कीचड़ के रास्ते न जा मामा : ओड़िआ/ओड़िशा की लोक-कथा

Keechad Ke Raste Na Ja Mama : Lok-Katha (Oriya/Odisha)

बैंगन के पौधे के नीचे एक मुर्ग़ी ने अपना घोंसला बना रखा था। एक दिन बैंगन का पौधा बोला, “उठ री मुर्ग़ी उठ, मुझमें खिला फूल। मुर्ग़ी बोली, “ना जाऊँ मैं, मेरा महीना हुआ बंद।

देखते-देखते बैंगन के पौधे में फूल आया, बैंगन लगा। उधर मुर्ग़ी ने अंडा दिया और उससे चूज़े निकले। चीं.. चीं.. की आवाज़ करते चूज़े मुर्ग़ी के पीछे दौड़ते दाना चुगते।

कोमल ताज़ा बैंगन बूढ़ा हो गया। पककर पीला हो गया। एक दिन मुर्ग़ी से बोला, “उठ री मुर्ग़ी उठ, अब मैं झड़ जाऊँगा।

मुर्ग़ी बोली, “तू गिरेगा तो गिर। मेरा शरीर कटकट कर रहा है। पैर मेरा टनक रहा है। मैं उठ न पाऊँगी।

मुर्ग़ी चूजों को लेकर सो रही थी। आधी रात को बैंगन धप से उसके सिर पर गिरा। छटपटाकर एक चीख़ मारकर मुर्ग़ी मर गई।

माँ की चीख़ सुनकर चूज़े डर से रोते हुए बोले,

'आया के सिर पर बैंगन गिरा चीं...चीं...'

चूज़ों ने अपने डैने हिलाकर हवा किया, नाख़ून से उसे खरोंचा, चोंच मारी, हर तरह की कोशिश की, पर माँ नहीं उठी। तब फिर वे रोने लगे।

'आया के सिर पर बैंगन गिरा चीं...चीं...'
'आया के सिर पर बैंगन गिरा चीं...चीं...'

बड़ा चूज़ा थोड़ा होशियार था। अपने भाई-बहनों को समझाते हुए बोला, तुम सब क्यों रो रहे हो? तुम्हारे रोने से क्या माँ लौट आएगी? वह चली गई। नहीं लौटेंगी। अब बताओ उसे जलाएँ कैसे? शव बासी हो जाएगा तो लोग क्या कहेंगे?

चूज़े बोले, हम क्या उपाय बताएँ? तुझे जो ठीक लग रहा है वह कर।

बड़ा चूज़ा शव को कंधा देने वाले को ढूँढ़ने निकला। जाते-जाते रास्ते में एक सियार को देखा। उससे बोला, “सियार मामा, सियार मामा, माँ को जलाकर आ।

सियार बोला, नहीं रे भांजे नहीं, तू लकड़बग्घे के पास जा।

चूज़ा लकड़बग्घे के पास जाकर बोला, “लकड़बग्घा मामा! लकड़बग्घा मामा! माँ को जलाकर आ।

लकड़बग्घा बोला, “नहीं भांजे नहीं, तू भालू के पास जा।”

चूज़ा भालू के पास गया। भालू बोला, “तू बंदर के पास जा।”
बंदर के पास चूज़ा गया तो बंदर बोला “कि तू बाघ के पास जा।”

चूज़ा बाघ के पास जाकर बोला, “बाघ मामा, बाघ मामा, माँ को जलाकर आ”

बाघ बोला, “ठीक है भांजे। चल चलते हैं।”

बाघ लंबे-लंबे डग भरते चला। बाक़ी चूज़ों ने सूखी लकड़ी इकट्ठी कर रखी थी। जले हुए जंगल से जलती लकड़ी ले आए थे। बाघ मरी हुई मुर्ग़ी, लकड़ी और जलती लकड़ी लेकर श्मशान गया। अर्थी को उठाते समय सारे चूज़े ख़ूब रोए। अब इस जीवन में माँ से भेंट नहीं होगी, माँ पुकारना अब यहीं ख़त्म हो गया।

बाघ ने मुर्ग़ी के पंख जला दिए और उसके माँस को परम आनंद के साथ खाया। पेड़ के नीचे सोया और शाम को चूज़ों के पास आकर पूछा, “क्यों बच्चो, तुम सब क्या कर रहे हो?”

मुर्ग़ी के बच्चों ने पूछा, “मामा, क्या आपने माँ को जला दिया? बाघ बोला, “हाँ भांजे और भांजिओ। अभी जलाकर आ रहा हूँ। बिन माँ के बच्चे क्या कर रहे होंगे, ऐसा सोचकर यहाँ आया। बहुत दूर चलना पड़ा। शव को जलाना बहुत कठिन काम है, बहुत थकान लग रही है। आधे सिर में दर्द भी है। कोई सिर थोड़ा दबा देता भला।”

मुर्ग़ी के बच्चों ने देखा कि मुर्ग़ी के रोएँ बाघ के मुँह में लगे हुए हैं। व्याकुल होकर चूज़े पूछने लगे, “मामा, माँ के रोएँ तुम्हारे मुँह पर कैसे चिपके हैं?” बाघ की जीभ थोड़ी लड़खड़ा गई। उसने कहा, “पंख...पंख कहाँ? हाँ लगे होंगे। शव को सिर पर उठाकर ले गया था न इसलिए। चलो निकाल दो मुँह से, उसे भी आग में डालकर आ जाऊँगा।”

“अच्छा बच्चो, यह बताओ कि आज तुम सब कहाँ सोओगे? माँ की आज ही मौत हुई है। कहीं भूत बनकर न आए। तुम्हें डर लग सकता है। देखो, यह जगह कितनी डरावनी लग रही है। मैं पहरा देने के लिए आऊँगा ज़रूर। मुझे तुम बस इतना बता दो कि कहाँ सोओगे तुम सब?

चूज़े बोले, “हम? हम ढेंकुली के पिछले हिस्से की तरफ़ सोएँगे।”

बाघ के चले जाने के बाद बड़ा भाई बोला, “अरे इसका क्या भरोसा? मुँह से न मीठी बात कर रहा है, जाने पेट में क्या है? माँसाहारी है वह, हमें देखकर कहीं उसकी लार न टपक रही हो। ऊपर से अच्छा बन रहा है। कौन जानता है, मुँह में हमें न डाल ले? हमें ख़ुद ही सतर्क रहना होगा। ढेंकुली के पिछले हिस्से में न सोकर चलो ढेंकुली के गड्ढे में सोते हैं।”

आधी रात को बाघ दबे पाँव आया। उसने सोचा कि ढेंकुली के पीछे जाकर एक झपट्टा मारेगा और चूज़ों को पकड़ लेगा। ढेंकुली के पिछले हिस्से पर टटोला, पर वह ख़ाली था। अरे, गए कहाँ सब? ग़ुस्से से पूँछ पटककर बाघ वापस जंगल चला गया।

कालरात्रि बीत गई। सुबह सारे चूज़े दाना चुगने गए। शाम के समय बाघ फिर आया और पूछा, “अरे भांजे और भांजियो, कल रात कहाँ सोए थे तुम सब? पहरा देने के लिए आकर पिछले हिस्से में कितना ढूँढ़ा। कल डरे तो नहीं तुम सब?”

बड़ा चूजा बोला, “हाँ मामा, ढेंकुली के पिछले हिस्से में माँ का भूत डराने लगा तो ढेंकुली के गड्ढे में सोए।”

बाघ ने पूछा, “आज कहाँ सोओगे?”

चूज़ों ने कहा, “मामा, आज भी वहीं सोएँगे।”

ऐसा कह तो दिया, पर रात को लौकी के तूंबे में जाकर सो गए। बाघ ने रात में आकर ढेंकुली के गड्ढे में खोजा। कहीं भी चूज़ों को न पाकर लौकी का तूंबा लेकर चला।

अब चूज़े सोच में पड़ गए। अब तो बात ख़त्म हुई जानो, ज़रूर हमें खा जाएगा। बड़ा चूज़ा एक उपाय सोचकर बोला, “कीचड़ के रास्ते न जा मामा, बिछलन (फिसलन) के रास्ते जा।

कीचड़ के रास्ते में बाघ का पैर अंदर धँसा जा रहा था। डरते हुए बाघ सोच रहा था कहीं गिर न जाए। तभी ऊपर से फिर आवाज़ आई।

कीचड़ के रास्ते न जा मामा, बिछलन के रास्ते जा।

बाघ बोला, “कौन, कहाँ से बोल रहा है? क्या मेरी भलाई की बात कह रहे हो?”

ऐसा सोचकर फिसलन के रास्ते गया। उसका पैर फिसला और पछाड़ खाकर गिरा। लौकी का तूंबा टूट कर टुकड़े-टुकड़े हो गया। चूज़े सारे निकलकर जिधर रास्ता मिला उधर कूद कर भागे। बाघ सिर पर हाथ रखकर बैठ गया। उसकी आँखों से चिंगारी निकलने लगी।

मेरी बात ख़त्म हुई।

(साभार : ओड़िशा की लोककथाएँ, संपादक : महेंद्र कुमार मिश्र)

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