किस्सा मुहकमा तालीमात (व्यंग्य) : हरिशंकर परसाई
Kissa Muhkama Taalimat (Hindi Satire) : Harishankar Parsai
साधो, रिजल्ट खुल गए हैं। आधे स्कूल भी खुल गए। हाईस्कूल इस साल 15 दिन पहले खुल गए। लोग पूछते हैं कि साहब 15 दिन पहले स्कूल खुलने से क्या फायदा? साधो, लोग नहीं जानते कि चीन का हमारी सीमा पर हमला हुआ है और संकटकालीन स्थिति चल रही है। 15 दिन पहले स्कूल खुल जाने से चीन हट जाएगा। हमारे शिक्षा विभाग ने सोचा होगा कि संकटकालीन स्थिति में सुरक्षा के लिए तरह-तरह की तैयारियां हो रही हैं। हमें भी कुछ करना चाहिए। इन बेचारों के हाथ में स्कूल खोलना और बंद करना है। सो उन्होंने 15 दिन पहले स्कूल खोलकर बता दिया कि हम भी देश की सुरक्षा में पूरी तरह से जुटे हैं।
साधो, प्रतापसिंह कैरो बड़ी अकड़ से कहता है कि मैं 20 लाख सिपाही तैयार कर रहा हूं। उसकी अकड़ अब नहीं चलेगी। अब अपने मुख्यमंत्री गर्व से कह सकेंगे कि हमने भी 15 दिन पहले स्कूल खोल दिए। यों स्कूल पहले खोलना और छुटि्टयां कम करना, इन पर पहले ही विचार करना था। अपने स्कूलों की हर दूसरे दिन तो छुट्टी रहती है। पर छुट्टी पहले कम करते, तो शायद विद्रोह हो जाता। इसलिए समझदार सरकार ने संकटकालीन स्थिति में यह क्रांतिकारी कदम उठाया है।
साधो, सुरक्षा के बारे में हम कितने सचेत हैं, यह बताने के लिए भर-बरसात में शिक्षकों और प्रोफेसरों का तबादला भी करना चाहिए। अभी तक तो तबादले के आदेश भी जारी नहीं हुए हैं। बरसात की राह देखी जा रही है। जब खूब घटा छा जाए और 8-10 दिन की झड़ी लगी हो, तब एकदम उज्जैन के मास्टर को हुक्म होना चाहिए कि तुम जगदलपुर जाओ। यों तो हर वर्ष शिक्षा विभाग तबादला करने के लिए बारिश की राह देखता रहता है और जब पढ़ाने वाला इधर घर में बरसात के लिए गल्ले, लकड़ी, कोयले का प्रबंध कर लेता है, तब हुक्म आता है कि तुम्हारा तबादला कर दिया गया। इस साल सब शिक्षकों और प्रोफेसरों के तबादले पर जाने से बड़ी वीरता नहीं है। बंगलों में आराम से बैठे अफसरों के हुक्म से ये लोग जब बरसते पानी में बीवी बच्चों और सामान को लादकर तीन सौ मील दूर जाएंगे। तब भारत माता के वीर सपूत बनेंगे और अपने विद्यार्थियों को भी वीर बनाएंगे। इन तबादलों को देखकर चीन भी घबरा जाएगा, क्योंकि वह इसे फौजी हलचल समझेगा।
साधो, इस साल के रिजल्ट भी संकटकालीन स्थिति के अनुकूल ही हैं। कल एक साधु कहने लगा-बड़ा गजब हो गया। मेरा लड़का मैट्रिक में पहले दर्जे में पास हुआ था। पर कॉलेज वालों ने पहले इम्तिहान में ही उसे फेल कर दिया। एक दूसरा साधु परीक्षा के दिनों में मेरे पीछे पड़ा रहा कि मैं किसी तरह लड़के को पास करा दूं। वह कहता था-बस, किसी तरह निकल जाए। मगर अभी कल-परसों वह लड़के के पहले दर्जे में पास होने की मिठाई बांट रहा था। वह खुश था, मगर मुझे उस पहले दर्जे के लड़के पर दया आ रही थी। सोचता था, इस बेचारे को यह फर्स्ट क्लास ले डूबेगा। अब यह इसकी दम पर कॉलेज जाएगा, साइंस कोर्स लेगा और पहली परीक्षा में फेल होगा। फिर निराश होगा, विफलता की भावना से पीड़ित होगा। या तो टूटे मन से लुढ़कते-लुढ़कते बी.ए. करेगा या नौकरी कर लेगा या आवारा हो जाएगा।
साधो, इस साल मैट्रिक में सात हजार पहले दर्जे में पास हुए हैं। इधर कॉलेज में साइंस के पहले इम्तहान में किसी विश्वविद्यालय में 8 फीसदी पास हुए हैं तो किसी में 13 फीसदी। यानी पिछले वर्ष के 70-80 फीसदी फर्स्ट क्लास इस परीक्षा में फेल हो गए। साधो, मैट्रिक में सौ में से अस्सी पास होते हैं और आगे वाले डिग्री कोर्स के पहले इम्तिहान में सौ में से सिर्फ 8-10। लोग पता लगा रहे हैं कि गड़बड़ कहां है- यहां या वहां? यानी स्कूल में या तो कॉलेज में। कुछ लोग कहते हैं कि कॉलेज में प्रोफेसर लोग पढ़ाते नहीं हैं। मैं कहता हूं कि स्वतंत्रता के बाद से हमारे देश में यही तो एक परम्परा पड़ी है कि जो जितने ऊंचे पद पर है वह उतना ही कम काम करेगा। बाबू से कम बड़े बाबू और बड़े बाबू से कम साहब और बड़े साहब तो बिल्कुल नहीं। इसी तरह प्रायमरी स्कूल के शिक्षक से कम मिडिल स्कूल का शिक्षक पढ़ाएगा, उससे भी कम हाईस्कूल का और उससे भी कम कॉलेज का। और विश्वविद्यालय का बड़ा आचार्य तो पढ़ाएगा बिल्कुल नहीं, आशीर्वाद देने का वेतन पाएगा। इसलिए अगर कॉलेजों में पढ़ाई नहीं होती तो किसी को बुरा नहीं मानना चाहिए। वे राष्ट्र की एक परम्परा का विकास कर रहे हैं। और चीन से लड़ने के लिए हमें एक गैर-जिम्मेदारी और बेईमानी की राष्ट्रीय परम्परा की सख्त जरूरत है। चीन अपने पड़ोसी देशों से बेईमानी करता है, तो हमें देश के भीतर ही बेईमानी करने का अभ्यास करना पड़ेगा। तब हम उसका मुकाबला कर सकेंगे। इसी तरह चीन गैर-जिम्मेदार हरकतों की बराबरी करने के लिए हमें भी गैर- जिम्मेदार होना पड़ेगा। इसलिए पढ़ाने वालों की शिकायत व्यर्थ है।
जहां तक अच्छे नंबरों से पास होने वाली बात है तो वह गुरुकृपा से ही संभव है। विद्या पढ़ने से नहीं आती, गुरुकृपा से आती है। गुरु अगर प्रसन्न हो तो अपने प्रिय विद्यार्थी को सब दे सकता है। साधो, ज्यादा पहले दर्जे गुरु-कृपा से ही प्राप्त होते हैं। परीक्षा के पहले लड़के का बाप मास्टर साहब को पान खिलाकर कहता है- मुन्ना की परीक्षा आ रही है। हल्ला करने से कुछ नहीं होता। ‘बाल भारती’ ऐसी दुर्लभ हो गई है कि किताब बेचने वाला कहता है कि वह तब मिलेगी, जब पहाड़े की पुस्तक खरीदोगे। यह भी शिक्षा के क्षेत्र में क्रांति हुई है।