Keshav (Hindi Nibandh) : Munshi Premchand
केशव (हिन्दी निबंध) : मुंशी प्रेमचंद
काव्य-मर्मज्ञों ने केशव को हिन्दी का तीसरा कवि माना है लेकिन केशव में वह उड़ान नहीं जो बिहारी की अपनी विशेषता है। तुलसी, सूर, बिहारी, भूषण आदि कवियों ने विशेष शैलियों में अपनी सर्वोत्तम योग्यता लगाई। तुलसी भक्ति की तरफ झुके, सूरदास प्रेम की तरफ, बिहारी ने प्रेम के रहस्यों में गोता लगाया और भूषण बहादुरी के मैदान में झुके लेकिन केशव ने विशेष रूप से अपना कोई ढंग नहीं अख्तियार किया। वह सौंदर्य और अध्यात्म और भक्ति, सभी रंगों की तरफ लपके और यही कारण है कि किसी रंग में चोटी पर न पहुँच सके । केशव में काव्य-कौशल कम न था और संभव है कि किसी एक रंग के पाबन्द रहकर वह दूसरे तुलसीदास बन सकते। लेकिन ऐसा मालूम होता है कि वह आखिरी दम तक अपने को समझ न सके, अपने स्वभाव की थाह न पा सके और यह दृष्टि-दोष कुछ उन्हीं तक सीमित नहीं है। हमारे लेखकों और कलाकारों का बहुत बड़ा हिस्सा इस अज्ञान का शिकार पाया जाता है। अपने स्वाभाविक रंग को पहचानना आसान काम नहीं है। तो भी कविता के रंग की दृष्टि से केशव की रुचि सौंदर्य और प्रेम की ओर ज्यादा झुकी हुई दिखाई देती है। एक मौके पर अपने बुढ़ापे का रोना रोते हुए वह कहते हैं कि अब सुंदरियाँ उन्हें प्रेम की आँखों से नहीं बल्कि आदर की दृष्टि से देखती हैं और उन्हें बाबा कहकर पुकारती हैं। मजे की बात यह है कि उनकी ख्याति प्रेम-विषयक काव्य पर नहीं बल्कि पद्य-बद्ध आख्यायिका लिखने पर आधारित है। ‘रामचन्दिका’ जो उनकी सबसे ज्यादा जानी-मानी कृति है शायद हिन्दी भाषा में तुलसीदास की रामायण के बाद सबसे अधिक लोकप्रिय पुस्तक है।
केशव तुलसीदास के समकालीन थे। उनका जन्म संवत् प्रामाणिक रूप से पता नहीं लेकिन अनुमान से सन् 1552 के लगभग ठहरता है और मृत्यु संभवत: सन् 1612 की है। सूरदास के देहांत के समय केशव की अवस्था बारह साल थी। तुलसीदास का देहांत सन् 1625 में हुआ। इस हिसाब से केशव की मृत्यु बारह-तेरह साल पहले हुई। उनकी जन्मभूमि ओरछा थी जो अब भी बुंदेलखंड की एक प्रसिद्ध रियासत है और उस जमाने में तो सारा बुंदेलखंड ओरछा के अधीन था। अकबरी दरबार में ओरछा के राजा की खास इज्जत थी। यह अकबर का काल था और ओरछा में राजा रामसिंह गद्दी पर थे। रामसिंह अकबर के दरबार में पहली कतार में जगह पाते थे और ज्यादातर आगरे में ही रहते थे। रियासत का प्रबंध इन्द्रजीत के योग्य हाथों में था। केशव इस राज्य के नमक खाने वालों में थे। उन्होंने अपनी कविता में जगह-जगह इन्द्रजीत की कृपा का गुणगान किया है। ओरछा बेतवा नदी के किनारे स्थित है। यह जमुना की एक सहयोगिनी नदी है जो हमीरपुर में जमुना से आकर मिल जाती है। अधिकतर पहाड़ी इलाकों से गुजरने के कारण इस नदी का पानी बहुत स्वच्छ और स्वास्थ्यप्रद है और जहाँ कहीं वह घाटियों में होकर बहती है वहाँ के दृश्य देखने योग्य हैं। केशव ने जगह-जगड बेतवा नदी की प्रशंसा की है। इन्द्रजीत एक रसिक स्वभाव का राजा था। उसके प्रेम की पात्रियों में रायप्रवीन नाम की एक वेश्या थी। उसके सौंदर्य की दूर-दूर तक चर्चा थी। वह कविता भी करती थी। अकबर ने भी उसकी तारीफ सुनी। देखने का शौक पैदा हुआ। इन्द्रजीत को हुक्म हुआ कि उसे हाजिर करो। इन्द्रजीत दुविधा में पड़ा। आदेश का उल्लंघन करने का साहस न होता था। उस वक्त रायप्रवीन ने दरबार में जाकर अपना एक कवित्त पढ़ा जिसका आशय यह है कि आप राजनीति से परिचित हैं, मेरे लिए कोई ऐसी राह निकालिए कि आपकी आन भी बनी रहे और मेरे सतीत्व में भी धब्बा न लगे –
जामे रहे प्रभु को प्रभुता अरु
मोर पतिब्रत भंग न होई।
इस कवित्त ने इन्द्रजीत की हिम्मत मजबूत कर दी। उसने रायप्रवीन को शाही दरबार में न भेजा। अकबर इस पर इतना क्रुद्ध हुआ कि उसने इन्द्रजीत पर आज्ञा का उल्लंघन करने के अभियोग में एक करोड़ रुपया जुर्माना किया। मालूम नहीं यह किंवदंती कहाँ तक ठीक है। अकबर की कुल आमदनी उस वक्त बीस करोड़ सालाना से ज्यादा न थी। एक करोड़ की रकम एक ऐसे जुर्म के लिए कल्पनातीत सजा कही जा सकती है। बहरहाल जुर्माना हुआ और इन्द्रजीत को किसी ऐसे वाणी-कुशल आदमी की जरूरत हुई जो अकबर से यह जुर्माना माफ करवा दे।
इस काम के लिए केशव को चुना गया और वह आगरा पहुँचे। यहाँ राजा बीरबल अकबर के खास दरबारियों में थे जो उसके मिजाज को समझते थे। खुद भी सिद्धहस्त कवि थे और कवियों का सम्मान भी करते थे। केशव ने उनका दामन पकड़ा और उनकी स्तुति में एक कवित्त पढ़ा। बीरबल इससे इतना प्रसन्न हुए कि अकबर से सिफारिश करकेवह जुर्माना ही नहीं माफ करा दिया बल्कि छ: लाख की हुडिंयां जो उनकी जेब में थीं निकालकर केशव को दे दीं। अगर यह किंवदंती सच है तो यह उस युग के उदार साहित्य-प्रेम का एक अनोखा उदाहरण है। कैसे दानी लोग थे जो एक-एक कवित्त पर लाखों लुटा देते थे। हम यह नहीं कहते कि यह दान उचित था या ऐसी बड़ी-बड़ी रकमें ज्यादा अच्छे कामों में खर्च न की जा सकती थीं। लेकिन इससे कौन इंकार कर सकता है कि वह बड़े जिगरे के लोग थे। अपव्यय के लिए बदनाम होना चाहते थे लेकिन कंजूसी की बदनामी गवारा न थी। केशव यहाँ से सफल लौटे तो ओरछा में उनका खूब स्वागत-सत्कार हुआ और वह राजदरबारियों में गिने जाने लगे। उधर रायप्रवीन ने भी अकबर के पास एक दोहा लिखकर भेजा जिससे उसकी गहरी सूझ-बूझ का प्रमाण मिलता है –
बिनती रायप्रवीन की सुनिए साह सुजान
जूठी पातर भखत हैं बारी बायस स्वान
यानी जूठी पत्तन बारी, कुत्तें वगैरह खाते हैं। मेरी यह अर्ज कुबूल हो...। इस दोहे का जो असर अकबर पर हुआ होगा उसका अनुमान किया जा सकता है। उसने फिर रायप्रवीन का नाम नहीं लिया।
केशवदास ने अपनी स्मृति-स्वरूप चार पुस्तकें छोड़ी हैं। इनमें दो को तो जमाने ने भुला दिया लेकिन दो अब भी जानी जाती हैं – कविप्रिया और रामचन्दिका। कविप्रिया में कवि ने अपनी जिंदगी के हालात और अपने उदार काव्य-मर्मज्ञ राजा के संबंध में लिखा है। इसके अलावा इसमें काव्य के अलंकारादि, काव्य की विभिन्न शैलियाँ, उसके गुण-दोष और प्राकृतिक दृश्यों पर भी अपनी लेखनी का चमत्कार दिखलाया है। कवि ने इस कृति पर अपनी सारी काव्य-शक्ति खर्च कर दी है और कई मौकों पर इसका बड़े गर्व के साथ उल्लेख किया है। स्पष्ट है कि ऐसी पुस्तक लोकप्रिय नहीं हो सकती, लेकिन कवियों के समाज में उसे आज तक विशेष सम्मान प्राप्त है। नये कवियों के लिए तो उसका अध्ययन आवश्यक समझा जाता है। सच तो यह है कि इस किताब ने केशव की गिनती उस्तादों में करा दी है। लेखक बहुत बार अपनी पुस्तक का स्थान उसमे लगे हुए अपने परिश्रम के अनुसार निश्चित करता है और चूंकि ऐसी पांडित्यपूर्ण पुस्तकों में कवि अधिकतर दूसरे क वियों को ही संबोधित करता है इसलिए उसे कदम कदम पर संभलने की जरूरत होती है कि कहीं उसका उस्तादी का दावा उपहासास्पद न बन जाए। कवि बड़ी गंभीर और पैनी दृष्टि से उसके दावे की जांच पड़ताल करते हैं और उसके गुणों को चाहे एक बार आँख की ओट कर भी दें लेकिन दोषों को हरगिज नहीं छोड़ते। वह देखते हैं कि जिन सिद्धांतों की यहाँ स्थापना की गई है उनका पालन भी हुआ है या नहीं। अगर कवि इस कसौटी पर ठीक न उतरा तो गर्दन मार देने के काबिल करार दिया जाता है। सब दरबारों में रिश्वत चलती है लेकिन कवियों के दरबार में रिश्वत का गुजर नहीं। यह अदालत कभी रहम करने की गलती नहीं करती। इस दरबार ने कविप्रिया को परखा और तोला और केशवदास को भाषा के कवियों की उस मंडली में तीसरी जगह दे दी जिसमे पहला स्थान सूर का और दूसरा तुलसी का है।
लेकिन जैसा हम कह चुके हैं ‘कविप्रिया’ की ख्याति विशेष लोगों तक ही सीमित है। साधारण लोगों में उन्हें जो लोकप्रियता प्राप्त है वह उनकी अमरकृति ‘रामचन्दिका’ का प्रसाद है। इसमें रामचन्द्र जी की कथा लिखी गई है मगर केशव ने राम को अवतार मानकर और खुद उनका सच्चा भक्त बनकर अपने को बिल्कुल बेजबान नहीं कर दिया है। उन्होंने तुलसीदास के मुकाबले में ज्यादा आजादी से काम लिया है और जहाँ कहाँ रामचन्द्र या किसी दूसरे केरेक्टर में उन्हें कोई दोष दिखाई पड़ा है तो उन्होंने उसे गुण बनाकर दिखाने की कोशिश नहीं की बल्कि स्पष्ट शब्दों में उस पर आपत्ति की है। तुलसीदास ने रावण के साथ अन्याय किया है और उसे एक मनस्वी, प्रतिष्ठित और स्वाभिमानी राजा के पद से गिराकर घृणा का पात्र बना दिया है, हालांकि उसे इस तरह से अपमानित करने के बाद भी वह रावण का कोई ऐसा आचरण न दिखा सके जो इस घृणा की पुष्टि करता। रावण ने अगर कोई पाप किया तो यह कि उसने रामचन्द्र को मनुष्येतर प्राणी समझकर उनके सामने सिर नहीं झुकाया। विभीषण रावण का छोटा भाई था। संभव है वह भगवान से डरने वाला और नेम-धरम का पक्का रहा हो, संभव है उसे रावण का राज्य-संचालन और उसका आचरण न भाता हो लेकिन यह इसके लिए काफी कारण नहीं है कि वह अपने भाई के दुश्मन से जा मिले और घर का भेदी बनकर लंका ढाये। उसका राह कार्य राष्ट्रीय दृष्टि से अत्यंत घृणित है। तुलसीदास ने उसे आस्तीन के सांप के बदले भक्त बनाकर दिखाना चाहा है लेकिन बावजूद वह सब रंग चढ़ाने के जैसा कि एक कवि करता है, वह उसे सिर्फ बगुला भगत बनाने में सफल हुए हैं। हिन्दुस्तान के लिए जयचन्द ने जो किया, राजपूताने के लिए समरसिंह ने जो किया, दारा के लिए सरहंगों ने जो किया वही विभीषण ने रावण के साथ किया। रामचन्द्र के हाथों ऐसे शैतान की वही दुर्गत होनी चाहिए थी जो सिकन्दर के हाथों सरहंगों की हुई थी लेकिन रामचन्द्र ने उसे राजगद्दी और मुकुट देकर जैसे देशद्रोह और परिवार-हत्या को बढ़ावा दिया है। जिस कथा को सारी जाति धार्मिक विश्वास की दृष्टि से देखती हो उसमे ऐसे कमीने नीच आचरण को दंड न देना एक अत्यंत खेदजनक दोष है। हिन्दुस्तान का इतिहास देशद्रोह और विश्वासघात से भरा हुआ है लेकिन क्या अजब है विभीषण को उचित दंड देना इन गुमराहियों में से कुछ को दूर कर सकता। आज अगर इंगलिस्तान की पार्लियामेंट का कोई मेम्बर न्याय के आधार पर किसी ऐसी बात का समर्थन करता है जिसमे इंगलिस्तान को नुकसान पहुँचने का डर हो तो उस पर चारों तरफ से घृणा की बौछार पड़ने लगती है। यह देश-प्रेम का युग है, जब वैयक्तिक और पारिवारिक स्वार्थ को देश पर बलिदान कर दिया जाता है। आश्चर्य तो यह है कि संस्कृत कवियों ने भी विभीषण की कुछ खबर न ली और यह सेहरा केशवदास के लिए छोड़ दिया। केशव एक राजा के दरबारी थे, शाही दरबारों के अदब-कायदे से परिचित, देशप्रेम का महत्त्व समझने वाले, अतः उन्होंने रामचन्द्र के बड़े बेटे लव की जबान से विभीषण को खूब खरी-खरी सुनाई है। जब रामचन्द्र अपना दल सजाकर लव के मुकाबले में चले तो विभीषण भी उनके साथ था। लव ने उसे देखकर खूब आड़े हाथों लिया – “अत्याचारी! परिवार को कलंकित करने वाला। अगर तुझे रावण का आचरण पसंद न था तो जिस समय रावण रामचन्द्र जी की पत्नी को हर लाया था उसी समय तू रावण को छोड़कर क्यों राम के पास नहीं चला आया। तुझे धिक्कार है! तू जहर क्यों नहीं पी लेता! जाकर चुल्लू भर पानी में डूब क्यों नहीं मरता! तुझे अब भी शरम नहीं आती कि तू हथियार बांधकर लड़ने निकला है! पापी, तुझे अपनी भावज को ब्याहते शर्म न आयी जिसे तूने कितनी ही बार माँ कहकर पुकारा होगा।”
संस्कृत में पद्य-बद्ध आख्यायिका लिखने की दो पद्धतियाँ हैं। एक में तो कवि की दृष्टि अपनी कथा पर रहती है, वह कथा को प्रधान समझता है और अलंकारों को गौण। दूसरे रंग में कवि की दृष्टि अलंकारों आदि पर रहती है, कथा को वह केवल अपने काव्य-कौशल और रचना-चातुर्य का एक साधन बना लेता है। पहली पद्धति वाल्मीकि और व्यास की है और दूसरी पद्धति कालिदास और भवभूति की। तुलसीदास ने पहली पद्धति अपनाई, केशव ने दूसरी पद्धति को पसंद किया और अपने काव्य चातुर्य की दृष्टि से उनका यह चुनाव शायद अच्छा रहा क्योंकि उनमें वह कविजनोचित कोमलता और वह गहरी संवेदनशीलता न थी जिसने तुलसीदास की कविता को सदाबहार फूल बना रक्खा है। इस कमी को पूरा करने के लिए काव्यशिल्प और अलंकार की आवश्यकता थी। यही कारण है कि केशवदास की कविता काफी कठिन है लेकिन उसके कठिन होने का एक कारण यह और हो सकता है कि उस समय तक हिन्दी भाषा प्रौढ़ नहीं हुई थी। विद्वानों की मंडली में संस्कृत की चर्चा थी, बिल्कुल उसी तरह जैसे सौदा के जमाने में फारसी की। अतः तुलसीदास और केशव दोनों भाषा में कविता करते हुए झेंपते थे और इस डर से कि कहीं उनका भाषा-प्रेम संस्कृत का अल्प-ज्ञान न समझ लिया जाये वे समय-समय पर अपने पांडित्य का प्रदर्शन आवश्यक समझते थे। उन्हें अपने पांडित्य का प्रमाण देने के लिए दरूह शब्द का प्रयोग उचित जान पड़ता था।
तुलसीदास चूंकि वैरागी थे उन्हें किसी की प्रशंसा या निंदा की परवाह न थी लेकिन केशव एक राजा के दरबारी थे। बड़े-बड़े पंडितों से हमेशा उनकी मुठभेड रहती थी इसलिए उनका दरूह शब्दों का प्रेम स्वाभाविक था। केशव धार्मिक मामलों में लकीर के फकीर न थे, अंधविश्वासों को मुक्ति का साधन न समझते थे। नदी में नहाने और मूर्ति-पूजा को वे मूर्खों की रस्म समझते थे। वह एकेश्चरवाद के अनुयायी थे और केवल एक परमात्मा की पूजा करने के लिए कहते थे। देवताओं को उन्होंने कृत्रिम और आडंबरपूर्ण कहा है। लेकिन इसके साथ ही जनसाधारण के लिए एकेश्वरवाद या चरित्रशुद्धि या आत्मविवेक की आवश्यकता नहीं समझी। उनके लिए केवल परमात्मा के नाम का स्मरण काफी बतलाया है। स्त्रियों के लिए पातिव्रत्य को मुख्य धर्म बतलाया है जो प्राचीन हिन्दू समाज का एकविशेष अंग है और यद्यपि अब जमाने ने सांस्कृतिक व्यवस्थाओं में एक उथल-पुथल मचा दी है और स्त्री का व्यक्तित्व अपने पति में खोया हुआ न रहकर अलग एक सत्ता बन रहा है, स्त्रियों के राष्ट्रीय-सांस्कृतिक अधिकार हो रहे हैं, तो भी वह पुरानी व्यवस्था भी अपने अच्छे पहलुओं से खाली न थी और अभी जबकि नई व्यवस्था – की दशा में है वह पुराना सिद्धांत शताब्दियों तक प्रचलित रहा। उसमे अब भी कुछ ऐसे गुण हैं जिनसे बड़े से बड़ा, कट्टर से कट्टर सफरेजिस्ट भी इंकार नहीं कर सकता। इसलिए हम इस मामले में केशव को दोषी नहीं समझते।
इसमें कोई संदेह नहीं कि केशवदास भाषा की पहली पंक्ति के बैठने वालों में हैं। उनके स्वभाव में उपदेश से अधिक साधना का रंग है। वह ग़ालिब या मीर न थे। वह वास और अमीर थे। उनकी कविता में आडंबर और खींचतान ज्यादा है, कोमलता और संवेदनशीलता कम। तो भी उसकी कविता मिठास से खाली नहीं है। कहीं-कहीं इस काम को उन्होंने चमत्कार कर दिखाया है।
पद्य बद्ध आख्यायिकायें लगभग सभी भाषाओं में एक ही छंद में लिखी जाती हैं। तुलसी कृत रामायण, सिकन्दरनामा, शाहनामा, मौलाना रूमी की मसनवी , पैराडाइज लोस्ट, इलियड आदि प्रसिद्ध आख्यायिकायें इसी ढंग की हैं। लेकिन केशवदास ने रामचन्द्रिका में सैकडों छंदों का प्रयोग किया है और कहीं-कहीं इस तेजी से कि आख्यायिका के प्रवाह में फर्क नहीं आता। कुछ आलोचकों का विचार है कि यह विभिन्नता पुनरावृत्ति की निषेधक होने के कारण बहुत सुंदर हो गयी है। लेकिन यह कुछ ज्यादती है। दुनिया की बड़ी-बड़ी मसनवियाँ एक ही छंद में लिखी गई हैं। कहीं-कहीं कवियों ने मजा बदलने के लिए भिन्न-भिन्न छंदों का प्रयोग किया | तुलसीदास की रामायण इसकी अनूठी मिसाल है। शायद केशव ने एक ही छंद की मसनवी या पद्य बद्ध आख्यायिका लिखकर इस रंग में तुलसी से टक्कर लेना अपने लिए अहितकर समझा। इससे विभिन्नता का आनंद नहीं आता, कथा के प्रवाह में अलबत्ता रुकावट होती है।
हमने विभीषण की गद्दारी का जिक्र ऊपर किया है। इसके मुकाबले में केशव अंगद की वफादारी और सदाचारिता को खूब दिखाया है। अंगद बालि का बेटा था। बालि को रामचन्द्र ने वध किया था और उसका राजपाट बालि के भाई सुग्रीव को दिया था। इसलिए अंगद की अपने बाप के हत्यारे से द्वेष रखना एक स्वाभाविक बात थी। लेकिन जब वह रावण के दरबार में गया है और उसने राम के इस कृत्य का संकेत देकर अंगद को फोड़ना चाहा है तो अंगद ने रावण को खूब करारे जवाब दिये हैं। कवि ने उसकी सदाचारिता दिखलाने के उत्साह में पद के सम्मान की रक्षा का भी ध्यान नहीं रक्खा। अंगद के हृदय में द्वेष था और जरूर था। आखिर में उसने उसको व्यक्त भी किया है लेकिन जिससे एक बार एकता का संबंध स्थापित कर लिया उससे दुश्मन के भड़कावे में आकर विमुख हो जाना मर्दानगी के खिलाफ था।
अब हम पाठकों के मनोरंजन के लिए केशवदास की कविता के नमूने पेश करते हैं –
सब जाति कटी दुख की दुपटी कपटी न रहै जहं एक घटी
निघटी रुचि मीचु घटीहु घटी जग जोव जतीन की छूटि तटी
कवि ने पंचवटी का परिचय दिया है। कहता है यहाँ दुख और कष्ट की चादर तार-तार हो जाती है और दिल दगा व फरेब से मुक्त हो जाता है। उसके मोहक आकर्षणों से यतियों का ध्यान भी भंग हो जाता है।
कहि केशव याचक के अरि चंपक शोक अशोक किये हरि कै ।
लखि केतक केतकि जाति गुलाब ते तीछण जानि तजे डरि कै ।।
सुनि साधु तुम्हें हम बूझन आये रहे मन मौन कहा धरि कै ।
सिय को कछु सोध कहौ करुणामय हे करुणा करुणा करि कै ।।
रावण सीता को हर ले गया है और राम केवियोग के उद्वेग में जंगल के पेड़ों से सीता का पता पूछते फिरते हैं। वह करुणा केवृक्ष को संबोधित करके कहते हैं – चंपा भौंरे को अपने पास नहीं आने देती इसलिए उसमे दर्द नहीं है, अशोक ने शोक को भुला दिया है इसलिए उसमे भी दर्द नहीं। केवड़ा, केतकी और गुलाब कंटीले हैं और दिल के दर्द का हाल नहीं जानते इसलिए मैं तुम्हारे पास आया हूँ, कुछ सीता की खबर बताओ, खामोश क्यों खड़े हो।
दीरघ दरीन बसैं के सोदास के सरी ज्यौं
केसरी कौं देखि बन-करी ज्यौं कंपत हैं।
बासर की संपति उलूक ज्यौं न चितवत,
चकवा ज्यौं चंद चितै चौगुनो चंपत हैं।
केका सुनि व्याल ज्यौं बिलात जात घनश्याम,
घनन की घोरनि जवासो ज्यौं तपत हैं।
भौंर ज्यौं भंवत बन, जोगी ज्यौं जपत रैनि,
साकत ज्यौं राम नाम तेरोई जपत हैं।
हनुमान लंका में सीताजी को देखने गये हैं और उन्हें अशोकवाटिका में देखकर उनसे रामचन्द्र केवियोग की पीड़ा का यों वर्णन करते हैं – जैसे घने जंगल में रोर रहता है उसी तरह रामचन्द्र रहते हैं यानी जमीन पर सोते-बैठते हैं। आराम की जरा भी इच्छा नहीं। जैसे उल्लू दिन की रोशनी के नेमतों की ओर आँख उठाकर नहीं देखता उसी तरह रामचन्द्र किसी चीज की तरफ नहीं देखते। जैसे चकोर चाँद को देखकर अधीर हो जाता है उसी तरह चाँद को देखकर रामचन्द्र के दिल की बेचैनी भी बढ़ जाती है। मोर की आवाज सुनकर जैसे सांप छिप जाता है उसी तरह रामचन्द्र छिप जाते हैं। वर्षा से जैसे मदार का पेड़ जल जाता है उसी रामचन्द्र घुलते हैं। भौंरे की तरह इधर-उधर घूमा करते हैं, जोगी की तरह रात को जागते हैं और तेरे ही नाम की रट लगाते हैं।
दंतावलि कुँद समान गनो।
चंद्रानन कुँतल चौंर घनो।।
भौहैं घनु खंजन नैन मनो।
राजीवनि ज्यों पद पानि भनो।।
हारावलि नौरज हिय-पट में।
हैं लीन पयोधर अंबर में।।
पाटीर जोहाइहि अंग धरे।
हँसी गति केशव चित्त हरे।।
कवि ने शरद ऋतु की एक कल्पना की है। इस ऋतु में कुँद खिलता है। ये गोया उस सुंदरी के दांत हैं। चाँद उसका कांतिमान मुखड़ा है। इस ऋतु में चाँद बहुत प्रकाश वाला होता है। राजा लोग इन्हीं दिनों पूजा करके दरबार को सजाते हैं। दरबार के चंवर इस सुंदरी के बाल हैं। उनके कमान उसकी भौहैं हैं। खंजन पक्षी इसी ऋतु में आता है। वह इस सुंदरी की आँख है। (कवियों ने आँख की उपमा खंजन से दी है।) इस मौसम में कमल खिलते हैं। वह इस सुंदरी के पाँव हैं। स्वाति की बूंद से मोती बन जाता है, ऐसी कवि प्रसिद्धि है। यह गोया इस सुंदरी के हार हैं। इस मौसम में बादल आसमान में मिल जाता है कि जैसे सुंदरी ने अपना दमकता हुआ वक्ष कपड़े में छिपा लिया है। इन दिनों चाँदनी खूब निखरती है। यह गोया इस सुंदरी के लिए चंदन का लेप है। इस ऋतु में हंस आते हैं। ये गोया इस सुंदरी की मस्ताना चाल हैं। इन गुणों वाली सुंदरी अर्थात् शरद ऋतु दिलों को बस में कर लेती है।
[उर्दू मासिक पत्रिका, ‘जमाना’, जुलाई 1917 ]