ख़ालिद का ख़तना (कहानी) : ग़ज़नफ़र
Khalid Ka Khatna (Story in Hindi) : Ghazanfar
जो तक़रीब (समारोह) टलता आ रहा था, आखि़र तय पा गया। तारीख़ भी सबको सूट कर गयी थी। पाकिस्तान वाले ख़ालू और ख़ाला भी आ गये थे और सउदी अरब वाले मामू और मुमानी भी। मेहमानों से घर भर गया था। भरा हुआ घर जगमगा रहा था। दरो दीवार पर नये रंगो रेग़न रौशन थे। छतें चमकीले काग़ज़ के फूल पत्तों से गुलशन बन गयी थीं। कमरों के फ़र्श आइना बने हुये थे। आँगन में चमचमाती हुई चाँदनी तन गयी थी। चाँदनी के नीचे साफ़ सुथरी जाज़िम बिछ चुकी थी।
बाहर के बरामदे में देगें चढ़ चुकी थी। बासमती चावलों की बिरयानी से ख़ुशबुएँ निकल रही थीं। कोरमे की देगों से गर्म मसालों की लपटें हवाओं से लिपटकर दूर-दूर तक फैल रही थीं।
धीरे-धीरे मुहल्ला-पड़ोस की औरतें भी आँगन में जमा हो गयीं। बच्चों की रेल पेल बढ़ गयी। रंग बिरंगे लिबास फ़िजा में रंग घोलने लगे। सोने चाँदी के गहने खन-खन, छन-छन बोलने लगे। परफ्यूम के झोंके चलने लगे। दिलो दिमाग़ में ख़ुशबुएँ बसने लगीं। मेकअप जलवा दिखाने लगा। चेहरों से रंगीन किरणें फूटने लगीं। अब्रक़ से सजी आँखों की झिलमिलाहटें झिलमिल करने लगीं। सुर्ख़-सुर्ख़ होंठों की मुस्कुराहटें खिलखिला पड़ीं। माहोल में रंग, नूर, निगहत तीनों रच बस गये। जगमगाता हुआ घर और जगमगा उठा।
अब्बू अम्मी बेहद ख़ुश थे कि खुशियाँ सिमटकर उनके क़दमों में आ पड़ी थीं। दिलों में बेपनाह जोशो-ख़रोश था कि जोशे ईमानी उछालें मार रहा था। आँखों में नूर भरा हुआ था कि नूरे नज़र सुन्नते इब्राहीमी (पैग़म्बर इब्राहीम की परम्परा) से सज्जित होने जा रहा था। चेहरे पर आभा ही आभा थी कि लख़्ते जिगर (जिगर के टुकड़े) की मुसलमानी को ओज व चमक मिलने वाली थी। साँसों में केसर की सुगन्ध थी कि तमन्नाओं के चमन में बसन्त आ गया था।
तक़रीब का आखि़री मरहला शुरू हुआ। मेहमान बरामदों व कमरों से निकलकर आँगन में आ गये। चाँदनी के नीचे बैठे हुए लोग खड़े हो गये। फ़र्श के बीचोबीच ओखली रख दी गयी। ओखली पर फूलदार चादर बिछ गयी। थाल ताज़ा फूलों के सेहरे से सज गया। मलमल का कढ़ा हुआ कुरता पैकेट से बाहर निकल आया।
बुज़ुर्ग नाई ने अपनी बुग़ची खोल ली, उस्तरा बाहर आ गया। कमानी तन गयी, राख की पुड़िया खुल गयी। ख़ालिद को पुकारा गया, मगर ख़ालिद मौजूद न था। बच्चों से पूछताछ की गयी। सबने नफ़ी (नहीं) में सिर हिला दिया। अब्बू अम्मी की फ़िक्र बढ़ गयी, तलाश जारी हुई। अब्बू और मैं ढूँढ़ते हुए कबाड़ वाली अँधेरी कोठरी में पहुँचे। टॉर्च की रौशनी में देखा तो ख़ालिद एक कोने में देर तक दौड़ाये गये किसी मुर्गे के तरह दुबका पड़ा था।
"ख़ालिद बेटे तुम यहाँ हो और सब लोग उधर तुम्हारा इन्तिज़ार कर रहे हैं। आओ चलो तुम्हारी मम्मी परेशान हो रही है।"
"नहीं अब्बू मैं ख़तना नहीं कराऊँगा।" ख़ालिद मुँह बिसोरते हुए बोला।
ख़ालिद से ख़तने की बात छिपायी गयी थी, मगर शायद कुछ देर पहले उसे किसी ने यह बात बता दी थी।
"ठीक है मत कराना, मगर बाहर तो आ जाओ।"
अब्बू ने बड़े प्यार से यक़ीन दिलाया। मगर ख़ालिद दीवार से इस तरह चिमटकर बैठा था। जैसे दीवार ने किसी शक्तिशाली चुम्बक की तरह उसे जकड़ लिया हो। हमने उसका एक हाथ पकड़कर बाहर खींचने की कोशिश की। मगर उसका दूसरा हाथ दीवार से इस तरह चिपका हुआ था जैसे वह कोई साँप हो, जिसका अगला हिस्सा बिल में जा चुका हो और दुम हमारे हाथ में। न जाने कहाँ से उस छोटे-से बच्चे में इतनी ताक़त आ गयी थी। बड़ी ज़ोर आवरी के बाद बहुत मुश्किल से उसे कोठरी से बाहर लाया गया।
"अम्मी-अम्मी मैं ख़तना नहीं कराऊँगा।" उसकी आँखों में आँसू आ गये।
"अच्छी बात है न कराना लेकिन यह नया कुर्ता तो पहन लो। देखो न सारे बच्चे नये-नये कपड़े पहने हुए हैं और यह देखों यह सेहरा कितना अच्छा है। तुम्हारे सिर पर बहुत सजेगा लो इसे बाँधकर दूल्हा बन जाओ। ये सब लोग तुम्हें दूल्हा बनाने आये हैं। तुम्हारी शादी भी तो होगी न..."
"अम्मी आप झूठ बोल रही हैं। मैं सब जानता हूँ मैं कुरता नहीं पहनूँगा। मैं सेहरा नहीं बाँधूँगा।"
"यह देखो, तुम्हारे लिये कितने सारे रुपये लाया हूँ," अब्बू ने कड़कड़ाते हुए दस-दस के ढेर सारे नोट ख़ालिद के आगे बिछा दिये।
आसपास खड़े बच्चों की आँखें चमक उठीं।
"अच्छा यह देखो मैं तुम्हारे लिए क्या लाया हूँ?" पाकिस्तान वाले खालू ने इम्पोर्टेड टॉफ़ियों का डिब्बा खोल दिया।
बच्चों की ज़बानें होंठों पर फिरने लगीं। सउदिया वाले मामू आगे बढ़कर बोले।
"देखो ख़ालिद यह कार तुम्हारे लिए है, बग़ैर चाबी के चलती है, यूँ..."
ताली की आवाज़ पर कार इधर-उधर दौड़ने लगी। मगर ख़ालिद की आँखें कुछ न देख सकीं। उसकी नज़रें क़साब से डरे हुए किसी जानवर की तरह पुतली में सहमी हुई, स्थिर पड़ी रहीं। अब्बू, अम्मी, ख़ालू, मामू प्यार, पैसा, टॉफ़ी, कार सबकुछ देकर थक गये। ख़ालिद टस से मस नहीं हुआ।
झुँझलाकर अब्बू ज़बरदस्ती पर उतर आये, ख़ालिद की पैण्ट खोलकर नीचे खिसकाने लगे मगर ख़ालिद ने खुली पैण्ट के दोनों सिरों को कसकर पकड़ लिया। आँखों से आँसुओं के साथ लबों से रोने की आवाज़ें भी निकलने लगीं। ख़ालिद के आँसुओं ने अम्मी की आँखों को गीला कर दिया।
"मत रोओ मेरे लाल, मत रोओ, तुम नहीं चाहते हो तो हम ज़बरदस्ती नहीं करेंगे। तुम्हारा ख़तना नहीं करायेंगे।"
अम्मी ने रुँधी हुई आवाज़ में ख़ालिद को दिलासा दिया और अपने आँचल में उसके आँसू ज़ब्त कर लिये। कुछ देर तक अम्मी ख़ामोश रही। फिर ख़ालिद के सिर पर हाथ फेरते हुए बोलीं "पिछले साल तो फूफी के घर कामरान के ख़तना के वक़्त तुम ख़ुद ज़िद कर रहे थे कि अम्मी मेरा भी ख़तना करा दीजिये मगर आज तुम्हें क्या हो गया है? तुम इतने डरपोक क्यों बन गये? तुम तो बहुत बहादुर बच्चे हो। तुमने अपने ज़ख़्म का ऑपरेशन भी हँसते-हँसते करा लिया था। इसमें तो ज़्यादा तकलीफ़ भी नहीं होती।"
"अम्मी मैं ख़तना कराने से नहीं डरता।"
"तो...,"
"अब्बू आप ही ने तो एक दिन कहा था कि जिनका ख़तना होता है, बदमाश उन्हें जान से मार देते हैं।"
ख़ालिद के शब्द अब्बू के साथ-साथ सबके सरों पर फालिज की तरह गिरे। सबकी ज़बानें ऐंठ गयी। चहकता हुआ माहौल चुप हो गया। जगमगाहटें बुझ गयीं। मुस्कुराहटें मुरझा गयीं। बच्चों की उँगलियाँ अपने पायजामों में पहुँच गयीं। सबकी आँखों में दंगे के दौरान तलाशियों का मंज़र उभर आया, जिस्म नंगे हो गये। चाकू सीने में उतरने लगे। माहौल का रंग उड़ गया। नूर पर धुन्ध का गुबार चढ़ गया। ख़ुशबू बिखर गयी। नाई का उस्तरा भी कुन्द पड़ गया, राख पर पानी फिर गया।
पाकिस्तान वाले ख़ालू ने माहौल के बोझलपन को तोड़ते हुए ख़ालिद से कहा, "ख़ालिद बेटे अगर तुम ख़तना नहीं कराओगे तो जानते हो क्या होगा...?"
ख़ालिद ने हैरानी से उन्हें देखा।
"...तुम्हारा ख़तना न देखकर तुम्हें ख़तने वाले बदमाश मार डालेंगे।"
"सच अब्बू," खालि़द सिर से पाँव तक लरज़ गया।
"हाँ बेटे तुम्हारे ख़ालू सच कह रहे हैं।"
"तो ठीक है मेरा ख़तना करा दीजिये।"
झट उसके हाथों से पैण्ट के सिरे छूट गये, पैण्ट कूल्हे से नीचे सरक आयी। ख़ालिद ख़तने के लिए तैयार था। मगर उसकी रज़ामन्दी के बावजूद किसी ने भी उसके सिर पर सेहरा नहीं बाँधा, कोई भी हाथ कुरता पहनाने आगे नहीं बढ़ा। तकलीफ़ से भरी हुई ख़ामोशी जब नाक़ाबिले बरदाश्त हो गयी तो पाकिस्तान वाले ख़ालू ने आगे बढ़कर ख़ालिद को इसी हुलिये में ओखली के ऊपर बिठा दिया। तक़रीब का आग़ाज़ हो गया, मगर नाई के थाल में पैसे नहीं गिरे। नाई ने मुतालिबा भी नहीं किया।
ख़ामोशी से उसने मुसलमानी (लिंग) में राख भरी कमानी फिट की, चिमटे में चमड़े को कसा और उस पर लरज़ता हुआ उस्तरा रख दिया, जैसे ख़तना नहीं, क़त्ल करने जा रहा हो।