कोप करने से वर मिले या तप में मिले वर : ओड़िआ/ओड़िशा की लोक-कथा
Kop Karne Se Var Mile Ya Tap Mein Mile Var : Lok-Katha (Oriya/Odisha)
एक गाँव में महादेव का एक मंदिर था। उसी गाँव में एक ब्राह्मण और एक केवट रहते थे। दोनों निःसंतान थे। बूढ़े हो गए, पर पेड़ में फल एक नहीं लगा। पर दोनों ने महादेव से अनुग्रह प्राप्ति की आशा लगाए रखी। कुछ दिनों व्रत-उपवास किया, पर कोई आदेश नहीं मिल रहा था। ब्राह्मण हर रोज़ फूल, बेल पत्ता, महीन चावल आदि महादेव के मस्तक पर चढ़ाता। गंगा जल से रोज़ अभिषेक करता, पर महादेव उसकी प्रार्थना नहीं सुनते।
एक दिन केवट मछली मारने गया था। मछली की टोकरी अपने सिर पर लादकर आ रहा था। दारू पीकर आँखें लाल हो रही थीं। लड़खड़ाते क़दमों से आगे बढ़ रहा था कि रास्ते में उसे महादेव का मंदिर दिख गया। वह नशे में चूर था। उसे याद आ गया कि मंदिर में उसने कितनी ध्यान-तपस्या की। मंदिर के द्वार पर जाकर खड़ा हो गया और चिल्लाकर बोला, “महाप्रभु, इतना तप, व्रत किया पर तुमने नहीं सुना। अब पूछ रहा हूँ कि मुझे लड़का होने का वर दोगे या फिर इस मछली से भरी टोकरी को तुम्हारे सिर पर उड़ेल दूँ?” इतना कहकर मंदिर के अंदर घुस गया। महादेव सोचने लगे, “अब तो बात बिगड़ ही जाएगी। यह तो नशे में चूर है। समझाने से भला यह क्या समझेगा। अभी मछली की टोकरी मेरे सिर पर भुस्स करके गिरा देगा। सब कुछ अशुद्ध हो जाएगा।”
यह सोचकर अंदर से चिल्ला उठे, “अरे! अरे! रुक जा, तुझे सात लड़के होंगे।”
केवट बोला, “चलो, कुछ तो हो।” इतना कहकर घर पहुँचकर पत्नी से बोला, “अरी अब उदास क्यों हो रही हो? हमारे सात लड़के होंगे।”
वह ब्राह्मण दूसरे दिन आया मंदिर में और हर दिन की तरह पूजा-पाठ, अभिषेक करने लगा। उस समय महादेव नींद के झोंके में थे। पार्वती बोलीं, “सुनो, आप बहुत बेकार हैं, सारे अबूझपन आपके पास हैं! यह ब्राह्मण रोज़ आकर आपकी इतनी पूजा-पाठ करता है और आप है कि नींद ले रहे हैं! कल केवट ने आकर मछली की टोकरी उड़ेल दूँगा कहा तो आपने डरकर उसे सात पुत्र होने का वर दे दिया। आजकल तो उलटा युग हो गया है। इस ब्राह्मण की गुहार सुनने का आपका मन नहीं कर रहा है?” महादेव ने पार्वती की तरफ़ आँखें तरेरकर देखा और बोले, “लगता है, आजकल औरतों का ज़माना हो गया है। औरतें ख़ूब ऊधम मचाने लगी हैं। सुनो तुम नासमझ हो। जो ज़िद पकड़ ली तो पकड़ ली। ब्राह्मण को वर नहीं दिया, इस बात को लेकर ग़ुस्से से फनफना रही हो, पर पूछना तो है नहीं कि क्यों नहीं दिया? न समझना है, न जानना है, बस भड़-भड़ बोलना है। अब ऐसी बात का क्या जवाब है भला?” पार्वती बोलीं, “नासमझी भरा विचार आप करते हैं, तब तो चिढ़ नहीं होती। बस कह देने से बात लग रही है। ब्राह्मण को क्यों भला तपती रेत में इस तरह कलबला रहे हैं आप?”
महादेव बोले, “सुनो, केवट को सात पुत्र दिए तो कोई मछली पकड़ने जाएगा, कोई चोरी करेगा, कोई फटा-पुराना पहनकर भीख माँगेगा। जैसी तपस्या उसने की, वैसे ही तो उसे पुत्र मिलेंगे। ब्राह्मण की बात जो कर रही हो तो उसे ऐसा-वैसा लड़का दे देने से तो होगा नहीं। उसकी तपस्या के अनुसार पुत्र हो तभी ना उसे पुत्र होने का वर दूँ। उसके भाग्य में जो लड़का लिखा है, उसकी उम्र कम है—सिर्फ़ बारह वर्ष। मैं उसे कैसे इतनी कम उम्र के पुत्र का वर दे दूँ? इसीलिए तो मैं पशोपेश में पड़कर छटपटा रहा हूँ। नहीं तो वर देने के लिए क्या मेरा मुँह नहीं खुलता?”
पार्वती बोलीं, “इससे हमें क्या? उसे एक पुत्र दे दो, फिर वह जाने। फिर हमारी कोई ज़िम्मेदारी नहीं है। उधर वह ब्राह्मणी रोज़ आपको कितना गाली-गलौज देती है, अभिशाप देती है। आप क्या जानें? आप तो आँखें बंद करके बैठे रहेंगे और इधर मैं सारी बद्दुआ सुनती रहूँ।”
महादेव बोले, “ठीक है।”
सुबह ब्राह्मण ने पूजा करने अंदर क़दम रखा तो उसे आकाशवाणी सुनाई दी, “जा तुझे वर मिला, तुझे एक लड़का होगा, पर उसकी उम्र होगी सिर्फ़ बारह वर्ष। बारह वर्ष से एक दिन भी अधिक उसे कोई यहाँ रोककर नहीं रख पाएगा। अब तू जाने, तेरा बेटा जाने।”
ब्राह्मण बोला, “वह तो बाद की बात है। मैं तो इतना व्याकुल हूँ, पहले पुत्र का मुखड़ा तो देख लूँ। इतना कहकर ब्राह्मण अपने घर गया। घर जाकर ब्राह्मणी से कहा। ब्राह्मणी बेटा होने के लिए बारह वर्षों से माघ महीने का सोमवार, रविनारायण व्रत कर रही थी। जिस दिन उसका व्रत ख़त्म हुआ उस दिन वह गर्भवती हुई और ठीक समय पर एक लड़के को जन्म दिया।
ब्राह्मण ने माँग जाँचकर बच्चे की इक्कीसवें दिन की पूजा की। लड़के को हल्दी-तेल लगाकर ख़ूब लाड़-प्यार से पालने लगा। लड़का बड़ा हुआ तो ब्राह्मण ने उसे पाठशाला में भर्ती कर दिया। सात वर्ष का हुआ तो उसके गले में जनेऊ पहनाया। ब्राह्मण का लड़का जनेऊ संस्कार के सातवें दिन तक जप-तप, कर्म-कांड सब सीख गया। जो भी यह सब देखता, उस लड़के की बुद्धि पर अचरज करता। उस लड़के की महादेव के प्रति ख़ूब भक्ति थी। दस साल का हुआ तो लड़के का विवाह कराने के लिए एक ब्राह्मणी कन्या की तलाश शुरू हो गई। कई कुंडली का मिलान करने पर एक कुंडली का राजयोग मिला तो उसी लड़की से सगाई तय की गई।
वह लड़की अपने माता-पिता की इकलौती संतान थी। उसकी माँ हर सुबह सूरज उगने से पहले उठकर घर का काम निबटाती। तब तक वह लड़की तुलसी के पौधे को गोबर-पानी से लीपकर चारों तरफ़ झाड़ लगाकर साफ़ रखती। तुलसी माँ अल्लसुबह उठकर घूमने निकलती तो उस लड़की का चौरा साफ़-सुथरा चमकता मिलता उन्हें। वहीं कुछ पल के लिए वह ठहर जातीं। जाते समय वरदान देकर जातीं कि जिसने इस तुलसी चौरा को झाड़-बुहार कर लीपकर साफ़ रखा है, वह सदा सुहागन रहे। संयोग देखिए कि उसी लड़की का विवाह उस ब्राह्मण कुमार से हुआ।
देखते-देखते बारह वर्ष पूरा होने में और पाँच-सात दिन बाक़ी थे, तब दोनों माता-पिता मुरझाया चेहरा लिए फिरने लगे। लड़का जितना भी पूछता उसे बहला देते। दो दिन बाक़ी थे, तब माता-पिता रोने लगे। तब लड़का बोला, “आप लोग मुझे कुछ बता नहीं रहे हैं, आपके रोने का क्या कारण है। अगर नहीं कहेंगे तो मैं अपने प्राण त्याग दूँगा।'' माता-पिता बोले, “क्या सुनेगा तू? कल के बाद परसों तो तू हमें दुःख के अथाह सागर में डुबाकर चला जाएगा।” इतना कहकर दोनों फूट-फूटकर रोने लगे। तब लड़का बोला, “यही बात है ना! ठीक है जो होगा देखेंगे। मैं एक उपाय बता रहा हूँ। आप लोग वैसा ही करिएगा। कभी तो मरना ही था। अब जब जान गया हूँ तो प्रभु की देहरी पर ही प्राण तजूँगा। वहाँ अपनी उम्र ख़त्म होने तक शिव जी का अभिषेक करता रहूँगा। आगे मेरा भाग्य। आप बस एक काम करिएगा। मंदिर तक टोकरी में फूल और घड़े में पानी भरकर मुझे पहुँचाते रहिएगा।
दूसरे दिन लड़का सुबह उठकर नहाया। एक चटाई लेकर लंबे-लंबे डग भरकर मंदिर पहुँचा। मंदिर के अंदर जाकर चटाई बिछाकर बैठ गया और शिव का अभिषेक करने लगा। एक दिन बीता, दो दिन बीते लड़का मंदिर के भीतर से बाहर नहीं निकला।
उधर चित्रगुप्त ने पत्रिका देखी तो लड़के की उम्र शेष हो चुकी थी। तब यमराज ने अपने दूतों को भेजा, “जाकर उस ब्राह्मण के लड़के को ले आओ।” यमदूत लट्ठ, रस्सी लेकर लड़के को लेने जा पहुँचे। ब्राह्मण के घर पहुँचे, तो लड़का वहाँ नहीं था। ढूँढ़ते-ढूँढ़ते उन्हें सुराग़ मिला कि लड़का घुसा है मंदिर के भीतर। फटी चटाई ओढ़ लेने से क्या यमदूत छोड़ देंगे भला? यमदूतों ने आपस में बात की, “चलो मंदिर के द्वार पर उसका इंतज़ार करेंगे। देखते हैं कि कब तक बहाना करता भीतर रहेगा? मंदिर से निकलते ही उसको पीछे से बाँधकर उठा ले जाएँगे।” ऐसा तय करके मंदिर के बाहर उसका रास्ता ताकते रहे। महादेव के मंदिर के अंदर तो यम का कोई अधिकार नहीं है। यमदूत बहुत पशोपेश में पड़ गए। लड़का बाहर निकलता तभी ना उसे घसीटकर ले चलते। वह तो घुसा है मंदिर की मुख्यशाला के भीतर। यमदूत धोती सँभालकर बाहर घूमते रहे।
पर उस लड़के को किसकी फ़िक्र थी? वह तो अभिषेक करता रहा। यमदूतों ने तब यमराज के पास जाकर गुहार लगाई, “हुज़ूर! बित्ता भर का छोकरा हमें पानी पिला दे रहा है। सरकार ऐसा-ऐसा समाचार है। यम फिर ख़ुद भैंसे की पीठ पर ज़ीन कसकर चढ़े और लड़के को लेने के लिए गए। मंदिर के पास पहुँचे। लड़का तो ध्यान में लगा था। बाहर यमराज खड़े होकर उसे आवाज़ देने लगे। लड़का बोला, “ठहरिए, मैं क्या अभिषेक आधा रखकर आ जाऊँ? मैं अगर जान-बूझकर आधा करके जाऊँगा तो मेरी गोहत्या, ब्रह्म हत्या का भागीदार कौन होगा?” यम बोले, “बित्ता भर का छोकरा! अभी गाल दबा दूँ तो दूध निकल आए, उस पर तेरा इतना घमंड! हम इतने ताक़त वाले तो थक गए, तू है कि एक इंच भी हिल नहीं रहा है! तू तो मंदिर में घुसा बैठा है, नहीं तो एक पल में ही तेरी सारी हेकड़ी भुला देता।” यम की हालत खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे की तरह हो गई।
उधर महादेव घूमने निकले थे। लौटे तो देखा यहाँ तो नाटक चल रहा है। यह सब देखकर मुँह बनाकर घर में घुसे और पार्वती से बोले, “देखा ना! नहीं मान रही थी?”
पुत्र देने के समय कितनी मिन्नतें कर रही थी। अभी जो खींचातानी चल रही है उसका क्या! उस समय बात कर रही थी तो ज़बान पे लगाम नहीं थी। अब क्या मुँह में लड्डू ठूँसा है? तुम ही नाटक की गोवर्धन हो। पार्वती बोलीं, “अरे ऐसे क्यों बातों की गोली चला रहे हैं? अभी तो यायावरों की तरह चारों तरफ़ से घूम-फिरकर लौटे और चूहे को देखकर शेर बनने की तरह उस बेचारे ग़रीब ब्राह्मण के ऊपर ज़ोर आज़मा रहे हैं। आप जाकर सोइए। इतने गहरे में जाने की आपको क्या ज़रूरत आन पड़ी?” महादेव चुप हो गए।
उधर यमराज मंदिर से लौटकर सीधे पहुँचे इंद्र के पास। इंद्र ने उन्हें देखते ही पूछा, “कहिए इधर कैसे?” यम के साथ दूत, चित्रगुप्त, भैंसा सभी थे। यम बोले, “लीजिए आपका पोथी-पत्रा। आज तक मैंने शासन किया। मेरा नाम सुनते ही चींटी से लेकर राजा तक डरकर काँपते थे। मैं राह चलता तो गर्भवती गाय भी मुझे रास्ता दे देती। आज बारह वर्ष की तपस्या मेरी मिट्टी में मिल गई। मैं आज बित्ते भर के एक ब्राह्मण के छोकरे को तो जीत नहीं पाया। अब क्या इज़्ज़त पलीद करने के लिए राजा बना रहूँगा?” इतना कहकर पोथी-पत्रा इंद्र की तरफ़ फेंककर वहीं लथ से बैठ गए।
इंद्र ने पूछा, “क्यों क्या बात हो गई?” तब चित्रगुप्त बोले, “आज एक ब्राह्मण के लड़के की आयु ख़त्म हो गई, पर उसने यमराज को ठेंगा दिखा दिया। वह जाकर महादेव के मंदिर के भीतर घुसकर बैठ गया है। यमराज गए तो उनकी अवहेलना कर दी।” इंद्र बोले, “ओहो! यह तो बड़ा झमेला हुआ। चलो ब्रह्मा के पास चलते हैं।” ब्रह्मा ने सारी बातें सुनीं। महादेव को बुला भेजा। महादेव डगमगाते पहुँचे। ब्रह्मा, इंद्र दोनों ने उन्हें कहा, “यह कैसा न्याय? आपके लिए क्या संसार डूब जाएगा?” महादेव बोले, “मुझे आप दोषी ठहरा रहे हैं, पर मेरे पास चारा क्या था? औरतों के ज़ुल्मों से अब रास्ते सिर उठाकर चलना दूभर हो गया है।” फिर उन्होंने शुरू से अंत तक की सारी रामकहानी कह सुनाई।
सभी मिलकर विष्णु के पास गए। जब तक सब वैकुंठ में पहुँचते, तब तक लक्ष्मी माई सारा माज़रा जान चुकी थीं। विष्णु बैठे थे भोग लगाने। खाकर हाथ धोकर जब बैठे, लक्ष्मी उन्हें पान का बीड़ा देकर आँचल को गले में डालकर खड़ी रहीं। विष्णु बोले, “क्या हुआ? चेहरा क्यों लटका रखा है?” लक्ष्मी बोलीं, “अगर आज मेरा मान आप रखेंगे तभी कुछ बोलूँगी। नहीं तो मैं क्या मुँह दिखाऊँगी? ज़हर खा लूँगी।” विष्णु बोले, “इतनी बड़ी बात कैसे कह दी? तुम्हारी कोई बात कभी टाली है मैंने?” लक्ष्मी बोलीं, “रोज़ सुबह मैं टहलने निकलती तो एक ब्राह्मण के यहाँ तुलसी का चौरा साफ़-सुथरा देखकर वहाँ एक पल के लिए बैठती और आते समय कहती कि जिसने भी इसे लीप-पोतकर गोबर-पानी से सींचा है, वह सदा सुहागन रहे। एक ब्राह्मण की कुँआरी लड़की उसे साफ़ करती थी। मैंने तो ऐसा वर दे दिया उसे। और अब उसी लड़की की एक ब्राह्मण के ऐसे लड़के से शादी हुई जिसकी आयु सिर्फ़ बारह वर्ष है। उसकी आयु ख़त्म है अब, और इधर विवाह का एक साल भी नहीं हुआ। अभी तो उसके हाथों की मेहंदी नहीं छूटी है, गौने की बात तो दूर वह लड़की तो बाल विधवा हो जाएगी। तब तो मेरी बात पानी में लकीर की तरह हो गई।” इतना कहते-कहते महालक्ष्मी सिसकने लगीं।
विष्णु बोले, “ठीक है, जाओ। इतनी सी बात के लिए इतना परेशान क्यों हो? उस लड़की का सुहाग अमर हो जाए तब तो सारी बात ही ख़त्म है ना।” इतना कहकर विष्णु बाहर निकले तो देखा कि तैंतीस करोड़ देवता पुआल की रस्सी गले में डालकर, एक तिनका अपने दाँतों में दबाकर द्वार पर खड़े हैं। वह तो अंतर्यामी हैं। सबको देखकर बोले, “आज मेरा कैसा सौभाग्य है! आओ, आओ, बैठो। देवताओं ने कहा कि हमारा देवत्व भाड़ में जाए। अपना राज्य अब आप ही सँभालो। हमने गंगास्नान का फल पा लिया।” विष्णु ने पूछा, “बात क्या है?” तब देवताओं ने उन्हें सारी बातें बताईं और बोले, “एक बित्ता भर का छोकरा हमारी अवज्ञा कर रहा है तो फिर हमारा रहना - न रहना क्या मायने रखता है?”
विष्णु बोले, “चित्रगुप्त पत्रा ज़रा देना।” इतना कहकर पत्रा देखा, अपने माथे पर उसे थोड़ा घिसा, फिर बोले, “अरे मुझे तो कुछ धुँधला नज़र आ रहा है। कोई है ज़रा मेरा चश्मा तो लाना।” तब चित्रगुप्त घर के अंदर गए चश्मा लाने। तब विष्णु ने क्या किया कि बातचीत करते-करते सबकी नज़र बचाकर छोटी उँगली के नाख़ून की नोंक से 12 के सामने एक शून्य लगा दिया। ख़ाली आँखों से देखने पर हल्का नज़र आ रहा था। चश्मा लगाकर विष्णु ने देखा और थोड़ी देर चुप रहने के बाद बोले, “अरे मैं तो सोच रहा था सिर्फ़ मुझे चालीसा लगा है।” इतना कहकर सबको अपना चश्मा देकर पढ़ने के लिए कहा। ख़ाली आँखों से देखने पर बारह नज़र आता, चश्मा लगाकर देखने पर एक सौ बीस।
सभी ने देखा और देखकर सभी ने दाँतों तले उँगली दबा ली। विष्णु बोले, “मैं पूछता हूँ कि बताओ क्या ब्राह्मण के लड़के की आयु पूरी हो चुकी है? वह फटी चटाई क्यों भला ओढ़ता? काल उल्टा कैसे हो गया? हे! चित्रगुप्त! तुम तो अभी एक ब्रह्मा हत्या के भागीदार होने वाले थे। ऐसे न्याय होगा तब तो धरती के लोग बिन मौत मारे जाएँगे। जाओ अब आगे से ऐसी ग़ैर-ज़िम्मेदाराना बात मत करना। तुम्हें चालीसा लग चुका है। इस चश्मे को ले जाओ। अब आगे से पत्रा पढ़ना तो इसे पहनकर पढ़ना।''
अब सबके मुँह का पानी सूख गया। ब्राह्मण का लड़का सीना तानकर मंदिर से निकला। बेटा-बहू दोनों 120 साल तक जिए। बाल जूट की तरह हो गया, नाक ज़मीन से लगने लगी। बेटा, बहू, पोता, परपोता को साथ लेकर सुखपूर्वक जीवन व्यतीत किया।
(साभार : ओड़िशा की लोककथाएँ, संपादक : महेंद्र कुमार मिश्र)