कहते उनकी हिलकी बँध गयी।

अन्दर तक से टूट चुकी औरत को वसुधा तसल्ली देती रही-बे-बात का धैर्य बँधाती रही। अनुपम के लौटने का समय हो चला था–अदृश्य धुकधुकी, चिन्ताकुल सम्भावनाएँ…वह चाची जी को विदा करने की हड़बड़ी में थी।

‘‘बहू, जाय तू धर लै। वहाँ अस्पताल में कहाँ…कहूँ चोरी-चकारी है जाय।’’ उन्होंने पुरानी घिसी मैली-सी जंजीर वसुधा के हाथ में धर दी।

‘‘दवा-दारू में का पतौ कितने लगें? वे जंजीर की पूँजी पर आश्वस्त थीं।

सीढ़ियाँ उतरते में उन्हें अनायास याद हो आया–‘‘बहू, एक भगौना होयगौ? कोई कंडम सौ…पुरानों…।’’

वह दौड़कर रसोई से हैंडिल वाला भगौना उठा लाई, जिसे देखकर वे तनिक सकुचाकर बोलीं–‘‘जि तौ बहुत अच्छौ है, खराब है जायगौ। कोई पुरानों, जो तुम्हारे काम न…!’’

‘‘आप ले तो जाओ।’’ वसुधा बीच में ही बोल गयी।

वह उन्हें दूर तक छोड़ आयी, सड़क पार तक।

चाची जी कहा करती थीं–‘मुरली की बहू तौ न जाने कब आबैगी और कहा करैगी? वसुधा है मेरी बहू, मेरी बेटी! सोचते हुए लौटने लगी।

बच्चे आ चुके थे–‘‘मम्मी, पापा आप पर क्यों चिल्ला रहे थे? कौन थे वे, जो सवेरे-सवेरे आए थे?’’ बिट्टू निरन्तर पूछे जा रही थी।

‘‘…’’कोई उत्तर न देकर वह खाना गरम करती रही।

‘‘आप अस्पताल में उन्हें खाना देकर आयी थीं मम्मी! अच्छा किया। वे भूखे होंगे न? उनका घर यहाँ नहीं है न?’’

वह बच्ची का मुख देखती रह गयी–‘‘यह तू कह रही है मेरी बच्ची!’’ वसुधा ने बिट्टू का चेहरा हाथों में भरकर चूम लिया।

‘‘पर अभी तू छोटी है बिट्टू! निरीह! भोली! बड़ी होकर तू भी…।’’ उसके निःश्वास बच्ची के गालों पर जलती ऊष्मा बिखेर गए।

वसुधा का मन न माना था। पाँव उसी ओर बढ़ गए। सड़क के किनारे खड़ी थी–आता-जाता ट्रैफिक…उफ! कारों-बसों की सीधी साँप-सी कतार–बे-अन्त। दायें-बायें देखकर सड़क पार करती हुई वह अपनी रौ में चली जा रही थी कि अस्पताल के बाहर पटरी पर निगाह बरबस ठहर गयी।

तीन ईंटों के बने चूल्हे में इधर-उधर से बीनी हुई पतली काँटेदार लकड़ियाँ…धुँधआती आग की लपटें…और ऊपर वही भगौना चढ़ा था, जो चाची जी को दिया था। पीला पानी उफनकर किनारों को छू रहा था। पास ही बैठी एक ग्रामीण लड़की कौओं को उड़ाने में लगी थी।

वसुधा खड़ी थी कि चाची जी आ पहुँचीं–‘‘बहू! तू कहाँ…कहाँ जा रही है बेटी…?उनके लियें दाल बनाई है बछिया।’’ वे भगौने की ओर संकेत कर रही थीं।

‘‘अब जीवे की आस नाँय बची बेटी! कह रहे कि गंगादई, तू अपने हाथ से दाल बनाय कें खबाय दै…।’’ चाची मैली धोती के छोर से आँखें पोंछ उठीं।

फूटे काँच-ठुकी अलंघ्न दीवार। उसका घर इतना पास और चाची जी शीत-सरकते कुहासे के बीच चौड़े में चूल्हा धरे…! उदास उच्छ्वासों में घिरी वह घर लौट आयी।

अनुपम आ चुके थे। शीघ्रता से भागकर रसोई में गयी वसुधा और दो प्याले चाय हाथ में लिए पति के पास जा बैठी।

‘‘वहीं गयी थीं–अस्पताल?’’ अनुपम का प्रश्नात्मक स्वर स्वाभाविक सरल था।

‘‘हाँ।’’ सहज भाव से स्वीकार किया उसने।

‘‘कैसे हैं अब?’’

‘‘पता नहीं, मैं तो अस्पताल के बाहर से ही लौट आयी। चाची जी वहीं मिल गयी थीं!’’

अनुपम की नरमाई, सहज प्रकृति देख वह सब कुछ बता देने का दुःसाहस कर बैठी–भगौना देने के सन्तोष से लेकर उबलते पीले दाल के पानी की दारुण गाथा तक…सब सुना डाला।

‘‘तुम भी देख आते अनुपम!’’ नितान्त भोले भाव से दिया मशवरा।

‘‘ऐसा करो तुम, उठाओ सामान, जाओ यहाँ से। आई से–गेट आउट! गेट आउट फ्रॉम हियर! दिस इज माई हाउस…अण्डरस्टैंड?’’

अनुपम का आकस्मिक स्वर-प्रहार विस्फोट धमाके-सा नीचे सड़क से जा टकराया। गली में चलते लोग ठिठकने लगे।

‘‘उन्हीं चमारों में बैठो जाकर। पकड़ लाओ मथुरा से…आगरा से…तमाम कंगले आ जाएँगे–कोढ़ी, दरिद्री…करवाओ सबका इलाज। उस गन्दी गली में पैदा होकर क्या सारे मोहल्ले का ठेका लिया है मैंने?’’ निरन्तर फटते-दहकते ज्वालामुखी के समक्ष अपराधिनी-सी खड़ी भस्म हुई जा रही थी वह।

‘‘आखिर क्या हो गया है तुम्हें अनुपम! ये लोग तो इतने तंग भी नहीं करते…जितने वे लोग…।’’

‘‘इस दो टके के आदमी से उनका मुकाबला…! समझती है वे कौन थे? बड़ी इंसानियत की पैरोकार बनी फिर रही है–घर में क्या हो रहा है, बच्चे क्या कर रहे हैं, कुछ पता नहीं! जा, वहीं बैठ फुटपाथ पर! उन्हीं के साथ! साऽऽ…।’’ उनका क्रोध निकृष्टतम रेखा लाँघने लगा।

अनुपम की अमानवीय चीख से बिट्टू जार-जार रो उठी। मनु चीखकर माँ की टाँगों से लिपट गया। क्रोध और अपमान के मिले-जुले विष को घूँटती वह ड्राइंगरूम में भागी थी।

मुरली खुले दरवाजे से ड्राइंगरूम में कब चला आया, वसुधा देखते ही चौंकी। वह अवाक्! पर-कटे क्रोंच-सा! आशाविहीन दरिद्र! विपत्तियों के उत्पीड़न से आक्रान्त!

वह मिल नहीं पाई थी तो माँ ने पीछे ही दौड़ा दिया - “मुरली, भाभी आई, लौटि कें चली गई। तू ही मिलि आ जायकें। बाबूजी कौ पूरौ हाल-चाल बताय आ । डॉक्टर अनुपम बात कर ले तो कछु समझै तौ सही ! हमारी तौ समझ में ही नाँहि आवत कछु ।”

वह उलटा लौट गया-पीछे रह गया उसका निःशब्द संभाषण । मौन दृष्टि से झरती पीड़ा । वसुधा कटती चली गई अनगिनत खंडों के बीच - ब्याहकर आई थी - एकाकी सूना घर । सास न ननद, जिठानी न देवरानी । निर्जन मकान में निपट अकेली दूसरे ही दिन से ।

“अम्मा ने भेजी है । अम्मा कह रही थीं, भाभी अकेली होगी, जा वहीं बैठना । भाभी का मन लगा रहेगा।” ग्यारह - बारह साल की बच्ची फ्रॉक पहने, पास पड़े बोरे पर बेधड़क आ बैठी। कभी वसुधा की साड़ी छूकर देखती तो कभी पायल के रौनों को बजाने का असफल यत्न करती। वसुधा मुस्करा देती - जवाब में वह भी मोहक मुस्कान बिखेर देती ।

"मैं आपके बर्तन धो दूँ ? अम्मा ने कहा था, भाभी को काम नहीं करने देना, नई ब्याही है ।" वह पुरखिन बनी अम्मा के कथनानुसार रसोई में से जूठे बर्तन बटोरकर माँजने लगती। बहुत रोकने पर भी नहीं मानती। वह मीरा थी- मुरली की बड़ी बहन ।

रात को बातों के बीच अनुपम को मीरा की बात बताई तो कहने लगे - “चलो ठीक है, तुम बोर तो नहीं हुईं।”

“भाभी, आप खाना न बनाना, अम्मा बना देंगी।” और दोपहर को अनुपम के आते ही मीरा थाली परोसे, तौलिया से ढके चली आ रही थी ।

“भाभी, महावर लगा लो। मैं नाइन को बुला लाऊँ, मेहँदी लगा देगी। अम्मा कह रही थी- आज करवाचौथ है। भाभी का व्रत है, भूखी होगी, संग में काम करा लेना ।” उनकी आत्मीयता वसुधा को गहरे तक बाँधती चली गई। अनुपम तो इस गली में जन्म से ही रहते थे लेकिन वह । मन से उपजे संबंध जड़ पकड़कर खड़े हो गए, पनपने लगे और धीरे-धीरे सुदृढ़ता से खड़ा होता गया स्नेहिल शीतल छाँव का एक वट वृक्ष ।

इसी आवाजाही के बीच बिट्टू का जन्म हुआ था। चाची ने पूरा ध्यान रखा था - “ कपिला गाय-सी है गई है री बहू ! बोल, तेरौ का खाइवै कौ मन है ?” वे पूछतीं और वसुधा तुरंत बोल उठती - "अरबी का पानी वाला अचार ।”

प्रसव-वेदना में वे उसके साथ ही थीं - उसे पकड़े हुए - “ऐ मेरे परमात्मा, विधवा महतारी की अकेली धिय है ! निरवार जल्दी, मेरे परमेसुर ।” चाची भगवान् से पूरे बखत गुहार करती रहीं ।

फिर तो बिट्टू का नहाना - धुवाना, काजल - टीका सब वे ही करतीं - “मेरे हाथ से काजल लगाय कें आँख बड़ी-बड़ी है जायेंगी - मीरा की तरह ।” वे कहतीं और वसुधा अनिर्वचनीय आनंद में समा जाती - बिट्टू की आँखें मीरा जैसी - हिरनी की तरह, बड़ी-बड़ी, नीलम - जड़ी ।

शाम को चाचा जी प्रेम खींचते बिट्टू को उस सँकरी महीन गली से निकालकर द्वारिकाधीश के मंदिर तक घुमा लाते। बिट्टू गुड़िया की तरह प्रेम में बैठ जाती । वह उसे छज्जे पर खड़ी दूर तक निहारकर सिहाती रहती ।

अनुपम आए दिन साक्षात्कार के चक्कर में बाहर रहते। चाची जी उनका चिंतातुर चेहरा देखकर तुरंत कह उठतीं - फिकिर मत करियो अनुपम, हम हैं यहाँ, बहू अकेली नाँय रहैगी बेटा ! मीरा सो जाएगी, मैं सो जाऊँगी, नहीं तौ बहू यहाँ कौ ताला लगाय के हमारे घर सो जायगी। " .

अनुपम कभी मीरा के लिए सूट का कपड़ा ला देते, कभी चाची को इकलाई किनारी की धोती ।

“ मुरली तौ जब करैगौ तब ! अनुपम की लाई धोती पहरी है मैंने !” वे हौंस उठतीं। फूल-भरती नई धोती का पल्ला बार - बार सिर पर सरकातीं। जाड़े आते ही - “मीरा, भाई साहब कौ सूटर बुन दै। बिट्टू के मोजा बुन ।” बेटी को आदेश करतीं।

होली को गुझिया बनाकर धर जातीं। त्योहार को मुँह - अँधेरे ही कड़ाही चढ़ाकर कचौड़ी सेंक डालतीं - “मीरा, जा भाभी कों दे आ । बालक वारी है, काम-कंधे में दोपहरी है जायगी बाय। नास्ता में खाय लिंगे दोऊ जने ।”

ऐसे ही दिन- महीने - साल निकल गए। मीरा की फ्रॉक-शलवार भिगोते बिट्टू बड़ी होने लगी। एक-दूसरे के लिए करते - धरते दिन बीत रहे थे ।

फिर एक दिन अनुपम को नौकरी का नियुक्ति पत्र मिला था - दिल्ली के लिए। भरपूर खुशी हुई थी। आँखों में रंगीन रोशनियाँ झिलमिलाई । धरती पर सपनों इंद्रधनुष खिंचे थे।

विदा के दिन मीरा बहुत रोई । वसुधा समझाती रही - “पगली, रोती हो ! तुम आना वहाँ । मैं तुम्हारे भाई साहब को भेजूँगी तुम्हें लेने। फिर देखना - चिड़ियाघर, लालकिला, कुतुबमीनार । अब हँस दो ...चलो।”

चाची ने खाने का कटोरदान संग में बाँधा । नाश्ते के लिए मठरी-लड्डू बनाए - “ला री बहू, आटौ और घी, वहाँ कहाँ जाते ही नास्ता - पानी में उरझैगी।”

चलते समय बिट्टू को चूमा, उसका हाथ थुकथुकाया, नजर उतारी। रिक्शा पर बैठने के पहले वसुधा को छाती से लगाकर खूब रोईं। वह भी रो-रोकर उनका कंधा गीला करती रही । आसपास की औरतें आँखें पोंछती जुड़ आईं ...वह बहू की विदा थी ।

विदा-वेला का वह दिन और आज का मुहूर्त ...संबंधों के वट वृक्ष को चबाती स्वार्थ-सोच की अमर बेल ! सहृदय संवेदना को चूँटता महानगर का विषैला दूषित प्रभाव और आपा-धापी की निस्सीम दौड़ का सतत संयोजन कब अनुपम के मन को रेतीला रेगिस्तान कर गया ...पता ही न चला।

'क्या कुछ नहीं थे वे लोग हमारे ?' अनुपम से किस तरह पूछती ? घर में मचे विप्लव के डर से अर्द्धांगिनी ने उसी तरह अधर भींच लिए जिस तरह पति की भित्ति-भेदी गर्जना पर बाहर के द्वार बंद करती फिरी थी ।

चाचा जी की दशा तो गंभीरतर होती जा रही थी । मुरली फिर चार-पाँच दिन नहीं आया। ‘वह निस्सहाय न जाने कैसे वृद्धा माँ के साथ फटी बरसाती मोमजामा की छत तानकर कड़कती ठंड में फुटपाथ पर प्राणों को गलाता रहा होगा । कभी अधमरी हुई माँ पिता के साथ रहती होगी, कभी भीषण संकट के दलदल में फँसा मुरली ।' वसुधा ऐसी ही कल्पना कर लेती ।

बस, ऐसे ही एक दिन करुण अंत ने अपना पंजा फैलाया तो मुरली बेबस लाचार ...फिर उस घर की सीढ़ियाँ चढ़ता हुआ रात के समय दरवाजे पर आ खड़ा हुआ। आँखों में आँसुओं का लबालब ताल - सा बन गया था, ओठ फटकर कौर-कौर थे - सूखी पपड़ी के नीचे खून रिसने से बनी गहरी लाल धारियाँ ।

कोहनी और घुटनों पर तार-तार वस्त्रों में बड़े-बड़े गोलाकार छेद - किसी भिखमंगे से बुरी दशा ...दीन मलिन । शोक संतप्त । कच्ची गदराई उम्र में पाले के मारक प्रहार से उजड़ता-सा । बस, खुरदरी कलाई पर घड़ी अवश्य बँधी थी।

“भाई साहब ...बाबूजी ...जा रहे हैं। आखिरी समय है। एक बार ...बस एक... ।” वह अनुपम के समक्ष घिघिया उठा ।

"जो होना है होकर रहेगा। हमारे जाने से ही क्या हो जाएगा मुरली ?” अनुपम न जाने क्यों उस विक्षत हृदय से जवाब माँगा । शाश्वत सत्य के उपदेश तले दाब दिया उसे ।

“कुछ नहीं भाई साहब ! बस, हमारी हिम्मत ...माँ को आपसे...।" वह आगे प्रयत्न करने पर भी नहीं बोल सका ।

वसुधा अंदर जाकर झटपट चाची जी की जंजीर हाथों के बीच दबा लाई और मुरली की कमीज की जेब में डाल दी - “यह तुम्हारी... ।”

“मुरली, तुम चलो, हम आते हैं।” वसुधा अनुपम के कुछ कहने के पहले ही बोल पड़ी। अपनी वज्र देहरी से उसे हटा देने की चेष्टा में जुटी थी वह। 'ऐसी नरम स्थिति में पाषाणशिला पर माथा पटकने का क्या अर्थ ?'

मुरली के जाने के बाद - " आखिरी समय है अनुपम ! चलो, कुछ घट नहीं जाएगा हमारा। अब वे जीवित ही कहाँ रहेंगे, जो तुम्हें परेशानी देते रहें !” पति को पिघला लेने का अंतिम प्रयास कर रही थी ।

“चल रहा हूँ।” अनुपम का शीघ्रता-भरा निर्विकार स्वर ।

वसुधा और अनुपम लिफ्ट की प्रतीक्षा किए बिना ही दो मंजिल ऊँची सीढ़ियाँ चढ़ते चले गए।

“देखो ! आँखें खोलो ! अनुपम आय गयौ ! बहू ठाड़ी है ! देखो तो सही "तुम कहते रहे कि अनुपम के पास लैकें चलौ, वो ही मेरौ इलाज करवाय देगी। देखि तौ लेउ एक बेर !” चाची ने लंबी साँसें भरते चाचा जी का चेहरा हिलाया-डुलाया । अनुपम गद्दे के नीचे से निकालकर केस शीट देखने लगे ।

पलकें खुलीं। दो बूँद पानी आँखों की कोरों से इधर-उधर ढुलक गया। न अधरों में कोई प्रस्फुटन"न हाथ-पाँवों में कोई गति। ऑक्सीजन मास्क से साँसें दी जा रही थीं। मुरली सिर झुकाए खड़ा रहा। चाची धीमे-धीमे सुबकती रहीं। थोड़ी देर रुककर दोनों चले आए।

वसुधा रात-भर जागती रही। गहरी नींद में सोए अनुपम को बीच-बीच में हिला देती, मगर वे ठंडक के कारण रजाई लपेटकर खरटि भरने लगते ।

“अब तक तो खतम हो गए होंगे।” अनायास ही अनुपम कह उठे, फिर चाय का प्याला तिपाई पर टिकाकर अखबार देखने लगे ।

उसे लगा झकझोरकर कहे कि चलो ...वह अकेला बालक... लेकिन अंतर में समाया भय... प्रताड़ना का संत्रास उसे जड़ करता रहा।

“डिपार्टमेंट जाते समय होता जाऊँगा।” अनुपम का यह वाक्य सुनकर भी वह गूँगी - बहरी बनी रही।

घर रीता होते ही वह भागी थी - वार्ड - डी-2, बेड नंबर 36 ...पता लगा कि चाचा जी रात ही ...डैड बॉडी मौरच्युरी में है ।

हड़बड़ाती सबसे नीचे की मंजिल मौरच्युरी में पहुँची । “ ले गए वे लोग डेड बॉडी।” उत्तर मिला तो खड़ी की खड़ी रह गई ...निष्प्राण-सी स्तब्ध ...सुन्न !

अस्पताल के मुख्य द्वार पर खड़ी रही - इधर-उधर ताकती-कहीं मुरली ? कहीं चाची जी ?

पर कोई नहीं मिल सका। वही ग्रामीण बच्ची, जो उस दिन दाल के भगौने के पास बैठी कौए उड़ा रही थी, दौड़कर समीप चली आई - "लाश ले गए मुरली भइया। टैक्सी के पइसा नहीं हते सो हमारे बाबू के संग जाकें अपनी घड़ी बेची और अम्मा जी की जंजीर ...यहीं - यूसुफ सराय में।”

अक-बक अवसन्न वह खड़ी रही देर तक ...बौराई बावरी - सी ...फटी आँखें शून्य में गाड़े ...फिर भारी बोझिल कदम घर की ओर धरने लगी। आज न दाएँ देखा, न बाएँ, न जाने कैसे सड़क पार करती चली आई। कुछ तुड़े-मुड़े नोट हथेली के बीच बे पसीजते रहे ।

और आज बरसों बाद यहाँ-

अचानक भर्राता हुआ स्कूटर बैंक के अहाते में घुसा। हड़बड़ाहट में वसुधा की तंद्रा टूटी। वह देर तक भौचक -सी देखती रही - इधर-उधर, जैसे कोई दुःस्वप्न देखकर जागी हो । कुछ देर में समझ आया कि वह बैंक में बैठी है।

"मुरली मैनेजर को साथ ले आया वसुधा !” उसके कंधे पर हाथ धरे अनुपम का आह्लादी स्वर चहका ।

आनन-फानन में सारा काम हो गया । रुपए गिनकर अनुपम ने बड़े जतन से बैग में धर लिए। मुरली ने उबार लिया अनुपम को - गहन चिंताओं के अतल - अथाह सागर से, पल-पल बढ़ते झंझावाती रक्तचाप के उच्च ज्वार से और डूबती हुई धनराशि पर निकलते विकल प्राणों से ।

मुरली असीम उत्साह-भरे अतिरेकी स्वर में कहे जा रहा था – “भाई साहब, रास्ते में घर रुका था। माँ खाना बना रही हैं आपके लिए।"

“मगर अब इतना समय कहाँ है ?” अनुपम ने निराधार बहाना खोजा । वे अजब-सी अव्यक्त स्थिति में थे, जैसे आत्मा की गिरावट के ठूंठ में वन उग आए हों और वे उससे निकलने के दुर्लभ प्रयासों को टटोलते असमर्थ निस्सहाय हाँफने लगे हों ।

“मैंने कहा माँ से, मगर वे मानीं कहाँ ? कह रही थीं, बहू आई है। ऐसे ही बिना खाए-पिए चली जाएगी ?"

फिर वही गलियाँ, वही रास्ते ...बेहद सँकरे। दीवार से दीवार जुड़ी हुई, छज्जे से छज्जे मिले हुए और मकान से मकान रगड़ खाते हुए नुक्कड़ पर ही हलवाई चाचा मिल गए- “अनुपम बाबू हैं का ?” कहते हुए लपककर गह लिया अनुपम को। खड़े पीठ सहलाते रहे - “बिलकुल ही दिल्लीवासी होकर रह गए भइया !”

पल-भर रोककर पत्ते के दोनों में मिठाई बाँधी और मुरली को पकड़ा दी - “ अनुपम के साथ रख देना। बच्चे खा लेंगे।”

मुद्दत बाद उस घर में प्रवेश किया था। वही धुला-पूँछा ईंटों के खरंजे का आँगन लोहे की लंबी सलाखोंदार बड़े-बड़े जंगले ।

“चाची जी ... !” वसुधा उनके पाँवों पर झुकी।

वे पल-दो पल देखती रहीं, खड़ी हरषाती रहीं । मुख से असीसती शबरी-सी ...भाव-विभोर, विह्वल, गद्गद - जैसे उनकी कुटिया में राम और सीता ने पाँव धरा हो ।

स्मृतियों में सँजोए अनुपम की पसंद के कस्बई व्यंजन बड़े मनोयोग से तैयार किए थे। बड़े जतन से परोसने लगीं। उनका किया सत्कार ...! वह कृतार्थ- भाव... !

“बहू, मीरा ब्याह भर देखत रही कि भाभी आवैगी, भाई साहब आवैंगे ! रोबत रही बहू, तोय याद करकें । कारड तौ मिलौ होयगौ ?”

वसुधा निःशब्द ... । कंठ में बबूल की काँटों भरी सूखी टहनी अटककर रह गई ।

अनुपम ने सौ का नोट पर्स से निकाला और चाची के हाथ पर धरने लगे - " मीरा के लिए चाची ! जब आए तब दे देना।” डूबती आवाज महीन-मद्धिम हो चली।

“नाँहि बेटा ! मीरा जब मिलेगी, तब दै दीजो ।” कहकर वे रुआँसी हो आईं।

चलने की वेला तक आँखें गीली थीं-बिलखने जैसी स्थिति ।

“ मुरली, दिल्ली आना । तुम तो आते ही नहीं हो यार ! चाची को लिवा लाना ।” अनुपम के मुख से निकला वाक्य हकलाकर उनके होंठों पर ही दम तोड़ने लगा ।

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