खूनी की गिरफ़्तारी (हिंदी कहानी) : गोपाल राम गहमरी

Khooni Ki Griftari (Hindi Story) : Gopalram Gahmari

1

लाला हंसराज से मेरी पहले-पहल जान-पहचान सन् 1924 ई० में हुई थी। उन दिनों विश्वविद्यालय की परीक्षा में पास होकर मैं अभी बाहर निकला ही था। रुपये-पैसे की कुछ कमी तो थी नहीं। पिताजी जो रुपया बैंक में जमा कर गए थे, उसके सूद से हिंदू होटल में शिष्ट शिक्षित मनुष्य की तरह रहकर भरण-पोषण का काम अच्छी तरह चल जाता था। किसी का कुछ देना-पावना नहीं था। इन सब झंझटों से दूर होकर भलेमानस की तरह अच्छी पोशाक, अच्छा खाना-पहनना सदा निर्विघ्न चला जाय, इसका प्रबंध मानो वे मेरे वास्ते अपने संचित धन से कर गए थे।

इसी कारण मेरे मन में था कि सदा क्वाँरा रहकर साहित्य-चर्चा में जीवन व्यतीत करूँगा। पहले युवावस्था में यही जोश भर रहा था कि एकाग्रचित्त होकर वाणीदेवी की आराधना करके हिन्दी-साहित्य में युगान्तर उपस्थित कर दूँगा। उस अवस्था में हमारे देश के नवयुवकों को अनेक बड़े-बड़े स्वप्न आया करते हैं, यद्यपि उन सपनों के टूटने में भी बहुत विलंब नहीं होता। किन्तु उन बातों को छोड़कर पहले मैं यही कहना चाहता हूँ कि लाला हंसराज से कैसे मेरा परिचय हुआ।

जो लोग भारत के सिंहद्वार बम्बई की अच्छी तरह सैर कर चुके हैं, उनमें भी बहुतों को नहीं मालूम होगा कि उस मुंबापुरी के केंद्र-स्थान में, नलबाज़ार और कुम्हारबाड़े की मोड़ पर, एक ऐसी विकट बस्ती है, जहाँ एक ओर व्यापार-कुशल मारवाड़ी और भाटियों का रहना होता है और पास ही खपरैल के घरों में मजदूर और रोज काम करके पेट भरनेवाले अन्य श्रेणी के लोग रहते हैं। वहीं दूसरी ओर भूरी आँखों और चंचल चोटीवाले चीन-देश-वासियों का निवास है। उस त्रिवेणी की संगमभूमि में एक ऐसे दरजे के आदमी भी रहते हैं, जिनको दिन में देखकर कोई नहीं कह सकता कि उनमें कुछ अस्वाभाविक या विशेष असाधारण प्रवृत्ति विराजमान है।

लेकिन संध्या हो जाने के बाद सूर्यदेव जब जगत् को तपाकर अपने अस्ताचल को पधार जाते हैं, तब उस मुहल्ले का आश्चर्यरूप से परिवर्तन होने लगता है। थोड़ी ही रात जाने पर वहाँ सब आसपास की दूकानें एकदम बन्द हो जाती हैं। चारों ओर सन्नाटा छा जाता है। सड़क पर दूर-दूर खंभों पर खड़े लैंप अपनी लाल जिह्वा लपलपाना छोड़ अपने नीचे अंधकार ही की वृद्धि किया करते हैं। उस समय वे लोग छोटी-छोटी सड़कों पर आवाजाही शुरू कर देते हैं। केवल दूर पर एक-आध पान-बीड़ी की दूकानें खुली रहती हैं।

उस अवसर पर वे लोग केवल चुपचाप छाया की तरह चलते-फिरते हैं। यदि कोई भूला-भटका, राह चलता उधर से आ निकलता है तो वह भी चुपचाप डर से जल्दी-जल्दी पाँव उठाता हुआ, शंकित भाव से, वहाँ का भयंकर रास्ता पार कर जाता है।

उस विकट मुहल्ले में किस तरह पहुँचकर मैं एक मेस का निवासी हो गया था, वह सब विस्तार से कहने लगूँ तो बड़ा पोथा हो जाएगा। संक्षेप में इतना ही कह देना बहुत होगा कि दिन में उस मुहल्ले को देखकर मेरे मन में कुछ भी संदेह या दुर्भावना नहीं हुई। मेस के दूसरे महल पर एक हवादार कमरा सस्ते भाड़े पर पाकर मैं एकदम सामान लिए हुए वहाँ पहुँच गया।

लेकिन जब पीछे मालूम हुआ कि उस मुहल्ले में माहवारी दो-तीन लाशें कटी और अंगभंग दशा में सड़क पर मिला करती हैं और कम-से-कम सप्ताह में एक बार लाल पगड़ीवाली पुलिस की दौड़ भी वहाँ जरूर आया करती है, तब मन कुछ विचलित हुआ, लेकिन मेसवालों के व्यवहार से ऐसी ममता हो गई थी कि वहाँ से डेरा-डंडा उठाकर दूसरी जगह जाने का विचार नहीं कर सका।

बात यों थी कि संध्या समय तो मैं अपने लिखने-पढ़ने के काम में ही लगा रहता था। सूरज डूबने के पीछे घर से बाहर निकलने का अवसर नहीं होने के कारण व्यक्तिगत रूप से आफत का शिकार होने की कभी आशंका ही नहीं हुई।

हमारे मेस के ऊपरी महल पर केवल पाँच कमरे थे। हरएक में एक-एक सज्जन रहते थे। उनमें से सब नौकरी करके जीवन बिताने वाले, अधिक उम्र के लोग थे। वे लोग हर शनिवार को घर जाते थे और सोमवार को लौटकर आफ़िस के काम में जुत जाते थे। वे लोग बहुत दिनों से उस में रहा करते थे। इन दिनों उनमें एक आदमी काम से छुट्टी पाकर घर चले गए थे। उन्हीं के कमरे पर मैंने अधिकार कर लिया था।

संध्या हो जाने पर बरंडे में ताश पीटने और चौसर खेलने की बैठक होती थी। उस समय हार-जीत और गोटी लाल के लिए वहाँ कभी गरमागरमी और चिल्लाहट भी मच जाती थी। उनमें गोविंद पाँडे एक पक्के खिलाड़ी थे। उनके प्रतिद्वंद्वी थे कल्लूमल।

कल्लूमल हार जाने पर बड़ी धींगाधींगी करते थे। उनसे लोगों को निबटने में नव बज जाता था। तब रसोइया महाराज आकर रोटी के तैयार होने की खबर देते थे। उसके बाद वहाँ का अड्डा तोड़कर सब लोग खाने बैठते, जिसकी समाप्ति करके सब लोग अपने-अपने कमरे में ही रहते थे। यही उस मेस की चर्या थी। सब लोग निश्चिंत होकर उसमें जीवन बिताते हैं, देखकर मैं भी उनमें मिल गया। मेस के नीचेवाले कमरे में मकानवाले महाशय निवास करते थे। वे मकान मालिक थे होमियोपैथी डॉक्टर, नाम था शुकदेवप्रसाद।

शुकदेवप्रसाद बड़े सरल स्वभाव के मिलनसार आदमी थे। उनके घर में लड़के-बच्चे नहीं थे। जान पड़ता है, उन्होंने ब्याह नहीं किया था। वे मेस में रहनेवालों के खाने-पीने और सुख-स्वच्छंदता के लिए सदा उद्योग करते रहते थे। उनके सुप्रबंध के कारण किसी को कुछ अभाव-अभियोग का अवसर नहीं आता था। मासिक भोजन और कमरे के किराये के लिए प्रतिमास तीस रुपया हर पहली तारीख को आगामी देकर ही लोग महीने भर के लिए निश्चिंत हो जाते थे।

उस मुहल्ले के गरीबों में डॉक्टर शुकदेवप्रसाद की बड़ी चलती थी। सबेरे और संध्या को उनके बैठक में रोगियों की बड़ी भीड़ होती थी। कोई रोग हो, किसी तरह का साधारण या असाधारण, नया या पुराना, सबको चार खुराक का एक आना लेकर दवा देते थे। इस कारण उनका नाम एकनिया बाबू सबमें प्रसिद्ध हो गया था। रोगियों के घर उनको देखने जाने के लिए तो उन्होंने एकदम इंकार करके नई डॉक्टरी पद्धति का प्रचलन किया था। जब कभी दबाव या विशेष अनुरोध पर किसी रोगी के यहाँ चले जाते तो उससे फीस नहीं लेटे थे। इस कारण मुहल्ले के अड़ोस-पड़ोस में उनकी बड़ी बड़ाई, बड़ी मर्यादा और बड़ी श्रद्धा लोगों में हुआ करती थी। मैं भी थोड़े ही दिनों में उनका एक आलापी मित्र हो गया।

दस बजे सब लोग खा-पीकर आफ़िस चले जाते थे। डेरे पर हमीं दो आदमी पड़े रहते थे। स्नान-भोजन बहुधा साथ ही हुआ करता था। उसके बाद दुपहरी भी गप लड़ाने, अखबार पढ़ने और इधर-उधर की आलोचना में कट जाती थी। डॉक्टर बड़े सात्विक, उपकारी और निरीह होने पर भी बड़ी बढ़िया-बढ़िया बातें कहा करते थे। दुनिया देखे हुए अनुभवी आदमी थे।

वे अभी चालीस वर्ष से अधिक के नहीं थे। किसी विश्वविद्यालय की कोई डिग्री भी उन्होंने हासिल नहीं की थी, लेकिन घर बैठे ही उन्होंने इतनी अभिज्ञता अर्जित कर ली थी कि उनकी बातें सुनने पर लोग दंग हो जाते थे।

लोगों का आश्चर्य और अपनी बड़ाई देख-सुनकर डॉक्टर कहा करते थे-“और तो मेरा कुछ काम नहीं है, लेकिन घर बैठकर ही दुनिया की सैर करना, यह मजा किताब में देखा, यही मेरा धंधा है। इसी से जो कुछ मालूम होता है, वह मैं करता हूँ। हमारी जो कुछ पूँजी है, वह सब इन्हीं पुस्तकों की है।“

उस मुहल्ले में दो महीना बिता चुकने पर एक दिन मैं कोई दस बजे के समय डॉक्टर साहब के घर बैठा ‘बम्बई-समाचार’ पढ़ रहा था। गोविंद पाँडे भोजन के बाद पान कचरते हुए आफ़िस चले गए थे। उनके बाद कल्लू बाबू बाहर निकले। वे भी दाँत के दर्द के लिए डॉक्टर से एक पुड़िया दवा लेकर अपने दफ्तर को चलते हुए। फिर बाकी दोनों ने बाहर होकर अपना-अपना रास्ता नापा। अब दिन भर के लिए मानो मेस खाली हो गया।

डॉक्टर के पास अभी दो-एक रोगी थे। वे भी दवा लेकर बारी-बारी से बाहर निकले। उनके चले जाने पर डॉक्टर ने चश्मा उतारकर धोती के छोर से साफ करते हुए पूछा-“अखबार में कुछ नई खबर है? हम लोगों के मुहल्ले की?”

मैं-“नयी खबर तो यही है कि इस मुहल्ले में पुलिस ने खानातलाशी ली है।“

डॉक्टर ने हँसकर कहा-“यह तो हमेशा का धंधा है। कहाँ, किसके घर में हुई है?”

मैं-“यहीं पासवाले छतीस नंबर के मकान में कल तीसरे पहर को। छम्मी मियाँ के घर की तलाशी हुई है।“

डॉक्टर-“अरे उसको तो हम जानते हैं! हमारे पास दवा लेने वह बहुत आया करता है। लिखा है तलाशी किस वास्ते हुई है?”

मैं-“कोकेन के वास्ते हुई है। देखिए न पढ़ लीजिए।“

डॉक्टर ने फिर चश्मा नाक पर चढ़ाकर हाथ बढ़ाया। मैंने तुरंत ‘बम्बई-समाचार’ दे दिया। वे आँख के पास ले जाकर पढ़ने लगे-“कल कुम्हारबाड़ा के छतीस नंबर A मकान में शेख छम्मी मियाँ के मकान में पुलिस ने घंटों तलाशी की है। उस घर में छम्मी नाम का एक शेख रहता था। लेकिन कोई फँसानेवाली चीज बरामद नहीं हुई है। तो भी पुलिस को यह विश्वास है कि इस मुहल्ले में कोकेन की कोई गुप्त आढ़त है, जहाँ से शहर में सर्वत्र कोकेन सप्लाई किया जाता है। कोई पक्के हाथ का चतुर असामी पुलिस की आँख में धूल झोंककर बहुत दिनों से यह गैरकानूनी काम कर रहा है। यह बड़े दुःख की बात है कि आजतक अपराधी–अपराधियों या उनके नेता—का पुलिस पता नहीं लगा सकी, न उनके गुप्त भंडार का ही कुछ ठिकाना मालूम हो सका।“

डॉक्टर कुछ चिंता करके कहने लगे—“बात बिलकुल सही है। हम भी इतना जरूर समझ रहे हैं कि अगल-बगल में कोकेन का कोई बड़ा अड्डा ज़रूर है, इसका मुझे कई बार इशारा मिला है। आप तो जानते ही हैं, हर तरह के लोग हमारे यहाँ दवा लेने आया करते हैं। और चाहे जो हो, लेकिन कोकेन खानेवाला आदमी डॉक्टर की आँखों से बच तो सकता नहीं।“

मैंने पूछा-“अच्छा डॉक्टर साहब ! इस मुहल्ले में इतनी खून-खराबी और मारकाट होने का कारण क्या है?”

डॉक्टर कहने लगे-“इसका कारण आपकी समझ में नहीं आता? यह तो सीधी सी बात है जो छिपकर गैरकानूनी काम करके कोई रोजगार चला रहा है, वह सदा डरता रहता है। उसके मन में हमेशा पकड़े जाने का भय लगा रहता है। अगर संयोग से कोई आदमी उसका गुप्त भेद जान ले तो ज़रूर वह गैरकानूनी कामवाला उसको जान से मार डालेगा। आप ही विचार कीजिए। मान लीजिए कि मैं ही अगर कोकेन बेचने का रोज़गार करता हूँ और आप उसका पता पा गए तो आपका बचा रहना मेरे लिए तो बड़ा खतरनाक है न? अगर आप पुलिस से यह बात खोल दें तो मेरे वास्ते तो जेल तैयार है! और साथ ही मेरे रोज़गार का खात्मा हो जायगा। लाखों का माल ज़ब्त होते देर न लगेगी! तब मैं ऐसा कैसे होने दूँगा?”

यह कहकर डॉक्टर हँसने लगे। मैंने कहा-“देखते हैं, आपको तो अपराधियों के भीतर का अच्छा अनुभव है।“

“हाँ, मैं इन लोगों की हरकत अच्छी तरह से पहचानता हूँ न !” कहकर डॉक्टर ने अपने कागज और रजिस्टर समेटना शुरू कर दिया। मैं भी उठकर वहाँ से चलने को हुआ, इसी समय एक आदमी वहाँ पहुँचा। वह तेईस-चौबीस बरस का रहा होगा। देखने में पढ़ा-लिखा भला आदमी जान पड़ा। शरीर सुडौल, गोरा बदन, चेहरा भी खूब साफ, मुखमंडल और चितवन से उसकी बुद्धिमानी प्रकट हो रही थी। ऐसा जान पड़ा कि इस समय संकट में पड़ गया है। कपड़े-लत्ते की ओर उसकी सावधानी नहीं है। बाल बिखरे हुए। पंजाबी कुरता मैला हो गया है। पाँव के जोड़े का रंग भी पालिश बिना खराब हो रहा है। चेहरे पर उद्वेग है। मेरी ओर ताककर डॉक्टर से कहने लगा-“सुना यह कोई मेस है। मैं रहना चाहता हूँ। कोई कोठरी खाली है?”

हम दोनों आदमी विस्मय की दृष्टि से उसकी ओर देख रहे थे। डॉक्टर ने मूँड़ हिलाकर कहा-“नहीं, कोई खाली जगह तो इसमें नहीं है। आप क्या काम करते हैं?”

वह आदमी मानो थका हुआ रोगी के बेंच पर बैठ गया। बोल-“काम तो मैं अभी खोजता फिरता हूँ। दरख्वास्त देकर हुक्म की राह देखता हूँ। लेकिन तब तक कहीं रहने का ठिकाना हो जाए तो इस गरीबी में कुछ सहारा मिले। लेकिन इस अभागे शहर में इतने होटल, मेस होते हुए भी मेरे नसीब से कोई खाली जगह नहीं मिलती।“

कुछ सहानुभूति दिखलाकर डॉक्टर ने कहा-“इन दिनों यहाँ खाली जगह कहाँ मिलती है? आजकल बाहर से बहुत आदमी आकर शहर में बस जाते हैं। आपका शुभ नाम क्या है महाशय?”

“नाम तो मेरा तोतराम है। यहाँ आकर पेट भरने के लिए नौकरी की तलाश में बहुत घूम रहा हूँ। घर से अरतन-बरतन बेचकर किसी तरह कुछ रुपया जुटाकर आया था, वह भी खतम हो रहा है। अब हलवाई की दुकान पर दोनों जून खाने से कै दिन चल सकता है? इसी से चाहता हूँ कि भले आदमी का कोई मेस या विसी मिल जाता तो गुजर कर लेते। बहुत दिन नहीं महीने खाँड़ में तो हस्त नेस्त हो जाएगा। थोड़े दिन के वास्ते साग-सत्तू खाकर पड़े रहने का आश्रय मिल जाता तो मैं दिन काट ले जाता।“

डॉक्टर-“बड़े अफसोस की बात है तोतरामजी, हमारे इस मेस में कोई भी कोठरी खाली नहीं है।“

लंबी साँस लेकर तोता कहने लगा-“खाली नहीं है, तब तो कोई भी उपाय नहीं है साहब ! जाता हूँ, देखूँ भिण्डीबाजार में कोई जगह मिल जाए तो—मैं डरता हूँ कि वह मुहल्ला ठीक नहीं है। कहीं सोते में जो कुछ टेंट में बचा है, कोई उड़ा ले तो मुफलिसी में आटा गीला हो जायगा। एक गिलास पानी मुझे पिला देंगे?”

डॉक्टर उठ कर पानी लाने गए। तोताराम की हालत देखकर मुझे बड़ी दया आई। कुछ देर पर मैंने कहा-“हमारा घर बड़ा है। मैं अकेला उसमें रहता हूँ। अगर आप उसमें गुजारा कर सकें तो मैं आपको उसमें जगह दे सकता हूँ।“

तोताराम खुश होकर कृतज्ञता की दृष्टि से देखते हुए कहने लगे-“नेकी और पूछ-पूछ ! मैं अच्छी तरह गुजारा कर सकता हूँ। आप ऐसे सज्जन के साथ रहने में मुझे तो बड़ी खुशी होगी।“

यही कहकर तोताराम ने टेंट से कई नोट और कुछ नक़द रुपया निकालकर पूछा—“कहिए मुझे क्या देना होगा? मैं पेशगी दे दूँ, नहीं तो मेरे पास रहने से खर्च हो जाने—“

उनका इतना आग्रह देखकर मुझे हँसी आई। कहा-“नहीं, जल्दी क्या है। दे दीजिएगा।“

इतने में डॉक्टर पानी लेकर आ गए। उनसे मैंने कहा-“ये इस समय बड़े संकट में हैं। मैं कहता हूँ कि मेरी ही कोठरी में रह जायँ तो मुझे कुछ तकलीफ नहीं है। डॉक्टर साहब ! आपकी क्या राय है?”

तोताराम ने गद्गद् होकर कहा-“इन्होंने मेरे ऊपर बड़ी दया की है डॉक्टर साहब ! मैं इनको बहुत दिन तो तकलीफ नहीं दूँगा। अगर जल्दी कोई और जगह मिल गई तो मैं वहीं चला जाऊँगा।“

यही कहते हुए हाथ में गिलास लेकर तोताराम पानी पीने लगे। डॉक्टर ने विस्मित भाव से मेरी ओर कहा-“आपके कमरे में? अच्छी बात है। जब आप राजी हैं, तब हमको कुछ नाही नहीं है। आपको भाड़ा में भी आधा-आधा हो जाएगा और गुलज़ार भी…”

मैं-“नहीं, इसके वास्ते नहीं। इनकी हालत देखकर मुझे दया आ गई है, डॉक्टर साहब !”

डॉक्टर-“हाँ, यह बात तो ठीक ही है। अच्छा तो आप अब अपना सामान लेकर आ जाइए। देर काहे की बाबू तोताराम जी !”

तोताराम-“जी हाँ। मेरा सामान कुछ वैसा नहीं है। बिछौना और कैनविस का एक बैग है। एक होटल के दरबान के पास रखकर आया हूँ। अभी लिए आता हूँ।“

मैं-“हाँ, ले आइए। यहीं नहाना-खाना हो जायगा।“

“तब तो और बड़ी दया होगी।“ कहकर कृतज्ञता से मेरी ओर देखते हुए तोताराम वहाँ से जल्दी-जल्दी पाँव उठाते हुए चले गए।

उनके चले जाने पर हम दोनों कुछ देर तक चुपचाप रहे, फिर डॉक्टर अपने रुमाल से चश्मा पोंछने लगे। मैंने पूछा—“कहिए ! क्या सोच रहे हैं?”

डॉक्टर चौंककर बोले-“नहीं, सोचता कुछ नहीं। विपत् में पड़े हुए पर दया करना सज्जन का काम है। आपने अच्छा किया, बेचारे को जगह दे दी। लेकिन यह बात जरूर है कि बे जाने-पहचाने आदमी से सावधान रहना ही उचित है। खैर, यहाँ कोई ऐसा मामला नहीं है, न ऐसी कोई झंझट की बात ही दिखती है।“

2

अब तोताराम मेरे घर में आकर रहने लगे। डॉक्टर के घर में एक फालतू चौकी पड़ी थी। उन्होंने उसे ऊपर भिजवा दिया। वह तोताराम के सोने को हो गई। लेकिन देखा तो तोताराम दिन को डेरे में रहते नहीं थे। सबेरे ही उठकर नौकरी की खोज में जाते और दस ग्यारह बजे के समय लौटते थे। फिर स्नान-भोजन करके चले जाते थे। लेकिन जो थोड़ा सा समय उनका डेरे में बीतता था, उतने ही में मेस के सब आदमियों से मिल-जुलकर सबके स्नेहभाजन हो गए थे।

जब संध्या समय मजलिस बैठती तब उनकी जरूर पुकार होती थी। लेकिन ताश या चौसर खेलना उनको नहीं आता था। इस कारण धीरे-धीरे नीचे आकर डॉक्टर से गप लड़ाने लगते थे। मेरे साथ भी उनकी बहुत मैत्री हो गयी थी। हम दोनों एक उम्र के थे। दोनों का एक ही घर में रहना, उठना-बैठना होने के कारण परस्पर आप की जगह तुम का व्यवहार होने लगा था।

तोताराम के डेरे में आने पर एक सप्ताह तो बड़े सुख से बीता। कहीं कुछ आफत उपद्रव नहीं, लेकिन आठवें दिन से मेस में तरह-तरह के उपद्रव होने लगे। एक दिन संध्या को तोताराम और मैं डॉक्टर के घर में बैठे इधर-उधर की बातें कर रहे थे। रोगियों की भीड़ घट गई थी। दो-एक आदमी बीच-बीच में आते और अपना रोग कहकर दवा ले जाते थे। डॉक्टर साहब हम लोगों से बातें भी करते जाते थे और रोगियों को दवा देकर उनसे दाम ले लेकर हैंडबैग में रखते जाते थे। कल रात को करीब हम लोगों के सामने ही एक खून हो गया था। आज सबेरे ही सड़क पर लाश मिलने से मुहल्ले भर में कुछ सनसनी फैली हुई थी। हम लोग उसी विषय में बातें कर रहे थे। बात यह थी कि जो लाश मिली थी, वह देखने से एक गरीब भाटिया की मालूम हुई, लेकिन उसकी कमर से सौ-सौ रुपये के दस नोट पाए गए। डॉक्टर कहने लगे-“यह सब कोकेन के उपद्रव के सिवा और कुछ नहीं है। अगर रुपये के लोभ से यह खून हुआ होता तो उसकी कमर में से एक हजार जो मिला है वह हरगिज नहीं रहने पाता। मैं तो समझता हूँ कि वह कोकेन का खरीदार था। जब खरीदने आया तब बेचनेवाले की कोई ऐसी ही घात की बात मालूम हो गई। उसने उन रोजगारियों को पुलिस का डर दिखाकर धमकाया होगा। बस उसको बदमाशों ने खतम कर डाला है।“

तोताराम ने कहा-“कौन जाने साहब, कहाँ का पानी कहाँ गया है। मैं तो यही देखकर डरता हूँ कि आप लोग इस मुहल्ले में कैसे कुशल से निबाह रहे हैं। मुझे पहले यह सब मालूम हुआ होता तो…”

हँसकर डॉक्टर ने कहा-“तब तो आप भिण्डीबाजार ही में जाकर टिकते। लेकिन तोतारामजी ! हम लोगों को तो इसका कुछ भी डर नहीं लगता। हम लोग दस बारह बरस से यहीं हैं। किसी के तीन-पाँच में नहीं रहते। इस कारण हम लोगों को कुछ भी बखेड़े में पड़ने का भय नहीं रहता।“

तोताराम ने कहा-“नहीं डॉक्टर बाबू ! आपको असल बात का पता नहीं है।“ इसी समय कुछ शब्द हुआ। मैंने देखा तो उसी मेस के गोविंद पाँड़े दरवाजे पर कान लगाकर हम लोगों की बातें सुन रहे हैं। उनके चेहरे का रंग बदला हुआ देखकर मैंने पूछा-“क्यों पाँड़ेजी, आप इस समय नीचे कैसे आए?”

अकचकाकर पाँड़े- “नहीं, यहीं मैं एक पैसे की बीड़ी लाने गया था।“ कहते हुए धम-धम करके जीने से ऊपर चले गए।

हम लोगों में मुँहतकौअल होने लगी। उन प्रौढ़ गंभीर पाँड़ेजी को हम सब लोग बड़ी श्रद्धा से देखते थे। लेकिन आज चुपचाप दरवाजे के पास छिपकर हम लोगों की बात क्यों सुन रहे थे? समझ में नहीं आया!

रात को जब हम लोग भोजन करने बैठे, तब पता चला कि पाँड़ेजी पहले ही कहा पीकर निबट चुके हैं। भोजन करके जब सिगरेट समाप्त करके अपने शयनागार में गया तो देखता क्या हूँ कि तोताराम फर्श पर एक तकिया रखे पड़ा है। मन में बड़ा विस्मय हुआ! क्योंकि अभी गर्मी बहुत नहीं पड़ती कि इस तरह लेटा जाए। घर में अँधेरा था। तोताराम ने कुछ साँस-डकार नहीं ली। इसी से समझ में आया कि थककर पड़ गए हैं। मुझे अभी नींद नहीं आती थी। लेकिन यह समझकर कि रोशनी करके पढ़ने-लिखने बैठेंगे तो तोताराम की नींद खुल जायगी, नंगे पाँव घर में ही टहलने लगा।

टहलते-टहलते मन में आया कि चलकर पाँड़ेजी को देखें, कुछ बीमारी तो नहीं हो गई है। मेरे दोनों कमरों के बाद ही उनका कमरा था। जाकर देखा तो दरवाजा खुला है। पुकारने पर भी कुछ जवाब नहीं मिला तब मैं भीतर घुस गया। सामने के दरवाजे के पास ही स्विच था। उससे रोशनी करके देखता हूँ तो कोई भीतर नहीं है। रास्ते की ओरवाले जँगले से बाहर देखने पर मालूम हुआ कि उधर भी पाँड़ेजी नहीं हैं।

मन में विस्मय हुआ। इतनी रात को कहाँ गए हैं, जानने की चिंता हुई। मन में उसी दम यह बात आई कि डॉक्टर के यहाँ दवा लाने गए होंगे। झटपट वहाँ पहुँचा तो डॉक्टर का दरवाजा भीतर से बन्द है। रात बहुत गई है, वे भीतर सो गए होंगे। बन्द दरवाजे पर कुछ देर ठहरकर मैं जब लौटा तब भीतर से किसी के बोलने का शब्द सुनाई दिया। गला दबाकर उत्तेजित स्वर में पाँड़े कुछ कह रहे हैं।

मन में आया कि छिपकर सुनें, क्या बातें करते हैं, लेकिन तुरंत वह इरादा छोड़ दिया। क्या जानें, पाँड़ेजी अपने रोग की बात कर रहे हैं। मुझे वह प्राइवेट बात सुनना उचित नहीं। पंजे के बल धीरे-धीरे ऊपर आ गया। घर पहुँच कर देखता हूँ तो तोताराम वैसे ही पड़े हैं। मुझे देखकर उन्होंने गर्दन उठाई और कहने लगे-“क्या पाँड़े घर में नहीं है?”

मैं-“नहीं मालूम कहाँ गए है। तुम जागते ही हो क्या?”

तोताराम-“हाँ, पाँड़ेजी नीचे डॉक्टर के घर में हैं।“

मैं-“तुमको कैसे मालूम हुआ?”

तोताराम-“कैसे मालूम हुआ, जानना चाहते हो तो इसी तकिये के नीचे कान लगाकर सुन लो।“

अब मैं उन्हीं के सिरहाने के पास कान लगाकर पड़ रहा। कुछ देर बाद आवाज कान में आने लगी। पहले तो नहीं लेकिन पीछे साफ सुनाई देने लगा-डॉक्टर शुकदेव प्रसाद कह रहे हैं- “आप तो बड़े जोश में आ गए हैं। यह आपका दृष्टिभ्रम है और कुछ नहीं। नींद में ऐसा भ्रम कभी-कभी हो जाता है। मैं दवा देता हूँ, आप खाकर सो रहिए। कल सबेरे जागने पर आपको ऐसा ही विश्वास रहेगा तो जो मन में आवे कीजिएगा।“ जवाब में पाँड़ेजी ने क्या कहा सो तो साफ सुनाई नहीं दिया, लेकिन कुर्सी के खड़कने से मालूम हुआ कि दोनों उठ खड़े हुए हैं। मैं भी भू-शय्या छोड़कर बैठ गया। डॉक्टर का मकान मेरे कमरे के नीचे ही है, मुझे यह याद नहीं था। पूछा-“लेकिन बात क्या है, यार, पाँड़ेजी को हुआ क्या है?”

मेरी बात पर तोताराम को जम्हाई आने लगी। कहा-“भगवान जानें क्या हुआ है। अब रात ज्यादा गई है, चलो अपने बिछौने पर सो रहें।

मुझे संदेह हुआ। मैंने पूछा-“तुम इस तरह जमीन पर क्यों पड़े थे?”

तोताराम- भाई, दिन भर घूमते-घूमते थक गया था। यहाँ आके यह फर्श देखा कि ठंडा है, बस पड़ रहा। नींद भी आने लगी थी, लेकिन इन लोगों के बात करने से उचट गई।

इसी समय सीढ़ी पर पाँड़े का धम-धम सुनाई दिया। वे ऊपर आकर अपने कमरे में गए और जोर से दरवाजा बन्द कर लिया।

घड़ी में देखता हूँ तो ग्यारह बज रहा है। तोताराम सो गए हैं। सारा मेस नि:स्तब्ध हो पड़ा है। मैं बिछौने पर लेटा और पाँड़े की बातों पर विचार करता हुआ सो गया।

जब तोताराम के जगाने से उठ बैठा तब देखता हूँ कि सबेरा हो गया है। तोताराम घबराकर कह रहे हैं-“उठो ! उठो ! मामला बहुत गड़बड़ हो रहा है।“

मैं-“क्यों, क्या हुआ?”

तोताराम-“मालूम नहीं क्या बात है? पाँड़ेजी दरवाजा नहीं खोलते। बहुत पुकारा गया, कुछ आहट नहीं मिलती।“

“तो उनको हुआ क्या है?”

“कौन जाने क्या हुआ है। तुम आ जाओ जल्दी।“ कहकर तोताराम झटपट बाहर चले गए। मैं भी उनके पीछे ही पीछे बाहर आया तो देखा कि पाँड़े के द्वार पर सब लोग जमा हैं। अपनी-अपनी अक्ल का अटकल सब कर रहे हैं। पुकारना और दरवाजा पीटना जारी है। नीचे से डॉक्टर बाबू भी आ गए हैं। सब लोगों को बड़ी चिंता है। सब के चेहरे पर घबराहट और विषाद है। पाँड़ेजी इतनी देर तक कभी सोते नहीं थे। अगर आज सो भी गए तो इतना चिल्लाने पुकारने और द्वार पीटने पर भी जागते क्यों नहीं हैं?

तोताराम ने डॉक्टर के पास जाकर कहा—“देखिए, आप दरवाजा तोड़वा दीजिए। हमको तो ढंग अच्छा नहीं जान पड़ता।“

डॉक्टर-“हाँ, यह तो मालूम ही हो रहा है। जरूर वे मूर्च्छित या बेहोश पड़े हैं, नहीं तो जवाब जरूर देते। अब देर करना ठीक नहीं है तोतारामजी ! दरवाजा तोड़ डालिए।“

डेढ़ इंच मोटे तख्ते के किवाड़ हैं। उस पर भुन्नासी ताला लगा हुआ है। इस समय तीन-चार आदमियों ने एक साथ जोर लगाया। वह ताला टूटकर झनाके के साथ दरवाजा खुल पड़ा। अब भीतर द्वार के सामने ही जो वस्तु उन लोगों ने देखी, उससे किसी के मुँह से कुछ बात नहीं निकली। सब के सब अवाक् हो गए।

सब ने चकित विस्मित होकर देखा कि सामने ही पाँड़ेजी उतान पड़े हैं। उनका गला इस छोर से उस छोर तक कटा हुआ है। सर और धड़ के बीच मानो रक्त का एक गलतकिया सा बिछा हुआ है और उनके फैले हुए दाहिने हाथ में खून से भरा हुआ एक छुरा अब भी हिंसा की हँसी हँस रहा है।

हम लोग चुपचाप वहीं कुछ देर तक जड़वत् खड़े रहे। कुछ देर पर तोताराम और डॉक्टर साथ ही भीतर घुसे। डॉक्टर ने विह्वल नेत्रों से पाँड़े की वीभत्सता भरी देह देखी। फिर काँपते हुए बोले-“ओफ ! क्या हो गया! अंत को पाँड़ेजी ने किस कारण आत्मघात कर लिया!

तोताराम की नजर अभी मुर्दे की ओर नहीं गई थी। उनकी दोनों आँखें धारदार तलवार की तरह घर में चारों ओर चल रही थीं। उन्होंने बिछौने को एक बार अच्छी तरह देखा। रास्ते की ओर खुले जँगले से झाँका फिर शांत रूप से लौटकर कहा-“नहीं डाक्टर साहब! यह आत्महत्या नहीं, भयंकर खून है। मैं पुलिस में खबर देने जा रहा हूँ। आप लोग यहाँ की सब चीजें जहाँ की तहाँ रहने दीजिए। खबरदार! कुछ भी जरा इधर-उधर न होने पावे।“

डाक्टर ने अकचकाहट दिखा कर कहा-“कैसे कहते हो तोतारामजी! खून हुआ कैसे? भीतर से तो दरवाजा बंद था। इसके सिवाय वह तो..” यही कहकर डाक्टर ने पाँड़े के हाथ का खून भरा छुरा दिखलाया। तोताराम ने सिर हिलाते हुए कहा—“सो हुआ करे। यह खून है, डाक्टर साहब! आप लोग यहीं रहिए। मैं अभी पुलिस को लेकर आता हूँ न।” तोताराम उसी दम बाहर चले गए। डाक्टर ने कपार पर हाथ देकर कहा-“ओफ ! हमारे मकान में भी आज यह काण्ड हो गया।”

3

पुलिस ने पहुँचकर मेस के नौकर, रसोइया, ब्राह्मण से लेकर हम लोगों तक सबका इज़हार बयान लिया। जिसको जो मालूम था, सब कह सुनाया। लेकिन किसी की बात से ऐसी कोई बात नहीं मिली, जिससे पाँड़े की मृत्यु का कारण जाना जा सके। पाँड़े जी का वहाँ कोई दुश्मन नहीं था। किसी से उनका कोई वैर-विरोध नहीं हुआ। मेस और ऑफिस के सिवाय और कहीं उनका कोई हितमित्र नहीं था। कहीं कुछ पता नहीं लगा कि कभी किसी से उनकी वहाँ मिताई थी। वह हर शनिवार को घर जाते थे। दस-बारह बरस से उनका यह जाना-आना जारी था, कभी इसका फेर-बदल नहीं हुआ। कुछ दिनों से उनको बहुमूत्र का रोग हो गया है। इतनी ही थोड़ी सी बात इज़हार में मालूम हुई।

डाक्टर ने भी इज़हार दिया। उन्होंने जो कुछ बयान किया, उससे पाँड़े की मृत्यु का भेद तो कुछ नहीं मिला, उलटे वह और जटिल हो पड़ा। उनका बयान हूबहू नीचे दिया जाता है:-

“गत बारह बरस से पाँड़े जी हमारे मेस में रहते हैं। उनका मकान कल्याण के पास है। वह यहाँ किसी सौदागर के ऑफिस में काम करते रहे हैं। डेढ़ सौ रुपया महीना पाते रहे हैं। इतने से वेतन में बंबई नगर में जेन्टलमेन के रूप में रहना असंभव बात है, इसी से मेस में डेरा लेकर गुजारा करते रहे हैं। इसमें जितने हैं, सबकी यही दशा है।”

“जहाँ तक मैं जानता हूँ, पाँड़े जी सीधे-सादे स्वभाव के कर्तव्यनिष्ठ आदमी थे। कभी किसी का कर्ज नहीं रखते हैं। कोई नशा-पानी या व्यसन उनका मैंने नहीं देखा। मेस के सब लोग उनका यह गुण जानते हैं।“

“मैंने तो इन बारह वर्षों में कभी उनके विषय में कुछ भी अस्वाभाविक या संदेह उपजानेवाली बात या कोई घटना नहीं देखी। इधर कुछ महीनों से उनको बहुमूत्र हो गया था। मैं उनका इलाज कर रहा था। और कभी कोई मानसिक रोग मैंने उनमें नहीं पाया। कल ही उनकी चाल-चलन में एक नई बात मेरे देखने में आई है।”

“बात यों हुई कि मैं अपने दवाखाने में बैठा था। रात के दस बज गए थे। पाँड़े जी ने आकार कहा—‘डाक्टर साहब ! आपसे मैं कुछ गुप्त बात कहूँगा। मैं तो सुनते ही उकताकर उनका मुँह ताकने लगा। वे बहुत घबराए हुए दिख पड़े। मैंने पूछा-‘क्या बात है पाँड़े जी?’ वे इधर-उधर चौकन्ना होकर देखते हुए धीरे-धीरे कहने लगे—‘इस घड़ी नहीं, मैं और वक्त कहूँगा आपसे।‘ यही कहकर वे तुरंत ऑफिस चले गए।”

“शाम को जब मैं, तोताराम, उनके साथी सहित अपने दवाखाने में बैठकर बातें कर रहा था, उस समय देखा गया तो दरवाजे के पास किवाड़ से लगे पाँड़े जी हम लोगों की बातें सुन रहे थे। जब उनको पुकारा गया तब झटपट बात बनाकर चले गए। हम लोग उनकी यह हरकत देखकर अवाक् हो गए, कहने लगे कि पाँड़े जी को आज हो क्या गया है?”

“उसके बाद रात के दस बजे चोर की तरह बहुत धीरे-धीरे मेरे पास आए। चेहरे से मालूम हुआ कि उनके भीतर बड़ी हड़बड़ी है। दिमाग ठिकाने नहीं है। दरवाजा आप ही बंद करके बैठे और फिजूल बकबक करने लगे। कभी तो कहा कि सोते में मैं भयंकर स्वप्न देख रहा था, कभी कहा एक भयानक गुप्त भेद मालूम हुआ है। मैंने बहुत समझाकर उन्हें ठंढा करना चाहा, लेकिन वे बकते ही चले गए, फिर अंत में मैंने उनको सोने के लिए एक पुड़िया देकर कहा—‘आप खाकर सो रहिए; नींद आ जाएगी फिर सवेरे हम आपकी बात सुनेंगे।‘ वह पुड़िया की दवा लेकर ऊपर चले आए।”

“हमारे साथ उनकी वही अंतिम भेंट थी। उसके बाद आज सवेरे यह काण्ड दिखाई दिया। उनका भाव, उनकी दशा देखकर मुझे संदेह तो जरूर हुआ था, लेकिन ऐसा मन में हरगिज़ नहीं आया था कि जोश में आकर एकदम आत्मघात कर डालेंगे।“

जब डाक्टर बयान देकर चुप हुए तब दारोगा ने पूछा—“तो आप क्या इसको आत्मघात समझते हैं?”

डाक्टर-जी हाँ! इसके सिवा और हो क्या सकता है? लेकिन तोताराम कहते हैं, आत्मघात नहीं कुछ और बात है। इस बारे में शायद उनको और अधिक मालूम हो तो वे कह सकते हैं।

अब दारोगा ने तोताराम की ओर फिरकर कहा-“आप ही तोताराम हैं न? आप जो कहते हैं आत्मघात का यह मामला नहीं है, आपके ऐसा समझने का कारण क्या है?”

तोताराम-हाँ, कारण जरूर है। कोई आदमी अपने हाथ से इस तरह अपना गला काट ही नहीं सकता। आपने तो लाश देख ली है। आप खुद विचार कर लीजिए यह बात हो नहीं सकती। ऐसा होना बिल्कुल असंभव है।

दारोगा ने कुछ देर तक सोचकर कहा-“अच्छा, खूनी कौन है? आपको कुछ संदेह होता है किसी पर?”

तोताराम-जी नहीं।

दारोगा-अच्छा, खून का कारण क्या है, कुछ अनुमान कर सकते हैं?

इस समय तोताराम ने सड़क की ओर का जँगला दिखलाकर कहा-“यही खून का कारण है।”

दारोगा चकित होकर बोले-जँगला खून का कारण है? तो आप कहना चाहते हैं कि इसी जँगले से खूनी घर में घुसा था?

“जी नहीं ! खूनी तो सदर दरवाजे से ही भीतर आया था।”

दारोगा ने मुसकुराकर कहा-आपको जान पड़ता है, याद नहीं है कि दरवाजा भीतर से बंद था।

“याद है।”

दारोगा ने व्यंग भरे शब्दों में कहा-“तो क्या पाँड़े जी ने घायल होने के बाद दरवाजा बंद कर दिया था?”

तोताराम- जी नहीं ! खूनी ने पाँड़े जी की जान मारकर बाद को बाहर से दरवाजा बंद कर दिया है।

दारोगा- ऐसा कैसे हो सकता है?

तोताराम ने ओठ दाबते हुए मुसकुराकर कहा-“सहज ही हो सकता है। थोड़ा विचार करने से ही आप समझ सकेंगे।”

डाक्टर इतनी देर तक दरवाजे की ओर ही देख रहे थे। बोल उठे-“ठीक बात तो है, दरवाजा तो सहज ही बाहर से बंद हो सकता है। इतनी देर तक मेरी समझ में यह बात आई ही नहीं थी। देखते नहीं, दरवाजे पर ऐसा ताला है।”

दारोगा कुछ झेंप गए। बोले-“हाँ। यह तो हो सकता है।”

तोताराम ने कहा-“बाहर खींच देने पर ही दरवाजा बंद हो जायेगा, फिर खुलेगा तब भीतर से ही खुलेगा। बाहर से नहीं खुल सकता।”

दारोगा अपने काम में प्रवीण थे। हाथ पर गाल धरकर कुछ देर तक सोचते रहे, फिर बोले-“बात तो सही है, लेकिन एक बात खटक रही है। पाँड़े जी रात को दरवाजा खोलकर सोये रहे, इसका कोई प्रमाण है?”

तोताराम-जी नहीं, बल्कि उलटे इसका प्रमाण है कि वे दरवाजा बंद करके सोये थे। मैं जानता हूँ इस बात को।

मैंने कहा-“मैं भी जानता हूँ। मैंने उनको दरवाजा बंद करते सुना था।”

डाक्टर-तब उन्होंने खूनी को भीतर आने के लिए उठकर दरवाजा खोल दिया, यह भी तो संभव नहीं जान पड़ता।

तोताराम- सो बात नहीं; लेकिन शायद आपको याद नहीं रहा कि इधर कई महीनों से उनको एक रोग हो गया था।

डाक्टर- हाँ ! हाँ ! ठीक कहते हैं बाबू तोताराम जी ! आपकी बात बहुत ठीक है। बहुमूत्र रोग की बात तो मुझे एकदम भूल ही गई थी।

अब दारोगाजी मुरब्बियाने सुर में बोले—“वाह तोताराम बाबू ! मैं देखता हूँ, आप तो बड़े इन्टेलिजेन्ट हैं। पुलिस में क्यों नहीं घुस जाते। इसमें आपका दर्जा बहुत आगे बढ़ सकता है। लेकिन देखते हैं कि अगर यह खून का केस है तो खूनी कोई ऐसा वैसा नहीं, मँजे हाथ का पक्का खिलाड़ी है। किसी पर आप लोगों का संदेह होता है?”

यह कहकर दारोगा सब का मुँह बारी-बारी से ताकने लगे। सबने चुपचाप मूँड़ हिलाकर नाहीं कर दी। लेकिन डाक्टर कहने लगे-“देखिए साहब, इस मुहल्ले में हर महीने एक-दो खून होते रहते हैं। आप लोगों को तो यह सब मालूम ही है। अभी परसों हमारे मेस के सामने ही एक खून हो चुका है। यह सब देखकर मैं तो समझता हूँ, एक सब खून एक ही में गुँथे हुए हैं। एक का पता लगने से सबका पता लग जाएगा। अगर पाँड़े जी का खून हुआ है तब।”

दारोगा- सो हो सकता है लेकिन और खूनों का पता लगने की आशा में अगर बैठा रहा जाए तो मैं समझता हूँ, अंतकाल तक बैठे ही रहना पड़ेगा।

तोताराम ने कहा- दारोगा जी, अगर आप इस खून का पता लगाना चाहें तो इस जँगले की बात पर खूब गौर कीजिएगा।

दारोगा ने कहा-“हम लोगों को सब बातों पर गौर करना होगा तोताराम बाबू ! अब मैं आप सब लोगों का घर राई-रत्ती तलाश करके देखूँगा।”

इसके बाड़ ही ऊपर नीचे सब कमरों की बड़ी सावधानी से तलाशी ली गई। लेकिन कहीं कुछ भी ऐसी चीज नहीं मिली, जिससे इस मृत्यु पर प्रकाश पड़ता। पाँड़े जी के घर की भी बड़ी छानबीन के साथ तलाशी की गई। लेकिन वहाँ दो-चार पारिवारिक चिट्ठी-पत्री के सिवाय और कुछ नहीं पाया गया। छुरे का खाली घर अर्थात् छुरादानी बिछौने के पास पाई गई। पाँड़े जी अपने हाथ से अपनी हजामत बनाया करते थे, यह हम सब लोग जानते थे। वह छुरे की खोल भी लोगों ने पहचान ली। पाँड़े की लाश थाने में चालान कर दी गई। उनके द्वार पर ताला भरकर कोई दो बजे दिन में दारोगाजी वहाँ से विदा हुए।

पाँड़े जी के घर तार द्वारा खबर भेजी गई थी। संध्या होते-होते उनके लड़के और दूसरे नातेदार भी आ पहुंचे। उनके महान शोक का वर्णन करके यहाँ पुस्तक को बढ़ा डालना अभीष्ट नहीं है। हम लोग उनके आत्मीय नातेदार न होकर भी उनकी बेदर्दी भरी मौत से बहुत दुखी हुए। इसके सिवाय अपने ऊपर भी बहुत भय सवार हो गया। कब किसकी जान चली जाएगी, इसका कुछ भी ठिकाना नहीं रहा। सबके ऊपर मानो नंगी तलवार कच्चे धागे में लटकती हुई जान पड़ी।

रात को सोने से पहले डाक्टर के घर जाकर मैंने देखा तो वे उदास मन अपने दवाखाने में बैठे हैं। उसी एक दिन की घटना से उनके शांत मुखमंडल पर काली रेखाओं की कतार दिखाई दे रही है। मैं वहीं उनके पास बैठ गया, फिर कहा—“यहाँ तो मेस के सब लोग छोड़कर चले जाने की तैयारी कर रहे हैं डाक्टर साहब !”

डाक्टर ने मुसकुराते हुए कहा—“उन बेचारों का कौन कसूर है, विजय बाबू ! आप ही कहिए, जहाँ ऐसी घटनायें होती हैं, वहाँ कैसे कोई रहना चाहेगा ! लेकिन एक बात हमारी समझ में नहीं आ रही है कि इसको खून का मामला कैसे कहा जा सकता है? और अगर खून ही हो तो मेस के बाहरवाले किसी आदमी का तो यह काम हो नहीं सकता। पहली बात तो यह कि वह खून करने वाला ऊपर गया कैसे? आप लोग सभी जानते हैं कि सीढ़ी का दरवाजा रात को बंद रहता है। अच्छा मान भी लें कि किसी तदबीर से वह ऊपर गया, लेकिन पाँड़े के छुरे से उनका खून कैसे किया? यह भी हो नहीं सकता, इससे इतना जाहिर है कि बाहर के किसी आदमी ने यह काम नहीं किया है। तब रह गए वे आदमी जो इस मेस में रहते हैं। इनमें से कोई ऐसा है जो पाँड़े जी का खून कर सके? सबको हम लोग बहुत दिन से जानते हैं। कोई आदमी यहाँ का ऐसा नहीं जो ऐसा विकट बेदर्दी का काम कर सके।

मैंने चौंक कर कहा- “तोताराम!”

डाक्टर ने खाँस-खँखारकर कहा—“यह तोताराम आपको कैसा आदमी जान पड़ता है?”

मैंने कहा-“अरे तोताराम! नहीं; नहीं वह बेचारा ऐसा काम नहीं कर सकेगा। तोताराम भला किस वास्ते पाँड़ेजी को.. ”

डाक्टर- तब तो आप ही की बात से साबित है कि मेस के किसी आदमी का यह काम नहीं है। तब आप विचार कीजिए कि कौन बाकी रह जाता है। मैं देखता हूँ रह गई बात यही कि पाँड़ेजी ने आत्महत्या की हो।

मैं- लेकिन आत्महत्या का भी तो कारण चाहिए। आत्मघात संसार में बहुत संगीन पातक है। जब संसार में आदमी को किसी तरह का कुछ भी भरोसा नहीं रह जाता, उसका जीवन जब असह्य हो उठता है, तब वह आत्महत्या करता है। आत्महत्या के लिए जैसे कोई संगीन कारण होना, वैसे ही उसके लिए हृदय में बहुत बल होना चाहिए।

डाक्टर- उस पर भी मैंने खूब विचार कर लिया है। आपको याद होगा, मैंने आपसे कहा था कि इस मोहल्ले में कोकेन बेचने वालों का एक गुप्त अड्डा है। लेकिन उस गिरोह के सरदार का किसी को कुछ पता नहीं है।

“हाँ, याद है, आपने कहा था।“

डाक्टर अब धीरे-धीरे कहने लगे—“अच्छा माँ लीजिए कि पाँड़ेजी उन लोगों के सरदार रहे हों।“

मैं तो डाक्टर की बात सुनकर काँप गया। कहा-“अरे ! ऐसा कभी हो सकता है?”

डाक्टर- सुनिए विजय बाबू, ऐसा कुछ भी नहीं है जो संसार में न हो सके। असंभव बात इस दुनिया में कुछ भी नहीं है, बल्कि कल रात को पाँड़ेजी ने मुझसे जो बातें की हैं, उससे इस संदेह की पुष्टि होती है। संभव है कि पाँड़ेजी खूब डर गए रहे हों। जब आदमी बहुत डर जाता है तो हवास में नहीं रहता। अगर इसी हालत में उन्होंने आत्महत्या कर डाली हो तो आश्चर्य क्या है? आप विचार लीजिए, यह अनुमान क्या संगत नहीं जान पड़ता?

इस बात को सुनने पर मेरा मगज चक्कर काट रहा था। मैंने कहा-“नहीं कह सकता डाक्टर साहब! मैं तो ऐसा ख्याल ही नहीं कर सकता। आप चाहें तो अपना संदेह पुलिस को जाहिर कर सकते हैं।“

इतना सुनने पर डाक्टर वहाँ से उठ खड़े हुए। बोले-“अच्छी बात है। मैं कल कहूँगा। जब तक इसका निबटारा नहीं हो जाता, मुझे शांति नहीं मिलेगी।”

4

इस तरह दो-तीन डीं किसी तरह बीत गए। मन में बड़ी अशान्ति थी। ऊपर से सी. आई. डी. विभाग के कर्मचारियों की आवाजाही और उनके सवाल-जवाब के मारे जी ऊब उठा था। मेस के सब लोगों का नाकों-दम था। लोग वहाँ से भागने को तैयार हो रहे थे। लेकिन किसी को जाने की हिम्मत भी नहीं हो रही थी। क्या जाने, भाग जाने से पुलिस का और संदेह कपार पर आ गिरे तो उलटे लेने के देने पड़ेंगे।

डेरे के किसी आदमी पर संदेह का जाल चारों ओर से घिर रहा था, इसका इशारा मिलने लगा। लेकिन वह संदेह किस पर है, इसका अनुमान नहीं कर सका। रह-रहकर डर के मारे भीतर धुकुर-पुकुर हो रहा था। क्या जाने, पुलिस हमारे ही ऊपर संदेह करती हो।

एक दिन सवेरे मैं और तोताराम डाक्टर के घर में बैठे अखबार पढ़ रहे थे। एक साधारण साइज़ का बक्स दवाओं से भर हुआ डाक्टर के यहाँ आया था। उसी को खोलकर वह अलमारी में सजा रहे थे। पैकिंग केस पर अमेरिका का ट्रेड मार्क था। डाक्टर देशी दवाओं का व्यवहार नहीं करते थे। काम पड़ने पर जर्मनी या अमेरिका से दवाइयाँ मँगवाया करते थे। हर महीने एक बक्स के हिसाब से दवा उनके पास आया करती थी।

तोताराम ने अखबार को जरा नीचे करके डाक्टर से पूछा-“क्यों डाक्टर बाबू! आप विलायत से दवा क्यों मँगवाते हैं? देशी दवा क्या अच्छी नहीं होती?”

डाक्टर-देशी दवाइयाँ भी अच्छी होती हैं। लेकिन मुझे उनसे तृप्ति नहीं होती।

तोताराम ने उनके बक्स से दवा भरी एक शीशी उठाई, जिस पर विक्रेता का नाम था। पढ़कर कह-“एरिक एंड ह्यवेल यहीं सबसे बढ़िया दवाइयाँ तैयार करता है?”

“हाँ ! हाँ !”

तोताराम-“अच्छा, होमिओपैथी से सचमुच रोग अच्छा हो जाता है? मुझे तो विश्वास नहीं होता कि एक बूंद दवा से रोग अच्छा होता है। भला एक बूंद पानी से रोग अच्छा होगा?”

डाक्टर ने मुसकुराकर कहा-“इतने आदमी जो दवा लेने आते हैं, वे क्या लड़क-खेल करते हैं?”

तोताराम-मैं समझता हूँ रोग भोगकर आप ही अच्छा हो जाता है। रोगी समझता है कि दवा से अच्छा हुआ है। विश्वास से भी बहुत समय काम सिद्ध होता ही है।

डाक्टर ने हँस दिया। कुछ बोले नहीं। कुछ देर पर उन्होंने पूछा-“इस अखबार में हम लोगों के मेसवाली कुछ खबर है?”

“हाँ है।” कहकर मैंने खबर पढ़ दी। उसमें लिखा था—“उस अभागे पाँड़े के खून का अब तक कुछ पता नहीं लगा। पुलिस के सी. आई. डी. विभाग को यह केस सौंप दिया गया है। कुछ अनुसंधान लग चुका है। आशा है, शीघ्र असामी गिरफ्तार हो जायगा।”

“गिरफ्तार नहीं खाक होगा। आशा किया करें।” इतना कहकर डाक्टर ने पीछे देखा, बोले-“अरे दारोगा जी!”

दारोगा कमरे के भीतर आए। साथ में दो कांस्टेबल थे। ये दारोगा वही थे जो पहले एक बार उस दिन तहकीकात करने आए थे। वे एकदम तोताराम के सामने जाकर बोले-“आपके नाम वारंट आया है। थाने तक चलना होगा। कुछ गड़बड़ मत कीजिए। रामफल! लगाओ हथकड़ी।” एक कांस्टेबल ने झट तोताराम को हथकड़ी कस दी। टनाक से बंद होने की आवाज आई।

हम लोग भी डरते हुए उठ खड़े हुए। तोताराम ने कहा-“यह क्या करते हैं आप?”

दारोगा-यह देखिए वारंट है। गोविंद पाँड़े का खून करने के कसूर में मैं आपको गिरफ्तार करता हूँ। अच्छा, आप दोनों आदमी इनकी पहचान कीजिए कि तोताराम यही हैं।

हम लोगों ने चुपचाप, यंत्र-चालित पुतले की तरह, डरते हुए सिर हिलाकर हाँ किया। तोताराम ने हँस कर कहा—“खैर, अंत में आपने मुझे ही गिरफ्तार किया। अच्छा चलिए थाने पर। देखो विजय बाबू, कुछ चिंता नहीं करना, मैं बेकसूर हूँ। पुलिस को इस कार्रवाई पर पीछे पछताना पड़ेगा। एक भाड़े की गाड़ी मेस के सामने आ खड़ी हुई थी। उसी पर तोताराम को बिठाकर पुलिस-दल वहाँ से विदा हो गया।

जरदी चढ़ा चेहरा लिए डाक्टर कहने लगे—“अरे! तोताराम ही तब तो—बड़ा भयानक आदमी है! चेहरा देखकर आदमी पहचानना बड़ा ही कठिन है विजय बाबू !”

मेरे मुँह से तो कुछ बात नहीं निकली। यह तोता ही खूनी है क्या? कई दिन तक एक ही डेरे में साथ रहने से मेरा तो उस पर स्नेह हो गया था। तोता का स्वभाव तो ऐसा अच्छा है कि मेरे भीतर घर कर गया था। यह तोताराम खूनी है! बड़े आश्चर्य की बात है। मेरे हृदय में यह बात कभी नहीं आई थी। इस समय विस्मय से मेरा मन बहुत विचलित हो उठा।

डाक्टर ने कहा- “इन्हीं बातों का विचार करके हमारे हिन्दू धर्म में अनजाने आदमी को जगह देना मना किया गया है। उस समय किसको मालूम था कि यह आदमी इतना भयंकर है?”

मेरे भीतर बड़ी खलबली थी। कुछ बात नहीं सुहाती थी। अपने कमरे में बिछौने पर पड़कर मैंने दरवाजा बंद कर लिया। नहाने-खाने का मन नहीं हुआ। एक ओर तोताराम का सामान बिखरा पड़ा था। उस ओर देखकर मेरी आँखों में आँसू आ गए। इस घड़ी मुझे मालूम हुआ कि तोताराम पर मेरा कितना स्नेह हो गया था।

तोताराम जाते समय कह गए हैं कि वे बेकसूर हैं। तो क्या पुलिस ने भूल से उन्हें गिरफ्तार किया है? इतना मन में आते ही मैं बिछौने से उठ बैठा। जिस रात में पाँड़े का खून हुआ, उस रात की सब बातें मैं याद करने लगा।

तोताराम फर्श पर पड़े पाँड़ेजी और डाक्टर की बातें सुनते थे। किस मतलब से उनकी बातें सुन रहे थे? उसके बाड़ मैं ग्यारह बजे सो गया। एकदम सवेरे जब उठा तब तोताराम ने ही मुझे जगाया था। इतने में अगर तोताराम ने …. .. .. लेकिन तोताराम शुरू से कह रहे हैं कि यह आत्महत्या नहीं खून है। तो क्या जो खूनी है, वह ऐसी बात कहकर आप ही अपने गले में इस तरह फाँसी लगावेगा? लेकिन ऐसा भी हो सकता है कि अपने ऊपर से संदेह को झाड़-पोंछकर फेंक देने के वास्ते ही तोताराम ने ये बातें कही हो कि पुलिस समझेगी तोता जब जोर से यह बात कह रहे हैं, तब वे हरगिज़ खूनी नहीं हैं।

इसी तरह नाना प्रकार की चिंता करता हुआ मैं मन-ही-मन छटपटाने लगा। फिर उठकर कमरे में टहलने लगा। फिर खाट पर आ बैठा। इस तरह दोपहर बीत गया।

तीसरे पहर को मन में आया कि किसी वकील के यहाँ चलकर सलाह लें कि ऐसी दशा में क्या करना चाहिए। लेकिन किसी वकील से यहाँ कुछ जान-पहचान नहीं है। फिर भी वकील का मिलना कुछ कठिन नहीं होगा। यही समझकर उठा और कुर्ता पहनकर बाहर होना ही चाहता था कि किसी ने किवाड़ पर हाथ थपथपाया। खोलकर देखता हूँ तो सामने ही तोताराम खड़े हैं।

मैंने “अरे तोताराम!” कहकर गले लगा लिया। वह दोषी है या निर्दोष, यह भावना जो थोड़ी देर पहले मन में धमाचौकड़ी मचा रही थी, वह एकदम दूर हो गई। सूखा मुँह, रूखे बाल लिए तोताराम ने हँसकर कहा-“हाँ भैया ! हमीं हैं। बड़े संकट में पड़ गया। एक आदमी कठिनता से जामिन हो गया। तब छूटकर आया हूँ। नहीं तो आज हवालात में रहना पड़ता। तुम कहाँ जा रहे हो?”

मैंने कहा-“वकील के यहाँ जा रहा था।”

स्नेह से तोताराम ने मेरा हाथ धरकर कहा-“क्या मेरे वास्ते? अब इसकी जरूरत नहीं है मित्र! कुछ दिनों के लिए तो मुझे रिहाई मिल गई है।”

अब हम दोनों कमरे में गए। तोताराम ने मैले कपड़े उतारते हुए कहा-“मगज भन्ना रहा है भाई! डीं भर नहाना-खाना नहीं हुआ। तुमने भी, मालूम होता है, नहाया खाया नहीं है। चलो यार नहाकर कुछ मुँह में तो डालें। पेट कुलबुला रहा है भूख के मारे।”

मैंने उकताकर पूछा-“अच्छा तोताराम तुम.. तुमने .. ”

“तुमने क्या ! मैंने खून किया है या नहीं? कहकर तोताराम ने कहा-“वह बात पीछे होगी विजय बाबू! इस घड़ी तो पेट में कुछ जाना चाहिए। माथा धमक रहा है। मैं समझता हूँ, स्नान-भोजन के बाद सब ठीक हो जायगा।”

इसी समय डाक्टर कमरे में आए। उनको देखते ही तोताराम बोले-“मैं तो डाक्टर बाबू मलती चाँदी की चौअन्नी की तरह फिर लौट आया। पुलिस ने भी मुझे नहीं लिया, लौटा दिया है मुझे।”

डाक्टर शुकदेव ने कुछ गंभीरता लेकर कहा-“देखिए तोताराम जी ! आप लौट आए, यह अच्छी बात है। मैं समझता हूँ उन लोगों ने आपको बेकसूर समझकर ही छोड़ा होगा। लेकिन मेरे यहाँ तो आपका——-समझते तो हई हैं आप ! यहाँ दस भले आदमियों का डेरा है। यों ही सब भाग मचाये हुए हैं। उस पर आपका रहना तो..। देखिए, आप मन में कुछ दूसरा मत समझिए। आपसे हमारा कुछ द्वेष-विरोध तो है नहीं, लेकिन.. ”

तोताराम बात काट कर बोले-“नहीं, नहीं! वह बात नहीं है। मैं इस घड़ी दागी असामी बना हूँ। मुझे यहाँ रखकर आप लोग भी चोंथ बकोट में पड़ें, यह मैं हरगिज़ पसंद नहीं करूँगा। कहिए, आप क्या आज ही मुझे चले जाने को कह रहे हैं?”

डाक्टर कुछ देर चुप रहकर बोले-“नहीं, इस रात के वास्ते कुछ बात नहीं, लेकिन कल सवेरे ही—-”

तोताराम-सो तो बनी बात है डाक्टर साहब! कल मैं आप लोगों को तकलीफ नहीं दूँगा। अपने लिए जगह तो ढूँढ लूँगा। अगर कहीं नहीं ठिकाना होगा तो वह पारसी होटल तो हई है।

यह कहकर तोताराम ने हँस दिया। डाक्टर ने पूछा-“अच्छा, थाने वाले आपको ले गए तो वहाँ किया क्या?” तोताराम ने संक्षेप में कहकर स्नान-भोजन का रास्ता लिया। अब डाक्टर मुझसे कहने लगे-“तोताराम मन में नाराज तो हो रहे हैं, लेकिन भाई ! कुछ उपाय नहीं है। मैं करूँ क्या? एक तो मेस की बदनामी हो चुकी है। ऊपर से पुलिस का गिरफ्तार असामी रहेगा तो कैसे ठीक होगा। आप ही कहिए?”

“हाँ, अपने लिए सबको खबरदारी से रहना उचित ही है” कहकर मैंने सिर हिलाया और कहा—“आपका मेस है। आप जो उचित समझें करें। इसमें कोई क्या कह सकता है।” और गमछा काँधे पर रखकर स्नान करने चला गया। उदास मन डाक्टर वहीं बैठे रहे।

स्नान करके कमरे में आया तो देखा कालू बाबू ऑफिस से लौटकर आ गए हैं। सामने तोताराम को देखकर वे ऐसे सहमें जैसे भ्रम का भूत देखकर आदमी सहम जाता है। उनके चेहरे पर जर्दी दौड़ गई। बोल उठे—“अरे ! तोता बाबू ! आप तो—–आप?”

तोताराम हँसकर कहने लगे—“मैं ही हूँ कल्लू बाबू ! आपको विश्वास नहीं हो रहा है क्या?”

“सब ठीक है, लेकिन आपको तो पुलिसवाले—-” इतना ही कहकर कल्लू बाबू अपने कमरे को चले। तोताराम हँसी करने का लोभ संवरण नहीं कर सके। धीरे से बोले—“धामिन के फूँकने से नाभि फूलने लगती है, पुलिस के छूने से बड़े-बड़े धीरों की छाती छितरा जाती है। कल्लू बाबू तो हमको देख कर ऐसे भड़क रहे हैं, जैसे गेरुआ वाले को देखकर श्वानदेव !”

संध्या को तोताराम कहने लगे—“अरे यार, यह तो ताला बंद नहीं हो रहा है।” मैंने देखा तो उसमें क्या कुछ बिगड़ा है, पता नहीं चलता। मकान मालिक को खबर दी गई। वे आए। देखकर बोले-“विलायती तालों की यही गति है। चलता है, तब तक चलता है, नहीं तो बस ! इंजीनियर बुलाना पड़ता है। इससे तो देशी ताले अच्छे होते हैं। खैर, अब कल इसकी मरम्मत करा देंगे।” कहकर डाक्टर साहब नीचे चले गए।

रात को सोने से पहले ही तोताराम ने कहा—“क्यों विजय बाबू, सिरदर्द तो बढ़ता ही जा रहा है। क्या उपाय करें, कुछ बतलाओ तो !”

मैंने कहा-“डाक्टर से एक पुड़िया लाकर खा क्यों नहीं लेते?”

तोताराम-होमिओपैथी ! उससे अच्छा हो जायगा। अच्छा चलो देखें तो। इसकी भी ताकत देख ली जाए।

मैं-चलो, मेरी भी तबीयत खराब हो रही है।

वहाँ पहुँच कर देखते हैं तो डाक्टर दरवाजा बंद करना चाहते हैं। हम लोगों की ओर वे जिज्ञासा की दृष्टि से देखने लगे। तोताराम ने कहा-“आपकी दवा का गुण देखने आया हूँ, डाक्टर साहब ! सिर में बड़ा दर्द है। कुछ उपाय कीजिए।”

डाक्टर खुश होकर बोले-“काफी उपाय है। पित्त के उभार से आपको सिरदर्द है। बैठिए, मैं अभी दवा देता हूँ।” कहकर उन्होंने अलमारी खोली और नई दवा की पुड़िया लाकर दी। कहा—“जाइए, खाइए सो रहिए। कल सवेरे सब छूमंतर हो जाएगा। दर्द, वर्द कुछ नहीं रहेगा! विजय बाबू, आपका चेहरा भी तो उतरा हुआ है। देखते हैं शरीर बड़ा कसमस है। लीजिए, आप भी एक खुराक ! एकदम ठीक हो जायगा।”

दवा लेकर बाहर होने लगा था कि तोताराम ने कहा—“डाक्टर साहब ! आप हंसराज को जानते हैं?”

चौंककर डाक्टर बोले-“नहीं तो ! कौन हैं वे?”

तोताराम- मैं भी नहीं जानता, लेकिन आज थाने में सुना, वही इस खून के मामले में तैनात हुए हैं।

सिर हिलाकर डाक्टर ने कहा-“नहीं, मैं तो उनको नहीं जानता।”

ऊपर जब हम दोनों कमरे में पहुँच गए, तब मैंने कहा-“अब तो तोताराम हमको सब बातें ठीक-ठीक बतला दो।”

तोताराम- क्या बतला दें?

“तुम जरूर हमसे बात छिपाते हो। लेकिन अब ऐसा मत करो, हमको सब साफ-साफ कहो !”

तोता पहले तो चुप रहे, फिर दरवाजे की ओर देखकर बोले—“अच्छा, मैं कहता हूँ सब ! आओ मेरे बिछौने पर पास बैठ जाओ। तुमसे छिपाने से अब नहीं बनेगा, मैं देख चुका।

मैं उनके बिछौने पर जा बैठा। वह भी किवाड़ देकर मेरे पास आ बैठे। दवा की पुड़िया अभी मेरे हाथ ही में थी। मन में हुआ कि इसको खाकर निश्चिंत होकर सब सुनूँ। पुड़िया खोलकर मुँह में देने चला कि तोताराम ने मेरा हाथ पकड़ लिया, कहा—“अभी नहीं। मेरी सब बातें सुनकर ही खाना।”

स्विच उठाकर तोता ने रोशनी खतम कर दी, और मेरे कान के पास मुँह करके सायँ सायँ स्वर से कहने लगे। मैं मुग्ध होकर सुनने लगा। उपन्यास से भी बढ़कर उनकी बातें सुनते-सुनते मेरे रोयें खड़े होने लगे। मैं भीत और विस्मित होने लगा।

पंद्रह मिनट तक संक्षेप में कथा समाप्त करके तोताराम ने कहा-“आज यहीं तक गोपाल भाँड़ की कथा रहे। बाकी कल।

मैंने कहा-“गोपाल भाँड़ की बात कैसी! यह पहेली मेरी समझ में नहीं आई।”

तोताराम ने कहा-“तुमको मालूम नहीं ! बंगाल का गोपाल बड़ा मसखरा भाँड़ था। लड़के तक उसका नाम जानते हैं। एक बार उसने बड़े-बड़े रईसों को नेवतकर बुलाया और अपने घर में उनकी दावत की। उसका आदर सहित निमंत्रण पाकर बड़े-बड़े सैकड़ों आदमी खुश होकर आए। उन्होंने मन में सोच कि अच्छी सैर होगी। भाँड़ के यहाँ नेवता है। सदा लोग भाँड़ों को बुलाकर मजलिस जमाते हैं। मसल है कि ‘मजलिस वीरान जहाँ भाँड़ न बाशद।” बड़ी श्रद्धा से बहुत बड़े-बड़े आदमी कोई नई बात देखने की अभिलाषा से उसके नेवते में पधारे। रात हो गई थी। बाहर बैठक में उसने बड़े आदर से पधराकर सबको आसान दिया। भीतर से खूब छनन-मनन की आवाज और फोड़न की गंध आने लागि। कुछ देर तक यह काण्ड होता रहा। सब लोगों के मन में कुछ नई बात, नया भोजन और अपूर्व घटना के देखने का उत्साह उमड़ रहा था। ऊपर से घर के छनन-मनन और सुगंध से सबकी उमँग दूनी हो रही थी। देखते-देखते समय हुआ, सब मेहमान भोजन स्थान पर विराजमान हुए, सबके सामने पत्तल पड़ गया। सब लोग उत्साह से प्रतीक्षा करने लगे कि अब कोई बढ़िया पकवान आता है। भीतर का बघार, रह रहकर छनाका और पंचफोरन की खुशबू आ रही थी। कई मिनट तक जब सब मेहमान सामने पतरी पर हाथ रखे पकवान की राह ताकते रहे तब खुद गोपाल भाँड़ सबके सामने आकर बीच में हाथ जोड़े खड़ा हुआ। बोला-“बस साहबान, आज की कथा यहीं तक रहे। अद्य एई पर्यंत ! बाकी फिर।” इसी तरह हमारी कथा भी आज यहीं तक रहेगी; बाकी कल सब खोलकर कहूँगा।”

रेडियम वाली घड़ी देखकर उन्होंने कहा—“अभी समय है, दो बजे से पहले तो कोई घटना नहीं होती, इतने में तुम कुछ सो रहो। ठीक समय पर मैं जगा दूँगा।

5

रात के डेढ़ बजे थे, अंधेरे में आँख मूंदकर बिछौने पर सोया था। काँ ऐसे चैतन्य थे कि साँस चलने की ध्वनि सुनाई ड़े रही थी। तोताराम की दी हुई चीज जोर से दाहिने हाथ की मुट्ठी में पकड़े था। पहले से इशारा ठीक था। मुँह से कुछ न कहकर तोताराम ने देह छू दी। मैंने समझ लिया कि समय हो गया है। जोर से मेरे श्वास-प्रश्वास की आवाज सुनाई देने लगी।

इसके बाद कब दरवाजा खुला, इसका तो पता नहीं लगा, लेकिन तोताराम के बिछौने पर धप्प से आवाज हुई। कमरे में रोशनी हो गई। लोहे का डंडा हाथ में लिए मैं झपटकर उठ खड़ा हुआ।

देखता हूँ तो डाक्टर घुटने के बल बैठे हैं और हाथ में पिस्तौल लिए दूसरे हाथ में स्विच पकड़े, तोताराम उन्हीं के पास खड़े हैं। डाक्टर ऐसे मरकहा बैल की तरह ताकता था जैसे गोली खाकर मरता हुआ बाघ शिकारी की ओर देखता है।

तोताराम ने कहा-“बड़े दुख की बात है, डाक्टर साहब! आप ऐसे पक्के हाथ वाले ने आदमी छोड़कर तकिये पर हथियार चलाया। खैर, अब हिलना मत; छुरा फेंक दो। खबरदार हिले कि खोपड़ी खतम हुई। विजय बाबू ! सड़क की ओर का जँगला खोल दो तो। बाहर पुलिस खड़ी है डाक्टर! खबरदार!”

डाक्टर ने उठकर भागना चाहा, लेकिन तोताराम ने झपटकर उसके सिर पर ऐसा मारा कि उसी दम वह धरती पर गिर पड़ा।

फिर गरदा झाड़कर उठता हुआ डाक्टर बोला-“अच्छा, अब तो मैं हार गया, लेकिन पूछता यह हूँ कि मेरा अपराध क्या है?”

“अपराध क्या एक-दो हैं डाक्टर कि एक शब्द में कह दूँगा। अपराधों की बड़ी लिस्ट थाने में तैयार है। वहीं धीरे-धीरे सब गुल खिलेगा।”

उसी दम पाँच कांस्टेबलों के साथ दारोगा ने उस कमरे में प्रवेश किया। तोताराम ने कहा-“आपने सत्यान्वेषी हंसराज का खून करने की कोशिश की है, इसी कसूर में मैं आपको पुलिस के सुपुर्द करता हूँ। यही असामी है, इंस्पेक्टर साहब!”

इंस्पेक्टर ने झट डाक्टर के हथकड़ी भर दी। डाक्टर ने उनकी ओर घूरकर कहा-“यह भयानक चक्र रचा गया है। पुलिस और हंसराज सत्यान्वेषी ने मिलकर मेरे ऊपर यह चक्र रचा है। लेकिन कुछ परवा नहीं, मैं देख लूँगा। अदालत पर अदालत का खुला मैदान है। मुझे खर्च के लिए रुपये की कमी नहीं है।”

हंसराज ने कहा-“सो तो बनी बात है। कोकेन की इतनी बिक्री का रुपया जायगा कहाँ?”

मुँह बनाकर डाक्टर ने कहा-“मैं कोकेन बेचता हूँ, इसका प्रमाण?”

“बिना प्रमाण के तो हम लोग साँस भी नहीं लेते डाक्टर साहब ! तुम्हारे शुगर ऑफ़ मिल्क की शीशी में ही प्रमाण रखा हुआ है।”

साँप को जहरमोहरा छूला देने पर जैसा होता है, डाक्टर भी इस बात को सुनते ही सुकड़कर सोंठ हो गया। उसके मुँह से बात नहीं निकली। फुफकारते हुए साँड़ की तरह वह हंसराज की ओर देखने लगा। उसकी आँखों से चिंगारियाँ छूट रही थीं।

मैंने देखा तो अब वे सीधे-सादे डाक्टर शुकदेव नहीं हैं। मानो एक दुर्दान्त नरघातक गुंडा भलमनसाहत की खोल छोड़कर बाहर निकल आया। इसी भयंकर नरघाती के साथ मैं इतने दिनों से मित्र भाव से बिता रहा हूँ, विचार कर मेरा कलेजा दहल उठा।

हंसराज ने पूछा—“कौन दवा तुमने हम दोनों को दी थी, डाक्टर ठीक बोलो तो? क्या मरफिया की बुकनी थी? बोलो ! बोलो ! नहीं बोलोगे? नहीं बोलोगे तो केमिकल एग्ज़ामिनर की आँख में धूल न डाल दोगे।”

अब आराम से खाट पर बैठकर हंसराज बोले-“अच्छा दारोगाजी, अब हमारी इत्तिला दर्ज कीजिए।”

फर्स्ट इनफार्मेशन लिखे जाने पर डाक्टर के घर की तलाशी ली गई। उनके यहाँ से दो बड़े बोतलों में कोकेन बरामद हुआ। डाक्टर ने जो उस समय चुप्पी साधी, तो फिर उसका मुँह नहीं खुला। उसके बाद माल सहित थाना चालान करते-करते सवेरा हो गया। उनका चालान करने के बाद हंसराज ने कह—“यहाँ तो सब तीन-तेरह हो गया है। चलो मेरे डेरे पर, वहीं चाय-पानी करेंगे।”

गिरगाम बैकरोड के एक पंचमहले मकान के बड़े दरवाजे पर पहुंचे तो वहाँ पीतल के तख्ते पर लिखा था— हंसराज सत्यान्वेषी

हंसराज ने कहा—“आइए, पधारिए; गरीब का झोंपड़ा पवित्र कीजिए।”

मैंने पूछा—“सत्यान्वेषी क्या?”

“वह मेरा पता परिचय है। डिटेक्टिव शब्द सुनने में अच्छा नहीं लगता। जासूस शब्द भी अब हल्के दर्जे का बाजारू होने से रुचिकर नहीं है। इसी से मैंने अपना नाम सत्यान्वेषी रखा है। अच्छा नहीं है?”

पूरा मकान हंसराज के जिम्मे है। कमरे खूब साफ-सुथरे हैं। मैंने पूछा—“आप अकेले इसमें रहते हैं?”

“हाँ ! संगी मेरा वही गरीबराम है।”

मैंने साँस छोड़कर पूछा—“बहुत बढ़िया मौके का मकान है। कितने दिन से यहाँ हैं?”

“कोई बरस भर हुआ होगा। केवल कुछ दिनों के लिए आप लोगों के मेस में जाकर डेरा कर लिया था।”

गरीब ने झटपट स्टोव जलाकर चाय तैयार कर ली। हम दोनों को प्यालों में ड़े दी। छोटे चम्मच से चाय चूसते हुए हंसराज ने कहा- “यार, तुम्हारे मेस में तो कई दिन बड़े मजे में बीते। लेकिन डाक्टर ने अंत में मुझे पकड़ लिया था। इसमें मेरा ही अपराध था।”

मैं- कैसा अपराध? मेरी समझ में नहीं आया।

“पुलिस से जब मैंने जँगले की बात कही तभी मैं पकड़ा गया। समझते हो न उसी जँगले से पाँड़े जी—–”

“नहीं, मैं यह पहेली नहीं समझता। शुरू से सब कहिए।”

एक बार और चाय चूसकर हंसराज ने कहा-“अच्छा मैं कहता हूँ। कुछ तो रात को सुन ही चुके थे। अब बाकी भी सुन लो। तुम लोगों के मुहल्ले में जो हर महीने खून होता आता था, उसके मारे पुलिस के अफसर बहुत तंग हो गए थे। एक ओर तो खुद बंबई सरकार और ऊपर से ये अखबारवाले पुलिस को ताने-तिश्ने देकर नाकों दम कर रहे थे। तब मैं लाचार एक दिन पुलिस के बड़े साहब से मिला। उनसे मैंने कह दिया कि मैं गैर सरकारी शौकिया डिटेक्टिव हूँ। मुझे विश्वास है कि इन खून खराबियों का पता लगा सकूँगा।

“बहुत बातचीत होने के बाद पुलिस कमिश्नर ने मुझे हुक्म दिया। लेकिन इतनी प्रतिज्ञा हुई कि उनके और मेरे सिवा इसकी खबर किसी को न हो। उसके बाद मैं तुम्हारे मेस में पहुँचा। जहाँ कोई मुहल्ला वारदात पर वारदात होने के लिए बदनाम हो, उसकी जड़ कहीं न कहीं पास में होनी चाहिए। इसी भरोसे पर मैंने तुमलोगों का मेस चुन लिया था। मुझे कहाँ मालूम था कि विरोधी दलवालों की बुनियाद भी उसी मेस में है।”

“डाक्टर को मैंने बहुत आगे बढ़ा हुआ भलामानस तो समझा था। और यह भी मन में बात बैठी हुई थी कि कोकेन का रोजगार चलाने के लिए होमिओपैथी डाक्टर बनकर बैठने से बहुत सुभीता होता है। डाक्टर के ऊपर संदेह मुझे हुआ पाँड़े के मरने से एक डीं पहले। तुमको याद होगा एक दिन सवेरे सड़क पर भाटिया की लाश मिली थी। जब डाक्टर ने सुना कि उसकी कमर से एक हजार के नोट मिले हैं, तभी उसके चेहरे पर एक ऐसा व्यर्थ लोभ फूट पड़ा कि मेरा सब संदेह उसी पर वज्रवत् जा घहराया।”

“उसके बाद संध्या को जब पाँड़े के दरवाजे पर लुककर बातें सुनने की घटना हुई। वे आए थे हमलोगों की बातें सुनने नहीं। उनका मतलब था डाक्टर से बात करने का, लेकिन एक मामूली बहाना बनाकर चले गए।”

“पाँड़ेजी के व्यवहार से मुझे एक बार धोखा हुआ। मैंने समझा कि वे पाँड़े ही असल असामी हैं। फर्श पर कान देकर सुनने पर भी मामला साफ नहीं हुआ; लेकिन इतना मेरी समझ में आ गया कि उन्होंने कुछ भयंकर दृश्य देखा है और वही गुप्त बात डाक्टर से कहने गए थे।“

“अब तो मामला बिल्कुल साफ हो गया। डाक्टर कोकेन का रोजगार करता था। लेकिन किसी को इसका भेद जानने नहीं देता था कि वह उस कोकेन के रोजगार का सरदार है। अगर किसी को ये बातें किसी तरह मालूम हो जातीं तो उसको जान से मार डालता था। इसी तरह वह इतने दिनों तक अपने को बचाता आया है।“

“वह भाटिया, जहाँ तक मैं समझता हूँ, डाक्टर का दलाल था। उसी के द्वारा कोकेन बाजार में दिया जाता था। हो सकता है कि मेरा यह अनुमान ठीक न भी हो। उस रात को वह डाक्टर के पास आया था और किसी कारण से दोनों में अनबन हुई। हो सकता है कि डाक्टर को वह धमकाकर कुछ वसूल करना चाहता हो। इसी वास्ते उसने पुलिस का डर दिखलाया हो। उसके बाद ज्योंही वह घर से बाहर हुआ, डाक्टर उसके पीछे-पीछे गया और भाटिया को खत्म कर डाला। पाँड़े ने अपने जँगले से सड़क पर की यह घटना देखी और नासमझी के मारे डाक्टर से कहने गए। लेकिन उनका मतलब क्या था, यह तो मैं नहीं जानता। वे डाक्टर के उपकृत थे। उनको सावधान करने गए हों तो भी आश्चर्य नहीं। लेकिन होम करते हाथ जलता है। परिणाम उल्टा हुआ। डाक्टर ने देखा कि अब पाँड़े को जीते रहने का अधिकार नहीं रहा। उसी रात को जब बाहर पेशाब करने आए होंगे, डाक्टर यमदूत की तरह उनके सामने आ खड़ा हुआ।”

“मेरे ऊपर डाक्टर का संदेह हुआ या नहीं सो तो मैं नहीं जानता, लेकिन जब मैंने पुलिस को यह कहा कि यह सड़क की ओर का जँगला ही पाँड़े जी की मौत का कारण है, तब उसने जरूर समझा कि मैं कुछ अंदाजा करता हूँ। इस कारण मुझे भी यमलोक जाने का खासा अधिकार मिल गया। लेकिन मेरे भीतर स्वर्ग जाने के लिए बिल्कुल उद्वेग नहीं था, इसी कारण मैं बड़ी सावधानी से इस लोक की यात्रा कदम-कदम पर खबरदारी से करने लगा।“

“उसके बाद पुलिस ने एक बौड़मपने का काम कर डाला कि मुझे गिरफ़्तार कर ले गई। अंत को कमिश्नर साहब ने मुझे छुड़ाया। मैं फिर मेस को लौट आया। डाक्टर को इतना समझते देर नहीं लगी कि मैं जासूस हूँ, लेकिन उसने मन का भाव छिपाकर मुझे रात को मेस में रहने देने की उदारता दिखलाई। फिर भी इस उदारता की आड़ में उसकी दुरभिसंधि यह थी कि मुझे किसी तरह खतम कर डालना। क्योंकि उसकी बातें मैं बहुत कुछ जान गया, जिससे उसके ऊपर खतरे की नंगी तलवार कच्चे धागे में लटकने लगी।“

“डाक्टर के विरुद्ध सच्ची बात तो यह कि कोई प्रमाण मेरे पास नहीं था। यह बात सही है कि उसके घर से कोकेन बरामद करके उसको माल सहित चालान कर दिया जा सकता था। लेकिन वह बेदर्द कसाई खूनी है, इसका किसी अदालत में साबित करना कठिन ही नहीं असंभव था। इसी कारण मैंने भी उसको लोभ देना शुरू किया। ताले में काँटा तोड़कर मैंने ही उसको खराब कर दिया। जब डाक्टर ने सुना कि ताला बंद नहीं हो सकता, तब उसके भीतर उत्साह का बवंडर उठ आया कि अब हम लोग रात में दरवाजा बंद करके नहीं सो सकेंगे।”

“उसके बाद जब हम लोग दवा लेने उसके यहाँ गए तब तो उसके हाथ में चाँद मिल गया। उसने हम लोगों को एक-एक पुड़िया मरफिया पाउडर देकर समझ लिया कि हम लोग खूब शांति से इस जगत् को छोड़ देंगे और और किसी को कुछ भी मालूम नहीं होगा। उसके बाद तो खुद बाघ आकर पिंजड़े में अपने आप फँस गया।

*****

मैंने कहा-“अच्छा अब मैं चलता हूँ भाई, तुम तो उधर जाओगे नहीं न?”

“नहीं, मैं क्यों जाऊँ? तुम मेस को जाअ रहे हो?”

मैं – हाँ ! हाँ !

“किस वास्ते ! क्या काम है?”

मैं—क्या काम है? डेरे पर नहीं जाऊँगा?

“मेरा कहना है कि उस मेस को तों छोड़ना ही होगा। इससे तो अच्छा था कि यहीं आ जाते! यह डेरा भी तो खराब नहीं है।“

मैंने कुछ देर चुप रहकर कहा-“क्यों, बदला दे रहे हो क्या?”

हंसराज ने मेरे कंधे पर हाथ रखकर कहा-“तुमने लाचारी में अपने डेरे में मुझे जगह देकर अपना साथी बनाया था। उस ऋण से तो उऋण हो ही नहीं सकता भाई! मैं देखता हूँ, तुम्हारे साथ रहे बिना मेरा मन ही नहीं मानेगा। यह बद अभ्यास थोड़े ही दिन तुम्हारे साथ रहने से हो गया है।“

मैं-सच कहते हो?

“बिल्कुल सच; इसमें जरा भी मीन-मेख नहीं यार !”

“अच्छा तो ठहरो। मैं अपना सब बोरिया-बँधना उठाए लिए आता हूँ।“

प्रसन्न होकर हंसराज ने कहा-“साथ ही मेरा अंगड़-खंगड़ भी लेते आना न भूलना।”

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