ख़ाली बोतलें, ख़ाली डिब्बे (कहानी) : सआदत हसन मंटो

Khali Botalein Khali Dibbe (Hindi Story) : Saadat Hasan Manto

ये हैरत मुझे अब भी है कि ख़ास तौर पर ख़ाली बोतलों और डिब्बों से मुजर्रद मर्दों को इतनी दिलचस्पी क्यूं होती है?...... मुजर्रद मर्दों से मेरी मुराद उन मर्दों से है जिन को आम तौर पर शादी से कोई दिलचस्पी नहीं होती।
यूं तो इस क़िस्म के मर्द उमूमन सनकी और अजीब ओ ग़रीब आदात के मालिक होते हैं, लेकिन ये बात समझ में नहीं आती कि उन्हें ख़ाली बोतलों और डिब्बों से क्यूं इतना प्यार होता है?...... परिंदे और जानवर अक्सर उन लोगों के पालतू होते हैं। ये मैलान समझ में आ सकता है कि तन्हाई में उन का कोई तो मूनिस होना चाहिए, लेकिन ख़ाली बोतलें और ख़ाली डिब्बे उन की क्या ग़मगुसारी कर सकते हैं?
सनक और अजीब ओ ग़रीब आदात का जवाज़ ढूंढना कोई मुश्किल नहीं कि फ़ितरत की ख़िलाफ़ वरज़ी ऐसे बिगाड़ पैदा कर सकती है, लेकिन उस की नफ़सियाती बारीकियों में जाना अलबत्ता बहुत मुश्किल है।
मेरे एक अज़ीज़ हैं। उम्र आप की उस वक़्त पचास के क़रीब क़रीब है आप को कबूतर और कुत्ते पालने का शौक़ है और इस में कोई अजीब-ओ-ग़रीब-पन नहीं लेकिन आप को ये मरज़ है कि बाज़ार से हर रोज़ दूध की बालाई ख़रीद कर लाते हैं। चूल्हे पर रख कर उस का रोग़न निकालते हैं और इस रोग़न में अपने लिए अलाहिदा सालन तय्यार करते हैं। इन का ख़याल है कि इस तरह ख़ालिस घी तय्यार होता है।
पानी पीने के लिए अपना घड़ा अलग रखते हैं। उस के मुँह पर हमेशा मलमल का टुकड़ा बंधा रहता है। ताकि कोई कीड़ा मकोड़ा अंदर न चला जाये, मगर हवा बराबर दाख़िल होती रहे। पाख़ाने जाते वक़्त सब कपड़े उतार कर एक छोटा सा तौलिया बांध लेते हैं और लकड़ी की खड़ाऊं पहन लेते हैं... अब कौन उन की बालाई के रोग़न/ घड़े की मलमल, अंग के तौलीए और लकड़ी की खड़ाऊं के नफ़सियाती उक़्दे को हल करने बैठे!
मेरे एक मुजर्रद दोस्त हैं। बज़ाहिर बड़े ही नॉर्मल इंसान। हाईकोर्ट में रीडर हैं। आप को हर जगह से हर व्क़त बदबू आती रहती है। चुनांचे उन का रूमाल सदा उन की नाक से चिपका रहता है...... आप को ख़रगोश पालने का शौक़ है।
एक और मुजर्रद हैं। आप को जब मौक़ा मिले तो नमाज़ पढ़ना शुरू करदेते हैं। लेकिन इस के बावजूद आप का दिमाग़ बिल्कुल सही है। सियास्यात-ए-आलम पर आप की नज़र बहुत वसीअ है। तोतों को बातें सिखाने में महारत-ए-तामा रखते हैं।
मिल्ट्री के एक मेजर हैं। सन रसीदा और दौलतमंद। आप को हुक़्क़े जमा करने का शौक़ है। गिड़-गिड़ीयाँ, पीचवां, चमोड़े, ग़रज़ कि हर क़िस्म का हुक़्क़ा उन के पास मौजूद है। आप कई मकानों के मालिक हैं, मगर होटल में एक कमरा किराए पर ले कर रहते हैं। बटेरें आप की जान हैं।
एक कर्नल साहब हैं। रिटायर्ड। बहुत बड़ी कोठी में। अकेले दस बारह छोटे बड़े कुत्तों के साथ रहते हैं। हर ब्रांड की विस्की उन के यहां मौजूद रहती है। हर रोज़ शाम को चार पैग पीते हैं और अपने साथ किसी न किसी लाडले कुत्ते को भी पिलाते हैं।
मैंने अब तक जितने मुजर्रदों का ज़िक्र किया है, इन सब को हस्ब-ए-तौफ़ीक़ ख़ाली बोतलों और डिब्बों से दिलचस्पी है। मेरे, दूध की बालाई से ख़ालिस घी तय्यार करने वाले अज़ीज़, घर में जब भी कोई ख़ाली बोतल देखें तो उसे धो धा कर अपनी अलमारी में सजा देते हैं कि ज़रुरत के वक़्त काम आएगी। हाईकोर्ट के रीडर जिन को हर जगह से हर वक़्त बदबू आती रहती है सिर्फ़ ऐसी बोतलें और डिब्बे जमा करते हैं, जिन के मुतअल्लिक़ वो अपना पूरा इतमीनान कर लें कि अब उन से बदबू आने का कोई एहतिमाल नहीं रहा। जब मौक़ा मिले, नमाज़ पढ़ने वाले, ख़ाली बोतलें आब-ए-दस्त के लिए और टीन के ख़ाली डिब्बे वुज़ू के लिए दर्जनों की तादाद में जमा रखते हैं। उन के ख़याल के मुताबिक़ ये दोनों चीज़ें सस्ती और पाकीज़ा रहती हैं...... क़िस्म क़िस्म के हुक़्क़े जमा करने वाले मेजर साहब को ख़ाली बोतलें और ख़ाली डिब्बे जमा करके उन को बेचने का शौक़ है और रिटायर्ड कर्नल साहब को सिर्फ़ विस्की की बोतलें जमा करने का।
आप कर्नल साहब के हाँ जाएं तो एक छोटे, साफ़ सुथरे कमरे में कई शीशे की अलमारियों में आप को विस्की की ख़ाली बोतलें सजी हुई नज़र आयेंगी । पुराने से पुराने ब्रांड की विस्की की ख़ाली बोतल भी आप को उन के इस नादिर मजमुए में मिल जाएगी। जिस तरह लोगों को टिकट और उस के जमा करने का शौक़ होता है, इसी तरह उन को विस्की की ख़ाली बोतलें जमा करने और उन की नुमाइश करने का शौक़ बल्कि ख़ब्त है।
कर्नल साहब का कोई अज़ीज़, रिश्तेदार नहीं। कोई है तो उस का मुझे इल्म नहीं। दुनिया में तन –ए-तंहा हैं। लेकिन वो तंहाई बिल्कुल महसूस नहीं करते...... दस बारह कुत्ते हैं उन की देख भाल वो उस तरह करते हैं जिस तरह शफ़ीक़ बाप अपनी औलाद की करते हैं। सारा दिन उन का उन पालतू हैवानों के साथ गुज़र जाता है। फ़ुर्सत के वक़्त वो अलमारियों में अपनी चहेती बोतलें सँवारते रहते हैं।
आप पूछेंगे, ख़ाली बोतलें तो हुईं। ये तुम ने ख़ाली डिब्बे क्यूं साथ लगा दिए...... क्या ये ज़रूरी है कि तजरो पसंद मर्दों को ख़ाली बोतलों के साथ साथ ख़ाली डिब्बों के साथ भी दिलचस्पी हो?....... और फिर डिब्बे और बोतलें, सिर्फ़ ख़ाली क्यूं? भरी हुई क्यूं नहीं?....... मैं आप से शायद पहले भी अर्ज़ कर चुका हूँ कि मुझे ख़ुद इस बात की हैरत है। ये और इसी क़िस्म के और बहुत से सवाल अक्सर मेरे दिमाग़ में पैदा हो चुके हैं। बावजूद कोशिश के मैं इन का जवाब हासिल नहीं कर सकता।
ख़ाली बोतलें और ख़ाली डिब्बे, ख़ला का निशान हैं और ख़ला का कोई मंतिक़ी जोड़ तजरो पसंद मर्दों से ग़ालिबन यही हो सकता है कि ख़ुद उन की ज़िंदगी में एक ख़ला होता है, लेकिन फिर ये सवाल पैदा हुआ है कि क्या वो उस ख़ला को एक और ख़ला से पुर करते हैं?...... कुत्तों बिल्लियों खरगोशों और बंदरों के मुतअल्लिक़ आदमी समझ सकता है कि वो ख़ाली ख़ोली ज़िंदगी की कमी एक हद तक पूरी कर सकते हैं कि वो बदल बहला सकते हैं, नाज़ नख़रे कर सकते हैं। दिलचस्प हरकात के मूजिब हो सकते हैं, प्यार का जवाब भी दे सकते हैं। लेकिन ख़ाली बोतलें और डिब्बे दिलचस्पी का क्या सामान बहम पहुंचाते हैं?
बहुत मुम्किन है आप को जे़ल के वाक़ियात में इन सवालों का जवाब मिल जाये।
दस बरस पहले मैं जब बंबई गया तो वहां एक मशहूर फ़िल्म कंपनी का एक फ़िल्म तक़रीबन बीस हफ़्तों से चल रहा था...... हीरोइन पुरानी थी, लेकिन हीरोनिया था जो इश्तिहारों में छपी हुई तस्वीरों में नौख़ेज़ दिखाई देता था...... अख़बारों में उस की किरदार निगारी की तारीफ़ पढ़ी तो मैंने ये फ़िल्म देखा। अच्छा ख़ासा था। कहानी जाज़िब-ए-तवज्जोह थी और इस नए हीरो का काम भी इस लिहाज़ से क़ाबिल-ए-तारीफ़ था कि उस ने पहली मर्तबा कैमरे का सामना किया था।
पर्दे पर किसी ऐक्टर या ऐक्ट्रस की उम्र का अंदाज़ा लगाना आम तौर पर मुश्किल होता है। क्यूंकि मेकअप जवान को बूढ़ा और बूढ़े को जवान बना देता है, मगर ये नया हीरो बिलाशुबा नौख़ेज़ था...... कॉलिज के तालिब-ए-इल्म की तरह तर-ओ-ताज़ा और चाक़-ओ-चौबंद...... ख़ूबसूरत तो नहीं था मगर उस के गट्ठे हुए जिस्म का हर अज़्व अपनी जगह पर मुनासिब-ओ-मौज़ूं था।
इस फ़िल्म के बाद इस ऐक्टर के मैंने और कई फ़िल्म देखे..... अब वो मंझ गया था। चेहरे के ख़त-ओ-ख़ाल की तिफ़्लाना नर्माइश, उम्र और तजुर्बे की सख़्ती में तबदील हो चुकी थी। उस का शुमार अब चोटी के अदाकारों में होने लगा था।
फ़िल्मी दुनिया में स्कैंडल आम होते हैं। आए दिन सुनने में आता है कि फ़लां ऐक्टर का फ़लां ऐक्ट्रस से तअल्लुक़ होगया है। फ़लां ऐक्ट्रस, फ़लां ऐक्टर को छोड़ कर फ़लां डायरेक्टर के पहलू में चली गई है। क़रीब क़रीब हर ऐक्टर और हर ऐक्ट्रस के साथ कोई न कोई रोमान जल्द या ब-देर वाबस्ता हो जाता है, लेकिन इस नए हीरो की ज़िंदगी जिस का मैं ज़िक्र कर रहा हूँ इन बखेड़ों से पाक थी, मगर अख़बारों में इस का चर्चा नहीं था। किसी ने भूले से हैरत का भी इज़हार नहीं किया था कि फ़िल्मी दुनिया में रह कर राम सरूप की ज़िंदगी जिन्सी आलाइशों से पाक है।
मैंने सच पूछिए तो इस बारे में कभी ग़ौर ही नहीं किया था। इस लिए कि मुझे एक्टरों और एक्ट्रसों की निजी ज़िंदगी से कोई दिलचस्पी नहीं थी। फ़िल्म देखा। उस के मुतअल्लिक़ अच्छी या बुरी राय क़ायम की और बस...... लेकिन जब राम सरूप से मेरी मुलाक़ात हुई तो मुझे उस के मुतअल्लिक़ बहुत सी दिलचस्प बातें मालूम हुईं...... ये मुलाक़ात उस का पहला फ़िल्म देखने के तक़रीबन आठ बरस बाद हुई।
शुरू शुरू में तो वो बम्बई से बहुत दूर एक गांव में रहता था, मगर अब फ़िल्मी सरगर्मीयां बढ़ जाने के बाइस उस ने शिवा जी पार्क में समुंद्र के किनारे एक मुतवस्सित दर्जे का फ़्लैट ले रख्खा था। उस से मेरी मुलाक़ात इसी फ़्लैट में हुई जिस के चार कमरे थे, बावर्चीख़ाने समेत।
इस फ़्लैट में जो कुम्बा रहता था। उस के आठ अफ़राद थे। ख़ुद राम सरूप। उस का नौकर जो बावर्ची भी था। तीन कुत्ते। दो बंदर और एक बिल्ली।राम सरूप और उस का नौकर मुजर्रद थे। तीन कुत्तों और एक बिल्ली के मुक़ाबले में उन की मुख़ालिफ़ जिन्स नहीं थी,... एक बंदर था और एक बंदरिया। दोनों अक्सर औक़ात एक जालीदार पिंजरे में बंद रहते थे।
इन निस्फ़ दर्जन हैवानों के साथ राम सरूप को वालहाना मुहब्बत थी। नौकर के साथ भी उस का सुलूक बहुत अच्छा था मगर इस में जज़्बात का दख़्ल बहुत कम था। बंधे काम थे जो मुक़र्ररा वक़्त पर मशीन की सी बे-रूह बाक़ायदगी के साथ गोया ख़ुद-ब-ख़ुद हो जाते थे। इस के अलावा ऐसा मालूम होता था कि राम सरूप ने अपने नौकर को अपनी ज़िंदगी के तमाम क़वाइद ओ ज़वाबित एक पर्चे पर लिख कर दे दिए थे जो उस ने हिफ़्ज़ कर लिए थे।
अगर राम सरूप कपड़े उतार कर, नेकर पहनने लगे तो उस का नौकर फ़ौरन तीन चार सोडे और बर्फ़ की फ्लास्क शीशे वाली तिपाई पर रख देता था...... इस का ये मतलब था कि साहब रम पी कर अपने कुत्तों के साथ खेलेंगे और जब किसी का टेलीफ़ोन आएगा तो कह दिया जाएगा कि साहब घर पर नहीं हैं।
रम की बोतल या सिगरेट का डिब्बा जब ख़ाली होगा तो उसे फेंका या बेचा नहीं जाएगा, बल्कि एहतियात से उस कमरे में रख दिया जाएगा जहां ख़ाली बोतलों और डिब्बों के अंबार लगे हैं।
कोई औरत मिलने के लिए आऐगी तो उसे दरवाज़े ही से ये कह कर वापिस कर दिया जाएगा कि रात साहब की शूटिंग थी, इस लिए सौ रहे हैं। मुलाक़ात करने वाली शाम को या रात को आए तो उस से ये कहा जाता था कि साहब शूटिंग पर गए हैं।
राम सरूप का घर तक़रीबन वैसा ही था जैसा कि आम तौर पर अकेले रहने वाले मुजर्रद मर्दों का होता है, यानी वो सलीक़ा, क़रीना और रख रखाव ग़ायब था जो निसाई लम्स का ख़ास्सा होता है। सफ़ाई थी मगर उस में खरा-पन था... पहली मर्तबा जब मैं उस के फ़्लैट में दाख़िल हुआ तो मुझे बहुत शिद्दत से महसूस हुआ कि मैं चिड़िया घर के उस हिस्से में दाख़िल हो गया हूँ। जो शेर, चीते और दूसरे हैवानों के लिए मख़्सूस होता है। क्यूं कि वैसी ही बू आ रही थी।
एक कमरा सोने का था, दूसरा बैठने का, तीसरा ख़ाली बोतलों और डिब्बों का। उस में रम की वो तमाम बोतलें और सिगरेट के वो तमाम डिब्बे मौजूद थे जो राम सरूप ने पी कर ख़ाली किए थे। कोई एहतिमाम नहीं था। बोतलों पर डिब्बे और डिब्बों पर बोतलें औंधी सीधी पड़ी हैं। एक कोने में क़तार लगी है तो दूसरे कोने में अंबाह गर्द जमी हुई है, और बासी तंबाकू और बासी रम की मिली जुली तेज़ बू आ रही है।
मैंने जब पहली मर्तबा ये कमरा देखा तो बहुत हैरान हुआ। अन-गिनत बोतलें और डिब्बे थे...... सब ख़ाली हैं। मैंने राम सरूप से पूछा। “क्यूं भई, ये क्या सिलसिला है”?
उस ने पूछा। “कैसा सिलसिला”?
मैंने कहा। ”ये… ये कबाड़ ख़ाना”?
उस ने सिर्फ़ इतना कहा। ”जमा हो गया है!
ये सुन कर मैंने बोलते हुए सोचा। ”इतना!..... इतना कूड़ा जमा होने में कम अज़ कम सात आठ बरस चाहिऐं”।
मेरा अंदाज़ा ग़लत निकला। मुझे बाद में मालूम हुआ कि उस का ये ज़ख़ीरा पूरे दस बरस का था। जब वो शिवा जी पार्क रहने आया था तो वो तमाम बोतलें और डिब्बे उठवा के अपने साथ ले आया था जो उस के पुराने मकान में जमा हो चुके थे। एक बार मैंने उस से कहा। ”सरूप, तुम ये बोतलें और डिब्बे बेच क्यूं नहीं देते?..... मेरा मतलब है, अव्वल तो साथ साथ बेचते रहना चाहिऐं... पर अब कि इतना अंबार जमा हो चुका है और जंग के बाइस दाम भी अच्छे मिल सकते हैं। मैं समझता हूँ तुम्हें ये कबाड़ ख़ाना उठवा देना चाहिए”!
उस ने जवाब में सिर्फ़ इतना कहा। ”हटाओ यार....... कौन इतनी बकबक करे”!
इस जवाब से तो यही ज़ाहिर होता था कि उसे ख़ाली बोतलों और डिब्बों से कोई दिलचस्पी नहीं। लेकिन मुझे नौकर से मालूम हुआ कि अगर इस कमरे में कोई बोतल या डिब्बा इधर का उधर हो जाये तो राम सरूप क़यामत बरपा करदेता था।
औरत से उसे कोई दिलचस्पी नहीं थी। मेरी, उस की बहुत बेतकल्लुफ़ी होगई थी। बातों बातों में मैं ने कई बार उस से दरयाफ़्त किया। ”क्यूं भई शादी कब करोगे”?
और हर बार इस क़िस्म का जवाब मिला। ”शादी करके क्या करूंगा”?
मैंने सोचा, वाक़ई राम सरूप शादी करके क्या करेगा?...... क्या वो अपनी बीवी को ख़ाली बोतलों और डिब्बों वाले कमरे में बंद कर देगा?...... या सब कपड़े उतार, नेकर पहन कर रम पीते उस के साथ खेला करेगा?...... मैं उस से शादी ब्याह का ज़िक्र तो अक्सर करता था मगर तसव्वुर पर ज़ोर देने के बावजूद उसे किसी औरत से मुंसलिक न देख सकता।
राम सरूप से मिलते मिलते कई बरस गुज़र गए। इस दौरान में कई मर्तबा मैंने उड़ती उड़ती सुनी कि उसे एक ऐक्ट्रस से जिस का नाम शीला था, इशक़ होगया है। मुझे इस अफ़्वाह का बिल्कुल यक़ीन न आया। अव्वल तो राम सरूप से उस की तवक़्क़ो ही नहीं थी। दूसरे शीला से किसी भी होशमंद नौजवान को इशक़ नहीं होसकता था, क्यूंकि वो इस क़दर बेजान थी कि दिक़ की मरीज़ मालूम होती थी...... शुरू शुरू में जब वो एक दो फिल्मों में आई थी तो किसी क़दर गवारा थी मगर बाद में तो वो बिल्कुल ही बे-कैफ़ और बे-रंग होगई थी और सिर्फ़ तीसरे दर्जे के फिल्मों के लिए मख़्सूस हो कर रह गई थी।
मैंने सिर्फ़ एक मर्तबा उस शीला के बारे में राम सरूप से दरयाफ़्त किया तो उस ने मुस्कुरा कर कहा। ”मेरे लिए क्या यही रह गई थी”!
इस दौरान में उस का सब से प्यारा कुत्ता इस्टालन निमोनिया में गिरफ़्तार होगया। राम सरूप ने दिन रात बड़ी जाँ-फ़िशानी से उस का इलाज किया मगर वो जां-बर न हुआ। उस की मौत से उसे बहुत सदमा हुआ। कई दिन उस की आँखें अश्क आलूद रहीं, और जब उस ने एक रोज़ बाक़ी कुत्ते किसी दोस्त को दे दिए तो मैंने ख़याल कि उस ने इस्टालन की मौत के सदमे के बाइस ऐसा किया है, वर्ना वो उन की जुदाई कभी बर्दाश्त न करता।
कुछ अर्से के बाद जब उस ने बंदर और बंदरिया को भी रुख़्सत कर दिया तो मुझे किसी क़दर हैरत हुई, लेकिन मैंने सोचा कि इस का दिल अब और किसी की मौत का सदमा बर्दाश्त नहीं करना चाहता। अब वो नेकर पहन कर रम पीते हुए सिर्फ़ अपनी बिल्ली नर्गिस से खेलता था। वो भी उस से बहुत प्यार करने लगी थी, क्यूंकि राम सरूप का सारा दिन इल्तिफ़ात अब उसी के लिए मौक़ूफ़ होगया था।
अब उस के घर से शेर, चीतों की बू नहीं आती थी। सफ़ाई में किसी क़दर नज़र आ जाने वाला सलीक़ा और क़रीना भी पैदा हो चला था, उस के अपने चेहरे पर हल्का सा निखार आगया था मगर ये सब कुछ इस क़दर आहिस्ता आहिस्ता हुआ था कि उस के नुक़्ता-ए-आग़ाज़ का पता चलाना बहुत मुश्किल था।
दिन गुज़रते गए। राम सरूप का ताज़ा फ़िल्म रीलीज़ हुआ तो मैंने उस की किरदार निगारी में एक नई ताज़गी देखी। मैंने उसे मुबारकबाद दी तो वो मुस्कुरा दिया ”लो, विस्की पियो”!
मैंने तअज्जुब से पूछा। ”विस्की”? इस लिए कि वो सिर्फ़ रम पीने का आदी था।
पहली मुस्कुराहट को होंटों में ज़रा सुकेड़ते हुए उस ने जवाब दिया। ”रम पी पी कर तंग आ गया हूँ”।
मैंने उस से और कुछ न पूछा।
आठवीं रोज़ जब उस के हाँ शाम को गया तो वो क़मीज़ पानजामा पहने, रम... नहीं, विस्की पी रहा था... देर तक हम ताश खेलते और विस्की पीते रहे। इस दौरान में मैं ने नोट किया कि विस्की का ज़ाइक़ा उस की ज़बान और तालू पर ठीक नहीं बैठ रहा, क्यूंकि घूँट भरने के बाद वो कुछ इस तरह मुँह बनाता था जैसे किसी अन-चखी चीज़ से उस का वास्ता पड़ा हुआ है। चुनांचे मैंने उस से कहा तुम्हारी तबीयत क़ुबूल नहीं कर रही विस्की को”?
उस ने मुस्कुरा कर जवाब दिया। ”आहिस्ता आहिस्ता क़ुबूल कर लेगी।
राम सरूप का फ़्लैट दूसरी मंज़िल पर था। एक रोज़ मैं उधर से गुज़र रहा था कि देखा, नीचे गिराज के पास ख़ाली बोतलों और डिब्बों के अंबार के अंबार पड़े हैं। सड़क पर दो छकड़े खड़े हैं जिन में तीन चार कबाड़ीए उन को लाद रहे हैं, मेरी हैरत की कोई इंतिहा न रही, क्यूंकि ये ख़ज़ाना राम सरूप के अलावा और किस का हो सकता था...... आप यक़ीन जानिए। उस को जुदा होते देख कर मैंने अपने दिल में एक अजीब क़िस्म का दर्द महसूस किया....... दौड़ा ऊपर गया । घंटी बजाई। दरवाज़ा खुला मैंने अंदर दाख़िल होना चाहा तो नौकर ने ख़िलाफ़-ए-मामूल रास्ता रोकते हुए कहा। ”साहब, रात शूटिंग पर गए थे। इस वक़्त स रहे हैं”।
मैं हैरत से और ग़ुस्से से बौखला गया...... कुछ बड़बड़ाया और चल दिया।
उसी रोज़ शाम को राम सरूप मेरे हाँ आया....... उस के साथ शीला थी, नई बनारसी साड़ी में मलबूस... राम सरूप ने उस की तरफ़ इशारा करके मुझ से कहा। ”मेरी धर्म पत्नी से मिलो”।
अगर मैंने विस्की के चार पैग न पिए हुए तो यक़ीनन ये सुन कर बेहोश हो गया होता।
राम सरूप और शीला सिर्फ़ थोड़ी देर बैठे और चले गए.... मैं देर तक सोचता रहा कि बनारसी साड़ी में शीला किस से मुशाबेह थी... दुबले पतले बदन हल्के बादामी रंग की काग़ज़ी सी साड़ी। किसी जगह फूली हुई, किसी जगह दबी हुई... एक दम मेरी आँखों के सामने एक ख़ाली बोतल आगई, बारीक काग़ज़ में लिपटी हुई।
शीला औरत थी...... बिल्कुल ख़ाली, लेकिन हो सकता है एक ख़ला ने दूसरे ख़ला को पुर कर दिया हो ।
(1950)

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