खेल (नेपाली कहानी) : गीता केशरी

Khel (Nepali Story) : Geeta Keshari

मेरा अख़बार पढ़ने का समय सुनकर सभी हँसते हैं। कहते भी हैं, "उस वक्त तक तो ख़बर भी बासी हो चुकी होती है, फिर पढ़ने से क्या फ़ायदा?"
लेकिन मुझे तो दिनभर की सबकी टीका-टिप्पणी सहित रात में एक-एक ख़बर को चिंतन-मनन के साथ पढ़ने में कुछ और ही मज़ा आता था। कभी तो वहाँ लिखी समस्या का समाधान का मार्ग सपने में खोज रही होती हूँ।

ऐसी ही एक रात में समस्या की पोटली उठाए स्वर्ग की अदालत पहुँची। उस समय वहाँ ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर की उपस्थिति में सभी देवी-देवता मिलकर गोपनीय बैठक का संचालन कर रहे थे। मुझे द्वारपाल ने अंदर घुसने ही नहीं दिया और वहीं बाहर प्रतीक्षालय में बैठकर इंतज़ार करने का आदेश दिया। विवश मैं कर भी क्या सकती थी, वहीं बैठ गई और पूछा, "किस मकसद से बैठक है? कब से चल रही है?"

उसने कहा, "तुम मनुष्यों के विषय पर ही वह सभा हुई है, अभी कुछ देर और चलेगी।"
काफी देर इंतज़ार करने के बाद भी सभा समाप्त नहीं हुई तो मैं परेशान होने लगी।
लंबी सफ़ेद दाढ़ी, चार सिरवाला, गुलाबी वर्ण का पुरुष कार्यालय में प्रवेश करता है और सिंहासन पर विराजमान हो मन-ही-मन कहता है, "आज तक मैंने न जाने कितनी सृष्टि की परंतु अभी तक अपना आकार कहाँ बनाया है मैंने? यह तो अपने उपर ही अन्याय हो रहा है, मुझे अब इस विषय में सोचना ही चाहिए।" वह उठ खड़ा होता हैं और वहाँ रखी चीज़ों का मिश्रण कर आकार बनाने के प्रयास में लग जाता है।
अच्छा तो यह ब्रह्मा जी हैं? देखूँ कैसे मूर्ति बनाते हैं, सोचकर मैं बहुत ध्यान से देखने लगी।

कितनी ही रातें और दिन की मेहनत के पश्चात एक मनमोहक आकृति खड़ी होती है, जिसे देख ब्रह्मा जी अति प्रसन्न होते हैं। मूर्ति ऐसी थी कि अभी बोल पड़ेगी। वे उसे और आकर्षक बनाने में लगे थे कि नारद जी पहुँचते हैं और मूर्ति को दिखाते हुए प्रश्न पूछते हैं, "पिताश्री, अपना आकार तो आपने बनाया, परन्तु सिर एक ही क्यों बनाया?" ब्रह्मा जी ने भी हँसते हुए कहा, "ये चारों दिशाओं वाले सिर की सोच एक दूसरे से न मिलने की वजह से मैं कितना परेशान हूँ और इस बेचारे पर भी वहीं समस्या क्यों लादूँ? यही सोचकर मैंने इसका एक ही सिर बनाया। फिर बनाने में सबसे कठिन तो यही भाग है। इसलिए पूरा ध्यान देकर एक ही सिर बनाया है।" मूर्ति को देख ब्रह्मा जी की बात सुनने के बाद नारद जी इस नए समाचार को सुनाने के लिए व्याकुल हो तुरंत कैलाश की ओर प्रस्थान करते हैं।

नारद के साथ महादेव-पार्वती दोनों ब्रह्मा जी की कार्यशाला पहुँचते हैं। पार्वती भी मूर्ति की प्रशंसा करती हैं। दोनों मूर्ति को चलता-फिरता देखना चाहता हैं और महादेव पार्वती को उस मूर्ति में प्राण डालने की आज्ञा देते हैं।

पार्वती कहती हैं, "पतिदेव! आपकी आज्ञा का पालन अवश्य होगा परंतु ब्रह्मा जी से कहें कि एक नारी मूर्ति की भी सृष्टि करें। इस अधूरी सृष्टि को मैं पूर्ण बनाना चाहती हूँ।"

पार्वती का प्रस्ताव सुनकर ब्रह्मा जी हँसते हुए पहले से तैयार नारी मूर्ति दिखाते हुए कहते हैं, "हे माता! इसी मूर्ति ने तो मुझे इस दूसरी मूर्ति को बनाने की प्रेरणा दी हैं। मैं तो माता का भक्त हूँ।"

ब्रह्मा जी के वचन सुनकर पार्वती अति प्रसन्न होती हैं और मूर्तियों में प्राण डाल देती हैं। प्राण डालते ही मूर्तियाँ इधर-उधर भाग-दौड़ करने लगती हैं और सामान को तोड़फोड़ कर तहलका मचाने लगती हैं। महादेव जी उन्हें नियंत्रित करने के लिए ब्रह्मा जी को सरस्वती की आराधना करने की आज्ञा देते हैं। देवी सरस्वती प्रकट हो, वरदान देती हैं, जिससे वे मूर्तियाँ अब बोलने भी लगती हैं।

सभी उपस्थित देवी-देवताओं के पास जो दिखता है, वहीं माँगना शुरू कर देते हैं। माँगकर न मिले तो छीन-झपट कर पहनते और आल्हादित होने लगते हैं। समस्या और जटिल बन जाती हैं। अत: महादेव जी कहते हैं, "इन्हें अब विवेक शक्ति की ज़रूरत है जो परिस्थिति और आवश्यकता अनुरूप कर्म करने के लिए स्वयं में निहित शक्ति का परिचालन करना सिखाता है। ऐसी शक्ति विष्णु ही दे सकते है।"

विष्णु जी प्रवेश करते हैं और विवेक देते हैं। उसके पश्चात वे जीवात्मा सोचकर ही माँगते हैं। "भगवान! हमें अपने वंश के विस्तार हेतु स्वर्ग और पाताल से भिन्न जगह का निर्धारण कर दीजिए। हम आपके द्वारा प्राप्त शक्तियों का प्रयोग करते हुए अपनी आवश्यकता अनुरूप सृजना कर सकें। नहीं तो हमें विवश हो यहीं स्वर्गलोक में ही स्थान लेने को बाध्य होना पड़ेगा।"

माँग सापेक्षिक थी। करीब-करीब शिव-पार्वती की योजना अनुरूप जैसे ही सूर्य की आराधना से पृथ्वी का सृजन कर उन दोनों को मनुष्य नाम दिया गया और निर्देश दिया गया, "ज्ञान और विवेक का प्रयोग करके ही राज करना। आज से हमारा अंश बनकर पृथ्वी पर रहोगे। हमारी शक्ति मिली है, अत: हमारा प्रतिनिधित्व करते हुए कर्म करते जाओगे। चेतना और शक्ति के परिचालन हेतु समय और परिस्थिति देख ज्ञान और विवेक का प्रयोग करने से विकास अपने आप दिखाई देगा और पृथ्वी भी स्वर्ग जैसी ही बनेगी तुम्हारी चाह के अनुरूप, परंतु याद रखना जिस दिन से तुम हमारे निर्देशन एवं आज्ञा का उल्लंघन करना शुरू करोगे उसी समय से तुम्हारे पतन की शुरुआत होगी। अब तुम लोग पृथ्वीतल पर जाओ।"

दोनों मनुष्य पृथ्वीलोक पर जाने में आनाकानी करते हुए कहते हैं, "प्रभु! ऐसे आग के गोले में हम जाएँगे तो आपकी आज्ञा का पालन करने से पहले ही हम नष्ट हो जाएँगे, फिर।
सभी देवताओं को मनुष्य की दूरदर्शिता पर खुशी होती हैं और परीक्षा में उत्तीर्ण देख कहते हैं, "चिंता मत करो मनुष, यह तो तुम्हारी परिक्षा थी, जिसमें तुम सफल हुए और हम भी विश्वस्त हुए कि तुम हमारे द्वारा प्राप्त वरदान का उपयोग कर सकोगे। इसी तरह सत्य बोलने में डरना मत और सत्य से सामना करने में कभी पीछे मत हटना।"

यह कहते हुए पर्दा हटा देते हैं और कहते हैं, "देखो! पृथ्वी को वनस्पति ने कितना रमणीय और शीतल बना दिया है। यह वनस्पति ही है, जिसके साथ तुम्हारी आयु जुड़ी हुई है। इसे नष्ट किया तो तुम्हें पहले की तरह आग के गोलेवाली पृथ्वी मिलेगी और तुम्हारी संपूर्ण सृष्टि नष्ट हो जाएगी। इसलिए जितना अपने ज्ञान, शक्ति और विवेक लगाकर काम करोगे, फल की प्राप्ति उतनी ही होगी।
मनुष्य की जिज्ञासा बढ़ती है और प्रश्न पूछता है, "जब हमें अपने में ही पूर्णता मिलेगी, आवश्यकता का ज्ञान कैसे होगा और हम कैसे उद्यमी बनने की कोशिश करेंगे?"
ब्रह्मा जी इस पर दिल खोलकर हँसते हैं, "मनुष्य! ज्ञान भरने के लिए जैसे सिर को रख दिया है, शरीर के मध्य भाग में पेट रख दिया है, जहाँ भूख जागृत होगी।"

यही खोज ही उसे उद्यमी बनने को प्रेरित करती है। पेट जो आहार प्राप्त करता है, उससे शरीर का अंग संचालित होते हैं और चेतना जागृत होती रहती है। ज़रूरत और इसको पूरा करने की खोज से ही पृथ्वी को दूसरा स्वर्ग बना सकते हो। परंतु मिलकर सहयोगी बनकर रहना। पृथ्वी जितनी सुंदर है उसमें और सुंदरता भरने का प्रयास करना।

इस तरह उन दोनों को पृथ्वीलोक में भेजा जाता है। उसके बाद दृश्य प्रदर्शन में मध्यांतर होता है। मीठी धुन के साथ-साथ सुंदर प्राकृतिक दृश्य दिखाई देते हैं। मनुष्य की व्यस्तता, नई सभ्यता की शुरुआत, सुख-शांति, मेलजोल बढ़ता जा रहा दिखाई गया। देखते-देखते आँख में खुशी और आनंद छलकने लगा।

अचानक दृश्य पट बदलता है। सुंदरता क्षणभर में भयंकर डरावनी स्थिति में परिवर्तित दिखाई देती हैं, कोलाहल भरा वातावरण दिखाई देता है। इतने में आवाज़ें।
"लक्ष्मी जी! आपने मनुष्यों में धन का मोह बढ़ा दिया। इसलिए आज पृथ्वी की यह अवस्था हुई है। अत: इसकी ज़िम्मेदार आप हैं। समाधान भी आपको ही करना होगा।"
लक्ष्मीजी का उत्तर आता है, "मैंने तो परिश्रमी के परिश्रम की कदर मात्र की है। मुझे ऐसा करना भी चाहिए। मगर आपने ज्ञान विवेक देते वक्त कंजूसी की, उसी का परिणाम यह है। आप इस ज़िम्मेदारी से कैसे भाग सकते हैं?"

इसके बाद सभी ब्रह्मा जी से कहते हैं, "आपने शरीर का मध्य भाग बड़ा बना दिया, जिसके कारण ही भूख की ज्वाला अधिक शक्तिशाली हुई और जिसे नियंत्रित करने के लिए एक ही सिर रख दिया, उसी की शक्ति कम पड़ जाने से यह हुआ।"

ब्रह्मा जी गरजते हैं, "हाँ, मैंने अपनी खुशी से मूर्ति बनाई ज़रूर थी परंतु उसमें शक्ति प्रदान कर जीवात्मा तो मैंने नहीं बनाया। मुझे दोषी बनाना कितना उपयुक्त हैं, मैं यह प्रश्न इस सभा में सभापति विष्णु और मुख्य अतिथि महादेव जी से पूछना चाहता हूँ। मनुष्य की सृष्टि पर पछताना तो हम सबको है। मुझे अकेले नहीं।"

उधर टेलिविजन में एक बालक दिखता है। वह चोरी-छिपे अपने माता-पिता से आँखें बचाकर अपने पिता की गोपनीय प्रयोगशाला में घुसता है। वहाँ गुजारे, बोतलें, काँच के टुकड़े, लोहे के साथ-साथ ढ़ेर सारी गेंद भी रखी हुई देखता है। वह सब चीज़ों को हाथ में लेकर उलट-पुलट कर देखता है। उसे बहुत आनंद आता है और खेलने को मन करता है।

वह बालक अपने दोनों हाथों में एक ही साथ दो गेंद लेता है और ज़मीन में पटकता है। तुरंत धड़ाम की आवाज़ के साथ आग और धुएँ की लपटें उठ कर छत के उपर उड़ने लगती है।

मैं उस दृष्य की कल्पना करती हूँ, उस नन्हें बालक के कोमल अंग जो चिथड़े-चिथड़े बन धुएं में उड़ रहे होंगे। मैं सह न सकी और चिल्लाई "यह अंत सभा का है या मानवता का?"

इसी मानसिक धक्के से मैं नींद से जाग गयी। मेरी आंख उन अखबारों के पन्ने पर पड़ी जो मेरे चारों ओर बिखरे पड़े थे। उसमें लिखा था, "शांति स्थापना के लिए सभी राष्ट्रों का एक मत।"

(रूपांतरकार : प्रमिला उप्रेती)

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