किसका बेटा (कहानी) : नरेश मेहता
Kiska Beta (Hindi Story) : Naresh Mehta
“जसोदाँ के दो-दो लाल
बलभादर-गिरधारी"
गाते हुए वह आई।
"देख ओ पुत्तर..."
'पुत्तर' पंजाबी ढंग से लंबा करते हुए भरे गालों का वह छोटा सरदार, जिसकी मसें अभी भीगने-भीगने को हो रही थीं और जो इस समय साफा लपेट रहा था, बोला।
'पुत्तर' रोज की तरह आज भी बिगड़ खड़ा हुआ।
"ओ खोते! मोअन कैते तेरी जीभ घिसी जाती है?"
और वह गढ़वाली मोहन अपनी चपटी नाक लिए, बाहर धूप में रखी ऊँची भट्ठी के पास बैठा हुआ कड़ाही का दूध औटा रहा था। फटीचर मफलर से दोनों कान बंद किए, चादर में दोनों पैर सिकोड़े बैठा मोहन 'पुत्तर' कहे जाने पर बिगड़ उठा। फिर उसे छोटे सरदार के मसखरेपन पर हँसी भी आई। दोनों दोस्त थे। छोटा सरदार तस्वीरें मढ़ने का काम करता है। लगभग बीस दिनों बाद उसने गीत की ये दोनों लाइनें सुनी थीं और वह भी उधर ही देखने लगा जिधर से वह गाने वाली 'कुड़ी' आ रही थी। यह छोटा सरदार इस जवान भिखारिन को भी 'कुड़ी' ही कहता है।
"जसोदाँ के दो-दो लाल
बलभादर-गिरधारी"
छोटा सरदार रोटी का डब्बा लेकर मोहन के पास पड़ी बेंच पर आकर 'धच्च' से बैठ गया। रोटियाँ गिनीं और गोश्त वाले कटोरे को नाक से सँघा। हाथ का कडा ऊपर चढ़ाया और दूर पर काम करते हुए दूसरे सरदार को मसखरेपन के साथ पुकारा :
"आओजी सरदारो! रोट्टी खाओ फेर"
"छको जी बादशाओ, मैंनूँ ताँ कम्म ए अजे।"
दूसरा सरदार धूप में खड़ा इस होटल वाले के लिए गोश्त रखने की जाली वाली अलमारी बना रहा था, जिस पर वह लंबे-लंबे हाथों से रंदा मार रहा था और उस सरदार के चारों तरफ लकड़ी के फूल ही फूल बिखरे पड़े थे।
"किधर गई सरदारा वो..."
बुदबुदाते हुए मोहन ने पूछा। "वाह ओए पुत्तर..... "
और छोटा सरदार बहुत जोर से हँस पड़ा। बाएँ हाथ से उसने मोहन की पीठ पर एक धौल जमाया। दोनों ओर की डाढ़ों में अधकुचला बड़ा-सा कौर फँसा हँस रहा था।
"ऐ की ओ सरदारा."
होटल वाले पूरन ने पूछा जो कि बहुत मोटा आदमी था, बड़ी-बड़ी मूंछे, कानों में सोने की दो छोटी मुरकियाँ, हलकी खशखशी डाढ़ी। गरम जर्सी पहने मछलियाँ धो रहा था।
"ए त्वाडा पुत्तर मैंनें पुछ रया सी के ओ कुड़ी किद्दर गई? अजे जम्मया हगा नई...."
और बात पूरी किए बिना ही वह छोटा सरदार अधखाया कौर घोड़ों की तरह चबाने लगा। उसके गाल हँस रहे थे, आँखें मुसकरा रही थीं और अपने मसखरेपन पर पेट में बल पड़ रहे थे।
इस छोटी-सी मंडी में रोज ऐसा ही होता है। अल्लसुबह घोड़ागाड़ियों, ठेलों पर सँते बदन के पंजाबी जवान गोभी के फूल, मटर, मूली, साग-सब्जी ले आते हैं। साइकिलों पर टीन के डब्बों में दूध आ जाता है। चाय की हत्थे वाली लाल ठेलागाड़ियाँ चाय के पैकेट दे जाती हैं। बड़ी मंडियों का पहाड़ी आलू इस छोटी मंडी तक आते-आते दो दिनों में ही पिलपिला जाता है। छोले-टिकिया वाले अपने बड़े-बड़े तवों पर डालडा में आलू की टिकियाँ लाल सुर्ख किया करते हैं। होटल वाला पूरन शनिवार को जब मुर्गा बनाता है तो उसमें की मिर्चों की घाँस से उस दमे के रोगी घड़ीसाज की खाँसते-खाँसते हालत खराब हो जाती है और घड़ी की अंतड़ियाँ देखने वाला एक आँख का चश्मा गिर पड़ता है। साइकिल वाले लौंडे गंदे पानी के तामचीनी के तसलों में पंचरों के बुलबुले दिन-भर उठाया करते हैं। वह पंसारी गुड़ और छुहारों की चटाई लिपटी भेलियों पर बैठा हुआ लिखते में उधारी और देते में डंडी, दोनों ही मार देता है और वो कोने में राशन का दुकान-नंबर टाँगे छुटभैया सेठ, देसी को विदेसी और विदेसी को मुगलिया जमाने का कपड़ा बताकर अच्छों-अच्छों के कान काटने में होशियार है। तीसरे पहर रोज चाट खाता है और वह भी गद्दी पर ही मँगाकर। इनमें से अधिकतर लोगों के घर और दुकान यहीं हैं, इसीलिए मंडी में घुसने वाले रास्ते के ठीक दोनों ओर चाट वाले सरदारों ने अपनी गूंज की खाटें टाँग रखी हैं। मंडी में घुसने पर दोनों ओर खाटें ही खाटें-दुबली-पतली, लंबी-छोटी, पीली-भूरी, नई-पुरानी, सभी तरह की, सोने वालों की साइजों के लगभग।
वह मँगतन 'कुड़ी' दूध औटाते हुए मोहन के पास आकर अपने लाल फूलों भरे गंदे पीले रंग के घाघरे को दोनों टाँगों के अंदर से पीछे फेंकती हुई बैठ गई। घाघरा पीछे की ओर फूला-फूला घेरा बनाकर बिछल गया। दोनों घुटनों के ऊपर लाख के चूड़े-भरे हाथ, कुहनी के बल खड़े हुए थे। पीठ पर बदबू देते हुए कपड़े में उसका बच्चा बँधा हुआ था। जिसकी दो काली-काली टाँगें धूल-भरी झूल रही थीं और अब उन पर वे सारी मक्खियाँ वहाँ से उड़ती हुई आकर बैठ रही थीं, जहाँ पर हाथ धोने वाले नल के कारण कीचड़ हो गई थी और लोगों के पीले-पीले कफ पड़े थे। 'कुड़ी' के पैरों में खाल के देहाती जूते थे, जो खुद धूल-भरे थे और उनमें के पैर भी। मैल और धूल की तहें, पिंडलियों तक के ऊँचे घाघरे के पास तक दिखाई दे रही थीं। सामने लटकन लिए मैली पचरंगी कसी हुई चोली, गले में लाल और ऊदे रंग की पोतमालाएँ और सिर के बालों में गुंथा हुआ राजस्थानी ‘बोर' । ठिठुराया ठंडा चेहरा, उभरी चौड़ी गालों की हड्डियाँ, कसा बदन, सुँता नाक-नक्शा और कानों में मैल खाई सँवलई चाँदी के झूमर । मझोले कद की वह 'कुड़ी' इतना सब अपने साथ लिए थी।
"देदे रे बाबू, बासी बचा-खुचा, बच्चा भूखा है।"
और कुड़ी ने बच्चे को पीठ पर से खोलकर सामने बिठा दिया। झटके दे-देकर गर्दन घुमाते हुए समझने की उम्र वाला बच्चा रुंआसे ओठ बनाए बैठ गया।
"अरी जा, मालिक से माँग।"
और मोहन, सरदार की ओर देखने लगा जो नली चूस चुका था और जिसके मुँह से कच्चे प्याज की गंध आ रही थी।
“ओ ए वीर सरदार! अपनी रोट्टियों में से कुछ दे-दे रे।"
पालथी मारे हुए छोटे सरदार का वह रंगीन पाजामा घुटनों तक चढ़ा हुआ था और उसमें से उसकी हरी नसों-भरी पिंडलियाँ चमक रही थीं।
"ओ गाना गा दे कुड़िए! 'छुप-छुप छैयाँ', रोटी बचेगी तो दे देंगे। इतने दिनों कहाँ थी?"
बालों में कहीं नँ या मैल काट रही थी और छोटा सरदार साफे के बीच में कहीं खुजलाने में लग गया।
"तुझे क्या, मैं कहीं भी थी।"
छोटा सरदार झेंप गया। कुड़ी गाने लगी :
“जसोदाँ के दो-दो लाल
बलभादर-गिरधारी"
मुरकियों वाले पूरन को मजा आ गया। वह अपनी तहमद सम्हालते हुए बोला :
"ए कुड़िए! भजन नईं वो...देखो जालिम है कितना जमाना'..." यह कहते हुए अपनी मोटी तोंद, पानी की मशक की तरह भदभदी फूली लिए टीन की कुर्सी पर आकर घुटनों तक तहमद चढ़ाए, कान कुरेदने लगा।
'कड़ी' के पेट में आरियाँ चल रही थीं।
"पेले कुछ बचा-खुचा बासी दे-दे बाबू! फेर जो तू केगा, गा दूंगी।"
"इक रोटी है कुड़िए! साग तो खतम हो गई।"
छोटे सरदार ने कुड़ी के फैले हाथों पर चने-मिली आटे की पीलिया रोटी झिला दी। पूरन ने रात का बासी थोड़ा-सा चावल और उड़द की दाल मँगवा दी। बच्चा अपनी हथेलियों से कागज पर का चावल और दाल मुँह में ठूसता जा रहा था और कुड़ी रोटी के कौर निगल रही थी। भूख की लाल आँच की लहकती भट्ठी में बित्ती-सी रोटी की क्या बिसात! भुरभुराकर रह गई। दो अंगुली की चुटकी से, बच्चे के द्वारा गिराया हुआ जमीन पर का एक-एक कण वह वैसे ही बीन गई जैसे कि मुर्गी। कागज पर दी गई दाल और बच्चे की सनी हुई अंगुलियाँ भी एक-एक करके चाट गई। मोहन ने टंकी का नल खोल दिया। उसने ओख से खुद पानी पिया और बच्चे को पिलाया। लुगड़े के पल्लू से मुँह पोंछ उसी दूध वाली ऊँची भट्ठी के पास वैसे ही घाघरे का घेर बनाकर बैठ गई।
कुड़ी इधर बहुत कम आती है, और फिर उसके दूसरे डेरे वाले भी पहाड़गंज, करोलबाग ही ज्यादातर रहते हैं। कभी भूले-भटके खैबरपास निकल गए या नई दिल्ली की तरफ आ गए। सही बात तो यह कि नई दिल्ली में आते वैसे भी उसे डर लगता है। जब वो अपने जिले से आई थी, "तब भीख थोड़े ही माँगती थी! अरे, बादाम, अखरोट, चिलगोजे, कभी शहद, कभी क्या बेचा करती थी। पर यह सब तो पुरानी बात हो गई, दो बरस पेले की। तब ये लौंडा थोड़े ही थानासमिटे उस बाबू का, जो घर में बुला के सौदा लेना तो दूर और ये...
"फिर आज तो सच्ची बात यह है कि नई दिल्ली की इन 'बीबी जी' से तो वे चाँदनी चौक, करोलबाग, फतेहपुरी की 'बेण जी' और 'बहूजी' में ज्यादा दया-माया होती है। बीबीजियाँ खुद एक रुपया गालों पर पोत लेंगी, पर देने के नाम कानी कौड़ी भी नहीं। फिर भला क्यों ऐसे ही कोई अपने पैर दुखाए? और पुलिस का जमादार बीड़ी-पान की धौंस-की-धौंस दे और ऊपर से डंडा भी पीठ पर। ना बाबू, ऐसे किसी का चमड़ा फालतू नहीं। फिर भी घमते-फिरते 'बंगाली मारकिट' हुआ आ गए तो फिर इस मंडी में भी 'बचा-खुचा' माँगने आ जाते हैं।"
कुड़ी ने देखा कि उसे घेरकर बहुत-से लोग खड़े हुए उसके गाने का रास्ता देख रहे हैं। तभी सैलून वाले उस पिचके गाल के नाई ने, जो कि बेंच पर एक टाँग उठाए खड़ा था, पूछा :
"क्या नाम है तेरा?"
कुड़ी ने पीठ और मुँह घुमाकर पूछने वाले की ओर देखा। सैलून वाले नाई के ठिठुरे चेहरे की लंबी हड्डियों में हलकी लाली आ गई।
भीड़ हँस पड़ी। छोटा सरदार, जो खाने के बाद धूप खा चुका था और जिसके बदन में अब चींटियाँ रेंग रही थीं, अपनी कमीज के अंदर खुजलाते हुए पूछ उठा :
“ए कुड़ी! कहाँ रहती है?"
कुड़ी ने अपने कमसिन दाता की ओर देखा। पूरन होटल वाला अपने पेट को भी हँसाता हुआ बोला
"सानूँ की करना ए सरदाराऽऽ!"
चाय का एजेंट, जो अभी-अभी अपनी दुकान खोलकर आया था, इस गुलगपाड़े में शामिल हो गया और अपने चश्मे को पीछे की ओर ढकेलते हुए बोला :
"क्यों सरदार जी! शादी करोगे? बीवी की बीवी और मुनाफे में बच्चा।"
भीड़ को इतनी देर बाद मजा आया था। गाने में शायद ऐसा न आता। कोई किसी के कंधे पर हँसते हुए हाथ फटकार रहा था तो कोई दोनों हाथ ऊपर किए :
"खी-खी-खी-खी-ई"
"खो-खो-खो-खो
"हे एं आँ-हे एं आँ-हे एं आँ"
छोटा सरदार लाल सुर्ख हो गया। कान जलने लगे। हँसी के बीच कोई आवाज बनाते किसी की पीठ की आड़ लेकर चिल्लाया,
"ओ ए सरदार! तेरे बाप दे वी कम्म आ जास्सी।"
और अब लोग घुटनों पर झुक-झुककर हँस रहे थे,
पेट पकड़-पकड़कर हँस रहे थे,
पैर पटक-पटककर हँस रहे थे,
और घूम-घूमकर हँस रहे थे,
कमसिन छोटा सरदार, भीड़ को भौचक होकर देख रहा था। कुड़ी, भीड़ द्वारा प्रस्तावित 'पति' को देख रही थी और कुड़ी का बच्चा, हँसी के इस रेले में माँ को देख-देखकर रो रहा था।
छुटभैया सेठ का मंजारी आँखों वाला लौंडा बोला :
"ए सरदार! बच्चे को गोद में ले लो ना, मचल गया है।"
अब छोटा सरदार बेंच के ऊपर खड़ा होकर गालियाँ देने पर आ गया था।
"ओ चुप वी कर पुत्तर! हुन गाना नई उ सुनना?"
पूरन होटल वाला बिगड़कर बोला, क्योंकि लोग उसके गाने का प्रोग्राम बिगाड़े दे रहे थे। भीड़ खामोश हो गई। किसी ने मुर्गा बुला दिया :
"कु कु डु क्कूँ!"
चाय वाले ने छेड़ते हुए कहा :
“ए पूरन! सरदार झेंपता है। तुम्हीं पूछ लो किसका बेटा है?"
भीड़ फिर से हँसने के लिए अभी कमीजों के बटन सम्हाल ही रही थी, नीचे खिसके पाजामे पेट पर चढ़ा ही रही थी कि कुड़ी झटका खाकर उठी। वह एड़ियों पर ऐंठ गई, चोली कस उठी, रानो के कटाव खिंच गए और पिंडलियों में जमे दही से थर बन गए।
"ऐ बाबू! बहुत बाप वाला न बन, समझे। अपनी माँ से पूछना कि तू किसका बेटा है? नाराज न होना ...गरीबों के बेटों का बाप नहीं होता बाबू! वे माँ के ही बेटे होते हैं।"
और कुड़ी का पिंडलियों तक का घने घेर का घाघरा हिलता हुआ चला जा रहा था।