खिलौने (कहानी) : भीष्म साहनी

Khilaune (Hindi Story) : Bhisham Sahni

"यार मुझे बीवी का हाथ बँटाना मंजूर है, लेकिन यह हाथ बँटाना नहीं है। इसे मैं हाथ बँटाना नहीं कहता। जिसे मैं हाथ बँटाना कहता हूँ, वह मेरी बीवी को मंजूर नहीं ।"

उस वक्त वह रसोई घर में खड़ा प्याज छील रहा था और उसकी पत्नी उसी की बगल में खड़ी दाल में करछुल चला रही थी ।

"हाथ बँटाने का मतलब है किचन का काम बाँट लिया जाए, कुछ काम वह करे , कुछ काम मैं करूँ, और चुपचाप दोनों अपना - अपना काम करते रहें ।"

"भाभी क्या कहती हैं ?" मैंने पूछा ।

“वह चाहती है कि किचन में वह हुक्म चलाए और मैं हुक्म बजा लाऊँ । वह कहे, आलू छील दो तो मैं आलू छीलने लगूं, वह कहे चिमटा पकड़ाओ और मैं भागकर चिमटा उठा लाऊँ ।

यह मुझे मंजूर नहीं।

इस पर उसकी पत्नी कपड़े से हाथ पोंछती हुई हँसकर बोली, “काम तो सारा मुझे ही करता पड़ता है जी, बाँट दो तो भी , और नहीं बाँट दो तो भी । यह भुलक्कड़ आदमी हैं, करते कम हैं , बिगाड़ते ज्यादा हैं - जो कहो वही कर दें तो बड़ी बात है ।"

"लो सुनो, देख लिया ? यह हमें हाथ बंटाने का इनाम मिल रहा है।"

इस पर वह हँसती हुई पति का ढाढ़स बंधाने लगी।

"नाराज हो गए ? बात -बात पर तो यह मुँह फुला लेते हैं ।" फिर पुचकारती हुई- सी बोली, "नहीं जी , इनकी बड़ी मदद है, यह न हों तो मैं कुछ भी नहीं कर सकूँ ।"

"बस, यही मुझे मंजूर नहीं ", दिलीप बोला, “सारा काम भी करो और फिर भी यह कहे कि मैं केवल मदद कर रहा हूँ।".

"घर चलाती तो स्त्रियाँ ही हैं । तुम भले कितना काम करो, होगी तो आखिर मदद ही ।"

मैंने चुटकी ली , और दिलीप के कन्धे पर हाथ रखकर बोला, "तुम्हारी पोजीशन यही रहेगी मिस्टर, प्याज छीलना रसोई बनाना नहीं है, और तुम सदा प्याज ही छीलते रहोगे।"

घर में लगभग आधे घण्टे से बिजली बन्द थी और एक मोमबत्ती की टिमटिमाती रोशनी में वे दोनों रसोई बना रहे थे। मेरी पत्नी और मैं दहलीज के बाहर खड़े उनके साथ हँस - बतिया रहे थे।

"तुम जाओ जी, बाहर जाकर बैठो , इन्हें भी बैठाओ।" दिलीप की पत्नी उसके हाथ से चाकू लेते हुए बोली, “मैं सब देख लूँगी । अब थोड़ा- सा ही तो काम रह गया है।"

“हमारे बीच इस बात की भी होड़ लगी रहती है कि काम का क्रेडिट किसे मिलेगा, और किसे नहीं मिलेगा। अब अगर मैं प्याज छीलना छोड़ दूं, तो यह सारे काम का क्रेडिट खुद ले जाएगी । कहेगी, सारा खाना तो मैंने बनाया है ।"

"हमारे यहाँ भी यही हाल है, "मैंने जोड़ा, "औरतें रसोई घर में अपनी हुकूमत बनाए रखना चाहती हैं । पति सारा काम करता भी रहे फिर भी कहेंगी। थोड़ी-बहुत मदद करता है ।"

इस पर बगल में खड़ी मेरी पत्नी झट से बोल उठी, “तुम करते ही क्या हो ? घर में सारा वक्त अखबार पढ़ते रहते हो । यहाँ भाई साहब मदद तो करते हैं ।"

“फिर कहिए, फिर कहिए, भाभी जी, "दिलीप चहक उठा, "मैं तो चपातियाँ भी सेंकने लगा हूँ । कहो तो आज बनाकर खिला दूं?"

"बहुत डींग नहीं मारो जी ,"दिलीप की पत्नी बोली, “आटा गूंध लो, यह भी बड़ी बात है। चपाती बनाते हैं , लकड़ी की लकड़ी। दोनों तरफ से जली हुई ।"

मुझे लगा दिलीप की पत्नी सचमुच खीझी हुई थी । दोनों हँसी-हँसी में ही थोड़ा तुनकने लगे थे। मुझे डर था, हमारे सामने उनके बीच झगड़ा न होने लगे । मियाँ-बीवी के बीच झगड़ा होते देर ही क्या लगती है । ऊपर से गर्मी का दिन था और बड़ी देर से बिजली बन्द थी । आग के सामने खड़ी वीणा की बुरी हालत हो रही थी । मकान-मालिक ने आधी ईंट की दीवार खींचकर खुली छत के एक कोने में रसोई घर बना दिया था और ऊपर टीन की छत डाल दी थी । दिन को भी झुलसो, रात को भी झुलसो।

"चलो, बाहर बैठो। स्थिति को बिगड़ता देख मैं दिलीप को बाहर ले आया ।

"आप दोनों बाहर बैठो, मैं वीणा की मदद करूंगी, "मेरी पत्नी ने कहा और रसोई-घर के अन्दर घुस गई।

दिलीप और मैं बाहर आ गए । रसोई-घर के बाहर खुली छत पर आकर बड़ी राहत मिली । तारों के नीचे हल्की -हल्की हवा बह रही थी । यों उसे छत का नाम देना छतों का अपमान करना था । जिस ऊंची दीवार के साथ सटकर बने तथाकथित रसोईघर में से हम निकनकर आए थे, उसी भीमकाय दीवार के सामने छत के दूसरे सिरे पर हम खाटों पर बैठ गए थे। यहाँ पर भी पीछे साथवाले घर की दीवार थी , जो साढ़े चारमंजिल था । इस तरह दिलीप के घर की छत दो ऊँची दीवारों के बीच फंसी थी । लेकिन फिर भी यहाँ कुछ-कुछ खुलेपन का भास ज़रूर होता था ।

"यहाँ तो खूब मज़ा है ।" मैंने कहा, "कम- से-कम हवा तो बह रही है । और ऊपर तारे जगमगा रहे हैं ।"

इस पर दिलीप हँस दिया, "इस वक्त बिजली बन्द है, इसीलिए तुम्हें अच्छा लग रहा है । बिजली आ जाने दो, फिर देखना ।"

“फिर क्या होगा ?"

“फिर होगा यह कि सामने सड़क की बिजलियाँ भी जग जाएँगी, और सड़क के पीछे ऊंचाई पर सिनेमाघर है। उसकी चौंधियाती रोशनी आँखों में पड़ने लगेगी। और वह रोशनी रात भर आँखों में पड़ती रहती है। अगर इस ऊँची दीचार की तरफ मुँह करके लेटो तो डर लगता है। वीणा तो रात भर करवटें बदलती रहती है । दिलीप अपना पसीना पोंछते हुए बोला, "माफ करना यार, तुम पहुँच गए। और हमारे यहाँ अभी खाना भी तैयार नहीं हुआ। फिर अपनी सफाई देते हुए बोला, “दिल्ली में रहने का एक टण्टा थोड़े ही है । एक छोटी- सी चूक हो जाए तो सब काम चौपट हो जाता है वरना कभी ऐसा भी हुआ है कि मेहमान घर पर पहुँच जाएँ और अभी हम प्याज ही छील रहे हों ।"

हम तुम्हारे मेहमान तो नहीं हैं । तुम चिंता क्यों करते हो ? बस, साढ़े- दस की बस पकड़वा दो , हमें और कुछ नहीं चाहिए। अगर वह बस निकल गई तो ज़रूर मुसीबत आएगी । लेकिन अभी बहुत वक्त है चिंता की कोई बात नहीं।"

“एक छोटी- सी चूक नहीं हो जाती तो सब काम ऐन समय पर हो जाता। पर क्या कहूँ, मैं फंस गया।"

"क्या हुआ ?"

"आज मैं दफ्तर में से निकला तो पूरे साढ़े चार बज रहे थे। रोज़ मेरा यही नियम होता है । साढ़े चार बजे दफ्तर से निकलता हूँ, चार- चालीस की मुझे बस मिल जाती है। वहीं, दफ्तर के नज़दीक से ही चलती है । बस पकड़ने में देरी हो जाए तो सब बण्टाधार हो जाता है । और मैं हांफता हुआ घर पहुंचता हूँ । आज वही हुआ। दफ्तर के दरवाजे में से निकला तो तिलकराज मिल गया। ऐन दफ्तर के सामने से जा रहा था । और मुझ से नहीं रहा गया । मैं उसे आवाज़ दे बैठा। अब यह तो नहीं हो सकता कि दोस्त सामने से जा रहा हो और मैं मुंह फेर लूँ । पहले ही यहाँ किसी के घर आना -जाना नहीं हो पाता । मुझे किसी ने कहा था कि तिलकराज बीमार रह चुका है। मैंने सोचा, चलते -चलते ही बीमार- पुर्सी भी हो जाएगी और मिलने का गिला भी खत्म हो जाएगा । पर ज्यों ही उसे बुलाया कि मेरा माथा ठनका, मन ने कहा भूल कर बैठे हो । आज का दिन किसी से मिलने का दिन नहीं है। घर पर मेहमान आ रहे हैं । जल्दी से जल्दी घर पहुंचो । पर अब क्या हो सकता है। दफ्तर से निकलो तो कोई दोस्त - यार सामने नहीं होना चाहिए । सीधा, आँखें बन्द करके बस स्टाप की ओर बढ़ जाना चाहिए । न दाएँ देखना चाहिए, न बाएँ । पर मैं यह सब जानते -समझते उसे आवाज़ दे बैठा था ।

"फिर भी , उस हड़बड़ी में मैंने सोचा, तिलकराज से हाथ मिलाऊँगा, माफी मागूंगा और आगे बढ़ जाऊँगा। पर उस पट्ठे ने मिलते ही छाती से लगा लिया और फूट- फूटकर रोने लगा ।

वह पहले ही जैसे भरा बैठा था । उसके छाती से लगाने की देर थी कि मेरा भी दिल भर आया। मैंने मन में कहा, ऐसी की तैसी बस की , नहीं हुआ तो स्कूटर कर लूँगा । वर्षों के बाद तिलकराज मिल रहा है । इसे यहाँ छोड़ दूँ और बस पर जा चढूँ ? तिलकराज तो जैसे तरसा बैठा था । पता चला कि इस बीच उसकी बीवी चल बसी थी और इसका मुझे पता ही नहीं चला था । अब मैं क्या कहूँ? मैं तिलकराज का मुँह देख रहा था और वह मेरे सामने खड़ा रोए जा रहा था , और उधर बस निकली जा रही थी । यहाँ वर्षों बीत जाते हैं ,किसी से मेल-मुलाकात नहीं होती, और जबमिलते हैं तो जिंदगी एक और करवट बदल चुकी होती है । पिछली बार तिलकराज मिला था तो उसके घर में दूसरी बेटी हुई थी , अब की मिला तो बीवी को मरे चार महीने बीत चुके थे । सच पूछो तो अब तो मैं किसी परिचित से मिलने से भी घबराता हूँ । आँख चुराकर निकल जाना चाहता हूँ । लगता है मिलूँगा तो एक और फर्ज का बोझ सिर पर चढ़ा जाएगा और मन को कचोटने लगा। उसके सामने खड़े रहते भी मेरे मन में एक बार झंझोड़ता- सा विचार आया कि अभी भी वक्त है, निकल चलो, बस पकड़ लोगे।... ”

"ऐसी भी क्या मारामारी थी यार, "मैंने कहा, "हम घर के आदमी ही तो हैं । देर हो गई तो क्या हुआ ।"

“मैं तुम्हारा कहाँ सोच रहा था यार, मैं तो पप्पू का सोच रहा था । पप्पू स्कूल से लौटकर सड़क पर डोलता रहता है । वीणा को तो घर पहुँचते - पहुँचते छह बज जाते हैं ।"

"फिर ?"

"फिर क्या ? मेरे मुंह से निकल ही गया । मैंने कहा, जल्दी ही हाजिर होऊँगा, तिलकराज , मुझे कुछ भी मालूम नहीं था ...।"

"तुम जा रहे हो ?" उसने जैसे सकते में आते हुए कहा। उसे उम्मीद नहीं थी कि उसके दुख में मैं इतनी रुखाई से पेश आऊँगा । बस, मैं ठिस हो गया और उसके पास खड़ा रहा और तभी ऐन मेरे सामने से बस निकल गई ।"

"तुम बेकार की चिन्ता करते रहते हो । देर-सबेर हो ही जाती है।...पप्पू कहाँ है ?"

कुछ बिजली बन्द होने के कारण और कुछ दिलीप की बातों को सुनते हुए मैं पप्पू को भूल ही गया था । हम लोग बच्चे के लिए एक खिलौना खरीदकर लाए थे और चाहते थे उसे दे दें । लेकिन बच्चे को घर में न देखकर हम खिलौने को भी भूल गए थे।

"हमसायों के घर में है। हमें देर हो जाए तो वहाँ चला जाता है । अभी खाना तैयार हो जाए तो उसे बुला लाऊँगा।"

रसोईघर में से दाल छौंकने की आवाज़ आई । साथ ही , दिलीप की पत्नी वीणा, किचन के दरवाजे में से ही खड़ी- खड़ी बोली, "मैं सोचती हूँ जी, तुम तन्दूर पर से ही रोटियाँ लगवा लाओ। देर बहुत हो रही है। घर पर रोटियाँ सेंकने में और देर हो जाएगी ।"

थोड़ी देर बाद दोनों स्त्रियां रसोईघर में से बतियाती हुई निकलीं। वीणा कह रही थी-

“आज दाल छौंकी है, यों तो मैं अलग से छौंकती भी नहीं। इतना टण्टा कौन करे। मैं तो दाल चूल्हे पर चढ़ाती हूँ तो साथ ही प्याज भी कुतरकर डाल देती हूँ, और अदरक , टमाटर, जो कुछ डालना हो , सभी कुछ उसी वक्त एक साथ डाल देती हूँ । अब कौन अलग से छौंकने बैठे । इतना वक्त किसके पास है ।"

औरतें चहक सकती हैं । मर्द लोग सारा वक्त झींकते -झंझलाते रहते हैं । राजनीति की बातें करेंगे , सयासतदानों को बुरा -भला कहेंगे, उनकी नज़रों में सभी कुछ गर्त में जा रहा होता है ।स्त्रियाँ छोटी - छोटी चीज़ों में से भी सुख के कण बीन लेती हैं । रसोई की बातें छोड़ेंगी तो बच्चों की बातें ले बैठेंगी। बच्चों की छोड़ेंगी तो साड़ियों की चर्चा शुरू हो जाएगी। अकेली साड़ियों की ही चर्चा घण्टों तक चल सकती है । और फिर निन्दा-प्रशंसा और किस्से और गप शप , औरतें खुश रहना जानती हैं ।

बाहर आई तो वीणा अपने पति की ओर देखकर बोली, “हाय जी आप तो पप्पू को भूल ही गए। उसे लाओगे नहीं?"

"भूलूँगा क्यों ? मैंने सोचा तुम रसोई कर लो तो उसे ले आऊँगा।"

"देर हो गई तो वह सो नहीं जाएगा?" वीणा क्षुब्ध होकर बोली, "दिन भर का भूखा बैठा है । यों भी हमसायों के घर अपने बच्चे को रोज़- रोज़ कौन छोड़ता है ?"

"उनके घर बैठकर टेलीविजन ही देखता है और क्या करता है। चुपचाप बैठा होगा। तुमने उसे ऐसा सिखा रखा है कि कोई लाख बार भी कुछ खाने को कहे तो नहीं खाता । पानी तक तो पीता नहीं।"

दिलीप उठ खड़ा हुआ । "लाओ, कटोरा दे दो , रोटियां भी लेता आऊंगा और पप्पू को भी ले आऊँगा।"

जब दिलीप सीढ़ियों की ओर जाने लगा तो वीणा बोली, "अगर सो गया हो तो उसे जगाना नहीं । अब बहुत देर हो गई है । मैं सोए- सोए उसे थोड़ा- सा दूध पिला दूंगी । कटोरी भर दूध घर में रखा है।"

दिलीप सीढ़ियाँ उतर गया तो वीणा सुनाने लगी : “एक बार इसी तरह हम लोग घर देर से पहुँचे। स्कूल की बस जहाँ पप्पू को उतारती है, उधर पास ही में एक दुकान है, पेरिस हाउस । मैंने पप्पू को समझा रखा है कि अगर पापा को देर हो जाए तो दुकान के चबूतरे पर बैठ जाया करे। मजाल है जो एक इंच भी इधर से उधर हो जाए। उस रोज हम चार घण्टे देर से पहुंचे। साए उतर आए थे और बत्तियाँ जल चुकी थीं । यह दिल में घबराए कि पप्पू न जाने कहाँ होगा। पर मैं इनसे कहूँ, जी , मैं अपने बच्चे को जानती हूँ, वह कहीं नहीं जाएगा। पप्पू सचमुच वहीं पर खड़ा था । बुत - का -बुत, भूखा-प्यासा, दुकान के चबूतरे पर खड़ा था । बल्कि हमसे दुकानदार कहने लगा, जी, आपका बेटा तो सच्चा योगी है। मैंने शीतल पेय की बोतल दी, इसने छुई तक नहीं । सारी दोपहर सामने बच्चे खेलते रहे , यह उन्हें चबूतरे पर खड़ा देखता रहा , उनके नज़दीक तक नहीं गया।"

"भूख-प्यास लगे तो क्या करता है ?" मैंने पूछा ।

"मैं इसे सुबह साथ में सब कुछ दे देती हूँ । तीन सैण्डविच और एक केला। पानी की बोतल अलग से दे देती हूँ। दो सैण्डविच स्कूल में खा लेता है, एक सैण्डविच और केला रख छोड़ता है। वह स्कूल से लौटकर खाता है पानी भी बोतल में रखा होता है। मैंने इसे सिखा दिया है कि बाहर से कुछ भी लेकर नहीं खाए, और न ही किसी के साथ जाए ।"

"सचमुच योगी है।"

"इतना तो सिखाना ही पड़ता है । इसके बिना चारा भी तो नहीं । आपकी बेटी तो अभी छोटी है, जब स्कूल जाने लगेगी तो आपको भी सब इन्तज़ाम करने पड़ेंगे। लड़कियों का ध्यान करना तो और भी मुश्किल होता है।"

"कौन - सी क्लास में पढ़ता है पप्पू ?"

"अभी क्या पढ़ता है । पहली जमात में ही तो है ।"

"बड़ा समझदार है, "मैंने कहा, मेरे भाई का बेटा है, आफत है आफत । न मां की सुनता है, न बाप की ।"

थोड़ी देर बाद पप्पू को कन्धे के साथ लगाए दिलीप सीढ़ियाँ चढ़कर छत पर आया। दूसरे हाथ में रोटियों का डिब्बा उठाए हुए था । पप्पू गहरी नींद सो रहा था । उसे देखकर दिलीप की पत्नी आगे बढ़ आई और उसे बाँहों में लेने के लिए दोनों हाथ बढ़ा दिए ।

"श श श श ! "दिलीप फुसफुसाकर बोला, “सो गया है।"

"मुझे इसी बात का डर था । वीणा सिर झटककर बोली।

"अभी- अभी सोया है ।"दिलीप बच्चे को उठाए-उठाए ही धीमी आवाज़ में कहने लगा, वर्मा जी कह रहे थे, सारा वक्त टेलीविजन पर आँखें लगाए बैठा रहा । घर के लोग खाना खाने के लिए उठ गए, लेकिन यह वहीं जमकर बैठा टेलीविज़न देखता रहा ।"

"हमसाये कभी सीधी बात कह जाएं तो मान, "दिलीप की पत्नी ने कलपकर कहा, "मैं नहीं चाहती यह वहाँ जाया करे, पर क्या करें । एक दिन जाता है तो दूसरे दिन वे जरूर कहते हैं , "हम तो टेलीविजन नहीं देख रहे थे, तुम्हारा बेटा देख रहा था , "फिर मेरी पत्नी की ओर देखकर बोली, "बुढ़िया रांड अभी तो गहने बनवा रही है, लेकिन दिल चिड़ी जितना छोटा है।"

मेरी पत्नी ने मुझे इशारा किया कि थैले में से खिलौना निकाल लाऊँ । मैं संकोच में पड़ गया । इस समय खिलौना देना ठीक नहीं होगा । घर लौटते समय चुपचाप खिलौने को बच्चे के सिरहाने रख देंगे । इससे माँ -बाप को भी पता चल जाएगा कि हम खिलौना लाए हैं , और बच्चा भी सुबह उठकर उसे देख लेगा।"

पर सहसा बच्चा जाग गया। दिलीप की पत्नी का ही दोष था दिलीप उसे बिस्तर पर लिटा रहा था । कि उसकी पत्नी से नहीं रहा गया और वह बच्चे के बाल सहलाने लगी। सिर पर हाथ रखने की देर थी कि बच्चे ने माँ का हाथ पहचान लिया और आँखें खोल दीं ।

"देखा ? तुमने जगा दिया ।"दिलीप फुसफुसाकर बोला, "इसके साथ लाड़-प्यार करना हो तो छुट्टी के दिन कर लिया करो। बाकी दिन इसे पड़ा रहने दिया करो ।"फिर पप्पू को थपथपाते हुए बोला, "सो जा , पप्पू, देर हो गई है । कल सुबह स्कूल भी जाना है।" और दिलीप ने पत्नी को इशारा किया कि वह सामने से हट जाए, और पीछे और गहरे अँधेरे में चली जाए।

उसी समय बिजली आ गई और सीढ़ियों वाले दरवाजे के ऊपर लगी बत्ती जलने लगी और बाहर सड़क की बत्तियाँ भी जल उठीं, जिससे सारी छत पर रोशनी फैल गई। कुछ बत्ती के कारण और कुछ माँ के स्पर्श के कारण बच्चा जाग गया। और आँखें खोल दीं ।

"पप्पू! ” दिलीप ने जोर से कहा, "आँखें बन्द कर।"

"अब जाग ही गया है तो जागने दो जी , दो कौर रोटी खा लेगा ।"

"श श श श ! " दिलीप ने तर्जनी मुँह पर रखते हुए फिर से कहा और बच्चे की करवट बदलकर उसका कन्धा थपथपाने लगा ।

पप्पू जाग गया था लेकिन बाप के डर से आँखें बन्द किए लेटा था । कुछ हमें देख पाने का कुतूहल, कुछ माँ -बाप से मिलने की उत्सुकता, वह खाट पर पड़ा-पड़ा ही आँखें मिचमिचाने लगा। थोड़ी देर बाद अपने आप ही बोला, “पापा, मैं आँखें खोल दूँ?"

"हाय, बेचारा । मेरी पत्नी के मुँह से निकलगया ।

"शश शश ! "दिलीप ने फिर एक बार कहा। पर बच्चा जाग गया था । अब उसे थपथपाने में कोई तुक नहीं थी । दिलीप खीझ उठा । “अब तुम्ही इसे सुलाओ, मैं नहीं सुला सकता ।"

"दिन भर का भूखा है जी , अब जाग जो गया है तो थोड़ा खा लेगा। "

"तुम इसे बिगाड़ रही हो ।"

"नहीं-नहीं, यह बिगड़ा कहाँ है। यह तो बड़ा प्यारा बच्चा है।"

इस पर मेरी पत्नी को जाने क्या सूझी, सबके सामने बोल दिया, "दे दो न जी , वह खिलौना, जो हम पप्पू के लिए लाए हैं ।"

खिलौने का नाम सुनते ही पप्पू ने फिर से आँखें खोल दीं ।

"तुमने सब गुड़गोबर कर दिया यार, "दिलीप ने खीझकर कहा, "अब यह ग्यारह बजे तक नहीं सोएगा ।"

"कोई बात नहीं, एक दिन वक्त पर नहीं सोया तो कुछ नहीं होगा ।" मैंने कहा ।

"तुम इसकी नींद को नहीं जानते यार , सुबह इसकी आँख खुलती ही नहीं। इसकी माँ सुबह छह बजे से इसे जगाना शुरु करती है, तो सात बजे जाकर यह कहीं जागता है । मुँह पर पानी के छींटे डालते हैं , तब कहीं उठता है।"

“कोई बात नहीं, कोई बात नहीं," कहते हुए मैंने खिलौना थैले में से निकाल दिया । खिलोना क्या था एक मोटरकार थी, जिसके साथ लम्बी- सी तार लगी थी । तार का दूसरा सिरा हाथ में लेकर बटन दबाओ तो मोटर खड़ी हो जाती थी । फिर से दबाओ चलने लगती थी ।

मोटरकार को देखकर पप्पू की आँखें फैल गईं ।

वीणा ने मेरे हाथ से मोटरकार लेते हुए कहा, “लो बेटा, देखा अंकल तुम्हारे लिए क्या लाए हैं । इस पर एक बार हाथ फेर लो, फिर मुझे दे देना। खिलौना तुम्हारा ही है, तुम्हारे ही सिरहाने रख दूँगी । सुबह उठकर ले लेना ।"।

"पप्पू की आँखें खिलौने पर लगी थीं , पर बाप के डर से हाथ आगे नहीं बढ़ा रहा था । वीणा ने खिलौना उसके हाथ में दे दिया ।

पप्पू उठकर बैठ गया। खिलौने को हाथ में लेकर उसने हम दोनों की ओर बारी-बारी से देखा और फिर खिलौने को छाती से चिपका लिया। उसकी उनींदी आँखों में अभी भी खुमारी भरी थी ।

"नहीं पप्पू, एक बार कह जो दिया । तुम केवल एक बार इस पर हाथ फेर सकते हो । इससे ज्यादा नहीं।"

पर पप्पू ने उसे और भी ज्यादा जोर से भींच लिया ।

"दे दो, बेटा अबखिलौना मुझे लौटा दो । शाबाश बेटा, पप्पू बहुत अच्छा बेटा है।" दिलीप ने धीमी किन्तु दृढ़ आवाज़ में कहा ।

"इसे मैं अपने सिरहाने पर रख लूँ, माँ ?" पप्पू ने शिथिल- सी आवाज़ में कहा ।

"नहीं, पप्पू," दिलीप ने डाँटकर कहा, “मैं तुम्हें अपने आप कल दे दूंगा । अब तुम लेट जाओ।"

पप्पू की आँखों में , जो क्षणभर पहले खिलौने के अंग - अंग को सहला रही थीं , दूरी - सी आ गई, जैसे खिलौने की आकृति धुंधली पड़ने लगी हो । पप्पू के सारे शरीर में एक हूक - सी उठी और उसने खिलौने पर से हाथ हटा लिए ।

हम लोग उसकी खाट पर से हट गए। वीणा दूध ले आई और कटोरी पप्पू के मुँह को लगा दी । दिलीप ने बत्ती बुझा दी । सड़क की ओर से आनेवाली रोशनी हमारे लिए बहुत थी । जिसमें हम बैठकर खाना खा सकते थे।

"खिलौने को पप्पू के सिरहाने रख देते तो क्या ठीक नहीं था ?"

मेरी पत्नी ने धीमे से कहा, "पप्पू इत्मीनान से उस पर हाथ रखे-रखे सो जाता।"

"नहीं बहिन जी, "वीणा बोली, “इससे वह सो नहीं पाता । पप्पू खिलौने के साथ बातें करने लगता है । फिर घण्टों सो नहीं पाता । उसकी सारी नींद गायब हो जाती है ।"

नन्हा- सा बालक , सफेद कुर्ते और सफेद पाजामे में खाट पर लेटा बड़ा मासूम और निरीह सा लग रहा था । मुश्किल से खाट के एक -तिहाई भाग को ही उसका नन्हा- सा शरीर घेर पाया था ।

"आपने सचमुच बच्चे को खूब सिखा रखा था।"

"सिखाती नहीं तो काम कैसे चलता, "वीणा बोली और उसे पप्पू के अनेक किस्से याद हो आए, “पहले बड़ा नटखट हुआ करता था , आपको क्या बताऊँ । चैन से बैठने ही नहीं देता था । जहाँ जाओ साथ जाने के लिए चिपक जाता था , एक -एक चीज़ पर मचलने लगता था । अगर हम उस वक्त से ढील दे देते तो यह सचमुच बिगड़ जाता।"कहते-कहते वीणा को कोई किस्सा याद हो आया, "आप जानती नहीं बहिन जी, यह कितना नटखट था । हमारे पिछले फ्लेट में , जिसमें हम रहते थे, एक छोटी- सी कोठरी थी । यह तब छोटा- सा था । हम इसे खटोले में डालकर बाहर से खटोले के दरवाजे के आर- पार रस्सी बाँध देते ताकि यह बाहर निकल नहीं सके । और यह पिदकू - सा, गाँठ खोलकर बाहर आ जाता। एक बार इन्होंने कुछ नहीं तो पन्द्रह गाँठ लगाई होंगी । और यह पूरी पन्द्रह गाँठे खोलकर बाहर निकल आया । ऐसा था यह पप्पू।... पर अब तंग नहीं करता।"

इस पर दिलीप ने, धीमी आवाज में, अपनी पत्नी को समझाते हुए कहा, “पप्पू के सामने उसकी तारीफ नहीं किया करो । मैंने तुमसे पहले भी कहा था । इससे वह मचल जाता है ।"फिर मेरी ओर देखकर बोला, "अब सुबह फिर हाय -तोबा मचेगी । अब साहबजादे, सुबह सात बजे जाग चुके।"

“चिन्ता नहीं करो जी , अगर नहीं जागा तो खिलौने का नाम लेकर जगा लूँगी । इससे जल्दी जाग जाएगा।" वीणा ने पति को ढांढ़स बंधाते हुए कहा ।

लगभग साढ़े नौ बज रहे थे जब हम खाना- खाने बैठे । हड़बड़ी में खाना खाया । हड़बड़ी में ही उठकर घर के लिए रवाना भी हो गए । घड़ी देखी तो सारा तकल्लुफ भूल सीढ़ियों की ओर लपके । दिलीप बस तक छोड़ने साथ- साथ आया । बस में बैठे तो पत्नी ने पूछा, “कोई बात हुई तुम्हारी ? क्या कहते थे? खाने पर क्यों बुलाया था ?"

"ज्यादा बात नहीं हुई। वक्त ही नहीं था । पर फिर भी इधर आते हुए दिलीप ने जैसे मेरे कान में बात डाल दी है ।"

"क्या कहा?"

"कहने लगा, वीणा बी. एड. का कोर्स करना चाहती है । अगर तुम अपने मामू से कहकर उसे दाखिला दिलवा दो तो साल भर में वह बी . एड. कर लेगी।"

मेरी पत्नी चुप हो गई। फिर धीरे से बोली, "इतनी भर बात के लिए खाने पर बुलाया था ? यह तो तुम्हें खत में भी लिखकर बता सकते थे। तुम्हारे दफ्तर में टेलीफोन भी कर सकते थे?" फिर मेरी ओर देख कर बोली, "तुमने क्या कहा ?"

"मैंने कहा कोशिश करूँगा।" पत्नी फिर चुप हो गई ।

"दिलीप खुद भी बैंक के कोर्स में नाम लिखवाना चाहता है । उसकी क्लासें शाम को लगती हैं । दफ्तर के बाद जाया करेगा । उसके लिए भी कह रहा था कि मैं मामाजी से कहकर उसकी सिफारिश करवाऊँ ताकि उसे दाखिला मिल जाए।"

"दोनों दफ्तर में भी जाएँगे और कोर्स भी करेंगे तो पप्पू का क्या होगा?"

"मैंने दिलीप से यही पूछा था । कहने लगा, पप्पू अब कोई दूध -पीता बच्चा तो नहीं है ना , बड़ा हो गया है । और धीरे- धीरे और भी बड़ा होता जाएगा । अब पप्पू की वजह से कैरियर को ताक पर तो नहीं रखा जा सकता ना । यही दिन हैं जब कुछ किया-किराया जा सकता है ।"

बस घरहाराती हुई अँधेरे में आगे बढ़ती जा रही थी ।

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