कोइला और राक्षसी : आदिवासी लोक-कथा
Koila Aur Rakshasi : Adivasi Lok-Katha
एक लड़का था जिसका नाम था कोइला। वह अपनी बूढ़ी माँ के साथ रहता था। कोइला गाय-भैंस चराकर अपना और अपनी माँ का पेट पालता। कोइला बहुत हँसमुख और मिलनसार था। वह हर किसी की भी सहायता करने को तत्पर रहता। गाँव वाले उसे बहुत पसंद करते थे।
भोर होते ही कोइला गाँव भर से गाय-भैंस इकट्ठी करता और उन्हें लेकर जंगल की ओर निकल पड़ता। गाय-भैंस जंगल में घूमतीं चरतीं और कोइला एक चट्टान पर बैठकर उन पर दृष्टि रखता।कोइला की माँ कोइला के लिए दो रोटियाँ एक कपड़े में बाँधकर दे दिया करती। कोइला को जब ज़ोर की भूख लगती तो वह दोनों रोटियाँ खाकर अपना पेट भर लिया करता।
एक दिन कोइला पशु चरा रहा था कि उसे ज़ोर की भूख लगी। कोइला ने पोटली खोली और रोटियाँ निकालकर बैठ गया। उसी समय उसने देखा कि उसकी दो भैंसे आपस में लड़ती हुई दूर भागी जा रही हैं। कोइला रोटी वहीं छोड़कर उनके पीछे भागा। थोड़ी देर बाद वह दोनों भैंसों को शांत करके वापस ले आया। तब तक गाँव लौटने का समय भी हो गया था। कोइला ने पशुओं को इकट्ठा किया और उन्हें हाँकता हुआ गाँव की ओर चल पड़ा। रास्ते में उसे याद आया कि इस हड़बड़ी में वह रोटियाँ खाना तो भूल ही गया और रोटियाँ चट्टान पर छूट गई हैं। उसने सोचा कि अब अगर वह रोटियाँ लेने जाएगा तो ये गाय-भैंसे इधर-उधर भाग जाएँगी, इससे तो अच्छा है कि जब कल पशुओं को लेकर आएगा तब आज की रोटियाँ भी खा लेगा। यह विचार करता हुआ कोइला अपने गाँव लौट गया।
दूसरे दिन कोइला पशुओं को लेकर जंगल में उसी जगह पहुँचा जहाँ वह रोटियाँ भूल आया था। कोइला ने रोटियों की ख़ोज में चट्टान पर दृष्टि डाली तो वह यह देखकर अवाक रह गया कि चट्टान की दरार से एक पेड़ उग आया है और उस पेड़ पर रोटियाँ फली हुई हैं। उसने डरते-डरते एक रोटी तोड़ी और उसे खाकर देखा। रोटी का स्वाद बहुत अच्छा था। बिलकुल ऐसा जैसे अभी किसी ने ताज़ा-ताज़ा सेंक कर परोसी हो। कोइला उस पेड़ को देखकर बहुत ख़ुश हुआ। उसकी माँ जो उसके लिए दो रोटियाँ बाँध दिया करती थी, उनमें उसका पेट नहीं भरता था। अब उसे रोटियों की कोई कमी नहीं थी। उस दिन के बाद से कोइला ने घर से रोटियाँ लानी बंद कर दीं। इधर कोइला को पेड़ पर से ढेर सारी रोटियाँ मिल जातीं और उधर उसकी बूढ़ी माँ को भी दो के बदले चार रोटियों मिल जातीं। दो माँ के हिस्से की और दो कोइला के हिस्से की। माँ का पेट भी मज़े से भर जाता।
कोइला प्राय: उस पेड़ पर चढ़कर बैठ जाया करता। पेड़ पर चढ़कर बैठने से दो लाभ थे—एक तो ऊँचाई से वह अपने पशुओं पर भली-भाँति नज़र रख पाता और दूसरा कि उसे जब भूख लगती, वह रोटी तोड़ता और खा लेता।
एक दिन कोइला पेड़ पर चढ़कर रोटी खा रहा था कि तभी एक राक्षसी उधर से निकली। उसने कोइला को देखा तो उसके मुँह में पानी आ गया। वह आदमख़ोर राक्षसी खाने के लिए मनुष्य की खोज में भटक ही रही थी। कोइला को देखते ही ऐसे ख़ुश हुई जैसे उसे मनचाही मुराद मिल गई हो। राक्षसी ने कोइला को पकड़ने के लिए एक लाचार, बूढ़ी औरत का वेश धारण किया और पेड़ के नीचे जा खड़ी हुई।
‘बेटा! मैं बहुत भूखी हूँ। मैंने कई दिन से अन्न का एक दाना भी नहीं चखा है। दया करके मुझे भी दो रोटियाँ दे दो।’ राक्षसी ने कोइला से कहा।
‘ठीक है अम्मा, मैं रोटियाँ तोड़कर नीचे फेंकता हूँ, तुम उन्हें उठा लेना।’ कोइला ने कहा।
‘यह ठीक नहीं है। जो तुम रोटियाँ नीचे फेंक कर दोगे तो वे धूल में सन जाएँगी। इसलिए तुम नीचे उतर कर मुझे रोटियाँ दो।’ राक्षसी ने कहा। वह चाहती थी कि कोइला पेड़ से नीचे उतरे तो वह उसे पकड़ ले किंतु कोइला पेड़ से उतरना नहीं चाह रहा था।
‘अम्मा, ऐसा करो कि तुम अपना आँचल फैलाओ, मैं उसमें रोटियाँ गिरा देता हूँ।’ कोइला ने दूसरी युक्ति बताई।
‘अरे बेटा, मेरी आँखों की रोशनी तेज़ नहीं है। मुझे धुँधला दिखाई देता है। भला मैं अपने आँचल में रोटियाँ कैसे समेट पाऊँगी। तुम ऐसा करो कि पेड़ से नीचे आकर मुझे रोटियाँ दे दो।’ राक्षसी ने लाचारी का अभिनय करते हुए कहा।
कोइला राक्षसी की बातों में आ गया। उसने पेड़ से दो रोटियाँ तोड़ीं और पेड़ से नीचे उतर आया। वह जैसे ही राक्षसी को रोटियाँ देने आगे बढ़ा कि राक्षसी ने उसकी बाँह पकड़कर उसे अपने झोले में डाल लिया और झोले का मुँह बाँध दिया। कोइला समझ गया कि वह किसी राक्षसी के जाल में फँस गया है। लेकिन वह कर भी क्या सकता था?
राक्षसी कोइला को झोले में बंद करके अपनी गुफ़ा की ओर चल पड़ी। गुफ़ा वह अपनी बेटी के साथ रहती थी। राक्षसी ख़ुश थी कि आज उसे अच्छा शिकार मिला है। अब माँ-बेटी मिलकर इस लड़के को खाएँगी। राक्षसी को चलते-चलते प्यास लग आई। कुछ दूर पर उसे एक जल-कुंड दिखाई पड़ा। राक्षसी जल-कुंड के पास पहुँची। उसने झोले को वहीं ज़मीन पर रख दिया और स्वयं पानी पीने कुंड में उतर गई।
भाग्यवश उसी समय उधर कुछ बंजारे आ निकले। कोइला ने बंजारों की आहट सुनी तो वह सहायता के लिए पुकारने लगा। बंजारों ने देखा कि ज़मीन पर एक बंद झोला पड़ा हुआ है जो हिलडुल रहा है और उसमें से सहायता की पुकार निकल रही है। कौतूहलवश बंजारे झोले के पास पहुँचे। उन्होंने झोले का मुँह खोलकर कोइल को बाहर निकाला। कोइला ने उन्हें आपबीती सुनाई। बंजारों और कोइला ने मिलकर झोले में पत्थर के टुकड़े भर दिए। इसके बाद बंजारे अपने रास्ते चले गए और कोइला अपने पशुओं की ओर भागा। उसने अपने पशुओं को इकट्ठा किया और अपने घर की ओर चल पड़ा।
इधर राक्षसी जल-कुंड से ढेर सारा पानी पीकर बाहर आई तो उसने देखा कि उसका झोला यथास्थान रखा हुआ था। उसने झोले को उठाया और अपनी गुफ़ा की ओर चल पड़ी। गुफ़ा में पहुँचकर राक्षसी ने अपनी बेटी को पुकारा।
‘बेटी, देख तो आज मैं क्या लाई हूँ!’
‘क्या लाई हो, माँ?' राक्षसी की बेटी ने पूछा।
‘तुम स्वयं देख लो।’ कहती हुई राक्षसी ने झोला अपनी बेटी के सामने रख दिया।
राक्षसी की बेटी ने झोले का मुँह खोला और झोले में झाँककर देखा तो आगबबूला हो उठी।
‘ये क्या है माँ? यहाँ तो भूख के मारे मेरी जान निकल रही है और तुम्हें ठिठोली सूझ रही है। अब ये पत्थर तुम्हीं खाओ। लगता है मानुष पकड़ना अब तुम्हारे बस की बात नहीं रही।’ राक्षसी की बेटी ने अपनी माँ को बुरा-भला कहना शुरू कर दिया।
राक्षसी ने भी देखा कि उसके झोले में लड़के की जगह पत्थर भरे हुए हैं। वह समझ गई कि लड़का उसे चकमा दे गया है। उसने मन ही मन निश्चय किया कि अब चाहे जो भी हो जाए मगर वह कोइला को पकड़कर रहेगी।
दूसरे दिन कोइला अपने पशुओं को लेकर फिर उसी जगह पहुँचा। उसने पशुओं को चरने के लिए छोड़ा और स्वयं रोटियों के पेड़ पर चढ़कर बैठ गया।
राक्षसी भी वहाँ आ पहुँची। आज राक्षसी ने एक युवा औरत का वेश धारण किया और गोद में एक छोटा बच्चा रख लिया। पेड़ के नीचे पहुँचकर उसने बच्चे को चिकोटी काट दी। बच्चा ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा।
‘क्यों भौजी, ये बच्चा क्यों रो रहा है?’ कोइला ने राक्षसी से पूछा।
‘क्या बताऊँ भैया, मेरा बच्चा बहुत भूखा है। यह भूख के मारे रो रहा है।’ राक्षसी बोली।
‘ओह, मगर भौजी, ये तो बताओ कि तुम इस घने जंगल में क्या कर रही हो?’ कोइला ने पूछा।
‘मैं अपने मायके जा रही थी कि रास्ता भटक कर इधर आ निकली हूँ।’ राक्षसी बोली।
‘ठीक है, मैं तुम्हें रास्ता बताता हूँ। तुम यहाँ से सीधे जाना और जहाँ तुम्हें एक बहुत ऊँचा पेड़ मिले वहाँ से दाएँ मुड़ जाना। तुम गाँव पहुँच जाओगी।’ कोइला ने राक्षसी को रास्ता बताते हुए कहा।
‘धन्यवाद भैया! तुम बड़े भले इंसान हो। लेकिन गाँव यहाँ से दूर है और मेरा बच्चा बहुत भूखा है। यदि तुम मुझे गाय का थोड़ा-सा दूध दे दो तो मेरे बच्चे का पेट भर जाएगा।’ राक्षसी ने कहा।
‘ठीक है, ये लो दोना। इसमें गाय का दूध दुह लो और अपने बच्चे को पिला दो।’ कोइला ने पेड़ के पत्ते से दोना बनाकर नीचे फेंकते हुए कहा।
‘मुझसे गाय दुहते नहीं बनता है, तुम पेड़ से उतरने का कष्ट करो और मेरे बच्चे के लिए दूध दुह दो। मैं तुम्हारा उपकार जीवन भर नहीं भूलुँगी।’ राक्षसी ममतामयी माँ का अभिनय करती हुई बोली।
कोइला को पेड़ से उतरना ही पड़ा। वह पेड़ से उतरकर जैसे ही गाय की ओर बढ़ा वैसे ही राक्षसी ने उसे पकड़ा और एक बोरे में बंद करके अपनी गुफ़ा की ओर चल दी। कोइला भी समझ गया कि आज फिर वह राक्षसी के जाल में फँस गया है। मगर वह घबराया नहीं और शांत बना रहा।
आज राक्षसी पानी पीने को नहीं रुकी। वह हाँफती हुई सीधे अपनी गुफ़ा में पहुँची।
‘देख बेटी, आज मैं क्या लाई हूँ।’ राक्षसी ने अपनी बेटी के आगे झोला रखते हुए कहा।
‘क्या लाई हो, वही कंकड़-पत्थर?’ लड़की ने मुँह बनाते हुए कहा।
‘तुम देखो तो सही और सुनो, मैं हाथ-मुँह धोने जा रही हूँ तब तक तुम काट-कूट कर पका डालना।’ यह कहकर राक्षसी हाथ-मुँह धोने चली गई।
राक्षसी की बेटी ने झोले से कोइला को बाहर निकाला।
‘तो तुम्हीं हो जो कल मेरी माँ को झाँसा देकर भाग गए थे। अब आज मैं तुम्हें पकाऊँगी।’ राक्षसी की बेटी कोइला को देखकर बहुत ख़ुश हुई।
‘वो तो सब ठीक है लेकिन ये तो बताओ कि तुम मुझे पकाओगी कैसे? मेरा शरीर तो तुम्हारी हाँडी से बहुत बड़ा है।’ कोइला ने पूछा।
‘तुम चिंता मत करो। मैं पहले तुम्हें ओखली में डाल कर कूटूँगी और फिर हाँडी में पकाऊँगी।' राक्षसी की बेटी ने कहा। यह सुनकर कोइला के शरीर में भय के मारे झुरझुरी दौड़ गई।
‘फिर तो ठीक रहेगा। मगर ये बताओ कि इतनी छोटी-सी ओखली में तुम मुझे कूटोगी कैसे? मेरा शरीर तो इसमें समाएगा ही नहीं।’ कोइला ने पूछा।
‘तुम चिंता मत करो। मैं पहले तुम्हारा सिर ओखली में डाल कर कूटूँगी, फिर हाथ-पैर और फिर बाक़ी धड़ उसमें डाल दूँगी।’ राक्षसी की बेटी ने बताया।
‘यदि ऐसा है तो ठीक है लेकिन मुझे लग रहा है कि तुम झूठ बोल रही हो। इतनी-सी ओखली में मेरा सिर घुसेगा ही नहीं।’ कोइला ने शंका प्रकट की।
‘घुस जाएगा।’ राक्षसी की बेटी ने कहा।
‘नहीं घुसेगा।’ कोइला ने दृढ़ स्वर में कहा।
कोइला की बात सुनकर राक्षसी की बेटी को बड़ा ताव आया।
‘देखो, मैं दिखाती हूँ कि ओखली में सिर कैसे घुसेगा।’ यह कहते हुए राक्षसी की बेटी ने अपना सिर ओखली में घुसा दिया। कोइला यही तो चाहता था। उसने एक पल भी गँवाए बिना मूसल उठाया और ओखली में पटक दिया। राक्षसी की बेटी का सिर कुचल गया और वह मर गई। अब कोइला ने राक्षसी की बेटी के टुकड़े-टुकड़े किए और हाँडी में पका दिया। इतने में राक्षसी हाथ-मुँह धोकर लौट आई। कोइला वहीं छिप गया।
राक्षसी ने हाँडी को देखा और समझा कि उसकी बेटी ने कोइला को पका दिया है। उसने अपनी बेटी को पुकारा। कोई उत्तर न मिलने पर राक्षसी ने सोचा कि शायद बेटी भी हाथ-मुँह धोने चली गई होगी। राक्षसी ने रहा नहीं गया और उसने हाँडी से पका हुआ मांस निकाला और खा डाला। खा-पी कर राक्षसी को नींद आने लगी। वह वहीं लेट गई और थोड़ी देर में उसके खर्राटों से गुफ़ा गूँजने लगी।
उचित अवसर देखकर कोइला बाहर निकला और उसने मूसल उठाकर राक्षसी के सिर पर दे मारा। राक्षसी वहीं मर गई। इसके बाद कोइला ने राक्षसी की गुफ़ा से वह सारा धन उठा लिया जो राक्षसी ने राहगीरों को मार-मारकर इकट्ठा किया था।
धन लेकर कोइला अपने पशुओं के पास पहुँचा। पशुओं को इकट्ठा करके अपने घर की ओर चल पड़ा। उस दिन के बाद से कोइला और उसकी माँ सुख से जीवन-यापन करने लगे।
(साभार : भारत के आदिवासी क्षेत्रों की लोककथाएं, संपादक : शरद सिंह)