खीर (नेपाली कहानी) : इन्द्र बहादुर राई
Kheer (Nepali Story) : Indra Bahadur Rai
उस वक्त न मैं उस घटना को ही समझ सका था, न सोचा ही था कि उसका कोई अर्थ भी हो सकता है। घटना इस प्रकार थी-
हरहर करती हुंकारा भरकर बहती हुई टिस्टा नदी का वर्णन कहानियों में, उपन्यासों में बहुत बार पढ़ने और लिख लेने पर भी वास्तव में टिस्टा को जी भरकर मैंने कभी नहीं सुना था। बरसात और जाड़े में उसके किनारे पर मजदूरी करने वालों से मैंने यह भी सुना था कि मध्य दिन और रात्रि को टिस्टा स्वाँस्वाँ "करती हई खब ज़ोर से लम्बा हुंकारा भरती है। परन्तु कालिम्पोंग और गान्तोक आते-जाते वक्त गाड़ी से उतरकर टिस्टा पुल पर थोड़ी देर ठहरकर नीचे पानी का बहाव देख लेने के सिवा टिस्टा की आवाज़ को अच्छी तरह सुन पाने की मेरी तृष्णा अभी मिटी नहीं थी। महान कहलाने योग्य हरी-नीली जलराशि का विस्तृत बहाव, उसके दोनों छोरों पर बिखरे पड़े सुप्त बालुकणों में अंकित विगत के अनेक चिह्न हवा के पंखों से झूलती हुई वनलतिकाएँ, हरहर की आवाज़ से परे कभी छल-छल और कभी भुरभुर-सी बजती टिस्टा की उफनती लहरें प्रायश: याद आती रहती थीं...।
उस दिन गान्तोक से वापसी पर मैं टिस्टा बाज़ार में रुक गया था। डाकबंगले की मरम्मत हो रही थी और जिस कमरे में ठहरा था उसमें एक तीव्र कौंध वाली उज्ज्वलता और कच्चे चूने की गंध बसी हुई थी। उसी से सटे दूसरे कमरे में डाकबँगले की मरम्मत करने वाले बढ़ई, राज, रंगसाज और मज़दूर रह रहे थे। और मेरी कहानी भी उन्हीं की कहानी है।
शायद कोई विशेष दिन था और वे सब कमरे में जमा होकर एक-दूसरे से बढ़बढ़कर बातें कर रहे थे और शायद वे आज खीर पका रहे थे तथा उसी पर सभी अपने अपने विचार प्रकट कर रहे थे। खाने की बातें मुझे अच्छी नहीं लगतीं पर मजबूरन उनकी बातें सुनता रहा। दरवाज़े के बाहर फैला सपाट उजाला दोपहर बीत चुकने का आभास दे रहा था। और फिर बिस्तर बिछाने के बाद बाहर देखने पर लगा कि एकाएक ढलती हुई शाम का धुंधला-सा उजाला वृक्षों के पत्तों एवं टहनियों के बीच समा चुका था।
"..अगर खीर खानी ही हो तो एक पाव चावल में दो सेर दूध डालना चाहिए।" धंसी हुई चमकीली आँखों वाला कह रहा था।
"... इतने चावल में तो दस सेर दूध डालना चाहिए। इसमें कितना डाला?"
"चार सेर।"
"छि: ! टिस्टा-उपत्यका में रहकर सिर्फ चार सेर दूध में पकी हुई खीर खाई जा रही है !" पहला स्वर कह रहा था।
"सिर्फ चार सेर दूध में पकी हुई खीर' वह इस लहजे में कह रहा था जैसे खीर न होकर चीथड़ा काला कपड़ा हो जिसे उठाकर सबको दिखा रहा हो।
"खीर खाने के लिए तो बहुत-सी चीज़ों की जरूरत पड़ती है," एक बूढ़ा स्वर उभरा,"अव्वल तो तुम्हारा चावल ही खीर पकाने लायक नहीं है। उसके लिए तो नुनिया चावल ठीक होता है, खूब महीन और सलबलाते दानों वाला।"
"अरे, यहाँ तो अलुवा चावल भी खरीदना मुश्किल है।" एक युवा स्वर कहता है, "रंगूनी अलुवा चावल की पहाड़ी चावल के धोखे में बिक्री करते हैं।"
"साला वह भी तो बिल्कुलपहाड़ी बर्मेनी-सा होता है।"सहमति का एक स्वर उभरा।
"अगर सचमुच खीर खानी हो तो पुराने नुनिया को-काला नुनिया हो तो और बेहतर, क्योंकि उसकी अच्छी खुशबू आती है, दस या बारह सेर खालिस दूध में पकाना चाहिए। पानी और दूध मिलाकर कम से कम पन्द्रह सेर तो लगेगा ही। पाँच सेर पानी सुखाने के लिए पकाते-पकाते सब चावल गल जाएगा। हाँ, दूध मोटा हो तो चावल के दाने रह जाएँगे, खीर अच्छी बनेगी। ज्यादा गली हुई चावल की खीर तो जल भी सकती है। जली हुई खीर आखिर खाने वाले का सारा मजा किरकिरा कर देती है।"
"हाँ, वह तो सिर्फ दाँत साफ करने जैसा ही होता है।" ऐसा ही कुछ कहा किसी ने जिसे मैं अच्छी तरह नहीं सुन सका। कुछ-एक क्षणों के बाद फिर एक भिन्न स्वर उभरा,"सिर्फदूध से ही अच्छी खीर कहाँ बनती है ? उसमें पिस्ता-बादाम, किशमिश, नारियल वगैरह डालना चाहिए और फिर उसे मंद आँच पर खूब पकाना चाहिए। किशमिश सबसे बाद में डाली जाएँ तो बेहतर, नहीं तो पहले डालने से टूट जाती हैं।"
"उतनी सब चीजें क्यों डालनी चाहिए?"एक सुरीला स्वर उत्सुकता से उठता है।
"स्वाद के लिए","खुशबू के लिए", ताकत के लिए"-एक ही साथ तीन स्वर जवाब में चीख उठे।
"एक बार चखोगे तो बार-बार खाना चाहोगे।"कोई उसे कोस रहा था,"सपने में खोजोगे और खुद को तसल्ली दोगे।"
"जहाँ, खीर पक रही होती है, उसकी खुशबू ऊपर सड़क पर गुजर रहे लोगों की नाक में घुस जाती है।"
तब मैंने उन लोगों की खीर की खुशबू को सूंघने का प्रयत्न किया, मगर लगा नहीं कि खुशबू आ रही हो।
"तेरी खीर की खुशबू तो यहीं बैठे लोगों को नहीं आ रही है।"
"किसी दिन हिम्मत करके खूब गजब की खीर खाने के लिए कहता हूँ तो तुम्हीं पैसे निकालने से कतराते हो।" प्रतिवाद उभरा, "चोरी से, अपनी खुद की कमाई से या कर्ज़ लेकर ही हो, आदमी को खाते-पीते रहना चाहिए, जीते रहना चाहिए।"
सब चुप हो जाते हैं।
शायद मैं भी उस खामोशी को ढोने लगा हूँ और विरोध में उठकर भरपूर आहट से कमरे में चहलकदमी करने लगता हूँ। तब तक एक बहुत बड़ी चट्टान के गिरने जैसी आवाज़ देती मेरी उपस्थिति उन लोगों की बातों को दूसरी दिशा की ओर मोड़ देती है।
"सिर्फ चीजें जुटाने से क्या होता है। यदि पकाने का हुनर न हो तो।" उड़ती हुई सफेद भाप की तरह एक ने फिर बातों को आगे बढ़ाया।
"जब चाहो तब मनचाही खीर खाई जा सकती है भला! समय निकालकर और अपनी हैसियत देखकर ही खानी चाहिए !"
"तब तो बहुत कठिन है खीर खाना भी।" तीसरे ने कुढ़कर कहा, "नामुमकिन ही समझो।"
हँसी को जबरन रोककर बाहर देखता हूँ। सब कुछ सामान्य-सा है। ढलती शाम की ओट में काले पेड़ भी निश्चल खड़े हैं।
"अरे हिलाओ, नहीं तो जल जाएगी।"
"शायद अब तो पक गई।"
"पक गई होगी, पक गई होगी।"
"हाँ-हाँ, पक गई।"
चूल्हे से बर्तन उतार लिया गया। लगा जैसे सब लोग जरा-सा हटकर अपनीअपनी जगह पर आकर शायद बैठ गए हैं।
खाते-खाते एक ने कहा, "न जाने कैसी गंध आ रही है।"
"हाँ, मुझे भी वैसा ही लग रहा है।"
"मैं भी कछ देर से याद कर रहा हूँ शायद लकडी की गंध है।" किसी एक ने कहा।
संदेह इसी तरह टूटता और बनता रहा।
"चीनी कुछ कम है।" एक ने चीनी लाकर अपनी थाली में डाली।
"खीर में चीनी की जगह गुड़ डालना अच्छा है। उससे रंग भी आता है।"सबसे पहले वाला स्वर खाते-खाते कह रहा था।
"खजूर का साफ और रसीला गुड़ डालना चाहिए, काला गुड़ नहीं।"
"काले गुड़ की बनी हुई खीर भला कौन खाएगा ? छि:!" किसी ने तुरंत कहा।
"छि:! तुम लोग सिर्फ खाने की ही बातें करते हो ! आज इतनी-सी खीर खाने को क्या मिली कि लगे बड़ी-बड़ी डींगें मारने...। मुझे तो शर्म आ रही है।" कहने वाला शायद मुझे सुनाकर अपनी ग्लानि कम करना चाहता है। वे सब फिर खाने में व्यस्त हो जाते हैं।
"यह तो दूध मिला मीठा भात जैसा है।"सबसे भारी स्वर वाले का इतना कहना था कि एकाएक सब हँसने लगे और खीर पकाने में निपुण स्वर तो देर तक हँसता रहा। फिर उसके रुक-रुककर हँसने के साथ सभी हँसने लगे। आज चार वर्ष पश्चात् मैं उस घटना को समझ सका हूँ। उन लोगों की पकाई खीर हमारी 'ज़िन्दगी' की तरह है। ज़िन्दगी को अच्छी तरह जीने के, उचित उपयोग में लाने के बहुत से आदर्श हमारे मन में हैं परन्तु गलतियों, अनुपलब्धियों और विघ्नबाधाओं से घिरी हमारी यथार्थ ज़िन्दगी के आदर्श उन लोगों की खीर की तरह व्यंग्यपूर्ण क्या यह ज़िन्दगी कभी टिस्टा की तरह नहीं हो सकेगी, जो जहाँ भी, जैसे भी बहे आदर्श ही है?
अनुवादक-सुवास दीपक