खुले केश की छाया : ओड़िआ/ओड़िशा की लोक-कथा
Khule Kesh Ki Chhaya : Lok-Katha (Oriya/Odisha)
एक लड़की छोटी थी। बड़ी हुई। बहुत चतुर। घर में बूढ़ा बाप, माँ नहीं। लड़की पानी लाने रोज नदी पर जाती। उस दिन चिलचिलाती धूप। लड़की ने घड़ा पानी में डुबोया। पानी भरकर कदम बढ़ा चली। दाहिने हाथ में पानी भरा लोटा। देखा एक लड़का गबरू जवान, सुंदर चला आ रहा है। कुछ बतियाने को मन विचलित, पर जबान न खुली। पता नहीं किस देश का होगा? वह भी युवती को देख बतियाने को तरस उठा, मानो रूप को पीने लगा।
युवती को बढ़ते देख पूछा, “रात में रहने के लिए गाँव में जगह मिलेगी?”
युवती ने कह दिया—
“खुले केश की छाया,
शीतल छावनी घर।
शीत छोड़ेगा आग।
यह जहाँ देखो, वहीं जगह मिलेगी।” कहकर वह चली गई।
यह सुनकर युवक का सिर चकरा गया। वह सिर पर हाथ रख बैठ गया। बैठे-बैठे साँझ हो गई। कहाँ, कैसे जाऊँ?
इतने में एक बूढ़ा आ पहुँचा।
“अरे, रात हो रही, यहाँ क्यों बैठे हो?”
युवक ने कहा—
“खुले केश की छाया,
शीतल छावनी घर,
शीत छोड़ेगा आग।”
इसका अर्थ न समझ, बैठा हूँ।
“यों रात भर बैठना नहीं, मुझे ठिकाने पर आज रहना है। कुछ समझता नहीं, वहाँ जाऊँ कैसे?”
बूढ़े ने कहा, “बाल खुले, छाया का अर्थ? खजूर का पेड़। औरत खुले बालों से खड़ी रहने की तरह, बाल बिखेरे खड़ा रहा खजूर। जिसके द्वार पर खजूर है, वहाँ चला जा।
“शीतल छावनी घर, जिसके घर के सामने सदा छाँव किए रहे, लता-फूल हों। यहाँ तमाल, मालती भरी छाया करें। ये विवाह वाली छावनी नहीं, जिसके द्वार ऐसे छावनी, वहाँ जाना।
“शीत न छोड़े आग—सिगड़ी की राख में ढपी आग हो। सुनार के घर सिगड़ी सदा जलती रहे। एक बेटी, पानी लाने रोज जाती है। उसने बुलाया होगा। तेरा भाग्य तेज है।”
जवान खोज-खोज जा पहुँचा दरवाजे पर। सुनार की बेटी प्रतीक्षा में थी। आदर से अंदर ले गई। बूढ़े सुनार ने आदर किया। कुछ दिन बाद उसका विवाह हो गया। दोनों सुख से रहने लगे।
(साभार : डॉ. शंकरलाल पुरोहित)