कितना क्या अनकहा (कहानी) : शंकर दयाल सिंह
Kitna Kya Ankaha (Hindi Story) : Shanker Dayal Singh
क्यों, कैसे, क्या ? रह-रहकर मेरे अंदर ये शब्द काँध जाते हैं। और मेरे पास सबकुछ है, लेकिन इन शब्दों के उत्तर नहीं हैं। और सोचता हूँ कि आदमी के जीवन में वे क्षण बड़े मर्मान्तक होते हैं, जब उसे अपने ही प्रश्नों के उत्तर ढूँढ़े न मिलें।
अंतरालों की दुनिया में भटकते हुए पंद्रह वर्ष बीत गए और इन वर्षों में न जाने कितने सवाल आए और गए, और मैं जहाँ का तहाँ रहा। सिर्फ इसलिए कि मुझे किसी की तलाश थी, किसी की खोज थी, किसी से मिलना था । मैं यह भी नहीं जानता था कि जिन्हें खोज रहा हूँ, वे मिलेंगी या नहीं या जीवन भर भटकनों में मैं उनकी तलाश ही करता रह जाऊँगा ।
वास्तविकता यह थी कि मैं मिलने को तैयार भी नहीं था। पता नहीं क्यों, रह-रहकर मेरे अंदर एक कौंध पैदा होती थी, जो कहती थी कि अगर वह क्षण आ गया, तो मैं अपने आपको सँभाल नहीं पाऊँगा, और धरती नहीं फटेगी, जो मैं उसमें विलीन हो जाऊँ, और फिर जीवन भर मेरा 'मैं' मुझे कचोटता रहेगा, और मैं फिर प्रश्नों के बवंडर में खो जाऊँगा ।
आखिर वह क्षण अयाचित सपने के समान आ गया, जब मैंने जाना भी नहीं और वे चुपके से जीवित सत्य के समान मेरे पास आ गईं। पहली बार मैंने उन्हें देखकर भी नहीं देखा था; दूसरी बार देखा था, तो ऐसा लगा था, मानो उन्हें बहुत दिनों से देखता आ रहा हूँ, और तीसरी बार जब वे मिलीं, तो ऐसा लगा, मानो हम दोनों कभी अपरिचित थे ही नहीं। कभी मिले हैं ही नहीं, कभी मिलने की जरूरत भी नहीं थी । न कभी किसी ने हम दोनों का परिचय ही कराया था और न इसकी कोई जरूरत थी ।
कहानी की शुरुआत कहाँ से करूँ ? यह कहानी है भी या नहीं, मैं नहीं जानता, न तो किसी श्रोता की जरूरत है मुझे, न किसी पाठक की अब ऐसे में मैं किसी से क्या कहूँ !
प्रिय शुभ्रा,
इधर तीन-चार दिनों से मैं विचित्र मानसिक उलझन में हूँ। इसे तुम उद्वेलन कह लो, तो ज्यादा ठीक हो; पीड़ा, जागरण, व्यथा, जिज्ञासा और न जाने क्या-क्या ! और ऐसी स्थिति में तुम मुझे याद आ रही हो, और मैं चाहता हूँ कि अपने आपको तुम्हारे सामने रख दूँ।
परसों कलकत्ता में था, कल पटना और आज यहाँ आया हूँ । चाहता था, कहीं रुककर आराम कर लूँ, लेकिन मेरी मनस्थितियाँ बार-बार मुझे झकझोर रही हैं, लगता है, जैसे आज की रात मेरे इतिहास की रात होगी और आज की रात मैं आँखों में काट दूंगा ।
हाँ, इतिहास, जहाँ बाबर ने बीमार हुमायूँ की सेहत के लिए खुदा से दुआएँ माँगी थीं और बदले में अपने आपको उसने खुदा के हवाले कर दिया था।
आज की रात - मृत्यु के पहले हर समझदार आदमी अपनी वसीयत लिखता है और मेरी भी यह वसीयत ही है, जो मैं समर्पित कर रहा हूँ किसी और को, लेकिन लिख रहा हूँ तुम्हें, इसलिए कि तुम भी तो हकदार बन सकती हो। हालाँकि मैं खूब जानता हूँ, तुम रो सकती हो, काँप सकती हो, शिलाखंड बन सकती हो, अग्नि परीक्षा दे सकती हो, लेकिन मेरी वसीयत तुम नहीं ले सकतीं।
तुम मुझे उतना नहीं जानना चाहतीं, जितना मैं कहना चाहता हूँ । कारण है इसका भी। क्योंकि तुम कल्पना, भावना, भवितव्यता, भविष्यत्-रेखा, भाग्य - अभाग्य और न जाने क्या-क्या पर जीती रही हो और जीना चाहती हो। तुम्हारा कहना है कि तुम मुझे बहुत दिनों से जानती रही हो... उस दिन से, जब तुम पुल के पास खड़ी थीं और मैं छोटी शीशी लेकर जा रहा था और तुमने मुझे पहली बार उस दिन देखा था और तुमने मुझे प्रणाम किया था । और तुम्हें यह घटना आज वर्षों बाद भी ऐसे याद है, जैसे कल की हो।
डेढ़ साल की उम्र में माँ मर गई थीं। यह कोई अस्वाभाविक बात भी नहीं थी और न कोई ऐतिहासिक घटना । कारण, बहुतों के साथ ऐसा होता है, और उन्हीं बहुतों में एक मैं भी था । लेकिन इस मौत के साथ संपृक्त एक घटना जरूर है, जो मेरे मन पर बोझ के समान समुद्भूत है और उसका कोई हल मैं नहीं निकाल पाता ।
मेरी माँ टी.बी. से मरी थीं । उन दिनों क्षय के कीटाणु संभवत: कैंसर से भी भयानक माने जाते थे और क्षय रोगियों से कोई सटता नहीं था । भयानक छूत की बीमारी मानी जाती थी वह।
डॉक्टरों की सलाह के अनुसार लोगों ने मुझे उनसे अलग कर दिया और मुझे ननिहाल भेज दिया गया। इधर मेरी माँ दिन-प्रतिदिन मौत के नजदीक पहुँच रही थीं। और ज्यों-ज्यों वे मौत के करीब पहुँच रही थीं, उतना ही अधिक वे मुझे खोजती । रात-दिन बड़बड़ाया करतीं कि मुझे उनके पास बुला दिया जाए। वे मरने के पहले अपने बच्चे को देख भर लेना चाहती थीं और यह भी चाहती थीं कि उनका बेटा उनकी आँखों के सामने मर जाए, उसके बाद वह मरेंगी... पता नहीं, उनके बाद उनके बेटे को कोई देखे या न देखे, कहीं कोई उसे दर-दर का भिखारी न बना दे... ।
मुझे देख भर लेने की चाह में वे मौत से तीन -चार महीनों तक लड़ती रहीं, चिल्लाती रहीं, गिड़गिड़ाती रहीं, लेकिन कोई मुझे उनके पास न ले गया। और फिर, एक दिन वे मुझे खोजती हुई इस दुनिया से सदा के लिए चली गईं।
वे एक दिलेर महिला थीं। वे ऐसे ही नहीं मरी, एक प्रश्न छोड़ दिया पीढ़ी-दर-पीढ़ी के लिए । मौत के दो-चार दिन पहले उन्होंने मेरे पिता और मेरी दादी से बार-बार कहा कि मुझे वे क्यों नहीं बुलाते ! आखिर मैं उनका लड़का हूँ, मुझ पर उनका सारा हक है। और जब वे सफल नहीं हुईं, तो उन्होंने दोनों को शाप दिया कि आपका बेटा भी मर जाएगा। एक औरत यह कहे कि उसके बेटे को जिन्होंने उससे मिलने नहीं दिया, उनका बेटा भी मर जाएगा, यह माँ ही कह सकती है। बेटे के लिए अपने पति की मौत का शाप | और वे चली गईं।
शुभ्रा मैं क्रम तोड़ रहा हूँ। जब जिंदगी टूट जाती है, तब फिर किसी गोरी, किसी गजनी, किसी नादिरशाह, किसी तुगलक और किसी काला पहाड़ के अस्तित्व को कैसे न स्वीकारा जाए !
मेरी अपनी कहानी जीर्णोद्धार की कहानी है। महाभारत के अप्रतिम योद्धा भीष्म को भी जब किसी प्रकार परास्त नहीं किया जा सका, तो शिखंडी को सामने किया गया था। मैं न तो भीष्म हूँ और न द्रोणाचार्य कि किसी शिखंडी और किसी अश्वत्थामा का नाम सुनते ही अपना बाण रख दूँ। मेरी जिंदगी उस बहेलिए की जिंदगी है, जिसने हरिण के भ्रम में भगवान् कृष्ण के पैरों को बींधा था और इसके लिए उसे कभी पश्चात्ताप नहीं हुआ।
मेरी प्रारंभिक शिक्षा शकुंतला की ऐसी अँगूठी रही, जिसे मत्स्य ने निगल लिया था। बाबूजी राजनीति में, चचा बाहर पढ़ते थे और मैं गँवई गाँव के सहस्रों कलुषों के बीच अपने को खे रहा था। ऐसी घड़ी में मेरे गार्जियन एक बाबा थे, जो अपने आप में पूर्ण और अपूर्ण दोनों थे। पुराने जमाने के मैट्रिकुलेट, बड़ा रोबदार और खूबसूरत चेहरा । परंतु उन्होंने अपने आपको शराब की भट्ठी में झोंक दिया था। प्रतिदिन उन्हें भाँग, शराब, अफीम और मांस-मछली के बिना चैन नहीं; उनका शराब और अफीम का हिसाब भी मुझे ही रखना पड़ता था ।
पढ़ाई-लिखाई मेरी न के बराबर थी। गाँव के आवारा बच्चों के साथ खेलना और गलियों में घूमना । मेरे परिवार का हर सदस्य मेरी जिंदगी से निराश हो गया था। मेरी जिंदगी सड़क के उन आवारा कुत्तों के समान थी, जिनका कोई मालिक नहीं हुआ करता ।
और ऐसी घड़ी में गुलाब के फूल से निकलकर एक कीड़ा मुझे डँस गया। अगर वह कीड़ा मुझे न हँसता, तो मैं कहीं का नहीं रहता; साँप बनकर मैं दूसरों को डँसता रहता, आदमी कभी नहीं बनता। और तब जीवन की नियति यह कभी नहीं होती कि मैं इन बातों को किसी और तक पहुँचा पाता।
मैं काफी बड़ा था और मुझे ठीक से अक्षर ज्ञान भी नहीं था। एक दिन हमारे क्षेत्र के एक डॉक्टर ने जब मुझसे यह पूछा कि तुम किस क्लास में पढ़ते हो, मैंने सिर नीचा कर लिया, और डॉक्टर ने मुझसे कहा – बूड़ा बंस कबीर का उपजा पूत कमाल ! और वह ठठाकर हँस पड़ा। मेरी आँखें उस दिन पहली बार खुलीं। पहली बार मुझे यह एहसास हुआ कि मेरे कारण मेरे वंश का, मेरे पूर्वजों का, मेरे पिता का नाम मिट्टी में मिल जाएगा और नदी के इस भयानक प्रवाह में मैं मगरमच्छ के समान बहता चला जाऊँगा ।
और उस दिन से मेरी जिंदगी ने एक नया मोड़ ले लिया। मैंने खुद पढ़ना शुरू किया, किसी ने पढ़ाया नहीं मुझे। अंधे जैसे बेल के सहारे टोह - टोहकर पढ़ते हैं, वैसे ही मैंने भी किया और मैं निरुद्देश्य किताबों के पीछे पागल बन गया । मैं क्या पढ़ता हूँ, मैं यह भी नहीं जान पाता था; परंतु मैं पढ़ता जाता था और कभी-कभी तो बारह घंटे, पंद्रह घंटे लगातार पढ़ता चला जाता। उन्हीं दिनों मैंने रवि, शरद्, प्रेमचंद, बंकिम, प्रसाद, महाभारत, रामायण, गीता, सत्यार्थप्रकाश, गीता- रहस्य, कुरान और बाइबल का हिंदी - अनुवाद पढ़ा।
लेकिन कुछ लोगों का कहना था कि बिना डिग्री के पढ़ने का कोई महत्त्व है नहीं । मगर मुझे डिग्री की कोई आवश्यकता थी नहीं। लेकिन उन्हीं की बातें प्रधान बनीं, जो मेरे नाम के साथ डिग्री चाहते थे, जो यह चाहते थे कि डिग्री होगी, तो नौकरी मिल जाएगी, शादी में अच्छा तिलक ले सकूँगा और कहने को होगा कि यह लड़का इतना पढ़ गया है।
पहली बार मैंने परीक्षा मैट्रिकुलेशन की दी, वह भी निजी तौर से पढ़कर। किसी स्कूल में दाखिला नहीं लिया; सीधा कॉलेज में ही गया; और उस दिन जिंदगी में एक और मोड़ आ गया।
विश्वास की उपलब्धि विश्वास है और उसी की प्रेरणा से यह सब लिख रहा हूँ, जो लिख चुका हूँ, वह कुछ नहीं है। जो आगे लिख रहा हूँ, वही सबकुछ है। मैं उन दिनों पढ़ रहा था । बहुत कोरा था मैं। विश्वनाथ दर्शन, गंगा स्नान, संकटमोचन कोई मुझे अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पाते थे । रात-दिन कामों में अपने को डुबोए रहता था । शिक्षण संस्था में मेरी अपनी मर्यादा थी, आदर था, और साहित्यिक-सामाजिक उपलब्धियाँ थीं। और इन सबके बावजूद, मुझे ऐसा लगता था कि में अधर मैं लटक रहा हूँ। मैं कहीं हूँ या नहीं हूँ, मैं कुछ भी नहीं समझ पाता था।
और ऐसे ही समय मैं उनके पास गया था और वह मेरे पास आई थीं।
पता नहीं, मेरी आँखों में उन्होंने क्या झाँककर देखा था, जहाँ रिक्तता ही रिक्तता थी और पता नहीं, उन आँखों में उन्होंने क्या किया था कि मैं एक अबोध शिशु के समान उनकी ओर देखता भर रह गया था। मैं उन्हें कुछ भी कह सकता था- भाभी, आंटी, माँ। लेकिन पता नहीं क्यों, मैं उन्हें दीदी कहने लगा।
वे मुझसे सात साल बड़ी थीं। वे ग्रीक वास्तुकारों की तराशी हुई मूर्ति थीं। उनकी आँखों में सागर की गहराई तैरती थी। बड़ी साफ । कहीं कुछ भी नहीं था, जो देखा जाता । प्रणाम तक का जवाब नहीं देती थीं । न हँसती थीं, न रोती थीं। केवल ताक भर देती थीं और लगता था, आँखों में बिठा लेंगी, आँखों में अमृत बरसा देंगी। पहली बार उन्हें ही मैंने अपनी पूरी जिंदगी खोलकर बताई। एक शब्द भी उनके मुँह से नहीं निकला। केवल उनकी आँखों का रंग बदलता गया और कहीं अंत में मैं उनकी आँखों में बूँदें न देख लूँ, इसलिए उन्होंने कसकर मुझे अपने आपसे चिपका लिया ।
शुभ्रा, मुझे आज भी वह संध्या याद है, जब दीदी के वक्ष से सटा मैं डेढ़ साल का एक बालक हो गया था, जिसे न तो कोई संज्ञा होती है, न हाव, न बोध, न समझ और ऐसे ही मुझे छोड़कर वे नाश्ते की तश्तरी लाने चली गई थीं और जब लौटकर आई थीं, तो मैंने पाया था कि उनकी आँखों का रंग और भी गहरा हो गया है। मेरे पास घर से जो भी पैसे आते, मैं उनके हाथों में रख देता और न भी आते तब भी वही मेरे खर्च का हिसाब रखती थीं- बाल बनवाने से लेकर कपड़े की धुलाई तक, और नए कपड़े से लेकर जूते की पॉलिश तक। उनकी पैनी दृष्टि से कोई भी चीज अलग नहीं हो पाती थी।
उन्होंने मेरा जीवन विचित्र प्रकार से कस दिया था । उनकी सहज - स्वाभाविक बातें ऐसी थीं, जो पता नहीं कैसे, मेरे अंदर प्रवेश कर जाती थीं और उनके हर भाव का मर्म मेरे लिए अपरिचित नहीं था।
'भैया, सिगरेट पीना, पान खाना कोई अच्छी बात नहीं होती!" वे कहतीं ।
“दीदी, इसीलिए मैं न तो पान खाता हूँ, न सिगरेट पीता हूँ ।" मैं कहता ।
"मेरी ओर देख...।" बड़ी स्वाभाविकतापूर्वक जमीन की ओर से हटाकर वे मुझे अपनी ओर देखने के लिए मजबूर करतीं।
..."मैं आज की बात नहीं कर रही हूँ। आगे कभी भी तू पान नहीं खाएगा, सिगरेट नहीं पीएगा।"
"ठीक है दीदी, आप जो भी कहेंगी, मैं वही करूँगा।" मैं सीधा सा उत्तर देता। इतना मात्र उनके लिए और मेरे लिए काफी था । न जाने कौन सा विश्वास वे पाले हुए थीं कि मैं जो भी उन्हें कह दूँगा, वह मेरे लिए ध्रुव सत्य हो जाएगा।
दिनों के जोड़ में महीने बीत जाते । वे फिर किसी दिन छेड़ बैठतीं - "सिनेमा कोई अच्छी चीज नहीं होती। इससे सामाजिक बुराइयाँ फैलती हैं। "
"हाँ, दीदी । " मैं सहमति में उत्तर देता।
"भैया, मेरा वश चले, तो मैं किसी भी पढ़नेवाले विद्यार्थी को सिनेमा न देखने दूँ।" वे कहतीं और मैं समझ जाता और मैं बिना एक शब्द कहे मन में ठान लेता कि जब तक पढ़ाई समाप्त न कर लूँगा, सिनेमा न देखूँगा ।
'पीनेवाले से बढ़कर इस दुनिया में और किसी से मैं घृणा नहीं करती।" वे कहतीं ।
और मैं जवाब देता – 'दीदी, मैंने इस बुराई को बहुत नजदीक से देखा है, इसीलिए जीवन में मैंने कभी इसकी ओर ताका नहीं।"
"भैया, तू जिंदगी में यह पाप कभी न करना ।" वे समझाती हुई कहतीं और मुझे लगता कि उनकी वाणी मेरी सारी शिराओं को छेदकर अंदर पार कर रही है, उनकी आँखें मुझे बींध रही हैं, मुझे वज्र का बना रही हैं और दीदी दीदी नहीं हैं, दीदी गांधारी हैं और मैं...
शुभ्रा, आज मेरे भीतर कुछ ऐसी आँधी उठ रही है, जो लगता है, मुझे पागल बना देगी। आज वर्षों बाद अपनी दीदी को मैं किसी के सामने रख रहा हूँ। जिनकी बातें मैंने कभी किसी से नहीं कीं, जिन्हें मैंने सबसे छिपाकर अपने भीतर बैठाए रखा, जिन्हें मैंने केवल अपना माना, उन्हें आज क्यों मैं दूसरों के सामने, तुम्हारे सामने कह रहा हूँ ?
आखिर क्यों? क्या दीदी मुझसे रूठ गईं ? क्या उन्होंने मुझे भुला दिया ? क्या मेरी दीदी अब मेरी नहीं रहीं ? नहीं शुभ्रा, ऐसा नहीं हो सकता। मैंने तुमसे धागे और डोरी की बात की थी न, वह टूट नहीं सकती।
डॉक्टर साहब ने दीदी के पति ने सदा मुझे अपना छोटा भाई माना और मैंने सदा उन्हें 'भाई साहब' कहा। मैं उनके परिवार का एक अभिन्न सदस्य था । पप्पू दीदी का तीन साल का एकमात्र बच्चा था। बड़ा सुखद, संतोषप्रद एवं अभिजात परिवार था वह ।
परंतु परिवार से अलग मेरा और उनका जो संबंध था, वह कुछ ऐसी उपलब्धि थी, जिसका विश्लेषण नहीं हो सकता। कुछ ऐसे सूत्र थे, जो भाष्य के परे थे। मैंने कभी भी अपने को उतना पवित्र, मर्यादित और संयमित अनुभव नहीं किया, जितना उनके संपर्क में ।
क्यों? यह तुम जानना चाहती हो? तो सुनो। रातों में मैं उनके साथ सोया हूँ, लेकिन मुझे यही लगा है कि मैं अपनी माँ के साथ सोया हुआ हूँ । आज तक किसी के सामने ये आँखें नहीं झुकी हैं, जो घंटों दीदी के सामने बरसती रही हैं। किसी ने भी आज तक मुझे इतना प्यार, दुलार, अभिव्यक्ति, चेतना, विश्वास और संज्ञा नहीं दी, जितना दीदी ने दीदी मेरे लिए गंगा थीं....
शुभ्रा, तुम स्त्री हो । स्त्रियाँ त्याग की प्रतिमूर्ति होती हैं। उनका मौन ही मुखर होता है। तो क्या तुम इतने मात्र से दीदी को नहीं पहचान सकतीं ?
दीदी माँ थीं। एक ऐसी माँ, जो अपने बच्चे की हत्या इसलिए कर दे सकती है कि उसका बच्चा उसके बाद दर-दर का भिखारी न बन जाए। दीदी पत्थर की अहल्या थीं; लेकिन उन्हें किसी ने शाप नहीं दिया था ! और न उन्हें इस बात की हवस थी कि कोई पाँवों से छूकर उन्हें आदमी बना दे। दीदी सीता थीं, किंतु किसी राम ने उन्हें अग्नि परीक्षा की चुनौती नहीं दी थी। दीदी गांधारी थीं, मगर आँखों पर पट्टी बाँधकर उन्हें सतीत्व प्रदर्शित करने की आकांक्षा नहीं थी।
परीक्षा के दिनों में उन्होंने न कभी मुझे दही खिलाया, न संकटमोचन जाने को कहा, न पढ़ने की नसीहत दी। केवल मेरी ओर देख भर देती थीं और मैं निहाल हो जाता था । कितना बड़ा आत्मविश्वास उनकी आँखों में जागता था, सोता था ।
दीदी ने कभी मुझे चिट्ठियाँ न लिखीं और एक बार मैंने जब उन्हें पत्र दिया, तो मिलने पर वे बोलीं, "ये चिट्ठियाँ क्या होती हैं ?"
" दीदी, मैं समझ नहीं पाया।"
"भैया, जीवन में क्या पत्रों का कोई निश्चित स्थान होता है ? पत्रों में हमारी दृढता नहीं, कमजोरी झाँका करती है। तू कभी पत्र न दिया कर ।" और उन्होंने बिना खोला लिफाफा मेरे हाथों में रख दिया था। वे मौन हो गई थीं, मैं निस्पंद हो गया था ।
शुभ्रा, मैं तुम्हें कितना बताऊँ कि दीदी क्या थीं और क्या नहीं थीं। उन्होंने ही मुझे बताया था कि विश्वास की उपलब्धि विश्वास है। उन्होंने मुझसे कहा था कि जब किसी लड़की को देखो तो सोच लिया करो कि मैं दीदी को देख रहा हूँ। उन्होंने ही मुझे सीख दी थी कि जीवन मर्यादाओं का सम्मिलित पुंज है।
उनका कहना था कि मैं केवल उनके लिए हूँ और वे केवल मेरे लिए हैं। एक ऐसी दीदी हैं वे, जिन्हें मैं पा सकता हूँ, देख सकता हूँ, सुन सकता हूँ। औरों से उनका क्या लेना-देना ! और आज उन्हीं दीदी का लेन-देन मैं तुमसे कर रहा हूँ। यह विश्वासघात नहीं है तो और क्या है ?
दीदी ने जो मुझसे कहा, उसे निर्विकार रूप से मैं अपने जीवन का अंग बनाए हुए हूँ - पान नहीं खाता, सिगरेट नहीं पीता, शराब और नशीली वस्तुओं से कोसों दूर हूँ, सिनेमा देखना और चाय पीना पढ़ाई समाप्त करने के बाद शुरू किया था । और मैं सब कर सकता हूँ, लेकिन दीदी को दिए शब्दों को वापस नहीं ले सकता, उन्हें हटा नहीं सकता, उनकी आँखों में झाँककर देख नहीं सकता और उनके रहते कोई गलत काम कर नहीं सकता।
मैं जो कुछ भी हूँ, केवल उनकी देन हूँ। जैसे कोई कुंभकार अपने हाथों से कोई घड़ा गढ़े, किसी मूर्ति का निर्माण करे, वैसे ही उन्होंने मुझे गढ़ा है, और वे मेरे लिए सबकुछ होने को तैयार थीं, यहाँ तक कि मेरे लिए वे कुंती भी हो जातीं, जिसके जीवन में कर्ण पांडव के आने के पहले ही आ गया था।
शुभ्रा, तुम इन सारी बातों को एक कहानी मान लो । कहानी, जो कल्पना के सहारे खड़ी की जाती है, जिसमें घटनाओं और चरित्रों का कंकाल खड़ा किया जाता है। तुम मुझे शरत का श्रीकांत मान लो और उन्हें अन्ना दी। लेकिन सच न मानो तो ज्यादा अच्छा हो। कारण, सबके बावजूद तुम भी तो एक स्त्री ही हो, और स्त्री होकर आगे के सत्य को तुम नहीं झेल पाओगी। जब मैं नहीं झेल पाया, जब दीदी नहीं झेल पाईं, तो फिर मैं ऐसे किस पर विश्वास करूँ ?
दुनिया में कुछ भी हो सकता है। जो कुछ भी हो जाए, उसे न तो आश्चर्य कहा जाएगा, न असंभव। और वही हुआ। तुम जानने के लिए उत्सुक होगी कि आगे क्या हुआ ? अब दीदी कहाँ हैं? मेरे और उनके संबंधों की परिणति क्या है ? तो तुम सुन लो - दीदी अभी भी जीवित हैं; लेकिन मैं, उनका भैया राजा, मुन्ना बाबू, मर गया हूँ।
आज पंद्रह साल बीत गए, उन्होंने मुझे कोई खत नहीं लिखा, और जब मैं आखिरी बार मिलने गया, तो उन्होंने मुझे पहचाना भी नहीं, उन्होंने मेरी ओर से आँखें फेर लीं और मैं भाग आया। मेरे लिए और कोई चारा नहीं था । मैं दीदी की आँखों में आँसू नहीं देख सकता था। विराट के यहाँ द्रौपदी ने युधिष्ठिर का खून कटोरे में छान लिया था कि कहीं धरती में दरार न पड़ जाए। परंतु मैं वैसा नहीं कर पाता, और धरती में दरार जरूर पड़ जाती...
दीदी ने मुझे क्षमा नहीं किया। अपराध बड़ा हो या छोटा, अपराध आखिर अपराध है, और अपराधी को दंडित होना ही चाहिए। और यह तो मेरा बड़ा अपराध था। अगर दीदी ने मेरे मुँह में कभी पान देख लिया होता, सिगरेट देख ली होती, तब भी वे मुझे माफ नहीं करतीं ।
कल से मैं तुम्हें यह लिख रहा हूँ और अभी तक इसे पूरा नहीं कर पाया। मेरे सामने ड्रेसिंग टेबल का शीशा है, जिसमें मैं अपनी जगह दीदी की तसवीर देख रहा हूँ । खजुराहो, भुवनेश्वर, कोणार्क, एलोरा और अजंता की तसवीरें व मूर्तियाँ और भित्तिचित्र ।
दीदी, मेरी ओर न देखें। मुझे आज यह पूरा कर लेने दें। वर्षों से मेरी साँसें घुटती रही हैं... किसी से कुछ भी नहीं कहा है। आपके बारे में भला किसी से क्या कहता ? आज मैं कुछ भी अपने पास नहीं रखूँगा । कह लेने दें मुझे सबकुछ ।
दीदी, सच मानें, इस तरह आप न खड़ी हों, नहीं तो जैसे पान की गिलौरियाँ गिर पड़ी हैं, जैसे प्याले हाथ से छूट गए हैं, वैसे ही यह कलम भी हाथ से छूट जाएगी, टूट जाएगी, और इसे मैं कभी भी पूरा नहीं कर पाऊँगा।
दीदी, मैं आपकी शक्ति से परिचित हूँ । आप मुझे भूल सकती हैं। आप कभी भी अपनी जबान पर मेरा नाम नहीं आने दे सकती हैं। आप कभी भी मुझे क्षमा नहीं कर सकती हैं। परंतु दीदी, मेरे धीरज का बाँध टूट रहा है। भोर में देखा गया सपना दिन में भी कभी नहीं भूलता।
दीदी, आप में शिवाजी का और तिलक का खून वास करता है। बड़े-से-बड़े संकट को बिना उफ किए आप झेल सकती हैं। बड़े-बड़े शोक-संवादों को बिना आँखों में आँसू लाए आप सुन ले सकती हैं। दीदी, मैं भी यही चाहता हूँ, लेकिन कर नहीं पाता ।
दीदी, आपके लिए माघ की ठिठुरन और जेठ की लू में कोई अंतर है ही नहीं । पूर्णिमा और अमावस्या, दोनों आपके लिए समान हैं। आपमें समुद्र की गंभीरता और धीरता है। अंतर केवल इतना ही है कि समुद्र में दूनो के दिन उफान आता है और आप सदा एक समान रहती हैं।
दीदी, एक के बाद अनेक जिंदगियाँ मेरी आएँगी और जाएँगी, लेकिन क्या कभी मैं आपको भूल पाऊँगा ?
दीदी, आग की आप ऐसी लपट हैं, जिसमें खांडव वन जल रहा है... लेकिन महान् आश्चर्य, कोई जीव-जंतु मर क्यों नहीं रहे हैं ? इसीलिए तो कि आपको किसी अग्निदेव को न तो प्रसन्न करना है और न किसी गांडीव की आवश्यकता है।
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शुभ्रा, दीदी मुझसे रूठ गईं। मुझसे सैकड़ों-हजारों-लाखों मील दूर चली गईं। मुझमें और उनमें योजनों का अंतर आ गया - केवल एक बात के लिए। और बात बड़ी हो या छोटी, बात होती है। महाराज दुरपद के दरबार में मीन की आँखों को छेद देनेवाला धनुर्धर भी बातों के परे न था ।
प्यार, प्रेम, स्नेह, अपमान - सब अभिव्यक्तियाँ हैं मर्यादाओं के ही स्वरूप । दीदी ने मुझे प्यार दिया था, प्रेम दिया था, स्नेह दिया था, और इसलिए उन्हें ही यह हक भी था कि वे मुझे ठुकरा देतीं, और उन्होंने ऐसा ही किया। और दीदी कभी गलत कर ही नहीं सकतीं।
और इसीलिए मैं अपना दाह ढोए चला जा रहा हूँ। वे मुझे अगर क्षमा कर देतीं, ती शायद मैं शक्तिहीन और श्रमहीन हो जाता। इसीलिए मैं उनके द्वारा उठाए हर पग को विष्णु का पग मानता हूँ, जिसके नीचे गयासुर दानव दबा पड़ा है।
मेरी पढ़ाई का वह आखिरी साल था। डॉक्टर साहब की चिट्ठी आई कि दीदी मुझे बुला रही हैं। जो पहली गाड़ी मिली, उससे मैं उनसे मिलने गया ।
वहीं दीदी मिलीं। आँखों में करुणा-ही-करुणा । प्रणाम तक का कोई जवाब नहीं। ताजा गुलाब-सी खिली सौरभमय दीदी। वही गांधारी-सी आँखें ।
तुम्हारी पढ़ाई कब समाप्त होगी ?" प्रश्न ।
"तीन-चार महीनों बाद ।" उत्तर ।
"मैंने तुम्हें एक खास बात के लिए यहाँ बुलाया है।" वे सीधी मेरी ओर ताक रही थीं।
'आज्ञा दें।" मैंने कहा ।
"मुन्ना, बस यही एक बात हैं, जिसके लिए मैं आज्ञा शब्द का प्रयोग नहीं कर सकती।" उन्होंने दृढता के साथ कहा और उसके बाद बिना किसी भ्रम के उन्होंने मुझसे कहा कि मैं उनकी छोटी बहन से शादी का प्रस्ताव मंजूर कर लूँ। उनकी छोटी बहन बी.ए. में पढ़ती थी। मैं जब बी.ए. में था, तब वह आई.ए. में थी । दीदी के ऊपर ही उसका भी दायित्व था । उसे छात्रावास में रखकर दीदी पढ़ा रही थीं। दीदी का विश्वास था कि हम दोनों एक-दूसरे से स्नेह रखते हैं।
संभव है, वह ऐसा करती रही हो, लेकिन मेरे अंदर कभी कोई इस प्रकार की भावना नहा आई। इसका कारण भी दीदी ही थीं। उन्होंने ही तो कहा था कि जब किसी लड़की की ओर तुम्हारी आँखें उठें, तो सोच लिया करो कि मैं दीदी को देख रहा हूँ ।
मेरी आँखों के सामने अँधेरा था। बस जिंदगी के दायित्वों में मात्र एक ही दायित्व अपने पिताजी का मनमाना था कि वे जहाँ कहेंगे, वहीं शादी कर लूँगा । आखिर मर्यादाओं में बँधा मैं क्या करता ?
मेरे मुँह से निकल गया- दीदी, बस यही एक प्रश्न हैं, जिसका जवाब मेरे पास नहीं है, मेरे पिताजी के पास है ।
और उसके बाद कहीं कुछ टूटा था, जिसकी आवाज शायद सिवा मेरे और कोई भी नहाँ सुन सका था । पेड़ की शाखाएँ टूटती हैं, तो आवाज होती है; शीशे का बरतन टूटता है, तो आवाज होती है; लेकिन आदमी जब टूटता है, तो कहीं से कोई आवाज नहीं होती । और चीजें शायद टूटकर जुड़ सकती हैं, लेकिन आदमी जब टूटता है, तो जुड़ता नहीं ।
दीदी उठकर अंदर चली गई थीं, कमरे में, बिस्तरे पर और मैं बरामदे में बैठा नाश्ते की तश्तरी का इंतजार करता रहा था, और इस प्रकार शायद घंटा बीत गया और फिर मैं उठा। मेरे सामने अंधकार-ही-अंधकार था। यह मैंने क्या कर दिया, क्या कह दिया ? लेकिन मैं जानता था, मुँह से निकले वाक्य लौटाए नहीं जा सकते... और अगर मैंने इन्हें लौटाने की चेष्टा की, तो वह टूटना और भी खतरनाक हो जाएगा। मेरे मन में आया कि जाऊँ, उनके पैर पकड़ूँ, माफी माँगूँ, कहूँ कि दीदी मेरी परीक्षा न लें। कहें कि मुझे क्या करना है।
मेरी परीक्षा के दिन थे। आखिरी पढ़ाई हो रही थी । क्लास में क्या हो रहा है, मुझे कुछ पता नहीं चलता था। काव्यशास्त्र और उपन्यास, कहानी और कविता, गद्य और पद्य, किसी में मेरे लिए भेद निकाल पाना कठिन था। कौन हैं प्रेमचंद और कौन हैं प्रसाद, यह भी भूल गया था।
और सबसे बड़ी बात तो यह है कि उन दिनों भी मैंने किसी से कुछ नहीं कहा। मैंने उन दिनों अपनी जिंदगी नाथों, सिद्धों और संतों की बना ली। देखनेवालों ने संभवतः यही समझा कि मैं परीक्षा में तल्लीन हूँ, इसलिए अपनी सुध-बुध खो बैठा हूँ।
मैं अपने आप अपने दर्दों को पीता रहा। कोई दवा नहीं की। इसकी कोई दवा किसी वैद्य- डॉक्टर- गुणी - ओझा के पास थी भी नहीं। मैंने उन दिनों जीवन के प्रति आस्था सीखी। मैंने उन दिनों जीवन के प्रति अनास्था सीखी। मैं उन दिनों कई बार मरा। मैं उन दिनों कई बार जिया ।
कई बार सोचा कि जाऊँ, एक बार उनके पाँवों पर सिर रखकर कहूँ- माफ कर दें, केवल एक बार। लेकिन मैं जानता हूँ अपनी दीदी को । वे क्या हैं, मुझसे अधिक शायद और कोई नहीं जान सकता, किसी को जान पाने की जरूरत भी नहीं ।
अब आगे मैं कुछ भी नहीं लिख पाऊँगा, शुभ्रा ! आखिर मैं भी तो आदमी हूँ। मेरी भी आँखें गीली होती हैं। मेरी भी नसों में खून का प्रवाह रह-रहकर रुकता है । मेरी अंगुलियों में भी लिखते-लिखते दर्द होता है। और मेरे अंदर भी रह-रहकर कहीं कुछ टूटता है।
सबकी नजरों से अपनी दीदी को मैंने बचाए रखा... उन्हें आज तुम्हें सौंप रहा हूँ। क्यों, मैं नहीं जानता । केवल इस विश्वास के साथ कि मैंने अगर उनके साथ विश्वासघात किया, तो तुम वह नहीं कर सकोगी। हाँ, एक बात कहना चाहूँगा, शुभ्रा, कि अगर तुम्हारे पास नारी - हृदय है, और उस हृदय में सेमल के फूलों-सी कोमलता है, और अगर तुम्हारे मन में मेरे प्रति कहीं भी कोई एकांत आत्मविश्वास है, तो तुम दीदी बन जाना... दीदी, जो सौ में, हजार में, लाख में बस एक थीं।
तुम्हारी आँखों में भी वही तेज आ जाए, जो छेद दे, जो कँपा दे, जो अमृत बरसा दे ।
दीदी कीचड़ में कमल के समान उद्भासित थीं, पर वह 'शेष प्रश्न' की कमल नहीं थीं, टालस्टॉय की अन्ना केरेनिना भी नहीं थीं, गोर्की की माँ भी नहीं थीं, प्रेमचंद की धनिया भी नहीं थीं, वे केवल दीदी थीं, जो अनाम थीं।
अगर मैं दिन या रात को अपनी आँखों में समेटकर यह सब तुम्हें आज न लिख देता, तो फिर कभी नहीं लिख पाता और यह अधूरा ही रह जाता, वैसे ही जैसे एक दीदी के बिना मेरा पूरा जीवन अधूरा है, मेरा हर पत्र अधूरा हैं, मेरा विश्वास अधूरा है और मैं अधूरा हूँ । पता नहीं, इस अधूरेपन की तलाश कब तक चलेगी। पता नहीं, इसकी परिणति क्या है।
मेरे पास अब लिखने के लिए कुछ भी शेष नहीं है। शब्द मेरे चुक गए हैं। भाव बेभाव हो गए हैं। अक्षर स्वयं को काटने दौड़ते हैं।
दीदी की याद आते ही मेरी स्थिति होरी के समान हो जाती है। रूपा को सौ रुपयों में बेचकर जब होरी अपने गाँव की ओर चला, तो गाँव में प्रवेश करते ही उसे ऐसा लगने लगा, मानो उसे गाँव के चौराहे पर खड़ा कर दिया गया हो; जो कोई आता हो, उसके मुँह पर थूक देता हो, और वह चिल्ला-चिल्लाकर कहना चाहता हो कि भाइयो, मैं घृणा का नहीं, करुणा का पात्र हूँ ।
दीदी, मैं अंतिम बार आपसे क्षमा माँग रहा हूँ । आपसे मैंने आज तक कुछ भी नहीं माँगा। माँगे ही आपने सबकुछ दिया है। कृपया एक बार मेरे माँगने से एक शब्द 'माफी' दे दें। मेरी जिंदगी को बेसहारा न बनाएँ । मेरी आस्थाओं में दरार न डालें। विश्वासों को न हिलाएँ।
आपने मुझे कई बार देखा है, एक बार और देख लें। वही गांधारी-सी आँखें । विश्वास मानें, यहाँ कोई भी दुर्योधन की सीमा रेखा न लाँघेगा ।
दीदी, आप जीवित हों तो मर जाएँ, केवल मेरे लिए ही सही। और प्रेत बनकर मेरा पीछा किया करें। दिन-रात साये के समान मेरे ऊपर छाई रहें । विश्वास मानें, यहाँ आपको कोई भी नहीं पहचानेगा। यहाँ का हर आदमी धृतराष्ट्र ही है।
दीदी, आज के बाद मैं आपके बारे में किसी से कुछ नहीं कहूँगा । किसी जगह कुछ नहीं लिखूँगा। आपके बारे में मैं कभी कुछ भी नहीं सोचूँगा ।
लेकिन, क्या यह संभव है ?