किर्झाली (रूसी कहानी) : अलेक्सान्द्र पूश्किन
Kirjhali (Russian Story) : Alexander Pushkin
किर्झाली जन्म से बुल्गारियन था। तुर्की भाषा में किर्झाली का अर्थ होता है योद्धा, अतीव साहसी। उसका वास्तविक नाम मैं नहीं जानता।
अपने डाकों से किर्झाली ने पूरे मल्दाविया में आतंक फैला रखा था। उसके बारे में थोड़ी-सी कल्पना देने के लिए उसकी एक विजय का ज़िक्र करूँगा। एक वार रात को उसने अल्बानिया के मिखाइलाकी के साथ मिलकर बल्गारिया के एक गाँव पर हमला बोल दिया। उन्होंने दोनों सिरों से उसमें आग लगा दी और एक के बाद एक झोंपड़े में गये। किर्झाली मार डालता और मिखाइलाकी माल बटोरता। दोनों चिल्ला रहे थे, “किर्झाली! किर्झाली!” पूरा गाँव इधर-उधर भागने लगा। जब अलेक्सान्द्र इप्सिलांती1 ने खुल्लमखुल्ला बगावत का ऐलान कर दिया और सैन्य जुटाना प्रारम्भ कर दिया, तो किर्झाली उसके पास अपने कुछ पुराने साथियों को लेकर पहुँचा । एतेरी2 का वास्तविक उद्देश्य तो वे ठीक से नहीं जानते थे, मगर उनके लिए युद्ध एक मौक़ा था तुर्की से बदला लेते हुए मालामाल होने का और शायद मल्दावियों से भी, और यह उन्हें साफ़ नज़र आ रहा था।
।. अलक्सान्द्र इप्सिलांती-ग्रीक के स्वाधीनता युद्ध का एक नेता।
2. एतेरी-ग्रीस का एक भूमिगत गुट, जिसका उद्देश्य तुर्की दासता के ख़िलाफ़ संघर्ष करना था।
अलेक्सान्द्र इप्सिलांती स्वयं तो बहुत बहादुर था, मगर उस भूमिका के लिए जो उसने इतने जोश और इतनी असावधानी से ग्रहण कर ली थी अत्यावश्यक गुण उसमें नहीं थे। उसे उन लोगों से सामंजस्य बनाये रखना नहीं आता था, जिनका नेतृत्व वह कर रहा था। उनके दिलों में उसके लिए न तो आदर था, न ही विश्वास। दुर्भाग्यपूर्ण पराजय के पश्चात् जिसमें अनेक ग्रीक युवक मारे गये, मोर्दाकी ने उसे अपना पद छोड़ने की सलाह दी और स्वयं उसका स्थान ग्रहण कर लिया। इप्सिलांती घोड़ा दौड़ाता हुआ ऑस्ट्रिया की सीमाओं की ओर गया ओर वहाँ से उसने लोगों को अवज्ञाकारी, कायर और नालायक़ कहते हुए गालियाँ दीं। इन कायरों और नालायक़ों का एक बड़ा अंश सेकू के मठों की दीवारों में या प्रूत के किनारों पर स्वयं से दस गुना अधिक शक्तिशाली शत्रु का वदहवासी से मुक़ाबला करते हुए शहीद हो गया।
किर्झाली जॉर्ज कन्ताकुजिन1 के दस्ते में था, जिसके बारे में वही सब क॒छ दोहराया जा सकता है, जो इप्सिलांती के वारे में कहा गया है। स्कुल्याना के युद्ध से एक दिन पूर्व कन्ताकुजिन ने रूसी कप्तान से हमारी कारंटीन में आने की आज्ञा माँगी। फ़ौजी दस्ता वगैर नेतृत्व के रह गया, मगर किर्झाली, साफ्योनोस, कन्तागोनी इत्यादि को किसी सरदार की आवश्यकता ही नहीं थी।
शायद स्कुल्याना के युद्ध की मर्मस्पर्शी हक़ीक़त का वर्णन किसी ने भी नहीं किया है। कल्पना कीजिए युद्ध की कला से अनभिज्ञ, पचास हज़ार तुर्की घुड़सवारों को देखते ही पीछे हटनेवाले सात सौ अर्नाऊत, अल्बानियाई, ग्रीक, वुल्गारियाई और अन्य अनेकों की। यह दस्ता प्रूत के किनारों पर सिमट गया और उसने अपने सामने रख लीं यास्सा के राजा के आँगन में मिली दो तोपें, जिनसे सालगिरह के अवसर पर आयोजित भोजों के दौरान गोले दागे जाते थे। तुर्क तो हथगोले फेंक कर खुश ही होते, मगर रूसी अधिकारियों की इज़ाजत के बगैर ऐसा कर नहीं सकते थे : हथगोला निश्चित ही हमारे किनारे पर गिरता। कारंटीन के कप्तान (अब स्वर्गवासी) चालीस वर्षों से फ़ौज में थे, उन्होंने कभी भी गोलियों की ऐसी आवाज़ न सुनी थी, मगर भगवान ने वह भी सुनवा दी। कई गोलियाँ तो सनसनाती हुई उसके कानों के निकट से गुज़र गयीं। बूढ़ा बहुत गुस्सा हो गया और उसने इसके लिए ओखोत्सकोये की पैदल टुकड़ी के मेजर को, जो उस समय कारंटीन में था, खूब ग़ालियाँ दीं। मेजर, क्या करे यह न जानते हुए नदी की ओर आया, जिसके पीछे तुर्क दस्तों का नायक सीना ताने घोड़े पर चला जा रहा था, और उसने उँगली उठाकर उसे धमकी दी। यह देखते ही नायकों ने घोड़ों को एड़ लगाई और भाग खड़े हुए, उनके पीछे-पीछे पूरी तुर्क टुकड़ी भी भागी। जिस मेजर ने उँगली से धमकाया था, उसका नाम था खोर्चेव्स्की1 मालूम नहीं, उसका क्या हुआ।
1. जॉर्ज कन्ताकुजिन-राजकुमार, ग्रीक बग़ावत के एक्र प्रसिद्ध योद्धा, पूश्किन के परिचित, किशिनेववासी ।
दूसरे दिन, मगर, तुर्को ने क्रान्तिकारियों पर हमला कर ही दिया । हथगोलों और तोपगोलों का उपयोग कर सकने में असमर्थ उन्होंने, अपनी आदत के विपरीत, हथियारों का प्रयोग करने का निश्चय किया। भयानक मारकाट मच गयी। खंजरों से मारा गया तुर्कों के पास भाले देखे गये जो अब तक उनके पास नहीं थे; ये भाले रूसी थे, पुराने कज़ाक योद्धा, जो तुर्की भाग गये थे उनके साथ खेत रहे। हमारे सम्राट की इजाज़त से क्रान्तिकारी प्रूत पार करके हमारे कारंटीन में छिप गये। वे नदी पार करने लगे। तुर्की किनारे पर कान्तागोनी और सफ्यानोस रह गये। किर्झाली, जो पहले दिन ज़ख़्मी हो गया था, कारंटीन में लेटा था। साफ्यानोस मारा गया। कानन्तागोन, जो बहुत मोटा था, पेट में भाले की चोट से घायल हो गया। उसने एक हाथ से तलवार उठाई, दूसरे से दुश्मन का भाला पकड़ लिया और उसे अपने शरीर के भीतर गहरे घुसा लिया और तलवार से अपने हत्यारे को मारकर उसके ही साथ धराशायी हो गया।
सब ख़त्म हो गया। तुर्कों की विजय हुई। मल्दाविया की सफ़ाई कर दी गयी। क़रीब छह सौ अल्बानियाई बेसराबिया लाये गये, यह न जानते हुए भी कि स्वयं को क्या खिलायें, वे रूस के प्रति कृतज्ञ ही बने रहे, जिसने उन्हें शरण दी थी। वे निठल्ली, मगर लक्ष्यहीन ज़िन्दगी बिता रहे थे। उन्हें अधतुर्की बेसराबिया के कॉफीख़ानों में, हुक़्क़े की नलियाँ गुड़गुड़ाते, छोटे-छोटे प्यालों से कॉफ़ी पीते देखा जा सकता था। उनके रंगबिरंगे कसीदा किये हुए जैकेट और नुकीले लाल जूते बदरंग हो चले थे, मगर फुन्देदार टोपी वैसी ही, तिरछी, कान को ढाँकती हुए पहनी जा रही थी, और चौड़े कमरबन्द से खंजर और पिस्तौलें वैसे ही झाँका करतीं। किसी को भी उनसे शिकायत नहीं थी। कोई सोच भी नहीं सकता था कि ये शान्तिप्रिय ग़रीब, मल्दाविया के नामी डकैत थे, ख़ौफ़नाक किर्झाली के साथी थे और वह भी इन्हीं के बीच मौजूद था।
यास्सा में राज कर रहे पाशा1 के कानों में इसकी भनक पड़ी और उसने शान्तिपूर्ण ढंग से बातचीत के ज़रिये रूसी अधिकारियों से माँग की कि डाकुओं को उसे सौंप दिया जाए।
1. पाशा-प्राचीन तुर्की एवं मिस्र में जनरलों और बड़े अफ़सरों को पाशा की उपाधि दी जाती थी।
पुलिस ने खोजबीन आरम्भ कर दी। पता चला कि किर्झाली सचमुच में किशिन्येव में है। उसे भगोड़े मठाधीश के घर में शाम को पकड़ा गया, जब वह अँधेरे में अपने सात साथियों के साथ भोजन कर रहा था।
किर्झाली पर पहरा बिठा दिया गया। उसने कुछ भी नहीं छिपाया और स्वीकार किया कि वह किर्झाली है। “मगर-जब से में प्रूत के इस पार आया हूँ, मैंने किसी के बाल को भी नहीं छुआ है, किसी बंजारे तक का अपमान नहीं किया हैं। तुर्को के लिए, मल्दावियों के लिए, वलाशों के लिए में बेशक़ डाकू हूँ, मगर रूसियों के लिए मैं मेहमान हूँ। जब साफ़ानोस, अपने पूरे हथगोले समाप्त करके हमारे पास कारंटीन में ज़ख़्मियों से बटन, कीलें, ज़ंजीरें और खंजरों की मूठें लेने आया-अन्तिम बारूद भरने के लिए, तो मैंने उसे बीस बेश्लिक दिये और मैं कफल्लक हो गया। ख़ुदा देख रहा है कि मैं, किर्झाली, हमेशा खैरात बाँटता रहा! तो अब रूसी मुझे मेरे दुश्मनों को क्यों सौंप रहे हैं?” इसके बाद किर्झाली खामोश हो गया और अपनी तक़दीर के फ़ैसले का इन्तज़ार करने लगा।
उसे कुछ ही देर इन्तज़ार करना पड़ा। शासकों ने, जो डाकुओं को रूमानी नज़रिये से देखने पर मजबूर नहीं थे और इस माँग को उचित मान रहे थे, किर्झाली को यास्सा भेजने का हुक्म दे दिया।
भले दिल और दिमाग़वाले एक आदमी ने, जो उस समय युवा, साधारण-सा अफ़सर था और अब महत्त्वपूर्ण पद पर है, उसके प्रस्थान का बड़ा सजीव वर्णन किया है।
जेलख़ाने के दरवाज़े पर डाकगाड़ी कारूत्सा खड़ी थी...शायद आप न जानते हों कि कारूत्सा कैसी होती है। यह एक कम ऊँचाईवाली, चटाई से ढँकी गाड़ी होती है, जिसमें अक्सर छह या आठ टट्टू जोते जाते थे। भेड़ की खाल की टोपी पहने मूँछोंवाला मल्दावियन उनमें से एक टट्टू पर बैठकर हर मिनट चिल्लाता और चाबुक़ लहराता, और उसके टट्टू तेज़ गति से बेतहाशा भागते। अगर उनमें से कोई एक पिछड़ने लगता, तो वह उसके भाग्य की परवाह किये बगैर, फूहड़ और नंगी गालियाँ देते हुए उसे गाड़ी से अलग करके रास्ते पर छोड़ देता। उसे विश्वास था कि वापसी में वह उसे स्तेपी की हरी-हरी घास पर आराम से चरते हुए वहीं पाएगा। अक्सर ऐसा होता कि एक स्टेशन से आठ टट्टुओं वाली गाड़ी पर सवार मुसाफ़िर दूसरे तक दो पर ही पहुँचता। यह हालत थी पन्द्रह साल पहले। अब रूसीकृत बेसराबिया में रूसी गाड़ी और रूसी-साज़ का इस्तेमाल किया जाता है।
ऐसी एक कारूत्सा खड़ी थी कारागार के द्वार पर 1821 के सितम्बर के अन्तिम दिनों में । जूते खटखटाते निठल्ले यहूदी, अपनी खूबसूरत मगर फटी-पुरानी वेशभूषा में अल्बानियाई, काली आँखोंवाले बच्चों को हाथों में थामे सुदृढ़ मल्दावियाई, कारूत्सा के चारों ओर खड़े हो गये। आदमी चुप्पी साधे थे, औरतें तैश में आकर किसी बात की प्रतीक्षा में थीं।
द्वार खुले और कुछ पुलिस अफ़सर बाहर आये; उनके पीछे ज़ंजीरों से जकड़े किर्झाली को लिए दो सिपाही निकले।
वह तीस वर्ष का प्रतीत हो रहा था। साँवले चेहरे पर सीधे और गम्भीर नाक नक़्श थे। वह था ऊँचे क़द का, चौड़े कन्धोंवाला और उसमें असाधारण शारीरिक शक्ति दिखाई दे रही थी। रंगबिरंगी टेढ़ी पगड़ी उसके सिर को ढाँके थी, चौड़ा पट्टा पतली कमर को जकड़े था; नीले रंग के मोटे कपड़े का दोलिमान (चोगा), घुटनों से ऊपर लटकती कुर्ते की प्लेटें और खूबसूरत जूते उसकी वेशभूषा का अंग थे। वह शान्त एवं स्वाभिमानी दिखाई दे रहा था।
कर्मचारियों में से एक, धारियोंवाला लम्बा कोट पहने लाल मुँहवाले बूढ़े ने, जिस पर तीन बटन लटक रहे थे, चाँदी की ऐनक को उस गाँठ पर दबाया, जो कभी उसकी नाक थी और काग़ज़ खोलकर मल्दावियन भाषा में अनुनासिक सुर में पढ़ना आरम्भ किया। वह बार-बार घमंड से ज़ंजीरों में जकड़े किर्झाली की ओर देख रहा था, जिससे, ज़ाहिर था कि यह आदेश मुख़ातिब था। किर्झाली ध्यान से उसे सुन रहा था। कर्मचारी ने पढ़ना समाप्त किया, काग़ज़ को तह कर दिया, भयानक आवाज़ में लोगों पर चिल्लाया, उन्हें रास्ता छोड़ने का आदेश दिया और कारूत्सा को ले जाने का हुक्म दिया। तब किर्झाली ने उससे मुख़ातिब होकर मल्दावियन भाषा में कुछ शब्द कहे; उसकी आवाज़ काँप रही थी, चेहरे के भाव बदल गये; वह रो पड़ा और अपनी ज़ंजीरों को झनझनाते हुए पुलिस कर्मचारी के पैरों पर गिर पड़ा। पुलिस कर्मचारी घबराकर उछला; सिपाहियों ने किर्झाली को उठाना चाहा, मगर वह स्वयं ही उठा, अपनी ज़ंजीरों का उठाया, कारूत्सा की ओर बढ़ा और चिल्लाया, “गायदा।”1 सन्तरी उसकी बग़ल में बैठा, मल्दावियन ने चाबुक़ लहराया और कारूत्सा चल पड़ी।
1. गायदा-तुर्कों के विरुद्ध बगावत करनेवाले क्रान्तिकारियों द्वारा प्रयुक्त सम्बोधन | ऐसे क्रान्तिकारियों को 'गायदुक' कहा जाता था।
“किर्झाली ने आपसे क्या कहा?” युवा अफ़सर ने पुलिस कर्मचारी से पूछा।
“उसने (देखिए...) मुझसे विनती की,” पुलिसवाले ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, “कि मैं उसकी बीवी और बच्चे का ख़याल रखूँ, जो किलिया से कुछ दूर एक वल्गारियन गाँव में रहते हैं, वह डरता है कि उसके कारण उन्हें नुक़सान न उठाना पड़े। जनता पागल है।”
युवा अफ़सर की कहानी ने मुझ पर गहरा प्रभाव डाला। मुझे बेचारे किर्झाली पर दया आयी। काफ़ी समय तक उसकी क़िस्मत के बारे में पता न चला।
कुछ वर्षों बाद मैं उस युवा अफ़सर से मिला। हम अतीत के बारे में बातें करने लगे।
“और आपका दोस्त किर्झाली?” मैंने पूछा, “क्या आप जानते हैं कि उसके साथ क्या हुआ?”
“कैसे नहीं मालूम!” उसने जवाब दिया और मुझे यह कहानी सुनाई :
“किर्झाली को, यास्सा लाकर, पाशा के सामने पेश किया गया, जिसने उसे मृत्यु दंड दिया। इस सज़ा को किसी त्यौहार तक के लिए टाल दिया गया। फ़िलहाल उसे कारागार में बन्द कर दिया गया।”
बन्दी पर पहरा देते थे सात तुर्क (सीधे-सादे लोग और दिल से वैसे ही डाकू थे, जैसा किर्झाली था), वे उसकी बड़ी इज़्ज़त करते और लालायित होकर, जैसा कि अक्सर पूरब में होता है, उसकी विचित्र कहानियाँ सुना करते।
क़ैदी और प्रहरियों के बीच निकट सम्बन्ध बन गये। एक बार किर्झाली ने उनसे कहा, “भाइयो! मेरा वक़्त नज़दीक है। अपने नसीब से कोई नहीं भाग सकता। जल्द ही मैं आपसे जुदा हो जाऊँगा। मैं यादगार के तौर पर आपके लिए कुछ छोड़ जाना चाहता हूँ।”
तुर्कों के कान खड़े हो गये।
“भाइयो,” किर्झाली कहता रहा, “तीन साल पहले, जब मैं मरहूम मिखाइलाकी के साथ डाके डाला करता था, हमने यास्सा के नज़दीक स्तेपी में गाल्बिनो1 से भरी हँडिया गाड़ दी थी। ज़ाहिर है कि न मैं, न वो इसे पा सकेंगे। ऐसा ही हो : उसे आप ले लें और आपस में बाँट लें।”
1. गाल्बिनो-यहाँ स्वर्ण मुद्राओं से तात्पर्य है।
तुर्क तो मानों पागल हो गये। वे बहस करने लगे कि सही जगह ढूँढेंगे कैसे ? सोचते रहे, सोचते रहे और यह फ़ैसला किया कि ख़ुद किर्झाली उन्हें वहाँ ले जाए।
रात हुई । तुर्कों ने क़ैदी के पैरों से बेड़ियाँ हटाईं, उसके हाथ रस्सी से बाँधे और उसके साथ शहर से बाहर स्तेपी की ओर चल पड़े ।
किर्झाली उन्हें ले चला, एक ही दिशा में, एक टीले से दूसरे टीले की ओर। वे बड़ी देर तक चलते रहे। आखिरकार किर्झाली एक चौड़े पत्थर के पास रुक गया, दक्षिण की ओर बीस क़दम नापे और पैरों से ठकठकाते हुए बोला, “यहाँ।”
तुर्की दो भागों में बँट गये। चार ने अपने-अपने खंजर निकाले और खोदना शुरू किया। तीन पहरा देते रहे । किर्झली पत्थर पर बैठ गया और उनके काम को देखता रहा।
“क्या? कितनी देर है?” उसने पूछा, “पहुँचे कि नहीं?”
“अभी नहीं,” तुर्क बोले और इतने जोश से काम करते रहे कि उनके शरीर से पसीने की धाराएँ बह निकलीं।
किर्झाली बेचैन होने लगा।
“कैसे लोग हैं,” वह बोला, “ज़मीन भी ठीक से खोदना नहीं आता। मैं होता तो दो मिनट में यह काम कर देता। बच्चो! मेरे हाथ खोल दो और मुझे खंजर दो।”
तुर्क सोच में पड़ गये और आपस में सलाह-मशविरा करने लगे।
“और क्या? (उन्होंने निर्णय किया) उसके हाथ खोल देते हैं, उसे खंजर दे देते हैं। क्या होगा? वह अकेला है, हम हैं सात ।” और तुर्कों ने उसके हाथ खोलकर उसे खंजर दे दिया।
अब किर्झाली था आज़ाद और हथियारबन्द। वह कुछ तो महसूस कर ही रहा होगा ।...उसने फुर्ती से खोदना आरम्भ किया, सन्तरी उसकी मदद करने लगे... अचानक उसने उनमें से एक को खंजर घोंप दिया और उसके सीने में खंजर की मूठ छोड़कर उसके कमरबन्द में से दो पिस्तौल खींच लिए।
बाक़ी के छहों, किर्झाली को दो-दो पिस्तौलों से लैस देखकर भाग खड़े हुए।
आजकल किर्झाली यास्सा के निकट ही डाके डालता है। हाल ही में उसने सम्राट को पाँच हज़ार लेव1 भेजने की माँग करते हुए लिखा, और धमकी दी कि पैसा न पाने की सूरत में वह यास्सा को जलाकर राख कर देगा और सीधे सम्राट के पास पहुँच जाएगा। उसे पाँच हज़ार लेव भेज दिये गये।
1. लेव-स्थानीय मुद्रा ।
कैसे हो किर्झाली ?
परिशिष्ट
लगभग सन् 1834 में लिखी गयी। यह कहानी प्रकाशित भी उसी वर्ष की गयी। कहानी की विषय वस्तु तुर्की आधिपत्य के विरुद्ध सन् 1821 में हुए ग्रीक विद्रोह पर आधारित है। पूश्किन इस घटना से बहुत विचलित हो गये थे। उन्होंने ग्रीक के भूमिगत गुटों पर कविता लिखनी चाही, मगर न लिख पाये। किर्झाली के व्यक्तित्व से, जिसने इस विद्रोह में भाग लिया था, पूश्किन बड़े प्रभावित हुए थे। किर्झाली के बारे में जानकारी पूश्किन को दी जनरल इंज़ोव के कार्यालय के अफ़सर एम.ई. लेक्स ने।
सन् 820 में पूश्किन ने किर्झाली पर कविता लिखने का निर्णय लिया, मगर उसे पूरा न किया । पीटर्सबुर्ग में सन् 1834 में दुबारा लेक्स से हुई भेंट ने पूश्किन को कथा-लेखन के लिए आवश्यक सामग्री प्रदान की ।
(मूल रूसी भाषा से अनुवाद : ए. चारुमति रामदास)