कोटर और कुटीर (हिंदी कहानी) : सियारामशरण गुप्त
Kotar Aur Kuteer (Hindi Story) : Siyaramsharan Gupt
कोटर
दोपहरी का समय था । सूर्य अग्नि-शलाकाओं से पृथ्वी का शरीर दुग्ध कर रहा था । वृक्षों के पत्ते निस्पन्द थे । मानों किसी और भयंकर काण्ड की आशंका से साँस -सी साधे खड़े हैं । इसी समय अपने छोटे-से कोटर के भीतर बैठे हुए चातक पुत्र ने कहा-पिता !
बाहर की सहज स्निग्ध वनस्थली के वर्तमान रूखेपन की तरह ही वह स्वर कुछ नीरस था । चातक ने अपनी चोंच कुमार की पीठ पर फेरते हुए प्यार से कहा क्या है बेटा ?
"है और क्या ? प्यास के मारे चोंच तक प्राण आ गये हैं ।"
"बेटा, अधीर न हो । समय सदा एक-सा नहीं रहता ।"
"तो यही तो मैं भी कहता हूँ-समय सदा एक-सा नहीं रहता । पुरानी बातें पुराने समय के लिए थीं। आप अब भी उन्हें इस तरह छाती से चिपकाये हुए हैं, जिस तरह बानरी मरे बच्चे को चिपकाये रहती है । घनश्याम की बाट आप जोहते रहिए । अब मुझसे यह नहीं सध सकता ।"
"घनश्याम के सिवा हम और किसी का जल ग्रहण नहीं करते । यही हमारे कुल का व्रत है । इस व्रत के कारण अपने गोत्र में न तो किसीकी मृत्यु हुई और न कोई दूसरा अनर्थ ।"
"आप कहते हैं, -कोई अनर्थ नहीं हुआ; मैं कहता हूँ, प्यास की इस यन्त्रणा से बढ़कर और अनर्थ क्या होगा । जहाँ से भी होगा, मैं जल ग्रहण करूँगा ही ।"
चातक सिहरकर पंख फड़फड़ाने लगा । मानो उसने उन अश्रव्य वचनों और कानों के बीच में कोलाहल की परिखा-सी खड़ी कर देनी चाही ! थोड़ी देर तक चुप रहकर वह बोला- बेटा, धैर्य रख। अपने इस व्रत के कारण ही पानी बरसता है और धरती माता की गोद हरी-भरी होती है । यह व्रत इस तरह नष्ट कर देने की वस्तु नहीं ।
लाड़ले लड़के ने कहा—व्रत पालन करते हुए इतने दिन तो हो गये, पानी का कहीं चिह्न तक नहीं है । गरमी ऐसी पड़ रही है कि धरती के नदी-नाले सब सूख गये । फिर सूर्य के और निकट रहने वाले आकाश के मेघों में पानी टिक ही कैसे सकता है ?
"बेटा, पृथ्वी का यह निर्जल उपवास है । इसी पुण्य से उसे जीवन-दान मिलेगा । भोजन का पूरा स्वाद और पूरी तृप्ति पाने के लिए थोड़ी-सी क्षुधा सहन करना अनिवार्य ही नहीं, आवश्यक भी है ।"
"पिताजी, मैं थोड़ी-सी क्षुधा से नहीं डरता । परन्तु यह भी नहीं चाहता कि क्षुधा ही क्षुधा सहन करता रहूँ । मैं ऐसा व्रत व्यर्थ समझता हूँ । देवताओं का अभिशाप लेकर भी मैं इसे तोडूंगा । घनश्याम को भी तो सोचना चाहिए था कि उनके बिना किसी के प्राण निकल रहे हैं । आदमी ने मेघों पर अविश्वास करके कृषि की रक्षा के लिए नहर, तालाब और कुओं का बन्दोबस्त कर लिया है । कृषि ने आपकी तरह सिर नहीं हिलाया कि मैं तो घनश्याम के सिवा और किसीका जल नहीं छुऊँगी | हमीं क्यों इस तरह कष्ट सहें । आप चाहे रक्खें या छोड़ें, मैं यह झंझट न मानूँगा ।
चातक ने देखा -- मामला बेढब हुआ चाहता है । यह इस तरह न मानेगा । कहा- यह बताओ, तुम जल कहाँ से ग्रहण करोगे ?
चातक पुत्र चुप । उसने अभी तक इस बात पर विचार ही नहीं किया था । वह सोचता था, जिस प्रकार लाखों जीव-जन्तु जल पीते हैं, उसी प्रकार मैं भी पिऊँगा । परन्तु वह प्रकार कैसा है, यह उसकी समझ में न आया था ।
लड़के को चुप देखकर पिता ने समझा - कमजोरी यहीं है । वह जानता था कि कमजोरी के ऊपर से ही आक्रमण करना विजय की पहली सीढ़ी है । बोला- चुप कैसे रह गये ? बताओ, तुम जल कहाँ से ग्रहण करोगे ?
हिचकिचाकर, अपनी बात स्वयं ही खण्ड खण्ड करते हुए, लड़के ने कहा- जहाँ से और दूसरे ग्रहण करते हैं, वहीं से मैं भी करूँगा ।
पिता ने कहा- पड़ोस में वह पोखरी है । अनेक पशु-पक्षी और आदमी भी वहाँ जल पीते हैं । तुम वहाँ जल पी सकोगे ? बोलो है हिम्मत ?
चातक-पुत्र को उस पोखरी के स्मरण से ही फुरहरी आ गई । अह, उसमें कितनी गन्दगी है! पत्ते, सूखी डंठलें आदि गिर गिरकर उसमें सड़ती रहती हैं । कीड़े कुलबुलाते हुए उसमें साफ दिखाई दे सकते हैं । लोग उसमें कपड़े निखारने आते हैं, या गन्दे करने, कई बार सोचने पर भी वह समझ न सका था । एक बार एक आदमी को अंजुली से पानी पीते देख उसने पिता से कहा था- देखो पिताजी, ये कैसे घृणित जीव हैं। अवश्य ही उसने अपने व्रत का जिक्र उस समय नहीं किया था, परन्तु उसके मन में उसीका गर्व छलक उठा था । अब इस समय वह पिता से कैसे कहे कि मैं उस पोखरी का पानी पिऊँगा ?
चातक बोला बेटा, अभी तुम नासमझ हो । चाहे जहाँ से पानी ग्रहण करना इस समय तुम आसान समझ रहे हो, परन्तु जब इसके लिए बाहर निकलोगे, तब तुम्हें मालूम पड़ेगा । हमारी प्यास के साथ करोड़ों की प्यास है। और तृप्ति के साथ करोड़ों की तृप्ति । तुझसे अकेले तृप्त होते कैसे बनेगा ?
चातक पुत्र इस समय अपने हठ को पुष्ट करने वाली कोई युक्ति सोच रहा था । पिता की बात बिना सुने वह बोल उठा --- मैं गंगा-जल ग्रहण करूँगा ।
चातक ने कहा गंगाजी तो यहाँ से पाँच दिन की उड़ान पर हैं । तू नहीं मानता तो जा । परन्तु यदि तूने और कहीं एक बूँद भी ली, तो हमें मुंह न दिखाना ।
चातक पुत्र प्रणाम करके फर्र से उड़ गया ।
कुटीर
बुद्धन का कच्चा खपरैल घर था। छोटी छोटी दो कोठरियाँ, फिर उन्हीं के अनुरूप आँगन और उसके आगे पौर। पुराना छप्पर नीचे झुककर घर के भीतर आश्रय लेने की बात सोच रहा था। जीर्ण-शीर्ण दीवारें रोशनदान न होने की साध दरारों के 'दत्तक' से पूरी किया चाहती थीं !
उस घर में और कुछ हो या न हो, आँगन के बीच, चातक - पुत्र के विश्राम करने योग्य नीम का एक वृक्ष था । तीसरी उड़ान की थकान मिटाने के लिए वह उसी पर उतरा ।
नीम की स्निग्धता तथा सघनता ने चातकपुत्र को अपने निजी सहकार की याद दिला दी । विश्राम पाकर भी उसके जी में एक प्रकार की व्याकुलता उत्पन्न हो गई । पकी निबौरी की तरह उस वेदना में भी कुछ माधुर्य था !
नीचे वृक्ष की छाया में बुद्धन लेटा हुआ था । अवस्था उसकी पचास के ऊपर थी। फिर भी अभी कुछ दिन पहले तक, उसके पैरों में जीवन-यात्रा की इतनी ही मंजिल तय करने योग्य शक्ति और मालूम होती थी । एक दिन एकाएक पक्षाघात ने उसे अचल कर दिया । जीवन और मृत्यु ने आपस में सुलह करके मानो आधे आधे शरीर का बटवारा कर लिया ! स्त्री पहले ही गत हो चुकी थी । घर में १५-१६ वर्ष का एक मात्र पुत्र, गोकुल ही अवशिष्ट था । उसीके सहारे उसके दिन पूरे हो रहे थे ।
गोकुल एक जगह काम पर जाता था। काम करके प्रति दिन सन्ध्या समय तक लौट आता था । आज अभी तक नहीं आया था, इसलिए बुद्धन उसके लिए छटपटा रहा था । ऊपर आकाश में तारे छिटक आये थे । इधर-उधर चारों ओर सन्नाटा था और घर में अकेला बुद्धन । यद्यपि उसमें खाट के नीचे तक उतरने की शक्ति नहीं थी, तो भी उसका मन न जाने कहाँ कहाँ चौकड़ी भर रहा था । गोकुल सबेरे थोड़े-से चने खाकर काम पर गया था । बुद्धन के लिए भी कुछ चने और पीने का पानी यथा स्थान रख गया था। आज खाने के लिए घर में और कुछ था ही नहीं । कह गया था, शाम को मजूरी के पैसों का आटा लाकर रोटी बनाऊँगा । परन्तु आज वह अभी तक नहीं आया था। अनेक आशंकाओं से बुद्धन का मन चंचल था । जो समय आनन्द की स्निग्ध-शीतल-छाया में शीतकाल के दिन की तरह, मालूम भी नहीं होने पाता और निकल जाता है, वही दुःख की दाहक ज्वाला में निदाघ के दीर्घ दिनों की भाँति अकाट्य हो उठता है। रात बहुत नहीं बीती थी, परन्तु बुद्धन को मालूम हो रहा था कि बरसों का समय हो गया। वार वार अपने कान खड़े करके रात के उस सन्नाटे में वह गोकुल के पद - शब्द सुनने का प्रयत्न कर रहा था ।
बड़ी देर बाद उसकी प्रतीक्षा सफल हुई । किवाड़ खुलने की आवाज सुनकर वह चौंका । वास्तव में यह गोकुल ही था । उसने कहा कौन, गोकुल ! बेटा, आज बड़ी देर लगाई ।
गोकुल धीरे से पिता की खाट के पास आकर रोने लगा ।
बुद्धन ने घबराकर पूछा-"क्या हुआ, बेटा; क्या हुआ ? आज मजूरी नहीं मिली । अब कैसे चलेगा ?"
"ऐं मजूरी नहीं मिली ! फिर इतनी देर क्यों हुई ?"
प्रकृतिस्थ होकर गोकुल ने उसे अपना हाल सुनाया ।
*****
सबेरे घर से निकलते ही गोकुल को सामने खाली घड़ा मिला। देखकर उसके पैर ढीले पड़ गये । सोचा- आज भगवान ही मालिक है । काम पर पहुँच कर उसने देखा - ओवरसियर साहब आज कुछ ज्यादा खफा हैं । इंजीनियर साहब काम देखने आये थे । जान पड़ता है, काम देखने की जगह वे ओवरसियर साहब को ही देख गये थे । अन्याय का यह बोझा उन्होंने दिन भर मजदूरों पर अच्छी तरह उतारा । शाम को मजदूरी देने के समय भी साफ इंकार कर दिया- आज दाम नहीं दिये जायेंगे । उस अदालत के फैसले की तरह, जिसकी कहीं अपील नहीं हो सकती, ओवरसियर साहब का हुक्म मानकर मजदूर अपने अपने घर लौट गये ।
गोकुल लौटा चला आ रहा था कि एक जगह उसे रास्ते में कुछ पड़ा हुआ दिखाई दिया । पास पहुँचने पर मालूम हुआ, रुपये-पैसे रखने का बटुआ है । उठाकर देखा तो काफी वजनदार था । वह सोच में पड़ गया-इसे खोलकर देखना चाहिए या नहीं । न देखने का निश्चय ही उसे दृढ़ करना पड़ा | कौतूहल- निवृत्ति करने के लिए उसने उसे टटोला। टटोलने पर मालूम हुआ- रुपये हैं और बहुत कम भी नहीं । थोड़ी देर तक वह वहीं खड़ा खड़ा सोचता रहा — इसका क्या करूँ ? उसके पिता ने उसे अब तक जो कुछ सिखाया था, उसने उसे इस बात के सोचने का अवसर ही नहीं दिया कि बटुआ अपने पास रख ले। वह यही सोच रहा था कि यह किसका है ? जब उसे मालूम होगा कि उसका बटुआ खो गया है तब उसकी क्या दशा होगी ? रुपये-पैसे का क्या मूल्य है; यह बात वह कुछ दिनों में ही अच्छी तरह जान गया था । उस व्यक्ति की उस समय की दशा का विचार करके वह इस प्रकार सिहर उठा, मानो उसीका बटुआ खो गया हो !
उसे ध्यान आया कि कुछ दूर उसने एक गाड़ी जाती हुई देखी थी । उसपर कान में मोती-पिरोई सोने की बाली पहने एक महते बैठे थे । सम्भव है, यह बटुवा उन्हींका हो । और किसीके पास इतने रुपये होना आसान भी नहीं है । यहाँ कुएँ पर गाड़ी रोककर उन्होंने पानी पिया होगा और आग जलाकर तमाखू भरी होगी। एक जगह आग जलाई जाने के चिह्न मौजूद थे | उसने इस बात का विचार ही नहीं किया कि गाड़ी तक जाने में कितना समय लगेगा और वह दौड़ पड़ा ।
लगभग आधे घण्टे के परिश्रम से वह उस गाड़ी के पास पहुँच गया । गोकुल ने हाँफते - हाँफते पूछा- महते, तुम्हारा कुछ खो तो नहीं गया ?
महते ने चौंककर गाड़ी में इधर-उधर देखा । साथ ही जेब पर हाथ रक्खा तो पाषाण की तरह निस्पन्द हो गये । गोकुल से महते की वह अवस्था देखी न गई । वह बटुआ दिखाकर उसने झट से प्रश्न कर दिया - यह तुम्हारा है ?
एक क्षण में ही जीवन और मृत्यु का द्वन्द्व-सा हो गया । मानो बिजली के खटके से प्रकाश बुझाकर घर फिर से उद्दीप्त कर दिया गया हो ! महते ने कहा- भगवान तुझे सुखी रक्खें भैया ! इसे कहाँ पाया ? "रास्ते में पड़ा था । इसमें कितने रुपये हैं ?"
महते ने हिसाब लगाकर बताया- बयालीस रुपये, एक अठन्नी, एक घिसी हुई बेकाम दुअन्नी, दस या बारह आने पैसे, एक कागज, एक चाँदीका छल्ला--
गोकुल ने बटुआ खोलकर रुपये गिने । सब ठीक निकले । बटुआ हाथ में लेकर महते की आँखों में आँसू भर आये | बोले- इतनी बड़ी रकम पाकर भी जिसे उसका लोभ न हो, भैया, मैंने ऐसा आदमी आज तक नहीं देखा । यदि किसी और को यह बटुआ मिलता, तो मेरा मरण हो जाता । मेरा रोम रोम असीस रहा है, भगवान् तुम्हें सदा सुखी रक्खें - यह कहकर महते ने बटुए से निकालकर गोकुल को दो रुपये देने चाहे । उसने सिर हिलाकर कहा मेरे बप्पा ने किसी से भीख लेने के लिए मुझे मना कर दिया है। मुफ्त के रुपये मैं न लूँगा ।
महते के सजल नेत्र विस्मय से खुले ही रह गये । गोकुल थोड़ी ही देर में उस अन्धकार में उनकी आँखों से ओझल हो गया ।
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सब वृत्तान्त सुनाकर गोकुल अपराधी की भाँति खड़ा खड़ा बोला - बप्पा, आज खाने के लिए कुछ नहीं है । महते से कुछ उधार माँग लाता, तो सब ठीक हो जाता । मेरी समझ में यह बात उस समय आई ही नहीं ।
बुद्धन की आँखों से झर-झर आँसू झरने लगे । गोकुल को अपनी दोनों भुजाओं में भरकर उसने छाती से लगा लिया । आनन्दातिरेक ने उसका कण्ठावरोध कर दिया । उसे मालूम हुआ कि उसके क्षुधित और निर्जीव शरीर में प्राणों का संचार हो गया है। उसे जिस तृप्ति का अनुभव होने लगा, वह दो एक दिन की तो बात ही क्या जीवन भर की क्षुधा शान्त कर सकती है । धन-सम्पत्ति, मान और बड़ाई सब उसे तुच्छ से प्रतीत होने लगे । मानो एकाएक उसके सब दुःख - रोग दूर हो गये हैं । अब वह बिना किसी चिन्ता के मृत्यु का आलिङ्गन इसी क्षण कर सकता है ।
बड़ी देर में अपने को सँभाल कर बुद्धन बोला- अच्छा ही किया बेटा, जो तू महते से रुपये उधार नहीं लाया । वह उधार माँगना भी एक तरह का माँगना ही होता । भगवान ने तुझे ऐसी बुद्धि दी है, मैं तो यही देखकर निहाल हो गया । दो-एक दिन की भूख हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकती । जिस तरह चातक अपने प्राण देकर भी मेघ के सिवा किसी दूसरे का जल लेने का व्रत नहीं तोड़ता, उसी तरह तू भी ईमानदारी की टेक न छोड़ना । मुझे मालूम हो गया, यह तू मुझसे भी अच्छी तरह जानता है। फिर भी कहता हूँ- सदा ऐसी ही मति रखना । चाहे जितनी बड़ी विपत्ति पड़े, अपनी नियत न डुलाना ।
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ऊपर चातक-पुत्र सुन रहा था । उसको आँखों से भी झर-झर आँसू झरने लगे। बड़ी कठिनता से वह रात बिता सका। पौ फटते ही बड़े सबेरे वह फिर उड़ा। परन्तु आज वह विपरीत दिशा को चला; उसी दिशा को, जिधर से वह आया था। उसकी उड़ान पहले से तेज हो गई थी। फिर भी अपने कोटर तक पहुँचने में उसे चार दिन की जगह सात दिन लग गये । दूसरे दिन से ही मेघों ने उठकर ऐसी झड़ी लगा दी कि बीच बीच में कई जगह रुककर ही वह वहाँ तक पहुँच सका ।
फाल्गुन शुक्ल ८-१९८६