खोला दरजार इतिवृत्त (बांग्ला कहानी) : विभूतिभूषण बंद्योपाध्याय
Khola Darjar Itivrit (Bangla Story) : Bibhutibhushan Bandyopadhyay
हम लोगों की मंडली में सबसे बड़े दिलचस्प कथक्कड़ हैं- संतोष दत्त जी । बाहर सावन महीने की साँझ के उमड़ते-घुमड़ते बादलों का रेला चक्कर - पर चक्कर लगाए जा रहा है। बीच-बीच में भगजोगनी (जुगनू ) की रोशनी छिटकती - बुझती फिर रही है। मुकर्जी बाबू की हवेली की बैठक में हमारी इस मंडली का रात्रिकालीन अड्डा जमा बैठा है। नहीं, अड्डे के बैठने के पीछे आप उन सबका अंदाजा कृपया न लगाएँ । हमारे बीच बस एकमात्र चाय ही पीने का तरल पदार्थ होता है। हाँ, उसके साथ गरमागरम लाई चना- नमकीन के साथ तथा कच्चे खीरे की फँकें और नारियल के कटे हुए टुकड़े, ये सब भी चलते हैं। हमारे कथक्कड़ संतोष भाई साहब आज दो दिन हुए कलकत्ते से लौटे हैं। तभी से वे पारलौकिक - शास्त्र संबंधी अपने अनुसंधानों की चर्चा कर रहे हैं। परलोक के अस्तित्व और उसमें घटनेवाली घटनाओं के संबंध में उन्होंने जो अभूतपूर्व खोजें की हैं, उन पर उन्होंने कई शोध- निबंध प्रकाशित भी किए कराए हैं। इस पराविद्या विद्या - क्षेत्र में उनका बहुत नाम और महत्त्व प्रसिद्ध हुआ है।
संतोष दत्त बाबू हमारे गाँव के मूल अधिवासी नहीं हैं । यहाँ उनकी ससुराल है, चूँकि उनकी पत्नी महोदया अपने पिता की एकमात्र अकेली कन्या हैं, इसलिए उत्तराधिकार - सूत्र से संतोष बाबू ही उनके यहाँ की सारी विषय-संपत्ति के अधिकारी हैं। उसी की देखरेख करने के लिए वे बीच-बीच में यहाँ आते रहते हैं। वही बस महीने में दो-एक बार ।
हमारे इस गाँव में एक नया महाविद्यालय खुला है । यहाँ पढ़ाने के लिए जो नए-नए प्रवक्ता - अध्यापक नियुक्त हुए हैं, और और शहरों की तरह यहाँ होटल, भोजनालय वगैरह तो हैं नहीं, इसलिए उन नए अध्यापकों ने मिलकर एक मेस चला रखा है। भोजन - छाजन के लिए वे लोग वहीं जुटते हैं। उन्हीं में से पाँच-छह मेधावी प्रवक्ता, जो अपनी शिक्षा की उत्कृष्टता पर सचमुच ही दम भर सकते हैं; मुकर्जी बाबू की हवेली पर रोज संध्या-वेला में जुटने वाले और काफी रात तक चलनेवाले इस अड्डे पर प्रायः ही चले आते हैं। मैं भी इन लोगों के दल का एक सदस्य हूँ, परंतु मैं इनके उस मेस का भागीदार नहीं हूँ, क्योंकि मैं उन लोगों की तरह कहीं बाहर से यहाँ नहीं आया हूँ, बल्कि यह गाँव तो मेरी पैतृक निवास भूमि है।
इन मेधावी शिक्षकों में रामबाबू महाशय दर्शन और न्याय के विद्वान् अध्यापक हैं। उन्हें प्रत्येक बात के लिए विश्वसनीय प्रमाण चाहिए होता है, अतः वे फटाक से पूछ बैठे - "क्या आप प्रमाणित कर सकते हैं कि परलोक का अस्तित्व है ?"
“नहीं, बिल्कुल नहीं।”
" तब फिर ?"
" इसके लिए प्रमाण प्रस्तुत करने जैसी कोई व्यवस्था नहीं है, परंतु आपको अगर विश्वास करने के लिए कुछ निश्चयपूर्वक चाहिए - ही चाहिए तो मैं आपके समक्ष एक सच्ची घटना का विवरण प्रस्तुत कर सकता हूँ ।"
" चलिए, यही सही । आप उस घटना का ही बखान कीजिए, बतलाइए तो वह घटना है क्या ?"
“परंतु उसके पहले मुझे आपसे एक बात जान लेने की आवश्यकता है।"
"कौन सी बात है ?"
"यही कि क्या आप स्वयं उस पर विश्वास करते हैं ?"
" जी हाँ, करता हूँ।"
"आपने परलोक के क्रिया-कलापों के संबंध में किस विधि से ज्ञान प्राप्त किया ?"
“ दरवाजे पर खटखटाओ, बस अपने आप ही वह तुम्हारे लिए खुल जाएगा, इसी सिद्धांत के आधार पर। "
"लेकिन महाशय, यह तो बहुत ही अस्पष्ट, उलझी - पुलझी बात हुई । "
“परंतु यह जो सिद्धांत-वाक्य मैंने बतलाया, इससे बड़ी कोई सैद्धांतिक बात बहुत कम महापुरुषों के मुख से कभी-कभार निकल पाई है। प्रमाणित करना इतना आसान तो नहीं है, परंतु एकाध घटनाएँ बतलाता हूँ, ध्यान देकर सुनें । वैसे मेरे इस विवरण प्रस्तुत करने से भी बहुत ज्यादा अच्छा तब होता, जबकि मैं रेखा को किसी एक दिन यहीं अपने साथ ले आकर इस मंडली में आप लोगों के सामने ही, प्रेत को इस भौतिक धरातल पर बुलाकर आप लोगों को दिखला पाता !"
"अब आपने एक नई ही धुन छेड़ दी, अतः अब बतलाए कि कौन है यह रेखा ?"
“अरे, वही - रेखा चक्रवर्ती । वस्तुतः वह एक माध्यम - मीडियम, अथवा कार्य-व्यापार के घटित हो सकने की साधिका अथवा उपकरण है। हम लोगों की जो 'परामनोवैज्ञानिक समिति' है, उसी की वह एक सदस्य है। उसमें यह जो एक महान् क्षमता या शक्ति है, उसी की वजह से तो हमारी समिति उसके अलावा उसकी माँ और उसके दो भाइयों के पालने-पोसने वगैरह का सारा खर्चा उठाकर उनका पालन-पोषण किए जा रही है।"
"इन रेखा चक्रवर्तीजी की आयु फिलहाल कितने वर्ष की है ?"
"यही कोई सत्रह - अठारह वर्ष होगी, परंतु उसकी शक्ति अत्यंत आश्चर्यजनक है। अनेक प्रखर नास्तिकों, किसी भी अदृश्य अथवा अगोचर - सत्ता पर पूरी तरह अविश्वास रखनेवाले बहुत सारे लोगों ने रेखा को देखने के बाद न केवल अपने विचार बदल लिये, बल्कि उनमें से कई तो हम लोगों की इस समिति के सदस्य भी बन गए हैं, किंतु अब हम लोग उसे छोड़ दे रहे हैं। "
" सो क्यों ?"
“इसलिए कि इस खुले हुए दरवाजे को पाकर परलोक से बहुत सारे अवांछित, दुष्ट और चांडाल प्रकृति के लोग भी बेरोक-टोक घुसते चले आते हैं। "
“कहाँ घुसते चले आते हैं ? "
“अरे, इसी कार्य - साधिका अर्थात् माध्यम की देह के भीतर । रेखा की देह तो बस एक खोल भर हो गई है। इस खोल के भीतर परलोक की ढेर सारी दुष्ट आत्माएँ घुसी चली आती हैं। अब तो उस देह को लेकर उन्होंने उपद्रवपूर्ण खेल-तमाशा करना शुरू कर दिया है।"
" वाह, क्या बच्चों की-सी अद्भुत परीकथा का विवरण देना शुरू का दिया !”
“बच्चों की परीकथाओं की बात भला क्यों करूँगा, आप तो बहुत उच्च शिक्षित विद्वान् पुरुष हैं, आप उसे मानेंगे ही क्यों? परंतु प्रत्यक्ष की तो मानेंगे न, क्योंकि प्रत्यक्ष तो एक मान्य प्रमाण है । जरा बतलाइए कि इस संबंध में आपका न्याय - शास्त्र क्या कहता है ?"
“हाँ, हाँ, प्रत्यक्ष को तो जरूर मानेंगे, क्योंकि प्रमाणों में जैसे आप्त-वाक्य या अनुमान प्रमाण हैं, उनकी अपेक्षा तो प्रत्यक्ष प्रमाण अधिक विश्वसनीय है ही । "
"तो फिर ठीक है, इसका प्रत्यक्ष ही अनुभव कर लें। आइए, चलिए, मेरे साथ चलिए। आप सभी चलिए। 67 नं. नंदन - बागान गली; कलकत्ता चलिए । रेखा और उसकी माताजी तथा उसके छोटे भाई, ये सभी उसी नंबरवाले मकान के ठिकाने पर रहते हैं । बेचारे बहुत ही गरीब हैं। चूँकि एक परामनोवैज्ञानिक समिति उन सबके रहने, खाने-पीने, पहनने का सारा खर्च दे रही है, अतः केवल इस लाभ के लिए एक लड़की तो अपना सभी कुछ दे नहीं सकती। अब तो हालात इस स्थिति में जा पहुँचे हैं कि उसकी अपनी देह ही उसके अपने अधिकार में नहीं रह पा रही है, दूसरे लोग ही उसमें दखल किए ले रहे हैं। "
"आपके इस कथन का मतलब क्या है ? कुछ समझ में नहीं आया।"
"इसका मतलब तो बहुत ही सरल है, और वह यह कि रेखा की देह से रेखा को ही निकाल बाहर कर दूसरी दुष्ट आत्मा आकर उसमें अधिकार जमाकर बैठ रही हैं। "
न्याय - शास्त्र तथा दर्शन - शास्त्र के प्रखर विद्वान् अध्यापक राम बाबू इसप्रकार की बातों में अपने तर्कों को परास्त हुआ नहीं मान सके, बल्कि अपने अजीबोगरीब मत को ही अकाट्य समझते रहे। अतएव वे मुसकराकर बोले, 'आप लोग जो इसतरह की अनाप-शनाप बातें करते हैं, इसी वजह से तो कोई आप लोगों की बातों पर विश्वास नहीं करता। फिर भी आप चूँकि बहुत रस ले-लेकर कहते जा रहे हैं, अतः कहते चलिए, हम आगे का भी विवरण सुनने को तैयार हैं।"
संतोष बाबू झल्ला पड़े— “नहीं, नहीं, अब मैं कुछ नहीं कहूँगा। मेरे कहने से तो आप विश्वास करेंगे नहीं, इसलिए मैं आप लोगों को कलकत्ते की गलीवाले उस मुकाम पर ही साथ लिये चलूँगा।”
फिर तो मंडली के सभी लोगों ने एक स्वर से कहा, "वैसा करना ही ठीक रहेगा । "
परंतु इसके बाद भी राम बाबू कह उठे, “वैसा करना तो निश्चय ही अधिक अच्छा होगा, फिर भी अभी जरा यह तो बतलाएँ कि वहाँ होता क्या क्या है ?"
संतोषदत्त बाबू बतलाने लगे – “होगा भला क्या, यही कुछ अति साधारण सी घटनाएँ, जैसे कि उस दिन रेखा की माँ अपने किसी सोच-विचार में डूबी चुपचाप बैठी हुई है कि यकायक रेखा वहाँ आ पहुँचती है और उनका ध्यान अपनी ओर खींचती हुई बड़े खेद भरे स्वर में कहने लगती है-
"मेरी प्यारी बड़ी बहना ! तुमने मेरा श्राद्ध तक नहीं किया और न तो परिवारवालों ने ही, फिर आवश्यक श्राद्ध अन्य उपचार किए। अब तो श्राद्ध करने भर से ही कुछ होगा नहीं, अतः गया धाम जाकर मेरे लिए पिंडदान तो करवा दो। इससे तुम लोगों का भी बहुत भला होगा।'
रेखा की माँ तो घबरा ही गई, अचकचाकर पूछ बैठी, 'यदि तू मेरी बेटी रेखा नहीं है, तो फिर तू है कौन ?'
‘मैं पारुल हूँ दीदी! पारुल । वही हेमनगर वाली तुम्हारी पारुल हूँ ।'
'परंतु पारुल ! तू तो आज से कई वर्ष पहले ही मर गई थी रे !'
'मर गई थी तो उससे क्या हुआ ? मैं तो रोज-रोज ही यहाँ तुम लोगों के इस घर में आती रहती हूँ। फिर यहीं क्यों, मैं तो हेमनगर भी जाती हूँ । हमारी बड़ी बहन के श्वसुर का शीदपुर शहर में जो मकान है, मैं उनके मकान पर भी जाती रहती हूँ। वस्तुतः हम लोगों का आवागमन तो मन की गति के अनुसार ही होता है न, अतः इस प्रकार जहाँ मन होता है, वहाँ आने-जाने में मुझे कोई असुविधा या कष्ट नहीं होता । परंतु जो उचित गति मेरी होनी चाहिए, वह नहीं हो पा रही है; क्योंकि मैं ऊपर नहीं उठ पा रही हूँ । इस धरती ने जैसे जबरन मुझे जकड़कर अपनी ओर खींच रखा है। गया - तीर्थ में जाकर अगर तुम लोग मेरे लिए पिंडदान कर दो, तब धरती के इस बंधन को काटकर मैं ऊपर चली जाऊँगी।'
'ठीक है, बड़ी बहना ! मैंने अपनी विनती तुम्हारे सामने रख दी, तुम इस पर जल्दी कारवाई करो । फिलहाल मैं अब जा रही हूँ, परंतु तुम जरा सजग रहना। अभी थोड़ी देर पहले हिंदी भाषा-भाषी उत्तरी भारत के क्षेत्र की एक कन्या रेखा की इस देह में घुसने के लिए बार- बार कोशिशें कर रही थी, चूँकि मैं यहाँ थी, इसलिए मैंने उस दुष्टात्मा को तो अभी डाँट फटकारकर खदेड़ दिया है।'
'परंतु तुम तो उसको जान भी गई होगी, जरा बतलाओ तो वह कौन है ?'
'उसे तुम भी पहचान सकोगी। प्रायः ही हमारे मुहल्ले में आती रहती थी । उसका चाल चरित्र ठीक नहीं था । अंततः उसने आवेश में आकर आत्महत्या कर ली थी, परंतु अब उसी का परिणाम भुगत रही है। बड़ी ही दारुण यातना भोग रही है।'
"ठहरिए महोदय, जरा ठहरिए तो; बहुत कह लिया । " प्रखर दार्शनिक राम बाबू बीच में ही बोल पड़े- “ आपने अपनी रौ में जो बखान बिना रुके अटके कर दिया, उसमें एक फाँक बची रह गई। कह तो दिया कि उसका चाल- चरित्र ठीक नहीं था, परंतु इस कथन का मतलब क्या है ? आपके उस परलोक में चाल-चरित्र नापने का मानदंड क्या है कि जिसके आधार पर वहाँ भी सु और कु, माने अच्छाई और बुराई अर्थात् सच्चरित्रता अथवा चरित्रहीनता के पक्षों का निर्धारण किया जाता है ? अब तो मुझे सबसे पहले इसी का उत्तर चाहिए।"
संतोषदत्त बाबू तनिक भी विचलित हुए बिना कहने लगे- “ उस परलोक में वहाँ की आत्माओं का अपना मन ही अनेक कार्यों का न्यायाधीश होता है। कोई भी बाहर से कुछ नहीं करता । अंग्रेजी में जैसा कि एक मुहावरा है 'विल इज दि की', माने इच्छाशक्ति ही मूल- कुंजी है, उस परलोक में यही सबसे बड़ा प्रामाणिक आधार है। परंतु यह सब तो तात्त्विक तर्क आधारों की बातें हैं। इनकी चर्चा अभी स्थगित ही रखें। पहले वह विवरण तो कह सुनाऊँ, जिसे अभी पूरा नहीं किया।
"रेखा की देह में बीच-बीच में जो दुष्ट आत्माएँ आ घुसती हैं, उनमें से कई तो हिंदी-भाषा में, उड़िया-भाषा में, बँगला - भाषा में अथवा और और भाषाओं में भद्दी-भद्दी गाली-गलौज भी देती हैं। इसमें कोई अचरज की बात भी नहीं है, क्योंकि उसकी देह में प्रवेश करनेवाली आत्माओं में भिन्न-भिन्न भाषा-भाषी क्षेत्रों, भिन्न-भिन्न जातियों, भिन्न-भिन्न श्रेणियों की आत्माएँ हुआ करती हैं । अभी उस दिन तो खास यूरोप की अंग्रेज नस्ल की एक कन्या उसकी देह में बैठकर बहुत देर तक उसे अपने अधिकार में दबोचे रही। उसने जो कुछ कहा, उससे साफ पता लगा कि उसके अंग्रेज माँ-बाप ने भारत आकर कलकत्ते के इसी पार्क - सरकस इलाके में निवास किया था । उसका अपना मकान पार्क सरकस मुहल्ले में ही था। मैं सच कहता हूँ कि रेखा एक शब्द भी अंग्रेजी भाषा का नहीं जानती, जबकि यह सारा विवरण और इसके अलावा और भी ढेर सारी बातें वह अंग्रेजी भाषा में ही फटाफट बोलती रही थी । "
उनकी इस बात पर अविश्वास भरे व्यंग्यात्मक सुर में राम बाबू ने पूछा, “क्या वह सब आपने खुद अपने कानों से सुना?"
“निश्चय ही, अच्छी तरह सुना । खुद न सुनता तो क्या बिना सुने ही यह सब आप जैसे विद्वानों से कहने का साहस कर पाता ? केवल इतनी ही बात नहीं, मैंने तो ऐसी हालत में रेखा को धाराप्रवाह उड़िया भाषा बोलते हुए भी खुद अपने कानों से सुना है। अतः इस सबमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है, बल्कि सबसे बड़े आश्चर्य और बुराई की बात तब होती है, जब परलोक से बड़ी ही नीची श्रेणी की दुष्ट आत्माएँ उसके शरीर में आ जाया करती हैं। "
" वे सब आकर क्या कुछ करती हैं ? "
" तरह-तरह के महा - निकृष्ट कोटि के उपद्रव करती हैं वे । जैसे कि कभी उसकी देह को ले जाकर धूल-धक्कड़ में पटक देती हैं, फिर सूरज की प्रखर किरणों की जलन में उसे पड़े पड़े रखकर भारी कष्ट पहुँचाने लगती हैं। एक बार तो एक दुष्ट आत्मा ने रेखा को ले जाकर धधकती आग में जला डालने का ही उपक्रम कर दिया था। इससे भी भयावह दशा तब होती है, जब इस पृथ्वीलोक के नीचे की श्रेणी की आत्माओं का आविर्भाव उसमें होता है। धरती के नीचे के लोक की उन आत्माओं का नाम मैं अपनी भाषा में तो नहीं जानता, अंग्रेजी में उन्हें - 'एलेमेंटल' अर्थात् भू-तात्त्विक-प्रकृति की आत्माएँ कहते हैं। ये बड़ी ही खूँखार और भयानक प्रकृति की होती हैं। मनुष्य जाति को नुकसान पहुँचाने के लिए तो ये सदा-सर्वदा मौका ढूँढ़ती रहती हैं। फिर भी रक्षा की बात यही है कि ये कुछ कर नहीं पातीं, क्योंकि स्थूल जगत् में इनकी देह अदृश्य बनी रहती है। पृथ्वी के किसी भी पदार्थ को छू पाने की ताकत इनमें नहीं होती। "
बात आरंभ होने के समय से ही बाहर लगातार हो रही बारिश के इस मौके पर बड़ी ही अजनबी प्रकार की कौतूहल भरी परिचर्चा आज हुई ।
"तो फिर तय क्या रहा; चलेंगे आप लोग मेरे साथ नंदन - बागान गली ?"
“हाँ-हाँ, क्यों नहीं! चल सकते हैं। "
" बहुत अच्छा है, खुद चलकर अपनी आँखों से प्रत्यक्ष देखें। इसमें भला दोष ही क्या है ?"
"नहीं-नहीं, दोष की तो कोई बात ही नहीं। फिर जब चलना है तो देरी करने का कारण ही क्या है ? चलिए, कल ही चलते हैं। रेल में अगर असुविधा है तो चलिए बस से ही रवाना हो जाते हैं।"
श्रीमान रामलाल चक्रवर्ती एम.ए., पी-एच. डी. दर्शनशास्त्र के प्रकांड पंडित और अध्यापक इसी तरह से अपने मृत्यु-पथ पर अग्रसर हुए। उनकी मृत्यु के संबंध में समाचार-पत्रों में जो विवरण प्रकाशित हुए थे, वे शत-प्रतिशत झूठे थे। इसके अतिरिक्त उसे लेकर कोर्ट-कचहरी में जो मुकदमा चला और उस पर जो बहसें हुईं, वे सब भी आधारहीन और काल्पनिक थीं। सच्चाई तो यह है कि रेखा चक्रवर्ती बहुत ही शालीन, सुसभ्य और स्वच्छ चरित्र की किशोरी कन्या है।
मुकर्जी बाबू की वह हवेली बशीर-हाट परगना के हथाटरा गाँव में है। वहीं पर हमारा अड्डा प्रतिदिन बैठता है। जिस दिन के अड्डे की बात अभी मैं थोड़ी देर पहले बता रहा था, उसके ठीक नौ दिन बाद जन्माष्टमी की छुट्टी के दिन साँझ की वेला में श्रीमान रामबाबू को साथ में लेकर हम कई एक साथी कलकत्ता- शहर के नंदन बागान की गली में स्थित रेखा वगैरह के मकान पर गए। उस दिन रेखा वगैरह के उस मकान पर जैसी घटना घट गई, वैसी प्रेत-तत्त्व - चर्चा के इतिहास में उस प्रकार की कोई घटना कहीं और घटी हो, ऐसा तो मुझे आज तक ज्ञात नहीं हो सका है।
उस घटना के बारे में कुछ बतलाने के पहले रेखा और उसके परिवारवालों के उस मकान के संबंध में थोड़ा कुछ विवरण बतला दूँ। उस मकान के एक किनारे के फाटक से भीतर जाते ही, उन लोगों के मकान में प्रवेश करते ही ठीक सामने एक खुला हुआ बरामदा है। बरामदे के सामने दक्षिण दिशा की ओर मुँह किए हुए दो बड़े-बड़े हॉल हैं, उनके पीछे की ओर एक छोटा सा कमरा है। उस छोटे कमरे के पीछे की ओर छोटा सा एक और बरामदा है। उस बरामदे को देखकर लग रहा है, जैसे कि पहले यहाँ रसोई पकाई जाती थी । उसके कोने में खाना बनानेवाला चूल्हा बना हुआ है, परंतु फिलहाल वहाँ पर कई एक गमले रखे हुए हैं, जिनमें फूल लगाए गए हैं। इसके अलावा वहाँ एक तरफ एक तिपहिया साइकिल भी पड़ी है, जिसे संभवत: रेखा का छोटा भाई चलाता होगा । इस तरह उस मकान का एक संक्षिप्त विवरण दिया गया। इस विवरण में जिस छोटे कमरे की स्थिति और उसके पीछे के बरामदे के बारे में जो बातें बतलाई गईं; उसे स्मरण रखना उचित होगा; क्योंकि उसी से बाद में होनेवाली घटनाओं को समझ पाने में सहूलियत होगी। घटना को पूरे विस्तार से घुमा घुमाकर फेंटते हुए कहने से कोई विशेष लाभ नहीं होने का, अतः अति संक्षेप में सीधे-सीधे बतलाना ही ठीक रहेगा ।
मेरे साथ पहुँचे सभी साथियों को जलपान के साथ रेखा ने अपने हाथों से चाय लाकर दी। नाश्ता - पानी और चाय पीकर हमें वहाँ ले जानेवाले संतोष दत्त बाबू ने रेखा को संबोधित करते हुए कहा – “देखो बेटी ! आज हमारे साथ ये कई लोग आए हैं। इनमें विशेष रूप से ये श्रीमान रामलाल चक्रवर्ती बाबू बड़े ही तीक्ष्ण बुद्धि के विद्वान् व्यक्ति हैं। उनका आना बहुत महत्त्वपूर्ण है। आज उन्हें कुछ दिखाना होगा ।"
रेखा नाम की वह किशोरी - कन्या इकहर बदन की श्यामवर्णा, दुबली-पतली सुंदर, सुडौल शारीरिक गठन की कन्या है। जब वह बोलती है तो गले से निकले हुए सुर की झनकार वीणा की झनकार की तरह ही बड़ी मनोहर लगती है। उसकी दोनों आँखें आकार में बहुत बड़ी-बड़ी हैं, यद्यपि उसके देखने की दृष्टि बड़ी ही निरीह, गाय की बछाया की तरह बड़ी ही भोली-भाली और बेचारी - बेचारी सी लगनेवाली है। इस प्रकार की अबोध, बालकों की सी छल-कपट, चातुरी से रहित अति साधारण बेचारगी भरी निष्पाप दृष्टि के कारण ही उसकी सौंदर्य-सुषमा को भारी आघात लगा है।
संतोष दत्त जी की बात सुनकर रेखा बोल उठी- “ इधर पिछले कई दिनों से उसने मुझ पर भयानक अत्याचार करना जारी रखा है, हालाँकि ये कौन है ? मनुष्य है अथवा कोई जानवर है? मैं अभी तक यह भी समझ नहीं पा रही हूँ । जिस तरह का क्रम चल रहा है, उससे तो लगता है कि वह आज भी आएगा। इसी के कारण मुझे इतना डर लग रहा है कि प्राण सूखे जा रहे हैं। "
साँझ ढल जाने के बाद रेखा की माँ हम सभी लोगों को उसी छोटे कमरे में लिवा ले गई। फिर वहाँ धूप- धूना जलाया गया, जिस चबूतरे पर आयोजन किया जाना था, उसे फूलों से सजाया गया। कमरे में भी फूलों की बंदनवार लगा दी गई। मेरे साथ आए सभी साथी एक बहुत बड़ी मेज के चारों ओर जमकर बैठ गए। बत्ती बुझाकर कमरे में अँधियारा कर दिया गया। तभी रेखा की माँ ने किसी से कहा, “बाबा ! ग्रामोफोन रिकॉर्डर पर जरा एक रिकॉर्ड तो चला दो। "
ग्रामोफोन रिकॉर्डर पर शहनाई बजानेवाला एक रिकॉर्ड चढ़ा दिया गया। शहनाई की धुनों से कमरा मंद-मंद स्वर में भर गया। एक बहुत ही दुर्बल पतला सा स्वर घर के एक कोने से उभरता हुआ सुनाई पड़ा। ऐसा लगा, जैसे कोई फुसफुसा - फुसफुसाकर जाने क्या कह रहा है !
संतोषदत्त बाबू ही पूछ बैठे - "कौन है, जी ?"
बहुत ही पतली कमजोर सी लाचारगी भरी लड़की के सुरों जैसी एक औरताना आवाज उभरी, “ देखिए बाबा लोग! आज आप लोग रेखा को उस गोलाकार चबूतरे पर मत चढ़ने दीजिएगा । "
“क्यों ? इसमें कौन सी परेशानी है ? परंतु पहले आप यह तो बतलाएँ कि आप कौन हैं ?"
“मैं रेखा की फूफी हूँ, नाम है 'नीरद बाला'। मैं अच्छी तरह जानती हूँ कि आज रेखा का शरीर उतना ठीक नहीं है, जबकि इधर अनेक फालतू किस्म के दुष्ट लोग उसकी देह में प्रवेश करने की घात लगाए बैठे हैं। "
'आप चुप क्यों हो गईं ? बोलिए, अब यहाँ आप हैं भी या नहीं ?"
कई बार पूछने पर भी उत्तर में फिर कोई भी शब्द या संकेत सुना नहीं जा सका। ऐसे ही सन्नाटे के बीच कुछ समय और बीत गया। तभी ऐसा लगा कि उस अंधकार में उस कमरे की हवा भारी हो गई है। रेखा चक्रवर्ती अपनी जगह पर तो है, परंतु उसका कोई भी अंदाजा देनेवाला शब्द नहीं निकल रहा है, सभी कुछ बिल्कुल शांत है । जरा सी भी चूँ-चपड़ नहीं। बस बीच-बीच में सोए हुए आदमी की नाक बजने से जैसा शब्द निकलता है बस उस शब्द के अलावा कोई ध्वनि- गुंजार नहीं है। थोड़ी ही देर बाद घोर निद्रा में सोई हुई उस रेखा चक्रवर्ती के मुख से जाने कौन एक व्यक्ति मोटे गंभीर स्वर में पुकार उठा, “ मालती ! अरे ओ मालतीऽऽऽ!”
“मालतीजी तो आज यहाँ नहीं आई हैं। " संतोषदत्तजी बोल पड़े थे, “परंतु जरा बतलाइए तो आप कौन हैं ? "
“मैं उसका पति हूँ। नहीं आई हैं तो कोई बात नहीं, परंतु आए तो उससे कहिएगा कि मैं उसे ढूँढ़ रहा हूँ । उससे कुछ जरूरी बातें कहनी हैं, उसे जिस चीज का पता करना था, उसकी खोज मैंने कर ली है। आज इस कार्य साधिका-मीडयिम या माध्यम को आप लोग उठा दीजिए। आज बहुत ही बड़ी विपत्ति का दिन है।"
"क्यों?"
रेखा फिर गहरी नींद में खो गई। इन कुछ शब्दों के आगे फिर उसके मुँह से कोई भी शब्द बाहर नहीं निकला। उधर रात क्रमशः भारी होने लगी। हम सब बाट जोहते रहे, परंतु और कोई तो आ नहीं रहा । इसी प्रकार आधे घंटे का समय और बीत गया। हम सभी इसी विचार पर पहुँचे कि आज के दिन यहीं तक रहने दिया जाए, फिर कल देखा जाएगा, कि अचानक ही उस कमरे के पीछेवाले कमरे से उठा हुआ एक शब्द सुनाई पड़ा । परंतु वह शब्द भी बहुत दबा-दबा सा था। हमारे कमरे की हवा दुबारा फिर से बहुत भारी हो गई और साथ-ही-साथ बहुत ठंडी भी हो गई। हम लोगों ने जब कहा कि प्रत्येक बार जब कभी उस परलोक का कोई आदमी आता है तो उस समय इस कमरे की हवा ऐसी ही ठंडी हो जाती है, तब संतोष दत्त ने हमारी यह बात स्वीकार नहीं की ।
इसके बाद जो घटना घटी, उसे मैं अब अपनी ओर से बतला रहा हूँ । उस अंधकार में दूसरे लोगों का क्या हो रहा है, यह जानने का कोई उपाय मेरे पास नहीं था ।
मेरे मन में ऐसा कुछ अनुभव हुआ, जैसे किसी ने मेरे माथे के चारों ओर और ऊपर बर्फ के टुकड़ों से भरी हुई कोई झोली बाँध दी है। बर्फ की इस भारी - राशि में से ही जाने किस अद्भुत उपाय से बर्फ की एक मोटी धार झूले की डोरी की तरह नीचे की ओर लटकती हुई मेरी नाक के दोनों छेदों में जा घुसी है, जो धीरे-धीरे नाक के अंदर गूँजती चली जा रही है। मेरा सारा शरीर नर्वस हुआ जा रहा है। अपने आप पर जैसे नियंत्रण कर पाने में असमर्थ हो गया हूँ। जान पड़ा, जैसे इस कमरे के पीछे जो कमरा है, उसमें बर्फ बनाने की मशीन ही बैठा दी गई है। इतनी भारी और इतनी ठंडी हवा उस कमरे से ही यहाँ आ रही है।
एक बहुत ही दबाव में पिसती हुई कराह भरी आवाज रेखा चक्रवर्ती के गले से निकल पड़ी।
इस कमरे के पीछे जो कमरा है, जान पड़ता है कि उसमें कोई मशीन लगाई हुई है। उस ओर कोई शब्द नहीं हो रहा है। गहरे अंधकार में उस घर में कुछ भी दिखाई नहीं पड़ रहा है; परंतु स्पष्ट महसूस हो रहा है कि सारा कांड- कारखाना, गरम-मसाला उसी छोटे कमरे में बन रहा है । इस दमघोंटू वातावरण में अचानक ही साधु बाबा बोल उठे - " कमरे में बत्ती जला दे, जल्दी से बत्ती जलाएँ, और अब यह देखें कि—
मैंने तब जो कुछ देखा, उसे बतला रहा हूँ – “ कमरे की दीवार पर एक भारी काली छाया पड़ी हुई है। देखने में वह ठीक वैसी ही लगती है, जैसे मनुष्य के शरीर पर दाद और खुजली के दाग, मोटे चकत्ते -सी पड़ी दिखाई पड़ती है। आदमी के शरीर के दाद के निशान अथवा फिर बरसात के दिनों में बाँस के शरीर पर जैसे कुकुरमुत्ता के छा जैसी फफूँद दिखाई पड़ती है, ठीक उसी तरह उभरनेवाले मशरूम जैसी काली छाया ही दीवार पर दिखाई पड़ी। परंतु यह फफूँद की तरह चिपकी ही नहीं रही, बल्कि जिस तरह गुब्बारे में हवा भरते जाने से वह क्रमश: फूलता जाता है, उसी तरह यह काले मशरूम सी छाया क्रमशः फूलती-बढ़ती चली गई। इधर कमरे में ठंडक बहुत बढ़ गई, मानो चारों ओर बर्फ ही बर्फ आ जमी हो— मेरी चेतना सुन्न पड़ने लगी । लगा, जैसे धीरे-धीरे बेहोशी होने लगी है। अब तो मैं ठीक तरह से जान भी नहीं रहा कि कहाँ क्या हो रहा है ? किसी निःस्तब्ध घने जंगल के बीच कोई एक महाभयानक जंतु अथवा दानव सारी सृष्टि का विध्वंस कर देने की साधना में मग्न है। वह दानव एकदम गूँगा और बहरा है। उसके मुँह से कोई भी भाषा, कोई भी आवाज नहीं निकल रही। ऐसा लगता है कि उसके मुँह भी नहीं है। देख सकने की बहुत तेज, बर्बर और संहारक नंगी निगाह तो है, परंतु आँख नहीं है। वह वस्तु किसी मनुष्य अथवा चित्र में आँके गए दानव - भूत या प्रेत जैसी तो बिल्कुल भी नहीं है। क्रमशः बढ़ते जा रहे कुकुरमुत्ते के छत्ते की तरह अथवा शरीर पर दाग और खुजली के धब्बे की तरह वह बढ़ती ही जा रही है। फैलती ही जा रही, क्रमशः बढ़ रही है, चौड़ी हो रही है; दाएँ-बाएँ सभी ओर बढ़कर मानो वह सभी कुछ को निगल जाएगी। दाद का यह धब्बा पूरे कमरे में ही फैल जाएगा। इस घर में जितने मनुष्य हैं, सबके शरीर पर मढ़ जाएगा । अत्यंत गहरे काले रंग का यह दाद का धब्बा सब पर छा जाएगा। रबड़ के गुब्बारे की तरह फूलता - फैलता यह क्रमशः बढ़ता जा रहा है। जबकि यह इतना भयानक खूँखार, उग्र, क्रूर, निर्मम, बुद्धिहीन, ध्वंस का विकराल दूत जान पड़ रहा है, लगता है कि उसकी गिरफ्त से बच निकलने का किसी के सामने कोई उपाय नहीं है।
इतने में ही एक बड़ी दर्द भरी चीत्कार उसी घर में सुनाई पड़ी। मैंने देखा कि पीछे की ओर का वह छोटा घर उस काले दाद के फफूँदवाले धब्बे के छाते से भर गया है। घर की दीवारों को भेदते हुए वह घिनौना दाद का धब्बा चारों ओर फैल जाएगा। काले भयानक रूप से ठंडा फफूँद युक्त मशरूम जैसा वह धब्बा...
मैंने स्पष्ट अनुभव किया कि मेरे माथे पर पड़ी वह चीज अब नीचे मुलायम मोम की तरह ढुलकती हुई बढ़कर मेरी आँखों और नाक पर झूलते हुए उन्हें बंद किए दे रही है। मैं कोई भी बात मुँह से निकाल नहीं पा रहा हूँ । यहाँ तक कि नाक के छिद्रों से साँस भी नहीं खींच पा रहा हूँ । जाने कहाँ, मानो टन टन की आवाज में दस तक की ध्वनि बज रही है। मैं बस उसे सुनता भर चल रहा हूँ एक दो तीन चार पाँच छह "सात "इसके बाद तो मुझे फिर कोई होश रहा ही नहीं।"
संभव है, उस समय रात के दस बज रहे हों ।
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जब मेरी चेतना लौटी, मैंने पाया कि अभी भी रात ही फैली हुई थी, परंतु घर में अंधकार नहीं है, बल्कि घर के जंगले की ओर से रात के पिछले पहरों के चाँद की चाँदनी का प्रकाश घर के अंदर तक आकर उसे प्रकाशित कर रहा है। हम सारे-के-सारे साथी, जो जिस कुरसी पर भी बैठा था, उस पर बैठे-बैठे ही बेहोश से हुए पसरे हुए हैं। रेखा चक्रवर्ती भी बेहोश होकर हाथों और पैरों को झुलाते हुए फैलाकर कुरसी पर लुढ़की पड़ी है। पहले जितने सारे लोग वहाँ उपस्थित थे, उनमें से बस एक संतोष दत्त ही फिलहाल इस कमरे में नहीं है। थोड़ी देर तक मैंने जोर लगाकर यह याद करने और समझने की कोशिश की कि वहाँ क्या कुछ घटित हुआ था ? फिर तो सभी कुछ याद हो आया। वह भयानक दाद के धब्बे-सा काला मशरूम जैसा चकत्ता अब कहाँ है ?
कार्य - साधक, मीडियम अथवा माध्यम, जो रेखा चक्रवर्ती है, उसके घर में ही आज संध्या - वेला में यह चक्र (सर्किल) बैठा था। घर में तब घनघोर अंधकार था, अब इस वेला में चंद्रमा की चाँदनी के प्रकाश से अँधियारा थोड़ा छँटा है। घर को काफी गंभीर दृष्टि से देखने पर ऐसा जान पड़ा, जैसे यहाँ पर कोई एक बड़ा ही निष्ठुर हत्याकांड हो गया है। तभी बाहर किसी मोटरकार की जोर की आवाज सुनाई पड़ी।
उसके कुछ देर बाद ही संतोष दत्त जी ने उस कमरे में प्रवेश किया। मैंने देखा कि उसके साथ एक डॉक्टर साहब भी अंदर आए हैं।
शेष सभी लोगों को क्रमशः होश में ले आने का प्रयास सफल हुआ। सभी लोग पहले ही की तरह सहज - सजग और सचेतन हो उठे। श्रीमान रामलाल बाबू अध्यापक महोदय के प्राण काफी देर के लिए उनके शरीर को छोड़कर चले गए थे। डॉक्टर ने उनकी हर तरह से परीक्षा निरीक्षा की और अंत में अपना निर्णय घोषित किया कि 'दम घुटने की वजह से, साँस बंद हो जाने के कारण ही यह मृत्यु हुई है।' उनका सारा चेहरा काला पड़ गया है, जीभ बाहर की ओर निकल आई है। आँखें ठीकरे की तरह बाहर आ गई हैं।
पुलिस दल आ गया, काफी हो-हल्ला मचा। लोगों की भीड़ इकट्ठा हो गई, विद्वान् अध्यापक रामलाल बाबू के शरीर की हरेक विधि से परीक्षा की गई। इन सभी जानकार लोगों ने अपना यही फैसला सुनाया कि साँस -प्रश्वास बंद हो जाने के कारण ही मृत्यु हुई है। जब उनके शव का व्यच्छेदन ( पोस्ट मार्टम करवाया गया तो पाया गया कि उनके फेफड़े में एक नए प्रकार की गैस पाई गई थी। ऑर्गन जाति की एक ऐसी गैस, जो बड़ी आसानी से आग पकड़ लेती है।
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इस घटना के घटित होने के बहुत दिनों बाद एक दिन मैंने संतोष दत्त जी से बहुत आत्मीयता से पूछा कि उस जो कांड घटित हुआ था, उसकी जड़ में कौन सा सूत्र था ?
तब संतोष दत्तजी ने समझाते हुए कहा, “उस रात में तो वहाँ उपस्थित हम लोगों में से कोई एक भी आदमी नहीं बच पाता। शुरू-शुरू में जो आत्मा आई थी, उसने पहले ही हम लोगों को इसके लिए सतर्क और सावधान कर दिया था। उसके उस परामर्श पर ध्यान देना ही हमारे लिए उचित था।"
तब मैंने उन्हें याद दिलाते हुए कहा, “एक आत्मा नहीं, बल्कि दो आत्माएँ आई थीं। एक तो रेखा चक्रवर्ती की फूफी की और दूसरी मालती के पति की । हमें तो दोनों ने ही सावधान किया था । "
"हुआ क्या था, क्या सचमुच ही आप जानते हैं ? कहीं कोई दुष्ट आत्मा तो नहीं आई ? रेखा की फूफी ने तो अंततः यही बतलाया था, परंतु वास्तव में चीज वैसी नहीं है। उस दिन भूलोक का एक खूँखार, विशेष किस्म का जीव, जिसे अंग्रेजी में ‘एलीमेंटल' अर्थात् भूतात्त्विक कहते हैं, वही आया था। वे सब भूलोक के बाघ, भालू जैसी हिंसक जातियों के प्राणी हैं। मनुष्य जाति की अपेक्षा बहुत ही निचले स्तर के हैं, जबकि बल - विक्रम और क्रूर, खूँखार बुद्धि के माने में मनुष्य से बहुत भारी होते हैं। उसने उस दिन क्या किया था, क्या आप जानते हैं? उसने हम लोगों के शरीर से स्थूल अर्थात् ठोस उपादानों का संग्रह करके अपने उस 'एलीमेंटल' या भूतात्त्विक उस छोटे सी अदृश्य- देह को स्थूल या ठोस आकारवाले प्राणियों के जैसा बनाकर उस छोटे से घर में भयानक रूप से तैयार कर लिया था। उसने उस अंधकारपूर्ण घर का एक प्रयोगशाला की तरह प्रयोग किया था।
" परंतु उसकी इस काररवाई के संबंध में उस समय क्या हम लोग कुछ जान पाए थे? अगर कहीं उस समय इसे जान गए होते, तो बहुत आसानी से उसे भगाया जा सका होता ! "
मेरे मन में एक हड़बड़ाहट सी उभर आई। मैंने भारी कौतूहल के भाव से पूछा, “सो किस तरह?"
"अत्यंत सहज सरल ढंग से।"
"आप बतलाइए न बिना किसी संकोच के । लगता है, आप निश्चित रूप से इसके भीतर छिपे रहस्य को अच्छी तरह जानते हैं। "
“बस बिजली के बल्ब को जला देने के लिए जो स्विच घर में लगा हुआ था, अगर उसके बटन को जरा सा नीचे दबाकर ऑन कर देते - बस इतने मात्र से। "
ऐसी मामूली सी कोशिश कर देने से ही उस महाडरावनी अंधकारपूर्ण रात और उस रहस्यमय परलोक - जगत् के सारे भीषण, भयावह - संत्रास तथा सबके ऊपर छाए उस सारे कोहरे को काटकर भगा देने में हम लोग उसी समय समर्थ हो गए होते एवं क्षण भर में ही सारी आपदाओं से मुक्त होकर रक्षा पा गए होते। अगर प्रकाश भरकर उजाले से जगमगाकर उस कमरे को खोल सके होते!
(ढाका से प्रकाशित 'सोनार बांग्ला' पत्रिका का आश्विन, 1357 बंगाब्द का एकमात्र अंक, जिसमें यह कहानी प्रकाशित हुई। जिसका उद्धार श्री देवप्रिय बंदोपाध्याय के सहयोग से हो सका। विभूतिभूषण के सुपुत्र श्री तारादास बंदोपाध्याय की सहमति से इसका प्रकाशन संभव हुआ।)- रूपांतरक