खेल (कहानी) : विवेकी राय

Khel (Hindi Story) : Viveki Rai

एक खेल देख रहा हूँ।

टोले भर की छोटी-छोटी लड़कियाँ-गुदिया, मुअली, बचमुनिया, सरली, सांती, सोमरिया और गौरी आदि - दो-दो गोल में, एक-दूसरे की बगल में विमुख खड़ी होकर परस्पर गले में हाथ डाले, धीरे-धीरे घूमते हुए सवाल- जवाब करती हैं-

"भात बनाया है?"
“हाँ!”
"दाल बनाया है?"
“हाँ!”
“भैया को खिलाया है?"
"हाँ!”
"अपने खाया है?"
"हाँ!"
"हमको रखा है?"
"नहीं।”
“क्यों?"
"बिल्ली खा गई।"

बस, अब क्या? खेल का चरमबिंदु आ जाता है। लड़कियाँ तेजी से चहकती, हल्ला करती, नाटकीय ढंग से घूमती हुई कहती जाती हैं, “आई-आई रे बिलारी दाई, मुँगरी चलाई.... आई - आई रे बिलारी दाई, मुँगरी चलाई... आई आई रे!” यहाँ तक कि कुछ घुमरी खाकर गिर जाती हैं। जो गिर जाती हैं, वे उठा-उठाकर धूल दूसरों पर फेंकती हैं। क्षणभर की धूल की लड़ाई शांत हो जाती है और कब एक नया खेल, निर्माण का खेल शुरू हो जाता है, पता नहीं चलता है।

घरौंदे बन रहे हैं। बीच रास्ते में जहाँ से होकर आदमी, मवेशी, साइकिल और बैलगाड़ियों गुजरती हैं, जमाव हो गया है। पूरे रास्ते की चौडाई हाथ से बुहारकर साफ-सुथरे घरौंदों से घिर गई है। उन घरौंदों में क्या नहीं है? लंबी दालान है। छोटी-छोटी कोठरियाँ हैं, कोठे हैं। एक जगह धूल की ढेरी में नीम पतली टहनी गाड़कर पेड़ बनाया गया है। पेड़ के आगे धूल के ही नाद और चरन हैं तथा बरगद के पत्तों के बने बैल गाय आदि झुंड-के-झुंड मवेशी हैं।

एक घरौंदे में गुदिया बैठी है। वह दुकानदार बनी है। साफ और चिकनी धूल की छोटी-छोटी ढेरियाँ सामने पड़ी हैं। कुछ चावल हैं, कुछ दाल आदि। उसी में गुड़ और घी भी है। बाँस की सूखी कोंपल तराजू का काम करती है। ईंट टुकड़े बाट- बटखरे हैं। वह काले झाँवे के टुकड़े को असली 'किलो' कहती है। मिट्टी के बरतनों के टुकड़े, सिकड़े सिक्के हैं, रुपए-पैसे हैं और रास्ते में गिरे पड़े तथा सावधानी से एकत्र किए गए रही कागजों के टुकड़े नोट का काम करते हैं।

सरली एक रुपए का नोट बढ़ाकर कहती है, “सहुआइनि जी, तमाखू है?"
“हाँ है । ले जाओ, बहिनी । " उत्तर मिलता है।
"क्या भाव है?"
“टके का तीन छटाँक ।"
"दे दो चार टके का ।"

सूखी मिट्टी के छोटे-छोटे तीन-चार ढेले - तमाखू के रूप में मिले। सरली ने सहुआइन को नोट थमाया और कहा, “ठीक-ठीक पैसे फेरना। तुम बहुत ठगिनी हो । "

"अरे ना बाची, साहू - महाजन ऐसा करेगा तो कैसे उसका निकसार होगा ?” कहती हुई सहुआइनि कुछ सिकड़े थमा देती है। सरली अपने घरौंदे में चली जाती है।

उसी समय अरहर की एक छोटी सी टहनी में (यह लाठी का स्थानापन्न है) मुट्ठी भर दूब बाँधकर लटकाए हुए गौरी आई। वह सरली के घर का 'मर्द' है और खेत से घास लेकर आया है। सरली एक बित्ते की लकड़ी पर मिट्टी का ढेला रखकर लाती है। यह चढ़ा-चढ़ाया हुक्का है। बगल में शोर होता है--- चोर... चोर... चोर...दौड़ो! बचमुनिया ने एक ओर घेरकर अपना घर बनाया है। इसका धूल का घेरा बहुत सुंदर और सुडौल है। वह सोनार है। उसकी दुकान में गहने भरे पड़े हैं। यहाँ इन मूल्यवान आभूषणों की पहचान चूड़ियों के फूटे टुकड़े, फूल, रंगीन कपड़ों के कोटन, चमकते चित्रों और शीशे के टुकड़े तथा गोलियों में निहित है । सोमरिया चोर है। एक ओर घरौंदा थोड़ा टूट गया है। सेंध लग गई है । सोमरिया के हाथ में चूड़ियों के तीन-चार टुकड़े हैं। वह चारों ओर से पकड़ ली गई है।

“ओ मुखियाजी, सिपाही-दारोगा जल्दी बुलाओ।" बचमुनिया चिल्ला रही है।

मुअली मुखिया है। ऊपर ही ऊपर उसकी तेज आवाज सुनाई पड़ रही है, “चलो सिपाहीजी, पुलिसजी... पहुँचो दारोगाजी, चोर 'गिलिफ्दार' हो गया है!” तीन-चार लड़कियाँ पगड़ी बाँधे हाथ में अगहनिया का सूखा ढाठा लिये पहुँचती हैं। एक के हाथ में बेंत की छड़ी है। ये सिपाही हैं। शांती थानेदार है। उसके सिर का झबर - झबर बाल पगड़ी के नीचे लटक रहा है। कुछ तुतलाकर बोलती है।

“कहाँ है चोल? ले तलो, देल में धुका दो।... ले आओ लुपइया, गिनो थनाथन्न ।" शांती ऑर्डर करती है।

टुन टुन टुन टुन... शांती का भाई साइकिल भगाता हुआ आता दिखाई पड़ता है। क्षणभर के लिए समूचे खेल का स्वाँग उतर जाता है। लड़कियाँ चुपचाप, कुछ सहमी सी रास्ते के एक ओर खड़ी हो जाती हैं। पैदल जाने वालों को तो बचा - बचाकर जाने के लिए कहती हैं, साइकिल वाले को क्या कहें? बीच घरौंदे से साइकिल को जाना था। सभी को अपने-अपने घरौंदे की चिंता है। देखें, रामजी की दया से किसका-किसका बच जाता है और किसका बिगड़ जाता है। वे हाथ बाँधे साँस रोककर खड़ी हैं। एकटक रास्ता देख रही हैं। साइकिल सर्र से निकल गई। आफत टली। वे शोरगुल करती झपट पड़ीं। घरौंदे दखल हुए। टूटे हुए घेरों पर धूल चढ़ाकर सँवारा जाने लगा। मगर मूड बदल गया था।

"शांती रे, ओ शांती!” आगे साइकिल रोककर बाबूलाल चिल्ला रहा है, “संध्या हुई, कब तक खेलोगी? घर चलो।”

पर कौन सुनता है! न जाने क्या हुआ कि क्षण भर शांती दारोगा से 'बहू' बन गई है। अब वह अपनी सास के सिर पर तेल मालिश करने में मशगूले है । पाँच वर्ष की शांती पतोहू और ढाई-तीन वर्ष की उर्मिला सास! पतोहू की सास बैठी है। पतोहू केहती है-

“सासुजी का झोंटा खाउर खाउर? देखेगा सो क्या कहेगा? ले आ लौंडी, सुच्चा चमेली का तेल !”

गुदिया बाँस की सुपेली में थोड़ी धूल रखकर दे जाती है। धूल तेल है, जिसे बहुत प्रेम और लहास के साथ थोड़ा-थोड़ा सिर पर रखकर विधिवत् मिलाया और दबाया जा रहा है। उर्मिला की नई धुली कमीज की किसे चिंता है? वह फूली फूली बैठी सिर पर धूल चढ़वा रही है, मानो सचमुच वह सास-पद पर प्रतिष्ठित हो गई है। उस गुड़िया सी बालिका के शरीर पर नीचे से ऊपर तक धूल छा जाती है और उस धूल की दुनिया में वह फूल सी खिल उठती है । उसी समय 'चिट्ठी... चिट्ठी ... चिट्ठी...' की एक तरफ से आवाज आती है।

लकड़ी के एक टुकड़े से धूल की ढेरी पर चावल छाँटने का अभिनय करती मुनिया उठ खड़ी हुई। बाँस की सुपेली मिट्टी के कणों को अनाज रूप में फटकती और सावधानी से एक जगह रखती जाती। मुअली उठकर एक कदम आगे बढ़ आई। ईंट के टुकड़े रखकर अपने घर में बनाए चूल्हे पर खपरैल का तवा रख पीपल की पत्ती की रोटी उलटती पलटती और सरकंडे का ईंधन सरकाती सोमरिया बैठे-बैठे बोली, "हमारी भी चिट्ठी ले लेना । रोटी तवे पर डाल दी है। जल जाएगी। "

मुंशी के रूप में गौरी का आम की सूखी पत्तियों की चिट्ठी बाँटना शुरू है । "... यह तुम्हारे मामा ने भेजा है... यह बंबई से आई है... यह डिल्ली का तार है......."

"तीन तिलाक ! हमारी चिट्ठी कोई न बाँचे ।" पीपल की पत्तियों की पक्की रोटियों की लौकी को बड़ी पत्ती रूपी थाल में सजाते हुए सोमरिया कहती है।

"आय-हाय ! चिट्ठी का इतना गुमान ? बाँड़ी-डूँड़ी को कौन चिट्ठी ? है ?" मुअली हाथ चमकाकर कहती है।

"तू बाँड़ी रे!” सोमरिया झनककर खड़ी हो जाती है, "तोरे सात पुहुत बड़ा डूँड़ा रे! घाव लवनी!!”

मुअली के गोल में गौरी, शांती, सरली और बचमुनिया तथा सोमरिया के गोल में केवल गुदिया। जमकर वाक्युद्ध होता है और अंत में खेल खतम । ... आना हमारे घर की ओर... आना नदी के तीर पर... चलना बगीचे में.....

पता नहीं सूरज डूब गया। संध्या ने पंख फैलाना शुरू किया, चिड़ियाँ चहककर चुप होने लगीं। प्रकाश मटमैला होकर धूमिल हो गया।

मैं सूने पड़े घरौंदों को देख रहा हूँ। बनाने वालों ने प्रेम से बनाया, भोगा और फिर छोड़कर चले गए। सूनी राह पर सूना घरौंदा।

फिर मैंने खेल का अंतिम अंश देखा।

रामदास भड़भूजा बबूल की टहनियों का एक भारी बोझ जमीन पर घसीटता आ है सरर्... सरर्... सरर्...! बोझ घसीटता सामने आ गया। रामदास घरौंदे की कुछ नाटिस नहीं ले रहा है। वह अत्यंत निरपेक्ष भाव से बोझ खींचता राह से चला गया। बोझ घरौंदों के ऊपर से गुजर गया। एकदम साफ। सबकुछ पुँछ गया । न घर, न घरौंदा और न खेल का कोई चिह्न । बच गई एक राह। उस राह में घरौंदा खोजने के लिए बहुत देर तक एकटक देखता रहा।

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