केशवती कन्या : ओड़िआ/ओड़िशा की लोक-कथा
Keshvati Kanya : Lok-Katha (Oriya/Odisha)
एक राज्य में एक राक्षसी रहती थी। वह बहुत बूढ़ी थी। राक्षसी दिन में पानी के अंदर रहती और रात को पानी से निकलकर आदमियों को खा जाती। इस तरह खाते-खाते राज्य के सारे लोगों को वह खा गई। उस राज्य के राजा की इकलौती लड़की बहुत सुंदर थी। राक्षसी का मन उसे खाने को नहीं हुआ तो उस लड़की को वह अपने साथ पानी के अंदर ले जाकर पालने लगी। दिन बीते, महीने बीते, साल बीते, वह धीरे-धीरे बड़ी होने लगी। उस राजकुमारी के बारह हाथ लंबे बाल थे।
एक दिन राजकुमारी नदी के किनारे नहा रही थी। बाल धोते समय उसका एक बाल टूट गया तो राजकुमारी ने बाल को एक डिबिया में बंद करके पानी में बहा दिया। वह डिबिया पानी में बहते हुए दूसरे देश के किनारे लगी। उस देश का राजकुमार शिकार के लिए निकला था। उसे नदी किनारे वह डिबिया मिली। डिबिया खोलकर देखा तो बारह हाथ लंबा बाल दिखा। राजकुमार था अड़ियल। अब शिकार करने क्या जाता, डिबिया लेकर वापस महल में पहुँच गया। अपने कमरे में जाकर दरवाज़ा अंदर से बंद करके सो गया। कुछ खाया-पीया नहीं, कितना भी पुकारा गया दरवाज़ा नहीं खोला।
राजा और मंत्री के बेटे गहरे मित्र थे। जब राजकुमार ने किसी के पुकारने से दरवाज़ा नहीं खोला तो मंत्री के बेटे ने आकर दरवाज़ा खटखटाया। तब राजकुमार बोला, “मीत, तुम वादा करो कि मैं जो कहूँगा, मुझे ला दोगे, तभी दरवाज़ा खोलूँगा। मंत्री का बेटा क्या करता? उसने वादा किया। राजकुमार ने दरवाज़ा खोला और बोला, “यह बाल जिस कन्या का है, उसे ले आओ। मैं उससे विवाह करूँगा। नहीं तो पानी भी नहीं पीऊँगा।”
मंत्री के बेटे ने अपने मित्र को आश्वस्त किया। बोला, “मित्र! इतनी छोटी सी बात के लिए इतना परेशान हो। तुम खाओ-पीओ, मैं उस कन्या को ले आऊँगा।” तब राजकुमार ने खाना खाया। मंत्री के बेटे ने महाराज के पास जाकर सारी बातें बताईं और कहा, “महाराज! बारह सौ बढ़ई को कहिए कि कल सुबह तक एक उड़नखटोला बनाकर दें।” राजा ने तुरंत हुक्म दिया। बारह सौ बढ़ई बुलाए गए।
राजा ने उनसे कहा, “कल सुबह तक अगर उड़नखटोला नहीं बना तो तुम सब के पूरे वंश का सिर क़लम कर दिया जाएगा।” एक बूढ़ा बढ़ई बहुत परेशान होकर एक कदंब के पेड़ के नीचे लेटा रहा। रात हुई, पर उसकी आँखों में नींद नहीं थी। उस पेड़ में एक गिद्ध का घोंसला था। रात को माँ गिद्ध घोंसले में लौटी तो बच्चे खाने के लिए चीख़ने-चिल्लाने लगे। तब माँ गिद्ध ने उन्हें समझाते हुए कहा, “आज जो कुछ लेकर आई हूँ, उतना खा लो। कल बारह सौ बढ़ई के पूरे वंश का नाश होगा, तब जितना मन चाहे खा लेना, क्योंकि उड़नखटोला बढ़ई कहाँ से बना पाएँगे जो मरने से बच पाएँगे।“
गिद्धनी के बच्चे माँ से पूछने लगे, “किस पेड़ की लकड़ी से उड़नखटोला तैयार हो सकता है माँ।” गिद्धनी बोली, “हमने जिस पेड़ में घोंसले बनाए हैं, उसी पेड़ से उड़नखटोला तैयार हो सकता है।” बूढ़ा बढ़ई यह सुनकर बहुत ख़ुश हुआ। दूसरे बढ़इयों से जाकर यह बात कही। सबने मिलकर उस पेड़ को काटा और उड़नखटोला बनाकर सुबह राजा को भेंट कर दिया। राजकुमार और मंत्री का लड़का उस नाव में बैठकर रवाना हुए। कुछ दूर जाने के बाद नाव उसी किनारे जा लगी जहाँ वह राक्षसी रहती थी।
शाम ढल चुकी थी। राक्षसी भोजन की तलाश में निकल गई थी। वह केशवती कन्या मुँह-हाथ धोने के लिए नदी किनारे आई और उन दो नवयुवकों को देखकर बोली, “ओहो! तुम लोग इस देश क्यों आए? अभी राक्षसी आएगी तो तुम दोनों को खा जाएगी। ठीक है, अगर आ ही गए हो तो चलो मेरे साथ।” इतना कहकर उसने उड़नखटोले को छिपा दिया। दोनों मित्रों को पानी के अंदर राक्षसी के महल में ले गई। मंत्री के लड़के ने केशवती कन्या को सारी बातें बताईं। सुबह होते ही राक्षसी लौट आएगी, यह सोचकर रात बीतने से पहले ही केशवती कन्या ने उन दोनों को मक्खी बना दिया। वे दोनों मक्खी बनकर खंभे पर बैठ गए। राक्षसी लौटी तो उसकी नाक में इंसान की गंध समाई तो वह बोली, “अरी बेटी! यहाँ इंसान के माँस की गंध कैसे आ रही है, यहाँ कोई आदमी है क्या?”
केशवती कन्या बोली, “यहाँ तो कोई इंसान नहीं है, बस मैं ही हूँ, मुझे ही खा ले।” राक्षसी अपने दाँतों तले जीभ दबाकर बोली, “मेरी उम्र भी तुझे लग जाए। तुझे खाऊँगी? इतनी बड़ी बात तूने कैसे कह दी? मैं भले मर जाऊँ पर तू ज़िंदा रह।'' शाम होते ही राक्षसी आहार ढूँढ़ने निकलती, उसी समय केशवती कन्या दोनों को इंसान बना देती।
कुछ दिन बाद राजकुमार ने उस कन्या से शादी कर ली। रात में वे इंसान बनकर रहते। सुबह होते ही केशवती कन्या उन्हें मक्खी बना देती। राक्षसी घर लौटती तो इंसानी गंध की बात करती। उसके उत्तर में कन्या कहती, “यहाँ तो और कोई नहीं है, मन हो रहा है तो मुझे ही खा ले।” राक्षसी दाँतों तले जीभ दबाकर चुप हो जाती। ऐसे ही कुछ दिन और बीत गए। अब दोनों मित्रों का मन ऊब गया था। तब मंत्री के लड़के ने केशवती कन्या को एक दिन कहा कि “आज जब राक्षसी घर लौटेगी तो उससे बहुत प्यार से बात करके उसकी प्राण वायु किसमें है, यह राज़ जान लेना।” मंत्री के लड़के के कहे मुताबिक़ उस दिन राक्षसी के लौटने पर केशवती कन्या उसकी पैर मालिश करने लगी। तेल लगाकर मालिश करते-करते वह रोती रही। तभी एक आँसू राक्षसी के पैर पर पड़ा। राक्षसी ने तुरंत आँसू को चाट लिया और बोली, अरी बेटी! तुझे किस बात की कमी है, जो तू रो रही है? कुछ भूल गया हो तो कहो ढूँढ़वा दूँगी, कुछ टूट गया हो तो बनवा दूँगी। स्वर्ग का चाँद भी चाहेगी तो तेरे लिए ले आऊँगी। तू बता कि क्यों रो रही है?”
केशवती कन्या बोली, “माई! मैं सोच रही थी कि तू क्या सब दिन ज़िंदा रहेगी। अगर तू मर जाएगी तो फिर मेरा ख़याल कौन रखेगा? मैं किसके सहारे ज़िंदा रहूँगी? यही सोचकर आँखों में आँसू आ गए।” राक्षसी उसकी बात सुनकर खिलखिलाकर हँसते हुए बोली, “मैं क्या ऐसे ही मर जाऊँगी? मेरी प्राण वायु किसे मिलेगी कि मैं मर जाऊँगी? तू इसके लिए क्यों परेशान है? हमारे महल के बड़े वाले आँगन के बीचोंबीच एक बड़ा संदूक गड़ा हुआ है। उसके अंदर एक दाँत वाली खुरपी है। उस खुरपी से अगर कोई मर्द मेरे सिर में खरोंच लगाएगा और उसके बाद भी मेरा एक बूँद ख़ून भी ज़मीन पर नहीं गिरेगा तभी मेरी मौत होगी, नहीं तो मुझे कौन मार सकेगा कि तुम इतना चिंतित हो रही हो?”
दोनों मित्र मक्खी बनकर राक्षसी की सारी बातें सुन रहे थे। उसके बाद केशवती कन्या बोली, “माँ! ओ मेरी माँ! तू मुझसे प्यार नहीं करती। अगर प्यार करती होती तो मेरे लिए धन-संपत्ति नहीं रखती?” उसकी बात सुनकर राक्षसी ने जहाँ-जहाँ धन संपत्ति गाड़कर छिपा रखा था सब जगहों के बारे में उसे बता दिया।
शाम हुई तो राक्षसी आहार ढूँढ़ने निकली। दोनों मित्रों ने आदमी बनकर आँगन के बीचोंबीच खोदकर छिपाए गए संदूक से दाँत वाली खुरपी निकाल ली। हर दिन की तरह उस दिन भी राक्षसी लौटकर आदमी की गंध के बारे में वही बात कहने लगी तो केशवती कन्या ने भी पहले की तरह ही उत्तर देते हुए कहा, “मैं ही अकेली यहाँ इंसान हूँ चाहो तो मुझे खा लो।” उसकी बात सुनकर राक्षसी ने अपनी जीभ को दाँतों से काट लिया।
थोड़ी देर बाद राक्षसी सो गई। राजकुमार और मंत्री के बेटे ने उस खुरपी से राक्षसी का सिर खरोंच दिया और एक बूँद ख़ून भी ज़मीन पर नहीं पड़ा बल्कि बिस्तर में गिरा। उसी समय राक्षसी एक भयानक चीख़ के साथ तड़पते हुए मर गई। राक्षसी के मर जाने के बाद सभी गड़ी हुई धन-संपत्तियों को खोदकर दोनों मित्रों ने बाहर निकाला और तीनों उड़नखटोले में बैठकर अपने देश लौट गए। महल से कुछ दूरी पर रुककर मंत्री के बेटे ने पहले राजा के पास जाकर सारी बातें बताईं। राजा ने तब मंत्री-सेनापति, दरबारियों के साथ पालकी, सवारी लेकर बेटा-बहू को घर ले आए। राजा का महल केले के पेड़, कलश, फूलों से सज गया। राजमहल की औरतों ने शंख, नंदिघोष ध्वनि से वर-वधु का स्वागत किया। वाद्य-शहनाई बज उठे। सात सुहागिनें सात दीये लेकर वर-वधु की वंदना करने लगीं। उसके बाद रानी आकर बेटा-बहू को लेकर महल के अंदर गई। बेटा-बहू आनंदपूर्वक रहने लगे।
(साभार : अनुवाद : सुजाता शिवेन, ओड़िशा की लोककथाएँ, संपादक : महेंद्र कुमार मिश्र)