कोई पवित्र युद्ध (कहानी) : महेश कटारे
Koi Pavitra Yuddh (Hindi Story) : Mahesh Katare
वह ऐसे मुकाम पर आ पहुँचा कि अपनी मर्जी से आगे जाने की संभावना तो समाप्त
ही थी, पीछे भी नहीं लौट सकता था। पीछे असंख्य सिर थे जिनमें लपट-सी कौंध
मारती थी। उन सूखे, पपड़ाए चेहरों पर जाने क्यों उसके लिए अवज्ञा, क्षोभ और
घृणा की वर्णमाला चिपका दी गई थी। उसके पीछे से आते सभी होंठों पर कोई
हिंसक हुँकार थी जो उनकी दुर्दशा में उसकी भूमिका की प्रतिध्वनि की पहचान
घोषित हो चुकी थी। अब और इस समय वह अपने भीतर से नितांत भयभीत इकाई
है किंतु जाने क्यों राजन्य समुदाय उससे सशंकित है। तनबल, राजबल, धनबल से
हीन इस आकृति को निशाना बनाए रखने में ही उनको स्वार्थ सधते प्रतीत होते हैं।
राजमार्ग की भीड़ ने उसे ठेलकर, धकियाकर बिलकुल किनारे कर दिया था।
उसकी देह पर भीड़ की हिकारत के गहरे नील पड़ गए। अनजान-सी फाँस जैसी
टीस उसके रोओं में फुरहरी भर देती तो दृष्टि कोई ऐसा कोना टटोल उठती जहाँ
थोड़ी आश्वस्ति के साथ ठहरकर वह गत आगत पर सोच सके। अपने बचे रहने का
उद्योग कर सके। अस्तित्व-संकट के इस दौर में उसके साथ वाले कुछ लोग तो
पलायन मात्र को ही विकल्प मान भविष्य का पीछा करते हुए दूर चले गए
थे........और यह गमन निरंतर तेज होता जा रहा था। कभी-कभी उसे भी नगण्यता
का कातर बोध आ घेरता है।..........वह भी कहीं चले जाने की सोच उठता है
क्योंकि लांछन सहते जाने का उसका धैर्य भी चुक रहा है, पर .........?
उसके कंधे पर जीर्ण पोटली लटकी है। इसका बोझ भी अब असह्य बनता जा
रहा है। झोलीनुमा इस पोटली को दायाँ कंधा कसकने पर वह बाएँ कंधे पर ले लेता
है तथा बाएँ के टीसने पर दाएँ। झोलीनुमा पोटली उसे विरासत में मिली है जिसे
सौंपते हुए उसके कंगाल, रूग्ण पिता ने कहा था, ‘‘यह मेरे पिता ने सँभलावाई
थी......उन्हें शायद उनके पिता ने सौंपी होगी जिन तक यह परपिता तथा वृद्ध
पिताओं से होती हुई पहुँची होगी।” पिता उखड़ती साँसों को सहेजने के लिए थोड़ा
रूके थे।
आँखों में सामथ्र्य समेटकर वह फिर बोले, ‘‘बेटा तुम्हें देने को मेरे पास भूमि है
न धन। मनसबदारी हम कर ही कब पाए ?............खैर.........इसमें समय की
कतरने हैं......कुछ महत्वपूर्ण होंगी और शायद कुछ फालतू भी। सोना, चाँदी, लाल
जवाहर की उम्मीद इससे न करना। इसमें तो स्मृतियों के रेशे तथा ज्ञान की गाँठें
हैं........।”
वह पिता का मुँह ताकने लगा तो आतुर पिता ने मुस्कुराने का असफल प्रयास
किया, ‘‘बात समझ नही पाए।.......मैं भी कहाँ समझ पाया था। मैंने भी तो
संस्कारिता श्रद्धा के कारण ही यह बोझ कंधों पर लिया था पर पिता फिर भी बोले
थे कि मेरा तुम्हारा कुछ व्यक्तिगत नहीं है इसमें। हाँ आहृाद, अवसाद के अँजुली भर
दिन-रात व धन्य, धिक्कार के उँगलियों पर गिनने लायक घड़ी पल जरूर इसके एक
कोने में अटके हैं।”
‘‘बताते-बताते पिता के चेहरे पर गहरी थकान दिखाई दी। उन्होंने पलभर को
आँखें बंद कर लीं और तेज चलती साँस पर काबू करने लगे थे। वह पिता की सफेद
रोओं से भरी सूखी छाती सहलाने लगा। आँसू ढुलकाती माँ पहले से ही तलवे पर
तेल मल रही थी। बहन पिता की खाट के पाए से सटी इस तरह खड़ी थी जैसे इस
नितांत घरेलू दृश्य में अयाचित आ पहुँची हो।
साँसे व सामथ्र्य बटोरकर पिता फिर बोले, ‘‘जय पराजय की स्तुति-निंदा के
अतिरिक्त इसमें भविष्य की भाववानुकूल कल्पना भी है।........जीवन की न्यूनतम
जरूरतें जुटाने के बीच जब भी मुझे अवकाश मिला, मैंने इस पोटली को पलटने,
पढ़ने, परखने की कोशिश की है। सुनो बेटे ! आना और जाना इस संसार का सबसे
बड़ा सत्य है। एक बात जिसे मेरे पिता पूरे विश्वास के साथ कह गए वह मैं किंचित्
संकोच के साथ कह पा रहा हूँ..........यह कि ............हाँ इसे उपदेश या प्रवचन की
कोटि में न लेना.......वह यह कि..........अर्थ इतिहास के किसी भी कालवृत्त का
केंद्रीय सत्य नहीं रहा। यह सदैव संचारी सत्य रहा है। विस्तार में जाने का न तो मेरे
पास समय बचा है और न तुम्हें अवकाश है, बस मानना चाहो तो इतना मान लो
कि सोने की लंगा वाले रावण से लेकर उदय से अस्त तक साम्राज्य वाली एलिजाबेथ
तक सभी कृमिकीट योग्य देह छोड़कर ही गए।.........हाँ मुझसे श्रेष्ठ अंत नहीं रहा
किसी भी श्री शक्ति केंद्र का।......छोड़ो इसे।” पिता ने पीड़ा में डूबी बड़ी कठिन
साँस ली। ‘‘मैं अपने जीवन का पाथेय जुटाने की लड़ाई में ऐसा उलझ गया कि इन
कतरनों के आगे अपने समय को नहीं जोड़ पाया। तुमसे प्रतिज्ञा नहीं ले रहा।
प्रतिज्ञाओं के प्रति अब आस्था नहीं रही। प्रतिज्ञा अब छल का साधन भी बनने लगी
है..........। तुम.............तुम्हारा समय.............तुम्हारा संघर्ष मुझसे कहीं अधिक
कठिन होगा। मैं अपना समय दर्ज न कर पाने की ग्लानि के साथ जा रहा हूँ और यह
लासा लिए कि अपनी लड़ाई में से थोड़ा-सा अवकाश निकाल तुम इस गठरी में बाँधे
काल का निरीक्षण-परीक्षण कर इसमें अपने समय का भी कुछ जोड़ोगे........। इस
जर्जर पुरानी झोली में काल की छोटी-सी किरच छोड़ जाना भी खजाना छोड़ जाने
से कम नहीं है.........तुम.........।”
पिता की आँखों में उम्मीद की कोई दीप्ति उभरी थी जिसे लिए दिए उनकी
पलकें बंद हो गईं।
पिता की इसी पवित्र धरोहर को धरे-धरे वह उपेक्षा, तिरस्कार और भय भरे
जीवन की कठिन चढ़ाई चढ़ रहा है। सफल पुत्र से लड़ने का साहस किसी पिता को
नहीं होता पर उसके पिता तो असफलता पर भी उससे नहीं लड़े। समय के सूर्य का
ताप उसके सिर पर आ गया है। पाँव निराशा और थकान से भारी हैं........। इस
स्थिति में हाथ का कंगन और गले की माला का भार भी दुस्सह होता है जबकि
उसके कंधे पर सदियों भरा झोला झूल रहा है।
रोजी-रोटी का पीछा करता हुआ वह शायद राजपथ पर आ पहुँचा था। भव्य
राजपथ के अगल-बगल भी सब कुछ भव्य है-भवन, भोग और भक्ति भी। सजे-सँवरे
जगमग प्रदर्शन कक्ष हैं-राजनीति, धर्म, व्यवसाय के........। अनन्य सुरक्षा-संपन्न इस
संसार में या तो विशिष्ट का प्रवेश संभव है या विशेष प्रेरित भीड़ का। तराशी हुई
तख्तियाँ, चमकते बैनर व भड़कीले नारों से हलचल मचाती भीड़ का रेला राजभवन
की ओर मुँह उठाए बढ़ा जा रहा था। उसे चुप, चकित, निरीह तथा भीड़ से अलग
देख एक सिपाही ने छेक लिया, ‘‘ऐ ! किधर जा रहा है ?”
‘‘नहीं पता कि कहाँ जाना है ?...........रोजी-रोटी के उद्योग में हूँ।” स्वर में
विनय भरकर बोला वह। शास्त्रों में उसने पढ़ा था कि राजन्य के समक्ष विनीत रहना
चाहिए।
उसके उत्तर ने सिपाही को संदेह का अवसर दिया। राजपथ पर अब रोजी-
रोटी की चर्चा कौन करता है। यहाँ अधिक पाने, झटकने, छीनने की बात होती
है.......शेयर और सुंदरियों के उतार-चढ़ाव, विकास के बारे में सोचा जाता
है.........एक्टरों, क्रिकेटरों के सुख-साधनों की चिंता होती है। ऐसे ही और भी विषय
हैं।
भौहों पर बल डालकर इस सशस्त्र रक्षक ने उसका कंधा पकड़ आँखों में अंगार
भर लिए, ‘‘इस गठरी में क्या है ?”
वह सहम गया, ‘‘मैं अभी इसे देख नहीं पाया हूँ..........। भूख ने इस ओर
सोचने का अवकाश ही नहीं दिया।” आवाज में अब भी वही विनय थी।
‘‘इसमें काहे की गंध है ?” सिपाही ने नथुने फुलाते हुए पूछा।
‘‘हो सकता है.........कुछ तीखी कतरनें हों।”
‘‘बदबू आ रही है बे.......इसमें से।” सशस्त्र रक्षक ने गठरी झटकी। वह
लड़खड़ाकर गिरते-गिरते बचा।
‘‘भाई ! इसमें पुरानी चीजें हैं,...........संभव है कोई सड़ने लगी हो।......पर
आपका मेरे साथ यह व्यवहार ठीक नहीं, मतलब.......अभद्र है।” वह थोड़ा खीझ
गया।
‘‘अभद्र.......। अच्छा.........। अभी तूने अभद्रता देखी कहाँ है........आज दिख
जाएगी.......इस रैली को निकलने दे।” सुरक्षाकर्मी मिसमिसाया।
‘‘देखिए........मैं एक पढ़ा-लिखा नागरिक हूँ........आप.......।”
‘‘हाँ तभी तो फटेहाल हुलिया बनाकर आँखों में धूल झोंकना चाहता है......।
पोटली में क्या है ? तस्करी की चीजें ?........विस्फोटक या दस्तावेज ?”
‘‘आप .........आप बेसिर-पैर का आरोप लगा रहे हैं।” वह भय से पीला पड़ता
बौखला उठा। माथे पर पसीना चुहचुहा आया। आवाज गले में फँसने लगी। एक आम
नागरिक की भाँति वह भी पुलिस से डरता रहा है। इस स्वतंत्र देश में स्वतंत्रता का
सबसे बड़ा उदाहरण पुलिस है।
‘‘आरोप लगा रहे हैं........ऐं ?............हम सिद्ध भी कर सकते हैं......। उड़ती
चिड़िया का वनज तौल लेते हैं हम। चल इधर.........।” सशस्त्र वर्दी ने उसकी बाँह
ऐंठकर उलटा कर लिया।
राजपथ पर रेला घना व तीव्र हो गया। लाउड स्पीकर सैकड़ों गुना शोर में
चीख रहे थे। गर्मी, उमस, फूलती नसों वाले गले के ऊपर तमतमाते सिर। इतना
शोर कि बस शोर ही सुनाई पड़ रहा था। मुट्ठियाँ तानते, लाठियाँ लहराते प्रवाह ने
आसपास का सब कुछ ठप कर दिया। अगल-बगल की चैकसी में बंद भव्यता
खिड़कियों से झाँकती, रेले के गुजरने की बाट देख रही थी। ये उसके लिए मनोरंजन
व कारोबार का हिस्सा है। ऐसे तमाशे कभी-कभार तो वही प्रायोजित करते हैं वह
भली-भाँति जानते हैं कि न्याय और तर्क की दुहाई देकर सत्ता की सीढ़ी चढ़ने वाली
दुनिया तर्क और न्याय पर नहीं एक व्यापक सनकीपन से चलती है।
सिपाही फिलहाल राजनैतिक व्यवस्था में था। झंडों, डंडों, शोर से घिरा
नेतृत्व खुली गाड़ी में भीड़ की उत्तेजना का उत्साह बढ़ता सिपाही के सामने आ
पहुँचा था। सिपाही का ध्यान बँटते ही वह अपने आप को बचाने एक दरबानदार
गेट पर पहुँच तेजी से भीतर प्रवेश कर गया।
भीतर एक भद्र औपचारिक ठंडी शांति थी। कंप्यूटरी टेबलों के पीछे माॅनीटरों
पर निगाह जमाए सिरों का एक छोटा-सा सिलसिला था। लगाकवह अत्यंत
व्यवस्थित, निर्धारित, परिचालित मंडल में आ धँसा है.........। समझने की कोशिश
में ही था कि मधुर, महीन, मशीनी आवाज सुनाई दी, ‘‘में आई हेल्प यू ?”
उसने सतर्क सारस की तरह गर्दन घुमाई कि आवाज कहाँ से आ रही है।
दाहिनी ओर के काउंटर पर एक चुस्त-दुरूस्त छवि उसे अपनी ओर ताकती दिखी।
इस बा रवह कॉन्वेंटी हिंदी में बोली, ‘‘कृपया अपने आने का प्रयोजन कहें ?”
वह काउंटर की ओर मुड़ गया क्योंकि दरबान भी भीतर आ पहुँचा था और
उसकी मुद्रा बता रही थी कि अभी गरदनियाँ मारकर बाहर फेंक देगा।
‘‘जी !.........मैं अपने आपको और इस गठरी को बचाना चाहता हूँ। बाहर की
स्थिति ऐसी है कि मैं और गठरी दोनों ही खतरे में हैं।” वह शीघ्रता से बोल गया।
‘‘क्या है इस झोली में.....?” आवाज उत्सुक और तटस्थ-सी लगी।
‘‘बस इतना जानता हूँ कि इसमें समय की इबारतें हैं। शायद बहुत.........बहुत
ही मूल्यवान या शायद नितांत निरर्थक। पिता ने कहा था कि इसमें संवत्सरों के
अनुभव व मन्वंतरों के ज्ञान कण हैं और......।”
‘‘ठीक है, समझ लिया।......बेचना चाहते हो ?” वही मृदुल तटस्थ स्वर पूछ
रहा था।
‘‘हम तुम्हें सुरक्षा, संपत्ति, साधन सब उपलब्ध कराएँगे।”
‘‘आपने मुझे गलत समझा है। मैं सुरक्षा चाहता हूँ...........मेरी जरूरतें भी हैं
हाँ विपन्न भी हूँ मैं। .......पर बिकाऊ नहीं हूँ। इस गठरी में भी सबका समय है,
सबकी स्मृतियाँ हैं। अकेली मेरी हथेली का न्यास नहीं है। मैं तो संयोगवश ही इस
थाती का धाता हूँ।”
मीठा स्वर किंचित् तीक्ष्ण हुआ, ‘‘इसमें क्या और किसका है यह तय करना
हमारा काम है। तुम्हें तो बस हाँ या ना में उत्तर देना है। बोलो, बेचोगे ?”
उसकी दुर्बल काया में कोई पारा-सा एड़ी से चोटी तक दौड़ा।.....मुट्ठियाँ
झोली पर कस गईं......आँखों में संकल्प उगा और मुँह से आवाज निकली, ‘‘नहीं !‘‘
एक इशारे पर वह बाहर धकेल दिया गया। सिपाही के दो-तीन साथी और
एकत्र हो गए थे। उन सबकी निगाहें उसे ही खोज रही थीं। यह रेले की पूँछ थी।
जाति की जिंदाबादी हुँकार राजपथ पर आगे बढ़ गई इसलिए इन सशस्त्र रक्षकों के
माथे पर का हल्का-सा तनाव हट गया था। तनाव के स्थान पर अब आखेट भाव था।
‘‘वो रहा साला.....। पकड़ो !‘‘ वर्दी चिल्लाई।
उसने बचने के लिए भागना चाहा पर तुरंत ही खयाल आया कि भागे कहाँ
?.......और भागे भी क्यों ? भागना किसी भी दुष्ट मौसम का हल नहीं है।......कहीं-
न-कहीं किसी-न-किसी तरह लड़ना तो पड़ेगा। इस समय वह समझ पा रहा था कि
कोई कायर तर्क उसे भीतर आ बैठा है, जो डराने के भद्र बहाने निकाल-निकालकर
उसे अपने आपको झोंक देने से रोक देता है। शायद उसका पवित्र पिता, पितामह,
परपितामह आदि भी सीधे युद्ध से बचते रहे हैं........। वह सोच रहा था कि चार
सिपाहियों ने घेरकर कंधे की झोली, गठरी, पोटली, जो भी नाम कोई देना चाहे,
उनको छीनकर गाँठ खोल उलट दी.......।
हवा किसी भी दिशा से किसी भी दिशा को बहे, वह उड़ाती ही है। गठरी की
कतरनें, रेशे, विचार, स्मृतियाँ राजपथ पर लावारिस से उड़ने लगे। तेज धूप में कोई
मत कौंध मार रहा था तो किसी में से बासी गंध निकल रही थी।
सिपही हर चीज को परखती निगाहों से तोल रहे थे। वह लुटा पिटा-सा
अवाक्, हतप्रभ राजपथ पर खड़ा था। गठरी की वस्तुएँ इधर से उधर उड़ रही थीं,
सरक रही थीं, फिसल रही थीं। किसी-किसी कतरन में तो इतना पुराना समय था
कि थोड़े से दबाव पर ही तिरक जाता। एक कल्पना डाल से छिटके पत्ते की भाँति
उड़ती हुई नाली में जा पड़ी थी। उसने दौड़कर उस मासूम कल्पना को सहेजना
चाहा कि भवन के पाइप से कोई तेज बहाव आया...........वह ऊब-डूब होती नाली
में बह गई।
लगा कि उसके दिमाग की नसें फट गई हैं.....बदहवास होता वह कभी इस
वस्तु को पकड़ने की कोशिश करता कभी दूसरी को। सिपाही अपनी पेशेवर
सक्रियता के साथ कतरनों, विचारों, स्मृतियों में उसके विरूद्ध प्रमाण की छानबीन
में थे। इस समय जब सूरज ठीक उसके सिर पर तप रहा था........नीचे जमीन में
जलन आ बैठी थी और उसके सिर पर न साबुत अँगोछा था, न पैरों में जूते, तब
बिखरती बहती और असावधान हाथों द्वारा उलटी पलटी जाति थाती को बचाने का
आखिर उपाय क्या था उसके पास ?
वह राजपथ के बीचों-बीच खड़ा होकर चीखने लगा, ‘‘सदियों की इस संचित
निधि को हमारे पूर्वजों ने भूखे-प्यासे रहकर, अभाव जीते हुए, स्वयं को होम कर,
गलाकर मेरे तुम्हारे समय तक पहुँचाय है। इसे लिप्सा के हाथों नष्ट होने से बचा
लीजिए।......आखिर अगली पीढ़ी को भी तो हमें कुछ सौंपना है..........।”
वह चीखने की हद तक चीखे जा रहा था और लोग अपने ठंडे सुख की
खिड़कियों से उसकी पागल हरकतें देख रहे थे।