कितनी पूर्णता (अंग्रेज़ी कहानी) : आर. के. नारायण

Kitni Poornata (English Story in Hindi) : R. K. Narayan

सोम को यह सोचकर अच्छा लग रहा था कि उसकी पाँच साल की मेहनत अब पूरी हो रही है। उसने अपने जीवन में बहुत-सी मूर्तियां बनाई थीं लेकिन इतना बड़ा काम कभी नहीं किया था। वह अक्सर अपने से कहता था कि उसकी बनाई नटराज की यह प्रतिमा प्रलय के बाद भी अपने स्थान पर खड़ी रहेगी।

लेकिन किसी ने इस मूर्ति को अब तक देखा नहीं था। सोम कमरे के सब दरवाजे और खिड़कियाँ बंद करके एक छोटे से दीये की रोशनी में इस मूर्ति पर काम करता था, भले ही बाहर उस समय सूरज चमक रहा हो। इसलिए वह हर समय पसीने में नहाया रहता था लेकिन मूर्ति को लोगों की नज़रों से बचाये रखने के लिए उसने यह भी स्वीकार कर लिया था। वह बहुत ध्यानमग्न होकर इस पर काम करता था और किसी से भी इसके विषय में बात नहीं करता था।

परंतु अब उसका श्रम समाप्त होने को आया था। वह रुका, माथे से बह रहा पसीना पोंछा और बहुत संतोषपूर्वक मूर्ति की ओर देखने लगा। वह इसकी गरिमा से प्रभावित हो उठा। उसके सामने दंडवत् होकर प्रार्थना करने लगा : 'देवाय, आपको बनाने में मैंने पाँच वर्ष लगाये हैं। अब आप मंदिर में स्थान ग्रहण करें और मानव मात्र को आशीर्वाद दें।' मिट्टी के दीये की लौ मूर्ति पर गिर रही थी और उसमें दृश्यमान लहरें उत्पन्न कर रही थी। मूर्तिकार दर्शन के गहन-भाव में खो-सा गया। किसी ने कहा, 'मित्र, प्रतिमा को बाहर मत ले जाना। यह बहुत ही पूर्ण है...।' यह सुनकर सोम भय से काँपने-सा लगा। उसने कमरे में नजर घुमाई। एक अंधेरे कोने में कोई बैठा था-एक आदमी था। उसे देखकर सोम तेजी से आगे बढ़ा और उसकी गर्दन पकड़ ली। 'तुम यहाँ क्यों आये?' आदमी दर्द से काँपता हुआ बोला, 'मैं तुम्हारा प्रशंसक हूँ। मैंने हमेशा तुम्हारे काम को सराहा है। पांच वर्ष तक प्रतीक्षा करता रहा हूँ...।'

'लेकिन तुम यहाँ आये कैसे?'
'जब तुम भोजन कर रहे थे, दूसरी चाबी से मैं भीतर आ गया...।'
सोम ने दाँत पीसे। मैं तुम्हारा गला घोंट, और देवता को बलि चढ़ा दूँ?'
'जो चाहो, करो,' उसने उत्तर दिया। यदि इससे तुम्हें लाभ हो... लेकिन मुझे संदेह है।' बलि देकर भी तुम इसे यहाँ से हटा नहीं सकोगे। यह बहुत ही पूर्ण है। इतनी पूर्णता मनुष्यों को प्राप्त नहीं होती।'

यह सुनकर मूर्तिकार रोने को हुआ। 'ऐसा मत है। इसी पूर्णता के लिए मैंने गुप्त होकर काम किया है। यह हमारे लोगों के लिए बनी है। यह ईश्वर की तरह उनके बीच रहेगी। उन्हें इससे वंचित मत करो।'

दूसरा मूर्ति के सामने झुक आया और बोला, 'हे देव, हमें अपनी उपस्थिति सहन करने की शक्ति दो...।'

इस व्यक्ति ने लोगों को मूर्ति के बारे में बताया और यह रहस्य सबको ज्ञात हो गया। एक शुभ दिन सोम मंदिर के पुजारी के पास गया और बोला, 'अगली पूर्णिमा को मेरे नटराज की मंदिर में स्थापना करना। आपने उनके लिए स्थान बनाया है?'

पुजारी ने उत्तर दिया, 'मुझे पहले प्रतिमा को दिखाओ।' वह मूर्तिकार के घर गया, प्रतिमा को देखा और बोला, 'यह पूर्णता, यह देवता, मनुष्य के देखने के लिए नहीं है। यह हमें अंधा कर देगी। इसके समक्ष प्रार्थना करते ही यह नृत्य करने लगेगी... और हम सब नष्ट होने लगेंगे...।'

यह सुनकर मूर्तिकार दुखी हुआ तो पुजारी ने कहा, 'छेनी उठाओ और कहीं से इसे जरा-सा तोड़ दो... अंगूठा या कुछ और... फिर यह सुरक्षित हो जायेगी।'
मूर्तिकार ने उत्तर दिया कि पहले वह यह सुझाव देने वाले का सिर तोड़ देगा।

गाँव से प्रमुख नागरिक आये और कहने लगे, 'हमें गलत मत समझना। मंदिर में हम इस मूर्ति को स्थान नहीं दे सकेंगे। गुस्सा मत करना... हमें गाँव के सब लोगों का हित देखना है। तुम अगर एक उँगली का जरा-सा हिस्सा भी तोड़ सको...।'

सोम चिल्लाया, 'निकलो, यहाँ से तुम सब निकल जाओ। मैं तुम्हारे मंदिर में इस नटराज को बिलकुल रखना नहीं चाहता। मैं उसके लिए, जहाँ वह है, वहीं मंदिर बना दूंगा। फिर तुम देखोगे कि वही मंदिर दुनिया का सबसे बड़ा मंदिर हो जायेगा....

दूसरे दिन उसने कमरे की एक दीवार तोड़ी और वहाँ एक बड़ा फाटक बना दिया, जो सड़क पर खुलता था। फिर उसने गाँव में मुनादी करने वाले राम को बुलाया। उसे एक रुपया दिया और गाँवों में घूम-घूमकर मुनादी करने को कहा कि अगली पूर्णिमा को नटराज की प्रतिष्ठा होगी। अगर भीड़ अच्छी हुई तो वह उसे एक शाल भेंट करेगा।

पूर्णिमा के दिन आसपास के गाँवों से वहाँ स्त्री-पुरुष और बच्चों की भीड़ जमा होने लगी और एक इंच खाली जगह भी नहीं बची। चारों तरफ की सड़कें लोगों से भर गईं। फूल और खिलौने बेचने वाले चिल्ला-चिल्लाकर अपनी चीजें बेचने लगे।

बाजे बजाने वाले और गायक घूम-घूमकर गाने सुनाने लगे। लोग एक-दूसरे से मिलने और बच्चे खेलने-कूदने लगे, चारों ओर शोर-शराबे का माहौल हो गया। फूलों और अगरबत्तियों की खुशबू वातावरण में गमक उठी। इस सबके ऊपर, उस समय तक का सबसे शानदार चाँद चमक रहा था।

प्रतिमा पर जो चादर पड़ी थी, उसे उठा दिया गया। बहुत से कपूर से उसकी आरती की जाने लगी और शंख बजने लगे। घंटियों की आवाज से वातावरण गूंज उठा। भीड़ पर शान्ति छा गई। हर नेत्र प्रतिमा को देखने लगा। कपूर की लौ ऊपर उठी और नटराज के नेत्र खुले, अंग फड़के और पैरों के घुंघरू बजे। एक पैर जमीन पर रखा और दूसरा नृत्य की मुद्रा में ऊपर उठाया। अपनी एड़ी के नीचे की दुनिया को उसने नष्ट करना शुरू किया और उसकी राख को बदन पर लगाकर हाथ में मृदंग उठाकर देवता ने उस पर थाप देना शुरू किया। मृदंग की ध्वनि में दुनिया नष्ट होने लगी, नष्ट होने के बाद फिर बनने लगी, फिर नाश और निर्माण का चक्र आरंभ हो गया... घंटियों की ध्वनि तेज होती जा रही थी। भीड़ आँखें फाड़े इस अद्भुत दृश्य को देख रही थी।

इसी क्षण पूर्व दिशा से हवा का तेज झोंका आया। चंद्रमा की रोशनी कम होने लगी। हवा तूफान में बदलने लगी, बादल घिर आये और उन्होंने चंद्रमा को चारों ओर से ढंक लिया। घना अंधकार छा गया। बिजली कड़कने लगी, आसमान गरजने लगा और चारों दिशाओं से आग बरसने लगी। जमीन पर जगह-जगह रखे पुआल के ढेरों में आग लग गई और उसकी रोशनी गाँव भर में फैल गई।

लोग इधर-उधर भाग कर शरण लेने लगे। तभी बिजली की एक कड़क एक घर तक जा पहुँची। उससे निकली आग आसमान में उठने लगी और सारा आसमान रोशनी से भर उठा। दस गाँवों के लोग इस एक गाँव में जमा थे। एक और कड़क एक दूसरे मकान में जा पहुँची। स्त्री और बच्चे चीखने और चिल्लाने लगे। तभी बारिश की एक रौ आई और आग सूं-सूं की आवाजें करती बुझने लगी। बारिश तेज होकर घनघोर वर्षा में बदल गई। गाँव के दो तालाब, जिनके बगल से होकर सड़क जाती थी, जल से भर गये और पानी सड़कों पर बहने लगा। तूफान की हवा चीख रही थी और पेड़ों तथा मकानों को नष्ट कर रही थी। लोग कहने लगे, 'प्रलय का दिन आ गया है।'

दूसरे दिन भी पानी निरंतर बरसता रहा। सोम प्रतिमा के आगे सिर झुकाए बैठा सोचता रहा। फूल-पत्ती और उपहार की सामग्रियाँ जमीन पर बिखरी पड़ी थीं। उन सबमें जल भर गया था। कुछ लोग तैरते हुए उसके पास आये और पूछने लगे, 'अब तुम संतुष्ट हुए?' राक्षसों की तरह वे उसके सामने खड़े थे और पूछ रहे थे कि देख लिया अपने कार्य का परिणाम! तुम जानना चाहते हो कि कितनी जानें गई हैं, कितने घर बह गये हैं और तूफान में कितने लोग ढेर हो गये हैं?'

'नहीं, नहीं। मैं कुछ नहीं जानना चाहता, कुछ भी नहीं। तुम लोग जाओ और इस तरह बातें मत करो,' सोम चिल्लाकर कह रहा था।

'ईश्वर ने अपनी शक्ति का जरा-सा ही प्रमाण दिया है। उसको और उतेजित मत करो। हमारी जिन्दगी तुम्हारे हाथ में है। हमें जीने दो। प्रतिमा बहुत ज्यादा पूर्ण और निर्दोष है।'

लोग चले गये लेकिन वह बैठा सोचता रहा। उनके शब्द उसे परेशान कर रहे थे। हमारी जिन्दगी तुम्हारे हाथ में है। वह जानता था, इनका अर्थ क्या है। उसकी आँखों में आँसू भर आये। मैं मूर्ति को कैसे तोड़ सकता हूँ?' दुनिया को जलने दो, मैं किसी की परवाह नहीं करता। मैं मूर्ति को छू भी नहीं सकता।'

उसने देवता के सामने रखा दीपक जलाया और सामने खड़ा होकर उसे देखने लगा। थोड़ी दूर पर आसमान फिर गरजने लगा था। फिर तूफान आ रहा है। बेचारे लोग! इस बार सब खत्म हो जायेंगे।'

उसने मूर्ति के अंगूठे को देखा और सोचने लगा, 'छेनी से इसका एक टुकड़ा निकाल दूं तो सब विनाश रुक जायेगा!'

अँगूठे की ओर देखते हुए वह सोचता रहा, 'मैं यह कैसे कर सकता हूँ।' उसके हाथ कांप रहे थे। बाहर बादलों का गर्जन बढ़ता जा रहा था। लोग उसके घर के सामने इकट्ठे हो रहे थे और उससे दया की प्रार्थना कर रहे थे।

सोम ने देवता को प्रणाम किया और बाहर निकल आया। वह सड़क के किनारे खड़ा होकर देखने लगा, जहाँ दोनों तालाब मिलकर एक हो गये थे। पूर्वी किनारे पर काले बादल घुमड़ते आ रहे थे। जब ये बादल पास आ जायेंगे तो दुनिया नष्ट होने लगेगी।'नटराज, मैं तुम्हारी प्रतिमा नहीं तोड़ सकता, लेकिन अगर मैं अपनी बलि तुम्हें दे दूँ तो क्या इससे तुम संतुष्ट हो जाओगे...?'

उसने आँखें बंद कर लीं और तालाब में कूदने का विचार करने लगा। फिर एक क्षण रुका और बोला, 'मरने से पहले अपनी बनाई मूर्ति पर एक नज़र डाल लूँ। गरजते तूफान के बीच से वह घर की ओर लौटने लगा। हवा चीख रही थी, पेड़पौधे काँप रहे थे। मनुष्य और पशु तेजी से चारों तरफ भाग रहे थे।

वह घर पहुंचा तो देखा, एक पेड़ उसके मकान पर गिर रहा है। मेरा घर भी..., यह कहकर वह तेजी से भीतर घुसा। प्रतिमा के पास पहुंचा, जो कूड़ेकरकट से ढंकी जमीन पर गिरी पड़ी थी। वह सही सलामत थी, सिर्फ अंगूठे का एक टुकड़ा ऊपर से गिरे एक पत्थर से टूटकर कुछ गज़ दूर जा पड़ा था।'

लोग चिल्लाकर बोले, 'देवता ने हमारी रक्षा के लिए खुद यह कर लिया है।'
अगली पूर्णिमा के दिन मंदिर में बड़ी धूमधाम से मूर्ति की प्रतिष्ठा की गई। सोम पर धन तथा उपहारों की वर्षा होने लगी। वह 95 वर्ष तक जिया लेकिन इसके बाद उसने छेनी और बसौली को हाथ नहीं लगाया।

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