खूबसूरत जापान और मैं (व्याख्यान) : यासुनारी कावाबाता (अनुवाद : सरिता शर्मा)

Khoobsurat Japan Aur Main (Lecture in Hindi) : Yasunari Kawabata

"वसंत में चेरी खिलती है, गर्मियों में कोयल।
शरद ऋतु में चंद्रमा, और सर्दियों में बर्फ, स्वच्छ, शीतल।"

"सर्दियों का चाँद बादलों से आता मुझे सोहबत देने के लिए।
हवा चुभ रही है, बर्फ ठंडी है।"

इन कविताओं में से पहली कविता "अंतर्जात आत्मा" शीर्षक से लामा दोजेन (1200-1253) ने लिखी है। दूसरी कविता लामा माइयो (1173-1232) ने लिखी है। जब मुझसे हस्तलिपि के नमूनों के लिए पूछा जाता है, तो मैं अक्सर इन कविताओं चुनता हूँ।

दूसरी कविता में उसके मूल का असाधारण रूप से विस्तृत ब्यौरा है मानो उसके अर्थ के मर्म की व्याख्या की गई हो : "वर्ष 1224 के बारहवें महीने के बारहवें दिन की रात को चाँद बादलों के पीछे था, मैं कायकू हॉल में जेन ध्यान में बैठ गया। आधी रात की चौकसी की घड़ी आई, तो मैंने ध्यान करना बंद किया और निचले क्वार्टरों के शिखर पर बने हॉल से नीचे उतरा, और जब मैंने ऐसा किया, तो चाँद बादलों से निकल कर आया और बर्फ को चमकाना शुरू कर दिया। चाँद मेरा साथी था, और घाटी में गरजने वाला भेड़िया भी डर का कारण नहीं था। जब इस समय, मैं फिर से निचले क्वार्टरों से बाहर निकला, तो चाँद फिर से बादलों के पीछे था। जब घंटी देर रात की चौकसी का संकेत दे रही थी, मैंने एक बार फिर से शिखर पर जाने के लिए अपना रास्ता बनाया, और चाँद ने मुझे रास्ते पर देखा। मैंने ध्यान कक्ष में प्रवेश किया और चाँद, बादलों का पीछा करते हुए पीछे वाले शिखर के परे डूबने वाला था, और मुझे लग रहा था कि वह चुपके से मेरे साथ बना हुआ था।"

जिस कविता को मैंने अभी इस व्याख्या के साथ उद्धृत किया है, इसे तब लिखा गया था जब माइयो ने पहाड़ के पीछे चाँद को देखने के बाद ध्यान कक्ष में प्रवेश किया, उसके बाद एक और कविता है :

"मैं पहाड़ के पीछे जाऊँगा। वहाँ भी जाओ, हे चाँद।
हर रात हम एक दूसरे के साथ रहेंगे।"

जब माइयो ने बाकी रात ध्यान कक्ष में बिता दी थी, या शायद वहाँ फिर से सुबह होने से पहले चला गया था, उसके बाद यहाँ एक और कविता के लिए सेटिंग है :

"मैंने ध्यान से अपनी आँखें खोलने पर, भोर में चाँद को खिड़की को प्रकाशित करते देखा। मैं खुद अँधेरी जगह पर था, मुझे लगा मानो मेरा दिल उस रोशनी से चमक रहा था जो चंद्रमा की रोशनी प्रतीत हो रही थी।

"मेरा दिल चमकता है, प्रकाश का शुद्ध फैलाव;
और बेशक चाँद अपने प्रकाश के बारे में खुद सोचेगा।"

इतनी सहज और निर्दोष संरचना की पुकार की वजह से, माइयो को चाँद का कवि कहा जाता है :

"उज्ज्वल, उज्ज्वल उज्ज्वल, और उज्ज्वल, उज्ज्वल, उज्ज्वल, और चमकदार।
उज्ज्वल और चमकदार, उज्ज्वल, और उज्ज्वल, चमकदार चंद्रमा।"

"देर रात से सुबह तक सर्दियों के चाँद पर लिखी इन तीन कविताओं में माइयो में एक और कवि-लामा साईग्यो (1118-1190) की ओर झुकाव दर्शाया है : हालाँकि मैं कविता लिखता हूँ, मैं इसे लिखी हुई कविता के रूप में नहीं मानता हूँ।" प्रत्येक कविता के इकतीस ईमानदार और सच्चे चाँद को संबोधित कर रहे प्रतीत होने वाले अक्षर मात्र, "मेरे साथी के रूप में चंद्रमा" के लिए नहीं हैं। चाँद देखकर, वह चाँद बन जाता है, उसके द्वारा देखा चाँद वह हो जाता है। वह प्रकृति में डूब जाता है, प्रकृति के साथ एक हो जाता है। सुबह होने से पहले अंधेरे ध्यान हॉल में बैठे लामा के "शुद्ध हृदय" का प्रकाश, भोर चाँद का अपना प्रकाश हो जाता है।

जैसा कि हम ऊपर उद्धृत माइयो की कविताओं के लंबे परिचय से देखते हैं जिनमें सर्दियों का चाँद पहाड़ पर बने हॉल में धर्म और दर्शन पर ध्यान में डूबे हुए लामा का साथी और दिल बन जाता है, उनमें चंद्रमा के साथ कोमल परस्पर प्रभाव और अदला-बदली है; और कवि ने इसी के बारे में गाया है। मेरी हस्तलिपि के नमूनों के लिए पहली कविता को चुनने की वजह उसकी उल्लेखनीय नम्रता और करुणा थी। जब मैं ध्यान हॉल में जाता हूँ और फिर उतरता हूँ तो बादलों के पीछे जाकर लौटने वाला शीतकालीन चाँद मेरे कदमों को उज्ज्वल बना रहा है, मुझे भेड़िये से भयरहित बना देता है : क्या आपको हवा नहीं लगती है, बर्फ नहीं पड़ती है, क्या आपको ठंड नहीं लगती है? मैं कविता का चयन जोशपूर्ण, गहरी, नाजुक करुणा की कविता के रूप में करता हूँ, ऐसी कविता जिसमें जापानी आत्मा की गहरी शांति हो। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बोटिसेली के विद्वान के रूप में विख्यात, पूर्व और पश्चिम की अतीत और वर्तमान की कला में महान ज्ञानी डॉ याशीरो ने जापानी कला की विशेष विलक्षणताओं को एक काव्यात्मक वाक्य में समेटा में है : "बर्फ पड़ने, चाँद के, फूल के खिलने के समय पर... हम सबसे ज्यादा अपने साथियों के बारे में सोचते हैं।" जब हम बर्फ की खूबसूरती देखते हैं, तो हम पूर्णिमा के चाँद की खूबसूरती देखते हैं, तो हम एक तरह से चार मौसमों की खूबसूरती का संस्पर्श करते हैं और उससे प्रबुद्ध होते हैं, उस समय हम सबसे ज्यादा अपने उन साथियों के बारे में सोचते हैं जो करीबी हैं, और उनके साथ खुशी साझा करना चाहते हैं। सुंदरता का उल्लास प्रगाढ़ साहचर्य के लिए प्रगाढ़ भावनाओं, साथी के लिए उत्कंठाओं को जगाता है, और "कामरेड" शब्द का मतलब "इनसान" समझा जा सकता है। बर्फ, चाँद, फूल, खिलना एक दूसरे में घुलते हुए मौसमों को व्यक्त करने वाले शब्द हैं जिनमें जापानी परंपरा में प्रकृति की सभी असंख्य अभिव्यक्तियों में से पहाड़ों और नदियों और घास और पेड़ों और मानव भावनाओं की सुंदरता को शामिल करते हैं।

वह आत्मा, बर्फ में साथियों के लिए वह भावना, चांदनी, बौर के तले बैठना भी चाय समारोह के लिए बुनियादी रस्म है। चाय समारोह दिल से करीब आना है, अच्छे मौसम में अच्छे साथियों का मिलन है। यह भी बता दूँ कि मेरे उपन्यास 'थाउजेंड क्रेन्स' को चाय समारोह की औपचारिक और आध्यात्मिक सुंदरता के उद्बोधन के रूप में देखना गलत व्याख्या है। यह नकारात्मक कृति है जो चाय समारोह के घटियापन के प्रति शंका और चेतावनी की अभिव्यक्ति है जिसमें वह धँस गया है।

"वसंत में, चेरी खिलती है, गर्मियों में कोयल।
शरद ऋतु में चंद्रमा, और सर्दियों में बर्फ, स्वच्छ, शीतल।"

अगर कोई ऐसा करना चुनता है, तो चार सत्रों से प्रतिनिधि छवियों का एक सबसे अजीब के रूप में, दोजेन की कविता में चार मौसमों की खूबसूरती को एक पारंपरिक, साधारण, औसत दर्जे के ताने-बाने से ज्यादा कुछ नहीं समझे। और फिर भी लामा रयोकन (1758-1831) की मृत्युशय्या पर लिखी कविता इससे काफी कुछ मिलती-जुलती है...

"मेरी विरासत क्या होगी? वसंत के फूल,
पहाड़ियों में कोयल, पतझड़ के पत्ते।"

दोजेन की कविता की तरह इस कविता में ...के लिए नहीं, बल्कि विशेष प्रभाव के लिए बिना किसी हिचकिचाहट के बहुत आम अलंकार और शब्द पिरो दिए गए हैं ...और वे इसलिए सत्व को संप्रेषित करते हैं। और मैंने रयोकान की अंतिम कविता को उद्धृत किया है है।

"वसंत का एक लंबा, धुंधला दिन :
मैंने इसे बच्चों के साथ गेंद खेलते हुए, करीब से देखा था।
"हवा ताजी है, चाँद धवल है।
बुढ़ापे के बाकी बचे दिनों में, रात भर मिलकर झूमें नाचें।"
"ऐसा नहीं है कि मैं दुनिया से कुछ भी नहीं चाहता हूँ,
बात यह है कि मैं अकेले में आनंदित हो ज्यादा खुश होता हूँ।"

रयोकान जिन्होंने अपने समय के आधुनिक फूहड़पन को झकझोर दिया था, जो पिछली सदियों की शान में डूबे हुए थे, जिनकी कविताओं और हस्तलिपि को जापान में अब बहुत सराहा जाता है - वह इन कविताओं की भावना में बसते थे, ग्रामीण रास्तों में भटकते थे, आश्रय के लिए घास की झोंपड़ी, फटे कपड़े, और किसानों से बात करना। उनके लिए धर्म और साहित्य की गूढ़ता जटिलता में नहीं थी।

इसके बजाय उन्होंने साहित्य और विश्वास के मामले में बौद्ध वाक्यांश "मुस्कुराता हुआ चेहरा और कोमल शब्द" के सार में निहित सौम्य भावना को अपनाया था। उन्होंने अंतिम कविता में एक विरासत के रूप में कुछ भी पेशकश नहीं की है। लेकिन उन्हें उम्मीद थी कि उनकी मौत के बाद प्रकृति सुंदर बनी रहेगी। यही उनकी वसीयत हो सकती थी। उनकी कविता में पुराने जापान की भावनाओं को, और साथ ही एक धार्मिक आस्था के दिल को महसूस किया जा सकता है।

"मैं सोचता ही जा रहा था कि वह कब आएगी।
और अब जब हम साथ हैं। मुझे सोचने की क्या जरूरत है?"

रयोकान ने प्रेम कविताएँ भी लिखी है। यह उदाहरण ऐसा है जो मुझे प्रिय है। उनहत्तर साल का बूढ़ा आदमी (मैं बता दूँ कि इसी उम्र में मुझे नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ है), रयोकान की मुलाकात तेइसिन नामक उनतीस वर्षीय नन से हुई और उससे प्रेम हो गया। कविता को ऐसी चिरायु महिला से मुलाकात करने पर खुशी के रूप में देखा जा सकता है जिसके लिए इंतजार बहुत लंबा था। अंतिम पंक्ति सादगी का अवतार है।

रयोकान का तिहत्तर वर्ष की आयु में निधन हो गया। उनका जन्म जापान की पिछली ओर स्थित उत्तरी क्षेत्र इचिगो, वर्तमान निगाटा प्रांत में हुआ था जोकि मेरे उपन्यास 'स्नो कंट्री' की सेटिंग हैं, जहाँ ठंडी हवाएँ साइबेरिया से जापान सागर के पार से नीचे बहती हुई आती हैं। उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी बर्फीले देश और "अपने अंतिम छोर पर आँखें" में बिताई और जब वह बूढ़े होकर थक गए थे, जानते थे कि मौत निकट है और ज्ञान प्राप्त कर लिया था, तो जैसा कि हमने उनकी अंतिम कविता में देखा, मुझे लगता है कि बर्फीला देश और भी सुंदर हो गया था। मेरे एक लेख का शीर्षक "अपने अंतिम छोर पर आँखें" है।

यह शीर्षक लघु कथाकार एकुतागवा रुनोसुके (1892-1927) के आत्महत्या नोट से लिया गया है। यह वाक्यांश मुझे बहुत ताकत के साथ आकर्षित करता है। एकुतागवा ने कहा था कि उन्हें लगने लगा था कि वह उस जानवर को खोते जा रहे थे, जिसे जीने की ताकत के रूप में जाना जाता है और वह आगे बताते हैं :

"मैं साफ और बर्फ की तरह ठंडा रुग्ण नसों वाली, सपाट और भावना रहित दुनिया में रह रहा हूँ... मैं नहीं जानता कि मैं अपने आपको मारने का संकल्प कब जुटा पाऊँगा। लेकिन मेरे लिए प्रकृति पहले कभी अब जितनी सुंदर नहीं थी। मुझे इसमें कोई शक नहीं है कि आप इस विरोधाभास पर हँसेंगे कि मैं यहाँ आत्महत्या पर विचार कर रहा हूँ, तब भी मुझे प्रकृति से प्यार है। मगर प्रकृति सुंदर है क्योंकि आँखों के आखिरी छोर से आ रही है।"

एकुतागवा ने पैंतीस वर्ष की आयु में 1927 में आत्महत्या कर ली थी।

मुझे अपने लेख "अपने अंतिम छोर पर आँखें" में, यह कहना था : "चाहे कोई दुनिया से कितना भी विमुख हो जाए, आत्महत्या आत्मज्ञान का स्वरूप नहीं है। चाहे कोई कितना भी सराहनीय हो, आत्महत्या करना संत के अधिकार क्षेत्र में कतई नहीं है।" मैं न तो आत्महत्या की प्रशंसा करता हूँ और न ही आत्महत्या के साथ मेरी कोई सहानुभूति है। मेरे एक और मित्र की जवानी में मौत हो गई थी, जो एक अग्रणी चित्रकार थे। उन्होंने भी कई वर्षों तक आत्महत्या के बारे में सोचा था, और उनके बारे में मैंने इसी लेख में लिखा है : "ऐसा लगता है कि उन्होंने बार-बार यह कहा कि मौत से बेहतर कोई कला नहीं है और मरना ही जीना है," हालाँकि मैं देख सकता था, कि उनके लिए, जिनका जन्म बौद्ध मठ में हुआ और बौद्ध स्कूल में पढ़ाई की थी, मौत की अवधारणा पश्चिम से बहुत अलग थी।" जिन लोगों ने चीजों के बारे में विचार किया है, क्या उनमें से एक भी ऐसा है जिसने आत्महत्या के बारे में नहीं सोचा हो?" मुझे यह पता चला था कि उस आदमी इक्यू (1394-1481) ने दो बार आत्महत्या करने के बारे में सोचा था। मैंने "उस आदमी", इसलिए लिखा क्योंकि लामा इक्यू को बच्चों में भी खुशमिजाज व्यक्ति के रूप में जाना जाता है, और उनके बेइंतहा सनकी व्यवहार के किस्से हमें बड़ी संख्या में सुनने को मिले हैं। उनके बारे में यह कहा जाता है कि बच्चे उनके घुटने पर चढ़कर उनकी दाढ़ी को सहलाया करते थे और जंगली पक्षी उनके हाथ से चुग्गा लिया करते थे। इन सबसे यह लगता था कि वह बहुत बेफिक्र, मिलनसार और कोमल स्वभाव के लामा थे। सच्चाई यह है कि वह सबसे कट्टर और गंभीर जेन लामा थे। कहा जाता है कि वह एक सम्राट के पुत्र थे और छह साल की उम्र में मठ में चले गए है, और उन्होंने कम उम्र से ही विलक्षण प्रतिभासंपन्न कवि के रूप में अपनी योग्यता दर्शाई थी इसके साथ ही उन्हें धर्म और जीवन के बारे में गहरे संदेह परेशान कर रहे थे। "अगर कोई भगवान है, तो उसे मेरी मदद करने दो। अगर कोई भगवान नहीं है, तो मुझे खुद को झील में फेंकने दो और मछलियों के लिए खाना बन जाने दो।" इन शब्दों को लिखकर छोड़ने के बाद उन्होंने खुद को झील में फेंकने की कोशिश की, लेकिन उन्हें रोक लिया गया। एक अन्य अवसर पर जब दायतोकुजी मठ में एक लामा ने आत्महत्या कर ली थी, तो उनके कई अनुयायी दोषी पाए गए थे। इक्यू "मेरे कंधों पर भारी बोझ," लेकर अपने मठ में लौट गए, खुद को भूखा मारने की कोशिश की। उन्होंने अपने कविता संकलन का शीर्षक "उत्तेजित बादल" दिया था, और अपना उपनाम "उत्तेजित बादल" रखा था। उनके इस संग्रह और उसके बाद के संग्रहों में चीनी भाषा की अद्वितीय कविताएँ हैं, विशेष रूप से जापानी मध्य युग की जेन कविताएँ, कामुक कविताएँ और सोने के कमरे के रहस्यों के बारे में कविताएँ जो हमें विस्मय में डाल देती हैं। उन्होंने मछली खाकर और स्पिरिट पीकर और महिलाओं के साथ संसर्ग करके अपने समय के जेन के नियमों और पाबंदियों से परे जाकर उनसे मुक्त होने की कोशिश की, और इस तरह उन्होंने स्थापित धार्मिक स्वरूपों का विरोध करके गृह युद्ध और नैतिक पतन के काल में जेन की तलाश में जीवन के सार और मानव अस्तित्व के पुनरुद्धार की कोशिश की है।

क्योटो में मुरासाकिनो पर बना हुआ उनका मठ, चाय समारोह केंद्र बना हुआ है, और उनकी हस्तलिपि के नमूनों को चाय कक्षों के आलों में पर्दों के रूप में बहुत सराहा जाता है।

मेरे खुद के पास इक्यू की हस्तलिपि के दो नमूने हैं। उनमें से एक एकल पंक्ति का है : "बुद्ध की दुनिया में प्रवेश करना आसान है, शैतान की दुनिया में प्रवेश करना मुश्किल है।" ये शब्द मुझे इतना आकर्षित करते हैं कि जब मुझसे अपनी हस्तलिपि का नमूना माँगा जाता है, तो मैं अक्सर उनका इस्तेमाल करता हूँ। उन्हें कोई जितना चाहे उतने कितने ही विभिन्न और कठिन तरीकों से पढ़ सकता है, लेकिन शैतान की दुनिया में बुद्ध की दुनिया को जोड़ देने से, मुझे जेन का इक्यू अत्यधिक तत्परता से समझ आ जाता है। यह सच कि एक कलाकार के लिए, उन शब्दों में अच्छाई, सौंदर्य, भय और यहाँ तक कि शैतान की दुनिया के बारे में याचिका की तलाश करने वाले उन शब्दों में... यह सच कि यह पीछे छिपा हुआ सतह पर स्पष्ट होना चाहिए, शायद भाग्य की असंभाव्यता के बारे में बताते हैं। शैतान की दुनिया के बिना बुद्ध की कोई दुनिया नहीं हो सकती है। और शैतान की दुनिया में दाखिल होना मुश्किल है। यह कमजोर दिल के लोगों के लिए नहीं है।

"यदि आप बुद्ध से मिलते हो, तो उसे मार डालो। आपको कानून का कोई आचार्य मिलता है, तो उसे मार डालो।"

यह जेन का जाना-माना आदर्श वाक्य है। अगर बौद्ध धर्म आम तौर पर संप्रदायों में विभाजित किया गया है जिनमें से एक आस्था द्वारा मुक्ति में विश्वास करता है और दूसरा अपने प्रयासों से मुक्ति में विश्वास करता है तो जाहिर है जेन में इस तरह की हिंसक उक्तियाँ होनी चाहिए, जिनमें अपने प्रयासों से मुक्ति पर जोर दिया गया हो। दूसरी ओर, विश्वास के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति के बारे में, शिन संप्रदाय के संस्थापक, शिनरान (1173-1262), ने एक बार कहा था : "अच्छे का स्वर्ग में पुनर्जन्म हो जाएगा, और बुरे के साथ ऐसा और भी ज्यादा होगा।" यहाँ चीजों के प्रति नजरिया इक्यू की बुद्ध की दुनिया और शैतान से मिलता-जुलता है, और फिर भी दोनों के अपने अलग झुकाव हैं। शिनरान ने भी कहा : "मेरा एक भी शिष्य नहीं होगा।"

"यदि आप बुद्ध से मिलते हो, तो उसे मार डालो। अगर आपको कानून का कोई आचार्य मिलता है, तो उसे मार डालो।"

"मेरा एक भी शिष्य नहीं होगा।"

शायद इन दो बयानों में, कला की कठोर नियति है।

जेन में प्रतिमाओं की पूजा नहीं की जाती है। जेन में प्रतिमाएँ होती हैं, लेकिन जिस कक्ष में ध्यान से नियम अपनाए जाते हैं, वहाँ न तो बुद्ध की प्रतिमाएँ हैं, न तस्वीरें हैं, और धर्मग्रंथ तक नहीं हैं। जेन शिष्य कई घंटों तक आँखें मूँदकर चुपचाप और अविचल बैठा रहता है। इस वक्त वह सभी विचारों और विवेचनों से मुक्त होकर भावहीनता की स्थिति में प्रवेश करता है। वह स्वयं से अलग होकर शून्यता के दायरे में प्रवेश करता है। इस पश्चिम की शून्यता या पश्चिम की रिक्तता नहीं है। बल्कि यह इसके विपरीत है, आत्मा का ऐसा ब्रह्मांड है जिसमें हर कोई हदों को पार करके सबों के साथ बिना रोक टोक के असीम संपर्क कर सकता है। जेन के पाठ्यक्रम के अध्यापक होते हैं, और शिष्य को उसके गुरु के साथ सवाल और जवाब के आदान प्रदान से द्वारा आत्मज्ञान की ओर ले जाया जाता है, और वह शास्त्रों का अध्ययन करता है। फिर भी, शिष्य को, हमेशा अपने विचारों का स्वामी होना चाहिए, और अपने स्वयं के प्रयासों से ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। और चेतनता और तर्क के बजाय अंतर्ज्ञान, तत्काल भावना पर अधिक जोर दिया जाता है। आत्मज्ञान शिक्षण से नहीं, बल्कि अंतर्मन की आँखें खुलने से आता है। सच्चाई "शब्दों का त्याग करने" में है, यह "शब्दों से बाहर" जाने में निहित है। और इसलिए हमें विमलकीर्ति निर्देश सूत्र में "गड़गड़ाहट जैसी चुप्पी" का चरम देखने को मिलता है। परंपरा के अनुसार, भारत के एक राजकुमार बोधिधर्म जो छठी शताब्दी में रहते थे और चीन में जेन के संस्थापक थे। वह नौ साल तक गुफा की दीवार की ओर मुँह करके मौन बैठे रहे, और अंत में राजकुमार ने ज्ञान प्राप्त कर लिया। आसीन मुद्रा में मौन ध्यान की जेन परम्परा बोधिधर्म से व्युत्पन्न हुई है।

यहाँ इक्कू की दो धार्मिक कविताएँ हैं :

"तब मैं आपसे जवाब माँगता हूँ। जब मैं आपसे नहीं पूछता आप जवाब नहीं देते हैं।
तो फिर आपके दिल में क्या, हे प्रभु बोधिधर्म?"
"और, वह क्या है, दिल?
यह स्याही की चित्रकला में चीड़ से गुजरती पवन की आवाज है।"

यहाँ हम जेन की भावना को प्राच्य चित्रकला में पाते हैं। स्याही की चित्रकला का तत्व प्रसार में, संक्षिप्त में, जो अनाहरित है, उसमें है। चीनी चित्रकार चिन नुंग के शब्दों में : "आप शाखा को अच्छी तरह से रँगते हैं, और आप हवा की आवाज सुनते हैं।" और लामा दोजेन एक बार फिर कहते हैं : "क्या ऐसी घटनाएँ नहीं होती हैं। बाँस की आवाज में ज्ञानोदीप्ति। आड़ू के खिलना में दिल में उजाला फैलना।"

फूलों की सजावट में माहिर, इकेनोबो सेन'ओ ने एक बार कहा था (यह टिप्पणी उनकी उक्तियों में से ली गई है) : "फूलों पर थोड़े से पानी के छिड़काव से, हम नदियों और पहाड़ों की विशालता का आह्वान करते हैं।" बेशक जापानी उद्यान भी प्रकृति की विशालता का प्रतीक है। पश्चिमी उद्यान शुद्धाकार होता है, जबकि जापानी उद्यान विषम होता है, और ऐसा इसलिए है क्योंकि विषमता में बहुलता और विशालता का प्रतीक होने की बहुत अधिक शक्ति है। जाहिर है विषमता, कोमल संवेदनशीलता द्वारा बनाए गए संतुलन पर टिकी हुई है।

जापान की परिदृश्य बागवानी की कला से ज्यादा जटिल, विविध, विस्तार के प्रति चौकस कुछ भी नहीं है। इसलिए सूखा परिदृश्य कहलाई जाने वाली आकृति है जो पूरी तरह से चट्टानों से बनाई जाती है, पत्थरों को इस तरह क्रम से टिकाया जाता है कि वे अनुपस्थित पहाड़ों और नदियों का आभास देते हैं और और यहाँ तक कि चट्टानों से टकराती हुई महासागर की लहरों को कल्पित करवाते हैं। अत्यधिक संकुचित किया जाने पर जापानी उद्यान बौना बगीचा बोन्साई, या उसका सूखा रूप बोन्सेकी बन जाता है।

परिदृश्य के लिए प्राच्य शब्द वस्तुतः "पहाड़ का पानी" है जिसमें परिदृश्य चित्रकला और बागवानी में इससे संबंधित निहितार्थ हैं, मुरझाए हुए और क्षीण, यहाँ तक कि उदास, और जीर्ण की अवधारणा निहित है। मगर चाय समारोह द्वारा संजीदा, सादगी, शरत्कालीन के जो गुण इतने ज्यादा महत्वपूर्ण हैं, उन्हें संक्षेप में "मृदुता से सम्मानजनक, निर्मलतापूर्वक शांत" अभिव्यक्ति दी गई है, जिसमें आत्मा की छुपी हुई शोभा निहित है और कड़ाई से सीमित और सादा चाय के कमरा में असीम विस्तार और असीमित लालित्य अंतर्निहित हैं। एक फूल में सौ फूलों से भी अधिक चमक होती है। चाय समारोह और फूलों की सजावट के सोलहवीं सदी के महान गुरु, रिक्यू ने सिखाया था कि पूरी तरह से खुले हुए फूलों का उपयोग करना गलत था। आज भी चाय समारोह में सामान्य परम्परा है कि चाय कक्ष के कुंज में एक फूल रखा जाता है, और वह फूल की कली होती है। सर्दी के मौसम में सर्दी के एक विशेष फूल, मान लीजिए कमीलयाओं में से उसकी सफेदी और बौरों की लघुता के कारण अनूठे कमीलया को चुना जाता है, जिसे व्हाइट जूअल या वाबिसुके के नाम से भी जाना जाता है, जिसका शाब्दिक अनुवाद "एकांत में मददगार" के रूप में किया जा सकता है; मगर कुंज में बस एक ही कली को सजाया जाता है। सफेद सबसे साफ रंग है, इसमें अन्य सभी रंग शामिल हैं। और कली पर हमेशा ओस होनी चाहिए। कली को पानी की कुछ बूँदें छिड़ककर सिक्त किया जाता है। चाय समारोह के लिए सबसे शानदार सजावट मई में की जाती है जब एक पेओनी को सरपत के फूलदान में सजाया जाता है; लेकिन यहाँ भी बस एक कली होती है, जिस पर हमेशा ओस पड़ी होती है। इतना ही नहीं फूल पर न सिर्फ पानी की बूँदें होती हैं, बल्कि फूलदान को भी अक्सर सिक्त किया जाता है।

फूलदानों में सर्वोपरि स्थान सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी के बर्तन प्राचीन ईगा का है, और इसका मूल्य सबसे ज्यादा होता है। जब प्राचीन ईगा को गीला किया जाता है तो इसके रंग और चमक इतने सुंदर लगते हैं मानो इन्हें अभी बनाया गया हो। ईगा को बहुत उच्च तापमानों पर पकाया जाता था। जब ईंधन से पुआल, राख और धुआँ गिरकर सतह पर प्रवाहित होते हैं, और जैसे तापमान गिरता है, ये एक तरह से काँच की तह चढ़ा देते हैं। चूँकि रंग गढ़े नहीं गए थे, बल्कि भट्ठे में प्राकृतिक तरीका इस्तेमाल करने के परिणाम थे, क्योंकि रंगों के पैटर्न इतनी सारी किस्मों में उभरते हैं कि उन्हें भट्ठे की धुन और तरंग कहा जा सकता है। प्राचीन ईगा की विषम, सादा और मजबूत सतहें भिगोए जाने पर आकर्षक चमक ग्रहण कर लेती हैं। यह फूलों की ओस की लय में साँस लेती है।

चाय समारोह के स्वाद की यह भी आवश्यकता है कि चाय को उसकी खुद की मद्धिम चमक प्रदान करने के लिए इस्तेमाल करने से पहले सिक्त किया जाए।

इकेनोबो सेन'ओ ने एक बार यह भी कहा था (इसे भी उनकी उक्तियों से लिया गया है) कि "पहाड़ों और समुद्र-तटों को स्वयं को अपने रूपों में प्रकट करना चाहिए।" इसलिए अपने फूल की सजावट की शैली में एक नई भावना को जोड़ते हुए उन्होंने, टूटे हुए पतीलों और सूखी हुई शाखाओं में "फूलों" को पाया, और उनमें भी आत्मज्ञान फूलों से आता है। "पुराने जमाने के लोगों ने फूलों की सजावट की और आत्मज्ञान की खोज की।" यहाँ हम जेन के प्रभाव में, जापानी आत्मा के हृदय का प्रबोधन देखते हैं। और इसमें भी, शायद, ऐसे आदमी का दिल जो लंबे समय से नागरिक युद्ध की तबाही में जी रहा है।

दसवीं शताब्दी में संकलित 'टेल्स ऑफ ईसे', गीतात्मक उपाख्यानों का सबसे पुराना जापानी संग्रह है जिनमें से अनेक को कहानियां कहा जा सकता है। एक प्रसंग से हमें पता चलता है कवि अरिवारा नो यूखिरा ने, मेहमानों को आमंत्रित करने के बाद फूलों को सजाया।

"संवेदनशील आदमी होने के नाते, उनके पास एक बड़े जार में सबसे अनूठा विस्तारिया लगा हुआ था। फूलों की छा जाने वाली साढ़े तीन फुट लंबी शाखा ऊपर की ओर थी।"

विस्तारिया की इतनी लंबी टहनी होना वास्तव में असामान्य है जिससे लेखक की विश्वसनीयता के बारे में संदेह होने लगता है; और तब भी मैं इस लंबी टहनी में हीयान संस्कृति के प्रतीक के रूप में महसूस कर सकता हूँ। विस्तारिया ठेठ जापानी फूल है, और इसमें कोमल लालित्य है। जब विस्तारिया की टहनी हवा में हिलती है, तो वह, कोमलता, नम्रता, मौन का आभास कराती हैं। शुरुआती गर्मियों की हरियाली में ओझल होते और फिर से दिखाई देने वाले इन फूलों में चीजों की मार्मिक सुंदरता के लिए अनुभूति है जिसका जापानियों ने बहुत पहले क्षणभंगुरता के प्रति जागरूकता के रूप में वर्णन किया था। इसमें कोई शक नहीं है कि ऊपर की ओर बढ़ने वाली साढ़े तीन फुट लंबी टहनी में विशेष भव्यता थी। एक सहस्राब्दी पूर्व हीयान संस्कृति की भव्यताएँ और एक अनूठी जापानी सुंदरता का उद्भव सबसे असाधारण विस्तारिया" की तरह आश्चर्यजनक था क्योंकि तांगकालीन चीन की संस्कृति को बहुलता से आत्मसात करके उसे जापानीकृत कर दिया गया था। कविता में दसवीं शताब्दी आरम्भ में, शाही ढंग से प्रमाणित पहला संकलन कोकिन्शु था, कथा साहित्य में टेल्स ऑफ ईसे और जिसके बाद क्लासिक जापानी गद्य की श्रेष्ठ कृतियाँ, लेडी मुरासाकी की टेल्स ऑफ गेंजी और सेई शोनागोन की पिलो बुक आईं, ये दोनों दसवीं शताब्दी के आखिरी दशकों से आरंभिक ग्यारहवीं शताब्दी की थी। इस तरह एक परंपरा की स्थापना की गई थी जिसने जापानी साहित्य को आठ सौ वर्षों तक प्रभावित और यहाँ तक कि नियंत्रित भी किया था। विशेष रूप से, टेल्स ऑफ गेंजी जापानी साहित्य का सर्वोच्च शिखर है। इस समय तक इसकी तुलना में कथा सहित्य की कोई कृति नहीं है। कोई आधुनिक ग्रंथ ग्यारहवीं शताब्दी में लिखा जाना चमत्कार से कम नहीं है, और इस ग्रन्थ को चमत्कार के रूप में ही विश्व भर में व्यापक रूप से जाना जाता है। हालाँकि क्लासिकी जापानी साहित्य के बारे में मेरी समझ अनिश्चित थी, मैंने लड़कपन में ज्यादातर हीयान क्लासिक्स को पढ़ा था, और मुझे लगता है कि मेरे लिए सबसे महत्वपूर्ण गेंजी था। इसके लिखे जाने के सदियों बाद तक, गेंजी का आकर्षण कायम रहा है, और अनुकरण तथा इसके नए सिरे से लेखन ने इसके प्रति श्रद्धा के रूप में काम किया था। बेशक गेंजी कविता ललित कला और हस्तशिल्प, और यहाँ तक कि परिदृश्य बागवानी के लिए के पोषण के लिए एक व्यापक और गहन स्रोत था ।

मुरासाकी और सेई शोनागोन, और ऐसी प्रसिद्ध कवयित्रियाँ जैसे इजूमी शिकिबू जिसकी मृत्यु शायद आरंभिक ग्यारहवीं शताब्दी में हुई थी, और अकाज़ोमे इमोन जिसकी मृत्यु शायद मध्य ग्यारहवीं शताब्दी में हुई थी, सभी शाही दरबार में दासियाँ थी। जापानी संस्कृति दरबारी संस्कृति थी, और दरबारी संस्कृति में महिलाओं की बहुलता थी। 'दि डेज ऑफ गेंजी' और 'पिलो बुक' का काल अपनी चरम सीमा पर था जब सिद्धता पतनशील होने लगी थी। इसे पढ़ते हुए गौरव, जापानी दरबारी संस्कृति की उच्च वेला की समाप्ति पर उदासी महसूस होती है। दरबार का पतन हो गया, सत्ता दरबारी राजशाही से निकलकर सैन्य अभिजात वर्ग के हाथों में आ गई थी, जिनके पास यह 1192 में कामाकुरा शोगुनेट की स्थापना से लेकर 1867 और 1868 में मीजी पुनरुद्धार तक लगभग सात सदियों तक रही। फिर भी यह नहीं सोचना चाहिए कि शाही संस्था या दरबारी संस्कृति का खात्मा हो गया था। आरंभिक तेरहवीं सदी के संकलनों में से आठवें संकलन शिन्कोकिंशु में कोकिंशु की तकनीकी निपुणता को और भी आगे बढ़ाया गया था, यह कभी-कभी और मात्र शाब्दिक विलास में उलझ गई; लेकिन इसमें आधुनिक प्रतीकवादी कविता के रहस्यमय, विचारोत्तेजक, उद्बोधन जैसे अतिरिक्त तत्व और कामुक फंतासी के आनुमानिक तत्व शामिल थे, जिन्हें आधुनिक प्रतीकवादी कविता में पाया जाता है। साइग्यो जिनका पहले उल्लेख किया गया है, हीयान और कामाकुरा के दो कालों के दौरान फैले एक प्रतिनिधि कवि थे।

"मैंने उसके बारे में सपना देखा, क्योंकि मैं उसके बारे में सोच रहा था।
अगर मुझे पता होता, तो मुझे उसे उठाना नहीं चाहिए।"
"मेरे सपनों में मैं हर रात उसके पास जरूर जाता हूँ।
लेकिन यह जागने पर एक झलक से भी कम है।"
"बांस की झाड़ी पर चमकते हुए जहाँ गौरैया चहचहाती हैं,
सूरज की रोशनी पतझड़ के रंग की है।"
"पतझड़ की हवा, बगीचे में झाड़ियों की दूब बिखरती हुई हड्डियों में चुभती है।
दीवार पर, शाम का सूरज डूबता है।"

डोजेन जिसकी साफ, ठंडी बर्फ के बारे में लिखी हुई कविता को मैंने उद्धृत किया है, माइयो जिसने सर्दियों के चाँद का वर्णन अपने साथी के रूप में किया है, आम तौर पर शिन्कोकिंसू के काल में थे। माइयो ने साईग्यो के साथ कविताएँ परस्पर साझा की और दोनों ने मिलकर कविताओं पर चर्चा की। निम्न अंश माइयो की जीवनी से लिया गया है जिसे उनके शिष्य किकाई ने लिखा है :

"साईग्यो अक्सर आकर कविता के बारे में बात किया करते थे। उन्होंने कहा था कि कविता के प्रति उनका अपना रवैया प्रचलित रवैये से बहुत अलग था। चेरी के फूल, कोयल, चाँद, बर्फ : प्रकृति के सभी बहुविध रूपों को सामने पाकर, उनकी आँखें और कान खालीपन से भर जाते थे। और जो शब्द लिखे गए थे, क्या वे सभी सच्चे शब्द नहीं थे? जब उन्होंने फूलों के बारे में गाया तो फूल उनके मन में नहीं थे, जब उन्होंने चंद्रमा के बारे में गाया, तो वह चंद्रमा के बारे में नहीं सोच रहे थे। जैसे ही अवसर मिलता या इच्छा उठती थी वह कविता लिखते थे। आसमान के पार लाल इंद्रधनुष ऐसे लगता था मानो आसमान ने रंग ग्रहण कर लिए हों। सफेद धूप बढ़ते हुए उज्ज्वल आकाश जैसी थी। फिर भी खाली आकाश, अपनी फितरत से उज्ज्वल नहीं हो सकता था। यह किसी रंग में नहीं रँग सकता था। खाली आकाश की भावना की तरह वह सभी विविध दृश्यों को रंग देता है, लेकिन कोई लक्षण नहीं बचता है। इस तरह की कविता में बुद्ध, परम सत्य की अभिव्यक्ति बन गए थे।"

यहाँ प्राच्य का खालीपन, शून्यता है। मेरे अपने लेखन को खालीपन का लेखन बताया गया है, लेकिन इसे पश्चिम का शून्यवाद और विनाशवाद नहीं माना जाना चाहिए। आध्यात्मिक बुनियाद काफी अलग प्रतीत होगी। दोजेन ने मौसमों के बारे में अपनी कविता का शीर्षक "अंतर्जात सत्य" रखा, और मौसमों की सुंदरता का गान करने के बावजूद वह जेन में गहराई से डूबे हुए थे।

(नोबेल पुरस्कार ग्रहण करते समय दिया गया व्याख्यान)

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