खुशबू चोरी का मुकदमा (बांग्ला कहानी) : शिवराम चक्रवर्ती
Khushbu Chori Ka Mukadma (Bangla Story) : Shibram Chakraborty
मैंने कभी हावड़ा पूल ही पार नहीं किया है ऐसा ही सभी को ज्ञात है। वही 'मैं' एक बार समुद्र पार जापान गया था, ऐसा कहने पर शायद कोई भी विश्वास नहीं करेगा। जापान जा कर मुझे विश्व भ्रमण का स्वाद तथा सुख, दोनों ही मिला था, उसके बाद फिर कभी हावड़ा पूल के उस पार नहीं गया।
जब मैं जापान पहुंचा था तब बिलकुल दिवाला था। भाग्यवश वहां एक बिहारी सज्जन से मेरी मुलाकात हो गयी। अपने बिज़नेस के चक्कर में ही वे वहां गए थे। मेरे पास उन्होंने बंगला सीखने की इच्छा जाहिर की, बदले में मुझे हिंदी सिखाने का शर्त न मंजूर करके कुछ वेतन देना चाहा। मुझे दुगुना फायदा होने लगा। रुपये के साथ-साथ हिंदी भी आने लगी, बिलकुल मुफ्त। उन्हें बांग्ला सिखाते हुए मुझे हिंदी यों ही आने लगी। उन्हीं बिहारी सज्जन के घर रहता था और पास ही एक जापानी होटल में खाना खाता था।
होटल वाला बंगालियों से बहुत चिढ़ता था। सुना है इस के पहले एक बंगाली उसका आसमान चुरा कर भगा था। आसमान चोरी? जी हाँ, आसमान चोरी। सुनकर आप आसमान से गिर पड़े, पर बात सच है।
जापान में पहले नियम था - अब उस बंगाली के आसमान चोरी के बाद से वह नियम बदल गया है। पहले वहां जमीन के साथ साथ उसके ऊपर के आसमान का भी निश्चित मूल्य होता था। किसी व्यक्ति के जमीन के साथ उसके ऊपर के आसमान का मालिक वही होता था। जमीन की तरह वह आसमान को भी वह इच्छानुसार दाम लगा कर बेच सकता था। मान लीजिये, कोई चार कट्ठा बाई दो कट्ठा प्लेट के ऊपर एक मंजिला मकान बनाना चाहता है, उसकी ऊंचाई होगी दस हाथ। उसी सीमा तथा दस हाथ ऊंचाई तक आसमान खरीद कर उतने ही में मकान बनवाना होगा। जमीन के मालिक को बड़ा लाभ होता था। एक मंजिला मकान के लिए किसी को जमीन देने के बाद, ऊपर दूसरी मंजिल के लिए दूसरे को, तीसरी मंजिल के लिए तीसरे को। इस प्रकार वह एक ही चार कट्टा जमीन को वह बार बार कई व्यक्तियों को बेच सकता था। जमींदारी की यही थी पराकाष्ठा।
मकान मालिकों को बड़ा कष्ट होता था। मान लीजिये आप एक मन पसंद मकान बनवाकर सुख से दिन व्यतीत कर रहे हैं। अचानक कोई दूसरा व्यक्ति आपके मकान के ऊपर आसमान खरीदकर दूसरा मंजिल खड़ा करने लगा। शुरू हो गया होहल्ला। छत पिटने के कठोर शब्द से कानों के परदे फटने लगे। सीमेंट बालू से सराबोर रस-सिक्त अर्थात चूना -सिक्त होकर आप ही चूना पोतने लगे अपने ही गालों पर। बुढ़ापे में आप मकान बनाकर चैन से रहूँगा, वहां न जाने कहां से एक झंझट उठ खड़ी हुई।
उस बंगाली ने उस होटल वाले से कुछ ज़मीन खरीदकर एक मंज़िला मकान खड़ा किया था। जमीन का पूरा-पूरा उपयोग ही उसने किया था। एक इंच भी जगह नहीं छोड़ी थी, केवल आकाश की ओर एक हाथ जगह छोड़ दी थी।
कुछ दिनों के बाद उस होटलवाले ने उसके ऊपर का हिस्सा दूसरे मंजिले के लिए किसी दूसरे को बेच दिया। जब वह व्यक्ति ईंट, सीमेंट, बालू लगाकर दूसरा मंजिल खड़ा करवाने को तैयार हुआ तब उस बंगाली सज्जन ने कहा - 'भाई, मकान बनाना हो तो जरूर बनाओ, पर आसमान की ओर एक हाथ तक मेरा अधिकार है, उसे छोड़ कर ही बनाना। आसमान का कुछ भाग छोड़ कर उसने मकान बनवाया था। वह जानता था, जो भी हो, शुन्य धरती पर नींव डाल कर मकान बनाना हवाई किल्ला बनाना है।
होटलवाले को जब यह ज्ञात हुआ तब वह अत्यधिक क्रोधित हुआ। लेकिन अंत में वह बंगाली सज्जन ही जीत गया। उसके मकान के ऊपर दूसरा मंजिल नहीं बन पाया। आकाश की जमीन शुन्य होने पर भी जब उचित मूल्य देकर खरीदी बेची जा सकती है, तब वह पड़ी भी रहे तो उसका मतलब यह नहीं कि ऊपर से हमारा अधिकार हट गया है। तब से होटल वाला बंगालियों से बेहद चिढ़ता था। मैं उसी होटल में खाना खाने जाता था।
बहुत बड़ा नामी होटल था। चायनीज़ कुक खाना बनाते थे। दाम भी था वैसा ही । अधिकतर नामजादे लोग ही उस होटल में खाना खाने आते थे। मेरे दिलवालेपन की हालत सोच कर मैं इच्छा होते हुए भी अधिक कुछ खाने का सहस नहीं करता था। मैं केवल एक प्लेट राइस लेकर रसोई के बगल में बैठ जाता था। वहीँ बहुत कुछ नहीं, सब कुछ मिल जाता था। वहां से खुशबू आती थी, फ्राइड-फिश, चिकन-करी, चॉप, लुये और भी न जाने क्या क्या। न कभी देखा था, न कभी चखा ही था। मैं चावल के साथ खुशबू मिला कर बड़े चाव से खाता था, फिर अंत में पानी के साथ मिलाकर मिक्सचर बना कर पी जाता था। बड़ी तृप्ति होती थी। पूरे का पूरा चावल कैसे कब साफ़ हो जाता था, पता ही नहीं चलता था।
मेरा नित्यप्रतिका यही कार्यक्रम था।
जो बॉय सर्वे करता था उसने एक दिन मुझसे पूछा - खाली चावल खाने से तुम्हारा पेट भरता है?
मैंने कहा - 'चावल खाकर पेट क्यों नहीं भरेगा?'
'नहीं, नहीं, मेरा मतलब बिना कुछ लिए, सूखा चावल खाने से... ?'
'सूखा कहां खाता हूँ? तुम लोगों के रसोई से इतनी अच्छी-अच्छी चीजों की सुगंध आ जाती है, उसे मिलाकर रस बनाकर खा जाता हूँ। खाने में भी आनंद आता है, और पेट भी भर जाता है। लेकिन दाम कुछ नहीं लगता। बिलकुल ही फ्री ऑफ चार्ज।'
'फिर भी...।'
'फिर भी क्या? जानते हो मेरा जेब हिरोशिमा का मैदान है।'
पता नहीं, कैसे बात-बात में मेरी यह बात होटल वाले ने जान ली।
वह तो सुनते ही गुस्से से लाल हो गया। दूसरे ही दिन वह मुझे बुलाकर बहुत डांटने लगा। इतने दिनों तक मुफ्त में मैंने उसकी सुगंध खाई थी, उसका दाम देना होगा। उसने कहा - सुगंध चोरी के लिए पांच सौ रुपये देने होंगे। मुझे बेचने पर भी यह दाम नहीं चुकेगा, मैंने साफ़-साफ़ बतला दिया। अदालत में मुकदमा उठ खड़ा हुआ। तीन महीने तक मैंने उसकी जो विभिन्न प्रकार के व्यंजनों की खुशबू खाई थी, उसका दाम देना होगा।
दोनों तरफ की बातें सुनकर हाकिम ने कहा, 'उसकी फ़रियाद बिलकुल ठीक है। खुशबू उसके रसोई से निकल कर गयी है। इसलिए उसके ऊपर से उसका अधिकार भी उड़ गया, ऐसी बात नहीं। खाद्य सामग्रियों के सदृश्य उसकी खुशबू का राइट भी उसके मालिक के द्वारा ही संरक्षित रहता है। मान लीजिये, किसी का कुत्ता अगर जंजीर तोड़कर भाग जाए तो फिर क्या उसपर से उसके मालिक का अधिकार चला जाता है?'
हाकिम की राय सुनकर होटलवाले की ख़ुशी का ठिकाना नहीं। इस कारण उसके पांच सौ रुपये की मांग मंजूर की जाती है, कहकर उसने मेरी ओर देख कर पूछा - 'कितने रुपये है तुम्हारे पास?'
'केवल एक ही रूपया।'
'क्या यह बजता है? तो फिर उसे ठन्न-ठन्न कर गिन-गिन कर पांच सौ बार बजाओ, ज्यादा नहीं।'
दोनों जेब ढूंढ़ कर एक रूपया मिला। मैंने बजाना शुरू किया। एक ही रूपया, एक नहीं अनेक। सौ नहीं पांच सौ।
पांच सौ बार बजाने के बाद हाकिम ने कहा – ‘बस करो। हो गया। ‘कहकर उन्होंने होटलवाले की ओर दॄष्टि डाली। फिर बोले – ‘तुम्हारे खुशबू का दाम रुपये की इस ठनकार से चुक गया।‘ अदालत के राय की यही थी पराकाष्ठा।
खुशबू चोरी की उसकी शिकायत का फैसला सुनकर मेरी नाक ने खुशबू का दाम उसकी कानो को सौंप कर जापान त्याग दिया, मेरे विश्व भ्रमण का वही प्रारम्भ और अंत था।
उसके बाद, फिर कभी हावड़ा पुल के उस पार नहीं गये।
(अनुवाद : डॉ. शोभा घोष)