कायाकल्प (उपन्यास) : मुंशी प्रेमचंद

Kayakalp (Novel): Munshi Premchand

कायाकल्प : अध्याय पच्चीस

आगरे के हिंदुओं और मुसलमानों में आए दिन जूतियां चलती रहती थीं। जरा-जरा-सी बात पर दोनों दलों के सिरफिरे जमा हो जाते और दो-चार के अंग-भंग हो जाते। कहीं बनिए ने डंडी मार दी और मुसलमनों ने उसकी दुकान पर धावा कर दिया, कहीं किसी जुलाहे ने किसी हिंदू का घड़ा छू लिया और मुहल्ले में फौजदारी हो गई। एक मुहल्ले में मोहन ने रहीम का कनकौआ लूट लिया और इसी बात पर मुहल्ले भर के हिंदुओं के घर लुट गए; दूसरे मुहल्ले में दो कुत्तों की लड़ाई पर सैकड़ों आदमी घायल हुए, क्योंकि एक सोहन का कुत्ता था, दूसरा सईद का। निज के रगड़े-झगड़े साम्प्रदायिक संग्राम के क्षेत्र में खींच लाए जाते थे। दोनों ही दल मजहब के नशे में चूर थे। मुसलमानों ने बजाजे खोले, हिंदू नैंचे बांधने लगे। सुबह को ख्वाजा साहब हाकिम जिला को सलाम करने जाते, शाम को बाबू यशोदानंदन। दोनों अपनी-अपनी राजभक्ति का राग अलापते। दोनों के देवताओं के भाग्य जागे जहां कुत्ते निद्रोपासना किया करते, वहां पुजारी जी की भंग घटने लगी। मसजिदों के दिन फिरे, मुल्लाओं ने अबाबीलों को बेदखल कर दिया। जहां सांड जुगाली करता था, वहां पीर साहब की हड़िया चढ़ी। हिंदुओं ने 'महावीर दल' बनाया, मुसलमानों ने 'अलीगोल' सजाया। ठाकुरद्वारे में ईश्वर-कीर्तन की जगह नबियों की निंदा होती थी, मसजिदों में नमाज की जगह देवताओं की दुर्गति। ख्वाजा साहब ने फतवा दिया-जो मुसलमान किसी हिंदू औरत को निकाल ले जाए , उसे एक हजार हजों का सबाब होगा। यशोदानंदन ने काशी के पंडितों की व्यवस्था मंगवाई कि एक मुसलमान का वध एक लाख गोदानों से श्रेष्ठ है।

होली के दिन थे। गलियों में गुलाल के छींटे उड़ रहे थे। इतने जोश से कभी होली न मनाई गई थी। वे नई रोशनी के हिंदू-भक्त, जो रंग को भूखा भेड़िया समझते थे या पागल गीदड़, आज जीते-जागते इन्द्रधनुष बने हुए थे। संयोग से एक मियां साहब मुर्गी हाथ में लटकाए कहीं से चले जा रहे थे। उनके कपड़े पर दो-चार छींटे पड़ गए। बस, गजब ही तो हो गया, आफत ही तो आ गई। सीधे जामे मस्जिद पहुंचे और मीनार पर चढ़कर बांग दी-'ऐ उम्मते रसूल ! आज एक काफिर के हाथों मेरे दीन का खून हुआ है। उसके छींटे मेरे कपड़ों पर पड़े हुए हैं। या तो काफिर से इस खून का बदला लो, या मैं मीनार से गिरकर नबी की खिदमत में फरियाद सुनाने जाऊं। बोलो, क्या मंजूर है? शाम तक मुझे इसका जवाब न मिला, तो तुम्हें मेरी लाश मस्जिद के नीचे नजर आएगी।'

मुसलमानों ने यह ललकार सुनी और उनकी त्योरियां बदल गईं। दीन का जोश सिर पर सवार हो गया। शाम होते-होते दस हजार आदमी सिरों से कफन लपेटे, तलवारें लिए, जामे मस्जिद के सामने आकर दीन के खून का बदला लेने के लिए जमा हो गए।

सारे शहर में तहलका मच गया। हिंदुओं के होश उड़ गए। होली का नशा हिरन हो गया। पिचकारियां छोड़-छोड़ लोगों ने लाठियां संभाली, लेकिन यहां कोई जामे मस्जिद न थी, न वह ललकार, न वह दीन का जोश। सबको अपनी-अपनी पड़ी हुई थी।

बाबू यशोदानंदन कभी इस अफसर के पास जाते, कभी उस अफसर के। लखनऊ तार भेजे, दिल्ली तार भेजे, मुस्लिम नेताओं के नाम तार भेजे, लेकिन कोई फल न निकला। इतनी जल्द कोई इंतजाम न हो सकता था। अगर वह यही समय हिंदुओं को संगठित करने में लगाते, तो शायद बराबर का जोड़ हो जाता; लेकिन वह हुक्काम पर आशा लगाए बैठे रहे। और अंत में वह निराश होकर उठे, तो मुस्लिम वीर धावा बोल चुके थे। वे 'अली! अली' का शोर मचाते चले जाते थे कि बाबू साहब सामने नजर आ गए। फिर क्या था। सैकड़ों आदमी 'मारो!' कहते हुए लपके। बाबू साहब ने पिस्तौल निकाली और शत्रुओं के सामने खड़े हो गए। सवाल जवाब कौन करता? उन पर चारों तरफ से वार होने लगे।

पिस्तौल चलाने की नौबत भी न आई, यही सोचते खड़े रह गए कि समझाने से ये लोग शांत हो जाएं तो क्यों किसी की जान लूं। अहिंसा के आदर्श ने हिंसा का हथियार हाथ में होने पर भी उनका दामन न छोड़ा।

यह आहुति पाकर अग्नि और भी भड़की। खून का मजा पाकर लोगों का जोश दूगना हो गया। अब फतह का दरवाजा खुला हुआ था। हिंदू मुहल्लों के द्वार बंद हो गए। बेचारे कोठरियों में बैठे जान की खैर मना रहे थे, देवताओं से विनती कर रहे थे कि यह संकट हरो। रास्ते में जो हिंदू मिला, वह पिटा; घर लुटने लगे। 'हाय-हाय' का शोर मच गया। दीन के नाम पर ऐसे-ऐसे कर्म होने लगे, जिन पर पशुओं को भी लज्जा आती, पिशाचों के भी रोएं खडे हो जाते।

लेकिन बाब यशोदानंदन के मरने की खबर पाते ही सेवादल के युवकों का खून खौल उठा। आसन पर चोट पहुँचते ही अड़ियल टटू और गरियाल बैल भी संभल जाते हैं। घोड़ा कनौतियां खड़ी करता है, बैल उठ बैठता है। यशोदानंदन का खून हिंदुओं के लिए आसन की चोट थी। सेवादल के दो सौ युवक तलवारें लेकर निकल पड़े और मुसलमान मुहल्लों में घुसे। दो-चार पिस्तौल और बंदकें भी खोज निकाली गईं। हिंदू मुहल्लों में जो कुछ मुसलमान कर रहे थे, मुसलमान मुहल्लों में वही हिंदू करने लगे। अहिंसा ने हिंसा के आगे सिर झुका दिया। वे ही सेवा-व्रतधारी युवक, जो दीनों पर जान देते थे, अनाथों को गले लगाते थे और रोगियों की शुश्रुषा करते थे, इस समय निर्दयता के पुतले बने हुए थे। पाशविक वृत्तियों ने कोमल वृत्तियों का संहार कर दिया था। उन्हें न तो दीनों पर दया आती थी, न अनाथों पर। हंस-हंसकर भाले और छुरे चलाते थे, मानो लड़के गुड़ियां पीट रहे हों। उचित तो यह था कि दोनों दलों के योद्धा आमने-सामने खड़े हो जाते और खूब दिल के अरमान निकालते; लेकिन कायरों की वीरता और वीरों की वीरता में बड़ा अंतर है।

सहसा खबर उड़ी कि यशोदानंदन के घर में आग लगा दी गई है और दूसरे घरों में आग लगाई जा रही है। सेवादल वालों के कान खड़े हुए। यहां उनकी पैशाचिकता ने भी हार मान ली। तय हो गया कि अब या तो वे ही रहेंगे, या हमीं रहेंगे। दोनों अब इस शहर में नहीं रह सकते। अब निपट ही लेना चाहिए, जिससे हमेशा के लिए बाधा दूर हो जाए। दो-ढाई हजार आदमियों का दल डबल मार्च करता हुआ उस स्थान को चला, जहां यह बड़वानल दहक रहा था। मिनटों की राह पलों में कटी। रास्ते में सन्नाटा था। दूर ही से ज्वाला-शिखर आसमान से बातें करता दिखाई दिया। चाल और भी तेज की और एक क्षण में लोग अग्नि-कुंड के सामने जा पहुंचे। देखा, तो वहां किसी मुसलमान का पता नहीं, आग लगी है; लेकिन बाहर की ओर। अंदर जाकर देखा तो घर खाली पड़ा हुआ था। वागीश्वरी एक कोठरी में द्वार बंद किए बैठी थी। इन्हें देखते ही वह रोती हुई बाहर निकल आई और बोली-हाय मेरी अहिल्या ! अरे दौड़ो, उसे ढूंढो, पापियों ने न जाने उसकी क्या दुर्गति की। हाय ! मेरी बच्ची!

एक युवक ने पूछा-क्या अहिल्या को उठा ले गए?

वागीश्वरी-हां भैया ! उठा ले गए। मना कर रही थी कि एरी बाहर मत निकल; अगर मरेंगे तो साथ ही मरेंगे, लेकिन न मानी। ज्यों ही दुष्टों ने घर में कदम रखा, बाहर निकलकर उन्हें समझाने लगी। हाय ! उसकी बातों को न भूलूंगी। आप तो गए ही थे, उसका भी सर्वनाश किया। नित्य समझाती रही, इन झगड़ों में न पड़ो! न मुसलमानों के लिए दुनिया में कोई दूसरा ठौर-ठिकाना है, न हिंदुओं के लिए। दोनों इसी देश में रहेंगे और इसी देश में मरेंगे। फिर आपस में क्यों लडे मरते हो, क्यों एक-दूसरे को निगल जाने पर तुले हुए हो? न तुम्हारे निगले वे निगले जाएंगे, न उनके निगले तुम निगले जाओगे, मिल-जुलकर रहो, उन्हें बड़े होकर रहने दो, तुम छोटे ही होकर रहो, मगर मेरी कौन सुनता है। स्त्रियां तो पागल हो जाती हैं, यों ही भूका करती हैं। मान गए होते, तो आज क्यों यह उपद्रव होता! आप जान से गए, बच्ची भी हर ली गई, और न जाने क्या होना है? जलने दो घर, घर लेकर क्या करना है, तुम जाकर मेरी बच्ची को तलाश करो। जाकर ख्वाजा महमूद से कहो, उसका पता लगाएं। हाय ! एक दिन वह था कि दोनों आदमियों में दांत-काटी रोटी थी। ख्वाजा साहब उनके साथ प्रयाग गए थे और अहिल्या को उन्होंने पाया था। आज यह हाल है ! कहना, तुम्हें लाज नहीं आती? जिस लड़की को बेटी बनाकर मेरी गोद में सौंपा था, जिसके विवाह में पांच हजार खर्च करने वाले थे, उसकी उन्हीं के पिछलगुओं के हाथों यह दुर्गति। हमसे अब उनकी क्या दुश्मनी ! उनका दुश्मन तो परलोक सिधारा ! हाय भगवान् ! बहुत-से आदमी मत जाओ। चार आदमी काफी हैं। उनकी लाश भी ढूंढो। कहीं आस-पास होगी। घर से निकलते ही तो दुष्टों से उनका सामना हो गया था।

वागीश्वरी तो यह विलाप कर रही थी, बाहर अग्नि को शांत करने का यत्न किया जा रहा था, लेकिन पानी के छींटे उस पर तेल का काम करते थे। बारे फायर इंजिन समय पर आ पहुंचा और अग्नि का वेग कम हुआ। फिर भी लपटें किसी सांप की तरह जरा देर के लिए छिपकर फिर किसी दूसरी जगह जा पहुँचती थीं। संध्या समय जाकर आग बुझी।

उधर लोग ख्वाजा साहब के पास पहुंचे, तो क्या देखते हैं कि मुंशी यशोदानंदन की लाश रखी हुई है और ख्वाजा साहब बैठे रो रहे हैं। इन लोगों को देखते ही बोले-तुम समझते होंगे, यह मेरा दुश्मन था। खुदा जानता है, मुझे अपना भाई और बेटा भी इससे ज्यादा अजीज नहीं। अगर मुझ पर किसी कातिल का हाथ उठता, तो यशोदानंदन उस वार को अपनी गर्दन पर रोक लेता। शायद मैं भी उसे खतरे में देखकर अपनी जान को परवा न करता। फिर भी हम दोनों की जिंदगी के आखिरी साल मैदानबाजी में गुजरे और आज उसका यह अंजाम हुआ। खुदा गवाह है, मैंने हमेशा इत्तहाद की कोशिश की। अब भी मेरा यह ईमान है कि इत्तहाद ही से इस बदनसीब कौम की नजात होगी। यशोदानंदन भी इत्तहाद का उतना ही हामी था जितना मैं। शायद मुझसे भी ज्यादा, लेकिन खुदा जाने वह कौन-सी ताकत थी, जो हम दोनों को बरसरेजंग रखती थी। हम दोनों दिल से मेल करना चाहते थे पर हमारी मर्जी के खिलाफ कोई दैवी ताकत हमको लड़ाती रहती थी। आप लोग नहीं जानते हो, मेरी इससे कितनी गहरी दोस्ती थी। दोनों एक ही मकतब में पढ़े, एक ही स्कूल में तालीम पाई, एक ही मैदान में खेले। यह मेरे घर पर आता था, मेरी अम्मांजान इसको मुझसे ज्यादा चाहती थीं, इसकी अम्मांजान मुझे इससे ज्यादा। उस जमाने की तस्वीर आज आंखों के सामने फिर रही है। कौन जानता था, उस दोस्ती का यह अंजाम होगा। यह मेरा प्यारा यशोदा है, जिसकी गर्दन में बाहें डालकर मैं बागों की सैर किया करता था। हमारी सारी दुश्मनी पसे-पुश्त होती थी। रू-ब-रू मारे शर्म के हमारी आंखें ही न उठती थीं। आह ! काश, मालूम हो जाता कि किस बेरहम ने मुझ पर यह कातिल वार किया ! खुदा जानता है, इन कमजोर हाथों से उसकी गर्दन मरोड़ देता।

एक युवक-हम लोग लाश को क्रिया-कर्म के लिए ले जाना चाहते हैं।

ख्वाजा-ले जाओ भई, ले जाओ, मैं भी साथ चलूंगा। मेरे कंधा देने में कोई हर्ज है ! इतनी रियायत तो मेरे साथ करनी ही पड़ेगी। मैं पहले मरता, तो यशोदा सिर पर खाक उड़ाता हुआ मेरी मजार तक जरूर जाता।

युवक-अहिल्या को भी लोग उठा ले गए। माताजी आपसे...

ख्वाजा-क्या, अहिल्या! मेरी अहिल्या को! कब?

युवक-आज ही। घर में आग लगाने से पहले।

ख्वाजा-कलामे मजीद की कसम, जब तक अहिल्या का पता न लगा लूंगा, मुझे दाना-पानी हराम है। तुम लोग लाश ले जाओ, मैं अभी आता हूँ। सारे शहर की खाक छान डालूंगा, एक-एक घर में जाकर देखूगा, अगर किसी बेदीन ने मार नहीं डाला, तो जरूर खोज निकालूंगा। हाय मेरी बच्ची ! उसे मैंने मेले में पाया था ! खड़ी रो रही थी। कैसी भोली-भोली, प्यारी-प्यारी बच्ची थी! मैंने उसे छाती से लगा लिया था और लाकर भाभी की गोद में डाल दिया था। कितनी बातमीज, बाशऊर, हसीन लड़की थी। तुम लोग लाश को ले जाओ, मैं शहर का चक्कर लगाता हुआ जमुना किनारे आऊंगा। भाभी से मेरी तरफ से अर्ज कर देना, मुझसे मलाल न रखें। यशोदा नहीं है, लेकिन महमूद है। जब तक उसके दम में दम है, उन्हें कोई तकलीफ न होगी। कह देना, महमूद या तो अहिल्या को खोज निकालेगा, या मुंह में कालिख लगाकर डूब मरेगा।

यह कहकर ख्वाजा साहब उठ खड़े हुए, लकड़ी उठाई और बाहर निकल गए।

छब्बीस

चक्रधर ने उस दिन लौटते ही पिता से आगरे जाने की अनुमति मांगी। मनोरमा ने उनके मर्मस्थल में जो आग लगा दी थी, वह आगरे ही में अहिल्या के सरल, स्निग्ध स्नेह की शीतल छाया में शांत हो सकती थी। उन्हें अपने ऊपर विश्वास न था। वह जिंदगी-भर मनोरमा को देखा करते और मन में कोई बात न आती; लेकिन मनोरमा ने पुरानी स्मृतियों को जगाकर उनके अंतस्थल में तृष्णा, उत्सुकता और लालसा को जागृत कर दिया था। इसलिए अब वह मन को ऐसी दृढ़ रस्सी से बांधना चाहते थे कि वह हिल भी न सके। वह अहिल्या की शरण लेना चाहते थे।

मुंशीजी ने जरा त्योरी चढ़ाकर कहा-तुम्हारे सिर अब तक वह नशा सवार है? यों तुम्हारी इच्छा सैर करने की हो तो रुपए-पैसे की कमी नहीं; लेकिन तुम्हें वादा करना पड़ेगा कि तुम मुंशी यशोदानंदन से न मिलोगे।

चक्रधर-मैं उनसे मिलने ही तो जा रहा हूँ।

वज्रधर-मैं कहे देता हूँ, अगर तुमने वहां शादी की बातचीत की, तो बुरा होगा, तुम्हारे लिए भी और मेरे लिए भी।

चक्रधर और कुछ न बोल सके। आते-ही-आते माता-पिता को कैसे अप्रसन्न कर देते।

लेकिन जब होली के तीसरे दिन उन्हें आगरे में उपद्रव, बाबू यशोदानंदन की हत्या और अहिल्या के अपहरण का शोक समाचार मिला, तो उन्होंने व्यग्रता में आकर पिता को वह पत्र सुना दिया और बोले-मेरा वहां जाना बहुत जरूरी है।

वज्रधर ने निर्मला की ओर ताकते हुए कहा-क्या अभी जेल से जी नहीं भरा जो फिर चलने की तैयारी करने लगे। वहां गए और पकड़े गए, इतना समझ लो। वहां इस वक्त अनीति का राज्य है, अपराध कोई न देखेगा। हथकड़ी पड़ जाएगी। और फिर जाकर करोगे ही क्या? जो कुछ होना था, हो चुका; अब जाना व्यर्थ है।

चक्रधर-कम-से-कम अहिल्या का पता तो लगाना ही होगा।

वज्रधर-यह भी व्यर्थ है। पहले तो उसका पता लगाना ही मुश्किल है और लग भी गया तो तुम्हारा अब उससे क्या संबंध? जब वह मुसलमानों के साथ रह चुकी, तो कौन हिंदू उसे पूछेगा?

चक्रधर-इसीलिए तो मेरा जाना और भी जरूरी है।

निर्मला-लड़की को मर्यादा की कुछ लाज होगी, तो वह अब तक जीती ही न होगी; अगर जीती है तो समझ लो कि भ्रष्ट हो गई।

चक्रधर-अम्मां, कभी-कभी आप ऐसी बात कह देती हैं, जिस पर हंसी आती है। प्राण भय से बड़े-बड़े शूर वीर भूमि पर मस्तक रगड़ते हैं, एक अबला की हस्ती ही क्या ! भ्रष्ट वह होती है, जो दुर्वासना से कोई कर्म करे। जो काम हम प्राण भय से करें, वह हमें भ्रष्ट नहीं कर सकता।

वज्रधर-मैं तुम्हारा मतलब समझ रहा हूँ, लेकिन तुम उसे चाहे सती समझो, हम उसे भ्रष्ट ही समझेंगे। ऐसी बहू के लिए हमारे घर में स्थान नहीं है।

चक्रधर ने निश्चयात्मक भाव से कहा-वह आपके घर में न आएगी।

वज्रधर ने भी उतने ही निर्दय शब्द में उत्तर दिया-अगर तुम्हारा खयाल हो कि पुत्रस्नेह के वश होकर मैं उसे अंगीकार कर लूंगा, तो तुम्हारी भूल है। अहिल्या मेरी कुलदेवी नहीं हो सकती, चाहे इसके लिए मुझे पुत्र-वियोग ही सहना पड़े। मैं भी जिद्दी हूँ।

चक्रधर पीछे घूमे ही थे कि निर्मला ने उनका हाथ पकड़ लिया और स्नेहपूर्ण तिरस्कार करती हुई बोली-बच्चा, तुमसे ऐसी आशा न थी। अब भी हमारा कहना मानो, हमारे कुल के मुंह में कालिख न लगाओ।

चक्रधर ने हाथ छुड़ाकर कहा-मैंने आपकी आज्ञा कभी भंग नहीं की; लेकिन इस विषय में मजबूर हूँ।

वज्रधर ने श्लेष के भाव से कहा-साफ-साफ क्यों नहीं कह देते कि हम आप लोगों से अलग रहना चाहते हैं।

चक्रधर-अगर आप लोगों की यही इच्छा है तो मैं क्या करूं?

वज्रधर-यह तुम्हारा अंतिम निश्चय है?

चक्रधर-जी हां, अंतिम!

यह कहते हुए चक्रधर बाहर निकल आए और कुछ कपड़े साथ लेकर स्टेशन की ओर चल दिए।

थोड़ी देर के बाद निर्मला ने कहा-लल्लू किसी भ्रष्ट स्त्री को खुद ही न लाएगा। तुमने व्यर्थ उसे चिढ़ा दिया।

वज्रधर ने कठोर स्वर में कहा-अहिल्या के भ्रष्ट होने में अभी कुछ कसर है?

निर्मला-यह तो मैं नहीं जानती; पर इतना जानती हूँ कि लल्लू को अपने धर्म-अधर्म का ज्ञान है। वह कोई ऐसी बात न करेगा, जिसमें निंदा हो।

वज्रधर-तुम्हारी बात समझ रहा हूँ। बेटे का प्यार खींच रहा हो, तो जाकर उसी के साथ रहो। मैं तुम्हें रोकना नहीं चाहता। मैं अकेले भी रह सकता हूँ।

निर्मला-तुम तो जैसे म्यान से तलवार निकाले बैठे हो। वह विमन होकर कहीं चला गया तो?

वज्रधर-तो मेरा क्या बिगड़ेगा? मेरा लड़का मर जाए, तो भी गम न हो !

निर्मला-अच्छा, बस मुंह बंद करो, बड़े धर्मात्मा बनकर आए हो। रिश्वतें ले-लेकर हड़पते हो, तो धर्म नहीं जाता; शराबें उड़ाते हो, तो मुंह में कालिख नहीं लगती; झूठ के पहाड़ खड़े करते हो, तो पाप नहीं लगता। लड़का एक अनाथिनी की रक्षा करने जाता है, तो नाक कटती है। तुमने कौन-सा कुकर्म नहीं किया? अब देवता बनने वले हो !

निर्मला के मुख से मुंशीजी ने ऐसे कठोर शब्द कभी न सुने थे। वह तो शील, स्नेह और पतिभक्ति की मूर्ति थी, आज कोप और तिरस्कार का रूप धारण किए हुए थी। उनकी शासक वत्तियां उत्तेजित हो गईं। डांटकर बोले-सुनो जी, मैं ऐसी बातें सुनने का आदी नहीं हूँ। बातें तो नहीं सनी मैंने अपने अफसरों की, जो मेरे भाग्य के विधाता थे। तुम किस खेत की मूली हो! जबान तालू से खींच लूंगा, समझ गई? समझती हो न कि बेटा जवान हुआ। अब इस बुड्ढे की क्यों परवा करने लगीं। तो जाकर उसी भ्रष्ट के साथ रहो। इस घर में तुम्हारी जरूरत नहीं।

यह कहकर मुंशीजी बाहर चले गए और सितार पर एक गत छेड़ दी।

चक्रधर आगरे पहुंचे तो सबेरा हो गया था। प्रभात के रक्तरंजित मर्मस्थल में सूर्य यो मुह छिपाए बैठे थे, जैसे शोक-मंडित नेत्र में अश्रु-बिंदु। चक्रधर का हृदय भांति-भांति की दुर्भावनाओं से पीड़ित हो रहा था। एक क्षण तक वह खड़े सोचते रहे, कहाँ जाऊं! बाबू यशोदानंदन के घर जाना व्यर्थ था। अंत को उन्होंने ख्वाजा महमूद के घर चलना निश्चय किया। ख्वाजा साहब पर अब भी उनकी असीम श्रद्धा थी। तांगे पर बैठकर चले, तो शहर में सैनिक चक्कर लगाते दिखाई दिए। दुकानें सब बंद थीं।

ख्वाजा साहब के द्वार पर पहुंचे, तो देखा कि हजारों आदमी एक लाश को घेरे खड़े हैं और उसे कब्रिस्तान ले चलने की तैयारियां हो रही हैं ! चक्रधर तुरंत तांगे से उतर पड़े और लाश के पास जाकर खड़े हो गए ! कहीं ख्वाजा साहब तो नहीं कत्ल कर दिए गए। वह किसी से पूछने ही जा रहे थे कि सहसा ख्वाजा साहब ने आकर उनका हाथ पकड़ लिया और आंखों में आंसू भरकर बोले-खूब आए बेटा, तुम्हें आंखें ढूंढ रही थीं। अभी-अभी तुम्हारा ही जिक्र था,खुदा तुम्हारी उम्र दराज करे। मातम के बाद खुशी का दौर आएगा। जानते हो, यह किसकी लाश है? यह मेरी आंखों का नूर, मेरे दिल का सरूर, मेरा लख्तेजिगर, मेरा इकलौता बेटा है, जिस पर जिंदगी की सारी उम्मीदें कायम थीं। अब तुम्हें उसकी सूरत याद आ गई होगी। कितना खुशरू जवान था। कितना दिलेर ! लेकिन खुदा जानता है, उसकी मौत पर मेरी आंखों से एक बूंद आंसू भी न निकला। तुम्हें हैरत हो रही होगी; मगर मैं बिल्कुल सच कह रहा हूँ। एक घंटा पहले तक मैं उस पर निसार होता था। अब उसके नाम से नफरत हो रही है। उसने वह फैल किया, जो इंसानियत के दर्जे से गिरा हुआ था। तुम्हें अहिल्या के बारे में तो खबर मिली होगी?

चक्रधर-जी हां, शायद बदमाश लोग पकड़ ले गए।

ख्वाजा-यह वही बदमाश है, जिसकी लाश तुम्हारे सामने पड़ी हुई है। वह इसी की हरकत थी। मैं तो सारे शहर में अहिल्या को तलाश करता फिरता था और वह मेरे ही घर में कैद थी। यह जालिम उस पर जब्र करना चाहता था। जरूर किसी ऊंचे खानदान की लड़की है। काश, इस मुल्क में ऐसी और लड़कियां होती ! आज उसने मौका पाकर इसे जहन्नुम का रास्ता दिखा दिया-छरी सीने में भोंक दी। जालिम तड़प-तड़पकर मर गया। कम्बख्त जानता था कि अहिल्या मेरी लडकी है फिर भी अपनी हरकत से बाज न आया। ऐसे लड़के की मौत पर कौन बाप रोएगा? तुम बडे खुशनसीब हो, जो ऐसी पारसा बीवी पाओगे।

चक्रधर--मुझे यह सुनकर बहुत अफसोस हुआ। मुझे आपके साथ कामिल हमदर्दी है, आपका-सा इंसाफपरवर, हकपरस्त आदमी इस वक्त दुनिया में न होगा। अहिल्या अब कहाँ है?

ख्वाजा-इसी घर में। सुबह से कई बार कह चुका हूँ कि चल तुझे तेरे घर पहुंचा आऊ जाती ही नहीं। बस, बैठी रो रही है।

चक्रधर का हृदय भय से कांप उठा। अहिल्या पर अवश्य ही हत्या का अभियोग चलाया जाए गा और न जाने क्या फैसला हो। चिंतित स्वर में पूछा-अहिल्या पर तो अदालत में...

ख्वाजा-हरगिज नहीं। उसने हर एक लड़की के लिए नमूना पेश कर दिया। खुदा और रसूल दोनों उसे दुआ दे रहे हैं। फरिश्ते उसके कदमों का बोसा ले रहे हैं। उसने खून नहीं किया, कत्ल नहीं किया, अपनी असमत की हिफाजत की, जो उसका फर्ज था। यह खुदाई कहर था, जो छुरी बनकर उसके सीने में चुभा। मुझे जरा भी मलाल नहीं है। खुदा की मरजी में इंसान का क्या दखल?

लाश उठाई गई। शोक समाज पीछे-पीछे चला। चक्रधर भी ख्वाजा साहब के साथ कब्रिस्तान तक गए। रास्ते में किसी ने बातचीत न की। जिस वक्त लाश कब्र में उतारी गई, ख्वाजा साहब रो पड़े। हाथों से मिट्टी दे रहे थे और आंखों से आंसू की बूंदें मरने वाले की लाश पर गिर रही थीं। यह क्षमा के आंसू थे। पिता ने पुत्र को क्षमा कर दिया था। चक्रधर भी आंसुओं को न रोक सके। आह! इस देवता स्वरूप मनुष्य पर इतनी घोर विपत्ति !

दोपहर होते-होते लोग घर लौटे। ख्वाजा साहब जरा दम लेकर बोले-आओ बेटा, तुम्हें अहिल्या के पास ले चलूं। उसे जरा तस्कीन दो। मैंने जिस दिन से उसे भाभी को सौंपा, यह अहद किया था कि इसकी शादी मैं करूंगा। मुझे मौका दो कि अपना अहद पूरा करूं।

यह कहकर ख्वाजा साहब ने चक्रधर का हाथ पकड़ लिया और अंदर चले। चक्रधर का हृदय बांसों उछल रहा था। अहिल्या के दर्शनों के लिए वह इतने उत्सुक कभी न थे। उन्हें ऐसा अनुमान हो रहा था कि अब उसके मुख पर माधुर्य की जगह तेजस्विता का आभास होगा, कोमल नेत्र कठोर हो गए होंगे, मगर जब उस पर निगाह पड़ी, तो देखा-वही सरल, मधुर छवि थी, वही करुण कोमल नेत्र, वही शीतल मधुर वाणी। वह एक खिड़की के सामने खड़ी बगीचे की ओर ताक रही थी। सहसा चक्रधर को देखकर वह चौंक पड़ी और चूंघट में मुंह छिपा लिया। फिर एक ही क्षण के बाद वह उनके पैरों को पकड़कर अश्रुधारों से धोने लगी। उन चरणों पर सिर रखे हुए उसे स्वर्गीय सांत्वना, एक दैवी शक्ति, एक धैर्यमय छवि का अनुभव हो रहा था।

चक्रधर ने कहा-अहिल्या, तुमने जिस वीरता से आत्मरक्षा की, उसके लिए तुम्हें बधाई देता हूँ। तुमने वीर क्षत्राणियों की कीर्ति को उज्ज्वल कर दिया। दुःख है, तो इतना ही कि ख्वाजा साहब का सर्वनाश हो गया।

अहिल्या ने उत्तर न दिया। चक्रधर के चरणों पर सिर झुकाए बैठी रही। चक्रधर फिर बोले-मुझे लज्जित न करो, अहिल्या ! मुझे तुम्हारे चरणों पर सिर झुकाना चाहिए, तुम बिल्कुल उल्टी बात कर रही हो। कहाँ है वह छुरी जरा उसके दर्शन तो कर लूं।

अहिल्या ने उठकर कांपते हुए हाथों से फर्श का कोना उठाया और नीचे से छुरी निकालकर चक्रधर के सामने रख दी। उस पर रुधिर जमकर काला हो गया था।

चक्रधर ने पूछा-यह छुरी यहां कैसे मिल गई, अहिल्या? क्या साथ लेती आई थीं?

अहिल्या ने सिर झुकाए हुए जवाब दिया-उसी की है।

चक्रधर-तुम्हें कैसे मिल गई?

अहिल्या ने सिर झुकाए ही जवाब दिया-यह न पूछिए। अबला के पास कौशल के सिवाय आत्मरक्षा का कौन-सा साधन है?

चक्रधर-यही तो सुनना चाहता हूँ, अहिल्या !

अहिल्या ने सिर उठाकर चक्रधर की ओर मानपूर्ण नेत्रों से देखा और बोली-सुनकर क्या कीजिएगा?

चक्रधर-कुछ नहीं, यों ही पूछ रहा था।

अहिल्या-नहीं, आप यों ही नहीं पूछ रहे हैं, आपका इसमें कोई प्रयोजन अवश्य है। अगर भ्रम है, तो मेरी अग्नि-परीक्षा ले लीजिए।

चक्रधर ने देखा, बात बिगड रही है। इस एक असामयिक प्रश्न ने इसके हृदय के टूट हुए तार को चोट पहुंचा दी। वह समझ रही है, मैं इस पर संदेह कर रहा हूँ। संभावना की कल्पना ने इसे सशंक बना दिया है! बोले-तुम्हारी अग्नि-परीक्षा तो हो चुकी अहिल्या और तुम उसमें खरी निकलीं। अब भी अगर किसी के मन में संदेह हो, तो यही कहना चाहिए कि वह अपनी बुद्धि खो बैठा है। तुम नवकुसुमित पुष्प की भांति स्वच्छ, निर्मल और पवित्र हो; तुम पहाड़ की चोटी पर जमी हुई हिम की भांति उज्ज्वल हो। मेरे मन में संदेह का लेश भी होता, तो मुझे यहां खड़ा न देखतीं! वह प्रेम और अखंड विश्वास, जो अब तक मेरे मन में था, कल प्रत्यक्ष हो जाएगा। अहिल्या, मैं कब का तुम्हें अपने हृदय में बिठा चुका। वहां तुम सुरक्षित बैठी हुई हो, संदेह और कलंक का घातक हाथ उसी वक्त पहुंचेगा, जब (छाती पर हाथ रखकर) यह अस्थि दुर्ग विध्वंश हो जाएगा। चलो, चलें। माताजी घबरा रही होंगी!

यह कहकर उन्होंने अहिल्या का हाथ पकड़ लिया और चाहा कि हृदय से लगा लें, लेकिन वह हाथ छुड़ाकर हट गई और कांपते हुए स्वर में बोली-नहीं-नहीं, मेरे अंग को मत स्पर्श कीजिए। सूंघा हुआ फूल देवताओं पर नहीं चढ़ाया जाता। मेरी आत्मा निष्कलंक है; लेकिन मैं अब वहां न जाऊंगी, कहीं न जाऊंगी। आपकी सेवा करना मेरे भाग्य में न था, मैं जन्म से अभागिनी हूँ, आप जाकर अम्मां को समझा दीजिए। मेरे लिए अब दुःख न करें। मैं निर्दोष हूँ, लेकिन इस योग्य नहीं कि आपकी प्रेमपात्री बन सकू।

चक्रधर से अब न रहा गया। उन्होंने फिर अहिल्या का हाथ पकड़ लिया और जबरदस्ती छाती से लगाकर बोले-अहिल्या, जिस देह में पवित्र और निष्कलंक आत्मा रहती है, वह देह भी पवित्र और निष्कलंक रहती है। मेरी आंखों में तुम आज उससे कहीं निर्मल और पवित्र हो जितनी पहले थीं। तुम्हारी अग्नि-परीक्षा हो चुकी है। अब विलंब न करो। ईश्वर ने चाहा, तो कल हम उस प्रेम-सूत्र में बंध जाएंगे, जिसे काल भी नहीं तोड़ सकता, जो अमर और अभेद्यहै।

अहिल्या कई मिनट तक चक्रधर के कंधे पर सिर रखे रोती रही। फिर बोली-एक बात पूछना चाहती हूँ, बताओगे? सच्चे दिल से कहना?

चक्रधर-क्या पूछती हो, पूछो?

अहिल्या-तम केवल दयाभाव से और मेरा उद्धार करने के लिए यह कालिमा सिर चढा रहे हो या प्रेमभाव से?

इस प्रश्न से स्वयं लज्जित होकर उसने फिर कहा-बात बेढंगी-सी है, लेकिन मैं मूर्ख हं, क्षमा करना, यह शंका मुझे बार-बार होती है। पहले भी हुई थी और आज और भी बढ़ गई है।

चक्रधर का दिल बैठ गया। अहिल्या की सरलता पर उन्हें दया आ गई। यह अपने को ऐसी अभागिनी और दीन समझ रही है कि इसे विश्वास ही नहीं आता, मैं इससे शुद्ध प्रेम कर रहा हूँ तुम्हें क्या जान पड़ता है, अहिल्या?

अहिल्या-मैं जानती, तो आपसे क्यों पूछती?

चक्रधर-अहिल्या, तुम इन बातों से मुझे धोखा नहीं दे सकतीं। चील को चाहे मांस की बोटी न दिखाई दे, चिऊंटी को चाहे शक्कर की सुगंध न मिले, लेकिन रमणी का एक-एक रोयां पंचेंद्रियों की भांति प्रेम के रूप, रस, शब्द, स्पर्श का अनुभव किए बिना नहीं रहता। मैं एक गरीब आदमी हूँ। दया और धर्म और उद्धार के भावों का मुझ में लेश भी नहीं। केवल इतना ही कह सकता हूँ कि तुम्हें पाकर मेरा जीवन सफल हो जाएगा।

अहिल्या ने मुस्कराकर कहा-तो आपके कथन के अनुसार मैं आपके हृदय का हाल जानती हूँ।

चक्रधर-अवश्य, उससे ज्यादा, जितना मैं स्वयं जानता हूँ।

अहिल्या-तो साफ कह दूं? ।

चक्रधर ने कातर भाव से कहा-कहो, सुनूं

अहिल्या-तुम्हारे मन में प्रेम से अधिक दया का भाव है।

चक्रधर-अहिल्या, तुम मुझ पर अन्याय कर रही हो।

अहिल्या-जिस वस्तु को लेने की सामर्थ्य ही मुझमें नहीं है, उस पर हाथ न बढ़ाऊंगी। मेरे लिए वही बहुत है, जो आप दे रहे हैं। मैं इसे भी अपना धन्य भाग समझती हूँ।

चक्रधर-मगर यही प्रश्न मैं तुमसे करता, तो तुम क्या जवाब देतीं, अहिल्या?

अहिल्या-तो साफ-साफ कह देती कि मैं प्रेम से अधिक आपका आदर करती हूँ, आपमें श्रद्धा रखती हूँ।

चक्रधर का मुख मलिन हो गया। सारा प्रेमोत्साह, जो उनके हृदय में लहरें मार रहा था, एकाएक लुप्त हो गया। वन-वृक्षों-सा लहलहाता हुआ हृदय मरुभूमि-सा दिखाई दिया। निराश भाव से बोले-मैं तो और ही सोच रहा था, अहिल्या !

अहिल्या-तो आप भूल कर रहे थे। मैंने किसी पुस्तक में देखा था कि प्रेम हृदय के समस्त सद्भावों का शांत, स्थिर, उद्गारहीन समावेश है। उसमें दया और क्षमा, श्रद्धा और वात्सल्य, सहानुभूति और सम्मान, अनुराग और विराग, अनुग्रह और उपकार सभी मिले होते हैं। संभव है, आज के दस वर्ष बाद मैं आपकी प्रेम-पात्री बन जाऊं, किंतु इतनी जल्दी संभव नहीं। इनमें से कोई एक भाव प्रेम को अंकुरित कर सकता है। उसका विकास अन्य भावों के मिलने ही से होता है। आपके हृदय में अभी केवल दया का भाव अंकुरित हुआ है, मेरे हृदय में सम्मान और भक्ति का। हां, सम्मान और भक्ति दया की अपेक्षा प्रेम से कहीं निकटतर हैं, बल्कि यों कहिए कि ये ही भाव सरस होकर प्रेम का बाल रूप धारण कर लेते हैं।

अहिल्या के मुख से प्रेम की यह दार्शनिक व्याख्या सुनकर चक्रधर दंग हो गए। उन्होंने कभी यह अनुमान ही न किया था कि उसके विचार इतने उन्नत और उदार हैं। उन्हें यह सोचकर आनंद हुआ कि इसके साथ जीवन कितना सुखमय हो जाएगा, किंतु अहिल्या का हाथ उनके हाथ से आप ही आप छूट गया और उन्हें उसकी ओर ताकने का साहस न हुआ। इसके प्रेम का आदर्श कितना ऊंचा है ! इसकी दृष्टि में यह व्यवहार वासनामय जान पड़ता होगा। इस विचार ने उनके प्रेमोद्गारों को शिथिल कर दिया। अवाक् से खड़े रह गए।

सहसा अहिल्या ने कहा--मुझे भय है कि आश्रय देकर आप बदनाम हो जाएंगे। कदाचित् आपके माता-पिता तिरस्कार करें। मेरे लिए इससे बड़ी सौभाग्य की बात नहीं हो सकती कि आपकी दासी बनूं, लेकिन आपके तिरस्कार और आपमान का खयाल करके जी में यही आता है कि क्यों न इस जीवन का अंत कर दूं। केवल आपके दर्शनों की अभिलाषा ने मुझे अब तक जीवित रखा है। मैं आपको अपनी कालिमा से कलुषित करने के पहले मर जाना ही अच्छा समझती हूँ।

चक्रधर की आंखें करुणार्द्र हो गईं। बोले-अहिल्या, ऐसी बातें न करो। अगर संसार में अब भी कोई ऐसा क्षुद्र प्राणी है, जो तुम्हारी उज्ज्वल कीर्ति के सामने सिर न झुकाए, तो वह स्वयं नीच है। वह मेरा अपमान नहीं कर सकता। अपनी आत्मा की अनुमति के सामने मैं माता-पिता के विरोध की परवाह नहीं करता। तुम इन बातों को भूल जाओ। हम और तुम प्रेम का आनंद भोग करते हुए संसार के सब कष्टों और संकटों का सामना कर सकते हैं। ऐसी कोई विपत्ति नहीं है, जिसे प्रेम न टाल सके। मैं तुमसे विनती करता हूँ, अहिल्या, कि ये बातें फिर जबान पर न लाना।

अहिल्या ने अबकी स्नेह-सजल नेत्रों से चक्रधर को देखा। शंका की वह दाह, जो उसके मर्मस्थल को जलाए डालती थी, इन शीतल आई शब्दों से शांत हो गई। शंका की ज्वाला शांत होते ही उसकी यह चंचल दृष्टि स्थिर हो गई और चक्रधर की सौम्य मूर्ति, प्रेम की आभा से प्रकाशमान, आंखों के सामने खड़ी दिखाई दी। उसने अपना सिर उसके कंधे पर रख दिया, उस आलिंगन में उसकी सारी दुर्भावनाएं विलीन हो गईं जैसे कोई आर्त्तध्वनि सरिता के शांत, मंद प्रवाह में विलीन हो जाती है।

संध्या समय अहिल्या वागीश्वरी के चरणों पर सिर झुकाए रो रही थी। चक्रधर खड़े, नेत्रों से उस घर को देख रहे थे, जिसकी आत्मा निकल गई थी। दीपक वही थे, पर उनका प्रकाश मंद था। घर वही था, पर उसकी दीवारें नीची मालूम होती थीं। वागीश्वरी वही थी, पर लुटी हुई, जैसे किसी ने प्राण हर लिए हों।

सत्ताईस

बाबू यशोदानंदन का क्रिया-कर्म हो गया, पर धूम-धाम से नहीं। बाबू साहब ने मरते-मरते ताकीद कर दी थी कि मृतक संस्कारों में धन का अपव्यय न किया जाए । यदि कुछ धन जमा हो, तो वह हिंदू सभा को दान दे दिया जाए । ऐसा ही किया गया।

इसके तीसरे ही दिन चक्रधर का अहिल्या से विवाह हो गया। चक्रधर तो अभी कछ दिन और टालना चाहते थे, लेकिन वागीश्वरी ने बड़ा आग्रह किया। पति-रक्षा से वंचित होकर वह पराई कन्या की रक्षा का भार लेते हुए डरती थी। इस उपद्रव ने उसे सशंक कर दिया था। विवाह में कुछ धूम-धाम नहीं हुई। हां, शहर के कई रईसों ने कन्यादान में बड़ी-बड़ी रकमें दी और सबसे बड़ी रकम ख्वाजा साहब की थी। अहिल्या के विवाह के लिए उन्होंने पांच हजार रुपए अलग कर रखे थे। यह सब कन्यादान में दे दिए। कई संस्थाओं ने भी इस पुण्य कर्म में अपनी उदारता का परिचय दिया। वैमनस्य का भूत नेताओं का बलिदान पाकर शांत हो गया।

जिस दिन चक्रधर अहिल्या को विदा कराके काशी चले, हजारों आदमी स्टेशन पर पहुंचाने आए। वागीश्वरी का रोते-रोते बुरा हाल था। जब अहिल्या आकर पालकी पर बैठी, तो वह दुखिया पछाड़ खाकर गिर पड़ी। संसार उसकी आंखों में सूना हो गया। पति-शोक में भी उसके जीवन का एक आधार रह गया था। अहिल्या के जाने से वह सर्वथा निराधार हो गई। जी में आता था, अहिल्या को पकड़ लूं। उसे कोई क्यों लिए जाता है? उस पर किसका अधिकार है, वह जाती ही क्यों है? उसे मुझ पर जरा भी दया नहीं आती? क्या इतनी निष्ठुर हो गई है? वह इस शोक के आवेश में लपककर द्वार पर आई, पर पालकी का पता नहीं था। तब वह द्वार पर बैठ गई। ऐसा जान पड़ा, मानो चारों ओर शून्य, निस्तब्ध, अंधकारमय श्मशान है। मानो, कहीं कुछ रहा ही नहीं।

अहिल्या भी रो रही थी, लेकिन शोक से नहीं, वियोग में। वह घर छोड़ते हुए उसका हृदय फटा जाता था। प्राण देह से निकलकर घर से चिमट जाते और फिर छोड़ने का नाम न लेते थे। एक-एक वस्तु को देखकर मधुर स्मृतियों के समूह आंखों के सामने आ खड़े होते थे। वागीश्वरी की गर्दन में तो उसके करपाश इतने सुदृढ़ हो गए कि दूसरी स्त्रियों ने बड़ी मुश्किल से छुड़ाया, मानो जीव देह से चिमटा हो। मरणासन्न रोगी भी अपनी विलास की सामग्रियों को इतने तृषित, इतने नैराश्यपूर्ण नेत्रों से न देखता होगा। घर से निकलकर उसकी वही दशा हो रही थी, जो किसी नवजात पक्षी की घोंसले से निकलकर होती है।

लेकिन चक्रधर के सामने एक दूसरी ही समस्या उपस्थित हो रही थी। वह घर तो जा रहे थे, पर उस घर के द्वार बंद थे। उस द्वार में हृदय की गांठ से भी सुदृढ़ ताले पड़े हुए थे, जिनके खुलने की तो क्या, टूटने की भी आशा न थी। नव-वधू को लिए हुए वर के हृदय में जो अभिलाषाएं, जो मृदु-कल्पनाएं प्रदीप्त होती हैं, उनका यहां नाम भी न था। उनकी जगह चिंताओं का अंधकार छाया हुआ था। घर जाते थे, पर नहीं जानते थे कि कहाँ जा रहा हूँ। पिता का क्रोध, माता का तिरस्कार, संबंधियों की अवहेलना, इन सभी शंकाओं से चित्त उद्विग्न हो रहा था। सबसे विकट समस्या यह थी कि गाड़ी से उतरकर जाऊंगा कहाँ। मित्रों की कमी न थी, लेकिन स्त्री को लिए हुए किसी मित्र के घर जाने के खयाल से ही लज्जा आती थी। अपनी तो चिंता न थी। वह इन सभी बाधाओं को सह सकते थे, लेकिन अहिल्या उनको कैसे सहन करेगी ! उसका कोमल हृदय इन आघातों से टूट न जाएगा! उन्होंने सोचा-मैं घर जाऊं ही क्यों? क्यों न प्रयाग ही उतर पडूं और कोई मकान लेकर सबसे अलग रहूँ? कुछ दिनों के बाद यदि घर वालों का क्रोध शांत हो गया, तो चला जाऊंगा, नहीं तो प्रयाग ही सही। बेचारी अहिल्या जिस वक्त गाड़ी से उतरेगी और मेरे साथ शहर की गलियों में मकान ढूंढ़ती फिरेगी, उस वक्त उसे कितना दु:ख होगा। इन चिंताओं से उनकी मुखमुद्रा इतनी मलिन हो गई कि अहिल्या ने उनसे कुछ कहने के लिए उनकी ओर देखा तो चौंक पड़ी। उसकी वियोगव्यथा अब शांत हो गई थी और हृदय में उल्लास का प्रवाह होने लगा था, लेकिन पति की उदास मुद्रा देखकर घबरा गई, बोली-आप इतने उदास क्यों हैं? क्या अभी से मेरी फिक्र सवार हो गई?

चक्रधर ने झेंपते हुए कहा-नहीं तो, उदास क्यों होने लगा? यह उदास होने का समय है या आनंद मनाने का?

अहिल्या-यह तो आप अपने मुख से पूछे, जो उदास हो रहा है।

चक्रधर ने हंसने की विफल चेष्टा करके कहा-यह तुम्हारा भ्रम है। मैं तो इतना खुश हूँ कि डरता हूँ, लोग मुझे ओछा न समझने लगें।

मगर चक्रधर जितना ही अपनी चिंता को छिपाने का प्रयत्न करते, उतना ही वह और भी प्रत्यक्ष होती जाती थी, जैसे दरिद्र अपनी साख बनाए रखने की चेष्टा में और भी दरिद्र हो जाता है।

अहिल्या ने गंभीर भाव से कहा-तुम्हारी इच्छा है, न बताओ, लेकिन यही इसका आशय है कि तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं।

यह कहते-कहते अहिल्या की आंखें सजल हो गईं। चक्रधर से अब जब्त न हो सका। उन्होंने संक्षेप में सारी बातें कह सुनाईं और अंत में प्रयाग उतर जाने का प्रस्ताव किया।

अहिल्या ने गर्व से कहा-अपना घर रहते प्रयाग क्यों उतरें? मैं घर चलूंगी। माता-पिता की अप्रसन्नता के भय से कोई अपना घर नहीं छोड़ देता। वे कितने ही नाराज हों, हैं तो हमारे मातापिता! हम लोगों ने कितना ही अनुचित किया हो, हैं तो उन्हीं के बालक। इस नाते को कौन तोड़ सकता है? आप इन चिंताओं को दिल से निकाल डालिए।

चक्रधर-निकालना तो चाहता हूँ, पर नहीं निकलती। बाबूजी यों तो आदर्श पिता हैं, लेकिन उनके सामाजिक विचार इतने संकीर्ण हैं कि उनमें धर्म का स्थान भी नहीं। मुझे भय है कि वह मुझे घर में जाने ही न देंगे। इसमें हरज ही क्या है कि हम लोग प्रयाग उतर पड़ें और जब तक घर के लोग हमारा स्वागत करने को तैयार न हों, यहीं पड़े रहें।

अहिल्या-आपको कोई हरज न मालूम होता हो, मुझे तो माता-पिता से अलग स्वर्ग में रहना भी अच्छा न लगेगा। आखिर उनकी सेवा करने का और कौन अवसर मिलेगा? वे कितना ही रूठे, हमारा यही धर्म है कि उनका दामन न छोड़ें। बचपन में अपने स्वार्थ के लिए तो हम कभी मातापिता की अप्रसन्नता की परवाह नहीं करते, मचल-मचलकर उनकी गोद में बैठते हैं, मार खाते हैं, घुड़के जाते हैं, पर उनका गला नहीं छोड़ते तो अब उनकी सेवा करने के समय उनकी अप्रसन्नता से मुंह फुला लेना हमें शोभा नहीं देता। आप उनको प्रसन्न करने का भार मुझ पर छोड़ दें, मुझे विश्वास है कि उन्हें मना लूंगी।

चक्रधर ने अहिल्या को गद्गद नेत्रों से देखा और चुप हो रहे।

रात को दस बजते-बजते गाड़ी बनारस पहुंची। अहिल्या के आश्वासन देने पर भी चक्रधर बहुत चिंतित हो रहे थे कि कैसे क्या होगा। कहीं पिताजी ने जाते ही जाते घुड़कियां देनी शरू की

और अहिल्या को घर में न जाने दिया, तो डूब मरने की बात होगी। लेकिन उन्हें कितना आश्चर्य हुआ, जब उन्होंने मुंशीजी को दो आदमियों के साथ स्टेशन पर उनकी राह देखते हए पाया। पिता के इस असीम, अपार, अलौकिक वात्सल्य ने उन्हें इतना पुलकित किया कि वह जाकर पिता के पैरों पर गिर पड़े। मुंशीजी ने दौड़कर छाती से लगा लिया और उनके श्रद्धाश्रुओं को रूमाल से पोंछते हुए स्नेहकोमल शब्दों में बोले-कम-से-कम एक तार तो दे देते कि मैं किस गाडी से आ रहा हूँ। खत तक न लिखा। यहां बराबर दस दिन से दो बार स्टेशन पर दौड़ा आता हूँ, और एक आदमी हरदम तुम्हारे इंतजार में बिठाए रहता हूँ कि जाने कब, किस गाड़ी से आ जाओ। कहाँ है बहू? चलो, उतार लाएं। बहू के साथ यहीं ठहरो। स्टेशन मास्टर से कहकर वेटिंग रूम खुलवाए देता हूँ। मैं दौड़कर जरा बाजे-गाजे, रोशनी-सवारी की फिक्र करूं। बहू का स्वागत तो करना ही होगा। यहां लोग क्या जानेंगे कि बहू आई है। वहां की बात और थी, यहां की बात और है। भाईबंदों के साथ रस्म-रिवाज मानना ही पड़ता है।

यह कहकर मुंशीजी चक्रधर के साथ अहिल्या की गाड़ी के द्वार पर खड़े हो गए। अहिल्या ने धीरे से उतरकर उनके चरणों पर सिर रख दिया। उनकी आंखों से श्रद्धा और आनंद के आंसू बहने लगे। मुंशीजी ने उसके सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया और दोनों प्राणियों को वेटिंग रूम में बैठाकर बोले-किसी को अंदर मत आने देना। मैंने साहब से कह दिया है। मैं कोई घंटे भर में आऊंगा। तुमसे बड़ी भूल हुई कि मुझे एक तार न दे दिया। अब बेचारी यहां परदेशियों की तरह घंटों बैठी रहेगी। तुम्हारा कोई काम लड़कपन से खाली ही नहीं होता। रानी कई बार आ चुकी हैं। आज चलते-चलते ताकीद कर गई थीं कि बाबूजी आ जाएं तो मुझे खबर दीजिएगा। मैं स्टेशन पर उनका स्वागत करूंगी और बाबूजी को साथ लाऊंगी। सोचो, उन्हें कितनी तकलीफ होगी!

चक्रधर ने दबी जबान से कहा-उन्हें तो आप इस वक्त तकलीफ न दीजिएगा और आपको भी धूमधाम करने के लिए तकलीफ उठाने की जरूरत नहीं। सवेरे तो सबको मालूम हो ही जाएगा।

मुंशीजी ने लकड़ी संभालते हुए कहा-सुनती हो बहू, इसकी बातें? सवेरे लोग जानकर क्या करेंगे? दुनिया क्या जानेगी कि बहू कब आई?

मुंशीजी चले गए, तो अहिल्या ने चक्रधर को आड़े हाथों लिया। ऐसे देवता-पुरुष के साथ तुम अकारण ही कितना अनर्थ कर रहे थे। मेरा तो जी चाहता था कि घंटों उनके चरणों पर पड़ी हुई रोया करूं।

चक्रधर लज्जित हो गए। इसका प्रतिवाद तो न किया, पर उनका मन कह रहा था कि इस वक्त दुनिया को दिखाने के लिए पिताजी कितना ही धूम-धाम क्यों न कर लें, घर में कोई-न-कोई गुल खिलेगा जरूर। उन्हें यहां बैठते अनकूस मालूम होता था। सारी रात का बखेड़ा हो गया। शहर का चक्कर लगाना पड़ेगा, घर पहुँचकर न जाने कितनी रस्में अदा करनी पड़ेंगी, तब जा के कहीं गला छूटेगा। सबसे ज्यादा उलझन की बात यह थी कि कहीं मनोरमा भी राजसी ठाठ-बाट से न आ पहुंचे। इस शोरगुल से फायदा ही क्या?

मुंशीजी को गए अभी आधा घंटा भी न हुआ था कि मनोरमा कमरे के द्वार पर आकर खड़ी दिखाई दी। चक्रधर सहसा चौंक पड़े और कुर्सी से उठकर खड़े हो गए। मनोरमा के सामने ताकने की उनकी हिम्मत न पड़ी, मानो कोई अपराध किया हो। मनोरमा ने उन्हें देखते ही कहा-बाबूजी, आप चुपके-चुपके बहू को उड़ा लाए और मुझे खबर तक न दी ! मुंशीजी न कहते, तो मुझे मालूम ही न होता। आपने अपना घर बसाया, मेरे लिए भी कोई सौगात लाए?

चक्रधर ने मनोरमा की ओर लज्जित होकर देखा, तो उसका मुख उड़ा हुआ था। वह मुस्करा रही थी, पर आंखों में आंसू झलक रहे थे। इन नेत्रों में कितनी विनय थी, कितना वैराग्य, कितनी तृष्णा, कितना तिरस्कार ! चक्रधर को उसका जवाब देने को शब्द न मिले ! मनोरमा ने सिर झुकाकर फिर कहा-आपको मेरी सुधि ही न रही होगी, सौगात कौन लाता? बहू से बातें करने में दूसरों की सुधि क्यों आती ! बहिन, आप उतनी दूर क्यों खड़ी हैं। आइए, आइए, आपसे गले तो मिल लूं। आपसे तो मुझे कोई शिकायत नहीं।

यह कहकर वह अहिल्या के पास गई और दोनों गले मिलीं। मनोरमा ने रूमाल से एक जड़ाऊ कंगन निकालकर अहिल्या के हाथ में पहना दिया और छत की ओर ताकने लगी; जैसे एकाएक कोई बात याद आ गई हो, सहसा उसकी दृष्टि आईने पर जा पड़ी। अहिल्या का रूपचन्द्र अपनी संपूर्ण कलाओं के साथ उसमें प्रतिबिंबित हो रहा था। मनोरमा उसे देखकर अवाक् हो गई। मालूम हो रहा था, किसी देवता का आशीर्वाद मूर्तिमान होकर आकाश से उतर आया है। उसकी सरल, शांत, शीतल छवि के सामने उसका विशाल सौंदर्य ऐसा मालूम होता था, मानो कुटी के सामने कोई भवन खड़ा हो। यह उन्नत भवन इस समय शांति-कुटी के सामने झुक गया। भवन सूना था, कुटी में एक आत्मा शयन कर रही थी।

इतने में अहिल्या ने उसे कुर्सी पर बिठा दिया और पान-इलायची देते हुए बोली-आपको मेरे कारण बड़ी तकलीफ हुई। यह आपके आराम करने का समय था। मैं जानती थी कि आप आएंगी, तो यहां किसी दूसरे वक्त.....

चक्रधर मौका देखकर बाहर चले गए थे। उनके रहने से दोनों ही को संकोच होता, बल्कि तीनों चुप रहते।

मनोरमा ने क्षुधित नेत्रों से अहिल्या को देखकर कहा-नहीं बहिन, मुझे जरा भी तकलीफ नहीं हुई। मैं तो यों भी बारह-एक के पहले नहीं सोती। तुमसे मिलने की बहुत दिनों से इच्छा थी। मैंने अपने मन में तुम्हारी जो कल्पना की थी, तुम ठीक वैसी ही निकलीं। तुम ऐसी न होतीं, तो बाबूजी तुम पर रीझते ही क्यों? अहिल्या, तुम बड़ी भाग्यवान हो! तुम्हारी जैसी भाग्यशाली स्त्रियां बहुत कम होंगी। तुम्हारा पति मनुष्यों में रत्न है, सर्वथा निर्दोष एवं सर्वथा निष्कलंक।

अहिल्या पति-प्रशंसा से गर्वोन्नत होकर बोली-आपके लिए कोई सौगात तो नहीं लाए।

मनोरमा-मेरे लिए तुमसे बढ़कर और क्या सौगात लाते? मैं संसार में अकेली थी, तुम्हें पाकर दुकेली हो जाऊंगी। मंगला से मैंने प्रेम नहीं बढ़ाया। कल को वह पराए घर चली जाएगी। कौन उसके नाम पर बैठकर रोता ! तुम कहीं न जाओगी, तुम्हें सहेली बनाने में कोई खटका नहीं। आज से तुम मेरी सहेली हो। ईश्वर से मेरी यही प्रार्थना है कि हम और तुम चिरकाल तक स्नेह के बंधन में बंधे रहें।

अहिल्या--मैं इसे अपना सौभाग्य समझूगी। आपके शील स्वभाव की चर्चा करते उनकी जबान न थकती।

मनोरमा ने उत्सुक होकर पूछा--सच ! मेरी चर्चा भी करते हैं?

अहिल्या--बराबर बात-बात पर आपका जिक्र करने लगते हैं। मैं नहीं जानती कि आपकी वह कौन-सी आज्ञा है, जिसे वह टाल सकें।

इतने में बाजों की धों-धों-पों-पों सुनाई दी। मुंशीजी बारात जमाए चले आ रहे थे। सामान तो पहले ही से जमा कर रखे थे, जाकर ले आना था। पटाखे, बाजों की तीन-चार चौकियां, कई सवारी गाड़ियां, दो हाथी, दर्जनों घोड़े, एक सुंदर सुखपाल, ये सब स्टेशन के सामने आ पहुंचे।

अहिल्या के हृदय में आनंद की तरंगें उठ रही थीं। उसने जिन बातों की स्वप्न में भी आशा न की थी वे सब पूरी हुई जाती थीं। कभी उसका स्वागत इस ठाठ से होगा, कभी एक बड़ी रानी उसकी सहेली बनेगी, कभी उसका इतना आदर-सम्मान होगा, उसने कल्पना भी न की थी।

मनोरमा ने उसे धीरे-धीरे ले जाकर सुखपाल में बिठा दिया। बारात चली। चक्रधर एक सुरंग घोड़े पर सवार थे।

एक क्षण में सन्नाटा हो गया, लेकिन मनोरमा अभी तक अपनी मोटर के पास खड़ी थी, मानो रास्ता भूल गई हो।

अट्ठाईस

ठाकुर गुरुसेवक सिंह जगदीशपुर के नाजिम हो गए थे। इस इलाके का सारा प्रबंध उनके हाथ में था। तीनों पहली रानियां वहीं राजभवन में रहती थीं। उनकी देखभाल करते रहना, उनके लिए जरूरी चीजों का प्रबंध करना भी नाजिम का काम था। यह कहिए कि मुख्य काम यही था। नजामत तो केवल नाम का पद था। पहले यह पद न था। राजा साहब ने रानियों को आराम से रखने के लिए इस नए पद की सृष्टि की थी। ठाकुर साहब जगदीशपुर में राजा साहब के प्रतिनिधि स्वरूप थे।

तीनों रानियों में अब वैर-विरोध कम होता था। अब हर एक को अख्तियार था, जितने नौकर चाहें रखें, जितना चाहें खर्च करें, जितने गहने चाहें बनवाएं, जितने धर्मोत्सव चाहें मनाएं, फिर कलह होता ही क्यों? यदि राजा साहब किसी एक रानी पर विशेष प्रेम रखते और अन्य रानियों की परवाह न करते, तो ईर्ष्यावश लड़ाई होती; पर राजा साहब ने जगदीशपुर में आने की कसम-सी खा ली थी। फिर किस बात पर लड़ाई होती?

ठाकुर साहब ने दीवानखाने में अपना दफ्तर बना लिया था। जब कोई जरूरत होती, तुरंत रनिवास में पहुँच जाते। रानियां उनसे परदा तो करती थीं, पर परदे की ओट से बातचीत कर लेती थीं। रानी वसुमती इस ओट को भी अनावश्यक समझती थीं। कहती-जब बातें ही की, तो पर्दा कैसा ? ओट क्यों ? गुड़ खाएं गुलगुले का परहेज। उन्हें अब संसार से विराग-सा हो गया था। सारा समय भगवत्-पूजन और भजन में काटती थीं। हां, आभूषणों से अभी उनका जी न भरा था और अन्य स्त्रियों की भाति वह गहने बनवाकर जमा न करती थीं, उनका नित्य व्यवहार करती थीं। रोहिणी को आभूषणों से घृणा हो गई थी, मांग-चोटी की भी परवा न करती! यहां तक कि उसने मांग में सिंदूर डालना छोड़ दिया था। कहती, मुझमें और विधवा में क्या अंतर है, बल्कि विधवा हमसे हजार दर्जे अच्छी; उसे एक यही रोना है कि पुरुष नहीं। जलन तो नहीं! यहां तो जिंदगी रोने और कुढ़ने में ही कट रही है। मेरे लिए पति का होना, न होना दोनों बराबर है, सोहाग लेकर चाटूं? रहीं रानी रामप्रिया, उनका विद्या-व्यसन अब बहुत कुछ शिथिल हो गया था, गाने की धुन सवार थी, भांति-भांति के बाजे मंगाती रहती थीं। ठाकुर साहब को भी गाने का कुछ शौक था या अब हो गया हो। किसी-न-किसी तरह समय निकालकर जा बैठते और उठने का नाम न लेते। रात को अक्सर भोजन भी वहीं कर लिया करते। रामप्रिया उनके लिए स्वयं थाली परस लाती थी। ठाकुर साहब की जो इतनी खातिर होने लगी, तो मिजाज आसमान पर चढ़ गया। नए-नए स्वप्न देखने लगे। समझे, सौभाग्य-सूर्य उदय हो गया। नौकरों पर अब ज्यादा रोब जमाने लगे। सोकर देर में उठते और इलाके का दौरा भी बहुत कम करते। ऐसा जान पड़ता था, मानो इस इलाके के राजा वही हैं। दिनों-दिन यह विश्वास होता जाता था कि रामप्रिया मेरे नयन-बाणों का शिकार हो गई है, उसके हृदय-पट पर मेरी तस्वीर खिंच गई है। रोज कोई-न-कोई ऐसा प्रमाण मिल जाता था, जिससे यह भावना और भी दृढ़ हो जाती थी।

एक दिन आपने रामप्रिया की प्रेम-परीक्षा लेने की ठानी। कमरे में लिहाफ ओढ़ कर पड़ रहे। रामप्रिया ने किसी काम के लिए बुलाया तो कहला भेजा, मुझे रात से जोरों का बुखार है, मारे दर्द के सिर फटा पड़ता है। रामप्रिया यह सुनते ही दीवानखाने में आ पहुंची और उनके सिर पर हाथ रखकर देखा, माथा ठंडा था। नाड़ी भी ठीक चल रही थी। समझी, कुछ सिर भारी हो गया होगा, कुछ परवाह न की। हां, अंदर जाकर कोई तेल सिर में लगाने को भिजवा दिया।

ठाकुर साहब को इस परीक्षा से संतोष न हुआ। उसे प्रेम है, यह तो सिद्ध था, नहीं तो वह देखने दौड़ी आती ही क्यों, लेकिन प्रेम कितना है, इसका कुछ अनुमान न हुआ। कहीं वह केवल शिष्टाचार के अंतर्गत न हो। वह केवल शिष्टाचार कर रही हो और मैं प्रेम के भ्रम में पड़ा रहूँ। रामप्रिया के अधरों पर, नेत्रों में, बातों में तो उन्हें भ्रम की झलक नजर आती थी, पर डरते थे कि मुझे भ्रम न हो। अबकी उन्होंने कड़ी परीक्षा लेने की ठानी। क्वार का महीना था। धूप तेज होती थी। मलेरिया फैला हुआ था। आप एक दिन दिनभर पैदल खेतों में घूमते रहे, कई बार तालाब का पानी भी पिया। ज्वर का पूरा सामान करके आप घर लौटे। नतीजा उनके इच्छा-नुकूल ही हुआ। दूसरे दिन प्रात:काल उन्हें ज्वर चढ़ आया और ऐसे जोर से आया कि दोपहर तक बक-झक करने लगे। मारे दर्द के सिर फटने लगा। सारी देह टूट रही थी और सिर में चक्कर आ रहा था। अब तो बेचारे को लेने के देने पड़े। प्रेम-परीक्षा में धैर्य परीक्षा होने लगी और इसमें वह कच्चे निकले। कभी रोते कि बाबूजी को बुला दो। कभी कहते, स्त्री को बुला दो। इतना चीखे-चिल्लाए कि नौकरों का नाकोंदम हो गया। रामप्रिया ने आकर देखा तो होश उड़ गए। देह तवा हो रही थी और नाड़ी घोड़े की भांति सरपट दौड़ रही थी। बेचारी घबरा उठी। तुरंत डॉक्टर को लाने के लिए आदमी को शहर दौड़ाया और ठाकुर साहब के सिरहाने बैठकर पंखा झलने लगी। द्वार पर चिक डाल दी और एक आदमी को द्वार पर बिठा दिया कि किसी अपरिचित मनुष्य को अंदर न जाने दे। ठाकुर साहब को सुधि होती और रामप्रिया की विकलता देखते, तो फूले न समाते, पर वहां तो जान के लाले पड़े हुए थे।

एक सप्ताह तक गुरुसेवक का ज्वर न उतरा। डॉक्टर रोज आते और देख-भाल कर चले जाते। कोई दवा देने की हिम्मत न पड़ती। रामप्रिया को सोना और खाना हराम हो गया। दिन के दिन और रात की रात रोगी के पास बैठी रहती। पानी पिलाना होता तो खुद पिलाती: सिर में तेल डालना होता, तो खुद डालती, पथ्य देना होता, तो खुद बनाकर देती। किसी नौकर पर विश्वास न था।

अब लोगों को चिंता होने लगी। रोगी को यहां से उठाकर ले जाने में जोखिम था। सारा परिवार यहीं आ पहुंचा। हरिसेवक ने बेटे की सूरत देखी, तो रो पड़े। देह सूखकर कांटा हो गई थी। पहचानना कठिन था। राजा साहब भी दिन में दो बार मनोरमा के साथ रोगी को देखने आते; पर इस तरह भागते मानो किसी शत्रु के घर आए हों। रामप्रिया तो रोगी की सेवा-शुश्रूषा में लगी रहती, उसे इसकी परवाह न थी कि कौन आता है और कौन जाता है, लेकिन रोहिणी को राजा साहब की निष्ठुरता असह्य मालूम होती थी। वह उन पर दिल का गुबार निकालने के लिए अवसर ढूंढती रहती थी; पर राजा साहब भूलकर भी अंदर न आते थे। आखिर एक दिन वह मनोरमा ही पर पिल पड़ी। बात कोई न थी। मनारेमा ने सरल भाव से कहा-यहां आप लोगों का जीवन बड़ी शांति से कटता होगा। शहर में तो रोज एक-न-एक झंझट सिर पर सवार रहता है। कभी इनकी दावत करो, कभी उनकी दावत में जाओ, आज क्लब में जलसा है, आज अमुक विद्वान् का व्याख्यान है। नाकों दम रहता है!

रोहिणी तो भरी बैठी ही थी। ऐंठकर बोली-हां, बहिन, क्यों न हो! ऐसे प्राणी भी होते हैं, जिन्हें पड़ोसी के उपवास देखकर जलन होती है। तुम्हें पकवान बुरे मालूम होते हैं, हम अभागिनी के लिए सत्तू में भी बाधा ! किसी को भोग, किसी को जोग, यह पुराना दस्तूर चला आ रहा है, तुम क्या करोगी?

मनोरमा ने फिर उसी सरल भाव से कहा--अगर तुम्हें वहां सुख ही सुख मालूम होता है, तो चली क्यों नहीं आती? क्या तुम्हें किसी ने मना किया है? अकेले मेरा जी भी घबराया करता है। तुम रहोगी, तो मजे से दिन कट जाएगा।

रोहिणी नाक सिकोड़कर बोली-भला, मुझमें वह हाव-भाव कहाँ है कि इधर राजा साहब को मुट्ठी में किए रहूँ, उधर हाकिमों को मिलाए रहूँ। यह तो कुछ पढ़ी-लिखी शहरवालियों को ही आता है, हम गंवारिनें यह त्रियाचरित्र क्या जानें! यहां तो एक ही की होकर रहना जानती हैं। मनोरमा खड़ी सन्न रह गई। ऐसा मालूम हुआ कि ज्वाला पैरों से उठी और सिर से निकल गई। ऐसी भीषण मर्मवेदना हुई, मानो किसी ने सहस्र शूलोंवाला भाला उसके कलेजे में चुभो दिया हो। संज्ञाशून्य-सी हो गई। आंखें खुली थीं, पर कुछ दिखाई न देता था; कानों में कोई आवाज न आती थी, इसका ज्ञान ही न रहा कि कहाँ आई हूँ, क्या कर रही हूँ रात है या दिन? वह दस-बारह मिनट तक इसी भांति स्तंभित खड़ी रही। राजा साहब मोटर के पास खड़े उसकी राह देख रहे थे। जब उसे देर हुई तो बुला भेजा। लौंडी ने आकर मनोरमा से संदेशा कहा; पर मनोरमा ने सुना ही नहीं। लौंडी ने एक मिनट के बाद फिर आकर कहा, फिर भी मनोरमा ने कोई उत्तर न दिया। तब लौंडी चली गई। उसे तीसरी बार कुछ कहने का साहस न हुआ। राजा साहब ने दो मिनट और इंतजार किया तब स्वयं अंदर आए, तो देखा कि मनोरमा चुपचाप मूर्ति की भांति खड़ी है। दर ही से पुकारा-नोरा, क्या कर रही हो? चलो देर हो रही है, सात बजे लेडी काक ने आने का वादा किया है और छ: यहीं बज गए। मनोरमा ने इसका भी कुछ जवाब न दिया। तब राजा साहब ने मनोरमा के पास आकर उसका हाथ पकड़ लिया और कुछ कहना ही चाहते थे कि उसका चेहरा देखकर चौंक पड़े। वह सर्प-दंशित मनुष्य की भांति निर्निमेष नेत्रों से दीवार की ओर टकटकी लगाए ताक रही थी, मानो आंखों की राह प्राण निकल रहे हों।

राजा साहब ने घबराकर पूछा-नोरा, कैसी तबीयत है?

अब मनोरमा को होश आया। उसने राजा साहब के कंधे पर सिर रख दिया और इस तरह फूट-फूटकर रोने लगी, मानो पानी का बांध टूट गया हो। यह पहला अवसर था कि राजा साहब ने मनोरमा को रोते देखा। व्यग्र होकर बोले-क्या बात है, मनोरमा, किसी ने कुछ कहा है? इस घर में किसकी ऐसी मजाल है कि तुम्हारी ओर टेढ़ी निगाह से भी देख सके? उसका खून पी जाऊं। बताओ, किसने क्या कहा है? तुमने कुछ कहा है, रोहिणी? साफ-साफ बता दो।

रोहिणी पहले तो मनोरमा की दशा देखकर सहम उठी थी पर राजा साहब के खून पी जाने की धमकी ने उत्तेजित कर दिया। जी में तो आया, कह दूं, हां, मैंने कहा है, और जो बात यथार्थ थी, वह कहा है, जो कुछ करना हो कर लो। खून पी के यों न खड़े रहोगे लेकिन राजा साहब का विकराल रौद्र रूप देखकर बोली-उन्हीं से क्यों नहीं पूछते? मेरी बात का विश्वास ही क्या?

राजा-नहीं, मैं तुमसे पूछता हूँ!

रोहिणी-उनसे पूछते क्या डर लगता है?

मनोरमा-ने सिसकते हुए कहा-अब मैं यहीं रहूँगी; आप जाइए। मेरी चीजें यहीं भिजवा दीजिएगा।

राजा साहब ने अधीर होकर पूछा-आखिर बात क्या है, कुछ मालूम भी तो हो?

मनोरमा-बात कुछ भी नहीं है। मैं अब यहीं रहूँगी। आप जाएं।

राजा-मैं तुम्हें छोड़कर नहीं जा सकता; अकेले मैं एक दिन भी जिंदा नहीं रह सकता। मनोरमा-मैंने तो निश्चय कर लिया है, इस घर से बाहर न जाऊंगी।

राजा साहब समझ गए कि रोहिणी ने अवश्य कोई व्यंग्य शर चलाया है। उसकी ओर लाल आंखें करके बोले-तुम्हारे कारण यहां से जान लेकर भागा, फिर भी तुम पीछे पड़ी हुई हो? वहां भी शांत नहीं रहने देती। मेरी खुशी है, जिससे जी चाहता है, बोलता हूँ, जिससे जी नहीं चाहता, नहीं बोलता। तुम्हें उसकी जलन क्यों होती है?

रोहिणी-जलन होगी मेरी बला को। तुम यहां ही थे तो कौन-सी फूलों की सेज पर सुला दिया था? यहां तो जैसे कन्ता घर रहे, वैसे रहे विदेश। भाग्य में रोना बदा था, रोती हूँ।

राजा-अभी तो नहीं रोई; मगर शौक है तो रोओगी।

रोहिणी-तो इस भरोसे भी न रहिएगा। यहां ऐसी रोने वाली नहीं हूँ कि सेंतमेंत आंखें फोडूं। पहले दूसरे को रुलाकर तब रोऊंगी।

राजा साहब ने दांत पीसकर कहा-शर्म और हया छू नहीं गई। कुंजडिनों को भी मात कर

दिया।

रोहिणी-शर्म और हयावाली तो एक वह हैं, जिन्हें छाती से लगाए खड़े हो, हम गंवारिनें भला शर्म और हया क्या जानें!

राजा साहब ने जमीन पर पैर पटककर कहा--उसकी चर्चा न करो। इतना बतलाए देता हूँ, तुम एक लाख जन्म लो, तब भी उसको नहीं पा सकतीं। भूलकर भी उसकी चर्चा मत करो।

रोहिणी-तुम तो ऐसी डांट बता रहे हो, मानो मैं कोई लौंडी हूँ। क्यों न उसकी चर्चा करूं? वह सीता और सावित्री होगी, तो तुम्हारे लिए होगी, यहां क्यों पर्दा डालने लगी? जो बात देखंगी-सुनूंगी, वह कहूँगी भी, किसी को अच्छा लगे या बुरा।

राजा-अच्छा ! तुम अपने को रानी समझे बैठी हो। रानी बनने के लिए जिन गुणों की जरूरत है वे तुम्हें छू भी नहीं गए। तुम विशालसिंह ठाकुर से ब्याही गई थी और अब भी वही हो।

रोहिणी-यहां रानी बनने की साध ही नहीं। मैं तो ऐसी रानियों का मुंह देखना भी पाप समझती हूँ, जो दूसरों से हाथ मिलाती और आंखें मटकाती फिरें।

राजा साहब का क्रोध बढ़ता जाता था, पर मनोरमा के सामने वह अपना पैशाचिक रूप दिखाते हुए शर्माते थे। पर कोई लगती बात कहना चाहते थे, जो रोहिणी की जबान बंद कर दे, वह अवाक रह जाए। मनोरमा को कटु वचन सुनाने के दंडस्वरूप रोहिणी को कितनी ही कड़ी बात क्यों न कही जाए, वह क्षम्य थी। बोले-तुम्हें तो जहर खाकर मर जाना चाहिए। कम-से-कम तुम्हारी जली-कटी बातें तो न सुनने में आएंगी।

रोहिणी ने आग्नेय नेत्रों से राजा साहब की ओर देखा, मानो वह उसकी ज्वाला से उन्हें भस्म कर देगी, मानो उसके शरों से उन्हें वेध डालेगी और लपककर पानदान को ठुकराती, लोटे का पानी गिराती, वहां से चली गई।

मनोरमा ने सहृदय भाव से कहा-आप व्यर्थ ही इनके मुंह लगे। मैं आपके साथ न जाऊंगी।

राजा-नोरा, कभी-कभी मुझे तुम्हारे ऊपर भी क्रोध आता है। भला, इन गंवारिनों के साथ रहने में क्या आनंद आएगा? यह सब मिलकर तुम्हारा जीना दूभर कर देंगी।

राजा साहब ने बहुत देर तक समझाया, पर मनोरमा ने एक न मानी। रोहिणी की बातें अभी तक उसके हृदय के एक-एक परमाणु में व्याप्त थीं। उसे शंका हुई कि ये भाव केवल रोहिणी के नहीं हैं, यहां सभी लोगों के मन में यही भाव होंगे। रोहिणी केवल उन भावों को प्रकट कर देने की अपराधिनी है। इस संदेह और लांछन का निवारण यहां सबके सम्मुख रहने से ही हो सकता था और यही उसके संकल्प का कारण था। अंत में राजा साहब ने हताश होकर कहा-तो फिर मैं भी काशी छोड़ देता हूँ। तुम जानती हो कि मुझसे अकेले वहां एक दिन भी न रहा जाएगा।

मनोरमा ने निश्चयात्मक भाव से कहा-जैसी आपकी इच्छा।

एकाएक मुंशी वज्रधर लाठी टेकते आते दिखाई दिए। चेहरा उतरा हुआ था, पाजामे का इजारबंद नीचे लटकता हुआ, आंगन में खड़े होकर बोले-रानीजी, आप कहाँ हैं? जरा कृपा करके आइएगा, या हुक्म हो, तो मैं ही आऊं?

राजा साहब ने कुछ चिढ़कर कहा-क्या है, यहीं चले आइए। आपको इस वक्त आने की क्या जरूरत थी? सब लोग यहीं चले आए, कोई वहां भी तो चाहिए।

मुंशीजी कमरे में आकर बड़े दीन-भाव से बोले-क्या करूं, हुजूर, घर तबाह हुआ जा रहा है। हुजूर से न रोऊ, तो किससे रोऊ! घर तबाह हुआ जाता है। लल्लू न जाने क्या करने पर तुला है। मनोरमा ने सशंक होकर पूछा-क्या बात है, मुंशीजी? अभी तो आज बाबूजी वहां मेरे पास आए थे, कोई नई बात नहीं कही।

मुंशी-वह अपनी बात किसी से कहता है कि आपसे कहेगा? मुझसे भी कभी कुछ नहीं कहा, लेकिन आज प्रयाग जाने को तैयार बैठा हुआ है। बहू को भी साथ लिए जाता है। कहता है, अब यहां न रहूँगा।

मनोरमा-आपने पूछा नहीं कि क्यों जा रहे हो! जरूर उन्हें किसी बात से रंज पहुंचा होगा, नहीं तो वह बहू को लेकर न जाते। बहू ने तो कहीं उनके कान नहीं भर दिए?

मुंशी-नहीं हुजूर, वह तो साक्षात् लक्ष्मी है। मैंने तो अपनी जिंदगी भर में ऐसी औरत देखी ही नहीं। एक महीना से ज्यादा हो गया; पर ऐसा कभी नहीं हुआ कि अपनी सास की देह दबाए बगैर सोई हो। सबसे पहले उठती है और सबके पीछे सोती है। उसको तो मैं कुछ कह नहीं सकता। यह सब लल्लू की शरारत है। जो उसके मन में आता है, वही करता है। मुझे तो कुछ समझता ही नहीं। आगरे में जाकर शादी की। कितना समझाया, पर न माना। मैंने दरगुजर किया। बहू को धूमधाम से घर लाया। सोचा, जब लड़के से इसका संबंध हो गया, तो अब बिगड़ने और रूठने से नहीं टूट सकता। लड़की का दिल क्यों दुखाऊं, लेकिन लल्लू का मुंह फिर भी सीधा नहीं होता। अब न जाने मुझसे क्या करवाना चाहता है।

मनोरमा-जरूर कोई-न-कोई बात होगी। घर में किसी ने ताना तो नहीं मारा?

मुंशी-इल्म की कसम खाकर कहता हूँ, हुजूर, जो किसी ने चूं तक की हो। ताना उसे दिया जाता है, जो टर्राए। वह तो सेवा और शील की देवी है, उसे कौन ताना दे सकता है? हां, इतना जरूर है कि हम दोनों आदमी उसका छुआ नहीं खाते।

मनोरमा ने सिर हिलाकर कहा-अच्छा, यह बात है ! भला बाबूजी यह कब बर्दाश्त करने लगे। मैं अहिल्या की जगह होती, तो उस घर में एक क्षण भी न रहती। वह न जाने कैसे इतने दिन रह गई।

मुंशी-उससे तो कभी इस बात की चर्चा तक नहीं की, हुजूर। (आप बार-बार मना करती हैं कि मुझे हुजूर न कहा करो; पर जबान से निकल ही आता है।) इसीलिए तो मैंने उसके आते ही एक महाराजिन रख ली, जिसमें खाने-पीने का सवाल ही न पैदा हो। संयोग की बात है, कल महराजिन ने बहू से तरकारी बघारने के लिए घी मांगा। बहू घी लिए हुए चौके में चली गई। चौका छूत हो गया। लल्लू ने तो खाना खाया और सबके लिए बाजार से पूरियां आईं। बहू तभी से पड़ रही है और लल्लू घर छोड़कर उसे लिए चला जा रहा है।

मनोरमा ने विरक्त भाव से कहा-तो मैं क्या कर सकती हूँ?

मुंशी-आप सब कुछ कर सकती हैं। आप जो कर सकती हैं, वह दूसरा नहीं कर सकता। आप जरा चलकर उसे समझा दें। मुझ पर इतनी दया करें। सनातन से जिन बातों को मानते आए हैं, वे सब छोड़ी नहीं जाती।

मनोरमा-तो न छोड़िए, आपको कोई मजबूर नहीं करता। आपको अपना धर्म प्यारा है और होना भी चाहिए। उन्हें भी अपना सम्मान प्यारा है और होना भी चाहिए। मैं जैसे आपको बहू के हाथ का भोजन ग्रहण करने को मजबूर नहीं कर सकती, उसी भांति उन्हें भी यह अपमान सहने के लिए नहीं दबा सकती। आप जानें और वह जानें, मुझे बीच में न डालिए।

मुंशी-हुजूर, इतना निराश न करें। यदि बच्चा चले गए, तो हम दोनों प्राणी तो रोते-रोते मर जाएंगे।

मनोरमा-तो इसकी क्या चिंता? एक दिन तो सभी को मरना है, यहां अमर कौन है? इतने दिन तो जी लिए: दो-चार साल और जिए तो क्या?

मुंशी-रानीजी, आप जले पर नमक छिड़क रही हैं। इतना तो नहीं होता कि चलकर समझा दें, ऊपर से और ताने देती हैं। बहू का आदर-सत्कार करने में कोई बात हम उठा नहीं रखते, एक उसका छुआ न खाया, तो इसमें रूठने की क्या बात है? हम कितनी ही बातों से दब गए, तो क्या उन्हें एक बात में भी नहीं दबना चाहिए ?

मनोरमा-तो जाकर दबाइए न, मेरे पास क्यों दौड़े आए हैं ! मेरी राय अगर पूछते हैं, तो जाकर चुपके से बहू के हाथ से खाना पकवाकर खाइए। दिल से यह भाव बिल्कुल निकाल डालिए कि वह नीची है और आप ऊंचे हैं। इस भाव का लेश भी दिल में न रहने दीजिए। जब वह आपकी बहू हो गई, तो बहू ही समझिए। अगर यह छुआछूत का बखेड़ा करना था, तो बहू को लाना ही न चाहिए था। आपकी बहू रूप-रंग में व शील-गुण में किसी से कम नहीं। मैं तो कहती हूँ कि आपकी बिरादरी भर में ऐसी एक भी स्त्री न होगी। अपने भाग्य को सराहिए कि ऐसी बहू पाई। अगर खान-पान का ढोंग करना है तो जरूर कीजिए। मैं इस विषय में बाबूजी से कुछ नहीं कह सकती। कुछ कहना ही नहीं चाहती। वह वही कर रहे हैं, जो इस दशा में उन्हें करना चाहिए।

मुंशीजी बड़ी आशा बांधकर यहां दौड़े आए थे। यह फैसला सुना तो कमर टूट-सी गई। फर्श पर बैठ गए और अनाथ भाव से माथे पर हाथ रखकर सोचने लगे, अब क्या करूं? राजा साहब अभी तक इन दोनों आदमियों की बातें सुन रहे थे। अब उन्हें अपनी विपत्ति-कथा कहने का अवसर मिला। बोले-आपकी बात तो तय हो गई। अब जरा मेरी भी सुनिए। मैं तो गुरुसेवक के पास बैठा हुआ था, यहां नोरा और रोहिणी से किसी बात पर झड़प हो गई। रोहिणी का स्वभाव तो आप जानते ही हैं। क्रोध उसकी नाक पर रहता है। न जाने इन्हें क्या कहा कि अब यह कह रही हैं कि मैं काशी जाऊंगी ही नहीं। कितना समझा रहा हूँ, पर मानती ही नहीं।

मुंशीजी ने मनोरमा की ओर देखकर कहा-इन्हें भी तो लल्लू ने शिक्षा दी है। न वह किसी की मानता है, न यह किसी की मानती हैं।

मनोरमा ने मुस्कराकर कहा-आपको एक देवी के अपमान करने का दंड मिल रहा है। राजा साहब ने कहा-और मुझे?

मनोरमा ने मुंह फेरकर कहा-आपको बहुत से विवाह करने का।

मनोरमा यह कहती हुई वहां से चली गई। उसे अभी अपने लिए कोई स्थान ठीक करना था, शहर से अपनी आवश्यक वस्तुएं मंगवानी थीं। राजा साहब मुंशीजी को लिए हुए बाहर आए और सामने वाले बाग में बेंच पर जा बैठे। मुंशीजी घर जाना चाहते थे, जी घबरा रहा था; पर राजा साहब से आज्ञा मांगते हुए डरते थे। राजा साहब बहुत ही चिंतित दिखलाई देते थे। कुछ देर तक तो वह सिर झुकाए बैठे रहे, तब गंभीर भाव से बोले-मुंशीजी, आपने नोरा की बातें सुनीं? कितनी मीठी चुटकियां लेती है। सचमुच बहुत से विवाह करना अपनी जान आफत में डालना है। मैंने समझा था, अब दिन आनंद से कटेंगे और इन चुडैलों से पिंड छूट जाएगा; पर नोरा ने मुझे फिर उसी विपत्ति में डाल दिया। यहां रहकर मैं बहुत दिन जी नहीं सकता। रोहिणी मुझे जीता न छोड़ेगी। आज उसने जिस दृष्टि से मेरी ओर देखा, वह साफ कहे देती थी कि वह ईर्ष्या के आवेश में जो कुछ न कर बैठे, वह थोडा है। उसकी आंखों से ज्वाला-सी निकल रही थी। शायद उसका बस होता, तो मुझे खा जाती। कोई ऐसी तरकीब नहीं सूझती, जिससे नोरा का विचार पलट सकूँ।

मंशी-हुजूर, वह खुद यहां बहुत दिनों तक न रहेंगी। आप देख लीजिएगा। उनका जी यहा से बहुत जल्दी ऊब जाएगा।

राजा-ईश्वर करें, आपकी बात सच निकले। आपको देर हो रही हो, तो जाइए। मेरी डाक वहां से बराबर भेजते रहिएगा, मैं शायद वहां रोज न आ सकूँगा। यहां तो अब नए सिरे से सारा प्रबंध करना है।

आधी रात से ज्यादा बीत चुकी थी, पर मनोरमा की आंखों में नींद न आई थी। उस विशाल भवन में, जहां सुख और विलास की सामग्रियां भरी हुई थीं, उसे अपना जीवन शून्य जान पड़ता था। एक निर्जन, निर्मम वन में वह अकेली खड़ी थी। एक दीपक सामने बहुत दूर पर अवश्य जल रहा था: पर वह जितना ही चलती थी, उतना ही वह दीपक भी उससे दूर होता जाता था। उसन मंशीजी के सामने तो चक्रधर को समझाने से इंकार कर दिया था, पर अब ज्यों-ज्यों रात बातता थी, उनसे मिलने के लिए तथा उन्हें रोकने के लिए उसका मन अधीर हो रहा था। उसने सोचाक्या अहिल्या के साथ विवाह होने से वह उसके हो जाएंगे? क्या मेरा उन पर कोई अधिकार नहीं? वह जाएंगे कैसे? मैं उनका हाथ पकड़ लूंगी। खींच लाऊंगी। अगर अपने घर में नहीं रह सकते, तो मेरे यहां रहने में उन्हें क्या आपत्ति हो सकती है? मैं उनके लिए अपने यहां प्रबंध कर दूंगी; मगर बड़े निष्ठुर प्रकृति के मनुष्य हैं। आज मेरे पास इतनी देर बैठे अपनी समिति का रोना रोते रहे, फटे मुंह से भी न कहा कि मैं प्रयाग जा रहा हूँ, मानो मेरा उनसे कोई नाता ही नहीं। मुझसे मिलने के लिए इच्छुक तो वह होंगे, पर कुछ न कर सकते होंगे। वह भी मजबूर होकर जा रहे होंगे। वह अहिल्या सचमुच भाग्यवती है। उसके लिए वह कितना कष्ट झेलने को तैयार हैं। प्रयाग में न कोई अपना न पराया, सारी गृहस्थी जुटानी पड़ेगी।

यह सोचते ही उसे खयाल आया कि चक्रधर बिल्कुल खाली हाथ हैं। पत्नी साथ, खाली हाथ, नई जगह, न किसी से राह, न रस्म; संकोची प्रकृति, उदार हृदय, उन्हें प्रयाग में कितना कष्ट होगा ! मैंने बड़ी भूल की। मुंशीजी के साथ मुझे चला जाना चाहिए था। बाबूजी मेरा इंतजार कर रहे होंगे।

उसने घड़ी की ओर देखा। एक बज गया था। चैत की चांदनी खिली हुई थी। चारपाई से उठकर आंगन में आई। उसके मन में प्रश्न उठा-क्यों न इसी वक्त चलूं? घंटे भर में पहुँच जाऊंगी। चांदनी छिटकी हुई है, डर किस बात का? राजा साहब नींद में हैं। उन्हें जगाना व्यर्थ है। सबेरे तक तो मैं लौट ही आऊंगी।

लेकिन फिर खयाल आया, इस वक्त जाऊंगी, तो लोग क्या कहेंगे। जाकर इतनी रात गए सबको जगाना कितना अनुचित होगा। वह फिर आकर लेट रही और सो जाने की चेष्टा करने लगी। पांच घंटे इसी प्रतीक्षा में जागते रहना कठिन परीक्षा थी। उसने चक्रधर को रोक लेने का निश्चय कर लिया था।

बारे अबकी उसे नींद आ गई। पिछले पहर चिंता भी थककर सो जाती है। सारी रात करवटें बदलने वाला प्राणी भी इस समय निद्रा में मग्न हो जाता है; लेकिन देर से सोकर भी मनोरमा को उठने में देर नहीं लगी। अभी सब लोग सोते ही थे कि वह उठ बैठी और तुरंत मोटर तैयार करने का हुक्म दिया। फिर अपने हैंडबेग में कुछ चीजें रखकर वह रवाना हो गई।

चक्रधर भी प्रात:काल उठे और चलने की तैयारियां करने लगे। उन्हें माता-पिता को छोडकर जाने का दुःख हो रहा था। पर उस घर में अहिल्या की जो दशा थी, वह उनके लिए असह्य थी। अहिल्या ने कभी शिकायत न की थी। वह चक्रधर के साथ सब कुछ झेलने को तैयार थी, लेकिन चक्रधर को यह किसी तरह गवारा न था कि अहिल्या मेरे घर में पराई बनकर रहे। माता-पिता से भी कुछ कहना-सुनना उन्हें व्यर्थ मालूम होता था; मगर केवल यही कारण उनके यहां से प्रस्थान करने का न था। एक कारण और भी था, जिसे वह गुप्त रखना चाहते थे, जिसकी अहिल्या को खबर न थी ! यह कारण मनोरमा थी। जैसे कोई रोगी रुचि रखते हुए भी स्वादिष्ट वस्तुओं से बचता है कि कहीं उनसे रोग और न बढ़ जाए, उसी भांति चक्रधर मनोरमा से भागते थे।

आजकल मनोरमा दिन में एक बार उनके घर जरूर आ जाती। अगर खुद न आ सकती थी, तो उन्हीं को बुला भेजती। उसके सम्मुख आकर चक्रधर को अपना संयम, विचार और मानसिक स्थिति ये सब बालू की मेंड की भांति पैर पड़ते ही खिसकते मालूम होते। उसके सौंदर्य से कहीं अधिक उसका आत्मसमर्पण घातक था। उन्हें प्राण लेकर भाग जाने ही में कुशल दिखाई देती थी। गाड़ी सात बजे छूटती थी। वह अपना बिस्तर और पुस्तकें बाहर निकाल रहे थे। भीतर अहिल्या अपनी सास और ननद के गले मिलकर रो रही थी, कि इतने में मनोरमा की मोटर आती हुई दिखाई दी। चक्रधर मारे शर्म के गड़ गए। उन्हें मालूम हुआ था कि पिताजी ने मनोरमा को मेरे जाने की खबर दे दी है; और वह जरूर आएगी; पर वह उसके आने के पहले ही रवाना हो जाना चाहते थे। उन्हें भय था कि उसके आग्रह को न टाल सकूँगा, घर छोड़ने का कोई कारण न बता सकूँगा और विवश होकर मुझे यहीं रहना पड़ेगा। मनोरमा को देखकर वह सहम उठे; पर मन में निश्चय कर लिया कि इस समय निष्ठुरता का स्वांग भरूंगा, चाहे वह अप्रसन्न ही क्यों न हो जाए ।

मनोरमा ने मोटर से उतरते हुए कहा-बाबूजी, अभी जरा ठहर जाइए। यह उतावली क्यों? आप तो ऐसे भागे जो रहे हैं, मानो घर से रूठे जाते हों। बात क्या है, कुछ मालूम भी तो हो?

चक्रधर ने पुस्तकों का गट्ठर संभालते हुए कहा-बात कुछ नहीं है। भला, कोई बात होती तो आपसे कहता न। यों ही जरा इलाहाबाद रहने का विचार है। जन्म भर पिता की कमाई खाना तो उचित नहीं।

मनोरमा-तो प्रयाग में कोई अच्छी नौकरी मिल गई है?

चक्रधर-नहीं, अभी मिली तो नहीं है; पर तलाश कर लूंगा।

मनोरमा-आप ज्यादा से ज्यादा कितने की नौकरी पाने की आशा रखते हैं?

चक्रधर को मालूम हुआ कि मुझसे बहाना न करते बना। इस काम में बहुत सावधानी रखने की जरूरत है। बोले-नौकरी ही का खयाल नहीं है, और भी बहुत से कारण हैं। गाड़ी सात ही बजे जाती है और मैंने वहां मित्रों को सूचना दे दी है नहीं तो मैं आपसे सारी रामकथा सुनाता।

मनोरमा-आप इस गाड़ी से नहीं जा सकते। जब तक मुझे मालूम न हो जाएगा कि आप किस कारण से और वहां क्या करने के इरादे से जाते हैं, मैं आपको न जाने दूंगी।

चक्रधर-मैं दस-पांच दिन में एक दिन के लिए आकर आपसे सब कुछ बता दूंगा; पर इस वक्त गाड़ी छूट जाएगी। मेरे मित्र स्टेशन पर मुझे लेने आएंगे। सोचिए, उन्हें कितना कष्ट होगा!

मनोरमा-मैंने कह दिया, आप इस गाड़ी से नहीं जा सकते।

चक्रधर-आपको सारी स्थिति मालूम होती, तो आप मुझे रोकने की चेष्टा न करतीं। आदमी विवश होकर ही अपना घर छोड़ता है। मेरे लिए अब यहां रहना असंभव हो गया है।

मनोरमा-तो क्या यहां कोई दूसरा मकान नहीं मिल सकता?

चक्रधर-मगर एक ही जगह अलग घर में रहना कितना भद्दा मालूम होता है। लोग यही समझेंगे कि बाप-बेटे या सास-बहू में नहीं बनती।

मनोरमा-आप तो दूसरों के कहने की बहुत परवा न करते थे।

चक्रधर-केवल सिद्धांत के विषय में। माता-पिता से अलग रहना तो मेरा सिद्धांत नहीं।

मनोरमा-तो क्या अकारण घर से भाग जाना आपका सिद्धांत है? सुनिए, मुझे आपके घर की दशा थोड़ी मालूम है। ये लोग अपने संस्कारों से मजबूर हैं। न तो आप ही उन्हें दबाना पसंद करेंगे। क्यों न अहिल्या को कुछ दिनों के लिए मेरे साथ रहने देते? मैंने जगदीशपुर ही में रहने का निश्चय किया है। आप वहां रह सकते हैं। मेरी बहुत दिनों से इच्छा है कि कुछ दिन आप मेरे मेहमान हों। वह भी तो आप ही का घर है। मैं अपना सौभाग्य समझूगी। मैंने आपसे कभी कुछ नहीं मांगा। आज मेरी इतनी बात मान लीजिए। वह कोई आदमी आता है। मैं जरा घर में जाती हूँ। यह बिस्तर वगैरह खोलकर रख दीजिए। यह सब सामान देखकर मेरा हृदय जाने कैसा हुआ जाता है।

चक्रधर-नहीं मनोरमा, मुझे जाने दो।

मनोरमा-आप न मानेंगे?

चक्रधर-यह बात न मानूंगा।

मनोरमा-मुझे रोते देखकर भी नहीं?

मनोरमा की आंखों से आंसू गिरने लगे। चक्रधर की आंखें भी डबडबा गईं। बोले-मनोरमा, मुझे जाने दो। मैं वादा करता हूँ कि बहुत जल्द लौट आऊंगा।

मनोरमा-अच्छी बात है,जाइए लेकिन एक बात आपको माननी पड़ेगी। मेरी यह भेंट स्वीकार कीजिए।

यह कहकर उसने अपना हैंडबेग चक्रधर की तरफ बढ़ाया।

चक्रधर ने पूछा-इमसें क्या है?

मनोरमा-कुछ भी हो।

चक्रधर-अगर न लूं तो?

मनोरमा-तो मैं अपने हाथों से आपका बोरिया-बंधना उठाकर घर में रख आऊंगी।

चक्रधर-आपको इतना कष्ट न उठाना पड़ेगा। मैं इसे लिए लेता हूँ। शायद वहां भी मुझे कोई काम करने की जरूरत न पड़ेगी। इस बैग का वजन ही बतला रहा है।

मनोरमा घर में गई, तो निर्मला बोली-माना कि नहीं बेटी?

मनोरमा-नहीं मानते। मनाकर हार गई।

मुंशी-आपके कहने से न माना, तो फिर किसके कहने से मानेगा!

तांगा आ गया। चक्रधर और अहिल्या उस पर जा बैठे, तो मनोरमा भी अपनी मोटर पर बैठकर चली गई। घर के बाकी तीनों प्राणी द्वार पर खड़े रह गए।

उनतीस

सार्वजनिक काम के लिए कहीं भी क्षेत्र की कमी नहीं, केवल मन में नि:स्वार्थ सेवा का भाव होना चाहिए। चक्रधर प्रयाग में अभी अच्छी तरह जमने भी न पाए थे कि चारों ओर से उनके लिए खींचतान होने लगी। थोड़े ही दिन में वह नेताओं की श्रेणी में आ गए। उनमें देश का अनुराग था, काम करने का उत्साह था और संगठन करने की योग्यता थी। सारे शहर में एक भी ऐसा प्राणी न था, जो उनकी भांति नि:स्पृह हो। और लोग अपना फालतू समय ही सेवा कार्य के लिए दे सकते थे, द्रव्योपार्जन उनका मुख्य उद्देश्य था। चक्रधर के लिए इस समय काम के सिवा और कोई फिक्र न थी। यह कोई न पूछता कि आपको कोई तकलीफ तो नहीं है? काम लेने वाले बहुतेरे थे। सवारी करने वाले सब थे, पर घास-चारा देने वाला कोई भी न था। उन्होंने शहर के निकास पर एक छोटा सा मकान किराए पर ले लिया था और बड़ी किफायत से गुजर करते थे। आगरे में उन्हें जितने रुपए मिले थे, वे मुंशी वज्रधर की भेंट कर दिए थे। वहां रुपए का नित्य अभाव रहता था। कम मिलने पर कम तंगी रहती थी, क्योंकि जरूरतें घटा ली जाती थीं। अधिक मिलने पर तंगी भी अधिक हो जाती थी क्योंकि जरूरतें बढ़ा ली जाती थीं।

चक्रधर को अब ज्ञात होने लगा था कि गृहस्थी में पड़कर कुछ न कुछ आमदनी होनी ही चाहिए। अपने लिए उन्हें कोई चिंता न थी, लेकिन अहिल्या को वह दरिद्रता की परीक्षा में डालना न चाहते थे। वह अब बहुधा चिंतित दिखाई देती; यों वह कभी शिकायत न करती थी, पर यह देखना कठिन न था कि वह अपनी दशा से संतुष्ट नहीं है। वह गहने-कपड़े की भूखी न थी, सैरतमाशे का उसे चस्का नहीं था, पर खाने-पीने की तकलीफ उससे न सही जाती थी ! वह सब कुछ सह सकती थी। उसकी सहन शक्ति का वारापार न था। चक्रधर को इस दशा में देखकर उसे दुःख होता था। जब और लोग पहले अपने घर में चिराग जलाकर मस्जिद में जलाते हैं, तो वही क्यों अपने घर को अंधेरा छोड़कर मस्जिद में चिराग जलाने जाएंगे? औरों को अगर मोटरफिटन चाहिए, तो क्या यहां पैरगाड़ी भी न हो? दूसरों को पक्की हवेलियां चाहिएं, तो क्या यहां साफ-सुथरा मकान भी न हो? दूसरे जायदादपैदा करते हैं, तो क्या यहां भोजन भी न हो? आखिर प्राण देकर तो सेवा नहीं की जाती। अगर इस उत्सर्ग के बदले चक्रधर को यश का बड़ा भाग मिलता, तो शायद अहिल्या को संतोष हो जाता, आंसू पुंछ जाते, लेकिन जब वह औरों को बिना कष्ट उठाए चक्रधर के बराबर या उनसे अधिक यश पाते देखती थी, तो उसे धैर्य न रहता था। जब खाली ढोल पीटकर भी, अपना घर भरकर भी यश कमाया जा सकता है, तो इस त्याग और विराग की जरूरत ही क्या ! जनता धनियों का जितना मान-सम्मान करती है, उतना सेवकों का नहीं। सेवा-भाव के साथ धन भी आवश्यक है। दरिद्र सेवक, चाहे वह कितने ही सच्चे भाव से क्यों न काम करे, चाहे वह जनता के लिए प्राण ही क्यों न दे दे, उतना यश नहीं पा सकता, जितना एक धनी आदी अल्प-सेवा करके पा जाता है। अहिल्या को चक्रधर का आत्म-दमन इसीलिए बुरा लगता था और वह मुंह में कुछ न कहकर भी दुखी रहती थी। सेवा स्वयं अपना बदला है, यह आदर्श उसका समझ में न आता था।

अगर चक्रधर को अपना ही खर्च संभालना होता, तो शायद उन्हें बहुत कष्ट न होता, क्योंकि उनके लेख बहुत अच्छे होते थे और दो-तीन समाचार-पत्रों में लिखकर वह अपनी जरूरत-भर को पैदा कर लेते थे। पर मुंशी वज्रधर के तकाजों के मारे उनकी नाक में दम था। मनोरमा जगदीशपुर जाकर संसार से विरक्त-सी हो गई थी। न कहीं आती, न कहीं जाती और न रियासत के किसी मामले में बोलती। धन से उसे घृणा ही हो गई थी। सब कुछ छोड़कर वह अपनी कुटी में जा बैठी थी, मानो कोई संन्यासिनी हो, इसलिए अब मुंशीजी को केवल वेतन मिलता था और उसमें उनका गुजर न होता था। चक्रधर को बार-बार तंग करते, और उन्हें विवश होकर पिता की सहायता करनी पड़ती।

अगहन का महीना था। खासी सर्दी पड़ रही थी, मगर अभी तक चक्रधर जाड़े के कपड़े न बनवा पाए थे। अहिल्या के पास तो पुराने कपड़े थे, पर चक्रधर के पुराने कपड़े मुंशीजी के मारे बचने ही न पाते। या तो खुद पहन डालते, या किसी को दे देते। वह इसी फिक्र में थे कि कहीं से रुपए आ जाएं, तो एक कंबल ले लूं। आज बड़े इंतजार के बाद लखनऊ से एक मासिक पत्र के कार्यालय से पच्चीस रुपए का मनीआर्डर आया था और वह अहिल्या के पास बैठे हुए कपड़ों का प्रोग्राम बना रहे थे।

अहिल्या ने कहा, मुझे अभी कपड़ों की जरूरत नहीं है। तुम अपने लिए एक अच्छा-सा कंबल कोई पंद्रह रुपए में ले लो। बाकी रुपयों में अपने लिए ऊनी कुरता और एक जूता ले लो। जूता बिल्कुल फट गया है।

चक्रधर-पंद्रह रुपए का कंबल क्या होगा? मेरे लायक तीन-चार रुपए में अच्छा-सा कंबल मिल जाएगा। बाकी रुपयों से तुम्हारे लिए एक अलवान ला देता हूँ। सवेरे उठकर तुम्हें कामकाज करना पड़ता है, कहीं सर्दी खा जाओ, तो मुश्किल पड़े। ऊनी कुरते की जरूरत नहीं। हां, तुम एक सलूका बनवा लो। मैं तगड़ा आदमी हूँ, ठंड सह सकता हूँ।

अहिल्या-खूब तगड़े हो, क्या कहना है ! जरा आईने में जाकर सूरत तो देखो। जब से यहां आए हो, आधी देह भी नहीं रही। मैं जानती कि यहां आकर तुम्हारी यह दशा हो जाएगी, तो कभी घर से कदम न निकालती। मुझसे लोग छूत माना करते, क्या परवाह थी ! तुम तो आराम से रहते। अलवान-सलवान न लूंगी, तुम आज एक कंबल लाओ, नहीं तो मैं सच कहती हूँ, यदि बहुत दिक करोगे तो मैं आगरे चली जाऊंगी।

चक्रधर-तुम्हारी यही जिद तो मुझे अच्छी नहीं लगती। मैं कई साल से अपने को इसी ढंग के जीवन के लिए साध रहा हूँ। मैं दुबला हूँ तो क्या, गर्मी-सर्दी खूब सह सकता हूँ। तुम्हें यहां नौ-दस महीने हुए, बताओ मेरे सिर में एक दिन भी दर्द हुआ? हां, तुम्हें कपड़े की जरूरत है। तुम अभी ले लो अब की रुपए आएंगे, तो मैं बनवा लूंगा।

इतने में डाकिये ने पुकारा। चक्रधर ने जाकर खत ले लिया और उसे पढ़ते हए अंदर आए। अहिल्या ने पूछा-लालाजी का खत है? लोग अच्छी तरह हैं न?

चक्रधर-मेरे आते ही न जाने उन लोगों पर क्या साढ़ेसाती सवार हो गई कि जब देखो, एक न एक विपत्ति सवार ही रहती है। अभी मंगला बीमार थी। अब अम्मां बीमार हैं। बाबूजी को खांसी आ रही है। रानी साहब के यहां से अब वजीफा नहीं मिलता है। लिखा है कि इस वक्त पचास रुपए अवश्य भेजो।

अहिल्या-क्या अम्मांजी बहुत बीमार हैं?

चक्रधर-हां, लिखा तो है।

अहिल्या-तो जाकर देख ही क्यों न आओ?

चक्रधर-तुम्हें अकेली छोड़कर?

अहिल्या-डर क्या है?

चक्रधर-चलो। रात को कोई आकर लूट ले, तो चिल्ला भी न सको। कितनी बार सोचा कि चलकर अम्मां को देख आऊं, पर कभी इतने रुपए ही नहीं मिलते। अब बताओ, इन्हें रुपए कहाँ से भेजूं?

अहिल्या-तुम्हीं सोचो, जो बैरागी बनकर बैठे हो। तुम्हें बैरागी बनना था, तो नाहक गृहस्थी के जंजाल में फंसे। मुझसे विवाह करके तुम सचमुच बला में फंस गए। मैं न होती, तो क्यों तुम यहां आते और क्यों यह दशा होती? सबसे अच्छा है, तुम मुझे अम्मां के पास पहुंचा दो। अब वह बेचारी अकेली रो-रोकर दिन काट रही होंगी। जाने से निहाल हो जाएंगी।

चक्रधर-हम और तुम दोनों क्यों न चले चलें?

अहिल्या-जी नहीं, दया कीजिए। आप वहां भी मेरे प्राण खाएंगे और बेचारी अम्मांजी को रुलाएंगे ! मैं झूठों भी लिख दूं कि अम्मांजी, मैं तकलीफ में हूँ, तो तुरंत किसी को भेजकर मुझे बुला लें।

चक्रधर-मुझे बाबूजी पर बड़ा क्रोध आता है। व्यर्थ मुझे तंग करते हैं। अम्मां की बीमारी तो बहाना है, सरासर बहाना।

अहिल्या-यह बहाना हो या सच हो, ये पच्चीस रुपए भेज दो। बाकी के लिए लिख दो कोई फिक्र करके जल्दी ही भेज दूंगा। तुम्हारी तकदीर में इस साल जड़ावल नहीं लिखा है।

चक्रधर-लिखे देता हूँ, मैं खुद तंग हूँ, आपके पास कहाँ से भेजूं?

अहिल्या-ए हटो भी, इतने रुपयों के लिए मुंह चुराते हो, भला वह अपने दिल में क्या कहेंगे ! ये रुपए चुपके से भेज दो!

चक्रधर कुछ देर तक मौन धारण किए बैठे रहे, मानो किसी गहरी चिंता में हों। एक क्षण के बाद बोले-किसी से कर्ज लेना पड़ेगा, और क्या।

अहिल्या-नहीं, तुम्हारे हाथ जोड़ती हूँ, कर्ज मत लेना। इससे तो इंकार कर देना ही अच्छा

है।

चक्रधर-किसी ऐसे महाजन से लूंगा, जो तकादे न करेगा। अदा करना बिल्कुल मेरी इच्छा पर होगा।

अहिल्या-ऐसा कौन महाजन है, भई? यहीं रहता है? कोई दोस्त होगा? दोस्त से तो कर्ज लेना ही न चाहिए। इससे तो महाजन कहीं अच्छा। कौन हैं, जरा उसका नाम तो सुनूं?

चक्रधर-अजी, एक पुराना दोस्त है, जिसने मुझसे कह रखा है तुम्हें जब रुपए की कोई जरूरत आ पड़े, जो टाले न टल सके, तो तुम हमसे मांग लिया करना, फिर जब चाहे दे देना।

अहिल्या-कौन है, बताओ, तुम्हें मेरी कसम!

चक्रधर-तुमने कसम रखा दी, यह बड़ी मुश्किल आ पड़ी। वह मित्र रानी मनोरमा हैं। उन्होंने मुझे घर से चलते समय एक छोटा-सा बैग दिया था। मैंने उस वक्त तो खोला नहीं, गाड़ी में बैठकर खोला, तो उसमें पांच हजार रुपए के नोट निकले। सब रुपए ज्यों-के-त्यों रखे हुए हैं।

अहिल्या-और तो कभी नहीं निकाला?

चक्रधर-कभी नहीं, यह पहला मौका है।

अहिल्या-तो भूलकर भी न निकालना।

चक्रधर-लालाजी जिंदा न छोड़ेंगे, समझ लो।

अहिल्या-साफ कह दो, मैं खाली हाथ हूँ, बस। रानीजी की अमानत किसी मौके से लौटानी होगी। अमीरों का एहसान कभी न लेना चाहिए, कभी-कभी उसके बदले में अपनी आत्मा तक बेचनी पड़ती है। रानीजी तो हमें बिल्कुल भूल ही गईं। एक खत न लिखा।

चक्रधर-आजकल उनको अपने घर के झगड़ों ही से फुरसत न मिलती होगी। राजा साहब से विवाह करके अपना जीवन ही नष्ट कर दिया।

अहिल्या-हृदय बड़ा उदार है।

चक्रधर-उदार ! यह क्यों नहीं कहतीं कि अगर उनकी मदद न हो, तो प्रांत की कितनी ही सेवा-संस्थाओं का अंत हो जाए । प्रांत में यदि ऐसे लगभग दस प्राणी हो जाएं तो बड़ा काम हो जाए ।

अहिल्या-ये रुपए लालाजी के पास भेज दो, तब तक और सरदी का मजा उठा लो।

अहिल्या उसी दिन बड़ी रात तक चिंता में पड़ी रही कि जड़ावल का क्या प्रबंध हो। चक्रधर ने सेवा-कार्य का इतना भारी बोझ अपने सिर ले लिया था कि उनसे अधिक धन कमाने की आशा न की जा सकती थी। बड़ी मुश्किलों से रात को थोड़ा-सा समय निकालकर बेचारे कुछ लिख-पढ़ लेते थे। धन की उन्हें चेष्टा ही न थी। इसे वह केवल जीवन का उपाय समझते थे। अधिक धन कमाने के लिए उन्हें मजबूर करना उन पर अत्याचार करना था। उसने सोचना शुरू किया, मैं कुछ काम कर सकती हूँ या नहीं। सिलाई और बूटे-कसीदे का काम वह खूब कर सकती थी, पर चक्रधर को यह कब मंजूर हो सकता था कि वह पैसे के लिए यह काम करे? एक दिन उसने एक मासिक पत्रिका में अपनी एक सहेली का लेख देखा। दोनों आगरे में साथ-साथ पढ़ती थीं। अहिल्या हमेशा उससे अच्छा नंबर पाती थी। यह लेख पढ़ते ही अहिल्या की वही दशा हुई, जो किसी असील घोड़े को चाबुक पड़ने पर होती है। वह कलम लेकर बैठ गई और उसी विषय की आलोचना करने लगी, जिसपर उसकी सहेली का लेख था। वह इतनी तेजी से लिख रही थी, मानो भागते हुए विचारों को समेट रही हो। शब्द और वाक्य आप ही आप निकलते चले आते थे। आध घंटे में उसने चार-पांच पृष्ठ लिख डाले। जब उसने उसे दुहराया, तो उसे ऐसा जान पड़ा कि मेरा लेख सहेली के लेख से अच्छा है। फिर भी उसे सम्पादक के पास भेजते हुए उसका जी डरता था कि कहीं अस्वीकृत न हो जाए । उसने दोनों लेखों को दो-तीन बार मिलाया और अंत को तीसरे दिन भेज ही दिया। तीसरे दिन जवाब आया। लेख स्वीकृत हो गया था, फिर भेजने की प्रार्थना की थी और शीघ्र ही पुरस्कार भेजने का वादा था। तीसरे दिन डाकिये ने एक रजिस्ट्री चिट्ठी लाकर दो। अहिल्या ने खोला, तो दस रुपए का नोट था। अहिल्या फूली न समाई। उसे इस बात का संतोषमय गर्व हुआ कि गृहस्थी में मैं भी मदद कर सकती हूँ। उसी दिन उसने एक दूसरा लेख लिखना शुरू किया, पर अबकी जरा देर लगी। तीसरे दिन लेख भेज दिया गया।

पूस का महीना लग गया। जोरों की सर्दी पड़ने लगी। स्नान करते समय ऐसा मालूम होता था कि पानी काट खाएगा, पर अभी तक चक्रधर जड़ावल न बनवा सके। एक दिन बादल हो आए और ठंडी हवा चलने लगी। चक्रधर दस बजे रात को अछूतों की किसी सभा से लौट रहे थे, तो मारे सर्दी के कलेजा कांप उठा। चाल तेज की, पर सर्दी कम न हुई। तब दौड़ने लगे। घर के समीप पहुँचकर थक गए। सोचने लगे-अभी से यह हाल है भगवान्, तो रात कैसे कटेगी? और मैं तो किसी तरह काट भी लूंगा, अहिल्या का क्या हाल होगा? इस बेचारी को मेरे कारण बड़ा कष्ट हो रहा है। सच पूछो, तो मेरे साथ विवाह करना इसके लिए कठिन तपस्या हो गई। कल सबसे पहले कपड़ों की फिक्र करूंगा। यह सोचते हुए वह घर आए, तो देखा कि अहिल्या अंगीठी में कोयले भरे ताप रही है। आज वह बहुत प्रसन्न दिखाई देती थी। रात को रोज रोटी और कोई साग खाया करते थे। आज अहिल्या ने पूरियां पकाई थीं, और सालन भी कई प्रकार का था। खाने में बड़ा मजा आया। भोजन करके लेटे तो दिखाई दिया, चारपाई पर एक बहुत अच्छा कंबल पड़ा हुआ है। विस्मित होकर पूछा-यह कंबल कहाँ था?

अहिल्या ने मुस्कराकर कहा-मेरे पास ही रखा था। अच्छा है कि नहीं?

चक्रधर-तुम्हारे पास कंबल कहाँ था? सच बताओ, कहाँ मिला? बीस रुपए से कम का न होगा।

अहिल्या-तुम मानते ही नहीं, तो क्या करूं। अच्छा, तुम्हीं बताओ कहाँ था?

चक्रधर-मोल लिया होगा। सच बताओ रुपए कहाँ थे?

अहिल्या-तुम्हें आम खाने से मतलब है या पेड़ गिनने से?

चक्रधर-जब तक यह न मालूम हो जाए कि आम कहाँ से आए, तब तक मैं उनमें हाथ भी न लगाऊं।

अहिल्या-मैंने कुछ रुपए बचा के रखे थे। आज कंबल मंगवा लिया।

चक्रधर-मैंने तुम्हें इतने रुपए कब दिए कि खर्च करके बच जाते? कितने का है?

अहिल्या-पच्चीस रुपए का। मैं थोड़ा-थोड़ा बचाती गई थी।

चक्रधर-मैं यह मानने का नहीं। बताओ, रुपए कहाँ मिले?

अहिल्या-बता ही दूं। अबकी मैंने 'आर्य जगत्' को दो लेख भेजे थे। उसी के पुरस्कार के तीस रुपए मिले थे। आजकल एक और लेख लिख रही हूँ।

अहिल्या ने समझा था, चक्रधर यह सुनते ही खुशी से उछल पड़ेंगे और प्रेम से मुझे गले लगा लेंगे, लेकिन यह आशा पूरी न हुई। चक्रधर ने उदासीन भाव से पूछा-कहाँ हैं लेख, जरा 'आर्य जगत्' देखू?

अहिल्या ने दोनों अंक लाकर उनको दे दिए और लजाते हुए बोली-कुछ है नहीं, ऊटपटांग जो जी में आया, लिख डाला।

चक्रधर ने सरसरी निगाह से लेखों को देखा। ऐसी सुंदर भाषा वह खुद न लिख सकते थे। विचार भी बहुत गंभीर और गहरे थे। अगर अहिल्या ने खुद कहा होता तो वह लेखों पर उसका नाम देखकर भी यही समझते कि इस नाम की कोई दूसरी महिला होगी। उन्हें कभी खयाल ही न हो सकता था कि अहिल्या इतनी विचारशील है, मगर यह जानकर भी वह खुश नहीं हुए। उनके अहंकार को धक्का-सा लगा। उनके मन में गृहस्वामी होने का जो गर्व अलक्षित रूप से बैठा हुआ था, वह चूर-चूर हो गया। वह अज्ञात भाव से बुद्धि में, विद्या में एवं व्यावहारिक ज्ञान में अपने को अहिल्या से ऊंचा समझते थे। रुपए कमाना उनका काम था। यह अधिकार उनके हाथ से छिन गया। विमन होकर बोले-तुम्हारे लेख बहुत अच्छे हैं और पहली ही कोशिश में तुम्हें पुरस्कार भी मिल गया, यह और खुशी की बात है, मुझे तो कंबल की जरूरत न थी। कम से कम में इतना कीमती कंबल न चाहता था, लेकिन इसे तुम्ही ओढ़ो। आखिर तुम्हारे पास तो वही एक पुरानी चादर है। मैं अपने लिए दूसरा कंबल ले लूंगा।

अहिल्या समझ गई कि यह बात इन्हें बुरी लगी। बोली-मैंने पुरस्कार के इरादे से तो लेख न लिखे थे। अपनी एक सहेली का लेख पढ़कर मुझे भी दो-चार बातें सूझ गईं। लिख डाली। अगर तुम्हारी इच्छा नहीं, तो अब न लिखूगी।

चक्रधर-नहीं, नहीं, मैं तुम्हें लिखने को मना नहीं करता। तुम शौक से लिखो, मगर मेरे लिए तुम्हें यह कष्ट उठाने की जरूरत नहीं। मुझे ऐश करना होता, तो सेवा क्षेत्र में आता ही क्यों? मैं सब सोच-समझकर इधर आया हूँ, मगर अब देख रहा हूँ कि 'माया और राम' दोनों साथ नहीं मिलते। मुझे राम को त्यागकर माया की उपासना करनी पड़ेगी।

अहिल्या ने कातर भाव से कहा-मैंने तो तुमसे किसी बात की शिकायत नहीं की। अगर तुम जो हो, वह न होकर धनी होते, तो शायद मैं अब तक क्वारी ही रहती। धन की मुझे लालसा न तब थी, न अब है। तुम जैसा रत्न पाकर अगर मैं धन के लिए रोऊ, तो मुझसे बढ़कर अभागिनी कोई संसार में न होगी। तुम्हारी तपस्या में योग देना मैं अपना सौभाग्य समझती हूँ। मैंने केवल यह सोचा कि जब मैंने मेहनत की है, तो उसकी मजूरी ले लेने में क्या हरज है ! यह कंबल तो कोई शाल नहीं है, जिसे ओढ़ने से संकोच हो। मेरे लिए चादर काफी है। तुम्हें जब रुपए मिलें, तो मेरे लिए लिहाफ बनवा देना।

कंबल रात भर ज्यों-का-त्यों तह किया हुआ पड़ा रहा। सर्दी के मारे चक्रधर को नींद न आती थी, पर कंबल को छुआ तक नहीं। उसका एक-एक रोयां सर्प की भांति काटने दौड़ता था। एक बार उन्होंने अहिल्या की ओर देखा। वह हाथ-पांव सिकोड़े, चादर सिर से ओढ़े एक गठरी की तरह पड़ी हुई थी, पर उन्होंने उसे भी वह कंबल न ओढ़ाया। उनका स्नेह-करुण हृदय रो पड़ा। ऐसा मालूम होता था, मानो कोई फूल तुषार से मुरझा गया हो। उनकी अंतरात्मा सहस्रों जिहाओं से उनका तिरस्कार करने लगी। समस्त संसार उन्हें धिक्कारता हुआ जान पड़ा-तेरी लोक सेवा केवल भ्रम है, कोरा प्रमाद है। जब तू उस रमणी की रक्षा नहीं कर सकता, जो तुझ पर अपने प्राण तक अर्पण कर सकती है, तो तू जनता का उपकार क्या करेगा? त्याग और भोग में दिशाओं का अंतर है। चक्रधर उन्मत्तों की भांति चारों ओर देखने लगे कि कोई ऐसी चीज मिले जो इसे ओढा सकू, लेकिन पुरानी धोतियों के सिवा उन्हें और कोई चीज न नजर आई। उन्हें इस समय भीषण मर्म-वेदना हो रही थी। अपना व्रत और संयम, अपना समस्त जीवन शुष्क और निरर्थक जान पड़ता था। जिस दरिद्रता का उन्होंने सदैव आह्वान किया था, वह इस समय भयंकर शाप की भांति उन्हें भयभीत कर रही थी। जिस रमणी-रत्न की ज्योति से रनिवास में उजाला हो जाता था, उसको मेरे हाथों यह यंत्रणा मिल रही है। सहसा अहिल्या ने आंखें खोल दी और बोली-तुम खड़े क्या कर रहे हो? मैं अभी स्वप्न देख रही थी कि कोई पिशाच मुझे नदी के शीतल जल में डुबाए देता है। अभी तक छाती धड़क रही है।

चक्रधर ने ग्लानित होकर कहा-वह पिशाच मैं ही हूँ, अहिल्या ! मेरे हाथों तुम्हें यह कष्ट मिल रहा है।

अहिल्या ने पति का हाथ पकड़कर चारपाई पर सुला दिया और वही कंबल ओढ़ाकर बोली-तुम मेरे देवता हो, जिसने मुझे मझधार से निकाला है। पिशाच मेरा मन है, जो मुझे डुबाने की चेष्टा कर रहा है।

इतने में पड़ोस के एक मुर्गे ने बांग दी। अहिल्या ने किवाड़ खोलकर देखा, तो प्रभात-कुसुम खिल रहा था। चक्रधर को आश्चर्य हुआ कि इतनी जल्दी रात कैसे कट गई।

आज वह नाश्ता करते ही कहीं बाहर न गए, बल्कि कमरे में जाकर कुछ लिखते-पढ़ते रहे। शाम को उन्हें कुमार सभा में एक वक्तृता देनी थी। विषय था 'समाजसेवा'। इस विषय को छोड़कर वह पूरे घंटे भर तक ब्रह्मचर्य की महिमा गाते रहे। सात बजते-बजते वह फिर लौट आए और दस बजे तक लिखते रहे। आज से यही उनका नियम हो गया। नौकरी तो वह कर न सकते थे। चित्त को इससे घृणा होती थी, लेकिन अधिकांश समय पुस्तकें और लेख लिखने में बिताते। उनकी विद्या और बुद्धि अब सेवा के अधीन नहीं, स्वार्थ के अधीन हो गई। भाव के साथ उनके जीवन-सिद्धांत भी बदल गए। बुद्धि का उद्देश्य केवल तत्व-निरूपण और विद्या-प्रसार न रहा, वह धनोपार्जन का मंत्र बन गया। उस मकान में अब उन्हें कष्ट होने लगा। दूसरा मकान लिया, जिसमें बिजली के पंखे और रोशनी थी। इन नए सांधनों से उन्हें लिखने-पढ़ने में और भी आसानी हो गई। बरसात में मच्छरों के मारे कोई मानसिक काम न कर सकते थे। गर्मी में तो नन्हें से आंगन में बैठना भी मुश्किल था, काम करने का जिक्र ही क्या? अब वह खुली हुई छत पर बिजली के पंखे के सामने शाम ही से बैठकर काम करने लगते थे। अहिल्या खुद तो कुछ न लिखती, पर चक्रधर की सहायता करती रहती थी। लेखों को साफ करना, अन्य पुस्तकों और पत्रों से अवतरणों की नकल करना उसका काम था। पहले ऊसर की खेती करते थे, जहां न धन था, न कीर्ति। अब धन भी मिलता था और कीर्ति भी। पत्रों के संपादक उनसे आग्रह करके लेख लिखवाते थे। लोग इन लेखों को बड़े चाव से पढ़ते थे। भाषा भी अलंकृत होती थी, भाव भी सुंदर, विषय भी उपयुक्त ! दर्शन से उन्हें विशेष रुचि थी। उनके लेख भी अधिकांश दार्शनिक होते थे।

पर चक्रधर को अब अपने कृत्यों पर गर्व न था। उन्हें काफी धन मिलता था। योरप और अमरीका के पत्रों में भी उनके लेख छपते थे। समाज में उनका आदर भी कम न था, पर सेवाकार्य में जो संतोष और शांति मिलती थी, वह अब मयस्सर न थी। अपने दीन, दुखी एवं पीड़ित बंधुओं की सेवा करने में जो गौरव-युक्त आनंद मिलता था, वह सभ्य समाज की दावतों में न प्राप्त होता था। मगर अहिल्या सुखी थी। वह अब सरल बालिका नहीं, गौरवशाली युवती थी-गृहप्रबंध में कुशल, पति सेवा में प्रवीण, उदार, दयालु और नीति-चतुर। मजाल न थी कि नौकर उसकी आंख बचाकर एक पैसा भी खा जाए। उसकी सभी अभिलाषाएं पूरी होती जाती थीं। ईश्वर ने उसे एक सुंदर बालक भी दे दिया। रही-सही कसर भी पूरी हो गई।

इस प्रकार पांच साल गुजर गए।

एक दिन काशी से राजा बिशालसिंह का तार आया। लिखा था-'मनोरमा बहुत बीमार है। तुरंत आइए। बचने की कम आशा है।' चक्रधर के हाथ से कागज छूट कर गिर पड़ा। अहिल्या संभाल न लेती, तो शायद वह खुद भी गिर पड़ते। ऐसा मालूम हुआ, मानो मस्तक पर किसी ने लाठी मार दी हो। आंखों के सामने तितलियां-सी उड़ने लगीं। एक क्षण के बाद संभलकर बोले-मेरे कपड़े बक्स में रख दो, मैं इसी गाड़ी से जाऊंगा।

अहिल्या-यह हो क्या गया है? अभी तो लालाजी ने लिखा था कि वहां सब कुशल है।

चक्रधर-क्या कहा जाए? कुछ नहीं, यह सब गृह-कलह का फल है। मनोरमा ने राजा साहब से विवाह करके बड़ी भूल की। सौतों ने तानों से छेद-छेदकर उसकी जान ले ली। राजा साहब उस पर जान देते थे। यही सारे उपद्रव की जड़ है। अहिल्या ! वह स्त्री नहीं, देवी है।

अहिल्या-हम लोगों के यहां चले आने से शायद नाराज हो गई। इतने दिनों में केवल मुन्नू के जन्मोत्सव पर एक पत्र लिखा था।

चक्रधर-हां, उनकी यही इच्छा थी कि हम सब उनके साथ रहें।

अहिल्या-कहो तो मैं भी चलूं ? देखने को जी चाहता है। उनका शील और स्नेह कभी न भूलेगा।

चक्रधर-योगेंद्र बाबू को साथ लेते चलें। इनसे अच्छा तो यहां और कोई डॉक्टर नहीं है। अहिल्या-अच्छा तो होगा। डॉक्टर साहब से तुम्हारी दोस्ती है, खूब दिल लगाकर दवा करेंगे।

चक्रधर-मगर तुम मेरे साथ लौट न सकोगी, यह समझ लो। मनोरमा तुम्हें इतनी जल्दी न आने देगी।

अहिल्या-वह अच्छी तो हो जाएं। लौटने की बात पीछे देखी जाएगी। तो तुम जाकर डॉक्टर साहब को तैयार करो। मैं यहां सब सामान तैयार कर रही हूँ।

दस बजते-बजते ये लोग यहां से डाक पर चले। अहिल्या खिड़की से पावस का मनोहर दृश्य देखती थी, चक्रधर व्यग्र हो होकर घड़ी देखते थे कि पहुँचने में कितनी देर है और मुन्नू खिड़की से बाहर कूद पड़ने के लिए जोर लगा रहा था।

तीस

चक्रधर जगदीशपुर पहुँच, तो रात के आठ बज गए थे। राजभवन के द्वार पर हजारों आदमियों की भीड़ थी। अन्न-दान दिया जा रहा था और कंगले एक पर एक टूटे पड़ते थे। सिपाही धक्के पर धक्के देते थे, पर कंगलों का रेला कम न होता था। शायद वे समझते थे कि कहीं हमारी बारी आने से पहले ही सारा अन्न समाप्त न हो जाए , अन्न कम हो जाने पर थोड़ा-थोड़ा देकर ही टरका दें। मुंशी वज्रधर बार-बार चिल्ला रहे थे-क्यों एक-दूसरे पर गिरे पड़ते हो? सबको मिलेगा, कोई खाली न जाएगा, सैकड़ों बोरे भरे हुए हैं। लेकिन उनके आश्वासन का कोई असर न दिखाई देता था। छोटी-सी बस्ती में इतने आदमी भी मुश्किल से होंगे ! इतने कंगाल न जाने कहाँ से फट पड़े थे।

सहसा मोटर की आवाज सुनकर सामने देखा, तो भीड़ को हटाकर दौड़े और चक्रधर को गले लगा लिया। पिता और पुत्र दोनों रो रहे थे, पिता में पुत्र-स्नेह था, पुत्र में पितृ-भक्ति थी, किसी के दिल में जरा भी मैल न था, फिर भी वे आज पांच साल के बाद मिल रहे हैं। कितना घोर अनर्थ है।

अहिल्या पति के पीछे खड़ी थी। मुन्न उसकी गोद में बैठा बड़े कौतूहल से दोनों आदमियों का रोना देख रहा था। उसने समझा, इन दोनों में मार-पीट हुई है, शायद दोनों ने एक-दूसरे का गला पकड़कर दबाया है, तभी तो यों रो रहे हैं। बाबूजी का गला दुख रहा होगा। यह सोचकर उसने भी रोना शुरू किया। मुंशीजी उसे रोते देखकर प्रेम से बढ़े कि उसको गोद में लेकर प्यार करूं, तो बालक ने मुंह फेर लिया। जिसने अभी-अभी बाबूजी को मारकर रुलाया है, वह क्या मुझे न मारेगा? कैसा विकराल रूप है? अवश्य मारेगा।

अभी दोनों आदमियों में कोई बात न होने पाई थी कि राजा साहब दौड़ते हुए भीतर से आते दिखाई दिए। सूरत से नैराश्य और चिंता झलक रही थी। शरीर भी दुर्बल था। आते ही आते उन्होंने चक्रधर को गले लगाकर पूछा--मेरा तार कब मिल गया था?

चक्रधर-कोई आठ बजे मिला होगा। पढ़ते ही मेरे होश उड़ गए। रानीजी की क्या हालत है?

राजा-वह तो अपनी आंखों देखोगे, मैं क्या कहूँ। अब भगवान् ही का भरोसा है। अहा! यह शंखधर महाशय हैं।

यह कहकर उन्होंने बालक को गोद में ले लिया और स्नेहपूर्ण नेत्रों से देखकर बोले-मेरी सुखदा बिल्कुल ऐसी ही थी। ऐसा जान पड़ता है, यह उसका छोटा भाई है। उसकी सूरत अभी तक मेरी आंखों में है। मुख से बिल्कुल ऐसी ही थी।

अंदर जाकर चक्रधर ने मनोरमा को देखा। वह मोटे गद्दों में ऐसे समा गई थी कि मालूम होता था पलंग खाली है, केवल चादर पड़ी है। चक्रधर की आहट पाकर उसने मुंह चादर से बाहर निकाला। दीपक के क्षीण प्रकाश में किसी दुर्बल की आह असहाय नेत्रों से आकाश की ओर ताक रही थी!

राजा साहब ने आहिस्ता से कहा-नोरा, तुम्हारे बाबूजी आ गए!

मनोरमा ने तकिए का सहारा लेकर कहा-मेरे धन्य भाग ! आइए बाबूजी, आपके दर्शन भी हो गए। तार न जाता, तो आप क्यों आते?

चक्रधर-मुझे तो बिल्कुल खबर ही न थी। तार पहुँचने पर हाल मालूम हुआ।

मनोरमा-खैर, आपने बड़ी कृपा की। मुझे तो आपके आने की आशा ही न थी।

राजा-बार-बार कहती थी कि वह न आएंगे, उन्हें इतनी फुर्सत कहाँ, पर मेरा मन कहता था, आप यह समाचार पाकर रुक ही नहीं सकते। शहर के सब चिकित्सकों को दिखा चुका। किसी से कुछ न हो सका। अब तो ईश्वर ही का भरोसा है।

चक्रधर-मैं भी एक डॉक्टर को साथ लाया हूँ। बहुत ही होशियार आदमी है।

मनोरमा (बालक को देखकर) अच्छा ! अहिल्या देवी भी आई हैं? जरा यहां तो लाना, अहिल्या ! इसे छाती से लगा लूं।

राजा-इसकी सूरत सुखदा से बहुत मिलती है, नोरा! बिल्कुल उसका छोटा भाई मालूम होता है!

'सुखदा' का नाम सुनकर अहिल्या पहले भी चौंकी थी। अबकी वही शब्द सुनकर फिर चौंकी। बाल-स्मृति किसी भूले हुए स्वप्न की भांति चेतना क्षेत्र में आ गई। उसने घूंघट की आड़ से राजा साहब की ओर देखा। उसे अपनी स्मृति पर ऐसा ही आकार खिंचा हुआ मालूम पड़ा।

बालक को स्पर्श करते ही मनोरमा के जर्जर शरीर में एक स्फूर्ति-सी दौड़ गई। मानो किसी ने बुझते हुए दीपक की बत्ती उकसा दी हो! बालक को छाती से लगाए हुए उसे अपूर्व आनंद मिल रहा था, मानो बरसों के तृषित कंठ को शीतल जल मिल गया हों और उसकी प्यास न बुझती हो। वह बालक को लिए हुए उठ बैठी और बोली-अहिल्या, मैं अब यह लाल तुम्हें न दूंगी। यह मेरा है। तुमने इतने दिनों तक मेरी सुधि न ली, यह उसी की सजा है।

राजा साहब ने मनोरमा को संभालकर कहा-लेट जाओ। लेट जाओ। देह में हवा लग रही है। क्या करती हो?

किंतु मनोरमा बालक को लिए हुए कमरे के बाहर निकल गई। राजा साहब भी उसके पीछे-पीछे दौड़े कि कहीं गिर न पड़े। कमरे में केवल चक्रधर और अहिल्या रह गए। अहिल्या धीरे से बोली-मुझे अब याद आ रहा है कि मेरा भी नाम सुखदा था। जब मैं बहुत छोटी थी, तो मुझे लोग सुखदा कहते थे।

चक्रधर ने बेपरवाही से कहा--हां, यह कोई नया नाम नहीं।

अहिल्या-मेरे बाबूजी की सूरत राजा साहब से बहुत मिलती है।

चक्रधर ने उसी लापरवाही से कहा-हां, बहुत से आदमियों की सूरत मिलती है।

अहिल्या-नहीं, बिल्कुल ऐसे ही थे। चक्रधर हो सकता है। बीस वर्ष की सूरत अच्छी तरह ध्यान में भी तो नहीं रहती।

अहिल्या-जरा तुम राजा साहब से पूछो तो कि आपकी सुखदा कब खोई थी?

चक्रधर ने झुंझलाकर कहा-चुपचाप बैठो, तुम इतनी भाग्यवान् नहीं हो। राजा साहब की सुखदा कहीं खोई नहीं, मर गई होगी।

राजा साहब इसी वक्त बालक को गोद में लिए मनोरमा के साथ कमरे में आए। चक्रधर के अंतिम शब्द उनके कान में पड़ गए। बोले-नहीं बाबूजी, मेरी सुखदा मरी नहीं, त्रिवेणी के मेले में खो गई थी। आज बीस साल हुए, जब मैं पत्नी के साथ त्रिवेणी-स्नान करने प्रयाग गया था, वहीं सुखदा खो गई थी। उसकी उम्र कोई चार साल की रही होगी। बहुत ढूंढा, पर कुछ पता न चला। उसकी माता उसके वियोग में स्वर्ग सिधारी। मैं भी बरसों तक पागल बना रहा। अंत में सब करके बैठ रहा।

अहिल्या ने सामने आकर निस्संकोच भाव से कहा-मैं भी तो त्रिवेणी के स्नान में खो गई थी। आगरा की सेवा समिति वालों ने मुझे कहीं रोते पाया और मुझे आगरे ले गए। बाबू यशोदानंदन ने मेरा पालन-पोषण किया।

राजा-तुम्हारी क्या उम्र होगी, बेटी?

अहिल्या-चौबीसवां लगा है।

राजा-तुम्हें अपने घर की कुछ याद है? तुम्हारे द्वार पर किस चीज का पेड़ था?

अहिल्या-शायद बरगद का पेड था। मुझे याद आता है कि मैं उसके गोदे चुनकर खाया करती थी।

राजा-अच्छा, तुम्हारी माता कैसी थीं? कुछ याद आता है?

अहिल्या-हां, याद क्यों नहीं आता। उनका सांवला रंग था, दुबली-पतली, लेकिन बहुत लंबी थीं। दिन भर पान खाती रहती थीं।

राजा-घर में कौन-कौन लोग थे?

अहिल्या-मेरी एक बुढ़िया दादी थी, जो मुझे गोद में लेकर कहानी सुनाया करती थीं। एक बूढ़ा नौकर था, जिसके कंधे पर रोज सवार हुआ करती थी। द्वार पर एक बड़ा-सा घोड़ा बंधा रहता था। मेरे द्वार पर एक कुआं था और पिछवाड़े एक बुढ़िया चमारिन का मकान था।

राजा ने सजल नेत्र होकर कहा-बस-बस, बेटी तुझे छाती से लगा लूं। तू ही मेरी सुखदा है। मैं बालक को देखते ही ताड़ गया था। मेरी सुखदा मिल गई! मेरी सुखदा मिल गई !

चक्रधर-अभी शोर न कीजिए। संभव है, आपको भ्रम हो रहा हो।

राजा-जरा भी नहीं, जौ भर भी नहीं, मेरी सुखदा यही है। इसने जितनी बातें बताईं, सभी ठीक हैं। मुझे लेश मात्र भी संदेह नहीं। आह ! आज तेरी माता होती तो उसे कितना आनंद होता ! क्या लीला है भगवान् की! मेरी सुखदा घर बैठे मेरी गोद में आ गई। जरा-सी गई थी, बड़ी-सी आई। अरे! मेरा शोक-संताप हरने को एक नन्हा-मुन्ना बालक भी लाई। आओ, भैया चक्रधर, तुम्हें छाती से लगा लूं। अब तक तुम मेरे मित्र थे, अब मेरे पुत्र हो। याद है, मैंने तुम्हें जेल भिजवाया था? नोरा, ईश्वर की लीला देखी? सुखदा घर में थी और मैं उसके नाम को रो बैठा था। अब मेरी अभिलाषा पूरी हो गई। जिस बात की आशा तक मिट गई थी, वह आज पूरी हो गई।

चक्रधर विमन भाव से खड़े थे, मनोरमा अंगों फूली न समाती थी। अहिल्या अभी तक खड़ी रो रही थी। सहसा रोहिणी कमरे के द्वार से जाती हुई दिखाई दी। राजा साहब उसे देखते ही बाहर निकल आए और बोले-कहाँ जाती हो, रोहिणी? मेरी सुखदा मिल गई। आओ, देखो, यह उसका लड़का है।

रोहिणी, वहीं ठिठक गई और संदेहात्मक भाव से बोली-क्या स्वर्ग से लौट आई है, क्या?

राजा-नहीं-नहीं आगरे में थी। देखो, यह उसका लड़का है। मेरी सूरत इससे कितनी मिलती है! आओ, सुखदा को देखो। मेरी सुखदा खड़ी है।

रोहिणी ने वहीं खड़े-खड़े उत्तर दिया-यह आपकी सुखदा नहीं, रानी मनोरमा की माया मर्ति है, जिसके हाथों में आप कठपुतली की भांति नाच रहे हैं।

राजा ने विस्मित होकर कहा--क्या यह मेरी सुखदा नहीं है? कैसी बात कहती हो? मैंने खूब परीक्षा करके देख लिया है।

रोहिणी--ऐसे मदारी के खेल बहुत देख चुकी हूँ। मदारी भी आपको ऐसी बातें बता देता है, जो आपको आश्चर्य में डाल देती हैं। यह सब माया लीला है।

राजा--क्यों व्यर्थ किसी पर आक्षेप करती हो, रोहिणी? मनोरमा को भी तो वे बातें नहीं मालूम हैं, जो सुखदा ने मुझसे बता दीं। भला किसी गैर लड़की को मनोरमा क्यों मेरी लड़की बनाएगी?

इसमें उसका क्या स्वार्थ हो सकता है?

रोहिणी-वह हमारी जड़ खोदना चाहती है। क्या आप इतना भी नहीं समझते? चक्रधर को राजा बनाकर वह आपको कोने में बैठा देगी। यही बालक, जो आपकी गोद में है; एक दिन आपका शत्र होगा। यह सब सधी हुई बातें हैं। जिसे आप मिट्टी की गऊ समझते हैं, वह आप जैसों को बाजार में बेच सकती है। किसकी बुद्धि इतनी ऊंची उड़ेगी !

राजा ने व्यग्र होकर कहा-अच्छा, अब चुप रहो, रोहिणी ! मुझे मालूम हो गया कि तुम्हारे हृदय में मेरे अमंगल के सिवा और किसी भाव के लिए स्थान नहीं है! आज न जाने किसके पुण्य-प्रताप से ईश्वर ने मुझे यह शुभ दिन दिखाया है और तुम मुंह से ऐसे कुवचन निकाल रही हो, ईश्वर ने मुझे वह सब कुछ दे दिया, जिसकी मुझे स्वप्न में भी आशा न थी। यह बाल-रत्न मेरी गोद में खेलेगा, इसकी किसे आशा थी! और ऐसे शुभ अवसर पर तुम यह विष उगल रही हो! मनोरमा के पैर की धूल की बराबरी भी तुम नहीं कर सकती। जाओ, मुझे तुम्हारा मुख देखते हुए रोमांच होता है। तुम स्त्री के रूप में पिशाचिनी हो।

यह कहते हुए राजा साहब उसी आवेश में दीवानखाने में जा पहुंचे। द्वार पर अभी तक कंगालों की भीड़ लगी हुई थी। दो-चार अमले अभी तक बैठे दफ्तर में काम कर रहे थे। राजा साहब ने बालक को कंधे पर बिठाकर उच्च स्वर में कहा-मित्रो! यह देखो; ईश्वर की असीम कृपा से मेरा नवासा घर बैठे मेरे पास आ गया। तुम लोग जानते हैं कि बीस साल हुए, मेरी पुत्री सुखदा त्रिवेणी के स्नान में खो गई थी ? वही सुखदा आज मुझे मिल गई है और यह बालक उसी का पुत्र है। आज से तुम लोग इसे अपना युवराज समझो। मेरे बाद यही मेरी रियासत का स्वामी होगा। गारद से कह दो, अपने युवराज को सलामी दे। नौबतखाने में कह दो, नौबत बजे। आज के सातवें दिन राजकुमार का अभिषेक होगा। अभी से उसकी तैयारी शुरू करो।

यह हुक्म देकर राजा साहब बालक को गोद में लिए ठाकुरद्वारे में जा पहुंचे। वहां इस समय ठाकुरजी के भोग की तैयारियां हो रही थीं। साधु-संतों की मंडली जमा थी। एक पंडित कोई कथा कह रहे थे, लेकिन श्रोताओं के कान उसी घंटी की ओर लगे थे, जो ठाकुरजी की पूजा की सूचना देगी और जिसके बाद तर माल के दर्शन होंगे। सहसा राजा साहब ने आकर ठाकुरजी के सामने बालक को बैठा दिया और खुद साष्टांग दंडवत् करने लगे। इतनी श्रद्धा से उन्होंने अपने जीवन में कभी ईश्वर की प्रार्थना न की थी। आज उन्हें ईश्वर से साक्षात्कार हुआ। उस अनुराग में उन्हें समस्त संसार आनंद से नाचता हुआ मालूम हुआ। ठाकुरजी स्वयं अपने सिंहासन से उतरकर बालक को गोद में लिए हुए हैं। आज उनकी चिरसंचित कामना पूरी हुई, और इस तरह पूरी हई, जिसकी उन्हें कभी आशा भी न थी। यह ईश्वर की दया नहीं तो और क्या है?

पुत्र-रत्न के सामने संसार की संपदा क्या चीज है? अगर पुत्र-रत्न न हो, तो संसार की संपदा का मल्य ही क्या है ! जीवन की सार्थकता ही क्या है? कर्म का उद्देश्य ही क्या है? अपने लिए कौन दुनिया के मनसूबे बांधता है? अपना जीवन तो मनसूबों में ही व्यतीत हो जाता है, यहां तक कि जब मनसबे पूरे होने के दिन आते हैं, तो हमारी संसार यात्रा समाप्त हो चुकी होती है। पुत्र ही आकांक्षाओं का स्रोत, चिंताओं का आगार, प्रेम का बंधन और जीवन का सर्वस्व है। वही पुत्र आज विशाल सिंह को मिल गया था। उसे देख-देखकर उनकी आंखें आनंद से उमड़ी आती थीं, हृदय पुलकित हो रहा था। इधर अबोध बालक को छाती से लगाकर उन्हें अपना बल शतगुण होता हुआ ज्ञात होता था। अब उनके लिए संसार ही स्वर्ग था।

पुजारी ने कहा-भगवान् राजकुंवर को चिरंजीवी करें!

राजा ने अपनी हीरे की अंगूठी उसे दे दी। एक बाबाजी को इसी आशीर्वाद के लिए सौ बीघे जमीन मिल गई।

ठाकुरद्वारे से जब वह घर में आए, तो देखा कि चक्रधर आसन पर बैठे भोजन कर रहे हैं और मनोरमा सामने खड़ी खाना परस रही है। उसके मुख-मंडल पर हार्दिक उल्लास की कांति झलक रही थी। कोई यह अनुमान ही न कर सकता था कि यह वही मनोरमा है, जो अभी दस मिनट पहले मृत्यु-शैया पर पड़ी हुई थी।

इकतीस

यौवन काल जीवन का स्वर्ग है। बाल्य काल में यदि हम कल्पनाओं के राग गाते हैं, तो यौवन काल में उन्हीं कल्पनाओं का प्रत्यक्ष स्वरूप देखते हैं, और वृद्धावस्था में उसी स्वरूप का स्वप्न। कल्पना पंगु होती है, स्वप्न मिथ्या, जीवन का सार केवल प्रत्यक्ष में है। हमारी दैहिक और मानसिक शक्ति का विकास यौवन है। यदि समस्त संसार की संपदा एक ओर रख दी जाए और यौवन दूसरी ओर, तो ऐसा कौन प्राणी है, जो उस विपुल धनराशि की ओर आंख उठा कर भी देखे। वास्तव में यौवन ही जीवन का स्वर्ग है, और रानी देवप्रिया की-सी सौभाग्यवती और कौन होगी, जिसके लिए यौवन के द्वार फिर से खुल गए थे?

संध्या का समय था। देवप्रिया एक पर्वत की गुफा में एक शिला पर अचेत पड़ी हुई थी। महेन्द्र उसके मुख की ओर आशापूर्ण नेत्रों से देख रहे थे। उनका शरीर बहुत दुर्बल हो गया है, मुख पीला पड़ गया है और आंखें भीतर घुस गई हैं, जैसे कोई यक्ष्मा का रोगी हो। यहां तक कि उन्हें सांस लेने में भी कष्ट होता है। जीवन का कोई चिह्न है, तो उनके नेत्रों में आशा की झलक है। आज उनकी तपस्या का अंतिम दिन है, आज देवप्रिया का पुनर्जन्म होगा, सूखा हुआ वृक्ष नव पल्लवों से लहराएगा, आज फिर उसके यौवन-सरोवर में लहरें उठेगी ! आकाश में कुसुम खिलेंगे। वह बार-बार उसके चेतना-शून्य हृदय पर हाथ रखकर देखते हैं कि रक्त का संचार होने में कितनी देर है और जीवन का कोई लक्षण न देखकर व्यग्र हो उठते हैं। इन्हें भय हो रहा है, मेरी तपस्या निष्फल तो न हो जाएगी।

एकाएक महेन्द्र चौंककर उठ खड़े हुए। आत्मोल्लास से मुख चमक उठा। देवप्रिया की हत्तन्त्रियों में जीवन के कोमल संगीत का कम्पन हो रहा था। जैसे वीणा के अस्फुट स्वरों से शनैः शनैः गान का स्वरूप प्रस्फुटित होता है, जैसे मेघ-मंडल से शनैः-शनैः इन्दु की उज्ज्वल छवि प्रकट होती हुई दिखाई देती है, उसी भांति देवप्रिया के श्रीहीन, संज्ञाहीन, प्राणहीन मुखमंडल पर जीवन का स्वरूप अंकित होने लगा। एक क्षण में उसके नीले अधरों पर लालिमा छा गई, आंखें खुल गईं, मुख पर जीवन श्री का विकास हो गया। उसने एक अंगड़ाई ली और विस्मित नेत्रों से इधर-उधर देखकर शिला-शैय्या से उठ बैठी! कौन कह सकता था कि वह महानिद्रा की गोद से निकलकर आई है? उसका मुखचंद्र अपनी सोलहों कलाओं से आलोकित हो रहा था। वह वही देवप्रिया थी, जो आशा और भय से कांपता हुआ हृदय लिए आज से चालीस वर्ष पहले, पतिगृह में आई थी। वही यौवन का माधुर्य था, वही नेत्रों को मुग्ध करने वाली छवि थी, वही सुधामय मुस्कान, वही सुकोमल गात ! उसे अपने पोर-पोर में नए जीवन का अनुभव हो रहा था, लेकिन कायाकल्प हो जाने पर भी उसे अपने पूर्व जीवन की सारी की सारी बातें याद थीं। वैधव्य काल की विलासिता भीषण रूप धारण करके उसके सामने खड़ी थी। एक क्षण तक लज्जा और ग्लानि के कारण वह कुछ बोल न सकी। अपने पति की इस प्रेममय तपस्या के सामने उसका विलासमय जीवन कितना घृणित, कितना लज्जास्पद था!

महेन्द्र ने मुस्कराकर कहा-प्रिये, आज मेरा जीवन सफल हो गया। अभी एक क्षण पहले तुम्हारी दशा देखकर मैं अपने दुस्साहस पर पछता रहा था।

देवप्रिया ने महेन्द्र को प्रेम मुग्ध नेत्रों से देखकर कहा--प्राणनाथ, तुमने मेरे साथ जो उपकार किया है, उसका धन्यवाद देने के लिए मेरे पास शब्द ही नहीं हैं।

देवप्रिया की प्रबल इच्छा हुई कि स्वामी के चरणों पर सिर रख दूं और कहूँ, कि तुमने मेरा उद्धार कर दिया, मुझे वह अलभ्य वस्तु प्रदान कर दी, जो आज तक किसी ने न पाई थी, जो सर्वदा से मानव-कल्पना का स्वर्ण-स्वप्न रही है, पर संकोच ने जबान बंद कर दी।

महेन्द्र-सच कहना, तुम्हें विश्वास था कि मैं तुम्हारा कायाकल्प कर सकूँगा?

देवप्रिया--प्रियतम, यह तुम क्यों पूछते हो? मुझे तुम्हारे ऊपर विश्वास न होता, तो आती ही क्यों?

देवप्रिया को अपनी मुख छवि देखने की बड़ी तीव्र इच्छा हो रही थी। एक शीशे के टुकड़े के लिए इस समय वह क्या कुछ न दे डालती?

सहसा महेन्द्र फिर बोले--तुम्हें मालूम है, इस क्रिया में कितने दिन लगे?

देवप्रिया--मैं क्या जानूं कि कितने दिन लगे?

महेन्द्र--पूरे तीन साल!

देवप्रिया--तीन साल! तीन साल से तुम मेरे लिए यह तपस्या कर रहे हो?

महेन्द्र--तीन क्या, अगर तीस साल भी यह तपस्या करनी पड़ती, तो भी मैं न घबराता।

देवप्रिया ने सकुचाते हुए पूछा-ऐसा तो न होगा कि कुछ ही दिनों में यह 'चार दिन की चटक चांदनी फिर अंधेरा पाख' हो जाए?

महेन्द्र--नहीं प्रिये, इसकी कोई शंका नहीं।

देवप्रिया--और हम इस वक्त हैं कहाँ?

महेन्द्र--एक पर्वत की गुफा में। मैंने अपने राज्याधिकार मंत्री को सौंप दिए और तुम्हें लेकर यहाँ चला आया। राज्य की चिंताओं में पड़कर मैं यह सिद्धि कभी न प्राप्त कर सकता था। तुम्हारे लिए मैं ऐसे-ऐसे कई राज्य त्याग सकता था।

देवप्रिया को अब ऐसी वस्तु मिल गई थी, जिसके सामने राज्य वैभव की कोई हस्ती न थी। वन्य जीवन की कल्पना उसे अत्यंत सुखद जान पड़ी। प्रेम का आनंद भोगने के लिए, स्वामी के प्रति अपनी भक्ति दिखाने के लिए यहां जितने मौके थे, उतने राजभवन में कहाँ मिल सकते थे? उसे विलास की लेशमात्र भी आकांक्षा न थी, वह पतिप्रेम का आनंद उठाना चाहती थी। प्रसन्न होकर बोली-यह तो मेरे मन की बात हुई।

महेन्द्र ने चकित होकर पूछा--मुझे खुश करने के लिए यह बात कह रही हो या दिल से? मुझे तो इस विषय में बड़ी शंका थी।

देवप्रिया-नहीं प्राणनाथ, दिल से कह रही हूँ। मेरे लिए जहां तुम हो, वहीं सब कुछ है। महेन्द्र ने मुस्कराकर कहा--अभी तुमने इस जीवन के कष्टों का विचार नहीं किया। ज्येष्ठ-वैशाख की लू और लपट, शीतकाल की हड्डियों में चुभने वाली हवा और वर्षा की मूसलाधार वृष्टि की कल्पना तुमने नहीं की। मुझे भय है, शायद तुम्हारा कोमल शरीर उन कष्टों को न सह सकेगा।

देवप्रिया ने नि:शंक भाव से कहा--तुम्हारे साथ मैं सब कुछ आनंद से सह सकती हूँ।

उसी वक्त देवप्रिया ने गुफा से बाहर निकलकर देखा, तो चारों ओर अंधकार छाया हुआ था, लेकिन एक ही क्षण में उसे वहां की सब चीजें दिखाई देने लगीं। अंधकार वही था, पर उसकी आंखें उसमें प्रवेश कर गई थीं। सामने ऊंची पहाड़ियों की श्रेणियां अप्सराओं के विशाल भवनों की-सी मालूम होती थीं। दाहिनी ओर वृक्षों के समूह साधुओं की कुटियों के समान दीख पड़ते थे और बाईं ओर एक रत्नजटित नदी किसी चंचल पनिहारिन की भांति मीठे राग गाती, इठलाती चली जाती थी। फिर उसे गुफा से नीचे उतरने का मार्ग साफ-साफ दिखाई देने लगा। अंधकार वही था, पर उसमें कितना प्रकाश आ गया था।

उसी क्षण देवप्रिया के मन में एक विचित्र शंका उत्पन्न हुई--मेरा यह निकृष्ट जीवन कहीं फिर तो सर्वनाश न कर देगा?

बत्तीस

राजा विशालसिंह ने इधर कई साल से राजकाज छोड़-सा रखा था ! मुंशी वज्रधर और दीवान साहब की चढ़ बनी थी। गुरुसेवक सिंह भी अपने रागरंग में मस्त थे। सेवा और प्रेम का आवरण उतारकर अब वह पक्के विलायती हो गए थे। प्रजा के सुख-दुःख की चिंता अगर किसी को थी, तो वह मनोरमा को थी। राजा साहब के सत्य और न्याय का उत्साह ठंडा पड़ गया था। मनोरमा को पाकर उन्हें किसी चीज की सुधि न थी। उन्हें एक क्षण के लिए भी मनोरमा से अलग होना असह्य था। जैसे कोई दरिद्र प्राणी कहीं से विपुल धन पा जाए और रात-दिन उसकी की चिंता में पड़ा रहे; वह दशा राजा साहब की थी। मनोरमा उनका जीवन धन थी। उसी दृष्टि में मनोरमा फूल की पंखुड़ी से भी कोमल थी, उसे कुछ हो न जाए , यही भय उन्हें बना रहता था। अन्य रानियों की अब वह खुशामद करते रहते थे, जिसमें वे मनोरमा को कुछ कह न बैठे। मनोरमा को बात कितनी लगती है, इसका अनुभव उन्हें हो चुका था। रोहिणी के एक व्यंग्य ने उसे काशी छोड़कर इस गांव में ला बिठाया था। वैसा दूसरा व्यंग्य उसके प्राण ले सकता था। इसलिए वह, रानियों को खुश रखना चाहते थे, विशेषकर रोहिणी को, हालांकि वह मनोरमा को जलाने का कोई अक्सर हाथ से न जाने देती थी।

लेकिन इस बालक ने आकर राजा साहब के जीवन में एक नवीन उत्साह का संचार कर दिया। अब तक उनके जीवन का कोई लक्ष्य न था। मन में प्रश्न होता था, किसके लिए करूं? कौन रोने वाला बैठा हुआ है? प्रतिमा ही न थी, तो मंदिर की रचना कैसे होती? अब वह प्रतिमा आ गई थी, जीवन का लक्ष्य मिल गया था। वह राज-काज से क्यों विरत रहते? मुंशीजी अब तक दीवान साहब से मिलकर अपना स्वार्थ साधते रहते थे, पर अब वह कब किसी को गिनने लगे थे। ऐसे मालूम होता था कि वही राजा साहब हैं। दीवान साहब अगर मनोरमा के पिता थे, तो मुंशीजी राजकुमार के दादा थे। फिर दोनों में कौन दबता? कर्मचारियों पर कभी ऐसी फटकारें न पड़ी थीं, मुंशीजी को देखते ही बेचारे थर-थर कांपने लगते थे। भाग्य किसी का चमके, तो ऐसे चमके! कहाँ पेंशन के पच्चीस रुपयों पर गुजर-बसर होती थी, कहाँ अब रियासत के मालिक थे। राजा साहब भी उनका अदब करते थे। अगर कोई अमला उनके हुक्म की तामील करने में देर करता, जामे से बाहर हो जाते। बात पीछे करते, निकालने की धमकी पहले देते--यहां तुम्हारे हथकंडे एक न चलेंगे, याद रखना। जो तुम आज कह रहे हो, वह सब किए बैठा हूँ। एक-एक को निगल जाऊंगा। अब वह मुंशीजी नहीं हैं, जिनकी बात इस कान से सुनकर उस कान से उड़ा दिया करते थे। अब मुंशीजी रियासत के मालिक हैं।

इसमें भला किसको आपत्ति करने का साहस हो सकता था? हां, सुनने वालों को ये बातें जरूर बुरी मालूम होती थीं। चक्रधर के कानों में कभी ये बातें पड़ जातीं, तो वह जमीन में गड़ से जाते थे। मारे लज्जा के उनकी गर्दन झुक जाती थी। वह आजकल मुंशीजी से बहुत कम बोलते थे। अपने घर भी केवल एक बार गए थे। वहां माता की बातें सुनकर उनको फिर जाने की इच्छा न होती थी। मित्रों से मिलना-जुलना उन्होंने कम कर दिया था, हालांकि अब उनकी संख्या बहुत बढ़ गई थी। वास्तव में यहां का जीवन उनके लिए असह्य हो गया था। वह फिर अपनी शांतिकुटीर को लौट जाना चाहते थे। यहां आए दिन कोई-न-कोई बात हो ही जाती थी, जो दिन-भर उनके चित्त को व्यग्र रखने को काफी होती थी। कहीं कर्मचारियों में जूती-पैजार होती थी, कहीं गरीब असामियों पर डांट-फटकार, कहीं रनिवास में रगड़-झगड़ होती थी, तो कहीं इलाके में दंगा-फिसाद। उन्हें स्वयं कभी-कभी कर्मचारियों को तंबीह करनी पड़ती, कई बार उन्हें विवश होकर नौकरों को मारना भी पड़ा था। सबसे कठिन समस्या यही थी कि यहां उनके पुराने सिद्धांत भंग होते चले जाते थे। वह बहुत चेष्टा करते थे कि मुंह से एक भी अशिष्ट शब्द न निकले, पर प्रायः नित्य ही ऐसे अवसर आ पड़ते कि उन्हें विवश होकर दंडनीति का आश्रय लेना ही पड़ता था।

लेकिन अहिल्या इस जीवन का चरम सुख भोग कर रही थी। बहुत दिनों तक दु:ख झेलने के बाद उसे यह सुख मिला था और उनमें मग्न थी। अपने पुराने दिन उसे बहुत जल्द भूल गए थे और उनकी याद दिलाने में उसे दुःख होता था। उसका रहन-सहन बिल्कुल बदल गया था। वह अच्छी-खासी अमीरजादी बन गई थी। सारे दिन आमोद-प्रमोद के सिवा उसे दुसरा का था। पति के दिल पर क्या गुजर रही है, यह सोचने का कष्ट क्यों उठाती? जब वह खुश थी, तब उसके स्वामी भी अवश्य खुश होंगे। राज्य पाकर कौन रोता है ! उसकी मुख छवि अब पूर्ण चंद्र को भांति तेजोमय हो गई थी। उसकी सरलता, वह नम्रता, वह कर्मशीलता गायब हो गई थी। चतुर गृहिणी अब एक सगर्वा, यौवनवाली कामिनी थी, जिसकी आंखों से मद छलका पडता था। चक्रधर ने जब उसे पहली बार देखा था, तब वह एक मुर्झाती हुई कली थी और मनोरमा एक खिले हुए प्रभात की स्वर्णमयी किरणों से विहसित फूल। अब मनोरमा अहिल्या हो गई थी और अहिल्या मनोरमा। अहिल्या पहर दिन चढ़े अंगड़ाइयां लेती हुई शयनागार से निकलती। मनोरमा पहर रात ही से घर या राज्य का कोई-न-कोई काम करने लगती थी। शंखधर अब मनोरमा ही के पास रहता था, वही उसका लालन-पालन करती थी। अहिल्या केवल कभी-कभी उसे गोद में लेकर प्यार कर लेती, मानो किसी दूसरे का बालक हो। बालक भी अब उसकी गोद में आते हुए झिझकता। मनोरमा ही अब उसकी माता थी। मनोरमा की जान अब उसमें थी और उसकी मनोरमा में। कभी-कभी एकांत में मनोरमा बालक को गोद में लिए घंटों मुंह छिपाकर रोती। उसके अंतस्तल में अहर्निश एक शूल-सा होता रहता था, हृदय में नित्य एक अग्निशिखा प्रज्ज्वलित रहती थी और जब किसी कारण से वेदना और जलन बढ़ जाती, तो उसके मुख से एक आह और आंखों से आंसू की चार बूंदें निकल पड़ती थीं। बालक भी उसे देखकर रोने लगता। तब मनोरमा आंसुओं को पी जाती और हंसने की चेष्टा करके बालक को छाती से लगा लेती। उसकी तेजस्विता गहन चिंता और गंभीर विचार में रूपांतरित हो गई थी। वह अहिल्या से दबती थी। पर अहिल्या उससे खिंची-सी रहती। कदाचित् वह मनोरमा के अधिकारों को छीनना चाहती थी, उसके प्रबंध में दोष निकालती रहती। पर रानी मनोरमा अपने अधिकारों से जी-जान से चिमटी हुई थी। उनका अल्पांश भी न त्यागना चाहती थी, बल्कि दिनों-दिन उन्हें बढ़ाती जाती थी। यही उसके जीवन का आधार था।

अब चक्रधर अहिल्या से अपने मन की बातें कभी न कहते थे। यह संपदा उनका सर्वनाश किए डालती थी। क्या अहिल्या यह सुख-विलास छोड़कर मेरे साथ चलने पर राजी होगी? उन्हें शंका होती थी कि कहीं वह इस प्रस्ताव को हंसी में न उड़ा दे या मुझे रुकने के लिए मजबूर न करे। अगर वह दृढ़ भाव से एक बार कह देगी कि तुम मुझे छोड़कर नहीं जा सकते, तो वह कैसे जाएंगे? उन्हें इसका क्या अधिकार है कि उसे अपने साथ विपत्ति झेलने के लिए कहें? उन्होंने अगर कहा और वह धर्मसंकट में पड़कर उनके साथ चलने पर तैयार भी हो गई, तो मनोरमा शंखधर को कब छोड़ेंगी? क्या शंखधर को छोड़कर अहिल्या उनके साथ जाएगी? जाकर प्रसन्न रहेगी? अगर बालक को मनोरमा ने दे भी दिया, तो क्या वह इस वियोग की वेदना सह लेंगी? इसी प्रकार के कितने ही प्रश्न चक्रधर के मन में उठते रहते थे और वह किसी भांति अपने कर्त्तव्य का निश्चय न कर सकते थे। केवल एक बात निश्चित थी-वह इन बंधनों में पड़कर अपना जीवन नष्ट न करना चाहते थे, संपत्ति पर अपने सिद्धांतों को भेंट न कर सकते थे।

एक दिन चक्रधर बैठे कुछ पढ़ रहे थे कि मुंशीजी ने आकर कहा-बेटा, जरा एक बार रियासत का दौरा नहीं कर आते? आखिर दिन-भर पड़े ही रहते हो? मेरी समझ में नहीं आता, तुम किस रंग के आदमी हो। बेचारे राजा साहब अकेले कहाँ-कहाँ देखेंगे और क्या-क्या देखेंगे? रहा मैं, सो किसी मसरफ का नहीं। मुझसे किसी दावत या बारात या मजलिस का प्रबंध करने के सिवा और क्या हो सकता है? गांव-गांव दौड़ना अब मुझसे नहीं हो सकता। अब तो ईश्वर की दया से रियासत अपनी है ! तुम्ही इतनी लापरवाही करोगे, तो कैसे काम चलेगा? हाथी, घोड़े, मोटरें सब कुछ मौजूद हैं। कभी-कभी इधर-उधर चक्कर लगा आया करो। इसी तरह धाक बैठेगी, घर में बैठे-बैठे तुम्हें कौन जानता है?

चक्रधर ने उदासीन भाव से कहा--मैं इस झंझट में नहीं पड़ना चाहता। मैं तो यहां से जाने को तैयार बैठा हुआ हूँ।

मुंशीजी चक्रधर का मुंह ताकने लगे। बात इतनी अश्रुत-पूर्व थी कि उनकी समझ ही में न आई। पूछा-क्यों अब भी वही सनक सवार है?

चक्रधर-आप उसे सनक, पागलपन-जो चाहें, समझें, पर मुझे तो उसमें जितना आनंद आता है, उतना इस हरबोंग में नहीं आता। आपको तो मेरी यही सलाह है, आराम से घर में बैठकर भगवान् का भजन कीजिए। मुझसे जो कुछ बन पड़ेगा, आपकी मदद करता रहूँगा।

मुंशी--बेटा, मुझे मालूम होता है, तुम अपने होश में नहीं हो। बिस्वे-बिस्वे के लिए तो खून की नदियां बह जाती हैं और तुम इतनी बड़ी रियासत पाकर ऐसी बातें करते हो! तुम्हें क्या हो गया है? बेटा, इन बातों में कुछ नहीं रखा है। अब तुम समझदार हुए, इन पुरानी बातों को दिल से निकाल डालो। भगवान् ने तुम्हारे ऊपर कृपादृष्टि फेरी है। उसको धन्यवाद दो और राज्य का इंतजाम अपने हाथ में लो। तुम्हें करना ही क्या है, करने वाले तो कर्मचारी हैं। बस, जरा डांट-फटकार करते रहो, नहीं तो कर्मचारी लोग शेर हो जाएंगे, तो फिर काबू में न आएंगे।

चक्रधर को अब मालूम हुआ कि मैं शांत बैठने भी न पाऊंगा। आज लालाजी ने यह उपदेश दिया है। संभव है, कल अहिल्या को भी मेरा एकांतवास बुरा मालूम हो। वह भी मुझे उपदेश करे, राजा साहब भी कोई काम गले मढ़ दें। अब जल्दी ही यहां से बोरिया-बंधना संभालना चाहिए, मगर इसी सोच-विचार में एक महीना और गुजर गया और वह कुछ निश्चय न कर सके। उस हलचल की कल्पना करके उनकी हिम्मत छूट जाती थी, जो उनका प्रस्ताव सुनकर अंदर से बाहर तक मच जाएगा। अहिल्या रोएगी, मनोरमा कुढ़ेगी, पर मुंह से कुछ न कहेगी, लालाजी जामे से बाहर हो जाएंगे और राजा साहब एक ठंडी सांस लेकर सिर झुका लेंगे।

एक दिन चक्रधर मोटर पर हवा खाने निकले। गर्मी के दिन थे। जी बेचैन था। हवा लगी, तो देहात की तरफ जाने का जी चाहा। बढ़ते ही गए, यहां तक कि अंधेरा हो गया। शोफर को साथ न लिया था-ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते थे, सड़क खराब आती जाती थी। सहसा उन्हें रास्ते में एक बड़ा सांड़ दिखाई दिया। उन्होंने बहुत शोर मचाया पर सांड़ न हटा। जब समीप आने पर भी सांड राह में खड़ा ही रहा, तो उन्होंने कतराकर निकल जाना चाहा, पर सांड़ सिर झुकाए फों-फों करता फिर सामने आ खड़ा हुआ। चक्रधर छड़ी हाथ में लेकर उतरे कि उसे भगा दें, पर वह भागने के बदले उनके पीछे दौड़ा। कुशल यह हुई कि सड़क के किनारे एक पेड़ मिल गया, नहीं तो जान जाने में कोई संदेह ही न था। जी छोड़कर भागे और छड़ी फेंक, पेड़ की शाख पकड़कर लटक गए। सांड़ एक मिनट तक तो पेड़ से टक्कर लेता रहा, पर जब चक्रधर न मिले, तो वह मोटर के पास लौट गया और उसे सींगों से पीछे को ठेलता हुआ दौड़ा। कुछ देर के बाद मोटर सड़क से हटकर एक वृक्ष से टकरा गई। अब सांड़ पूंछ उठा-उठाकर कितना ही जोर लगाता है, पीछे हट-हटकर उसमें टक्करें मारता है, पर वह जगह से नहीं हिलती। तब उसने बगल में जाकर इतनी जोर से टक्कर लगाई कि मोटर उलट गई। फिर भी उसका पिंड न छोड़ा। कभी उसके पहियों से टक्कर लेता, कभी पीछे की तरफ जोर लगाता। मोटर के पहिए फट गए, कई पुर्जे टूट गए, पर सांड़ बराबर उस पर आघात किए जाता था। चक्रधर शाख पर बैठे तमाशा देख रहे थे। मोटर की तो फिक्र न थी, फिक्र यह थी कि वह कैसे लौटेंगे। चारों ओर सन्नाटा था। कोई आदमी न आता-जाता था। अभी मालूम नहीं, सांड़ कितनी देर तक मोटर से लड़ेगा और कितनी देर तक उन्हें वृक्ष पर टंगे रहना पड़ेगा। अगर उनके पास इस वक्त बंदूक होती, तो सांड़ को मार ही डालते। दिल में सांड़ छोड़ने की प्रथा पर झुंझला रहे थे। अगर मालूम हो जाए कि किसका सांड़ है, तो सारी जायदादबिकवा लूं। पाजी ने सांड़ छोड़ रखा है!

सांड़ ने जब देखा कि शत्रु की धज्जियां उड़ गईं और अब वह शायद फिर न उठे, तो डंकारता हुआ एक तरफ चला गया। तब चक्रधर नीचे उतरे और मोटर के समीप जाकर देखा, तो वह उल्टी पड़ी थी। जब तक सीधी न हो जाए , यह पता कैसे चले कि क्या-क्या चीजें टूट गई हैं और अब चलने योग्य है या नहीं। अकेले मोटर को सीधी करना एक आदमी का काम न था। सोचने लगे कि आदमियों को कहाँ से लाऊं! इधर से तो शायद अब रात भर कोई न निकलेगा। पूर्व की ओर थोड़ी ही दूर पर एक गांव था। चक्रधर उसी तरफ चले। रास्ते में इधर-उधर ताकते जाते थे कि कहीं सांड़ न आता हो, नहीं तो यहां सपाट मैदान में कहीं वृक्ष भी नहीं है, मगर सांड़ न मिला और वह एक गांव में पहुंचे। बहुत छोटा-सा 'पुरवा' था। किसान लोग अभी थोड़ी ही देर पहले ऊख की सिंचाई करके आए थे। कोई बैलों को सानी-पानी दे रहा था, कोई खाने जा रहा था, कोई गाय दुह रहा था। सहसा चक्रधर ने जाकर पूछा-यह कौन गांव है?

एक आदमी ने जवाब दिया-भैंसोर।

चक्रधर-किसका गांव है?

किसान-महाराज का। कहाँ से आते हो?

चक्रधर-हम महाराज ही के यहां से आते हैं। वह बदमाश सांड़ किसका है, जो इस वक्त सड़क पर घूमा करता है?

किसान यह तो नहीं जानते साहब, पर उसके मारे नाकों दम है, उधर से किसी को निकलने ही नहीं देता। जिस गांव में चला जाता है, दो-एक बैलों को मार डालता है। बहुत तंग कर रहा है।

चक्रधर ने सांड़ के आक्रमण का जिक्र करके कहा--तुम लोग मेरे साथ चलकर मोटर को उठा दो।

इस पर दूसरा किसान अपने द्वार पर से बोला--सरकार, भला रात को मोटर उठाकर क्या कीजिएगा? वह चलने लायक तो होगी नहीं।

चक्रधर--तो तुम लोगों को उसे ठेलकर ले चलना पड़ेगा।

पहला किसान-सरकार, रात भर यहीं ठहरें, सवेरे चलेंगे। न चलने लायक होगी, तो गाड़ी पर लादकर पहुंचा देंगे।

चक्रधर ने झल्लाकर कहा--कैसी बातें करते हो जी! मैं रात भर यहां पड़ा रहूँगा ! तुम लोगों को इसी वक्त चलना होगा।

चक्रधर को उन आदमियों में कोई न पहचानता था। समझे, राजाओं के यहां सभी तरह के लोग आते-जाते हैं, होगा कोई। फिर वे सभी जाति के ठाकुर थे और ठाकुर से सहायता के नाम से जो काम चाहे ले लो, बेगार के नाम से उनकी त्योरियां बदल जाती हैं। किसान ने कहा-- साहब, इस बखत तो हमारा जाना न होगा। अगर बेगार चाहते हों, तो वह उत्तर की ओर दूसरा गांव है, चले जाइए! बहुत चमार मिल जाएंगे।

चक्रधर ने गुस्से में आकर कहा-मैं कहता हूँ, तुमको चलना पड़ेगा।

किसान ने दृढ़ता से कहा--तो साहब, इस ताव पर हम न जाएंगे। पासी चमार नहीं हैं, हम भी ठाकुर हैं।

यह कहकर वह घर में जाने लगा।

चक्रधर को ऐसा क्रोध आया कि उसका हाथ पकड़कर घसीट लूं और ठोकर मारते हुए ले चलूं, मगर उन्होंने जब्त करके कहा--मैं सीधे से कहता हूँ, तो तुम लोग उड़नघाइयां बताते हो। अभी कोई चपरासी आकर दो घुड़कियां जमा देता, तो सारा गांव भेड़ की भांति उसके पीछे चला जाता।

किसान वहीं खड़ा हो गया और बोला-सिपाही क्यों घुड़कियां जमाएगा, कोई चोर हैं? हमारी खुशी, नहीं जाते। आपको जो करना हो, कर लीजिएगा।

चक्रधर से जब्त न हो सकता। छड़ी हाथ में थी ही, वह बाज की तरह किसान पर टूट पड़े और एक धक्का देकर कहा--चलता है या जमाऊं दो-चार हाथ? तुम लात के आदमी बात से क्यों मानने लगे!

चक्रधर कसरती आदमी थे। किसान धक्का खाकर गिर पड़ा। यों वह भी करारा आदमी था। उलझ पड़ता, तो चक्रधर आसानी से उसे न गिरा सकते, पर वह रोब में आ गया। सोचा, कोई हाकिम है, नहीं तो उसकी हिम्मत न पड़ती कि हाथ उठाए। संभलकर उठने लगा। चक्रधर ने समझा, शायद यह उठकर मुझ पर वार करेगा। लपककर फिर एक धक्का दिया। सहसा सामने वाले घर में से एक आदमी लालटेन लिए बाहर निकल आया और चक्रधर को देखकर बोला-अरे भगतजी! तुमने यह भेस कब से धारण किया? मुझे पहचानते हो? हम भी तुम्हारे साथ जेहल में थे।

चक्रधर उसे तुरंत पहचान गए। यह उनका जेल का साथी धन्नासिंह था। चक्रधर का सारा क्रोध हवा हो गया। लजाते हुए बोले-क्या तुम्हारा घर इसी गांव में है, धन्ना?

धन्नासिंह--हां साहब, यह आदमी, जिसे आप ठोकरें मार रहे हैं, मेरा सगा भाई है। खा रहा था। खाना छोड़कर जब तक उठू, तब तक तो तुम गरमा ही गए। तुम्हारा मिजाज इतना कड़ा कब से हो गया? जेहल में तो तुम दया और धर्म के देवता बने हुए थे। क्या दिखावा ही दिखावा था? निकला तो कुछ और ही सोचकर, मगर तुम अपने पुराने साथी निकले। कहाँ तो दारोगा को बचाने के लिए अपनी छाती पर संगीन रोक ली थी, कहाँ आज जरा-सी बात पर इतने तेज पड़ गए।

चक्रधर पर घड़ों पानी पड़ गया। मुंह से बात न निकली। वह अपनी सफाई में एक शब्द भी न बोल सके। उनके जीवन की सारी कमाई, जो उन्होंने न जाने कौन-कौन से कष्ट सहकर बटोरी थी, यहां लुट गई। उनके मन की सारी सद्वृत्तियां आहत होकर तड़पने लगीं। एक ओर उनकी न्याय बुद्धि मंदित होकर किसी अनाथ बालक की भांति दामन से मुंह छिपाकर रो रही थी, दूसरी ओर लज्जा किसी पिशाचिनी की भांति उन पर आग्नेय बाणों का प्रहार कर रही थी।

धन्नासिंह ने अपने भाई का हाथ पकड़कर बैठाना चाहा, तो वह जोर से 'हाय ! हाय !' करके चिल्ला उठा। दूसरी बार गिरते समय उसका दाहिना हाथ उखड़ गया था। धन्नासिंह ने समझा, उसका हाथ टूट गया है। चक्रधर के प्रति उसकी रही-सही भक्ति भी गायब हो गई। उनकी ओर आरक्त नेत्रों से देखकर बोला-सरकार, आपने तो इसका हाथ ही तोड़ दिया। (ओठ चबाकर) क्या कहें, अपने द्वार पर आए हो और कुछ पुरानी बातों का खयाल है, नहीं तो इस समय क्रोध तो ऐसा आ रहा है कि इसी तरह तुम्हारे हाथ भी तोड़ दूं। यह तुम इतने कैसे बदल गए! अगर आंखों से न देखता होता, तो मुझे कभी विश्वास न आता। जरूर तुम्हें कोई ओहदा या जायदादमिल गई, मगर यह न समझो कि हम अनाथ हैं। अभी जाकर महाराज के द्वार पर फरियाद करें, तो तुम खड़ेखड़े बंध जाओ ! बाबू चक्रधरसिंह का नाम तो तुमने सुना ही होगा? अब किसी सरकारी आदमी की मजाल नहीं कि बेगार ले सके, तुम बेचारे किस गिनती में हो? ओहदा पाकर अपने दिन भूल न जाना चाहिए। तुम्हें मैंने अपना गुरु और देवता समझा था। तुम्हारे ही उपदेश से मेरी पुरानी आदतें छूट गईं। गांजा और चरस तभी से छोड़ दिया, जुए के नगीच नहीं जाता। जिस लाठी से सैकड़ों सिर फोड़ डाले होंगे, अब वह टूटी हुई पड़ी है। मुझे तो तुमने यह उपदेश दिया और आप लगे गरीबों को कुचलने। मन्नासिंह ने इतना ही न कहा था कि रात को यहीं ठहर जाओ, सबेरे हम चलकर तुम्हारी मोटर पहुंचा देंगे। इसमें क्या बुराई थी? अगर मैं उसकी जगह होता, तो कह देता कि तुम्हारा गुलाम नहीं हूँ, जैसे चाहो अपनी मोटर ले जाओ, मुझसे मतलब नहीं। मगर उसने तो तुम्हारे साथ भलमनसी की और तुम उसे मारने लगे। अब बताओ, इसके हाथ की क्या दवा की जाए ? सच है, पद पाकर सबको मद हो जाता है।

चक्रधर ने ग्लानि वेदना से व्यथित स्वर में कहा--धन्नासिंह, मैं बहुत लज्जित हूँ, मुझे क्षमा करो। जो दंड चाहो दो, सिर झुकाए हुए हूँ, जरा भी सिर न हटाऊंगा, एक शब्द भी मुंह से न निकालूंगा।

यह कहते-कहते उनका गला फंस गया। धन्नासिंह भी गद्गद हो गया। बोला-अरे भगतजी, ऐसी बातें न कहो। तुम मेरे गुरु हो, तुम्हें मैं अपना देवता समझता हूँ। क्रोध में आदमी के मुंह से दो-चार कड़ी बातें निकल ही जाती हैं, उनका खयाल न करो। भैया, भाई का नाता बड़ा गहरा होता है। भाई चाहे अपना शत्रु हो, लेकिन कौन आदमी है, जो भाई को मार खाते देखकर क्रोध को रोक सके? मुझे अपना वैसा ही दास समझो, जैसे जेहल में समझते थे। तुम्हारी मोटर कहाँ है? चलो, मैं उसे उठाए देता हूँ या हुक्म हो तो गाड़ी जोत लूं?

चक्रधर ने रोकर कहा--जब तक इसका हाथ अच्छा न हो जाएगा, तब तक मैं कहीं न जाऊंगा, धन्नासिंह ! हां, कोई आदमी ऐसा मिले, जो यहां से जगदीशपुर जा सके, तो उसे मेरी एक चिट्ठी दे दो।

धन्नासिंह--जगदीशपुर में तुम्हारा कौन है, भैया? क्या रियासत में नौकर हो गए हो? चक्रधर-नौकर नहीं हूँ, मैं मुंशी वज्रधर का लड़का हूँ।

धन्नासिंह ने विस्मित होकर कहा--सरकार ही बाबू चक्रधर सिंह हैं। धन्य भाग थे कि सरकार के आज दर्शन हुए।

यह कहते हुए वह दौड़कर घर में गया और एक चारपाई लाकर द्वार पर डाल दी। फिर लपककर गांव में खबर दे आया। एक क्षण में गांव के सब आदमी आकर चक्रधर को नजरें देने लगे। चारों ओर हलचल-सी मच गई। सब-के-सब उनके यश गाने लगे। जब से सरकार आए हैं, हमारे दिन फिर गए हैं, आपका शील-स्वभाव जैसा सुनते थे, वैसा ही पाया। आप साक्षात् भगवान्

धन्ना ने कहा-मैंने तो पहचाना ही नहीं। क्रोध में न जाने क्या-क्या बक गया !

दूसरा ठाकुर बोला-सरकार अपने को बोल देते, तो हम मोटर को कंधों पर लादकर ले चलते। हुजूर के लिए जान हाजिर है। मन्नासिंह मरद आदमी, हाथ झटक कर उठ खड़े हो, तुम्हारे तो भाग्य खुल गए।

मन्नासिंह ने कराहकर मुस्कराते हुए कहा-सरकार देखने में तो दुबले-पतले हैं पर आपके हाथ-पांव लोहे के हैं। मैंने सरकार से भिड़ना चाहा, पर आपने एक ही अड़गे में मुझे दे पटका।

धन्नासिंह-अरे पागल, भाग्यवानों के हाथ-पांव में ताकत नहीं होती, अकबाल में ताकत होती है। उससे देवता तक कांपते हैं।

चक्रधर को इन ठकुरसुहाती बातों में जरा भी आनंद न आता था। उन्हें उन पर दया आ रही थी। वह प्राणी, जिसे उन्होंने अपने कोप का लक्ष्य बनाया था, उनके शौर्य और शक्ति को प्रशंसा कर रहा है। अपमान को निगल जाना चरित्र-पतन की अंतिम सीमा है और यही खुशामद सुनकर हम लट्टू हो जाते हैं। जिस वस्तु से घृणा होनी चाहिए, उस पर हम फूले नहीं समाते। चक्रधर को अब आश्चर्य हो रहा था कि मुझे इतना क्रोध आया कैसे? आज से साल भर पहले भी मुझे कभी किसी पर इतना क्रोध नहीं आया। साल भर पहले कदाचित् वह मन्नासिंह के पास आकर सहायता के लिए मिन्नत-समाजत करते। अगर रात भर रहना भी पड़ता, तो रह जाते, इसमें उनकी हानि ही क्या थी! शायद उन्हें देहातियों के साथ एक रात काटने का अवसर पाकर खुशी होती। आज उन्हें अनुभव हुआ कि रियासत की बू कितनी गुप्त और अलक्षित रूप से उनमें समाती जाती है। कितने गुप्त और अलक्षित रूप से उनकी मनुष्यता, चरित्र और सिद्धांत का ह्रास हो रहा है।

सहसा सड़क की ओर प्रकाश दिखाई दिया। जरा देर में दो मोटरें सड़क पर धीरे-धीरे जाती हुई दिखाई दी, जैसे किसी को खोज रही हों। एकाएक दोनों उसी स्थान पर पहुँचकर रुक गईं, जहां चक्रधर की मोटर टूटी पड़ी थी। फिर कई आदमी मोटर से उतरते दिखाई दिए। चक्रधर समझ गए कि मेरी तलाश हो रही है। तुरंत उठ खड़े हुए। उनके साथ गांव के लोग भी चले। समीप आकर देखा, तो सड़क की तरफ से लोग इसी गांव की तरफ चले आ रहे थे। उनके पास बिजली की बत्तियां थीं। समीप आने पर मालूम हुआ कि रानी मनोरमा पांच सशस्त्र सिपाहियों के साथ चली आ रही हैं। चक्रधर उसे देखते ही लपककर आगे बढ़ गए। रानी उन्हें देखते ही ठिठक गईं और घबराई हुई आवाज में बोलीं-बाबूजी, आपको चोट तो नहीं आई? मोटर टूटी देखी, तो जैसे मेरे प्राण ही सन्न हो गए। अब मैं आपको अकेले कभी न घूमने दिया करूंगी।

तैंतीस

देवप्रिया को उस गुफा में रहते कई महीने गुजर गए। वह तन-मन से पतिसेवा में रत रहती। प्रात:काल नीचे जाकर नदी से पानी लाती; पहाड़ी वृक्षों से लकड़ियां तोड़ती और जंगली फलों को उबालती। बीच-बीच में महेन्द्र कुमार कई-कई दिनों के लिए कहीं चले जाते थे। देवप्रिया अकेले गुफा में बैठी उनकी राह देखा करती, पर महेन्द्र को वन-वन घूमने से इतना अवकाश ही न मिलता कि दो-चार पल के लिए उसके पास भी बैठ जाएं। रात को वह योगाभ्यास किया करते थे। न-जाने कब कहाँ चले जाते; न जाने कब कैसे चले आते, इसका देवप्रिया को कुछ भी पता न चलता। उनके जीवन का रहस्य उसकी समझ में न आता था। उस गुफा में भी उन्होंने न जाने कहाँ से वैज्ञानिक यंत्र जमा कर लिए थे और दिन को जब घर पर रहते, तो उन्हीं यंत्रों से कोई-न-कोई प्रयोग किया करते। उनके पास सभी कामों के लिए समय था। अगर समय न था, तो केवल देवप्रिया से बातचीत करने का ! देवप्रिया की समझ में कुछ न आता कि इनका हृदय इतना कठोर क्यों हो गया है। वह प्रेम भाव कहाँ गया? अब तो उससे सीधे मुंह बोलते तक नहीं। उससे कौन-सा अपराध हुआ?

देवप्रिया पति को वन के पक्षियों के साथ विहार करते, हिरणों के साथ खेलते, सो को नचाते, नदी में जलक्रीड़ा करते देखती। प्रेम की इस अमोघ राशि से उसके लिए मुट्ठी भर भी नहीं? उसने कौन-सा अपराध किया है? उससे तो वह बोलते तक नहीं।

ऐसी अनिंद्य सुंदरी उसने स्वयं न देखी थी। उसने एक-से-एक रूपवती रमणियां देखी थीं, पर अपने सामने कोई उसकी निगाह में नजंचती थी। वह जंगली फूलों के गहने बना-बनाकर पहनती, आंखों से हंसती, हाव-भाव, कटाक्ष सब कुछ करती, पर पति के हृदय में प्रवेश न कर सकती थी। तब वह झुंझला पड़ती कि अगर यों जलाना था, तो यौवन दान क्यों किया? यह बला क्यों मेरे सिर मढ़ी? जिस यौवन को पाकर उसने एक दिन अपने को संसार में सबसे सुखी समझा था, उसी यौवन से अब उसका जी जलता था। वह रूपविहीन होकर स्वामी के चरणों में आश्रय पा सकती, तो इस अनुपम सौंदर्य को बासी हार की भांति उतारकर फेंक देती, पर कौन इसका विश्वास दिलाएगा?

एक दिन देवप्रिया ने महेन्द्र से कहा-तुमने काया तो बदल दी, पर मेरा मन क्यों न बदल दिया?

महेन्द्र ने गंभीर भाव से उत्तर दिया-जब तक पूर्व संस्कारों का प्रायश्चित न हो जाए, मन की भावनाएं नहीं बदल सकतीं।

इन शब्दों का आशय जो कुछ हो, पर देवप्रिया ने यह समझा कि यह मुझसे केवल मेरे पूर्व संस्कारों के कारण घृणा करते हैं। उसका पीड़ित हृदय इस अन्याय से विकल हो उठा। आह ! यह इतने कठोर हैं ! इनमें क्षमा का नाम तक नहीं, तो क्या इन्होंने मुझे उन संस्कारों का दंड देने के लिए मेरा कायाकल्प किया? प्रलोभनों में घिरी हुई अबला के प्रति इन्हें जरा भी सहानुभूति नहीं! वह वाक्य शर के समान उसके हृदय में चुभने लगा। पति में वह श्रद्धा न रही। जीवन से विरक्त हो गई। पतिप्रेम का सुख भोगने के लिए ही उसने अपना राज-त्याग किया था, पूर्व संस्कारों का दंड भोगने के लिए नहीं। उसने समझा था, स्वामी मुझ पर दया करके मेरा उद्धार करने ले जा रहे हैं। उनके हाथों यह दंड सहना उसे स्वीकार न था। अपने पूर्व जीवन पर लज्जा थी। पश्चात्ताप था, पति के मुख से यह व्यंग्य न सुनना चाहती थी। वह संसार की सारी विपत्ति सह सकती थी, केवल पतिप्रेम से वंचित रहना उसे असह्य था। उसने सोचना शुरू किया, क्यों न चली जाऊं? पति से दूर हटकर कदाचित् वह शांत रह सकती थी। दुखती हुई आंखों की अपेक्षा फूटी आंखें ही अच्छी, पर इस वियोग की कल्पना ही से उसका मन भयभीत हो जाता था।

आखिर उसने यहां से प्रस्थान करने का निश्चय कर लिया। रात का समय था। महेन्द्र गुफा के बाहर एक शिला पर पड़े हुए थे। देवप्रिया आकर बोली-आप सो रहे हैं क्या?

महेन्द्र उठकर बैठ गए और बोले-नहीं, सो नहीं रहा हूँ, मैं एक ऐसे यंत्र की कल्पना कर रहा हूँ जिससे मनुष्य अपनी इंद्रियों का दमन कर सके। संयम, साधन और विराग पर मुझे अब विश्वास नहीं रहा।

देवप्रिया--ईश्वर आपकी कल्पना सफल करें। मैं आपसे यह कहने आई हूँ कि जब आप मुझे त्याज्य समझते हैं, तो क्यों हर्षपुर या कहीं और नहीं भेज देते?

महेन्द्र ने पीड़ित होकर कहा--मैं तुम्हें त्याज्य नहीं समझ रहा हूँ। प्रिये, तुम मेरी चिरसंगिनी हो और सदा रहोगी। अनंत में दस-बीस या सौ-पचास वर्ष का वियोग 'नहीं' के बराबर है। तुम अपने को उतना नहीं जानतीं, जितना मैं जानता हूँ। मेरी दृष्टि में तुम पवित्र, निर्दोष और धवल के समान उज्ज्वल हो। इस विश्व-प्रेम के साम्राज्य में त्याज्य कोई वस्तु नहीं है, न कि तुम, जिसने मेरे जीवन को सार्थक बनाया है। मैं तुम्हारी प्रेम शक्ति का विकास मात्र हूँ।

देवप्रिया ये प्रेम से भरे हुए शब्द सुनकर गद्गद हो गई। उसका सारा संताप, सारा क्रोध, सारी वेदना इस भांति शांत हो गई, जैसे पानी पड़ते ही धूल बैठ जाती है। वह उसी शिला पर बैठ गई और महेन्द्र के गले में बांहें डालकर बोली-फिर आप मुझसे बोलते क्यों नहीं? मुझसे क्यों भागे-भागे फिरते हैं? मुझे इतने दिन यहां रहते हो गए, आपने कभी मेरी ओर प्रेम की दृष्टि से देखा भी नहीं। आप जानते हैं, पति-प्रेम नारी जीवन का आधार है। इससे वंचित होकर अबला निराधार हो जाती है।

महेन्द्र ने करुण स्वर से कहा--प्रिये, बहुत अच्छा होता यदि तुम मुझसे यह प्रश्न न करतीं। मैं जो कुछ कहूँगा, उससे तुम्हारा चित्त और भी दुखी होगा। मेरे अंदर की आग बाहर नहीं निकलती, इससे यह न समझो कि उसमें ज्वाला नहीं है। आह! उस अनंत प्रेम की स्मृतियां अभी हरी हैं, जिसका आनंद उठाने का सौभाग्य बहुत थोड़े ही दिनों के लिए प्राप्त हुआ था। उसी सुख की लालसा मुझे तुम्हारे द्वार का भिक्षुक बनाकर ले गई थी। उसी लालसा ने मुझसे ऐसी कठिन तपस्याएं कराईं, जहां प्रतिक्षण प्राणों का भय था। क्या जानता था कि कौशलमय विधि मेरी साधनाओं का उपहास कर रहा है। जिस वक्त मैं तुम्हारी ओर लालसापूर्ण नेत्रों से ताकता हूँ, तो मेरी आंखें जलने लगती हैं, जब तुम्हें प्रात:काल अंचल में फूल भरे उषा की भांति स्वर्ण छटा की वर्षा करते आते देखता हूँ, तो मेरे मन में अनुराग का जो भीषण विप्लव होने लगता है, उसकी तुम कल्पना भी नहीं कर सकतीं, लेकिन तुम्हारे समीप जाते ही मेरे समस्त शरीर में ऐसी जलन होने लगती है, मानो अग्निकंड में घुसा जा रहा हूँ। तुम्हें याद है, एक दिन मैंने तुम्हारा हाथ पकड़ लिया था। मुझे ऐसा जान पडा कि जलते तवे पर हाथ पड़ गया। इसका क्या कारण है? विधि क्यों हमारे प्रेम-मिलन में बाधक हो रहा है, यह मैं नहीं जानता, पर ऐसा अनुमान करता हूँ कि यह मेरी लालसा का दंड है।

नारी-बुद्धि तीक्ष्ण होती है। महेन्द्र की समझ में जो बात न आई थी, वह देवप्रिया समझ गई। उस दिन से वह तपस्विनी बन गई। पति के साए से भी भागती। अगर वह उसके कमरे में आ जाते, तो उनकी ओर आंखें उठाकर भी न देखती, पर वह इस दशा में प्रसन्न थी। रमणी का हृदय सेवा के सूक्ष्म परमाणुओं से बना होता है। उसका प्रेम भी सेवा है, उसका अधिकार भी सेवा है, यहां तक कि उसका क्रोध भी सेवा है। विडंबना तो यह थी कि यहां सेवा क्षेत्र में भी वह स्वाधीन न थी। उसके लिए सेवा की सीमा वहीं तक थी, जहां अनुराग का आरंभ होता है। उसकी सेवा में पत्नी भाव का अल्पांश भी न आने पाए, यही चेष्टा वह करती रहती थी। अगर विधि को उसके सौभाग्य से आपत्ति है, अगर वह इस अपराध के लिए उसके पति को दंड देना चाहता है, तो देवप्रिया यह साक्षी देने को तैयार थी कि उसने पति प्रेम का उतना ही आनंद उठाया है, जितना एक विधवा भी उठा सकती है।

एक दिन महेन्द्र ने आकर कहा--प्रिये, चलो, आज तुम्हें आकाश की सैर करा लाऊं। मेरा हवाई जहाज तैयार हो गया है।

महेन्द्र ने सात वर्ष के अनवरत परिश्रम से यह वायुयान बनाया था। इसमें विशेषता यह थी कि तूफान और मेह में भी स्थिर रूप से चला जाता था, मानो नैसर्गिक शक्तियों पर विजय का डंका बजा रहा हो। उसमें जरा भी शोर न होता था। गति घंटे में एक हजार मील की थी। इस पर बैठकर वह पृथ्वी की प्रत्येक वस्तु को उसके यथार्थ रूप में देख सकते थे, दूर से दूर देशों के विद्वानों के भाषण और गाने वालों के गीत सुन सकते थे। उस पर बैठते ही मानसिक शक्तियां दिव्य और नेत्रों की ज्योति सहस्र गुणी हो जाती थी। यह एक अद्भुत यंत्र था। महेन्द्र ने अब तक कभी देवप्रिया से उस पर बैठने का अनुरोध न किया था। उनके मुंह से उसके गुण सुनकर उसका जी तो चाहता था कि उसमें एक बार बैलूं, इसकी बड़ी तीव्र उत्कंठा होती थी, पर वह संवरण कर जाती थी। आज यह प्रस्ताव करने पर भी उसने अपनी उत्सुकता को दबाते हुए कहा-आप जाइए, आकाश की सैर कीजिए, मैं अपनी कुटिया में ही मगन हूँ।

महेन्द्र--मानव बुद्धि ने अब तक जितने आविष्कार किए हैं, उनका पूर्ण विकास देख लोगी।

देवप्रिया-आप जाइए, मैं नहीं जाती।

महेन्द्र-मैं तो आज तुम्हें जबरदस्ती ले चलूंगा।

यह कहकर उन्होंने देवप्रिया का हाथ पकड़ लिया और अपनी ओर खींचा। देवप्रिया का चित्त डावांडोल हो गया। जैसे नटखट बालक के बुलाने पर कुत्ता डरता-डरता जाता है कि मालूम नहीं, भोजन मिलेगा या डंडे, उसी भांति देवप्रिया भी महेन्द्र के साथ चली गई।

गुफा के बाहर स्वर्ण की वर्षा हो रही थी। आकाश, पर्वत और उन पर विहार करने वाले पक्षी और पशु सोने में रंगे थे। विश्व स्वर्णमय हो रहा था। शांति का साम्राज्य छाया हुआ था। पृथ्वी विश्राम करने जा रही थी।

यान एक पल में दोनों आरोहियों को लेकर अनंत आकाश में विचरने लगा। वह सीधा चन्द्रमा की ओर चला जाता था, ऊपर-ऊपर और भी ऊपर, यहां तक कि चन्द्रमा का दिव्य प्रकाश देखकर देवप्रिया भयभीत हो गई।

सहसा देवप्रिया संगीत की मधुर ध्वनि सुनकर चौंक पड़ी और बोली-यहां कौन गा रहा

है?

महेन्द्र ने मुस्कराकर कहा--हमारे स्वामीजी ईश्वर की स्तुति कर रहे हैं। मैं अभी उनसे बातें करता हूँ। सुनो-स्वामीजी, क्या हो रहा है?

"बच्चा, भगवान् की स्तुति कर रहा हूँ। अच्छा, तुम्हारे साथ तो देवप्रियाजी भी हैं। उन्हें जापानी सिनेमा की सैर नहीं कराई?"

सहसा देवप्रिया को एक जापानी नौका डूबती हुई दिखाई दी। एक क्षण में एक जापानी युवक कगार पर से समुद्र में कूद पड़ा और लहरों को चीरता हुआ नौका की ओर चला।

देवप्रिया ने कांपते हुए कहा--कहीं यह बेचारा भी न डूब जाए !

महेन्द्र ने कहा-यह किसी प्रेम-कथा का अंतिम दृश्य है।

यान और भी ऊपर उड़ता चला जाता था, पृथ्वी पर से जो तारे टिमटिमाते हुए ही नजर आते थे, अब चन्द्रमा की भांति ज्योतिर्मय हो गए थे और चन्द्रमा अपने आकार से दस गुना बड़ा दिखाई देता था। विश्व पर अखंड शांति छाई हुई थी। केवल देवप्रिया का हृदय धडक रहा था। वह किसी अज्ञात शंका से विकल हो रही थी। जापानी सिनेमा का अंतिम दृश्य उसकी आंखों में नाच रहा था।

तब महेन्द्र ने वीणा उठा ली और देवप्रिया से बोले-प्रिये, तुम्हारा मधुर गान सुने बहुत दिन बीत गए। याद है, तुमने पहले जो गीत गाया था, वही गीत आज फिर गाओ। देखो, तारागण तान लगाए बैठे हैं।

देवप्रिया स्वामी की बात न टाल सकी। उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि वह स्वामी का अंतिम आदेश है, मैं इन कानों से स्वामी की बातें फिर न सुनूंगी। उसने कांपते हुए हाथों में वीणा ले ली और कांपते हुए स्वरों में गाने लगी--

'पिया मिलन है कठिन बावरी !'

प्रेम, करुणा और नैराश्य से डूबी हुई वह ध्वनि सुनते ही महेन्द्र की आंखों से अश्रुधारा बहने लगी। आह ! वियोग-व्यथा से पीड़ित यह हृदय स्वर उनके अंतस्तल पर शर जैसी चोटें करने लगा। बार-बार हृदय थामकर रह जाते थे। सहसा उनका मन एक अत्यंत प्रबल आवेग से आंदोलित हो उठा। लालसा-विह्वल मन ने कहा-यह संयम कब तक? इस जीवन का भरोसा ही क्या? जाने कब इसका अंत हो जाए और ये चिरसंचित अभिलाषाएं भी धूल में मिल जाएं। अब जो होना है, सो हो!

अनंत शांति का साम्राज्य था, यान प्रतिक्षण और ऊपर चढ़ता जाता था। महेन्द्र ने देवप्रिया का कोमल हाथ पकड़कर कहा-प्रिये, अनंत वियोग से तो अनंत विश्राम ही अच्छा।

वीणा देवप्रिया के हाथ से छूटकर गिर पड़ी। उसने देखा, महेन्द्र के कामप्रदीप्त अधर उसके मुख के पास आ गए हैं और उनके दोनों हाथ, उससे आलिंगित होने के लिए खुले हुए हैं। देवप्रिया एक क्षण, केवल एक क्षण के लिए सब कुछ भूल गई। उसके दोनों हाथ महेन्द्र के गले में जा पड़े।

एकाका धमाकों की आवाज हुई। देवप्रिया चौंक पड़ी। उसे मालूम हुआ, यान बड़े वेग से नीचे चला जा रहा है। उसने अपने को महेन्द्र के कर-पाश से मुक्त कर लिया और घबराकर बोली-प्राणनाथ, यान नीचे चला जा रहा है।

महेन्द्र ने कुछ उत्तर न दिया।

देवप्रिया ने फिर कहा--ईश्वर के लिए इसे रोकिए। देखिए, कितने वेग से नीचे गिर रहा है। महेन्द्र ने व्यथित कंठ से कहा-प्रिये ! अब इसे मैं नहीं रोक सकता। मेरे पैर कांप रहे हैं। मालूम होता है, जीवन का अंत हो रहा है। आह ! आह ! प्रिये ! मैं गिर रहा हूँ।

देवप्रिया उन्हें संभालने चली थी कि महेन्द्र गिर पड़े। उनके मुंह से केवल ये शब्द निकले-डरो मत, यान भूमि से टक्कर न खाएगा, तुम हर्षपुर जाकर राज्याधिकार अपने हाथ में लेना। मैं फिर आऊंगा, हम और तुम फिर मिलेंगे, अवश्य मिलेंगे, अतृप्त तृष्णा फिर मुझे तुम्हारे पास लाएगी, विधि का निर्दय हाथ भी उसमें बाधक नहीं हो सकता। इस प्रेम की स्मृति देवलोक में भी मुझे विकल करती रहेगी। आह! इस अनंत विश्राम की अपेक्षा अनंत वियोग कितना सुखकर था !

देवप्रिया खड़ी रो रही थी और यान वेग से नीचे उतरता जाता था !

चौंतीस

चक्रधर को रात भर नींद न आई। उन्हें बार-बार पश्चाताप होता था कि मैं क्रोध के आवेग में क्यों आ गया। जीवन में यह पहला ही अवसर था कि उन्होंने एक निर्बल प्राणी पर हाथ उठाया था। जिसका समस्त जीवन दीन जनों की सहायता में गुजरा हो, उसमें यह कायापलट नैतिक पतन से कम न था। आह! मुझ पर भी प्रभुता का जादू चल गया। इतने संयत रहने पर भी मैं उसके जाल में फंस गया। कितना चतुर शिकारी है! अब मुझे अनुभव हो गया है कि इस वातावरण में रहकर मेरे लिए अपनी मनोवृत्तियों को स्थिर रखना असंभव है। धन में धर्म है, उदारता है, लेकिन इसके साथ ही गर्व भी है, जो इन गुणों को मटियामेट कर देता है।

चक्रधर तो इस विचार में पड़े हुए थे और अहिल्या अपने सजे हुए शयनागार में मखमली गद्दों पर लेटी अंगड़ाइयां ले रही थी। चारपाई के सामने ही दीवार में एक बड़ा-सा आईना लगा हुआ था। वह उस आईने में अपना स्वरूप देख-देखकर मुग्ध हो रही थी। सहसा शंखधर एक रेशमी कुर्ता पहने लुढ़कता हुआ आकर उसके पास खड़ा हो गया। अहिल्या ने हाथ फैलाकर कहा-बेटा, जरा मेरी गोद में आ जाओ।

शंखधर अपना खोया हुआ घोड़ा ढूंढ़ रहा था। बोला-अम नई...

अहिल्या--देखो, मैं तुम्हारी अम्मां हूँ ना?

शंखधर--तुम अम्मां नईं। अम्मां लानी है।

अहिल्या--क्या मैं रानी नहीं हूँ?

शंखधर ने उसे कुतूहल से देखकर कहा--तुम लानी नईं। अम्मां लानी है।

अहिल्या ने चाहा कि बालक को पकड़ ले, पर वह तुम लानी नईं, तुम लानी नईं ! कहता हुआ कमरे से निकल गया। बात कुछ न थी, लेकिन अहिल्या ने कुछ और ही आशय समझा। यह भी उसकी समझ में मनोरमा की कूटनीति थी। वह उससे राजमाता का अधिकार भी छीनना चाहती है। वह बालक को पकड़ लाने के लिए उठी ही थी कि चक्रधर ने कमरे में कदम रखा। उन्हें देखते ही अहिल्या ठिठक गई और त्योरियां चढ़ाकर बोली--अब तो रात भर आपके दर्शन ही नहीं होते।

चक्रधर--कुछ तुम्हें खबर भी है। आध घंटे तक जगाता रहा, जब तुम न जागीं तो चला गया। यहां आकर तुम सोने में कुशल हो गईं !

अहिल्या--बातें बनाते हो। तुम रात को यहां थे ही नहीं। बारह बजे तक जागती रही। मालूम होता है, तुम्हें भी सैर-सपाटे की सूझने लगी। अब मुझे यह एक और चिंता हुई।

चक्रधर--अब तक जितनी चिंताएं हैं, उनमें तो तुम्हारी नींद का यह हाल है, यह चिंता और हुई, तो शायद तुम्हारी आंख ही न खुले।

अहिल्या--क्या मैं सचमुच बहुत सोती हूँ?

चक्रधर--अच्छा, अभी तुम्हें इसमें संदेह भी है ! घड़ी में देखो! आठ बज गए हैं। तुम पांच बजे उठकर घर का धंधा करने लगती थीं।

अहिल्या--तब की बातें जाने दो। अब उतने सवेरे उठने की जरूरत ही क्या है?

चक्रधर--तो क्या तुम उम्र-भर यहां मेहमानी खाओगी? अहिल्या ने विस्मित होकर कहा-इसका क्या मतलब?

चक्रधर--इसका मतलब यही है कि हमें आए हुए बहुत दिन गुजर गए। अब अपने घर चलना चाहिए?

अहिल्या--अपना घर कहाँ है?

चक्रधर--अपना घर वही है, जहां अपने हाथों की कमाई है। अहिल्या ने एक मिनट सोचकर कहा-लल्लू कहाँ रहेगा?

चक्रधर--लल्लू को यहीं छोड़ सकती हो। वह रानी मनोरमा से खूब हिल गया है। तुम्हारी तो शायद उसे याद भी न आए।

अहिल्या--अच्छा, तो अब समझ में आया। इसीलिए रानीजी उससे इतना प्रेम करती हैं। यह बात तुमने स्वयं सोची है, या रानीजी ने कुछ कहा है?

चक्रधर--भला, वह क्या कहेंगी? मैं खुद यहां रहना नहीं चाहता। ससुराल की रोटियां बहुत खा चुका। खाने में तो वह बहुत मीठी मालूम होती हैं, पर उनसे बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। औरों को हजम होती होंगी, पर मुझे तो नहीं पचतीं, और शायद तुम्हें भी नहीं पचतीं। इतने ही दिनों में हम दोनों कुछ के कुछ हो गए। यहां कुछ दिन और रहा, तो कम से कम मैं तो कहीं का न रहूँगा। कल मैंने एक गरीब किसान को मारते-मारते अधमरा कर दिया। उसका कसूर केवल यह था कि वह मेरे साथ आने पर राजी न होता था।

अहिल्या--यह कोई बात नहीं। गंवारों के उजड्डपन पर कभी-कभी क्रोध आ ही जाता है। मैं ही यहां दिन भर लौंडियों पर झल्लाती रहती हूँ, मगर मुझे तो कभी यह खयाल ही नहीं आया कि घर छोड़कर भाग जाऊं।

चक्रधर--तुम्हारा घर है, तुम रह सकती हो, लेकिन मैंने तो जाने का निश्चय कर लिया है।

अहिल्या ने अभिमान से सिर उठाकर कहा-तुम न रहोगे, तो मुझे यहां रहकर क्या लेना है। मेरे राज-पाट तो तुम हो, जब तुम्हीं न रहोगे, तो अकेली पड़ी-पड़ी मैं क्या करूंगी? जब चाहे, चलो! हां, पिताजी से पूछ लो। उनसे बिना पूछे तो जाना उचित नहीं, मगर एक बात अवश्य कहूँगी। हम लोगों के जाते ही यहां का सारा कारोबार चौपट हो जाएगा। रानी मनोरमा का हाल देख ही रहे हो। रुपए को ठीकरा समझती हैं। दादाजी उनसे कुछ कह नहीं सकते। थोड़े दिनों में रियासत जेरबार हो जाएगी और एक दिन बेचारे लल्लू को ये सब पापड़ बेलने पड़ेंगे।

अहिल्या के मनोभाव इन शब्दों से साफ टपकते थे। कुछ पूछने की जरूरत न थी। चक्रधर समझ गए कि अगर मैं आग्रह करूं, तो यह मेरे साथ जाने पर राजी हो जाएगी। जब ऐश्वर्य और पति-प्रेम, दो में से एक को लेने और दूसरे को त्याग करने की समस्या पड़ जाएगी, तो अहिल्या किस ओर झुकेगी, इसमें लेशमात्र भी संदेह नहीं था, लेकिन वह उसे इस कठोर धर्म संकट में डालना उचित न समझते थे। आग्रह से विवश होकर वह उनके साथ चली गई तो क्या? जब उसे कोई कष्ट होगा, मन ही मन झुंझलाएगी और बात-बात पर कुढ़ेगी, तब लल्लू को यहां छोड़ना ही पड़ेगा। मनोरमा उसे एक क्षण के लिए भी नहीं छोड़ सकती। राजा साहब तो शायद वियोग में प्राण ही त्याग दें। पुत्र को छोड़कर अहिल्या कभी जाने पर तैयार न होगी और गई भी, तो बहुत जल्द लौट आएगी।

चक्रधर बड़ी देर तक इन्हीं विचारों में मग्न बैठे रहे। अहिल्या पति के साथ जाने पर सहमत तो हो गई थी, पर दिल में डर रही थी कि कहीं सचमुच न जाना पड़े। वह राजा साहब को पहले ही सचेत कर देना चाहती थी, जिसमें वह चक्रधर की नीति और धर्म की बातों में न आ जाएं! उसे इसका पूरा विश्वास था कि चक्रधर राजा साहब से बिना पूछे कदापि न जाएंगे! वह क्या जानती थी कि जिन बातों से उसके दिल पर जरा भी असर नहीं होता, वही बातें चक्रधर के दिल पर तीर की भांति लगती हैं। चक्रधर ने अकेले, बिना किसी से कुछ कहे-सुने चले जाने का संकल्प किया। इसके सिवा उन्हें गला छुड़ाने का कोई उपाय ही न सूझता था।

इस वक्त वह उस मनहूस घड़ी को कोस रहे थे, जब मनोरमा की बीमारी की खबर पाकर अहिल्या के साथ वह यहां आए थे। वह अहिल्या को यहां लाए ही क्यों थे? अहिल्या ने आने के लिए आग्रह न किया था। उन्होंने खुद गलती की थी। उसी का यह भीषण परिणाम था कि आज उनको अपनी स्त्री और पुत्र दोनों से हाथ धोना पड़ता था। उन्होंने लाठी के सहारे से दीपक का काम लिया था, लेकिन हा दुर्भाग्य ! आज वह लाठी भी उनके हाथ से छीनी जाती थी। पत्नी और पुत्र के वियोग की कल्पना ही से उनका जी घबराने लगा। कोई समय था, जब दाम्पत्य जीवन से उन्हें उलझन होती थी। मृदुल हास्य और तोतले शब्दों का आनंद उठाने के बाद अब एकांतवास असा प्रतीत होता था, कदाचित् अकेले घर में वह कदम ही न रख सकेंगे, कदाचित् वह उस निर्जन वन को देखकर रो पड़ेंगे।

मनोरमा इस वक्त शंखधर को लिए हुए बगीचे की ओर जाती हुई इधर से निकली। चक्रधर को देखकर वह एक क्षण के लिए ठिठक गई। शायद वह देखना चाहती थी कि अहिल्या है या नहीं। अहिल्या होती, तो वह यहां दम भर भी न ठहरती, अपनी राह चली जाती। अहिल्या को न पाकर वह कमरे के द्वार पर आ खड़ी हुई और बोली-बाबूजी, रात को सोए नहीं क्या? आंखें चढ़ी हुई हैं!

चक्रधर--नींद ही नहीं आयी। इसी उधेड़बुन में पड़ा था कि रहूँया जाऊं? अंत में यही निश्चय किया कि यहां और रहना अपना जीवन नष्ट करना है।

मनोरमा--क्यों लल्लू! यह कौन हैं?

शंखधर ने शरमाते हुए कहा--बाबूजी।

मनोरमा--इनके साथ जाएगा?

बालक ने आंचल से मुंह छिपाकर कहा--लानी अम्मां छाथ?

चक्रधर हंसकर बोले--मतलब की बात समझता है। रानी अम्मां को छोड़कर किसी के साथ न जाएगा।

शंखधर ने अपनी बात का अनुमोदन किया-अम्मां लानी।

चक्रधर--जभी तो चिमटे हो-बैठे-बिठाए मुफ्त का राज्य पा गए। घाटे में तो हमीं रहे कि अपनी सारी पूंजी खो बैठे।

मनोरमा ने कहा--कब तक लौटिएगा?

चक्रधर--कह नहीं सकता, लेकिन बहुत जल्द लौटने का विचार नहीं है। इस प्रलोभन से बचने के लिए मुझे बहुत दूर जाना पड़ेगा।

रानी ने मुस्कराकर कहा--मुझे भी लेते चलिए। यह कहते-कहते रानी की आंखें सजल हो गईं।

चक्रधर ने गंभीर भाव से कहा--यह तो होना ही नहीं था, मनोरमा रानी। जब तुम बालिका थीं, तब भी मेरे लिए देवी की प्रतिमा थीं, और अब भी देवी की प्रतिमा हो।

मनोरमा--बातें न बनाओ, बाबूजी! तुम मुझे हमेशा धोखा देते आए हो और अब भी वही नीति निभा रहे हो! सच कहती हूँ, मुझे भी लेते चलिए। अच्छा, मैं राजा साहब को राजी कर लूं, तब तो आपको कोई आपत्ति न होगी?

चक्रधर--मनोरमा, दिल्लगी कर रही हो, या दिल से कहती हो?

मनोरमा--दिल से कहती हूँ, दिल्लगी नहीं।

चक्रधर--मैं आपको अपने साथ न ले जाऊंगा।

मनोरमा-क्यों?

चक्रधर--बहुत-सी बातों का अर्थ बिना कहे ही स्पष्ट होता है।

मनोरमा--तो आपने, मुझे अब भी नहीं समझा। मुझे भी बहुत दिनों से कुछ सेवा करने की इच्छा है। मैं भोग-विलास करने के लिए यहां नहीं आई थी। ईश्वर को साक्षी देकर कहती हैं, मैं कभी भोग-विलास में लिप्त न हुई थी। धन से मुझे प्रेम है, लेकिन केवल इसलिए कि उससे मैं कुछ सेवा कर सकती, और सेवा करने वालों की कुछ मदद कर सकती। सच कहा है, पुरुष कितना ही विद्वान और अनुभवी हो, पर स्त्री को समझने में असमर्थ ही रहता है। खैर, न ले जाइए। अहिल्या देवी ने तप किया है।

चक्रधर--वह तो साथ जाने को कहती है।

मनोरमा--कौन ! अहिल्या ! वह आपके साथ नहीं जा सकती, और आप ले भी गए तो आज के तीसरे दिन यहां पहुंचाना पड़ेगा। मैं वही हूँ जो तब थी, किंतु वह अपने दिन भूल गई। यह कहते हुए मनोरमा ने बालक को गोद में उठा लिया और मंद गति से बगीचे की ओर चली गई। चक्रधर खड़े सोच रहे थे, क्या वास्तव में मैंने इसे नहीं समझा? अवश्य ही मेरा इसे विलासिनी समझना भ्रम है। हम क्यों ऐसा समझते हैं कि स्त्रियों का जन्म केवल भोग-विलास के लिए ही होता है? क्या उनका ह्रदय ऊंचे और पवित्र भावों से शून्य होता है? हमने उन्हें कामिनी, रमणी, सुंदरी आदि विलास-सूचक नाम दे-देकर वास्तव में उन्हें वीरता, त्याग और उत्सर्ग से शून्य कर दिया है। अगर सभी पुरुष वासना प्रिय नहीं होते, तो सभी स्त्रियां क्यों वासनाप्रिय होने लगीं। अगर मनोरमा जो कुछ कहती है, वह सत्य है, तो मैंने उसे हकीकत में नहीं समझा ! हा, मंदबुद्धि !

सहसा चक्रधर को एक बात याद आ गई तुरंत मनोरमा के पास जाकर बोले--मैं आपसे एक विनय करने आया हूँ ! धन्नासिंह के साथ मैंने जो अत्याचार किया है, उसका कुछ प्रायश्चित करना आवश्यक है।

मनोरमा ने मुस्कराकर कहा--बहुत देर में इसकी सुधि आई ! मैंने उसकी कुल जोत मुआफी कर दी है।

चक्रधर ने चकित होकर कहा--आप सचमुच देवी हैं ! तो मैं जाकर उन सबों को इसकी इत्तिला दे दूं?

मनोरमा--आपका जाना आपकी शान के खिलाफ है। इस जरा-सी बात की सूचना देने के लिए भला, आप क्या जाइएगा? तो आपने कब जाने का विचार किया है?

चक्रधर--आज ही रात को।

मनोरमा ने मुस्कराते हुए कहा--हां, उस वक्त अहिल्या देवी सोती भी होंगी।

एक क्षण के बाद फिर बोली--मैं अहिल्या होती, तो सब कुछ छोड़कर आपके साथ चलती।

यह कहते-कहते मनोरमा ने लज्जा से सिर झुका लिया। जो बात वह ध्यान में भी न लाना चाहती थी, वह उसके मुंह से निकल गई। उसने उसी वक्त शंखधर को उठा लिया और बाग के दूसरी तरफ चली गई, मानो उनसे पीछा छुड़ाना चाहती है, या शायद डरती है कि कहीं मेरे मुंह से कोई और असंगत बात न निकल जाए।

चक्रधर कुछ देर वहां खड़े रहे, फिर बाहर चले गए। किसी काम में जी न लगा। सोचने लगे, जरा शहर चलकर अम्मांजी से मिलता जाऊं, मगर डरे कि कहीं अम्मां शिकायतों का दफ्तर न खोल दें। निर्मला एक बार यहां आई थी, मगर एक ही सप्ताह में ऊबकर चली गई थी। अहिल्या की रुखाई से उसका दिल खट्टा हो गया था। जो अहिल्या शील और विनय की पुतली थी, वह यहां सीधे मुंह बात भी न करती थी।

ज्यों-ज्यों संध्या निकट आती थी, उनका जी उचाट होता जाता था। पहले कहीं बाहर जाने में जो उत्साह होता था, उसका अब नाम भी न था। जानते थे कि छलके हुए दूध पर आंसू बहाना व्यर्थ है, किंतु इस वक्त बार-बार स्वर्गवासी मुंशी यशोदानंदन पर क्रोध आ रहा था। अगर उन्होंने मेरे गले में फंदा न डाला होता, तो आज मुझे क्यों हर विपत्ति झेलनी पड़ती? मैं तो राजा की लड़की से विवाह न करना चाहता था। मुझे तो धनी कुल की कन्या से भी डर लगता था। विधाता को मेरे ही साथ यह क्रीड़ा करनी थी!

संध्या समय वह राजा साहब से पूछने गए। राजा साहब ने आंखों में आंसू भरकर कहा-बाबूजी, आप धुन के पक्के आदमी हैं, मेरी बात आप क्यों मानने लगे, मगर मैं इतना कहता हूँ कि अहिल्या रो-रोकर प्राण दे देगी और आपको बहुत जल्द लौटकर आना पड़ेगा। अगर आप उसे ले गए, तो शंखधर भी जाएगा और मेरी सोने की लंका धूल में मिल जाएगी। आखिर आपको यहां क्या कष्ट है?

चक्रधर को बार-बार एक ही बात का दुहराना बुरा मालूम होता था। कुछ झुंझलाकर बोले-इसी से तो मैं जाना चाहता हूँ कि यहां मुझे कोई कष्ट नहीं है। विलास में पड़कर अपना जीवन नष्ट नहीं करना चाहता।

राजा--और इस राज्य को कौन संभालेगा?

चक्रधर--राज्य संभालना मेरे जीवन का आदर्श नहीं है। फिर आप तो हैं ही।

राजा--तुम समझते हो, मैं बहुत दिन जीऊंगा? सुखी आदमी बहुत दिन नहीं जीता, बेटा! यह सब मेरे मरने के समान है। मैं मिथ्या नहीं कहता। मुझे ऐसा आभास हो रहा है कि मेरे दिन निकट आ गए हैं। शंखधर मेरा शत्रु बनकर आया है। यह लो, वह तलवार लिए दौड़ा भी आ रहा है। क्यों शंखधर, तलवार क्यों लाए हो?

शंखधर--तुमको मालेंगे।

राजा--क्यों भाई, मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है?

शंखधर--अम्मां लानी लोती हैं, तुमने उनको क्यों माला है?

राजा--लो साहब, यह नया अपराध मेरे सिर पर मढ़ा जा रहा है। चलो, जरा दे तो तुम्हारी लानी अम्मां को किसने मारा है। क्या सचमुच रोती हैं?

शंखधर--बली देल से लोती हैं।

राजा साहब तो तुरंत अंदर चले गए। मनोरमा के रोने की खबर सुनकर वह व्याकुल हो उठे। अंदर जाकर देखा, तो मनोरमा सचमुच रो रही थी। कमल पुष्प में ओस की बूंदें झलक रही थीं। राजा साहब ने आतुर होकर पूछा-क्या बात है, नोरा? कैसा जी है?

मनोरमा ने आंसू पोंछते हुए कहा--अच्छी तो हूँ।

राजा--तो आंखें क्यों लाल हैं?

मनोरमा--आंखें तो लाल नहीं हैं। (जरा रुककर) अहिल्या देवी बाबूजी के साथ जा रही हैं। लल्लू को भी ले जाएंगी।

राजा--यह तुमसे किसने कहा?

मनोरमा-अहिल्या देवी ने।

राजा--अहिल्या नहीं जा सकती।

मनोरमा--आप बाबूजी को क्यों नहीं समझाते?

राजा--वह मेरे समझाने से न मानेंगे। किसी के समझाने से न मानेंगे।

मनोरमा--तो फिर?

राजा-तो उन्हें जाने दो। वह बहुत दिन बाहर नहीं रहेंगे। उन्हें थोड़े ही दिनों में लौटकर आना पड़ेगा।

मनोरमा की आंखों से अश्रुवर्षा होने लगी। उसने अवरुद्ध कंठ से कहा--वह अब यहां न आएंगे। आप उन्हें नहीं जानते?

राजा--मेरा मन कहता है, वह थोड़े ही दिनों में आएंगे। शंखधर उन्हें खींच लाएगा। अभी माया ने उन पर केवल एक अस्त्र चलाया है।

चक्रधर ने सोचा, इस तरह तो शायद मैं यहां से मरकर भी छुट्टी न पाऊं। इनसे पूछू, उनसे पूछू। मुझे किसी से पूछने की जरूरत ही क्या है। जब अकेले ही जाना है, तो क्यों यह सब झंझट करूं? अपने कमरे में जाकर दो-चार कपड़े और किताबें समेटकर रख दीं। कुल इतना ही सामान था, जिसे एक आदमी आसानी से हाथ में लटकाए लिए जा सकता था। उन्होंने रात को चुपके से बकुचा उठाकर चले जाने का निश्चय किया।

आज उन्हें भोजन से जरा भी रुचि न हुई। वह अहिल्या से भी न मिलना चाहते थे। उसे संपत्ति प्यारी है, तो संपत्ति लेकर रहे। मेरे साथ वह क्यों जाने लगी? मेरा मन रखने को मीठी-मीठी बातें करती है। जी में मनाती होगी, किसी तरह यहां से टल जाएं। अगर मुझे पहले मालूम होता कि वह इतनी विलास-लोलुप है, तो उससे कोसों दूर रहता। लेकिन फिर दिल को समझाया, मेरा अहिल्या से रूठना अन्याय है। वह अगर अपने पुत्र को छोड़कर नहीं जाना चाहती, तो कोई अनुचित बात नहीं करती! ऐसे क्षुद्र विचार मेरे मन में क्यों आ रहे हैं? मैं यदि अपना कर्त्तव्य पालन करने जा रहा हूँ, तो किसी पर एहसान नहीं कर रहा हूँ।

यात्रा की तैयारी करके और अपने मन को अच्छी तरह समझाकर चक्रधर ने संदेह को दूर करने के लिए अपने शयनागार में विश्राम किया। अहिल्या ने कहा-दादाजी तो राजी न हुए।

चक्रधर--न जाऊंगा, और क्या ! उनको नाराज भी तो नहीं करना चाहता।

अहिल्या प्रसन्न होकर बोली-यही उचित भी है। सोचो, उन्हें कितना बड़ा दुःख होगा। मैंने तुम्हारे साथ जाने का निश्चय कर लिया था। शंखधर को भी अपने साथ ले ही जाती। फिर बेचारे किसका मुंह देखकर रहते?

चक्रधर ने इसका कुछ जवाब न दिया। वह चुप साध गए। नींद का बहाना करने लगे। वह चाहते थे कि यह सो जाए, तो मैं चुपके से अपना बकुचा उठाऊं और लंबा हो जाऊं, मगर निद्राविलासिनी अहिल्या की आंखों से आज नींद कोसों दूर थी। वह कोई न कोई प्रसंग छेड़कर बातें करती जाती थी। यहां तक कि जब आधी रात से अधिक बीत गई, तो चक्रधर ने कहा-भाई, अब मुझे सोने दो, आज तुम्हारी नींद कहाँ भाग गई?

उन्होंने चादर ओढ़ ली और मुंह फेर लिया। गर्मी के दिन थे। कमरे में पंखा चल रहा था। फिर भी गर्मी मालूम होती थी। रोज किवाड़ खुले रहते थे। जब अहिल्या को विश्वास हो गया कि चक्रधर सो गए, तो उसने दरवाजे अंदर से बंद कर दिए और बिजली की बत्ती ठंडी करके सोयी। आज वह न जाने क्यों इतनी सावधान हो गई थी। पगली! जाने वालों को किसने रोका है?

रात भीग ही चुकी थी। अहिल्या को नींद आते देर नलगी। चक्रधर का प्रेमकातर हृदय अहिल्या के यों सावधान होने पर एक बार विचलित हो उठा। वह अपने आंसुओं के वेग को न रोक सके। यह सोचकर उनका कलेजा फटा जाता था कि जब प्रात:काल यह मुझे न पाएगी, तो इसकी क्या दशा होगी। इधर कुछ दिनों से अहिल्या को विलास-प्रमोद में मग्न देखकर चक्रधर समझने लगे कि इसका प्रेम अब शिथिल हो गया है। यहां तक कि शंखधर को भी गोद में उठाकर प्यार न करती थी, पर आज उसकी व्यग्रता देखकर उनका भ्रम जाता रहा, उन्हें ज्ञात हुआ कि इसका विलासी हृदय अब भी प्रेम में रत है ! जब कोई वस्तु हमारे हाथ से जाने लगती है, तभी उसके प्रति हमारे सच्चे मनोभाव प्रकट होते हैं। नि:शंक दशा में सबसे प्यारी वस्तुओं की भी हमें सुध नहीं रहती, हम उनकी ओर से उदासीन-से रहते हैं।

चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ था। सारा राजभवन शांति में विलीन हो रहा था। चक्रधर ने उठकर द्वारों को टटोलना शुरू किया, पर ऐसा दिशा-भ्रम हो गया था कि कभी सपाट दीवार हाथ में आती कभी कोई खिड़की, कभी कोई मेज। याद करने की चेष्टा करते थे कि मैं किस तरफ मुंह करके सोया था। द्वार ठीक चारपाई के सामने था, पर बुद्धि कुछ काम न देती थी। उन्होंने एक क्षण शांत चित्त होकर विचार किया, पर द्वार का ज्ञान फिर भी न हुआ। यहां तक कि अपनी चारपाई भी न मिलती थी। आखिर उन्होंने दीवारों को टटोल-टटोलकर बिजली का बटन खोज निकाला और बत्ती जला दी। देखा, अहिल्या सुख-निद्रा में मग्न है ! क्या छवि थी, मानो उज्ज्वल पुष्प राशि पर कमल-दल बिखरे पड़े हों, मानो हृदय में प्रेम स्मृति विश्राम कर रही हो।

चक्रधर के मन में एक बार यह आवेश उठा कि अहिल्या को जगा दें और उसे गले लगाकर कहें-प्रिये ! मुझे प्रसन्न मन से विदा करो, मैं बहुत जल्द-जल्द आया करूंगा। इस तरह चोरों की भांति जाते हुए उन्हें असीम मर्मवेदना हो रही थी, किंतु जिस भांति किसी बूढ़े आदमी को फिसलकर गिरते देख, हम अपनी हंसी के वेग को रोकते हैं, उसी भांति उन्होंने मन की इस दुर्बलता को दबा दिया और आहिस्ता से किवाड़ खोला। मगर प्रकृति को गुप्त व्यापार से कुछ बैर है। किवाड़ को उन्होंने कुछ रिश्वत तो दी नहीं थी, जो वह अपनी जबान बंद करता, खुला, पर प्रतिरोध की एक दबी हुई ध्वनि के साथ। अहिल्या सोई थी, पर उसे खटका लगा हुआ था। यह आहट पाते ही उसकी संचित निद्रा टूट गई। वह चौंककर उठ बैठी और चक्रधर को पास की चारपाई पर न पाकर घबराई हुई कमरे के बाहर निकल आई। देखा तो चक्रधर दबे पांव उस जीने पर चढ़ रहे थे, जो रानी मनोरम के शयनागार को जाता था।

उसने घबराई हुई आवाज में पुकारा--कहाँ भागे जाते हो?

चक्रधर कमरे से निकले, तो उनके मन में बलवती इच्छा हुई कि शंखधर को देखते चलें, इस इच्छा को वह संवरण न कर सके। वह तेजस्वी बालक मानो उनका रास्ता रोककर खड़ा हो गया हो। वह ऊपर कमरे में रानी मनोरमा के पास सोया हुआ था। इसीलिए चक्रधर ऊपर जा रहे थे कि उसे आंख भरके देख लूं। यह बात उनके ध्यान में न आई कि रानी को इस वक्त कैसे जगाऊंगा। शायद वह बरामदे ही में खड़े खिड़की से उसे देखना चाहते हों। इच्छा वेगवती होकर विचार-शून्य हो जाती है। सहसा अहिल्या की आवाज सुनकर वह स्तंभित-से हो गए। ऊपर न जाकर नीचे उतर आए और अत्यंत सरल भाव से बोले-क्या तुम्हारी भी नींद खुल गई?

अहिल्या--मैं सोयी कब थी ! मैं जानती थी कि तुम आज जाओगे। तुम्हारा चेहरा कहे देता था कि तुमने आज मुझे छलने का इरादा कर लिया है, मगर मैं कहे देती हूँ कि मैं तुम्हारा साथ न छोडूंगी। अपने शंखधर को भी साथ ले चलूंगी। मुझे राज्य की परवा नहीं है। राज्य रहे या जाए। तुम मुझे छोड़कर नहीं जा सकते। तुम इतने निर्दयी हो, यह मुझे न मालूम था। तुम तो छल करना न जानते थे। यह विद्या कब से सीख ली? बोलो, मुझे छोड़कर जाते हुए जरा भी दया नहीं आती?

चक्रधर ने लज्जित होकर कहा--तुम्हें मेरे साथ बहुत कष्ट होगा, अहिल्या ! मुझे प्रसन्नचित्त जाने दो। ईश्वर ने चाहा तो जल्द ही लौटूंगा।

अहिल्या--क्यों प्राणेश, मैंने तुम्हारे साथ कौन-से कष्ट नहीं झेले और वह ऐसा कौन-सा कष्ट है, जो मैं झेल नहीं चुकी हूँ। अनाथिनी क्या पान-फूल से पूजी जाती है? मैं अनाथिनी थी, तुमने मेरा उद्धार किया। क्या वह बात भूल जाऊंगी? मैं विलास की चेरी नहीं हूँ। हां, यह सोचती थी कि ईश्वर ने जो सुख अनायास दिया है, उसे क्यों न भोगूं? लेकिन नारी के लिए पुरुष-सेवा से बढ़कर और कोई श्रृंगार, कोई विलास, कोई भोग नहीं है।

चक्रधर--और शंखधर?

अहिल्या--उसे भी ले चलूंगी।

चक्रधर--रानीजी उसे जाने देंगी? जानती हो, राजा साहब का क्या हाल होगा?

अहिल्या--यह सब तो तुम भी जानते हो। मुझ पर क्यों भार रखते हो?

चक्रधर--सारांश यह है कि तुम मुझे न जाने दोगी !

अहिल्या--हां, मुझे छोड़कर तुम नहीं जा सकते, और न मैं ही लल्लू को छोड़ सकती हूँ। किसी को दु:ख हो, तो हुआ करे।

इन बातों की कुछ भनक मनोरमा के कानों में भी पड़ी। वह भी अभी तक न सोयी थी। उसने दरबान से ताकीद कर दी थी कि रात को चक्रधर बाहर जाने लगें, तो मुझे इत्तला देना। वह अपने मन की दो-चार बातें चक्रधर से कहना चाहती थी। यह बोलचाल सुनकर नीचे उतर आई। अहिल्या के अंतिम शब्द उसके कानों में पड़ गए। उसने देखा कि चक्रधर बड़े हतबुद्धि-से खड़े हैं, अपने कर्त्तव्य का निश्चय नहीं कर सकते, कुछ जवाब भी नहीं दे सकते। उसे भय हुआ कि इस दुविधा में पड़कर कहीं वह अपने कर्त्तव्य मार्ग से न हट जाएं, मेरा चित्त दुखी न हो जाए, इस भय से वह विरक्त होकर कहीं बैठ न रहें। वह चक्रधर को आत्मोत्सर्ग की मूर्ति समझती थी। उसे निश्चय था कि चक्रधर इस राज्य की तृण बराबर भी परवाह नहीं करते, उन्हें तो सेवा की धुन लगी हुई है, यहां रहकर अपने ऊपर बड़ा जब्र कर रहे हैं। वह यह भी जानती थी कि चक्रधर किसी तरह रुकने वाले नहीं, अब यह दशा उनके लिए असह्य हो गई है। तो क्या वह शंखधर के मोह में पड़कर उनकी स्वतंत्रता में बाधक होगी? अपनी पुत्रतृष्णा को तृप्त करने के लिए उनके पैर की बेड़ी बनेगी? नहीं, वह इतनी स्वार्थिनी नहीं है। जिस बालक से उसे नाम का नाता होने पर इतना प्रेम है, उसे वह कितना चाहते होंगे, इसका वह भली-भांति अनुमान कर सकती थी। वह शंखधर के लिए रोएगी, तड़पेगी, लेकिन अपने पास रखकर चक्रधर को पुत्र-वियोग का दु:ख न देगी। यह उनके दीपक से अपना घर न उजाला करेगी। यही उसने स्थिर किया। बाबूजी, आप मेरा खयाल न कीजिए, शंखधर को ले जाइए। आखिर आपका दिल वहां कैसे लगेगा? मुझे कौन, जैसे पहले रहती थी, वैसे ही फिर रहने लगूंगी। हां, इतनी दया कीजिएगा कि कभी-कभी उसे लाकर मुझे दिखा दिया कीजिएगा, मगर अभी तो दो-चार दिन रहिएगा! बेटियां क्या यों रातोंरात विदा हुआ करती हैं? दो-चार दिन तो शंखधर को प्यार कर लेने दीजिए।

यह कहते-कहते मनोरमा की आंखें डबडबा आईं। चक्रधर ने गद्गद कंठ से कहा-वह भला आपको छोड़, मेरे साथ क्यों जाने लगा? आपके बगैर तो वह एक दिन भी न रहेगा।

मनोरमा--यह मैं कैसे कहूँ? माता-पिता बालक के साथ जितना प्रेम कर सकते हैं, उतना दूसरा कौन कर सकता है?

अहिल्या यह बात सुनकर तिलमिला उठी। पति को रोकने का उसके पास यही एक बहाना था। वह न यहां से जाना चाहती थी, न पति को जाने देना चाहती थी। शंखधर की आड़ में वह अपने मनोभाव को छिपाए हुए थी। उसे विश्वास था कि रानी शंखधर को कभी न जाने देंगी और न चक्रधर उनसे इस विषय में कुछ कह सकेंगे, पर जब रानी ने यह शस्त्र उसके हाथ से छीन लिया, तो उसे शंका हुई कि इसमें जरूर कोई न कोई रहस्य है, उसने तीव्र स्वर से कहा-तो क्या वह सब दिखावे ही का प्रेम था? आप तो कहती थीं, यह मेरा प्राण है, यह मेरा जीवन-आधार है, क्या वह सब केवल बातें थीं? क्या हमारी आंखों में धूल डालने के लिए ही सारा स्वांग रचा था? आप हम लोगों को दूध की मक्खी की भांति निकालकर अखंड राज्य करना चाहती हैं? यह न होगा। दादाजी को आप कोई दूसरा मंत्र न पढ़ा सकेंगी। मेरे पुत्र का अहित आप न कर सकेगी। मैं अब यहां से टलने वाली नहीं। यह समझ लीजिएगा। अगर आपने समझ रखा हो कि इन सबों को भगाकर अपने भाई-भतीजे को यहां ला बिठाऊंगी, तो उस धोखे में न रहिएगा!

यह कहते-कहते अहिल्या उसी क्रोध से भरी हुई राजा साहब के शयनगृह की ओर चली। मनोरमा स्तंभित-सी खड़ी रह गई। उसकी आंखों से टप-टप आंसू गिरने लगे।

चक्रधर मनोरमा को क्या मुंह दिखाते? अहिल्या के इन वज्रकठोर शब्दों ने मनोरमा को इतनी पीड़ा नहीं पहुंचाई थी, जितनी उनको। मनोरमा दो-एक बार और भी ऐसी ही बातें अहिल्या के मुख से सुन चुकी थी और उसके स्वभाव से परिचत हो गई थी। चक्रधर को ऐसी बातें सुनने का यह पहला अवसर था। वही अहिल्या, जिसे वह नम्रता, मधुरता, शालीनता की देवी समझते थे, आज पिशाचिनी के रूप में उन्हें दिखाई दी। मारे ग्लानि के उनकी ऐसी इच्छा हुई कि धरती फट जाए और मैं समा जाऊं, फिर न इसका मुंह देखू, न अपना मुंह दिखाऊं। जिस रमणी के उपकारों से उनका एक-एक रोयां आभारी था, उसके साथ यह व्यवहार ! उसके उपकारों का यह उपहार ! यह तो नीचता की चरम सीमा है ! उन्हें ऐसा मालूम हुआ, मेरे मुंह में कालिख लगी हुई है। वह मनोरमा की ओर ताक भी न सके। उनके मन में विराग की एक तरंग-सी उठी। मन ने कहा-यही तुम्हारी भोग-लिप्सा का दण्ड है, तुम इसी के भूखे थे। जिस दिन तुम्हें मालूम हुआ कि अहिल्या राजा की पुत्री है, क्यों न उसी दिन यहां से मुंह में कालिख लगाकर चले गए? इस विचार से क्यों अपनी आत्मा को धोखा देते रहे कि जब मैं जाने लगूंगा, अहिल्या अवश्य साथ चलेगी? तुम समझते थे कि स्त्री की दृष्टि में पति-प्रेम ही संसार की सबसे अमूल्य वस्तु है? यह तुम्हारी भूल थी। आज उसी स्त्री ने पति-प्रेम को कितनी निर्दयता से ठुकरा दिया, तुम्हारे हवाई किलों को विध्वंस कर दिया और तुम्हें कहीं का न रखा।

मनोरमा अभी सिर झुकाए खड़ी ही थी कि चक्रधर चुपके से बाहर के कमरे में आए, अपना हैंडबैग उठाया और बाहर निकले। दरबान ने पूछा-सरकार इस वक्त कहाँ जा रहे हैं?

चक्रधर ने मुस्कराकर कहा--जरा मैदान की हवा खाना चाहता हूँ। भीतर बड़ी गर्मी है, नींद नहीं आती।

दरबान--मैं भी सरकार के साथ चलूं?

चक्रधर--नहीं, कोई जरूरत नहीं।

बाहर आकर चक्रधर ने राजभवन की ओर देखा। असंख्य खिड़कियों और दरीचों से बिजली का दिव्य प्रकाश दिखाई दे रहा था। उन्हें वह दिव्य भवन सहस्र नेत्रों वाले पिशाच की भांति जान पड़ा, जिसने उनका सर्वनाश कर दिया था। उन्हें ऐसा जान पड़ा कि वह मेरी ओर देखकर हंस रहा है और कह रहा है, तुम क्या समझते हो कि तुम्हारे चले जाने से यहां किसी को दुःख होगा? इसकी चिंता न करो। यहां यही बहार रहेगी, यों ही चैन की वंशी बजेगी। तुम्हारे लिए कोई दो बूंद आंसू भी न बहाएगा। जो लोग मेरे आश्रय में आते हैं, उनका मैं कायाकल्प कर देता हूँ, उनकी आत्मा को महानिद्रा की गोद में सुला देता हूँ।

अभी चक्रधर सोच ही रहे थे कि किधर जाऊं,सहसा उन्हें राजद्वार से दो-तीन आदमी लालटेन लिए निकलते दिखाई दिए। समीप आने पर मालूम हुआ कि मनोरमा है। वह दो सिपाहियों के साथ लपकी हुई सड़क की ओर चली आ रही थी। चक्रधर समझ गए, यह मुझे ढूंढ़ रही है। उनके मी में एक बार प्रबल इच्छा हुई कि उसके चरणों पर गिर कर कहे-देवी, मैं तुम्हारी कृपाओं के योग्य नहीं हूँ। मैं नीच, पामर, अभागा हूँ। मुझे जाने दो, मेरे हाथों तुम्हें सदा कष्ट मिला है और मिलेगा।

मनोरमा अपने आदमियों से कह रही थी-अभी कहीं दूर न गए होंगे। तुम लोग पूर्व की ओर जाओ, मैं एक आदमी के साथ इधर जाती हूँ। बस इतना ही कहना कि रानीजी ने कहा है, जहां चाहें जाएं, पर मुझसे मिलकर जाएं।

राजभवन के सामने एक मनोहर उद्यान था। चक्रधर एक वृक्ष की आड़ में छिप गए। मनोरमा सामने से निकल गई। चक्रधर का कलेजा धड़क रहा था कि कहीं पकड़ न लिया जाऊं। दोनों तरफ के रास्ते बंद थे। बारे उन्हें ज्यादा देर तक न रहना पड़ा। मनोरमा कुछ दूर जाकर लौट आई। उसने निश्चय किया कि इधर-उधर खोजना व्यर्थ है। रेलवे स्टेशन पर जाकर रोकना चाहिए। स्टेशन के सिवा और कहाँ जा सकते हैं? चक्रधर की जान में जान आई,ज्यों ही रानी इधर आई, वह कुंज से निकलकर कदम बढ़ाते हुए आगे चले। वह दिन निकलने से पहले इतनी दूर निकल जाना चाहते थे कि फिर कोई उन्हें पा न सके। दिन निकलने में अब बहुत देर भी न थी। तारों की ज्योति मंद पड़ चली थी-चक्रधर ने और तेजी से कदम बढ़ाया।

सहसा उन्हें सड़क के किनारे एक कुएं के पास कई आदमी बैठे दिखाई दिए। उनके बीच में एक लाश रखी हुई थी। कई आदमी लकड़ी के कुंदे लिए पीछे आ रहे थे। चक्रधर पूछना चाहते थे-कौन मर गया है? धन्नासिंह की आवाज पहचानकर सड़क ही पर ठिठक गए। इसने पहचान लिया तो मुश्किल पड़ेगी।

धन्नासिंह कह रहा था--कजा आ गई, तो कोई क्या कर सकता है। बाबूजी के हाथ कोई डंडा भी तो न था। दो-चार घूसे मारे होंगे और क्या? मगर उस दिन से फिर बेचारा उठा नहीं।

दूसरे आदमी ने कहा--ठांव-कुठांव की बात है। एक बूंसा पीठ पर मारो, तो कुछ न होगा, केवल 'धम्म' की आवाज होगी। लेकिन वही चूंसा पसली में या नाभि के पास पड़ जाए , तो गोली का काम कर सकता है। ठांव-कुठांव की बात है। मन्ना को कुठांव चोट लग गई।

धन्नासिंह--बाबूजी सुनेंगे, तो उन्हें बहुत रंज होगा। उस दिन न जाने उनके सिर कैसे क्रोध का भूत सवार हो गया था। बड़े दयावान हैं, किसी को कड़ी निगाह से देखते तक नहीं। जेहल में हम लोग उन्हें भगतजी कहा करते थे। सुनेंगे तो बहुत पछताएंगे।

एक बूढ़ा आदमी बोला--भैया, जेहल की बात दूसरी थी। तब दयावान रहे होंगे। तब राजा ठाकुर तो नहीं थे। राज पाकर दयावान रहें, तो जानो।

धन्नासिंह--दादा, वह राज पाकर फूल उठने वाले आदमी नहीं हैं। तुमने देखा, यहां से जाते ही जाते माफी दिला दी।

बूढ़ा--अरे पागल, जान का बदला कहीं माफी से चुकता है? जान का बदला जान है, मन्ना की अभागिनी विधवा माफी लेकर चाटेगी, उसके अनाथ बालक माफी की गोद में खेलेंगे, या माफी को दादा कहेंगे? तुम बाबूजी को दयावान कहते हो। मैं उन्हें सौ हत्यारों का एक हत्यारा कहता हूँ, राजा हैं, इससे बचे जाते हैं, दूसरा होता, तो फांसी पर लटकाया जाता। मैं तो बूढा हो गया हूँ, लेकिन उन पर इतना क्रोध आ रहा है कि मिल जाएं, तो खून चूस लूं।

चक्रधर को ऐसा मालूम हुआ कि मन्नासिंह की लाश कफन में लिपटी हुई उन्हें निगलने के लिए दौड़ी चली आती है। चारों ओर से दानवों की विकराल ध्वनि सुनाई देती थी-यह हत्यारा है! सौ हत्यारों का एक हत्यारा है ! समस्त आकश मंडल में, देह के एक-एक अणु में, यही शब्द गूंज रहे थे-यह हत्यारा है ! सौ हत्यारों का हत्यारा है !

चक्रधर वहां एक क्षण भी और खड़े न रह सके। उन आदमियों के सामने जाने की हिम्मत न पड़ी। मन्नासिंह की लाश सामने हड्डी की एक गदा लिए उनका रास्ता रोके खड़ी थी। नहीं, वह उनका पीछा करती थी। वह ज्यों-ज्यों पीछे खिसकते थे, लाश आगे बढ़ती थी। चक्रधर ने मन को शांत करके विचार का आह्वान किया, जिसे मन की दुर्बलता ने एक क्षण के लिए शिथिल कर दिया था। वाह ! यह मेरी क्या दशा है? मृतदेह भी कहीं चल सकती है? यह मेरी भय-विकृत कल्पना का दोष है। मेरे सामने कुछ नहीं है, अब तक तो मैं डर ही गया होता। मन को यों दृढ़ करते ही उन्हें फिर कुछ न दिखाई दिया। वह आगे बढ़े, लेकिन उनका मार्ग अब अनिश्चित न था, उनके रास्ते में अब अंधकार न था, वह किसी लक्ष्यहीन पथिक की भांति इधर-उधर भटकते न थे। उन्हें अपने कर्तव्य का मार्ग साफ नजर आने लगा।

सहसा उन्होंने देखा कि पूर्व दिशा प्रकाश से आच्छन्न होती चली जाती है।

पैंतीस

पांच साल गुजर गए, पर चक्रधर का कुछ पता नहीं। फिर वही गर्मी के दिन हैं, दिन को लू चलती है, रात को अंगारे बरसते हैं, मगर अहिल्या को न अब पंखे की जरूरत है, न खस की टट्रियों की। उस वियोगिनी को अब रोने के सिवा दूसरा काम नहीं है। विलास की किसी बात से अब उसे प्रेम नहीं है। जिन वस्तुओं के प्रेम में फंसकर उसने अपने प्रियतम से हाथ धोया, वे सभी उसकी आंखों में कांटे की भांति खटकती और हृदय में शूल की भांति चुभती हैं। मनोरमा से अब उसका वह बर्ताव नहीं रहा। मनोरमा ही क्यों, लौंडियों तक से वह नम्रता के साथ बोलती और शंखधर के बिना तो अब वह एक क्षण नहीं रह सकती। पति को खोकर उसने अपने को पा लिया है। अगर वह विलासिता में पड़कर अपने को भूल न गई होती, तो पति को खोती ही क्यों? वह अपने को बार-बार धिक्कारती है कि चक्रधर के साथ क्यों न चली गई।

शंखधर उससे पूछता रहता है--अम्मां, बाबूजी कब आएंगे? वह क्यों चले गए, अम्मांजी? आते क्यों नहीं? तुमने उनको क्यों जाने दिया, अम्मांजी? तुमने हमको उनके साथ क्यों नहीं जाने दिया? तुम उनके साथ क्यों नहीं गईं, अम्मां? बताओ, बेचारे अकेले न जाने कहाँ पड़े होंगे ! मैं भी उनके साथ जंगलों में घूमता? क्यों अम्मां, उन्होंने बहुत विद्या पढ़ी है? रानी अम्मां कहती हैं, वह आदमी नहीं, देवता हैं। क्यों अम्मांजी, क्या वह देवता हैं? फिर तो लोग उनकी पूजा करते होंगे। अहिल्या के पास इन प्रश्नों का उत्तर रोने के सिवा और कुछ नहीं है। शंखधर कभी-कभी अकेले बैठकर रोता है! कभी-कभी अकेले बैठा सोचा करता है कि पिताजी कैसे आएंगे।

शंखधर का जी अपने पिता की कीर्ति सुनने से कभी नहीं भरता। वह रोज अपनी शादी के पास जाता है और वहां उनकी गोद में बैठा हुआ घंटों उनकी बातें सुना करता है। चक्रधर की पुस्तकों को वह उलट-पलटकर देखता है और चाहता है कि मैं भी जल्दी से बड़ा हो जाऊं और ये किताबें पढ़ने लगूं निर्मला दिन भर उसकी राह देखा करती है। उसे देखते ही निहाल हो जाती है। शंखधर ही अब उसके जीवन का आधार है। अहिल्या का मुंह भी वह नहीं देखना चाहती। कहती है, उसी ने मेरे लाल को घर से विरक्त कर दिया। बेचारा न जाने कहाँ मारा-मारा फिरता होगा। भोला-भाला गरीब लड़का इस विलासिनी के पंजे में फंसकर कहीं का न रहा। अब भले रोती है ! मुंशी वज्रधर उससे बार-बार अनुरोध करते हैं कि चलकर जगदीशपुर में रहो, पर वह यहां से जाने पर राजी नहीं होती। उससे अपना वह छोटा-सा घर नहीं छोड़ा जाता।

मुंशीजी को अब रियासत से एक हजार रुपए महीना वजीफा मिलता है। राजा साहब ने उन्हें रियासत के कामों से मुक्त कर दिया है, इसलिए मुंशीजी अब अधिकांश घर ही पर रहते हैं। शराब की मात्रा तो धन के साथ नहीं बढ़ी, बल्कि और घट गई है, लेकिन संगीत-प्रेम बहुत बढ़ गया है। सारे दिन उनके विशाल कमरे में गायनाचार्यों की बैठक रहती है। मुहल्ले में अब कोई गरीब नहीं रहा। मुंशीजी ने सबको कुछ-न-कुछ महीना बांध दिया है। उनके हाथ में पैसा नहीं टिका। अब तो और भी नहीं टिकता। उनकी मनोवृत्ति भक्ति की ओर नहीं है, दान को दान समझकर वह नहीं देते, न इसलिए कि उस जन्म में इसका कुछ फल मिलेगा। वह इसलिए देते हैं कि उनकी यह आदत है। यह भी उनका राग है, इसमें उन्हें आनंद मिलता है। वह अपनी कीर्ति भी नहीं सुनना चाहते, इसलिए जो कुछ देते हैं, गुप्त रूप से देते हैं। अब भी प्रायः खाली रहते हैं और रुपयों के लिए मनोरमा की जान खाते रहते हैं, बिगड़-बिगड़कर पत्र पर पत्र लिखते हैं, जाकर खरी-खोटी सुना आते हैं और कुछ न कुछ ले ही आते हैं। मनोरमा को भी शायद उनकी कड़वी बातें मीठी लगती हैं। वह उनकी इच्छा तो पूरी करती है, पर चार बातें सुनकर। इतने पर भी उन्हें कर्ज लेना पडता है। उनके लिए सबसे आनंद का समय वह होता है, जब वह शंखधर को गोद में लिए मुहल्ले भर के बालकों को मिठाइयां और पैसे बांटने लगते हैं। इससे बड़ी खुशी की वह कल्पना ही नहीं कर सकते।

एक दिन शंखधर नौ बजे ही आ पहुंचा। गुरुसेवक सिंह उनके साथ थे। यह महाशय रियासत जगदीशपुर के तसले थे। जिस अवसर पर जो काम जरूरी समझा जाता था, वही उनसे लिया जाता था। निर्मला उस समय स्नान करके तुलसी को जल चढ़ा रही थी। जब वह चल चढ़ाकर आई, तो शंखधर ने पूछा-दादीजी, तुम पूजा क्यों करती हो?

निर्मला ने शंखधर को गोद में लेकर कहा--बेटा, भगवान् से मांगती हूँ कि मेरी मनोकामना पूर्ण करें।

शंखधर--भगवान् सबके मन की बात जानते हैं?

निर्मला--हां बेटा, भगवान् सब कुछ जानते हैं?

शंखधर--दादीजी, तुम्हारी क्या मनोकामना है?

निर्मला--यही बेटा, कि तुम्हारे बाबूजी आ जाएं और तुम जल्दी से बड़े हो जाओ।

शंखधर बाहर मुंशीजी के पास चला गया और उनके पास बैठकर सितार की गतें सुनता रहा।

दूसरे दिन प्रात:काल शंखधर ने स्नान किया, लेकिन स्नान करके वह जलपान करने न आया। गुरुसेवक सिंह के पास पढ़ने भी न गया। न जाने कहाँ चला गया। अहिल्या इधर-उधर देखने लगी, कहाँ चला गया। मनोरमा के पास आकर देखा, वहां भी न था। अपने कमरे में भी न था। छत पर भी नहीं। दोनों रमणियां घबराईं कि स्नान करके कहाँ चला गया। लौंडियों से पूछा तो उन सबों ने भी कहा-हमने तो उन्हें नहाकर आते देखा। फिर कहाँ चले गए, यह हमें नहीं मालूम। चारों ओर तलाश होने लगी। दोनों बगीचे की ओर दौड़ी गईं। वहां वह न दिखाई दिया। सहसा बगीचे के पल्ले सिरे पर, जहां दिन को भी सन्नाटा रहता था, उसकी झलक दिखाई दी। दोनों चुपके-चुपके वहां गईं और एक पेड़ की आड़ में खड़ी होकर देखने लगीं। शंखधर तुलसी के चबूतरे के सामने आसन मारे, आंख बंद किए, ध्यान-सा लगाए बैठा था। उसके सामने कुछ फूल पड़े हुए थे। एक क्षण के बाद उसने आंखें खोली। कई बार चबूतरे की परिक्रमा और तुलसी की वंदना करके धीरे से उठा। दोनों महिलाएं आड़ से निकलकर उसके सामने खड़ी हो गईं। शंखधर उन्हें देखकर कुछ लज्जित हो गया और बिना कुछ बोले आगे बढ़ा।

मनोरमा--वहां क्या करते थे, बेटा?

शंखधर--कुछ तो नहीं। ऐसे ही घूमता था।

मनोरमा--नहीं, कुछ तो कर रहे थे।

शंखधर--जाइए, आपसे क्या मतलब?

अहिल्या तुम्हें न बताएंगे। मैं इसकी अम्मां हूँ, मुझे बता देगा। मेरा लाल मेरी कोई बात नहीं टालता। हां बेटे, बता क्या कर रहे थे? मेरे कान में कह दो मैं किसी से न कहूँगी।

शंखधर ने आंखों में आंसू भरकर कहा--कुछ नहीं, मैं बाबूजी के जल्दी से लौट आने की प्रार्थना कर रहा था। भगवान् पूजा करने से सबकी मनोकामना पूरी करते हैं।

सरल बालक की यह पितृभक्ति और श्रद्धा देखकर दोनों महिलाएं रोने लगीं। इस बेचारे को कितना दुख है। शंखधर ने फिर पूछा-क्यों अम्मां, तुम बाबूजी के पास कोई चिट्ठी क्यों नहीं लिखती?

अहिल्या ने कहा--कहाँ लिखू बेटा, उनका पता भी तो नहीं जानती?

छत्तीस

इधर कुछ दिनों से लौंगी तीर्थ करने चली गई थी। गुरुसेवक सिंह ही के कारण उसके मन में यह धर्मोत्साह हुआ था। इस यात्रा के शुभ फल में उनको भी कुछ हिस्सा मिलेगा, यह तो नहीं कहा जा सकता, पर उनके पिता को अवश्य मिलने की संभावना थी। जब से वह गई थी, दीवान साहब दीवाने हो गए थे। यहां तक कि गुरुसेवक को भी कभी-कभी यह मानना पड़ता था कि लौंगी का घर में होना पिताजी की रक्षा के लिए जरूरी है। घर में अब कोई नौकर एक सप्ताह से ज्यादा न टिकता था, कितने ही पहली ही फटकार में छोड़कर भागते थे। रियासत से पकड़कर भेजे जाते थे, तब कहीं जाकर काम चलता था। गुरुसेवक के सद्व्यवहार और मिष्ट भाषण का कोई असर न होता था। शराब की मात्रा भी दिनों-दिन बढ़ती जाती थी, जिससे भय होता था कि कोई भयंकर रोग न खड़ा हो जाए। भोजन वह अब बहुत थोड़ा करते थे। लौंगी दिन भर में दो-ढाई सेर दूध उनके पेट में भर दिया करती थी, आध पाव के लगभग घी भी किसी-न-किसी तरह पहुंचा ही देती थी। इस कला में वह निपुण थी। पति-सेवा का वह अमर सिद्धांत, जो चालीस साल की अवस्था के बाद भोजन की योजना ही पर विशेष आग्रह करता है, सदैव उसकी आंखों के सामने रहता था। वह कहा करती थी, घोड़े और मर्द कभी बूढ़े नहीं होते, केवल उन्हें रातिब मिलना चाहिए।

ठाकुर साहब लौंगी की अब सूरत भी नहीं देखना चाहते थे, इसी आशय के पत्र उसको लिखा करते हैं। लिखते हैं, तुमने मेरी जिंदगी चौपट कर दी। मेरा लोक और परलोक दोनों बिगाड़ दिया। शायद लौंगी को जलाने ही के लिए ठाकुर साहब सभी काम उसकी इच्छा के विरुद्ध करते थे-खाना कम, शराब अधिक, नौकरों पर क्रोध, नौ बजे दिन तक सोना। सारांश यह कि जिन बातों को वह रोकती थी, वही आजकल की दिनचर्या बनी हुई थी। दीवान साहब इसकी सूचना भी दे देते और पत्र के अंत में यह भी लिख देते थे-अब तुम्हारे यहां आने की बिल्कुल जरूरत नहीं। मेरी बहू तुमसे कहीं अच्छी तरह मेरी सेवा कर रही है। उसने मासिक खर्च में से कोई दो सौ रुपए की बचत निकाल दी है। तुम्हारे लिए वही आमदनी पूरी न पड़ती थी। हर एक पत्र में वह अपने स्वास्थ्य का विवरण अवश्य करते थे। उनकी पाचन-शक्ति अब बहुत अच्छी हो गई थी, रुधिर के बढ़ जाने से जितने रोग उत्पन्न होते हैं, उनकी अब कोई संभावना न थी।

दीवान साहब की पाचन-शक्ति अच्छी हो गई हो, पर विचार-शक्ति तो जरूर क्षीण हो गई थी। निश्चय करने की अब उनमें सामर्थ्य ही न थी। ऐसी-ऐसी गलतियां करते थे कि राजा साहब को उनका बहुत लिहाज करने पर भी बार-बार एतराज करना पड़ता था। वह कार्यदक्षता, वह तत्परता, वह विचारशीलता, जिसने उन्हें चपरासी से दीवान बनाया था, अब उनका साथ छोड़ गई थी। वह बुद्धि भला जगदीशपुर का शासन-भार क्या संभालती? लोगों को आश्चर्य होता था कि इन्हें क्या हो गया है। गुरुसेवक को भी शायद मालूम होने लगा कि पिताजी की आड़ में कोई दूसरी शक्ति रियासत का संचालन करती थी।

एक दिन उन्होंने पिता से कहा--लौंगी कब तक आएगी?

दीवान साहब ने उदासीनता से कहा--उसका दिल जाने? यहां आने की तो कोई खास जरूरत नहीं मालूम होती। अच्छा है, अपने कर्मों का प्रायश्चित ही कर ले। यहां आकर क्या करेगी?

उसी दिन भाई-बहिन में भी इसी विषय पर बातें हुईं। मनोरमा ने कहा-भैया, क्या तुमने लौंगी अम्मां को भुला ही दिया? दादाजी की दशा देख रहे हो कि नहीं? सूखकर कांटा हो गए है।

गुरुसेवक--भोजन तो करते ही नहीं। कोई क्या करे? बस, जब देखो, शराब-शराब।

मनोरमा--उन्हें लौंगी अम्मां ही कुछ ठीक रख सकती हैं। उन्हीं कों किसी तरह बुलाओ और बहुत जल्द ! दादाजी की दशा देखकर मुझे तो भय हो रहा है। राजा साहब तो कहते हैं, तुम्हारे पिताजी सठिया गए हैं।

गुरुसेवक--तो मैं क्या करूं? बार-बार कहता हूँ कि बुला लीजिए, पर वह सुनते ही नहीं। उलटे उसे चिढ़ाने को और लिख देते हैं कि यहां तुम्हारे आने की जरूरत नहीं। वह एक हठिन है। भला, इस तरह क्यों आने लगी?

मनोरमा--नहीं भैया, वह लाख हठिन हो, पर दादाजी पर जान देती है। वह केवल तुम्हारे भय से नहीं आ रही हैं। तीर्थयात्रा में उसकी श्रद्धा कभी न थी। वहां रो-रोकर उसके दिन कट रहे होंगे। पिताजी जितना ही उसे आने के लिए रोकते हैं, उतना ही उसे आने की इच्छा होती है, पर तुमसे डरती है।

गुरुसेवक-नोरा, मैं सच कहता हूँ, मैं दिल से चाहता हूँ कि वह आ जाए, पर सोचता हूँ कि जब पिताजी मना करते हैं, तो मेरे बुलाने से क्यों आने लगी। रुपए-पैसे की कोई तकलीफ है ही नहीं।

मनोरमा--तुम समझते हो, दादाजी उसे मना करते हैं? उनकी दशा देखकर भी ऐसा कहते हो! जब से अम्मां जी का स्वर्गवास हुआ, दादाजी ने अपने को उसके हाथों बेच दिया। लौंगी ने न संभाला होता, तो अम्मांजी के शोक में दादाजी प्राण दे देते। मैंने किसी विवाहित स्त्री में इतनी पति-भक्ति नहीं देखी। अगर दादाजी को बचाना चाहते हो, तो जाकर लौंगी अम्मां को अपने साथ लाओ!

गुरुसेवक--मेरा जाना तो बहुत मुश्किल है, नोरा !

मनोरमा--क्यों? क्या इस में आपका अपमान होगा?

गुरुसेवक--वह समझेगी, आखिर इन्हीं को गरज पड़ी। आकर और भी सिर चढ़ जाएगी। उसका मिजाज और भी आसमान पर जा पहुंचेगा।

मनोरमा--भैया, ऐसी बातें मुंह से न निकालो। लौंगी देवी है, उसने तुम्हारा और मेरा पालन किया है। उस पर तुम्हारा यह भाव देखकर मुझे दुःख होता है।

गुरुसेवक--मैं अब उससे कभी न बोलूंगा, उसकी किसी बात में भूलकर भी दखल न दूंगा, लेकिन उसे बुलाने न जाऊंगा।

मनोरमा--अच्छी बात है, तुम न जाओ, लेकिन मेरे जाने में तो कोई आपत्ति नहीं है। गुरुसेवक--तुम जाओगी?

मनोरमा क्यों, मैं क्या हूँ! क्या मैं भूल गई हूँ कि लौंगी अम्मां ही ने मुझे गोद में लेकर पाला है? अगर वह इस घर में आकर रहती, तो मैं अपने हाथों से उसके पैर धोती और चरणामत आंखों से लगाती। जब मैं बीमार पड़ी थी, तो वह रात की रात मेरे सिरहाने बैठी रहती थी। क्या मैं इन बातों को कभी भूल सकती हूँ? माता के ऋण से उऋण होना चाहे संभव हो, उसके ऋण से मैं कभी उऋण नहीं हो सकती, चाहे ऐसे-ऐसे दस जन्म लूं। आजकल वह कहाँ है?

गुरुसेवक लज्जित हुए। घर आकर उन्होंने देखा कि दीवान साहब लिहाफ ओढ़े पडे हए हैं। पूछा-आपका जी कैसा है?

दीवान साहब की लाल आंखें चढ़ी हुई थीं। बोले-कुछ नहीं जी, जरा सर्दी लग रही थी।

गुरुसेवक--आपकी इच्छा हो, तो मैं जाकर लौंगी को बुला लाऊं?

हरिसेवक--तुम ! नहीं, तुम उसे बुलाने क्यों जाओगे! कोई जरूरत नहीं। उसका जी चाहे, आए या न आए। हुंह ! उसे बुलाने जाओगे! ऐसी कहाँ की अमीरजादी है?

गुरुसेवक--यह आप कहें। हम तो उसकी गोद में खेले हुए हैं, हम ऐसा कैसे कह सकते हैं। नोरा आज मुझ पर बहुत बिगड़ रही थी, वह खुद उसे बुलाने जा रही है। उसकी जिद तो आप जानते ही हैं। जब धुन सवार हो जाती है, तो उसे कुछ नहीं सूझता।

हरिसेवक सजल नेत्र होकर बोले--नोरा जाने को कहती है? नोरा जाएगी? नहीं, मैं, उसे न जाने दूंगा। लौंगी को बुलाने नोरा नहीं जा सकती। मैं उसे समझा दूंगा।

गुरुसेवक क्या जानते थे, इन शब्दों में कोई गूढ आशय भरा हुआ है। वहां से चले गए।

दूसरे दिन दीवान साहब को ज्वर हो आया। गुरुसेवक ने थर्मामीटर लगाकर देखा, तो ज्वर एक सौ चार डिग्री का था। घबराकर डॉक्टर को बुलाया। मनोरमा यह खबर पाते ही दौड़ी हुई आई। उसने आते ही गुरुसेवक से कहा-मैंने आपसे कल ही कहा था, जाकर लौंगी अम्मां को बुला लाइए, लेकिन आप न गए। अब तक तो आप हरिद्वार से लौटते होते।

गुरुसेवक--मैं तो जाने को तैयार था, लेकिन जब कोई जाने भी दे। दादाजी से पूछा, तो वह मुझको बेवकूफ बनाने लगे। मैं कैसे चला जाता?

मनोरमा--तुम्हें उनसे पूछने की क्या जरूरत थी? इनकी दशा देख नहीं रहे हो। अब भी मौका है। मैं इनकी देखभाल करती रहूँगी, तुम इसी गाड़ी से चले जाओ और उसे साथ लाओ। वह इनकी बीमारी की खबर सुनकर एक क्षण भी न रुकेगी। वह केवल तुम्हारे भय से नहीं आ रही है।

दीवान साहब मनोरमा को देखकर बोले--आओ नोरा, मुझे तो आज ज्वर आ गया। गुरुसेवक कह रहा था कि तुम लौंगी को बुलाने जा रही हो। बेटी, इसमें तुम्हारा अपमान है। उसकी हजार दफा गरज हो आए, या न आए। भला, तुम उसे बुलाने जाओगी, तो दुनिया क्या कहेगी! सोचो, कितनी बदनामी की बात है!

मनोरमा--दुनिया जो चाहे कहे, मैंने भैयाजी को भेज दिया है। वह तो स्टेशन पहुँच गए होंगे। शायद गाड़ी पर सवार भी हो गए हों।

हरिसेवक--सच! यह तुमने क्या किया? लौंगी कभी न आएगी।

मनोरमा-आएगी क्यों नहीं। न आएगी, तो मैं जाऊंगी और उसे मना लाऊंगी।

हरिसेवक--तुम उसे मनाने जाओगी? रानी मनोरमा लौंगी कहारिन को मनाने जाएगी?

मनोरमा--मनोरमा लौंगी कहारिन का दूध पीकर बड़ी न होती, तो आज रानी मनोरमा कैसे होती?

हरिसेवक का मुरझाया हुआ चेहरा खिल उठा, बुझी हुई आंखें जगमगा उठीं, प्रसन्नमुख होकर बोले-नोरा, तुम सचमुच दया की देवी हो। देखो, अगर लौंगी आए और मैं न रहूँ, तो उसकी खबर लेती रहना। उसने मेरी बड़ी सेवा की है। मैं कभी उसके एहसानों का बदला नहीं चुका सकता। गुरुसेवक उसे सताएगा, उसे घर से निकालेगा, लेकिन तुम उस दुखिया की रक्षा करना। मैं चाहूँ, तो अपनी सारी संपत्ति उसके नाम लिख सकता हूँ। यह सब जायदाद मेरी पैदा की हुई है। मैं अपना सब कुछ लौंगी को दे सकता हूँ, लेकिन लौंगी कुछ न लेगी। वह दुष्टा मेरी जायदाद का एक पैसा भी न छुएगी। वह अपने गहने-पाते भी काम पड़ने पर इस घर में लगा देगी। बस, वह सम्मान चाहती है। कोई उससे आदर के साथ बोले और उसे लूट ले। वह घर की स्वामिनी बनकर भूखों मर जाएगी, लेकिन दासी बनकर सोने का कौर भी न खाएगी। यह उसका स्वभाव है। गुरुसेवक ने आज तक उसका स्वभाव न जाना। नोरा, जिस दिन से वह गई है, मैं कुछ और ही हो गया हूँ। जान पड़ता है, मेरी आत्मा कहीं चली गई है। मुझे अपने ऊपर जरा भी भरोसा नहीं रहा। मुझमें निश्चय करने की शक्ति ही नहीं रही! अपने कर्त्तव्य का ज्ञान ही नहीं रहा। तुम्हें अपने बचपन की याद आती है, नोरा?

मनोरमा-बहुत पहले की बातें तो नहीं याद हैं, लेकिन लौंगी अम्मां का मुझे गोद में खिलाना खूब याद है। अपनी बीमारी भी याद आती है, जब लौंगी अम्मां मुझे पंखा झला करती थीं।

हरिसेवक ने अवरुद्ध कंठ से कहा--उससे पहले की बात है, नोरा, जब गुरुसेवक तीन वर्ष का था और तुम्हारी माता तुम्हें साल भर का छोड़कर चल बसी थी। मैं पागल हो गया था। यही जी में आता था कि आत्महत्या कर ली नोरा, जैसे तुम हो वैसी ही तुम्हारी माता भी थी। उसका स्वभाव भी तुम्हारे जैसा था। मैं बिल्कुल पागल हो गया था। उस दशा में इसी लौंगी ने मेरी रक्षा की। उसकी सेवा ने मुझे मुग्ध कर दिया। उसे तुम लोगों पर प्राण देते देखकर उस पर मेरा प्रेम हो गया। मैं उसके स्वरूप और यौवन पर न रीझा ! तुम्हारी माता के बाद किसका स्वरूप और यौवन मुझे मोहित कर सकता था? मैं लौंगी के हृदय पर मुग्ध हो गया। तुम्हारी माता भी तुम लोगों का लालन-पालन इतना तन्मय होकर न कर सकती थी। गुरुसेवक की बीमारी की याद तुम्हें क्या आएगी ! न जाने उसे कौन-सा रोग हो गया था। खून के दस्त आते थे और तिल-तिल पर। छः महीने तक उसकी दशा यही रही। जितनी दवा-दारू उस समय कर सकता था, वह सब करके हार गया। झाड़-फूंक, दुआ-ताबीज सब कुछ कर चुका। इसके बचने की कोई आशा न थी। गलकर कांटा हो गया। रोता तो इस तरह, मानो कराह रहा है। यह लौंगी ही थी, जिसने उसे मौत के मुंह से निकाल लिया। कोई माता अपने बालक की इतनी सेवा नहीं कर सकती। जो उसके त्यागमय स्नेह को देखता, दांतों तले उंगली दबाता था। क्या वह लोभ के वश अपने को मिटाए देती थी? लोभ में भी कहीं त्याग होता है? और आज गुरुसेवक उसे घर से निकाल रहा है, समझता है कि लौंगी मेरे धन के लोभ से मुझे घेरे हुए है। मूर्ख यह नहीं सोचता कि जिस समय लौंगी उसका पंजर गोद में लेकर रोया करती थी, उस समय धन कहाँ था? सच पूछो, तो यहां लक्ष्मी लौंगी के समय ही आई, बल्कि लक्ष्मी ही लौंगी के रूप में आई। लौंगी ही ने मेरे भाग्य को रचा। जो कुछ किया, उसी ने किया, मैं तो निमित्त मात्र था। क्यों नोरा, मेरे सिरहाने कौन खड़ा है? कोई बाहरी आदमी है? कह दो, यहां से जाए ।

मनोरमा--यहां तो मेरे सिवा कोई नहीं है। आपको कोई कष्ट हो रहा है? फिर डॉक्टर को

बुलाऊं?

हरिसेवक--मेरा जी घबरा रहा है, रह-रहकर डूबा जाता है। कष्ट कोई नहीं, कोई पीडा नहीं। बस, ऐसा मालूम होता है कि दीपक में तेल नहीं रहा। गुरुसेवक शाम तक पहुँच जाएगा?

मनोरमा--हां, कुछ रात जाते-जाते पहुँच जाएंगे।

हरिसेवक--कोई तेज मोटर हो, तो मैं शाम तक पहुँच जाऊं

मनोरमा--इस दशा में इतना लंबा सफर आप कैसे कर सकते हैं?

हरिसेवक--हां, यह ठीक कहती हो, बेटी! मगर मेरी दवा लौंगी के पास है। उस सती का कैसा प्रताप था ! जब तक वह रही, मेरे सिर में कभी दर्द भी न हुआ। मेरी मूर्खता देखो कि जब उसने तीर्थयात्रा की बात कही तो, मेरे मुंह से एक बार भी न निकला-तुम मुझे किस पर छोड़कर जाती हो? अगर मैं यह कह सकता, तो वह कभी न जाती। एक बार भी नहीं रोका। मैं उसे निष्ठुरता का दंड देना चाहता था। मुझे उस वक्त यह न सूझ पड़ा कि...

यह कहते-कहते दीवान साहब फिर चौंक पड़े और द्वार की ओर आशंकित नेत्रों से देखकर बोले-यह कौन अंदर आया, नोरा? ये लोग क्यों मुझे घेरे हुए हैं?

मनोरमा ने घबराते हुए हृदय से उमड़ने वाले आंसुओं को दबाकर पूछा-क्या आपका जी फिर घबरा रहा है?

हरिसेवक--वह कुछ नहीं था, नोरा ! मैंने अपने जीवन में अच्छे काम कम किए, बुरे काम बहुत किए। अच्छे काम जितने किए वे लौंगी ने किए। बुरे काम जितने किए, वे मेरे हैं। उनके दंड का भागी मैं हूँ। लौंगी के कहने पर चलता, तो आज मेरी आत्मा शांत होती। एक बात तुमसे पूछूं, नोरा, बताओगी?

मनोरमा--खुशी से पूछिए।

हरिसेवक--तुम अपने भाग्य से संतुष्ट हो?

मनोरमा--यह आप क्यों पूछते हैं? क्या मैंने आपसे कभी कोई शिकायत की है?

हरिसेवक--नहीं नोरा, तुमने कभी शिकायत नहीं की और न करोगी, लेकिन मैंने तुम्हारे साथ जो घोर अत्याचार किया है, उसकी व्यथा से आज मेरा अंत:करण पीड़ित हो रहा है। मैंने तुम्हें अपनी तृष्णा की भेंट चढ़ा दिया, तुम्हारे जीवन का सर्वनाश कर दिया। ईश्वर ! तुम मुझे इसका कठिन से कठिन दंड देना ! लौंगी ने कितना विरोध किया, लेकिन मैंने एक न सुनी। तुम निर्धन होकर सुखी रहतीं। मुझे तृष्णा ने अंधा बना दिया था। फिर जी डूबा जाता है! शायद उस देवी के दर्शन न होंगे। तुम उससे कह देना नोरा कि वह स्वार्थी, नीच, पापी जीव अंत समय तक उसकी याद में तडपता रहा...

मनोरमा--दादाजी, आप ऐसी बातें क्यों करते हैं? लौंगी अम्मां कल शाम तक आ जाएंगी।

हरिसेवक हंसे, वह विलक्षण हंसी, जिसमें समस्त जीवन की आशाओं और अभिलाषाओं का प्रतिवाद होता है। फिर संदिग्ध भाव से बोले-कल शाम तक? हां शायद।

मनोरमा आंसुओं के वेग को रोके हुए थी। उसे उस चिर परिचित स्थान में आज एक विचित्र शंका का आभास हो रहा था। ऐसा जान पड़ता था कि सूर्य-प्रकाश कुछ क्षीण हो गया है, मानो संध्या हो गई है। दीवान साहब के मुख की ओर ताकने की हिम्मत न पड़ती थी।

दीवान साहब छत की ओर टकटकी लगाए हुए थे, मानो उनकी दृष्टि अनंत के उस पार पहुँच जाना चाहती हो। सहसा उन्होंने क्षीण स्वर में पुकारा-नोरा!

मनोरमा ने उनकी ओर करुण नेत्रों से देखकर कहा--खड़ी हूँ, दादाजी!

दीवान--जरा कलम-दवात लेकर मेरे समीप आ जाओ। कोई और तो यहां नहीं है? मेरे दानपत्र लिख लो। गुरुसेवक की लौंगी से न पटेगी। मेरे पीछे उसे बहुत कष्ट होगा। मैं अपनी सब जायदाद लौंगी को देता हूँ। जायदाद के लोभ से गुरुसेवक उससे दबेगा। तुम यह लिख लो और तुम्हीं इसकी साक्षी देना। जरा बहू को बुला लो, मैं उसे भी समझा दूं। यह वसीयत तुम अपने ही पास रखना। जरूरत पड़ने पर इससे काम लेना।

मनोरमा अंदर जाकर रोने लगी। आंसुओं का वेग उसके रोके न रुका। उसकी भाभी ने पूछा-क्या है, दीदी ! दादाजी का जी कैसा है?

यह कहते हुए वह घबराई हुई दीवान साहब के सामने आकर खड़ी हो गई। उसका आँखों में आंसू भर आए। कमरे में वह निस्तब्धता छाई हुई थी, जिसका आशय सहज ही समझ में आ जाता है। उसने दीवान साहब के पैरों पर सिर रख दिया और रोने लगी।

दीवान साहब ने उसके सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद देते हुए कहा-बेटी? यह मेरा अंतिम समय है। यात्रा के सामान कर रहा हूँ? गुरुसेवक के आने तक क्या होगा, नहीं जानता। मेरे पीछे लौंगी बहुत दिन न रहेगी। उसका दिल न दुखाना। मेरी तुमसे यही याचना है। तुम बड़े घर की बेटी हा। जो कुछ करना, उसकी सलाह से करना। इसी में वह प्रसन्न रहेगी। ईश्वर तुम्हारा सौभाग्य अमर करें!

यह कहते-कहते दीवान साहब की आंखें बंद हो गईं। कोई आध घंटे के बाद उन्होंने आंखें खोली और उत्सुक नेत्रों से इधर-उधर देखकर बोले-अभी नहीं आई? अब भेंट न होगी।

मनोरमा ने रोते हुए कहा--दादाजी, मुझे भी कुछ कहते जाइए। मैं क्या करूं?

दीवान साहब ने आंखें बंद किए हुए कहा--लौंगी को देखो !

थोड़ी देर में राजा साहब आ पहुंचे। अहिल्या भी उनके साथ थी। मुंशी वज्रधर को भी उड़ती हुई खबर मिली। दौड़े आए। रियासत के सैकड़ों कर्मचारी जमा हो गए। डॉक्टर भी आ पहुंचा। किंतु दीवान साहब ने आंखें न खोली।

संध्या हो गई थी। कमरे में सन्नाटा छाया हुआ था। सब लोग सिर झुकाए बैठे थे, मानो श्मशान में भूतगण बैठे हों। सबको आश्चर्य हो रहा था कि इतनी जल्द यह क्या हो गया। अभी कल तक तो मजे में रियासत का काम करते रहे। दीवान साहब अचेत पड़े हुए थे, किंतु आंखों से आंसू की धारें बह-बहकर गालों पर आ रही थीं। उस वेदना का कौन अनुमान कर सकता है!

एकाएक द्वार पर एक बग्घी आकर रुकी और उसमें से एक स्त्री उतरकर घर में दाखिल हुई। शोर मच गया-आ गई, आ गई। यह लौंगी थी।

लौंगी आज ही हरिद्वार से चली थी। गुरुसेवक से उसकी भेंट न हुई थी। इतने आदमियों को जमा देखकर उसका हृदय दहल उठा। उसके कमरे में आते ही और लोग हट गए। केवल मनोरमा, उसकी भाभी और अहिल्या रह गईं।

लौंगी ने दीवान साहब के सिर पर हाथ रखकर भर्रायी हुई आवाज में कहा--प्राणनाथ ! क्या मुझे छोड़कर चले जाओगे?

दीवान साहब की आंखें खुल गईं। उन आंखों में कितनी अपार वेदना थी, किंतु कितना अपार प्रेम!

उन्होंने दोनों हाथ फैलाकर कहा--लौंगी और पहले क्यों न आईं?

लौंगी ने दोनों फैले हुए हाथों के बीच में अपना सिर रख दिया और उस अंतिम प्रेमालिंगन के आनंद में विह्वल हो गई। इस निर्जीव, मरणोन्मुख प्राणी के आलिंगन में उसने उस आत्मबल, विश्वास और तृप्ति का अनुभव किया, जो उसके लिए अभूतपूर्व था। इस आनंद में वह शोक भूल गई। पच्चीस वर्ष के दाम्पत्य जीवन में उसने कभी इतना आनंद न पाया था। निर्दय अविश्वास रह-रहकर उसे तड़पाता रहता था। उसे सदैव यह शंका बनी रहती थी कि यह डोंगी पार लगाती है या मंझधार ही में डूब जाती है। वायु का हल्का-सा वेग, लहरों का हल्का-सा आंदोलन, नौका का हल्का-सा कंपन उसे भयभीत कर देता था। आज उन सारी शंकाओं और वेदनाओं का अंत हो गया। आज उसे मालूम हुआ कि जिसके चरणों पर मैंने अपने को समर्पित किया था, वह अंत तक मेरा रहा। यह शोकमय कल्पना भी कितनी मधुर और शांतिदायिनी थी।

वह इसी विस्मृति की दशा में थी कि मनोरमा का रोना सुनकर चौंक पड़ी और दीवान साहब के मुख की ओर देखा। तब उसने स्वामी के चरणों पर सिर रख दिया और फूट-फूटकर रोने लगी। एक क्षण में सारे घर में कुहराम मच गया। नौकर-चाकर भी रोने लगे। जिन नौकरों को दीवान के मुख से नित्य घुड़कियां मिलती थीं, वह भी रो रहे थे। मृत्यु में मानसिक प्रवृत्तियों को शांत करने की विलक्षण शक्ति होती है। ऐसे विरले ही प्राणी संसार में होंगे, जिनके अंत:करण मृत्यु के प्रकाश से आलोकित न हो जाएं। अगर कोई ऐसा मनुष्य है, तो उसे पशु समझो। हरिसेवक की कृपणता, कठोरता, संकीर्णता, धूर्तता एवं सारे दुर्गुण, जिनके कारण वह अपने जीवन में बदनाम रहे, इस विशाल प्रेम के प्रवाह में बह गए।

आधी रात बीत चुकी थी। लाश अभी तक गुरुसेवक के इंतजार में पड़ी हुई थी। रोने वाले रो-धोकर चुप हो गए थे। लौंगी शोकगृह से निकलकर छत पर गई और सड़क की ओर देखने लगी। सैर करने वालों की सैर तो खत्म हो चुकी थी, मगर मुसाफिरों की सवारियां कभी-कभी बंगले के सामने से निकल जाती थीं। लौंगी सोच रही थी, गुरुसेवक अब तक लौटे क्यों नहीं? गाड़ी तो यहां दो बजे आ जाती है। क्या अभी दो नहीं बजे? आते ही होंगे। स्टेशन की ओर से आने वाली हर सवारी गाड़ी को वह उस वक्त तक ध्यान से देखती थी, जब तक वह बंगले के सामने से न निकल जाती। तब वह अधीर होकर कहती, अब भी नहीं आए!

और मनोरमा बैठी दीवान साहब के अंतिम उपदेश का आशय समझने की चेष्टा कर रही थी। उसके कानों में ये शब्द गूंज रहे थे लौंगी को देखो!

सैंतीस

जगदीशपुर के ठाकुरद्वारे में नित्य साधु-महात्मा आते रहते थे। शंखधर उनके पास जा बैठता और उनकी बातें बड़े ध्यान से सुनता। उसके पास चक्रधर की जो तस्वीर थी, उससे मन-ही-मन साधुओं की सूरत का मिलान करता, पर उस सूरत का साधु उसे न दिखाई देता था। किसी की भी बातचीत से चक्रधर की टोह न मिलती थी।

एक दिन मनोरमा के साथ शंखधर भी लौंगी के पास गया। लौंगी बड़ी देर तक अपनी तीर्थयात्रा की चर्चा करती रही। शंखधर उसकी बातें गौर से सुनने के बाद बोला-क्यों दाई, तुम्हें तो साधु-संन्यासी बहुत मिले होंगे?

लौंगी ने कहा--हां बेटा, मिले क्यों नहीं। एक संन्यासी तो ऐसा मिला था कि हूबहू, तुम्हारे बाबूजी से सूरत मिलती थी। बदले हुए भेस में ठीक तो न पहचान सकी, लेकिन मुझे ऐसा मालूम होता था कि वही हैं।

शंखधर ने बड़ी उत्सुकता से पूछा--जटा बड़ी-बड़ी थीं?

लौंगी--नहीं, जटा-सटा तो नहीं थी, न वस्त्र ही गेरुआ रंग के थे। हां, कमंडल अवश्य लिए हुए थे। जितने दिन मैं जगन्नाथपुरी में रही, वह एक बार रोज मेरे पास आकर पूछ जाते-क्यों माताजी, आपको किसी बात का कष्ट तो नहीं है? और यात्रियों से भी वह यही बात पूछते थे। जिस धर्मशाला में मैं टिकी थी, उसी में एक दिन एक यात्री को हैजा हो गया। संन्यासी जी उसे उठवाकर अस्पताल ले गए और दवा कराई। तीसरे दिन मैंने उस यात्री को फिर देखा। वह घर लौटता था। मालूम होता था, संन्यासी जी अमीर हैं। दरिद्र यात्रियों को भोजन करा देते और जिनके पास किराए के रुपए न होते, उन्हें रुपए भी देते थे। वहां तो लोग कहते थे कि यह कोई बड़े राजा संन्यासी हो गए हैं। नोरा, तुमसे क्या कहूँ, सूरत बिल्कुल बाबूजी से मिलती थी। मैंने नाम पूछा, तो सेवानन्द बताया। घर पूछा, तो मुस्कराकर बोले-सेवानगर। एक दिन मैं मरते-मरते बची। सेवानन्द न पहुँच जात, तो मर ही गई थी। एक दिन मैंने उनको नेवता दिया। जब वह खाने बैठे, तो मैंने यहां का जिक्र छेड़ दिया। मैं देखना चाहती थी कि इन बातों से उनके दिल पर क्या असर होता है, मगर उन्होंने कुछ भी न पूछा। मालूम होता था, मेरी बातें उन्हें अच्छी नहीं लग रही थीं। आखिर मैं चुप रही। उस दिन से वह फिर न दिखाई दिए। जब लोगों से पूछा, तो मालूम हुआ कि रामेश्वर चले गए। एक जगह जमकर नहीं रहते, इधर-उधर विचरते ही रहते हैं। क्यों नोरा, बाबूजी होते, तो जगदीशपुर का नाम सुनकर कुछ तो कहते?

मनोरमा ने तो कुछ उत्तर न दिया, न जाने क्या सोचने लगी थी, पर शंखधर बोला-दाई, तुमने यहां तार क्यों न दे दिया? हम लोग फौरन पहुँच जाते।

लौंगी--अरे तो कोई बात भी तो हो बेटा, न जाने कौन था, कौन नहीं था। बिना जाने-बूझे क्यों तार देती?

मनोरमा ने गंभीर भाव से कहा--मान लो वही होते, तो क्या तुम समझते हो कि वह हमारे साथ आते? कभी नहीं। आना होता, तो जाते ही क्यों?

शंखधर--किस बात पर नाराज होकर चले गए थे, अम्मां? कोई-न-कोई बात जरूर हई होगी? अम्मांजी से पूछता हूँ, तो रोने लगती हैं, तुमसे पूछता हूँ, तो तुम बताती ही नहीं।

मनोरमा--मैं किसी के मन की बात क्या जानूं? किसी से कुछ कहा-सुना थोडे ही।

शंखधर--मैं यदि उन्हें एक बार देख पाऊं, तो फिर कभी साथ ही न छोडूं। क्यों दाई आजकल वह संन्यासीजी कहाँ होंगे?

मनोरमा--अब दाई यह क्या जाने? संन्यासी कहीं एक जगह रहते हैं, जो वह बता दे। शंखधर--अच्छा दाई, तुम्हारे खयाल में संन्यासीजी की उम्र क्या रही होगी?

लौंगी--मैं समझती हूँ, उनकी उम्र कोई चालीस वर्ष की होगी।'

शंखधर ने कुछ हिसाब करके कहा--रानी अम्मां, यही तो बाबूजी की भी उम्र होगी। मनोरमा ने बनावटी क्रोध से कहा--हां, हां, वही संन्यासी तुम्हारे बाबूजी हैं। बस, अब माना। अभी उम्र चालीस वर्ष की कैसे हो जाएगी?

शंखधर समझ गए कि मनोरमा को यह जिक्र बुरा लगता है। इस विषय में फिर मुंह से एक शब्द न निकाला; लेकिन वहां रहना अब उसके लिए असंभव था। रामेश्वर का हाल तो उसने भूगोल में पढ़ा था, लेकिन अब उस अल्पज्ञान से उसे संतोष न हो सकता था। वह जानना चाहता था कि रामेश्वर को कौन रेल जाती है, वहां लोग जाकर ठहरते कहाँ हैं? घर के पुस्तकालय में शायद कोई ऐसा ग्रंथ मिल जाए , यह सोचकर वह बाहर आया और शोफर से बोला--मुझे घर पहुंचा दो।

शोफर--महारानीजी न चलेंगी?

शंखधर--मुझे कुछ जरूरी काम है, तुम पहुंचाकर लौट आना। रानी अम्मां से कह देना, वह चले गए।

वह घर आकर पुस्तकालय में जा ही रहा था कि गुरुसेवक सिंह मिल गए। आजकल वह महाशय दीवानी के पद के लिए जोर लगा रहे थे, हर एक काम बड़ी मुस्तैदी से करते, पर मालूम नहीं, राजा साहब क्यों उन्हें स्वीकार न करते थे। मनोरमा कह चुकी थी, अहिल्या ने भी सिफारिश की, पर राजा साहब अभी तक टालते जाते थे। शंखधर उन्हें देखते ही बोला-गुरुजी, जरा कृपा करके मुझे पुस्तकालय से कोई ऐसी पुस्तक निकाल दीजिए, जिसमें तीर्थस्थानों का पूरा-पूरा हाल लिखा हो।

गुरुसेवक ने कहा--ऐसी तो कोई किताब पुस्तकालय में नहीं है।

शंखधर--अच्छा, तो मेरे लिए कोई ऐसी किताब मंगवा दीजिए।

यह कहकर वह लौटा ही था कि कुछ सोचकर बाहर चला गया और एक मोटर को तैयार कराके शहर चला। अभी उसका तेरहवां ही साल था, लेकिन चरित्र में इतनी दृढ़ता थी कि जो बात मन में ठान लेता, उसे पूरा ही करके छोड़ता। शहर जाकर उसने अंग्रेजी पुस्तकों की कई दुकानों से तीर्थयात्रा संबंधी पुस्तकें देखीं और किताबों का एक बंडल लेकर घर आया।

राजा साहब भोजन करने बैठे, तो शंखधर वहां न था। अहिल्या ने जाकर देखा, तो वह अपने कमरे में बैठा कोई किताब देख रहा था।

अहिल्या ने कहा--चलकर खाना खा लो, दादाजी बुला रहे हैं।

शंखधर--अम्मांजी, आज मुझे बिल्कुल भूख नहीं है।

अहिल्या--कोई नई किताब लाए हो क्या? अभी भूख क्यों नहीं है? कौन-सी किताब है? शंखधर--नहीं अम्मांजी, मुझे भूख नहीं लगी।

अहिल्या ने उसके सामने से खुली हुई किताब उठा ली और दो-चार पंक्तियां पढ़कर बोली-इसमें तो तीर्थों का हाल लिखा हुआ है--जगन्नाथ, बद्रीनाथ,काशी और रामेश्वर। यह किताब कहाँ से लाए?

शंखधर--आज ही तो बाजार से लाया हूँ। दाई कहती थी कि बाबूजी की सूरत का एक संन्यासी उन्हें जगन्नाथ में मिला था और वह वहां से रामेश्वर चला गया।

अहिल्या ने शंखधर को दया--सजल नेत्रों से देखा, पर उसके मुख से कोई बात न निकली। आह ! मेरे लाल ! तुझमें इतनी पितृभक्ति क्यों है? तू पिता के वियोग में क्यों इतना पागल हो गया है? तुझे तो पिता की सूरत भी याद नहीं। तुझे तो इतना भी याद नहीं कि कब पिता की गोद में बैठा था, कब उनकी प्यार की बातें सुनी थीं। फिर भी तुझे उन पर इतना प्रेम है? और वह इतने निर्दयी हैं कि न जाने कहाँ बैठे हुए हैं, सुधि ही नहीं लेते। वह मुझसे अप्रसन्न हैं, लेकिन तूने क्या अपराध किया है? तुझसे क्यों रुष्ट हैं? नाथ ! तुमने मेरे कारण अपने आंखों के तारे पुत्र को क्यों त्याग दिया? तुम्हें क्या मालूम कि जिस पुत्र की ओर से तुमने अपना हृदय पत्थर कर लिया है, वह तुम्हारे नाम की उपासना करता है, तुम्हारी मूर्ति की पूजा करता है। आह ! यह वियोगाग्नि उसके कोमल हृदय को क्या जला डालेगी? क्या इस राज्य को पाने का यह दंड है? इस अभागे राज्य ने हम दोनों को अनाथ कर दिया।

अहिल्या का मातृहृदय करुणा से पुलकित हो उठा। उसने शंखधर को छाती से लगा लिया और आंसुओं के वेग को दबाती हुई बोली-बेटा, तुम्हारा उठने को जी न चाहता हो, तो यहीं लाऊ? बैठे-बैठे कुछ थोड़ा-सा खा लो।

शंखधर--अच्छा खा लूंगा अम्मां, किसी से खाना भिजवा दो, तुम क्यों लाओगी।

अहिल्या एक क्षण में छोटी-सी थाली में भोजन लेकर आई और शंखधर के सामने रखकर बैठ गई।

शंखधर को इस समय खाने की रुचि न थी, यह बात नहीं थी। अब तक उसे निश्चित रूप से अपने पिता के विषय में कुछ न मालूम था। वह जानता था कि वह किसी दूसरी जगह आराम से होंगे। आज उसे यह मालूम हुआ था कि संन्यासी हो गए हैं, अब वह राजसी भोजन कैसे करता? इसीलिए उसने अहिल्या से कहा था कि भोजन किसी के हाथ भेज देना, तुम न आना। अब यह थाल देखकर वह बड़े धर्मसंकट में पड़ा। अगर नहीं खाता, तो अहिल्या दुःखी होती है और खाता है, तो कौर मुंह में नहीं जाता। उसे खयाल आया, मैं यहां चांदी के थाल में मोहनभोग उड़ाने बैठा हूँ और बाबूजी पर इस समय न जाने क्या गुजर रही होगी। बेचारे किसी पेड़ के नीचे पड़े होंगे, न जाने आज कुछ खाया भी है या नहीं। वह थाली पर बैठा, लेकिन कौर उठाते ही फूट-फूटकर रोने लगा। अहिल्या उसके मन का भाव ताड़ गई और स्वयं रोने लगी। कौन किसे समझाता?

आज से अहिल्या को हरदम यही संशय रहने लगा कि शंखधर पिता की खोज में कहीं भाग न जाए । वह उसे अकेले कहीं खेलने तक न जाने देती, बाजार भी आना-जाना बंद हो गया। उसने सबको मना कर दिया कि शंखधर के सामने उसके पिता की चर्चा न करें। यह भय किसी भयंकर जंतु की भांति उसे नित्य घूरा करता था कि कहीं शंखधर अपने पिता के गृहत्याग का कारण न जान ले, कहीं वह यह न जान जाए कि बाबूजी को राजपाट से घृणा है, नहीं तो फिर इसे और रोकेगा?

उसे अब हरदम यही पछतावा होता रहता कि मैं शंखधर को लेकर स्वामी के साथ कों न चली गई? राज्य के लोभ में वह पति को पहले ही खो बैठी थी, कहीं पत्र को भी नोकर बैठेगी? सुख और विलास की वस्तुओं से शंखधर की दिन-दिन बढ़ने वाली उदासीनता देख-देखकर वह चिंता के मारे और भी घुली जाती थी।

अड़तीस

ठाकुर हरिसेवकसिंह का क्रिया-कर्म हो जाने के बाद एक दिन लौंगी ने अपना कपड़ा-लत्ता बांधना शुरू किया। उसके पास रुपए-पैसे जो कुछ थे, सब गुरुसेवक को सौंपकर बोली-भैया, अब किसी गांव में जाकर रहूँगी, यहां मुझसे नहीं रहा जाता।

वास्तव में लौंगी से अब इस घर में न रहा जाता था। घर की एक-एक चीज उसे काटने दौड़ती थी। पचीस वर्ष तक वह घर की स्वामिनी बने रहने के बाद अब वह किसी की आश्रिता न बन सकती थी। सब कुछ उसी के हाथों का किया हुआ था, पर अब उसका न था। वह घर उसी ने बनवाया था। उसने घर बनवाने पर जोर न दिया होता, तो ठाकुर साहब अभी तक किसी किराए के घर में पड़े होते। घर का सारा सामान उसी का खरीदा हुआ था, पर अब उसका कुछ न था। सब कुछ स्वामी के साथ चला गया। वैधव्य के शोक के साथ यह भाव कि मैं किसी दूसरे की रोटियों पर पड़ी हूँ, उसके लिए असह्य था। हालांकि गुरुसेवक पहले से अब कहीं ज्यादा उसका लिहाज करते थे और कोई ऐसी बात न होने देते थे, जिससे उसे रंज हो। फिर भी कभी-कभी ऐसी बातें हो ही जाती थीं, जो उसकी पराधीनता की याद दिला देती थीं। कोई नौकर अब उससे अपनी तलब मांगने न आता था, रियासत के कर्मचारी अब उसकी खुशामद करने न आते थे। गुरुसेवक और उसकी स्त्री के व्यवहार में तो किसी तरह की त्रुटि न थी।

लौंगी को उन लोगों से जैसी आशा था, उससे कहीं अच्छा बर्ताव उसके साथ किया जाता था, लेकिन महरियां अब खड़ी जिसका मुंह जोहती हैं, वह कोई और ही है, नौकर जिसका हुक्म सुनते ही दौड़कर आते हैं, वह भी और ही कोई है। देहात के असामी नजराने या लगान के रुपए अब उसके हाथ में नहीं देते, शहर की दुकानों के किरायेदार भी अब उसे किराया देने नहीं आते। गुरुसेवक ने अपने मुंह से किसी से कुछ नहीं कहा। प्रथा और रुचि ने आप ही आप सारी व्यवस्था उलट-पलट कर दी है। पर ये ही वे बातें हैं, जिनसे उसके आहत हृदय को ठेस लगती है और उसकी मधुर स्मृतियों में एक क्षण के लिए ग्लानि की छाया आ पड़ती है। इसलिए अब वह यहां से जाकर किसी देहात में रहना चाहती है। आखिर जब ठाकुर साहब ने उसके नाम कुछ नहीं लिखा, उसे दूध की मक्खी की भांति निकालकर फेंक दिया, तो वह यहां क्यों पड़ी दूसरों का मुंह जोहे? उसे अब एक टूटे-फूटे झोंपड़े और एक टुकड़े रोटी के सिवा और कुछ नहीं चाहिए। इसके लिए वह अपने हाथों से मेहनत कर सकती है। जहां रहेगी, वह अपने गुजर भर को कमा लेगी। उसने जो कुछ किया, यह उसी का तो फल है। वह अपनी झोंपडी में पड़ी रहती, तो आज क्यों यह अनादर और अपमान होता? झोंपड़ी छोड़कर महल के सुख भोगने का ही यह दंड है।

गुरुसेवक ने कहा--आखिर सुनें तो, कहाँ जाने का विचार कर रही हो?

लौंगी--जहां भगवान् ले जाएंगे, वहां चली जाऊंगी, कोई नैहर या दूसरी ससुराल है, जिसका नाम बता दूं?

गुरुसेवक--सोचती हो, तुम चली जाओगी, तो मेरी कितनी बदनामी होगी? दुनिया यही कहेगी कि इनसे एक बेवा का पालन न हो सका। उसे घर से निकाल दिया। मेरे लिए कहीं मुंह दिखाने की जगह न रहेगी। तुम्हें इस घर में जो शिकायत हो, वह मुझसे कहो, जिस बात की जरूरत हो, मूझसे बतला दो। अगर मेरी तरफ से उसमें जरा भी कोर-कसर देखो, तो फिर तुम्हें अख्तियार है, जो चाहे करना। यों मैं कभी न जाने दूंगा।

लौंगी--क्या बांधकर रखोगे?

गुरुसेवक--हां, बांधकर रखेंगे।

अगर उम्रभर में लौंगी को गुरुसेवक की कोई बात पसंद आई, तो उनका यही दुराग्रहपूर्ण वाक्य था। लौंगी का हृदय पुलकित हो गया। इस वाक्य में उसे आत्मीयता भरी हुई जान पड़ी। उसने जरा तेज होकर कहा--बांधकर क्यों रखोगे? क्या तुम्हारी बेसाही हूँ?

गुरुसेवक--हां, बेसाही हो ! मैंने नहीं बेसाहा, मेरे बाप ने तो बेसाहा है। बेसाही न होतीं, तो तुम तीस साल यहां रहतीं कैसे? कोई और आकर क्यों न रह गई? दादाजी चाहते, तो एक दर्जन ब्याह कर सकते थे, कौड़ियों रखेलियां रख सकते थे। यह सब उन्होंने क्यों नहीं किया? जिस वक्त मेरी माता का स्वर्गवास हुआ, उस वक्त उनकी जवानी की उम्र थी, मगर उनका कट्टर से कट्टर शत्रु भी आज यह कहने का साहस नहीं कर सकता कि उनके आचरण खराब थे। यह तुम्हारी ही सेवा की जंजीर थी, जिसने उन्हें बांध रखा, नहीं तो आज हम लोगों का कहीं पता न होता। मैं सत्य कहता हूँ, अगर तुमने घर के बाहर कदम निकाला, तो चाहे दुनिया मुझे बदनाम ही करे, मैं तुम्हारे पैर तोड़कर रख दूंगा। क्या तुम अपने मन की हो कि जो चाहोगी, करोगी और जहां चाहोगी, जाओगी और कोई न बोलेगा? तुम्हारे नाम के साथ मेरी और मेरे पूज्य बाप की इज्जत बंधी हुई है।

लौंगी के जी में आया कि गुरुसेवक के चरणों पर सिर रखकर रोऊं और छाती से लगाकर कहूँ--बेटा, मैंने तो तुझे गोद में खिलाया है, तुझे छोड़कर भला मैं कहाँ जा सकती हूँ! लेकिन उसने क्रुद्ध भाव से कहा-यह तो अच्छी दिल्लगी हुई। यह मुझे बांधकर रखेंगे !

गुरुसेवक तो झल्लाए हुए बाहर चले गए और लौंगी अपने कमरे में जाकर खूब रोई। गुरुसेवक क्या किसी महरी से कह सकते थे-हम तुम्हें बांधकर रखेंगे? कभी नहीं, लेकिन अपनी स्त्री से वह यह बात कह सकते हैं, क्योंकि उसके साथ उनकी इज्जत बंधी हुई है। थोड़ी देर के बाद वह उठकर एक महरी से बोली-सुनती है रे, मेरे सिर में दर्द हो रहा है। जरा आकर दबा दे।

आज कई महीने के बाद लौंगी ने सिर दबाने का हुक्म दिया था। इधर उसे किसी से कुछ कहते हुए संकोच होता था कि कहीं टाल न जाए । नौकरों के दिल में उसके प्रति वही श्रद्धा थी, जो पहले थी। लौंगी ने स्वयं उनसे कुछ काम लेना छोड़ दिया था। इन झगड़ों की भनक भी नौकरों के कानों में पड़ गई थी। उन्होंने अनुमान किया था कि गुरुसेवक ने लौंगी को किसी बात पर डांटा है, इसलिए स्वभावतः उनकी सहानुभूति लौंगी के साथ हो गई थी। वे आपस में इस विषय पर मनमानी टिप्पणियां कर रहे थे। महरी उसका हुक्म सुनते ही तेल लाकर उसका सिर दबाने लगी। उसे अपने मनोभावों को प्रकट करने के लिए यह अवसर बहुत ही उपयुक्त जान पडा। बोली-आज छोटे बाब किस बात पर बिगड़ रहे थे, मालकिन? कमरे के बाहर सुनाई दे रहा था। तुम यहां से चली गईं मालकिन, तो एक नौकर भी न रहेगा। सबों ने सोच लिया है कि जिस दिन मालकिन यहां से चली जाएंगी, हम सब भी भाग खड़े होंगे। अन्याय हम लोगों से नहीं देखा जाता।

लौंगी ने दीन-भाव से कहा--नसीब ही खोटा है, नहीं तो क्यों किसी की झिड़कियां सुननी पड़ती?

महरी--नहीं मालकिन, नसीबों को न खोटा कहो। नसीब तो जैसा तुम्हारा है, वैसा किसी का क्या होगा ! ठाकुर साहब मरते दम तक तुम्हारा नाम रटा किए। तुम क्यों जाती हो! किसी की मजाल क्या है कि तुमसे कुछ कह सके? यह सारी संपदा तो तुम्हारी जोड़ी हुई है। इसे कौन ले सकता है? ठाकुर साहब को जो तुमसे सुख मिला, वह क्या किसी ब्याहता से मिल सकता था?

सहसा मनोरमा ने कमरे में प्रवेश किया और लौंगी को सिर में तेल डलवाते देखकर बोली--कैसा जी है, अम्मां ! सिर में दर्द है क्या?

लौंगी--नहीं बेटा, जी तो अच्छा है। आओ, बैठो।

मनोरमा ने महरी से कहा--तुम जाओ, मैं दबाए देती हूँ। दरवाजे पर खड़ी होकर कुछ सुनना नहीं, दूर चली जाना।

महरी इस समय यहां की बातें सुनने के लिए अपना सर्वस्व दे सकती थी, यह हुक्म सुनकर मन में मनोरमा को कोसती हुई चली गई। मनोरमा सिर दबाने बैठी, तो लौंगी ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोली-नहीं बेटा, तुम रहने दो। दर्द नहीं था, यों ही बुला लिया था। नहीं, मैं न दबवाऊंगी। यह उचित नहीं है। कोई देखे तो कहे कि बुढ़िया पगला गई है, रानी से सिर दबवाती है।

मनोरमा ने सिर दबाते हुए कहा--रानी जहां हूँ, वहां हूँ, यहां तो तुम्हारी गोद की खिलाई नोरा हूँ। आज तो भैयाजी यहां से जाकर तुम्हारे ऊपर बहुत बिगड़ते रहे। मैं उसकी टांग तोड़ दूंगा, गर्दन काट लूंगा। कितना पूछा, कुछ बताओ तो, बात क्या है? पर गुस्से में कुछ सुनें ही न। भाई हैं तो क्या, पर उनका अन्याय मुझसे भी नहीं देखा जाता। वह समझते होंगे कि इस घर का मालिक हूँ, दादाजी मेरे नाम सब छोड़ गए हैं। मैं जिसे चाहूँ, रखू, जिसे चाहूँ, निकालूं। मगर दादाजी उनकी नीयत को पहले ही ताड़ गए थे। मैंने अब तक तुमसे नहीं कहा अम्मांजी, कुछ तो मौका न मिला और कुछ भैया का लिहाज था, पर आज उनकी बातें सुनकर कहती हूँ कि पिताजी ने अपनी सारी जायदाद तुम्हारे नाम लिख दी है।

लौंगी पर इस सूचना का जरा भी असर न हुआ। किसी प्रकार का उल्लास, उत्सुकता या गर्व उसके चेहरे पर न दिखाई दिया। वह उदासीन भाव से चारपाई पर पड़ी रही।

मनोरमा ने फिर कहा--मेरे पास उनकी लिखाई हुई वसीयत रखी हुई है और मुझी को उन्होंने उसका साक्षी बनाया है। जब यह महाशय वसीयत देखेंगे, तो आंखें खुलेंगी।

लौंगी ने गंभीर स्वर में कहा--नोरा, यह वसीयतनामा ले जाकर उन्हीं को दे दो। तुम्हारे दादाजी ने व्यर्थ ही वसीयत लिखाई। मैं उनकी जायदाद की भूखी न थी। उनके प्रेम की भूखी थी। और ईश्वर को साक्षी देकर कहती हूँ, बेटी, कि इस विषय में मेरा जैसा भाग्य बहुत कम स्त्रियों का होगा। मैं उनका प्रेम-धन पाकर ही संतुष्ट हूँ। इसके सिवा अब मुझे और किसी धन की इच्छा नहीं है। अगर मैं अपने सत पर हूँ, तो मुझे रोटी-कपड़े का कष्ट कभी न होगा। गुरुसेवक को मैंने गोद में खिलाया है, उसे पाला-पोसा है। वह मेरे स्वामी का बेटा है। उसका हक मैं किस तरह छीन सकती हूँ? उसके सामने की थाली कैसे खींच सकती हूँ? वह कागज फाड़कर फेंक दो। यह कागज लिखकर उन्होंने अपने साथ और गुरुसेवक के साथ अन्याय किया है। गुरुसेवक अपने बाप का बेटा है, तो मुझे उसी आदर से रखेगा। वह मुझे माने या न माने, मैं उसे अपना ही समझती हूँ। तुम सिरहाने बैठी मेरा सिर दबा रही हो, क्या धन में इतना सुख कभी मिल सकता है। गुरुसेवक के मुंह से 'अम्मां' सुनकर मुझे वह खुशी होगी, जो संसार की रानी बनकर भी नहीं हो सकती, तुम उनसे इतना ही कह देना।

यह कहते-कहते लौंगी की आंखें सजल हो गईं। मनोरमा उसकी ओर प्रेम, श्रद्धा, गर्व और आश्चर्य से ताक रही थी, मानो वह कोई देवी हो।

उनतालीस

रानी वसुमती बहुत दिनों से स्नान, व्रत, ध्यान तथा कीर्तन में मग्न रहती थीं, रियासत से उन्हें कोई सरोकार ही न था। भक्ति ने उनकी वासनाओं को शांत कर दिया था। बहुत सूक्ष्म आहार करती और वह भी केवल एक बार। वस्त्राभूषण से भी उन्हें विशेष रुचि न थी। देखने से मालूम होता था कि कोई तपस्विनी हैं। रानी रामप्रिया उसी एक रस पर चली जाती थीं। इधर उन्हें संगीत से विशेष अनुराग हो गया था। सबसे अलग अपनी कविता कुटीर में बैठी संगीत का अभ्यास करती रहती थीं। पुराने सिक्के, देश-देशांतरों के टिकट और इसी तरह की अनोखी चीजों का संग्रह करने की उन्हें धुन थी। उनका कमरा एक छोटा-मोटा अजाएबखाना था। उन्होंने शुरू ही से अपने को दुनिया के झमेलों से अलग रखा था। इधर कुछ दिनों से रानी रोहिणी का चित्त भी भक्ति की ओर झुका हुआ नजर आता था। वही, जो पहले ईर्ष्या की अग्नि में जला करती थी, अब वह साक्षात् क्षमा और दया की देवी बन गई थी। अहिल्या से उसे बहुत प्रेम था, कभी-कभी आकर घंटों बैठी रहती। शंखधर भी उससे बहुत हिल गया था। राजा साहब तो उसी के दास थे, जो शंखधर को प्यार करे। रोहिणी ने शंखधर को गोद में खिला-खिलाकर उनका मनोमालिन्य मिटा दिया। एक दिन रोहिणी ने शंखधर को एक सोने की घड़ी इनाम दी। शंखधर को पहली बार इनाम का मजा मिला, फूला न समाया, लेकिन मनोरमा अभी तक रोहिणी से चौंकती रहती थी। वह कुछ साफसाफ तो न कह सकती थी, पर शंखधर का रोहिणी के पास आना-जाना उसे अच्छा न लगता था।

जिस दिन मनोरमा अपने पिता की वसीयत लेकर लौंगी के पास गई थी, उसी दिन की बात है-संध्या का समय था। राजा साहब पाईबाग में हौज के किनारे बैठे मछलियों को आटे की गोलियां खिला रहे थे। एकाएक पांव की आहट पाकर सिर उठाया तो देखा, रोहिणी आकर खड़ी हो गई है। आज रोहिणी को देखकर राजा साहब को बड़ी करुणा आई ! वह नैराश्य और वेदना की सजीव मूर्ति-सी दिखाई देती थी, मानो कह रही थी-तुमने मुझे क्यों यह दंड दे रखा है? मेरा क्या अपराध है? क्या ईश्वर ने मुझे संतान न दी, तो इसमें मेरा कोई दोष था? तुम अपने भाग्य का बदला मुझसे लेना चाहते हो? अगर मैंने कटु वचन ही कहे थे, तो क्या उसका यह दंड था?

राजा साहब ने कातर स्वर में पूछा--कैसे चली रोहिणी? आओ, यहां बैठो।

रोहिणी--आपको यहां बैठे देखा, चली आई। मेरा आना बुरा लगा हो, तो चली जाऊं?

राजा साहब ने व्यथित कंठ से कहा--रोहिणी, क्यों लज्जित करती हो? मैं तो स्वयं लज्जित हूँ। मैंने तुम्हारे साथ बड़ा अन्याय किया है और नहीं जानता, मुझे उसका क्या प्रायश्चित्त करना पड़ेगा।

रोहिणी ने सूखी हंसी हंसकर कहा--आपने मेरे साथ कोई अन्याय नहीं किया। आपने वही किया, जो सभी पुरुष करते हैं। और लोग छिपे-छिपे करते हैं, राजा लोग वही काम खुले-खुले करते हैं। स्त्री कभी पुरुषों का खिलौना है, कभी उनके पांव की जूती। इन्हीं दो अवस्थाओं में उसकी उम्र बीत जाती है। यह आपका दोष नहीं, हम स्त्रियों को ईश्वर ने इसीलिए बनाया ही है। हमें यह सब चुपचाप सहना चाहिए। गिला या मान करने का दंड बहुत कठोर होता है और विरोध करना तो जीवन का सर्वनाश करना है।

यह व्यंग्य न था, बल्कि रोहिणी की दशा की सच्ची व निष्पक्ष आलोचना थी। राजा साहब सिर झुकाए सुनते रहे। उनके मुंह से कोई जवाब न निकला। उनकी दशा उसी शराबी की-सी थी, जिसने नशे में तो हत्या कर डाली हो किंतु अब होश में आने पर लाश को देखकर पश्चात्ताप और वेदना से उसका हृदय फटा जाता हो।

रोहिणी फिर बोली-आज सोलह वर्ष हुए, जब मैं रूठकर घर से बाहर निकल भागी थी। बाबू चक्रधर के आग्रह से लौट आई। वह दिन है और आज का दिन है, कभी आपने भूलकर भी पूछा कि तू मरती है या जीती? इससे तो यह कहीं अच्छा होता कि आपने मुझे चले जाने दिया होता। क्या आप समझते हैं कि मैं कुमार्ग की ओर जाती? यह कुलटाओं का काम है। मैं गंगा की गोद के सिवा और कहीं न जाती। एक युग तक घोर मानसिक पीड़ा सहने से तो एक क्षण का कष्ट कहीं अच्छा होता, लेकिन आशा ! हाय आशा ! इसका बुरा हो। यही मुझे लौटा लाई। चक्रधर का तो केवल बहाना था। यही अभागिन आशा मुझे लौटा लाई और इसी ने मुझे फुसला-फुसलाकर एक युग कटवा दिया, लेकिन आपको कभी मुझ पर दया न आई। आपको कुछ खबर है, यह सोलह वर्ष के दिन मैंने कैसे काटे हैं? किसी को संगीत में आनंद मिलता हो, मुझे नहीं मिलता। किसी को पूजा-भक्ति में संतोष होता हो, मुझे नहीं होता। मैं नैराश्य की उस सीमा तक नहीं पहुंची। मैं पुरुष के रहते वैधव्य की कल्पना नहीं कर सकती। मन की गति तो विचित्र है। वही पीड़ा, जो बाल-विधवा सहती है और सहने में अपना गौरव समझती है, परित्यक्ता के लिए असह्य हो जाती है। मैं राजपूत की बेटी हूँ, मरना भी जानती हूँ। कितनी बार मैंने आत्मघात करने का निश्चय किया, वह आप न जानेंगे। लेकिन हर दफे यही सोचकर रुक गई कि मर जाने से तो आप और भी सुखी होंगे। अगर यह विश्वास होता कि आप मेरी लाश पर आकर आंसू की चार बूंदें गिरा देंगे, तो शायद मैं कभी की प्रस्थान कर चुकी होती। मैं इतनी उदार नहीं। मैंने हिंसात्मक भावों को मन से निकालने की कितनी चेष्टा की है, यह भी आप न जानेंगे, लेकिन अपनी सीताओं की दुर्दशा ही ने मुझे धैर्य दिया है, नहीं तो अब तक मैं न जाने क्या कर बैठती ! ईर्ष्या से उन्मत्त स्त्री जो कुछ कर सकती है, उसकी अभी आप शायद कल्पना नहीं कर सकते, अगर सीता भी अपनी आंख से वह सब देखती, जो मैं आज सोलह वर्ष से देख रही हूँ, तो सीता न रहतीं। सीता बनाने के लिए राम जैसा पुरुष चाहिए।

राजा साहब ने अनुताप से कंपित स्वर में कहा--रोहिणी, क्या सारा अपराध मेरा ही है? रोहिणी--नहीं, आपका कोई अपराध नहीं है, सारा अपराध मेरे ही कर्मों का है। वह स्त्री सचमुच पिशाचिनी है, जो अपने पुरुष का अनभल सोचे। मुझे आपका अनभल सोचते हुए सोलह वर्ष हो गए। मेरी हार्दिक इच्छा यह रही कि आपका बुरा हो और मैं देखूं, लेकिन इसलिए नहीं कि आपको दुःखी देखकर मुझे आनंद होता है। नहीं, अभी मेरा इतना अध:पतन नहीं हुआ। मैं आपका अनभल केवल इसीलिए चाहती थी कि आपकी आंखें खुलें, आप खोटे और खरे को पहचानें। शायद तब आपको मेरी याद आती, शायद तब मुझे अपना खोया हुआ स्थान पाने का अवसर मिलता। तब मैं सिद्ध कर देती कि आप मुझे जितनी नीच समझ रहे हैं, उतनी नीच नहीं हूँ। मैं आपको अपनी सेवा से लज्जित करना चाहती थी, लेकिन वह अवसर भी न मिला।

राजा साहब को नारी-हृदय की तह तक पहुँचने का ऐसा अवसर कभी न मिला था। उन्हें विश्वास था कि अगर मैं मर जाऊं, तो रोहिणी की आंखों में आंसू न आएंगे। वह अपने हृदय से उसके हृदय को परखते। उनका हृदय रोहिणी की ओर से वज्र हो गया था। वह अगर मर जाता, तो निस्संदेह उनकी आंखों से आंसू न आते, पर आज रोहिणी की बातें सुनकर उनका पत्थर-सा हृदय नरम पड़ गया। आह ! इस हिंसा में कितनी कोमलता है ! मुझे परास्त भी करना चाहती है, तो सेवा के अस्त्र से। इससे तीक्ष्ण उसके पास कोई अस्त्र नहीं !

उन्होंने गद्गद कंठ से कहा--क्या कहूँ रोहिणी, अगर मैं जानता कि मेरे अनभल ही से तुम्हारा उद्धार होगा, तो इसके लिए ईश्वर से प्रार्थना करता।

अहिल्या को आते देखकर रोहिणी ने कुछ उत्तर न दिया। जरा देर वहां खड़ी रहकर दूसरी तरफ चली गई। राजा साहब के दिल पर से एक बोझा-सा उठ गया। उन्हें अपनी निष्ठुरता पर पछतावा हो रहा था। आज उन्हें मालूम हुआ कि रोहिणी का चरित्र समझने में उनसे कैसी भयंकर भूल हुई। यहां उनसे न रहा गया। जी यही चाहता था कि चलकर रोहिणी से अपना अपराध क्षमा कराऊ। बात क्या थी और मैं क्या समझे बैठा था। यही बातें अगर इसने और पहले कही होती, तो हम दोनों में क्यों इतना मनोमालिन्य रहता? उसके मन की बात तो नहीं जानता, पर मुझसे तो इसने एक बार भी हंसकर बात की होती, एक बार भी मेरा हाथ पकड़कर कहती कि मैं तुम्हें न छोडूंगी, तो मैं कभी उसकी उपेक्षा न कर सकता, लेकिन स्त्री मानिनी होती है, वह मेरी खुशामद क्यों करती? सारा अपराध मेरा है। मुझे उसके पास जाना चाहिए था।

सहसा उनके मन में प्रश्न उठा-आज रोहिणी ने क्यों मुझसे ये बातें कीं? जो काम करने के लिए वह अपने को बीस वर्ष तक राजी न कर सकी, वह आज क्यों किया? इस प्रश्न के साथ ही राजा साहब के मन में शंका होने लगी। आज उसके मुख पर कितनी दीनता थी। बातें करते-करते उसकी आंखें भर-भर आती थीं। उसका कंठ स्वर भी कांप रहा था। उसके मुख पर इतनी दीनता कभी न दिखाई देती थी। उसके मुखमंडल पर तो गर्व की आभा झलकती रहती थी। मुझे देखते ही वह अभिमान से गर्दन उठाकर मुंह फेर लिया करती थी। आज यह कायापलट क्यों हो गया।

राजा साहब ज्यों-ज्यों इस विषय की मीमांसा करते थे, त्यों-त्यों उनकी शंका बढ़ती जाती थी। रात आधी से अधिक बीत गई थी ! रनिवास में सन्नाटा छाया हुआ था। नौकर-चाकर भी सभी सो गए थे, पर उनकी आंखों में नींद न थी। वह शंका उन्हें उद्विग्न कर रही थी।

आखिर राजा साहब से लेटे न रहा गया। वह चारपाई से उठे और आहिस्ता-आहिस्ता रोहिणी के कमरे की ओर चले। उसकी ड्योढ़ी पर चौकीदारिन से भेंट हुई। उन्हें इस समय यहां देखकर वह अवाक रह गई। जिस भवन में इन्होंने बीस वर्ष तक कदम नहीं रखा, उधर आज कैसे भूल पड़े? उसने राजा साहब के मुख की ओर देखा, मानो पूछ रही थी-आप क्या चाहते हैं?

राजा साहब ने पूछा--छोटी रानी क्या कर रही हैं?

चौकीदारिन ने कहा--इस समय तो सरकार सो रही होंगी। महाराज का कोई संदेश हो, तो पहुंचा दूं।

राजा ने कहा--नहीं, मैं खुद जा रहा हूँ, तू यहीं रह।

राजा साहब ने कमरे के द्वार पर खड़े होकर भीतर की ओर झांका। रोहिणी मसहरी के अंदर चादर ओढ़े सो रही थी। वह अंदर कदम रखते हुए झिझके। भय हुआ कि कहीं रोहिणी उठकर कह न बैठे-आप यहां क्यों आए? वह इसी दुविधा में आधे घंटे तक वहां खड़े रहे। कई बार धीरे-धीरे पुकारा भी, पर रोहिणी न मिनकी। इतनी देर में उसने एक बार भी करवट न ली। यहां तक कि उसकी सांस भी न सुनाई दी। ऐसा मालूम हो रहा था कि वह मक्र किए पड़ी है और देख रही है कि राजा साहब क्या करते हैं। शायद परीक्षा ले रही है कि अब भी इनका दिल साफ हुआ या नहीं। गाफिल नींद में पड़े हुए प्राणी की श्वांस-क्रिया इतनी नि:शब्द नहीं हो सकती। जरूर बहाना किए पड़ी हुई है, मेरी आहट पाकर चादर ओढ़ ली होगी। मान के साथ ही इसके स्वभाव में विनोद भी तो बहुत है! पहले भी तो इस तरह की नकलें किया करती थी। मुझे आते देखकर कहीं छिप जाती और जब मैं निराश होकर बाहर जाने लगता, तो हंसती हुई न जाने किधर से निकल आती। उसके चुहल और दिल्लगी की कितनी ही पुरानी बातें राजा साहब को याद आ गईं। उन्होंने साहस करके कमरे में कदम रखा, पर अब भी किसी तरह का शब्द न सुनकर उन्हें खयाल आया, कहीं रोहिणी ने झूठमूठ चादर तो नहीं तान दी। मुझे चक्कर में डालने के लिए चारपाई पर चादर तान दी हो और आप किसी जगह छिपी हो। वह उसके धोखे में नहीं आना चाहते थे। उन्हें एक पुरानी बात याद आ गई, जब रोहिणी ने उनके साथ इसी तरह की दिल्लगी की थी, और यह कहकर उन्हें खूब आड़े हाथों लिया था कि आपकी प्रिया तो वह हैं, जिन्हें आपने जगाया है, मैं आपकी कौन होती हूँ? जाइए, उन्हीं से बोलिए-हंसिए। वह विनोदिनी आज फिर वही अभिनय कर रही है। इस अवसर के लिए कोई चुभती हुई बात गढ़ रखी होगी-बीस बरस के बाद सूरत क्या याद रह सकती है? राजा साहब का साठवां साल था, लेकिन इस वक्त उन्हें इस क्रीड़ा में यौवन काल का-सा आनंद और कुतूहल हो रहा था। वह दिखाना चाहते थे कि वह उसका कौशल ताड़ गए, वह उन्हें धोखा न दे सकेगी। लेकिन जब लगभग आधे घंटे तक खड़े रहने पर भी कोई आवाज या आहट न मिली, तो उन्होंने चारों तरफ चौकन्नी आंखों से देखकर धीरे-से चादर हटा दी। रोहिणी सोई हुई थी, लेकिन जब झुककर उसके मुख की ओर देखा, तो चौंककर पीछे हट गए। वह रोहिणी न थी, रोहिणी का शव था। बीस वर्ष की चिंता, दु:ख, ईर्ष्या और नैराश्य के संताप से जर्जर शरीर आत्मा के रहने योग्य कब रह सकता था ! उन निर्जीव, स्थिर, अनिमेष नेत्रों में अभी भी अतृप्त आकांक्षा झलक रही थी। उनमें तिरस्कार था, व्यंग्य था, गर्व था। दोनों ज्योतिहीन आंखें परित्यक्ता के जीवन की ज्वलंत आलोचनाएं थीं। जीवन की सारी व्यथाएं उनमें सार रूप से व्यक्त हो रही थीं। वे तीक्ष्ण बाणों के समान राजा साहब के हृदय में चुभी जा रही थीं, मानो कह रही थीं-अब तो तुम्हारा कलेजा ठंडा हुआ। अब मीठी नींद सोओ, मुझे परवा नहीं है।

राजा साहब ने दोनों आंखें बंद कर ली और रोने लगे। उनकी आत्मा इस अमानुषीय निष्ठुरता पर उन्हें धिक्कार रही थी। किसी प्राणी के प्रति अपने कर्त्तव्य का ध्यान हमें उसके मरने के बाद ही आता है-हाय ! हमने इसके साथ कुछ न किया! हमने इसे उम्र भर जलाया, रुलाया, बेधा। हाय! यह मेरी रानी, जिस पर एक दिन मैं अपने प्राण न्यौछावर करता था, इस दीन दशा में पड़ी हुई है, न कोई आगे, न पीछे ! कोई एक घूंट पानी देने वाला न था। कोई मरते समय परितोष देने वाला भी न था। राजा साहब को ज्ञात हुआ कि रोहिणी आज क्यों उनके पास गई थी ! वह मुझे सूचना दे रही थी, लेकिन बुद्धि पर पत्थर पड़ गया था। उस समय भी मैं कुछ न समझा। आह ! अगर उस वक्त उसका आशय समझ जाता, तो यह नौबत क्यों आती? उस वक्त भी यदि मैंने एक बार शुद्ध हृदय से कहा होता-प्रिये, मेरा अपराध क्षमा करो, तो इसके प्राण बच जाते। अंतिम समय वह मेरे पास क्षमा का संदेश ले गई थी और मैं कुछ न समझा ! आशा का अंतिम आदेश उसे मेरे पास ले गया; पर शोक !

सहसा राजा को खयाल आया शायद अभी प्राण बच जाएं। उन्होंने चौकीदारिन को पुकारा और बोले-जरा जाकर दरबान से कह दे, डॉक्टर साहब को बुला लाए। इनकी दशा अच्छी नहीं है। चौकीदारिन रानी देवप्रिया के समय की स्त्री थी। रोहिणी के मुख की ओर देखकर बोली-डॉक्टर को बुलाकर क्या कीजिएगा? अगर अभी कुछ कसर रह गई हो, तो वह भी पूरी कर दीजिए। अभागिनी

मरजाद ढोती रह गई! उसके ऊपर क्या बीती, तुम क्या जानोगे? तुम तो बुढ़ापे में विवाह करके बुद्धि और लज्जा दोनों ही खो बैठे। उसके ऊपर जो बीती, वह मैं जानती हूँ। हाय ! रक्त के आंसू

रो-रोकर बेचारी मर गई और तुम्हें दया न आई? क्या समझते हो, इसने विष खा लिया? इस ढांचे से प्राण को निकालने के लिए विष का क्या काम था? उसके मरने का आश्चर्य नहीं, आश्चर्य यह है कि वह इतने दिन जीती कैसे रही ! खैर, जीते-जी जो अभिलाषा न पूरी की, वह मरने पर तो पूरी कर दी। इतनी ही दया अगर पहले की होती, तो इसके लिए वह अमृत हो जाती !

दम-के-दम में रनिवास में शोर मच गया और रानियां-बांदियां सब आकर जमा हो गईं। मगर मनोरमा न आई।

चालीस

रोहिणी के बाद राजा जगदीशपुर न रह सके। मनोरमा का भी जी वहां घबराने लगा। उसी के कारण मनोरमा को वहां रहना पड़ता था। जब वही न रही, तो किस पर रीस करती? उसे अब दुःख होता था कि मैं नाहक यहां आई। रोहिणी के कटु वाक्य सह लेती, तो आज उस बेचारी की जान पर क्यों बनती? मनोरमा इस ग्लानि को मन से न निकाल सकती थी कि मैं ही रोहिणी की अकाल मृत्यु का हेतु हुई। राजा साहब की निगाह भी अब उसकी ओर से फिरी हुई मालूम होती थी। अब खजांची उतनी तत्परता से उसकी फरमाइशें नहीं पूरी करता। राजा साहब भी अब उसके पास बहुत कम आते हैं। यहां तक कि गुरुसेवक सिंह को भी जवाब दे दिया है, और उन्हें रनिवास में आने की मनाही कर दी गई है। रोहिणी ने प्राण देकर मनोरमा पर विजय पाई है। अब वसुमती और रामप्रिया पर राजा साहब की कुछ विशेष कृपा हो गई है। दूसरे-तीसरे दिन जगदीशपुर चले जाते हैं और कभी-कभी दिन का भोजन भी यहीं करते हैं। वह अब अपने पापों का प्रायश्चित्त कर रहे हैं। रियासत में अब अंधेर भी ज्यादा होने लगा है। मनोरमा की खोली हुई शालाएं बंद होती जा रही हैं। मनोरमा सब देखती है और समझती है, पर मुंह नहीं खोल सकती। उसके सौभाग्य-सूर्य का पतन हो रहा है। वही राजा साहब, जो उससे बिना कहे, सैर करने भी न जाते थे, अब हफ्तों उसकी तरफ झांकते तक नहीं। नौकरों-चाकरों पर भी अब उसका प्रभाव नहीं रहा। वे उसकी बातों की परवाह नहीं करते। इन गंवारों को हवा का रुख पहचानते देर नहीं लगती। रोहिणी का आत्म-बलिदान निष्फल नहीं हुआ।

शंखधर को अब एक नई चिंता हो गई। राजा साहब के रूठने से छोटी नानीजी मर गईं। क्या पिताजी के रूठने से अम्मांजी का भी यही हाल होगा? अम्मांजी भी तो दिन-दिन घुलती जाती हैं। जब देखो, तब रोया करती हैं। उसका नाम स्कूल में लिखा दिया है। स्कूल से छुट्टी पाकर वह सीधे लौंगी के पास जाता है और उससे तीर्थयात्रा की बातें पूछता है। यात्री लोग कहाँ ठहरते हैं, क्या खाते हैं। जहां रेलें नहीं हैं, वहां लोग कैसे जाते हैं, चोर तो नहीं मिलते? लौंगी उसके मनोभावों को ताड़ती है, लेकिन इच्छा न होते हुए भी उसे सारी बातें बतानी पड़ती हैं। वह झुंझलाती है, घुड़क बैठती है; लेकिन जब वह किशोर आग्रह करके उसकी गोद में बैठ जाता है, तो उसे दया आ जाती है। छुट्टियों के दिन शंखधर पितृगृह के दर्शन करने अवश्य जाता है। वह घर उसके लिए तीर्थ है, वह भक्त की श्रद्धा और उपासक के प्रेम से उस घर में कदम रखता है और जब तक वहां रहता है उस पर भक्ति-गर्व का नशा-सा छाया रहता है। निर्मला की आंखें उसे देखने से तृप्त ही नहीं होतीं। उसके घर में आते ही प्रकाश-सा फैल जाता है। वस्तुओं की शोभा बढ़ जाती है, दादा और दादी दोनों उसकी बालोत्साह से भरी बातें सुनकर मुग्ध हो जाते हैं, उनके हृदय पुलकित हो उठते हैं। ऐसा जान पड़ता है, मानो चक्रधर स्वयं बालरूप धारण करके उनका मन हरने आ गया है।

एक दिन निर्मला ने कहा--बेटा, तुम यहीं आकर क्यों नहीं रहते? तुम चले जाते हो, तो यह घर काटने दौड़ता है।

शंखधर ने कुछ सोचकर गंभीर भाव से कहा--अम्मांजी तो आती ही नहीं। वह क्यों कभी यहां नहीं आती, दादीजी?

निर्मला--क्या जाने बेटा,मैं उनके मन की बात क्या जानूं? तुम कभी कहते नहीं। आज कहना, देखो क्या कहती हैं।

शंखधर--नहीं दादीजी, वह रोने लगेंगी। जब थोड़े दिनों में मैं गद्दी पर बैठेगा, तो यही मेरा राजभवन होगा। तभी अम्मांजी आएंगी।

निर्मला--जल्दी से बैठो बेटा, हम भी देख लें।

शंखधर--मैं बाबूजी के नाम से एक स्कूल खोलूंगा, देख लेना। उसमें किसी लड़के से फीस न ली जाएगी।

वज्रधर--और हमारे लिए क्या करोगे, बेटा?

शंखधर--आपके लिए अच्छे-अच्छे सितारिए बुलाऊंगा। आप उनका गाना सुना कीजिएगा। आपको गाना किसने सिखाया, दादाजी?

वज्रधर--मैंने तो एक साधु से यह विद्या सीखी, बेटा! बरसों उनकी खिदमत की, तब कहीं जाकर वह प्रसन्न हुए। उन्होंने मुझे ऐसा आशीर्वाद दिया कि थोड़े ही दिनों में मैं गाने-बजाने में पक्का हो गया। तुम भी सीख लो बेटा, मैं बड़े शौक से सिखाऊंगा। राजाओं-महाराजाओं के लिए तो यह विद्या ही है बेटा, वही तो गुणियों का गुण परखकर उनका आदर कर सकते हैं। जिन्हें यह विद्या आ गई, बस, समझ लो कि उन्हें किसी बात की कमी न रहेगी। वह जहां रहेगा, लोग उसे सिर-आंखों पर बिठाएंगे। मैंने तो एक बार इसी विद्या की बदौलत बदरीनाथ की यात्रा की थी। पैदल चलता था। जिस गांव में शाम हो जाती, किसी भले आदमी के द्वार पर चला जाता और दो-चार चीजें सुना देता। बस, मेरे लिए सभी बातों का प्रबंध हो जाता था।

शंखधर ने विस्मित होकर कहा--सच! तब तो मैं जरूर सीलूँगा।

वज्रधर--जरूर सीख लो बेटा! लाओ आज ही से आरंभ कर दूं।

शंखधर को संगीत से स्वाभाविक प्रेम था। ठाकुरद्वारे में जब गाना होता, वह बड़े चाव से सुनता। खुद भी एकांत में बैठा गुनगुनाया करता था। ताल-स्वर का ज्ञान उसे सुनने ही से हो गया था। एक बार भी कोई राग सुन लेता, तो उसे याद हो जाता। योगियों के कितने ही गीत उसे याद थे। खंजरी बजाकर वह सूर, कबीर, मीरा आदि संतों के पद गाया करता था। इस वक्त जो उसने कबीर का एक पद गाया, तो मुंशीजी उसके संगीत-ज्ञान और स्वर-लालित्य पर मुग्ध हो गए। बोले-बेटा, तुम तो बिना सिखाए ही ऐसा गा लेते हो। तुम्हें तो मैं थोड़े ही दिनों में ऐसा बना दूंगा कि अच्छे-अच्छे उस्ताद कानों पर हाथ धरेंगे। आखिर मेरे ही पोते तो हो। बस, तुम मेरे नाम पर एक संगीतालय खोल देना।

शंखधर--जी हां, उसमें यही विद्या सिखाई जाएगी।

निर्मला--अपनी बुढ़िया दादीजी के लिए क्या करोगे, बेटा?

शंखधर--तुम्हारे लिए एक डोली रख दूंगा, जिसे दो कहार ढोएंगे। उसी पर बैठकर तुम नित्य गंगास्नान करने जाना।

निर्मला--मैं डोली पर न बैलूंगी। लोग हंसेंगे कि नहीं, कि राजा साहब की दादी डोली पर बैठी जा रही है।

शंखधर--वाह ! ऐसे आराम की सवारी और कौन होगी?

इस तरह दोनों प्राणियों का मनोरंजन करके जब वह चलने लगा, तो निर्मला द्वार पर खड़ी हो गई, जहां से वह मोटर को दूर तक जाते हुए देखती रहें।

सहसा शंखधर ड्योढ़ी में खड़ा हो गया और बोला-दादीजी, आपसे कुछ मांगना चाहता हूँ।

निर्मला ने विस्मित होकर सजल नेत्रों से उसे देखा और गद्गद होकर बोली--क्या मांगते हो, बेटा?

शंखधर--मुझे आशीर्वाद दीजिए कि मेरी मनोकामना पूरी हो!

निर्मला ने पोते को कंठ से लगाकर कहा--भैया, मेरा तो रोयां-रोयां तुम्हें आशीर्वाद दिया करता है ! ईश्वर तुम्हारी मनोकामनाएं पूरी करें।

शंखधर ने उनके चरणों पर सिर झुकाया और मोटर पर जा बैठा। निर्मला चौखट पर खड़ी, मोटर कार को निहारती रहीं। मोड़ पर आते ही मोटर तो आंखों से ओझल हो गई, लेकिन उस समय तक वहां से न हटीं, जब तक उसकी ध्वनि क्षीण होते-होते आकाश में विलीन न हो गई। अंतिम ध्वनि इस तरह कान में आई, मानो अनंत की सीमा पर बैठे किसी प्राणी के अंतिम शब्द हों। जब यह आधार भी न रह गया, तो निर्मला रोती हुई अंदर चली गईं।

शंखधर घर पहुंचा, तो अहिल्या ने पूछा--आज इतनी देर कहाँ लगाई, बेटा? मैं कब से तुम्हारी राह देख रही हूँ।

शंखधर--अभी तो ऐसी बहुत देर नहीं हुई, अम्मां! जरा दादीजी के पास चला गया था। उन्होंने तुम्हें आज एक संदेशा कहला भेजा है।

अहिल्या--क्या संदेशा है, सुनूं? कुछ तुम्हारे बाबूजी की खबर तो नहीं मिली है?

शंखधर--नहीं! बाबूजी की खबर नहीं मिली। तुम कभी-कभी वहां क्यों नहीं चली जातीं? अहिल्या--क्या इस विषय में कुछ कहती थीं?

शंखधर--कहती तो नहीं थीं, पर उनकी इच्छा ऐसी मालूम होती है। क्या इसमें कोई हर्ज है?

अहिल्या ने ऊपरी मन से यह तो कह दिया-हर्ज तो कुछ नहीं, हर्ज क्या है, घर तो मेरा वही है, यहां तो मेहमान हूँ, लेकिन भाव से साफ मालूम होता था कि वह वहां जाना उचित नहीं समझती। शायद वह कह सकती, तो कहती-वहां से तो एक बार निकाल दी गई, अब कौन मुंह लेकर जाऊं? क्या अब मैं कोई दूसरी हो गई हूँ? बालक से यह बात कहनी मुनासिब न थी।

अहिल्या तश्तरी में मिठाइयां और मेवे लाई और एक लौंडी से पानी लाने को कहकर बेटे से बोली-वहां तो कुछ जलपान न किया होगा, खा लो। आज तुम इतने उदास क्यों हो?

शंखधर ने तश्तरी की ओर बिना देखे ही कहा--इस वक्त तो खाने का जी नहीं चाहता, अम्मां !

एक क्षण के बाद उसने कहा--क्यों अम्मांजी, बाबूजी को हम लोगों की याद भी कभी आती होगी?

अहिल्या ने सजल नेत्र होकर कहा--क्या जाने बेटा, याद आती तो काले कोसों बैठे रहते। शंखधर--क्या वह बड़े निष्ठुर हैं, अम्मां? अहिल्या रो रही थी, कुछ न बोल सकी।

शंखधर--मुझे देखें, तो पहचान जाएं कि नहीं, अम्मांजी? अहिल्या फिर भी कुछ न बोली-उसका कंठ-स्वर अश्रुप्रवाह में डूबा जा रहा था।

शंखधर ने फिर कहा--मुझे तो मालूम होता है अम्मांजी, कि वह बहुत ही निर्दयी हैं, इसी से उन्हें हम लोगों का दुःख नहीं जान पड़ा। अगर वह भी इसी तरह रोते, तो जरूर आते। मुझे एक दफा मिल जाते, तो मैं उन्हें कायल कर देता। आप न जाने कहाँ बैठे हैं, किसी का क्या हाल हो रहा है, इसकी सुधि ही नहीं। मेरा तो कभी-कभी ऐसा चित्त होता है कि देखू तो प्रणाम तक न करूं, कह दूं-आप मेरे होते कौन हैं, आप ही ने तो हम लोगों को त्याग दिया है।

अब अहिल्या चुप न रह सकी, कांपते हुए स्वर में बोली--बेटा, उन्होंने हमें त्याग नहीं दिया है। वहां उनकी जो दशा हो रही होगी, उसे मैं ही जानती हूँ। हम लोगों की याद एक क्षण के लिए भी उनके चित्त से न उतरती होगी। खाने-पीने का ध्यान भी न रहता होगा। हाय ! यह सब मेरा ही दोष है, बेटा ! उनका कोई दोष नहीं।

शंखधर ने कुछ लज्जित होकर कहा--अच्छा अम्मांजी, यदि मुझे देखें, तो वह पहचान जाएं कि नहीं?

अहिल्या--तुझे? मैं तो जानती हूँ, न पहचान सकें। तब तू बिल्कुल जरा-सा बच्चा था। आज उनको गए दसवां साल है। न जाने कैसे होंगे। मैं तो तुम्हें देख-देखकर जीती हूँ, वह किसको देखकर दिल को ढाढ़स देते होंगे। भगवान् करें, जहां रहें, कुशल से रहें। बदा होगा, तो कभी भेंट हो ही जाएगी।

शंखधर अपनी ही धुन में मस्त था, उसने यह बातें सुनी ही नहीं। बोला-लेकिन अम्मांजी, मैं तो उन्हें देखकर फौरन पहचान जाऊं। वह जाने किसी भेष में हों, मैं पहचान लूंगा।

अहिल्या--नहीं बेटा, तुम भी उन्हें न पहचान सकोगे। तुमने उनकी तस्वीरें ही देखी हैं। ये तस्वीरें बारह साल पहले की हैं। फिर उन्होंने केश भी बढ़ा लिए होंगे।

शंखधर ने कुछ जवाब न दिया। बगीचे में जाकर दीवारों को देखता रहा। फिर अपने कमरे में आया और चुपचाप बैठकर सोचने लगा। उसका मन भक्ति और उल्लास से भरा हुआ था। क्या मैं ऐसा बहुत छोटा हूँ? मेरा तेरहवां साल है। छोटा नहीं हूँ। इसी उम्र में कितने ही आदमियों ने बड़े-बड़े काम कर डाले हैं। मुझे करना ही क्या है? दिन भर गलियों में घूमना और संध्या समय कहीं पड़ रहना। यहां लोगों की क्या दशा होगी, इसकी उसे चिंता न थी। राजा साहब पागल हो जाएंगे, मनोरमा रोते-रोते अंधी हो जाएगी, अहिल्या शायद प्राण देने पर उतारू हो जाए , इसकी उसे इस वक्त बिल्कुल फिक्र न थी। वह यहां से भाग निकलने के लिए विकल हो रहा था।

एकाएक उसे खयाल आया, ऐसा न हो कि लोग मेरी तलाश में निकलें, थाने में हुलिया लिखाएं, खुद भी परेशान हों, मुझे भी परेशान करें, इसीलिए उन्हें इतना बतला देना चाहिए कि मैं कहाँ और किस काम के लिए जा रहा हूँ। अगर किसी ने मुझे जबरदस्ती लाना चाहा, तो अच्छा न होगा। हमारी खुशी है, जब चाहेंगे आएंगे, हमारा राज्य तो कोई नहीं उठा ले जाएगा। उसने एक कागज पर यह पत्र लिखा और अपने बिस्तरे पर रख दिया--

'सबको प्रणाम्, मेरा कहा--सुना माफ कीजिएगा। मैं आज अपनी खुशी से पिताजी को खोजने जाता हूँ। आप लोग मेरे लिए जरा भी चिंता न कीजिएगा, न मुझे खोजने के लिए ही आइएगा, क्योंकि मैं किसी भी हालत में बिना पिताजी का पता लगाए न आऊंगा। जब तक एक बार दर्शन न कर लूं और पूछ न लूं कि मुझे किस तरह से जिंदगी बसर करनी चाहिए, तब तक मेरा जीना व्यर्थ है। मैं पिताजी को अपने साथ लाने की चेष्टा करूंगा। या तो उनके दर्शनों से कृतार्थ होकर लौटंगा या इसी उद्योग में प्राण दे दूंगा। अगर मेरे भाग्य में राज्य करना लिखा है, तो राज्य करूंगा, भीख मांगना लिखा है, तो भीख मांगूंगा, लेकिन पिताजी के चरणों की रज माथे पर बिना लगाए, उनकी कुछ सेवा किए बिना मैं घर न लौटूंगा। मैं फिर कहता हूँ कि मुझे वापस लाने की कोई चेष्टा न करे, नहीं तो मैं वहीं प्राण दे दूंगा। मेरे लिए यह कितनी लज्जा की बात है कि मेरे पिताजी तो देश-विदेश मारे-मारे फिरें और मैं चैन करूं। यह दशा अब मुझसे नहीं सही जाती। कोई यह न समझे कि मैं छोटा हूँ, भूल-भटक जाऊंगा। मैंने ये सारी बातें अच्छी तरह सोच ली हैं। रुपए पैसे की भी मुझे जरूरत नहीं। अम्मांजी, मेरी आपसे यही प्रार्थना है कि आप दादाजी की सेवा कीजिएगा, और समझाइएगा कि वह मेरे लिए चिंता न करें। रानी अम्मां को प्रणाम, बाबाजी को प्रणाम।'

आधी रात बीत चुकी थी। शंखधर एक कुर्ता पहने हुए कमरे से निकला। बगल के कमरे में राजा साहब आराम कर रहे थे। वह पिछवाड़े की तरफ बाग में गया और एक अमरूद के पेड़ पर चढ़कर बाहर की तरफ कूद पड़ा। अब उसके सिर पर तारिकामंडित नीला आकाश था, सामने विस्तृत मैदान और छाती में उल्लास, शंका और आशा से धड़कता हुआ हृदय। वह बड़ी तेजी से कदम बढ़ाता हुआ चला; कुछ नहीं मालूम कि किधर जा रहा है, तकदीर कहाँ लिए जाती है।

ऐसी ही अंधेरी रात थी, जब चक्रधर ने इस घर से गुप्त रूप से प्रस्थान किया था। आज भी वही अंधेरी रात है, और भागने वाला चक्रधर का आत्मज है। कौन जानता है, चक्रधर पर क्या बीती? शंखधर पर क्या बीतेगी, इसे भी कौन जान सकता है? इस घर में उसे कौन-सा सुख नहीं था? उसके मुख से कोई बात निकलने भर की देर थी, पूरा होने में देर न थी। क्या ऐसी भी कोई वस्तु है, जो इस ऐश्वर्य, भोग-विलास और राजपाट से प्यारी है?

अभागिनी अहिल्या ! तू पड़ी सो रही है। एक बार तूने अपना प्यारा पति खोया और अभी तक तेरी आंखों में आंसू नहीं थमे। आज फिर तू अपना प्यारा पुत्र, अपना प्राणाधार, अपना दुखिया का धन खोए देती है। जिस संपत्ति के निमित्त तूने अपने पति की उपेक्षा की थी, वही संपत्ति क्या आज तुझे अजीर्ण नहीं हो रही है?

इकतालीस

पांच वर्ष व्यतीत हो गए! पर न शंखधर का कहीं पता चला, न चक्रधर का। राजा विशालसिंह ने दया और धर्म को तिलांजलि दे दी है और खूब दिल खोलकर अत्याचार कर रहे हैं। दया और धर्म से जो कुछ होता है, उसका अनुभव करके अब वह यह अनुभव करना चाहते हैं कि अधर्म और अविचार से क्या होता है। रियासत में धर्मार्थ जितने काम होते थे, वे सब बंद कर दिए गए हैं। मंदिरों में दिया नहीं जलता, साधु-संत द्वार से खड़े-खड़े निकाल दिए जाते हैं और प्रजा पर नाना प्रकार के अत्याचार किए जा रहे हैं। उनकी फरियाद कोई नहीं सुनता। राजा साहब को किसी पर दया नहीं आती। अब क्या रह गया है, जिसके लिए वह धर्म का दामन पकड़ें? वह किशोर अब कहाँ है, जिसके दर्शन मात्र से हृदय में प्रकाश का उदय हो जाता था? वह जीवन और मृत्यु की सभी आशाओं का आधार कहाँ चला गया? कुछ पता नहीं। यदि विधाता ने उनके ऊपर यह निर्दय आघात किया है, तो वह भी उसी के बनाए हुए मार्ग पर चलेंगे। इतने प्राणियों में केवल एक मनोरमा है, जिसने अभी तक धैर्य का आश्रय नहीं छोड़ा, लेकिन उसकी अब कोई नहीं सुनता। राजा साहब अब उसकी सूरत भी नहीं देखना चाहते। वह उसी को सारी विपत्ति का मूल कारण समझते हैं। वही मनोरमा, जो उनकी हृदयेश्वरी थी, जिसके इशारे पर रियासत चलती थी, अब भवन में भिखारिन की भांति रहती है, कोई उसकी बात तक नहीं पूछता। वह इस भीषण अंधकार में अब भी दीपक की भांति जल रही है। पर उसका प्रकाश केवल अपने ही तक रह जाता है, अंधकार में प्रसारित नहीं होता।

आह अबोध बालक ! अब तूने देखा कि जिस अभीष्ट के लिए तूने जीवन की सभी आकांक्षाओं का परित्याग कर दिया, वह कितना असाध्य है ! इस विशाल प्रदेश में जहां तीस करोड़ प्राणी बसते हैं, तू एक प्राणी को कैसे खोज पाएगा? कितना अबोध साहस था, बालोचित सरल उत्साह की कितनी अलौकिक लीला !

संध्या हो गई। सूर्यदेव पहाड़ियों की आड़ में छिप गए हैं, इसीलिए संध्या से पहले ही अंधेरा हो चला है। रमणियां जल भरने के लिए कुएं पर आ गई हैं। इसी समय एक युवक हाथ में एक खंजरी लिए, आकर कुएं की जगत पर बैठ गया। यही शंखधर है। उसके वर्ण, रूप और वेश में इतना परिवर्तन हो गया है कि शायद अहिल्या भी उसे देखकर चौंक पड़ती। यह वह तेजस्वी किशोर नहीं, उसकी छाया मात्र है। उसका मांस गल गया है, केवल अस्थिपंजर मात्र रह गया है, मानो किसी भयंकर रोग से ग्रस्त रहने के बाद उठा हो। मानसिक ताप, वेदना और विषाद की उसके मुख पर एक ऐसी गहरी रेखा है कि मालूम होता है, उसके प्राण अब निकलने के लिए अधीर हो रहे हैं। उसकी निस्तेज आंखों में आकांक्षा और प्रतीक्षा की झलक की जगह अब घोर नैराश्य प्रतिबिंबित हो रहा था-वह नैराश्य जिसका परितोष नहीं। वह सजीव प्राणी नहीं, किसी अनाथ का रोदन या किसी वेदना की प्रतिध्वनि मात्र है। पांच वर्ष के कठोर जीवन-संग्राम ने उसे इतना हताश कर दिया है कि कदाचित् इस समय अपने उपास्यदेव को सामने देखकर भी उसे अपनी आंखों पर विश्वास न आएगा।

एक रमणी ने उसकी ओर देखकर पूछा--कहाँ से आते हो परदेशी, बीमार मालूम होते हो?

शंखधर ने आकाश की ओर अनिमेष नेत्रों से देखते हुए कहा--बीमार तो नहीं हूँ माता, दूर से आते-आते थक गया हूँ।

यह कहकर उसने अपनी खंजरी उठा ली और उसे बजाकर यह पद गाने लगा-

बहुत दिनों तक मौन-मंत्र

मन-मंदिर में जपने के बाद।

पाऊंगी जब उन्हें प्रतीक्षा

के तप में तपने के बाद।

ले तब उन्हें अंक में नयनों

के जल से नहलाऊंगी।

सुमन चढ़ाकर प्रेम पुजारिन

"मैं उनकी कहलाऊंगी।

ले अनुराग आरती उनकी

तभी उतारूंगी सप्रेम।

स्नेह सुधा नैवेद्य रूप में

सम्मुख रक्खूगी कर प्रेम।

ले लूंगी वरदान भक्ति-वेदी

पर बलि हो जाने पर।

साध तभी मन की साधूंगी

प्राणनाथ के आने पर।

इस क्षीणकाय युवक के कंठ में इतना स्वर-लालित्य, इतना विकल अनुराग था कि रमणियां चित्रवत् खड़ी रह गईं। कोई कुएं में कलसा डाले हुए उसे खींचना भूल गई, कोई कलसे से रस्सी का फंदा लगाते हुए उसे कुएं में डालना भूल गई और कोई कूल्हे पर कलसा रखे आगे बढ़ना भूल गई-सभी मंत्र-मुग्ध-सी हो गईं। उनकी हृदय वीणा से भी वही अनुरक्त ध्वनि निकलने लगी।

एक युवती ने पूछा--बाबाजी, अब तो बहुत देर हो गई है; यहीं ठहर जाओ न। आगे तो बहुत दूर तक कोई गांव नहीं है।

शंखधर--आपकी इच्छा है माता, तो यहीं ठहर जाऊंगा। भला, माताजी, यहां कोई महात्मा तो नहीं रहते?

युवती--नहीं, यहां तो कोई साधु-संत नहीं हैं। हां, देवालय है।

दूसरी रमणी ने कहा--अभी कई दिन हुए, एक महात्मा आकर टिके थे, पर वह साधुओं के वेश में न थे। वह यहां एक महीने भर रहे। तुम एक दिन पहले यहां आ जाते, तो उनके दर्शन हो जाते।

एक वृद्धा बोली--साधु-संत तो बहुत देखे, पर ऐसा उपकारी जीव नहीं देखा। तुम्हारा घर कहाँ है, बेटा?

शंखधर--कहाँ बताऊं माता, यों ही घूमता-फिरता हूँ।

वृद्धा--अभी तुम्हारे माता-पिता हैं न, बेटा?

शंखधर--कुछ मालूम नहीं, माता ! पिताजी तो बहुत दिन हुए, कहीं चले गए। मैं तब दो-तीन वर्ष का था। माताजी का हाल नहीं मालूम।

वृद्धा--तुम्हारे पिता क्यों चले गए? तुम्हारी माता से कोई झगड़ा हुआ था?

शंखधर--नहीं माताजी, झगड़ा तो नहीं हुआ। गृहस्थी के माया-मोह में नहीं पड़ना चाहते

थे।

वृद्धा--तो तुम्हें घर छोड़े कितने दिन हुए?

शंखधर--पांच साल हो गए, माता ! पिताजी को खोजने निकल पड़ा था, पर अब तक कहीं पता नहीं चला।

एक युवती ने अपनी सहेली के कंधे से मुंह छिपाकर कहा--इनका ब्याह तो हो गया होगा?

सहेली ने उसे कुछ उत्तर न दिया। वह शंखधर के मुंह की ओर ध्यान से देख रही थी। सहसा उसने वृद्धा से कहा--अम्मां, इनकी सूरत महात्मा से मिलती है कि नहीं, कुछ तुम्हें दिखाई देता है?

वृद्धा--हां रे, कुछ-कुछ मालूम तो होता है। (शंखधर से) क्यों बेटा, तुम्हारे पिताजी की क्या अवस्था होगी?

शंखधर--चालीस वर्ष के लगभग होगी और क्या।

वृद्धा--आंखें खूब बड़ी-बड़ी हैं?

शंखधर--हां, माताजी, उतनी बड़ी आंखें तो मैंने किसी की देखी ही नहीं।

वृद्धा--लंबे-लंबे गोरे आदमी हैं?

शंखधर का हृदय धक-धक करने लगा। बोला--हां माताजी, उनका रंग बहुत गोरा है। वृद्धा--अच्छा, दाहिनी ओर माथे पर किसी चोट का दाग है?

शंखधर--हो सकता है, माताजी मैंने तो केवल उनका चित्र देखा है। मुझे तो वह दो वर्ष का छोड़कर घर से निकल गए थे।

वृद्धा--बेटा, जिन महात्मा की मैंने तुमसे चर्चा की है, उनकी सूरत तुमसे बहुत मिलती है। शंखधर--माता, कुछ बता सकती हो, वह यहां से किधर गए?

वृद्धा--यह तो कुछ नहीं कह सकती, पर वह उत्तर ही की ओर गए हैं। तुमसे क्या कहूँ बेटा, मुझे तो उन्होंने प्राणदान दिया है, नहीं तो अब तक मेरा न जाने क्या हाल होता! नदी में स्नान करने गई थी। पैर फिसल गया। महात्माजी तट पर बैठे ध्यान कर रहे थे। डुबकियां खाते देखा, तो चट पानी में तैर गए और मुझे निकाल लाए। वह न निकालते, तो प्राण जाने में कोई संदेह न था। महीने भर यहां रहे। इस बीच में कई जानें बचाईं। कई रोगियों को तो मौत के मुंह से निकाल लिया !

शंखधर ने कांपते हुए हृदय से पूछा--उनका नाम क्या था, माताजी?

वृद्धा--नाम तो उनका था भगवानदास, पर यह उनका असली नाम नहीं मालूम होता था, असली नाम कुछ और ही था।

एक युवती ने कहा--यहां उनकी तस्वीर भी तो रखी हुई है!

वृद्धा--हां बेटा, इसकी तो हमें याद ही नहीं रही थी। इस गांव का एक आदमी बंबई में तस्वीर बनाने का काम करता है। वह यहां उन दिनों आया हुआ था। महात्माजी तो नहीं-नहीं करते रहे, पर उसने झट से अपनी डिबिया खोलकर उनकी तस्वीर उतार ही ली। न जाने उस डिबिया में क्या जादू है कि जिसके सामने खोल दो, उसकी तस्वीर उसके भीतर खिंच जाती है। शंखधर का हृदय शतगुण वेग से धड़क रहा था। बोले-जरा वह तस्वीर मुझे दिखा दीजिए, आपकी बड़ी कृपा होगी।

युवती लपकी हुई घर गई और एक क्षण में तस्वीर लिए हुए लौटी ! आह ! शंखधर की इस समय विचित्र दशा थी ! उसकी हिम्मत न पड़ी कि तस्वीर देखे। कहीं यह चक्रधर की तस्वीर न हो ! अगर उन्हीं की तस्वीर हुई, तो शंखधर क्या करेगा? वह अपने पैरों पर खड़ा रह सकेगा? उसे मूर्छा तो न आ जाएगी। अगर यह वास्तव में चक्रधर ही का चित्र है, तो शंखधर के सामने एक नई समस्या खड़ी हो जाएगी। उसे अब क्या करना होगा? अब तक वह एक निश्चित मार्ग पर चलता आया था, लेकिन अब उसे एक ऐसे मार्ग पर चलना पड़ेगा, जिससे वह बिल्कुल परिचित न था। क्या वह चक्रधर के पास जाएगा? जाकर क्या कहेगा? उसे देखकर वह प्रसन्न होंगे या सामने से दतकार देंगे? उसे वह पहचान भी सकेंगे? कहीं पहचान लिया और उससे अपना पीछा छुड़ाने के लिए कहीं और चले गए तो?

सहसा वृद्धा ने कहा--देखो बेटा ! यह तस्वीर है।

शंखधर ने दोनों हाथों से हृदय को संभालते हुए तस्वीर पर एक भय-कपित दृष्टि डाली और पहचान गया। हां, चक्रधर ही की तस्वीर थी। उसकी देह शिथिल पड़ गई, हृदय का धड़कना शांत हो गया। आशा, भय, चिंता और अस्थिरता से व्यग्र होकर वह हतबुद्धि-सा खडा रह गया, मानो किसी पुरानी बात को याद कर रहा है।

वृद्धा ने उत्सुकता से पूछा--बेटा कुछ पहचान रहे हो?

शंखधर ने कुछ उत्तर न दिया।

वृद्धा ने फिर पूछा--चुप कैसे हो भैया, तुमने अपने पिताजी की जो सूरत देखी है, उससे यह तस्वीर कुछ मिलती है?

शंखधर ने अब भी कुछ उत्तर न दिया, मानो उसने कुछ सुना ही नहीं।

सहसा उसने निद्रा से जागे हुए मनुष्य की भांति पूछा--वह उधर उत्तर ही की ओर गए हैं? आगे कोई गांव पड़ेगा?

वृद्धा--हां, बेटा, पांच कोस पर गांव है! भला-सा उसका नाम है, हां साईंगंज, साईंगंज, लेकिन आज तो तुम यहीं रहोगे?

शंखधर ने केवल इतना कहा--नहीं माता, आज्ञा दीजिए, और खंजरी उठाकर चल खड़ा हुआ। युवतियां ठगी-सी खड़ी रह गईं। जब तक वह निगाहों से छिप न गया, सबकी सब उसकी ओर टकटकी लगाए ताकती रहीं, लेकिन शंखधर ने एक बार भी पीछे फिरकर न देखा।

सामने गगनचुंबी पर्वत अंधकार में विशालकाय राक्षस की भांति खड़ा था। शंखधर बड़ी तीव्र गति से पतली पगडंडी पर चला जा रहा था। उसने अपने आपको उसी पगडंडी पर छोड़ दिया है। वह कहाँ ले जाएगी, वह नहीं जानता। हम भी इस जीवन रूपी पतली मिटी-मिटी पगडंडी पर क्या उसी भांति तीव्र गति से दौड़े नहीं चले जा रहे हैं? क्या हमारे सामने उनसे भी ऊंचे अंधकार के पर्वत नहीं खड़े हैं?

बयालीस

रात्रि के उस अगम्य अंधकार में शंखधर भागा चला जा रहा था! उसके पैर पत्थर के टुकड़ों से चलनी हो गए थे। सारी देह थककर चूर हो गई थी, भूख के मारे आंखों के सामने अंधेरा छाया जाता था, प्यास के मारे कंठ में कांटे पड़ रहे थे, पैर कहीं रखता था, पड़ते कहीं थे, पर वह गिरतापडता भागा चला जाता था। अगर वह प्रात:काल तक साईंगंज न पहुंचा, तो संभव है, चक्रधर कहीं चले जाएं, और फिर उस अनाथ की पांच साल की मेहनत और दौड़-धूप पर पानी न फिर जाए । सूर्य निकलने के पहले उसे वहां पहुँच जाना था, चाहे इसमें प्राण ही क्यों न चले जाएं।

हिंस्र पशुओं का भयंकर गर्जन सुनाई देता था, अंधेरे में खड्ड और खाई का पता न चलता था, पर उसे अपने प्राणों की चिंता न थी। उसे केवल धुन थी-"मुझे सूर्योदय से पहले साईंगंज पहुँच जाना चाहिए।"। आह ! लाड़-प्यार में पले हुए बालक, तुझे मालूम नहीं कि तू कहाँ जा रहा है ! साईंगंज की राह भूल गया। इस मार्ग से तू और जहां चाहे पहुँच जाए , पर साईंगंज नहीं पहुँच सकता।

गगन मंडल पर ऊषा का लोहित प्रकाश छा गया। तारागण किसी थके हुए पथिक की भांति अपनी उज्ज्वल आंखें बंद करके विश्राम करने लगे। पक्षीगण वृक्षों पर चहकने लगे, पर साईंगंज का कहीं पता न चला।

सहसा एक बहुत दूर की पहाड़ी पर कुछ छोटे-छोटे मकान बालिकाओं के घरौंदे की तरह दिखाई दिए। दो-चार आदमी भी गुड़ियों के सदृश चलते-फिरते नजर आए। वह साईंगंज आ गया। शंखधर का कलेजा धक-धक करने लगा। उसके जीर्ण-शरीर में अद्भुत स्फूर्ति का संचार हो गया, पैरों में न जाने कहाँ से दुगुना बल आ गया। वह और वेग से चला। वह सामने मुसाफिर की मंजिल है। वह उसके जीवन का लक्ष्य दिखाई दे रहा है ! वह इसके जीवन यज्ञ की पूर्णाहुति है! आह ! भ्रांत बालक! वह साईंगंज नहीं है।

पहाड़ी की चढ़ाई कठिन थी ! शंखधर को ऊपर चढ़ने का रास्ता न मालूम था, न कोई आदमी ही दिखाई देता था, जिससे रास्ता पूछ सके। वह कमर बांधकर चढ़ने लगा।

गांव के एक आदमी ने ऊपर से आवाज दी-इधर से कहाँ आते हो, भाई? रास्ता तो पश्चिम की ओर से है! कहीं पैर फिसल जाए , तो दो सौ हाथ नीचे जाओ।

लेकिन शंखधर को इन बातों के सुनने की फुरसत कहाँ थी? वह इतनी तेजी से ऊपर चढ़ रहा था कि उस आदमी को आश्चर्य हो गया। दम के दम में वह ऊपर पहुँच गया।

किसान ने शंखधर को सिर से पांव तक कुतूहल से देखकर कहा--देखने में तो एक हड्डी के आदमी हो, पर हो बड़े हिम्मती। इधर से आने की आज तक किसी की हिम्मत नहीं पड़ती थी। कहाँ घर है?

शंखधर ने दम लेकर कहा--बाबा भगवानदास अभी यही हैं न?

किसान--कौन बाबा भगवानदास? यहां तो वह नहीं आए। तुम कहाँ से आते हो?

शंखधर--बाबा भगवानदास को नहीं जानते? वह इसी गांव में तो आए हैं। साईंगंज यही है न?

किसान--साईंगंज! अ-र-र! साईंगंज तो तुम पूरब छोड़ आए। इस गांव का नाम बेंदो है। शंखधर ने हताश होकर कहा--तो साईंगंज यहां से कितनी दूर है?

किसान--साईंगंज तो पड़ेगा यहां से कोई पांच कोस, मगर रास्ता बहुत बीहड़ है। शंखधर कलेजा थामकर बैठ गया ! पांच कोस की मंजिल, उस पर रास्ता बीहड़। उसने आकाश की ओर एक बार नैराश्य में डूबी हुई आंखों से देखा और सिर झुकाकर सोचने लगा-यह अवसर फिर हाथ न आएगा ! अगर आराध्य देव के दर्शन आज न किए, तो फिर न कर सकंगा। सारा जीवन दौड़ते ही बीत जाएगा। भोजन करने का समय नहीं और विश्राम करने का समय भी नहीं। बैठने का समय फिर आएगा। आज या तो इस तपस्या का अंत हो जाएगा, या इस जीवन का ही ! वह उठा खड़ा हुआ।

किसान ने कहा--क्या चल दिए, भाई? चिलम-विलम तो पी लो।

लेकिन शंखधर इसके पहले ही चल चुका था। वह कुछ नहीं देखता, कुछ नहीं सुनता, चपचाप किसी अंध शक्ति की भांति चला जा रहा है। वसंत का शीतल एवं सुगंध से लदा हुआ समीर पुत्र-वत्सला माता की भांति वृक्षों को हिंडोले में झुला रहा है, नवजात पल्लव उसकी गोद में मुस्कराते और प्रसन्न हो-होकर ठुमकते हैं, चिड़ियां उन्हें गा-गाकर लोरियां सुना रही हैं, सूर्य की स्वर्णमयी किरणें उनका चुम्बन कर रही हैं। सारी प्रकृति वात्सल्य के रंग में डूबी हुई है, केवल एक ही प्राणी अभागा है, जिस पर इस प्रकृति-वात्सल्य का जरा भी असर नहीं वह शंखधर है।

शंखधर सोच रहा है, अब की फिर कहीं रास्ता भूला, तो सर्वनाश ही हो जाएगा। तब वह समझ जाएगा, मेरा जीवन रोने ही के लिए बनाया गया है। रोदन-अनंत रोदन ही उसका काम है। अच्छा, कहीं पिताजी मिल गए? उनके सम्मुख वह जा भी सकेगा या नहीं? वह उसे देखकर क्रुद्ध तो न होंगे? जिसे दिल से भुला देने के लिए ही उन्होंने यह तपस्या व्रत लिया है, उसे सामने देखकर वह प्रसन्न होंगे?

अच्छा, वह उनसे क्या कहेगा? अवश्य ही उनसे घर चलने का अनुरोध करेगा। क्या माता की दारुण दशा पर उन्हें दया न आएगी? क्या जब वह सुनेंगे कि रानी अम्मां गलकर कांटा हो गई हैं, नानाजी रो रहे हैं, दादीजी रात-दिन रोया करती हैं, तो क्या उनका हृदय द्रवित न हो जाएगा? वह हृदय, जो पर दुःख से पीड़ित होता है, क्या अपने घर वालों के दुःख से दुखी न होगा? जब वह नयनों में अश्रुजल भरे उनके चरणों पर गिरकर कहेगा कि अब घर चलिए, तो क्या उन्हें उस पर दया न आएगी? अम्मां कहती हैं, वह मुझे बहुत प्यार करते थे, क्या अपने प्यारे पुत्र की यह दयनीय दशा देखकर उनका हृदय मोम न हो जाएगा? होगा क्यों नहीं? वह जाएंगे कैसे नहीं? उन्हें वह खींचकर ले जाएगा। अगर वह उसके साथ न आएंगे, तो वह भी लौटकर घर न जाएगा, उन्हीं के साथ रहेगा, उनकी ही सेवा में रहकर अपना जीवन सफल करेगा।

इन्हीं कल्पनाओं में डूबा हुआ वह अंधकार पर धावा मारे चला जा रहा था। रास्ते में जो मिलता, उससे वह पूछता, साईंगंज कितनी दूर है? जवाब मिलता-बस, साईंगंज ही है लेकिन जब आगे वाली बस्ती में पहुँचकर पूछता-क्या यही साईंगंज है, तो फिर यही जवाब मिलताबस, आगे साईंगंज है। आखिर दोपहर होते-होते उसे दूर से एक मंदिर का कलश दिखाई दिया ! एक चरवाहे से पूछा-यह कौन गांव है? उसने कहा-साईंगंज। साईंगंज आ गया ! वह गांव, जहां उसकी किस्मत का फैसला होने वाला था, जहां इस बात का निश्चय होगा कि वह राजा बनकर राज्य करेगा या रंक बनकर भीख मांगेगा।

लेकिन ज्यों-ज्यों गांव निकट आता था, शंखधर के पांव सुस्त पड़ते जाते थे। उसे यह शंका होने लगी कि वह यहां से चले न गए हों। अब उनसे भेंट न होगी। वह इस शंका को कितना ही दिल से निकालना चाहता था, पर वह अपना आसन न छोड़ती थी।

अच्छा ! अगर उनसे यहां भेंट न हुई, तो क्या वह और आगे जा सकेगा? नहीं, अब उससे एक पग भी न चला जाएगा। अगर भेंट होगी, तो यहीं होगी, नहीं तो फिर कौन जाने क्या होगा। अच्छा, अगर भेंट हुई और उन्होंने उसे पहचान लिया तो? पहचान कर वह उसकी ओर से मुंह फेर लें तो? तब वह क्या करेगा? उस दशा में क्या वह उनके पैरों पड़ सकेगा? उनके सामने रो सकेगा, अपनी विपत्ति-कथा कह सकेगा? कभी नहीं। उसका आत्मसम्मान उसकी जबान पर मुहर लगा देगा। वह फिर एक शब्द भी मुंह से न निकाल सकेगा। आंसू की एक बूंद भी क्या उसकी आंखों से निकलेगी? वह जबर्दस्ती उनसे आत्मीयता न जताएगा, 'मान न मान, मैं तेरा मेहमान' न बनेगा। तो क्या वह इतने निर्दयी, इतने निष्ठुर हो जाएंगे? नहीं, वह ऐसे नहीं हो सकते। हां, यह हो सकता है कि उन्होंने कर्त्तव्य का जो आदर्श अपने सामने रखा है और जिस नि:स्वार्थ कर्म के लिए राजपाट को त्याग दिया है, वह उनके मनोभावों को जबान पर न आने दे, अपने प्रिय को हृदय से लगाने के लिए विकल होने पर भी छाती पर पत्थर की शिला रखकर उसकी ओर से मुंह फेर लें। तो क्या इस दशा में उसका उनके पास जाना, उन्हें इतनी कठिन परीक्षा में डालना, उन्हें आदर्श से हटाने की चेष्टा करना उचित है? कुछ भी हो, इतनी दूर आकर अब उनके दर्शन किए बिना वह न लौटेगा। उसने ईश्वर से प्रार्थना की कि वह उसे पहचान न सकें। वह अपने मुंह से एक शब्द भी ऐसा न निकालेगा, जिससे उन्हें उसका परिचय मिल सके। वह उसी भांति दूर से उनके दर्शन करके अपने को कृतार्थ समझेगा, जैसे उनके और भक्त करते हैं।

साईंगंज दिखाई देने लगा। स्त्री-पुरुष खेतों में अनाज काटते नजर आने लगे। अब वह गांव के डांड़ पर पहुँच गया। कई आदमी उसके सामने से होकर निकल भी गए, पर उसने किसी से कुछ नहीं पूछा। अगर किसी ने कह दिया-बाबाजी हैं, तो वह क्या करेगा? इसी असमंजस में पड़ा हुआ वह मंदिर के सामने चबूतरे पर बैठ गया। सहसा मंदिर में से एक आदमी को निकलते देखकर वह चौंक पड़ा, अनिमेष नेत्रों से उसकी ओर एक क्षण देखा, फिर उठा कि उस पुरुष के चरणों पर गिर पड़े, पर पैर थरथरा गए। मालूम हुआ, कोई नदी उसकी ओर बही चली आती है-वह मूर्छित होकर गिर पड़ा।

वह पुरुष कौन था? वही जिसकी मूर्ति उसके हृदय में बसी हुई थी, जिसका वह उपासक था।

तैंतालीस

अभागिनी अहिल्या के लिए संसार सूना हो गया। पति को पहले ही खो चुकी थी। जीवन का एकमात्र आधार पुत्र रह गया था, उसे भी खो बैठी। अब वह किसका मुंह देखकर जिएगी। वह राज्य उसके लिए किसी ऋषि का अभिशाप हो गया। पति और पुत्र को पाकर अब वह टूटे-फूटे झोंपड़े में कितने सुख से रहेगी। तृष्णा का उसे बहुत दंड मिल चुका। भगवान्, इस अनाथिनी पर दया करो! अहिल्या को अब वह राजभवन फाड़े खाता था। वह अब उसे छोड़कर कहीं चली जाना चाहती थी। कोई सड़ा-गला झोंपड़ा, किसी वृक्ष की छांह, पर्वत की गुफा, किसी नदी का तट उसके लिए इस भवन से सहस्रों गुना अच्छा था। वे दिन कितने अच्छे थे, जब वह अपने स्वामी के साथ पुत्र को हृदय से लगाए एक छोटे से मकान में रहती थी। वे दिन फिर न आएंगे। वह मनहूस घड़ी थी, जब उसने इस भवन में कदम रखा था। वह क्या जानती थी कि इसके लिए उसे अपने पति और पुत्र से हाथ धोना पड़ेगा? आह ! जब उसका पति जाने लगा, तो वह भी उसके साथ ही क्यों न चली गई? रह-रहकर उसको अपनी भोग-लिप्सा पर क्रोध आता था, जिसने उसका सर्वनाश कर दिया था। क्या उस पाप का कोई प्रायश्चित नहीं है? क्या इस जीवन में स्वामी के दर्शन न होंगे? अपने प्रिय पुत्र की मोहिनी मूर्ति फिर वह न देख सकेगी? कोई ऐसी युक्ति नहीं है?

राजभवन अब भूतों का डेरा हो गया है। उसका अब कोई स्वामी नहीं रहा। राजा साहब अब महीनों नहीं आते। वह अधिकतर इलाके ही में घूमते रहते हैं। उनके अत्याचार की कथाएं सुनकर लोगों के रोएं खड़े हो जाते हैं। सारी रियासत में हाहाकार मचा हुआ है। कहीं किसी गांव में आग लगाई जाती है, किसी गांव में कुएं भ्रष्ट किए जाते हैं। राजा साहब को किसी पर दया नहीं। उनके सारे सद्भाव शंखधर के साथ चले गए। विधाता ने अकारण ही उन पर इतना कठोर आघात किया है। वह उस आघात का बदला दूसरों से ले रहे हैं। जब उनके ऊपर किसी को दया नहीं आती, तो वह किसी पर क्यों दया करें? अगर ईश्वर ने उनके घर में आग लगाई है, तो वह भी दूसरों के घर में आग लगाएंगे। ईश्वर ने उन्हें रुलाया है, तो वह दूसरों को रुलाएंगे। लोगों को ईश्वर की याद आती है, तो उनकी धर्मबुद्धि जागृत हो जाती है, लेकिन किन लोगों की? जिनके सर्वनाश में कुछ कसर रह गई हो, जिनके पास रक्षा करने के योग्य कोई वस्तु रह गई हो, लेकिन जिसका सर्वनाश हो चुका है, उसे किस बात का डर?

अब राजा साहब के पास जाने का किसी को साहस नहीं होता। मनोरमा को देख-देखकर तो वह जामे से बाहर हो जाते हैं। अहिल्या भी उनसे कुछ कहते हुए थर-थर कांपती है। अपने प्यारों को खोजने के लिए वह तरह-तरह के मनसूबे बांधा करती है, लेकिन कहे किससे? उसे ऐसा विदित होता है कि ईश्वर ने उसकी भोग-लिप्सा का यह दंड दिया है। यदि वह अपने पति के घर जाकर इसका प्रायश्चित करे, तो कदाचित् ईश्वर उसका अपराध क्षमा कर दें। उसका डूबता हुआ हृदय इस तिनके के सहारे को जोरों से पकड़े हुए है, लेकिन हाय रे मानव हृदय ! इस घोर विपत्ति में भी मान का भूत सिर से नहीं उतरता। जाना तो चाहती है, लेकिन उसके साथ यह शर्त है कि कोई बुलाए। अगर राजा साहब मुंशीजी से इस विषय में कुछ संकेत कर दें, तो उसके लिए अवश्य बुलावा आ जाए, पर राजा साहब से तो भेंट ही नहीं होती और भेंट भी होती है, तो कुछ कहने की हिम्मत नहीं पड़ती।

इसमें संदेह नहीं कि वह अपने मन की बात मनोरमा से कह देती, तो बहुत आसानी से काम निकल जाता, लेकिन अहिल्या का मन मनोरमा से न पहले कभी मिला था, न अब मिलता था। उससे यह बात कैसे कहती? जो मनोरमा अब गाने-बजाने और सैर-सपाटे में मग्न रहती है, उससे वह अपनी व्यथा कैसे कह सकेगी? वह कहे भी, तो मनोरमा क्यों उसके साथ सहानुभूति करने लगी? वह दिन के दिन और रात की रात पड़ी रोया करती है। मनोरमा कभी भूलकर भी उसकी बात नहीं पूछती, अपने रंग में मस्त रहती है। वह भला, अहिल्या की पीर क्या जानेगी?

तो मनोरमा सचमुच राग-रंग में मस्त रहती है? हां, देखने में तो यही मालूम होता है। लेकिन उसके हृदय पर क्या बीत रही है, यह कौन जान सकता है? वह आशा और नैराश्य, शान्ति और अशान्ति, गंभीरता और उच्छृखलता, अनुराग और विराग की एक विचित्र समस्या बन गई है! अगर वह सचमुच हंसती और गाती है, तो उसके मुख की वह कांति कहाँ है, जो चंद्र को लजाती थी, वह चपलता कहाँ है, जो हिरन को हराती थी ! उसके मुख और उसके नेत्रों को जरा सूक्ष्म दृष्टि से देखो, तो मालूम होगा कि उसकी हंसी उसका आर्तनाद है और उसका राग-प्रेम, मर्मान्तक व्यथा का चिह्न। वह शोक की उस चरम सीमा को पहुँच गई है, जब चिंता और वासना दोनों ही का अंत हो जाता है, लज्जा और आत्मसम्मान का लोप हो जाता है, जब शोक रोग का रूप धारण कर लेता है। मनोरमा ने कच्ची बुद्धि में यौवन जैसा अमूल्य रत्न देकर जो सोने की गुड़िया खरीदी थी, वह अब किसी पक्षी की भांति उसके हाथों से उड़ गई थी। उसने सोचा था, जीवन का वास्तविक सुख धन और ऐश्वर्य में है, किंतु अब बहुत दिनों से उसे ज्ञात हो रहा था कि जीवन का वास्तविक सुख कुछ और ही है, और वह उससे आजीवन वंचित रही। सारा जीवन गुड़िया खेलने ही में कट गया और अंत में वह गुड़िया भी हाथ से निकल गई। यह भाग्य-व्यंग्य रोने की वस्तु नहीं, हंसने की वस्तु है। हम उससे कहीं ज्यादा हंसते हैं, जितना परम आनंद में हंस सकते हैं। प्रकाश जब हमारी सहन-शक्ति से अधिक हो जाता है, तो अंधकार बन जाता है, क्योंकि हमारी आंखें ही बंद हो जाती हैं।

एक दिन अहिल्या का चित्त इतना उद्विग्न हुआ कि वह संकोच और झिझक छोड़कर मनोरमा के पास आ बैठी। मनोरमा के सामने प्रार्थी के रूप में आते हुए उसे जितनी मानसिक वेदना हुई, उसका अनुमान इसी से किया जा सकता है, कि अपने कमरे से यहां तक आने में उसे कम-सेकम दो घंटे लगे। कितनी ही बार द्वार तक आकर लौट गई। जिसकी सदैव अवहेलना की, उसके सामने अब अपनी गरज लेकर जाने में उसे लज्जा आती थी, लेकिन जब भगवान् ने ही गर्व तोड़ दिया था, तो अब झूठी ऐंठ से क्या हो सकता था?

मनोरमा ने उसे देखकर कहा--क्या, रो रही थी, अहिल्या? यों कब तक रोती रहोगी?

अहिल्या ने दीन-भाव से कहा--जब तक भगवान् रुलावें!

कहने को तो अहिल्या ने यह कहा, पर इस प्रश्न से उसका गर्व जाग उठा और वह पछताई कि यहां नाहक आई। उसका मुख तेज से आरक्त हो गया।

मनोरमा ने उपेक्षा-भाव से कहा--तब तो और हंसना चाहिए। जिसमें दया नहीं, उसके सामने रोकर अपना दीदा क्यों खोती हो? भगवान् अपने घर का भगवान् होगा। कोई उसके रुलाने से क्यों रोए? मन में एक बार निश्चय कर लो कि अब न रोऊंगी, फिर देखू कि कैसे रोना आता है !

अहिल्या से अब जब्त न हो सका, बोली--तुम तो जले पर नमक छिड़कती हो, रानीजी! तुम्हारा जैसा हृदय कहाँ से लाऊं? और फिर रोता भी वह है, जिस पर पड़ती है। जिस पर पड़ी ही नहीं, वह क्यों रोएगा?

मनोरमा हंसी--वह हंसी, जो या तो मूर्ख ही हंस सकता है या ज्ञानी ही। बोली-अगर भगवान् किसी को रुलाकर ही प्रसन्न होता है, तब तो वह विचित्र ही जीव है। अगर कोई माता या पिता अपनी संतान को रोते देखकर प्रसन्न हों, तो तुम उसे क्या कहोगी-बोलो? तुम्हारा जी चाहेगा कि ऐसे प्राणी का मुंह न देखू क्या ईश्वर हमसे और तुमसे भी गया-बीता है? आओ, बैठकर गावें। इससे ईश्वर प्रसन्न होगा। वह जो कुछ करता है, सबके भले के लिए करता है। इसलिए जब वह देखता है कि उसे लोग अपना शत्रु समझते हैं, तो उसे दु:ख होता है। तुम अपने पुत्र को इसीलिए तो ताड़ना देती हो कि वह अच्छे रास्ते पर चले। अगर तुम्हारा पुत्र इस बात पर तुमसे रूठ जाए और तुम्हें अपना शत्रु समझने लगे, तो तुम्हें कितना दु:ख होगा? आओ, तुम्हें एक भैरवी सुनाऊं। देखो, मैं कैसा अच्छा गाती हूँ।

अहिल्या ने गाना सुनने के प्रस्ताव को अनसुना करके कहा--माता-पिता संतान को इसीलिए तो ताड़ना देते हैं कि वह बुरी आदतें छोड़ दे, अपने बुरे कामों पर लज्जित हो और उसका प्रायश्चित करे? हमें भी जब ईश्वर ताड़ना देता है, तो उसकी भी यही इच्छा होती है। विपत्ति ताडना ही तो है। मैं भी प्रायश्चित करना चाहती हूँ और आपसे उसके लिए सहायता मांगने आई हूँ। मुझे अनुभव हो रहा है कि यह सारी विडंबना मेरे विलास-प्रेम का फल है, और मैं इसका प्रायश्चित करना चाहती हूँ। मेरा मन कहता है कि यहां से निकलकर मैं अपना मनोरथ पा जाऊंगी। यह सारा दंड मेरी विलासांधता का है। आप जाकर अम्मांजी से कह दीजिए, मुझे बुला लें। इस घर में आकर मैं अपना सुख खो बैठी और इस घर से निकलकर ही उसे पाऊंगी।

मनोरमा को ऐसा मालूम हुआ, मानो उसकी आंखें खुल गईं। क्या वह भी इस घर से निकलकर सच्चे आनंद का अनुभव करेगी? क्या उसे भी ऐश्वर्य-प्रेम ही का दंड भोगना पड़ रहा है? क्या वह सारी अंतर्वेदना इसी विलास प्रेम के कारण है?

उसने कहा--अच्छा, अहिल्या, मैं आज ही जाती हूँ।

इसके चौथे दिन मुंशी वज्रधर ने राजा साहब के पास रुखसती का संदेशा भेजा। राजा साहब इलाके पर थे। संदेशा पाते ही जगदीशपुर आए। अहिल्या का कलेजा धक-धक करने लगा कि राजा साहब कहीं आ न जाएं। इधर-उधर छिपती-फिरती थी कि उनका सामना न हो जाए । उसे मालूम होता था कि राजा साहब ने रुखसती मंजूर कर ली है, पर अब जाने के लिए वह बहुत उत्सुक न थी। यहां से जाना तो चाहती थी, पर जाते दुःख होता था। यहां आए उसे चौदह साल हो गए। वह इसी घर को अपना घर समझने लगी थी। ससुराल उसके लिए बिरानी जगह थी। कहीं निर्मला ने कोई बात कह दी तो वह क्या करेगी? जिस घर से मान करके निकली थी, वहीं अब विवश होकर जाना पड़ रहा था। इन बातों को सोचते-सोचते आखिर उसका दिल इतना घबराया कि वह राजा साहब के पास जाकर बोली-आप मुझे क्यों विदा करते हैं? मैं नहीं जाना चाहती।

राजा साहब ने हंसकर कहा--कोई लड़की ऐसी भी है, जो खुशी से ससुराल जाती हो? और कौन पिता ऐसा है, जो लड़की को खुशी से विदा करता हो? मैं कब चाहता हूँ कि तुम जाओ, लेकिन मुंशी वज्रधर की आज्ञा है; और यह मुझे शिरोधार्य करनी पड़ेगी। वह लड़के के बाप हैं, मैं लड़की का बाप हूँ, मेरी और उनकी क्या बराबरी? और बेटी, मेरे दिल में भी अरमान हैं, उसके पूरा करने का और कौन अवसर आएगा? शंखधर होता, तो उसके विवाह में वह अरमान पूरा होता। अब वह तुम्हारे गौने में पूरा होगा।

अहिल्या इसका क्या जवाब देती?

दूसरे दिन से राजा साहब ने विदाई की तैयारियां करनी शुरू कर दीं। सारे इलाके के सुनार पकड़ बुलाए गए और गहने बनने लगे। इलाके ही के दर्जी कपड़े सीने लगे। हलवाइयों के कढ़ाह चढ़ गए और पकवान बनने लगे। घर की सफाई और रंगाई होने लगी। राजाओं, रईसों और अफसरों को निमंत्रण भेजे जाने लगे। सारे शहर की वेश्याओं को बयाने दे दिए गए। बिजली की रोशनी का इंतजाम होने लगा। ऐसा मालूम होता था, मानो किसी बड़ी बारात के स्वागत और सत्कार की तैयारी हो रही है। अहिल्या यह सामान देख-देखकर दिल में झुंझलाती और शरमाती थी। सोचाती-कहाँ से कहाँ मैंने यह विपत्ति मोल ले ली। अब इस बुढ़ापे में मेरा गौना ! मैं मरने की राह देख रही हं, यहां गौने की तैयारी हो रही है। कौन जाने, यह अंतिम विदाई ही हो। राजा साहब ऐसे व्यस्त थे कि किसी से बात करने की भी फुर्सत उन्हें न थी। कहीं सुनारों के पास बैठे अच्छी नक्काशी करने की ताकीद कर रहे हैं। कहीं जौहरियों के पास बैठे जवाहरात परख रहे हैं। उनके अरमानों का पारावार ही न था। मन की मिठाई घी-शक्कर की मिठाई से कम स्वादिष्ट नहीं होती।

चवालीस

शंखधर को होश आया, तो अपने को मंदिर के बरामदे में चक्रधर की गोद में पड़ा हुआ पाया। चक्रधर चिंतित नेत्रों से उसके मुंह की ओर ताक रहे थे। गांव के कई आदमी आस-पास खड़े पंखा झल रहे थे। आह ! आज कितने दिनों के बाद शंखधर को यह सौभाग्य प्राप्त हुआ है। वह पिता की गोद में लेटा हुआ है! आकाश के निवासियो, तुम पुष्प की वर्षा क्यों नहीं करते?

शंखधर ने फिर आंखें बंद कर लीं। उसकी चिर सन्तप्त आत्मा एक अलौकिक शीतलता, एक अपूर्व तृप्ति, एक स्वर्गीय आनंद का अनुभव कर रही थी। इस अपार सुख को वह इतनी जल्द न छोड़ना चाहता था। उसे अपनी वियोगिनी माता की याद आई। वह उस दिन का स्वप्न देखने लगा, जब वह अपनी माता को भी इस परम आनंद का अनुभव कराएगा, उसका जीवन सफल करेगा।

चक्रधर ने स्नेह-मधुर स्वर में पूछा--क्यों बेटा, अब कैसी तबीयत है?

कितने स्नेह-मधुर शब्द थे। किसी के कानों ने कभी इतने कोमल शब्द सुने हैं? भगवान् इन्द्र भी आकर उससे बोलते, तो क्या वह इतना गौरवान्वित हो सकता था?

'क्यों बेटा, कैसी तबीयत है' वह इसका क्या जबाव दे ? अगर कहता है--अब मैं अच्छा हूँ, तो इस सुख से वंचित होना पड़ेगा। उसने कोई उत्तर नहीं दिया। देना भी चाहता, तो उसके मुंह से शब्द न निकलते। उसका जी चाहा, इन चरणों पर सिर रखकर खूब रोए। इससे बढ़कर और किसी सुख की वह कल्पना ही न कर सकता था। संसार की कोई वस्तु कभी इतनी सुंदर थी? वायु और प्रकाश, वृक्ष और वन, पृथ्वी और पर्वत कभी इतने प्यारे न लगते थे। उनकी छटा ही कुछ और हो गई थी, उनमें कितना वात्सल्य था, कितनी आत्मीयता।

चक्रधर ने फिर पूछा--क्यों बेटा, कैसी तबीयत है?

शंखधर ने कातर स्वर से कहा-अब तो अच्छा हूँ। आप ही का नाम बाबा भगवानदास है? चक्रधर--हां मुझी को भगवानदास कहते हैं।

शंखधर--मैं आप ही के दर्शनों के लिए आया हूँ। बहुत दूर से आया हूँ। मैंने बेंदों में आपकी खबर पाई थी। वहां मालूम हुआ कि आप साईंगंज चले गए हैं। वहां से साईंगंज चला। सारी रात चलता रहा, पर साईंगंज न मिला। एक दूसरे गांव में जा पहुंचा-वह जो पर्वत के ऊपर बसा हुआ है। वहां मालूम हुआ कि मैं रास्ता भूल गया था। उसी वक्त इधर चला।

चक्रधर--रात को कहीं ठहरे नहीं?

शंखधर--यही भय था कि शायद आप कहीं और आगे न बढ़ जाएं?

चक्रधर--कुछ भोजन भी न किया होगा?

शंखधर--भोजन की तो ऐसी इच्छा न थी। आपके दर्शन हुए, मैं कृतार्थ हो गया। अब मेरे संकट कट जाएंगे। मैं आपका यश सुनकर आया हूँ। आप ही मेरा उद्धार कर सकते हैं।

चक्रधर--बेटा, संकट काटने वाला ईश्वर है, मैं तो उनका क्षुद्र सेवक हूँ, लेकिन पहले कुछ भोजन कर लो और आराम से सो रहो। मुझे कई रोगियों को देखने जाना है। मैं शाम को लौटूंगा, तो तुमसे बातें होंगी। क्या कहूँ, मेरे कारण तुम्हें इतना कष्ट उठाना पड़ा।

शंखधर ने मन में कहा--इस परम आनंद के लिए मैं क्या नहीं सह सकता था! अगर मुझे मालूम हो जाता कि अग्नि-कुंड में जाने से आपके दर्शन होंगे, तो क्या मैं एक क्षण का भी विलंब करता? कदापि नहीं। प्रकट में उसने कहा-मुझे तो यह स्वर्ग यात्रा-सी मालूम होती थी। भूख, प्यास, थकान कुछ भी नहीं थी।

चक्रधर का चित्त अस्थिर हो गया। उस युवक के रूप में और वाणी में न जाने कौन-सी बात थी, जो उनके मन में उससे बातचीत करने की प्रबल इच्छा हो रही थी। रोगियों को देखने न जाना चाहते थे, मन बहाना खोजने लगा। रोगियों को दवा तो दे ही आया हूँ, उनकी चेष्टा भी कुछ ऐसी चिंताजनक नहीं। जाना व्यर्थ है। जरा पूछना चाहिए कि यह युवक कौन है? क्यों मुझसे मिलने के लिए उत्सुक है? कितना सुशील बालक है ! इसकी वाणी में कितना विनय है और स्वरूप तो देवकुमारों का-सा है। किसी उच्च कुल का युवक है।

लेकिन फिर उन्होंने सोचा--मेरे न जाने से रोगियों को कितनी निराशा होगी? कौन जाने, उनकी दशा बिगड़ गई हो। जाना ही चाहिए। तब तक यह बालक भी तो आराम कर लेगा ! बेचारा सारी रात चलता रहा। मैं जानता, तो बेंदों में टिक गया होता।

एक आदमी पानी लाया। शंखधर ने मुंह-हाथ धोया और चाहता था कि खाली पेट पानी पी ले, लेकिन चक्रधर ने मना किया-हां-हां, यह क्या? अभी पानी न पियो। रात भर कुछ खाया नहीं और पानी पीने लगे। आओ, कुछ भोजन कर लो।

शंखधर--बड़ी प्यास लगी है।

चक्रधर--पानी कहीं भागा तो नहीं जाता। कुछ खाकर पीना, और वह भी इतना नहीं कि पेट में पानी डोलने लगे।

शंखधर--दो ही चूंट पी लूं। नहीं रहा जाता।

चक्रधर ने आकर उसके हाथ से लोटा छीन लिया और कठोर स्वर में कहा--अभी तुम एक बूंद भी पानी नहीं पी सकते। क्या जान देने पर उतारू हो गए हो?

शंखधर को इस भर्त्सना में जो आनंद मिल रहा था, वह कभी माता की प्रेम-भरी बातों में भी न मिला था। पांच वर्ष हुए, जब से वह अपने मन की करता आया है। वह जो पाता है, खाता है, जब चाहता है, पानी पीता है, जहां जगह पाता है, पड़ रहता है। किसी को इसकी कुछ परवा नहीं होती। लोटा हाथ से न छीना गया होता तो वह बिना दो-चार घुड़कियां खाए न मानता।

मंदिर के पीछे छोटा-सा बाग और कुआं था। वहीं एक वृक्ष के नीचे चक्रधर की रसोई बनी थी। चक्रधर अपना भोजन आप पकाते थे, बर्तन भी आप ही धोते थे, पानी भी खुद खींचते थे। शंखधर उनके साथ भोजन करने गया, तो देखा कि रसोई में पूरी, मिठाई, दूध, दही सब कुछ है। उसकी राल टपकने लगी। इन पदार्थों का स्वाद चखे हुए उसे एक युग बीत गया था, मगर उसे कितना आश्चर्य हुआ, जब उसने देखा कि ये सारे पदार्थ उसी के लिए मंगवाए गए हैं। चक्रधर ने उसके लिए तो खाना एक पत्तल में रख दिया और आप कुछ मोटी रोटियां और भाजी लेकर बैठे, जो खुद उन्होंने बनाई थीं।

शंखधर ने कहा--आप तो सब मुझी को दिए जाते हैं, अपने लिए कुछ रखा ही नहीं? चक्रधर--मेरे लिए तो यह रोटियां हैं। मेरा भोजन यही है।

शंखधर--तो फिर मुझे भी रोटियां ही दीजिए।

चक्रधर--मैं तो बेटा, रोटियों के सिवा और कुछ नहीं खाता। मेरी पाचन-शक्ति अच्छी नहीं है। दिन में एक बार खा लिया करता हूँ।

शंखधर--मेरा भोजन तो थोड़ा-सा सत्तू या चबेना है। मैंने तो बरसों से इन चीजों की सूरत तक नहीं देखी। अगर आप न खाएंगे, तो मैं भी न खाऊंगा।

आखिर शंखधर के आग्रह से चक्रधर को अपना नियम तोड़ना पड़ा। सोलह वर्षों का पाला हुआ नियम, बड़े-बड़े रईसों और राजाओं का भक्तिमय आग्रह भी न तोड़ सका, आज इस अपिरिचित बालक ने तोड़ दिया। उन्होंने झुंझलाकर कहा-भाई, तुम बड़े जिद्दी मालूम होते हो। अच्छा, लो, मैं भी खाता हूँ। अब तो खाओगे, या अब भी नहीं?

उन्होंने सब चीजों में से जरा-जरा-सा निकालकर अपनी पत्तल में रख लिया और बाकी चीजें शंखधर के आगे रख दीं। शंखधर ने अब भी भोजन में हाथ नहीं लगाया।

चक्रधर ने पूछा--अब क्या बैठे हो, खाते क्यों नहीं? तुम्हारे मन की बात हो गई? या अब भी कुछ बाकी है?

शंखधर--आपने तो केवल उलाहना छुड़ाया है। लाइए, मैं परस दूं।

चक्रधर--अगर तुम इस तरह जिद करोगे, तो मैं तुम्हारी दवा न करूंगा। तुम्हें अपने साथ रखूगा भी नहीं।

शंखधर--मुझे क्या, न दवा कीजिएगा, तो यहीं पड़ा-पड़ा मर जाऊंगा। कौन कोई रोने वाला बैठा हुआ है?

यह कहते-कहते शंखधर की आंखें सजल हो गईं। चक्रधर ने विकल होकर कहा--अच्छा लाओ, तुम्हीं अपने हाथ से दे दो। अपशब्द क्यों मुंह से निकालते हो? लाओ, कितना देते हो? अब से मैं तुम्हें अलग भोजन मंगवा दिया करूंगा।

शंखधर ने सभी चीजों में से आधी से अधिक उनके सामने रख दी और आप एक पंखा लेकर उन्हें झलने लगा। चक्रधर ने वात्सल्यपूर्ण कठोरता से कहा--मालूम होता है, आज तुम मुझे बीमार करोगे। भला, इतनी चीजें मैं खा सकूँगा?

शंखधर--इसीलिए तो मैंने थोड़ी-थोड़ी दी हैं।

चक्रधर--यह थोड़ी-थोड़ी हैं। तो क्या तुम सबकी सब मेरे ही पेट में लूंस देना चाहते हो? अब भी बैठोगे या नहीं? मुझे पंखे की जरूरत नहीं।

शंखधर--आप खाएं, मैं पीछे से खा लूंगा।

चक्रधर--भाई, तुम विचित्र जीव हो। तीन दिन के भूखे हो और मुझसे कहते हो, आप खाइए, मैं फिर खा लूंगा।

शंखधर--मैं तो आपका जूठन खाऊंगा।

उसकी आंखें फिर सजल हो गईं ! चक्रधर ने तिरस्कार के भाव से कहा--क्यों भाई, मेरा जूठन क्यों खाओगे? अब तो सब बातें तुम्हारे ही मन की हो रही हैं।

शंखधर--मेरी बहुत दिनों से यही आकांक्षा थी। जब से आपकी कीर्ति सुनी, तभी से यह अवसर खोज रहा था।

चक्रधर--तुम न आप खाओगे, न मुझे खाने दोगे।

शंखधर--मैं तो आपका जूठन ही खाऊंगा।

चक्रधर को फिर हार माननी पड़ी। वह एकांतवासी, संयमी, व्रतधारी योगी आज इस अपरिचित दीन बालक के दुराग्रहों को किसी भांति न टाल सकता था।

शंखधर को आज खड़े होकर पंखा झलने में जो आनंद, जो आत्मोल्लास, जो गर्व हो रहा था, उसका कौन अनुमान कर सकता है। इस आनंद के सामने वह त्रिलोक के राज्य पर भी लात मार सकता था। आज उसे यह सौभग्य प्राप्त हुआ कि अपने पूज्य पिता की कुछ सेवा कर सके। कठिन तपस्या के बाद आज उसे यह वरदान मिला है। उससे बढ़कर सुखी और कौन हो सकता है। आज उसे अपना जीवन सार्थक मालूम हो रहा है-वह जीवन, जिसका अब तक कोई उद्देश्य न था। आनंद के आंसू उसकी आंखों से बहने लगे।

चक्रधर जब भोजन करके उठ गए तो उसने उसी पत्तल में अपनी पत्तल की चीजें डाल ली और भोजन करने बैठा। ओह ! इस भोजन में कितना स्वाद था ! क्या सुधा में इतना स्वाद हो सकता है? उसने आज से कई साल पहले उत्तम से उत्तम पदार्थ खाए थे, लेकिन उनमें यह अलौकिक स्वाद कहाँ था?

चक्रधर हाथ--मुंह धोकर गद्गद कंठ से बोले-तुमने आज मेरे दो नियम भंग कर दिए। बिना जाने-बुझे किसी को मेहमान बना लेने का यही फल होता है। अब मैं आज कहीं न जाऊंगा। तुम भोजन कर लो और मुझसे जो कुछ कहना हो, कहो। मैं ऐसे जिद्दी लड़के को अपने साथ और न रखूगा। तुम्हारा पर कहाँ है? यहां से कितनी दूर है?

शंखधर--मेरे तो कोई घर ही नहीं।

चक्रधर--माता-पिता तो होंगे? वह किस गांव में रहते हैं?

शंखधर--यह मुझे कुछ नहीं मालूम। पिताजी तो मेरे बचपन ही में घर से चले गए और माताजी का पांच साल से मुझे कोई समाचार नहीं मिला।

चक्रधर को ऐसा मालूम हुआ, मानो पृथ्वी नीचे खिसकी जा रही है, मानो वह जल में बहे जा रहे हैं। पिता बचपन ही में घर से चले गए और माताजी का पांच साल से कुछ समाचार नहीं मिला? भगवान्, क्या यह वही नन्हा-सा बालक है ! वही, जिसे अपने हृदय से निकालने की चेष्टा करते हुए आज सोलह वर्षों से अधिक हो गए।

उन्होंने हृदय को संभालते हुए पूछा--तुम पांच साल तक कहाँ रहे बेटा, जो घर नहीं गए?

शंखधर--पिताजी को खोजने निकला था और अब जब तक वह न मिलेंगे, लौटकर घर न जाऊंगा।

चक्रधर को ऐसा मालूम हुआ, मानो पृथ्वी डगमगा रही है, मानो समस्त ब्रह्मांड एक प्रलयंकारी भूचाल से आंदोलित हो रहा है। वह सायबान के स्तम्भ के सहारे बैठ गए और एक ऐसे स्वर में बोले, जो आशा और भय के वेगों को दबाने के कारण क्षीण हो गया था। यह प्रश्न न था, बल्कि एक जानी हुई बात का समर्थन मात्र था। तुम्हारा नाम क्या है बेटा? इस प्रश्न का उत्तर क्या वही होगा, जिसकी संभावना चक्रधर को विकल और पराभूत कर रही थी? संसार में क्या ऐसा एक ही बालक है, जिसे उसका बाप बचपन में छोड़कर चला गया हो? क्या ऐसा एक ही किशोर है, जो अपने बाप को खोजने निकला हो? यदि उसका उत्तर वही हुआ, जिसका उन्हें भय था, तो वह क्या करेंगे? उनके सामने एक कठिन समस्या उपस्थित हो गई। वह धड़कते हुए हृदय से उत्तर की ओर कान लगाए थे, जैसे कोई अपराधी अपना कर्मदंड सुनने के लिए न्यायाधीश की ओर कान लगाए खड़ा हो ।

शंखधर ने जवाब दिया-मेरा तो नाम शंखधर सिंह है।

चक्रधर--और तुम्हारे पिता का क्या नाम है?

शंखधर--मुंशी चक्रधर कहते हैं।

चक्रधर--घर कहाँ है?

शंखधर--जगदीशपुर!

सर्वनाश ! चक्रधर को ऐसा ज्ञात हुआ कि उनकी देह से प्राण निकल गए हैं, मानो उनके चारों ओर शून्य है ! 'शंखधर' बस यही एक शब्द उस प्रशस्त शून्य में किसी पक्षी की भांति चक्कर लगा रहा था। 'शंखधर !' यही एक स्मृति थी, जो उस प्राण-शून्य दशा में चेतना को संस्कारों में बांधे हुई थी।

पैंतालीस

राजा विशालसिंह ने जिस हौसले से अहिल्या का गौना किया, वह राजाओं-रईसों में भी बहुत कम देखने में आता है। तहसीलदार साहब के घर में इतनी चीजों के रखने की जगह भी न थी। बर्तन, कपड़े, शीशे के समान, लकड़ी की अलभ्य वस्तुएं, मेवे, मिठाइयां, गायें, भैसें-इनका हफ्तों तक तांता लगा रहा। दो हाथी और पांच घोड़े भी मिले, जिनके बांधने के लिए घर में जगह न थी। पांच लौडियां अहिल्या के साथ आईं। यद्यपि तहसीलदार साहब ने नया मकान बनवाया था, पर वह क्या जानते थे कि एक दिन यहां रियासत जगदीशपुर की आधी संपत्ति आ पहुंचेगी? घर का कोना-कोना सामानों से भरा हुआ था। कई पड़ोसियों के मकान भी अंट उठे। उस पर लाखों रुपए नकद मिले, वह अलग। तहसीलदार साहब लाने को तो सब कुछ ले आए, पर अब उन्हें देख-देख रोते और कुढ़ते। कोई भोगने वाला नहीं! अगर यही संपत्ति आज से पचीस साल पहले मिली होती, तो उनका जीवन सफल हो जाता, जिंदगी का कुछ मजा उठा लेते, अब बुढ़ापे में इनको लेकर क्या करें? चीजों को बेचना अपमान की बात थी। हां, यार-दोस्तों को जो कुछ भेंट कर सकते थे, किया। अनाज की कई गाड़ियां मिली थीं, वह सब उन्होंने लुटा दीं। कई महीने सदाव्रत-सा चलता रहा। नौकरों को हुक्म दे दिया कि किसी आदमी को कोई चीज मंगनी देने से इंकार मत करो। सहालग के दिनों में रोज ही हाथी, घोड़े, पालकियां, फर्श आदि सामान मंगनी जाते। सारे शहर में तहसीलदार साहब की कीर्ति छा गई। बड़े-बड़े रईस उनसे मुलाकात करने आने लगे। नसीब जगे, तो इस तरह जगे। कहाँ रोटियां भी न मयस्सर होती थीं, आज द्वार पर हाथी झूमता है। सारे शहर में यही चर्चा थी।

मगर मुंशीजी के दिल पर जो कुछ बीत रही थी, वह कौन जान सकता है? दिन में बीसों ही बार चक्रधर पर बिगड़ते-नालायक। आप तो आप गया, अपने साथ लड़के को भी ले गया। न जाने कहाँ मारा-मारा फिरता होगा, देश का उपकार करने चला है। सच कहा है-घर की रोएं, बन की सोएं। घर के आदमी मरें, परवा नहीं, दूसरों के लिए जान देने को तैयार। अब बताओ, इन हाथी, घोड़े, मोटरों और गाड़ियों को लेकर क्या करूं। अकेले किस-किस पर बैलूं? बहू है, उसे रोने से फुर्सत नहीं। बच्चा की मां है, उनसे अब मारे शोक से रहा नहीं जाता। कौन बैठे? यह सामान तो मेरे जी का जंजाल हो गया। पहले बेचारे शाम-सबेरे कुछ गा-बजा लेते थे, कुछ सरूर भी जमा लिया करते थे अब इन चीजों की देखभाल ही में भोर जो जाता। क्षण भर भी आराम से बैठने की मुहलत न मिलती। निर्मला किसी चीज की ओर आंख उठाकर भी न देखती, मुंशीजी ही को सबकी निगरानी करनी पड़ती थी।

अहिल्या यहां आकर और भी पछताने लगी। वह रनिवास के विलासमय जीवन से विरक्त होकर यहां प्रायश्चित्त करने के इरादे से आई थी, पर वह विपत्ति उसके साथ यहां भी आई। वहां उसे घर-गृहस्थी से कोई मतलब न था, यहां वह विपत्ति भी सिर पड़ी। जिन वस्तुओं से उसे जरा भी मोह न था, उन्हीं के खो जाने की खबर हो जाने पर उसे दुःख होता था। वह माया को जीतना चाहती थी, पर माया ने उसी को परास्त कर दिया। संपत्ति से गला छुड़ाना चाहती थी, पर संपत्ति उससे और चिमट गई थी। वहां कुछ देर शांति से बैठ सकती थी, कुछ देर हंस-बोलकर जी बहला लेती थी, किसी के ताने-मेहने न सुनने पड़ते थे, यहां निर्मला बाणों से छेदती और घाव पर नमक छिड़कती रहती थी। बहू के कारण वह अपने पुत्र से वंचित हुई। बहू के ही कारण पोता भी हाथ से गया। ऐसी बहू को वह पान-फूल से न पूज सकती थी। संपत्ति लेकर वह क्या करे? चाटे? पुत्र और पौत्र के बदले में इस अतुल धन का क्या मूल्य था? भोजन वह अब भी अपने हाथों से ही पकाती थी। अहिल्या के साथ जो महराजिनें आई थीं, उनका पकाया हुआ भोजन ग्रहण न कर सकती थी। अहिल्या से भी वह छूत मानती थी। इन दिनों मंगला भी आई हुई थी। उसका जी चाहता था कि यहां की सारी चीजें समेट ले जाओ अहिल्या अपनी चीजों को तीन-तेरह न होने देना चाहती थी। इससे ननद-भावज में कभी-कभी खटपट हो जाती थी।

बर्तनों में कई बड़े-बड़े कंडाल भी थे। एक कंडाल इतना बड़ा था कि उसमें ढाई सौ कलसे पानी आ जाता था। मंगला ने एक दिन यह कंडाल अपने घर भिजवा दिया। कई दिन बाद अहिल्या को यह खबर मिली, तो उसने जाकर सास से पूछा-अम्मांजी, वह बड़ा कंडाल कहाँ है, दिखाई नहीं देता?

निर्मला ने कहा--बाबा, मैं नहीं जानती, कैसा कंडाल था। घर में है, तो कहाँ जा सकता है?

अहिल्या--जब घर में हो तब न?

निर्मला--घर में से कहाँ गायब हो जाएगा?

अहिल्या--घर की चीज घर के आदमियों के सिवा और कौन छू सकता है?

निर्मला--तो क्या इस घर में सब चोर ही बसते हैं?

अहिल्या--यह तो मैं नहीं कहती, लेकिन चीज का पता तो लगना ही चाहिए।

निर्मला--तुम चीजें लादकर ले जाओगी, तुम्हीं पता लगाती फिरो। यहां चीजों को लेकर क्या करना है? इना चीजों को देखकर मेरी तो आंखें फूटती हैं। इन्हीं के लिए तो तुमने मेरे बच्चे को बनवास दे दिया। इन्हीं के पीछे अपने बेटे से हाथ धो बैठी। तुम्हें ये सारी चीजें प्यारी होंगी। मुझे तो नहीं प्यारी हैं।

बात कड़वी थी, पर यथार्थ थी। अगर धन-मद ने अहिल्या की बुद्धि पर पर्दा न डाल दिया होता तो आज उसे क्यों यह दिन देखना पड़ता? दरिद्र रहकर भी सुखी होती। मोह ने उसका सर्वनाश कर दिया। फिर भी वह मोह को गले लगाए हुए है। नैहर से उसकी आई हुई चीज अपनी न थी, सब कुछ अपना होते हुए भी उसका कुछ न था। जो कुछ अधिकार था, वह पुत्र के नाते। जब पुत्र की कोई आशा न रही, तो अधिकार भी न रहा, पर यहां की सब चीजें उसी की थीं। उन पर उसका नाम खुदा हुआ था। अधिकार में स्वयं एक आनंद है, जो उपयोगिता की परवा नहीं करता। उन वस्तुओं को देख-देखकर उसे गर्व होता था।

लेकिन आज निर्मला के कठोर शब्दों ने उसमें ग्लानि और विवेक का संचार कर दिया। उसने निश्चय किया, अब इन चीजों के लिए कभी न बोलूंगी। अगर अम्मांजी को किसी चीज का मोह नहीं है, तो मैं ही क्यों करूं? कोई आग लगा दे, मेरी बला से।

जब घर में कोई किसी चीज की चौकसी करने वाला न रहा, तो चारों ओर लूट मच गई। कुछ मालूम न होता कि घर में कौन लुटेरा आ बैठा है, पर चीजें एक-एक करके निकलती जाती थीं। अहिल्या देखकर अनदेखी और सुनकर अनसुनी कर जाती थी, पर अपनी चीजों को तहस-नहस होते देखकर उसे दुःख होता था। उसका विराग मोह का दूसरा रूप था-वास्तविक रूप से भी भयंकर और दाहक।

इस तरह कई महीने गुजर गए, अहिल्या का आशा-दीपक दिन-दिन मंद होता गया। वह कितना ही चाहती थी कि मोह-बंधन से अपने को छुड़ा ले, पर मन पर कोई वश न चलता था। उसके मन में बैठा हुआ कोई नित्य कहा करता था-जब तक मोह में पड़ी रहोगी, पति-पुत्र के दर्शन न होंगे। पर इसका विश्वास कौन दिला सकता था कि मोह टूटते ही उसके मनोरथ पूरे हो जाएंगे? तब क्या वह भिखारिणी होकर जीवन व्यतीत करेगी? संपत्ति के हाथ से निकल जाने पर फिर उसके लिए कौन आश्रय रह जाएगा? क्या वह फिर अपने पिता के घर जा सकती थी? कदापि नहीं। पिता ने इतनी धूमधाम से उसे विदा किया, इसका अर्थ ही यह था कि अब तुम इस घर से सदा के लिए जा रही हो।

अहिल्या बार-बार व्रत करती कि अब अपने सारे काम अपने हाथ से करूंगी, अब सदा एक ही जून भोजन किया करूंगी, मोटा से मोटा अन्न खाकर जीवन व्यतीत करूंगी, लेकिन उसमें किसी व्रत पर स्थिर रहने की शक्ति न रह गई थी। जब उसके स्नान कर चुकने पर लौंडी उसकी साड़ी छांटने चलती, तो वह उसे मना न कर सकती थी। जो काम आज सोलह वर्षों से करती आ रही थी, उसके विरुद्ध आचरण करना उसे अब अस्वाभाविक जान पड़ता था, मोटा अनाज खाने का निश्चय रहते हुए भी वह स्वादिष्ट भोजन को सामने से हटा न सकती थी। विलासिता ने उसकी क्रिया-शक्ति को निर्बल कर दिया था।

यहां रहकर वह अपने उद्धार के लिए कुछ न कर सकेगी, यह बात शनैः-शनैः अनुभव से सिद्ध हो गई।

लेकिन अब कहाँ जाए? जब तक मन की वृत्ति न बदल जाए, तीर्थयात्रा पाखंड-सी जान पड़ती थी। किसी दूसरी जगह अकेले रहने के लिए कोई बहाना न था, पर यह निश्चय था कि अब वह यहां न रहेगी, यहां तो वह बंधन में और भी जकड़ गई थी।

अब उसे वागीश्वरी की याद आई। सुख के दिन वही थे, जो उसके साथ कटे। असली मौका न होने पर भी जीवन का जो सुख वहां मिला, वह फिर न नसीब हुआ। अब उसे याद आता था कि मैं वहां से दुःख झेलने के लिए आई थी। वह स्नेह-सुख स्वप्न हो गया। सास मिली वह इस तरह की, ननद मिली वह इस ढंग की। मां थी ही नहीं, केवल बाप को पाया; मगर उसके बदले में क्या-क्या देना पड़ा। जिस दिन मालूम हुआ कि वह राजा की बेटी है, वह फूली न समाई थी। उसके पांव जमीन पर न पड़ते थे, पर आह ! क्या मालूम था कि उस क्षणिक आनंद के लिए उसे सारी उम्र रोना पड़ेगा।

अब अहिल्या को रात-दिन यही धुन रहने लगी कि किसी तरह वागीश्वरी के पास चलूं, मानो वहां उसके सारे दुःख दूर हो जाएंगे। इधर कई महीनों से वागीश्वरी का पत्र न आया था; पर मालूम हुआ कि वह आगरे ही में है। अहिल्या ने कई बार बुलाया था; पर वागीश्वरी ने लिखा था-मैं बड़े आराम से हूँ, मुझे अब यहीं पड़ी रहने दो। अब अहिल्या का मन वागीश्वरी के पास जाने के लिए अधीर हो उठा। वागीश्वरी भी उसी की भांति दुःखिनी है। सारी आशाओं एवं सारे माया-मोह से मुक्त हो चुकी है। वही उसके साथ सच्ची सहानुभूति कर सकती है, वही अपने मातृस्नेह से उसका क्लेश हर सकती है।

आखिर एक दिन अहिल्या ने सास से यह चर्चा कर ही दी। निर्मला ने कुछ भी आपत्ति नहीं की। शायद वह खुश हुई कि किसी तरह यहां से टले। मंगला तो उसके जाने का प्रस्ताव सुनकर हर्षित हो उठी। जब वह चली जाएगी, तो घर में मंगला का राज हो जाएगा। जो चीज चाहेगी, उठा ले जाएगी, कोई हाथ पकड़ने वाला या टोकने वाला न रहेगा। दो महीने भी अहिल्या वहां रह गई तो मंगला अपना घर भर लेगी। ज्यादा नहीं, तो आधी संपदा तो अपने घर पहुंचा ही देगी।

अहिल्या जब यात्रा की तैयारियां करने लगी, तो मंगला ने कहा--भाभी तुम चली जाओगी, तो यहां बिल्कुल अच्छा न लगेगा। वहां कब तक रहोगी?

अहिल्या--अभी क्या कहूँ बहिन, यह तो वहां जाने पर मालूम होगा।

मंगला--इतने दिनों के बाद जा रही हो, दो-तीन महीने तो रहना ही पड़ेगा। तुम चली जा रही हो, तो मैं भी चली जाऊंगी। अब तो रानी साहिबा से भी भेंट नहीं होती, अकेले कैसे रहा जाएगा। तुम्हीं दोनों जनों से मिलने तो आई थी। रानी साहिबा ने तो भुला ही दिया, तुम छोड़े चली जाती हो।

यह कहकर मंगला रोने लगी।

दूसरे दिन अहिल्या यहां से चली। अपने साथ कोई साज-सामान न लिया। साथ की लौंडियां चलने को तैयार थीं, पर उसने किसी को साथ न लिया। केवल एक बुड्ढे कहार को पहुंचाने के लिए ले लिया। और उसे भी आगरे पहुँचने के दूसरे ही दिन विदा कर दिया।

आज बीस साल के बाद अहिल्या ने इस घर में फिर प्रवेश किया था, पर आह ! इस घर की दशा ही कुछ और थी। सारा घर गिर पड़ा था। न आंगन का पता था, न बैठक का। चारों ओर मलवे का ढेर जमा हो रहा था। उस पर मदार और धतूरे के पौधे उगे हुए थे। एक छोटी-सी कोठरी बच रही थी। वागीश्वरी उसी में रहती थी। उसकी सूरत भी उस घर के समान ही बदल गई थी। न मुंह में दांत, न आंखों में ज्योति, सिर के बाल सन हो गए थे, कमर झुककर कमान हो गई थी। दोनों गले मिलकर खूब रोईं। जब आंसुओं का वेग कम हुआ तो वागीश्वरी ने कहा-बेटी, तुम अपने साथ समान नहीं लाईं-क्या दूसरी ही गाड़ी से जाने का विचार है? इतने दिनों के बाद आई भी, तो इस तरह ! बुढ़िया को बिल्कुल भूल ही गई! खंडहर में तुम्हारा जी क्यों लगेगा?

अहिल्या--अम्मां, महल में रहते-रहते जी ऊब गया, अब कुछ दिन इस खंडहर में ही रहूँगी और तुम्हारी सेवा करूंगी। जब से तुम्हारे घर से गई, तब से एक दिन भी सुख नहीं पाया। तुम समझती होगी कि मैं वहां बड़े आनंद से रहती हूँगी, लेकिन अम्मां, मैने वहां दुःख ही दुःख पाया, आनंद के दिन तो इसी घर में बीते थे।

वागीश्वरी--लड़के का अभी कुछ पता न चला?

अहिल्या किसी का पता नहीं चला, अम्मां! मैं राज्य-सुख पर लटू हो गई थी। उसी का दंड भोग रही हूँ। राज्य-सुख भोगकर तो जो कुछ मिलता है, वह देख चुकी, अब उसे छोड़कर देखूगी कि क्या जाता है, मगर तुम्हें तो बड़ा कष्ट हो रहा है, अम्मां?

वागीश्वरी--कैसा कष्ट बेटी? जब तक स्वामी जीते रहे, उनकी सेवा करने में सुख मानती थी। तीर्थ, व्रत, पुण्य, धर्म सब कुछ उनकी सेवा ही में था। अब वह नहीं हैं, तो उनकी मर्यादा की सेवा कर रही हूँ। आज भी उनके कितने ही भक्त मेरी मदद करने को तैयार हैं, लेकिन क्यों किसी की मदद लूं। तुम्हारे दादाजी सदैव दूसरों की सेवा करते रहे। इसी में अपनी उम्र काट दी। तो फिर मैं किस मुंह से सहायता के लिए हाथ फैलाऊं?

यह कहते-कहते वृद्धा का मुखमंडल गर्व से चमक उठा। उसकी आंखों में एक विचित्र स्फूर्ति झलकने लगी! अहिल्या का सिर लज्जा से झुक गया। माता, तुझे धन्य है ! तू वास्तव में सती है, तू अपने ऊपर जितना गर्व करे, वह थोड़ा है।

वागीश्वरी ने फिर कहा--ख्वाजा महमूद ने बहुत चाहा कि मैं कुछ महीना ले लिया करूं। मेरे मैके वाले कई बार मुझे बुलाने आए। यह भी कहा कि महीने में कुछ ले लिया करो। भैया बड़े भारी वकील हैं, लेकिन मैंने किसी का एहसान नहीं लिया। पति की कमाई को छोड़कर और किसी की कमाई पर स्त्री का अधिकार नहीं होता। चाहे कोई मुंह से न कहे, पर मन में जरूर समझेगा कि मैं इन पर एहसान कर रहा हूँ। जब तक आंखें थीं, सिलाई करती रही। जब से आंखें गईं, दलाई करती हूँ। कभी-कभी उन पर जी झुंझलाता है। जो कुछ कमाया, उड़ा दिया। तुम तो देखती ही थीं। ऐसा कौन-सा दिन जाता था कि द्वार पर चार मेहमान न आ जाते हों? लेकिन फिर दिल को समझाती हूँ कि उन्होंने किसी बुरे काम में तो धन नहीं उड़ाया ! जो कुछ किया, दूसरों के उपकार ही के लिए किया। यहां तक कि अपने प्राण भी दे दिए। फिर मैं क्यों पछताऊं और क्यों रोऊँ यश सेंत में थोड़े ही मिलता है, मगर मैं तो अपनी बातों में लग गई। चल, हाथ-मंह धो डालो कुछ खा-पी लो, फिर बातें करूं।

लेकिन अहिल्या हाथ-मुंह धोने न उठी। वागीश्वरी की आदर्श पति-भक्ति देखकर उसकी आत्मा उसका तिरस्कार कर रही थी। अभागिनी ! इसे पति-भक्ति कहते हैं ! सारे कष्ट झेलकर स्वामी की मर्यादा का पालन कर रही है। नैहर वाले बुलाते हैं और नहीं जाती, हालांकि इस दशा में मैके चली जाती, तो कोई बुरा न कहता। सारे कष्ट झेलती है और खुशी से झेलती है। एक तू है कि मैके की संपत्ति देखकर फूल उठी, अंधी हो गई। राजकुमारी और पीछे चलकर राजमाता बनने की धुन में तुझे पति की परवाह ही न रही, तूने संपत्ति के सामने पति को कुछ न समझा, उसकी अवहेलना की। वह तुझे अपने साथ ले जाना चाहते थे, तू न गई, राज्य-सुख तुझसे न छोड़ा गया! रो, अपने कर्मों को।

वागीश्वरी ने फिर कहा--अभी तक तू बैठी ही है। हां, लौंडी पानी नहीं लाई न, कैसे उठेगी! ले, मैं पानी लाए देती हूँ, हाथ-मुंह धो डाल। तब तक मैं तेरे लिए गरम रोटियां सेकती हूँ। देखू, तुझे अभी भी भाती हैं कि नहीं। तू मेरी रोटियों का बहुत बखान करके खाती थी।

अहिल्या स्नेह में सने ये शब्द सुनकर पुलकित हो उठी। इस 'तू' में जो सुख था वह आप और सरकार में कहाँ? बचपन के दिन आंखों में फिर गए। एक क्षण के लिए उसे अपने सारे दुःख विस्मृत हो गए। बोली-अभी तो भूख-प्यास नहीं है अम्मांजी, बैठिए कुछ बातें कीजिए। मैं आपसे अपने दु:ख की कथा कहने के लिए व्याकुल हो रही हूँ। बताइए, मेरा उद्धार कैसे होगा?

वागीश्वरी ने गंभीर भाव से कहा--पति-प्रेम से वंचित होकर स्त्री के उद्धार का कौन उपाय है, बेटी? पति ही स्त्री का सर्वस्व है। जिसने अपना सर्वस्व खो दिया, उसे सुख कैसे मिलेगा? जिसको लेकर तूने पति का त्याग किया, उसको त्याग कर ही पति को पाएगी। तू इतनी कर्त्तव्य-भ्रष्ट कैसे हो गई, यह मेरी समझ में ही नहीं आया। यहां तो धन पर इतना जान न देती थी। ईश्वर ने तेरी परीक्षा ली और तू उसमें चूक गई। जब तक धन और राज्य का मोह न छोड़ेगी, तुझे उस त्यागी पुरुष के दर्शन न होंगे।

अहिल्या--अम्मांजी, सत्य कहती हूँ, मैं केवल शंखधर के हित का विचार करके उनके साथ न गई।

वागीश्वरी--उस विचार में क्या तेरी भोग-लालसा न छिपी थी! खूब ध्यान करके सोच, तू इससे इनकार नहीं कर सकती!

अहिल्या ने लज्जित होकर कहा--हो सकता है, अम्मांजी, मैं इनकार नहीं कर सकती। वागीश्वरी--संपत्ति यहां भी तेरा पीछा करेगी, देख लेना।

अहिल्या--अब तो उससे जी भर गया, अम्मांजी !

वागीश्वरी--जभी तो वह फिर तेरा पीछा करेगी। जो उससे भागता है, उसके पीछे दौड़ती है। मुझे शंका होती है कि कहीं तू फिर लोभ में न पड़ जाए । एक बार चूकी, तो चौदह वर्ष रोना पड़ा, अब की चूकी तो बाकी उम्र ही गुजर जाएगी !

छियालीस

शंखधर को अपने पिता के साथ रहते एक महीना हो गया। न वह जाने का नाम लेता है, न चक्रधर ही जाने को कहते हैं। शंखधर इतना प्रसन्नचित्त रहता है, मानो अब उसके सिवा संसार में कोई दु:ख, कोई बाधा नहीं है। इतने ही दिनों में उसका रंग-रूप कुछ और हो गया है। मुख पर यौवन तेज झलकने लगा और जीर्ण शरीर भर आया है। मालूम होता है, कोई अखंड ब्रह्मचर्य व्रतधारी ऋषिकुमार है।

चक्रधर को अब अपने हाथों कोई काम नहीं करना पड़ता। वह जब एक गांव से दूसरे गांव जाते हैं, तो उनका सामान शंखधर उठा लेता है, उन्हें अपना भोजन तैयार मिलता है, बर्तन मंजे हुए, साफ-सुथरे। शंखधर कभी उन्हें अपनी धोती भी नहीं छांटने देता। दोनों प्राणियों के जीवन का वह समय सबसे आनंदमय होता है, जब एक प्रश्न करता और दूसरा उसका उत्तर देता है। शंखधर को बाबाजी की बातों से अगर तृप्ति नहीं होती, तो अल्पभाषी बाबाजी को भी बातें करने से तृप्ति नहीं होती। वह अपने जीवन के सारे अनुभव, दर्शन, विज्ञान, इतिहास की सारी बातें घोलकर पिला देना चाहते हैं। उन्हें इसकी परवाह नहीं होती कि शंखधर उन बातों को ग्रहण भी कर रहा है या नहीं, शिक्षा देने में वह इतने तल्लीन हो जाते हैं। जड़ी-बूटियों का जितना ज्ञान उन्होंने बड़े-बड़े महात्माओं से बरसों में प्राप्त किया था, वह सब शंखधर को सिखा दिया। वह उसे कोई नई बात बताने का अवसर खोजा करते हैं, उसकी एक-एक बात पर उनकी सूक्ष्म-दृष्टि पड़ती है। दूसरों से उसकी सज्जनता और सहनशीलता का बखान सुनकर उन्हें कितना गर्व होता है। वह मारे आनंद के गद्गद हो जाते हैं, उनकी आंखें सजल हो जाती हैं। सब जगह यह बात खुल गई कि यह युवक उनका पुत्र है। दोनों की सूरत इतनी मिलती है कि चक्रधर के इनकार करने पर भी किसी को विश्वास नहीं आता। जो बात सब जानते हैं, उसे वह स्वयं नहीं जानते और न जानना ही चाहते है।

एक दिन वह एक गांव में पहुंचे, तो वहां दंगल हो रहा था। शंखधर भी अखाड़े के पास जाकर खड़ा हो गया। एक पट्टे ने शंखधर को ललकारा। वह शंखधर का ड्योढ़ा था, पर शंखधर ने कुश्ती मंजूर कर ली। चक्रधर बहुत कहते रहे-यह लड़का लड़ना क्या जाने, कभी लड़ा हो तो जाने। भला, यह क्या लड़ेगा, लेकिन शंखधर लंगोट कसकर उखाड़े में उतर ही तो पड़ा ! उस समय चक्रधर की सूरत देखने योग्य थी। चेहरे पर एक रंग जाता था, एक रंग आता था। अपनी व्यग्रता को छिपाने के लिए अखाड़े से दूर जा बैठे थे, मानो वह इस बात से बिल्कुल उदासीन हैं। भला, लड़कों के खेल से बाबाजी का क्या संबंध? लेकिन किसी न किसी बहाने अखाड़े की ओर आ ही जाते थे। जब उस पढे ने पहली ही पकड़ में शंखधर को धर दबाया, तो बाबाजी आवेश में आकर स्वयं झुक गए। शंखधर ने जोर मारकर उस पढे को ऊपर उठाया, तो बाबाजी भी सीधे हो गए और जब शंखधर ने कुश्ती मार ली, तब तो चक्रधर उछल पड़े और दौड़कर शंखधर को गले लगा लिया। मारे गर्व के उनकी आंखें उन्मत्त-सी हो गईं। उस दिन अपने नियम के विरुद्ध उन्होंने रात को बड़ी देर तक गाना सुना।

शंखधर को कभी-कभी प्रबल इच्छा होती थी कि पिताजी के चरणों पर गिर पडूं और साफ-साफ कह दूं। वह मन में कल्पना किया करता कि अगर ऐसा करूं, तो वह क्या कहेंगे? कदाचित उसी दिन मुझे सोता छोड़कर किसी ओर की राह लेंगे। इस भय से बात उसके मुंह तक आके रुक जाती थी, मगर उसी के मन में यह इच्छा नहीं थी। चक्रधर भी कभी-कभी पुत्र-प्रेम से विकल हो जाते और चाहते कि उसे गले लगाकर कहूँ-बेटा, तुम मेरी ही आंखों के तारे हो, तुम मेरे ही जिगर के टुकड़े हो, तुम्हारी याद दिल से कभी न उतरती थी, सब कुछ भूल गया, पर तुम न भूले। वह शंखधर के मुख से उसकी माता की विरह-व्यथा, दादी के शोक और दादा के क्रोध की कथाएं सुनते कभी न थकते थे। रानीजी उससे कितना प्रेम करती थीं, यह चर्चा सुनकर चक्रधर बहुत दुःखी हो जाते। जिन बाबाजी की रूखे-सूखे भोजन से तुष्टि होती थी, यहां तक कि भक्तों के बहुत आग्रह करने पर भी खोये और मक्खन को हाथ से न छूते थे, वही बाबाजी इन पदार्थों को पाकर प्रसन्न हो जाते थे। वह स्वयं अब भी वही रूखा-सूखा भोजन ही करते थे, पर शंखधर को खिलाने में जो आनंद मिलता था, वह क्या कभी आप खाने में मिल सकता था?

इस तरह एक महीना गुजर गया और अब शंखधर को यह फिक्र हुई कि इन्हें किस बहाने से घर ले चलूं। अहा, कैसे आनंद का समय होगा, जब मैं इनके साथ घर पहुंचूंगा !

लेकिन बहुत सोचने से भी उसे कोई बहाना न मिला। तब उसने निश्चय किया कि माताजी को पत्र लिखकर यहीं क्यों न बुला लूं? माताजी पत्र पाते ही सिर के बल दौड़ी आएंगी। सभी आएंगे। तब देखू, यह किस तरह निकलते हैं? वह पछताया कि मैंने व्यर्थ ही इतनी देर लगाई। अब तक तो अम्मांजी पहुँच गई होतीं। उसी रात को उसने अपनी माता के नाम पत्र डाल दिया। वहां का पता-ठिकाना, रेल का स्टेशन, सभी बातें स्पष्ट करके लिख दीं! अंत में यह लिखा-आप आने में विलंब करेंगी, तो पछताएंगी। यह आशा छोड़ दीजिए कि मैं जगदीशपुर राज्य का स्वामी बनूंगा। पिताजी के चरणों की सेवा छोड़कर मैं राज्य का सुख नहीं भोग सकता। यह निश्चय है। इन्हें यहां से ले जाना असंभव है। इन्हें यदि मालूम हो जाए कि मैं इन्हें पहचानता हूँ, तो आज ही अंतर्धान हो जाएं। मैंने इनको अपना परिचय दे दिया है, आप लोगों की बातें भी सुनाया करता हूँ, पर मुझे इनके मुख पर जरा भी आवेश का चिह्न नहीं दिखाई देता, भावों पर इन्होंने अधिकार प्राप्त कर लिया है। आप जल्द से जल्द आवें।

वह सारी रात इस कल्पना में मग्न रहा कि अम्मांजी आ जाएंगी, तो पिताजी को झुककर प्रणाम करूंगा और पूछंगा-अब भागकर कहाँ जाइएगा? फिर हम दोनों उनका पल्ला न छोड़ेंगे, मगर मन की सोची हुई बात कभी पूरी हुई है?

सैंतालीस

एक महीना पूरा गुजर गया और न अहिल्या ही आई, न कोई दूसरा ही। शंखधर दिन भर उसकी बाट जोहता रहता। रेल का स्टेशन वहां से पांच मील पर था। रास्ता भी साफ था फिर भी कोई नहीं आया। चक्रधर जब कहीं चले जाते, तो वह चुपके से स्टेशन की राह लेता और निराश होकर लौट आता। आखिर एक महीने के बाद तीसरे दिन उसे एक पत्र मिला, जिसे पढ़कर उसके शोक की सीमा न रही। अहिल्या ने लिखा था-मैं बड़ी अभागिनी हूँ। तुम इतनी कठिन तपस्या करके जिस देवता के दर्शन कर पाए, उनके दर्शन करने की परम अभिलाषा होने पर भी मैं हिल नहीं सकती। एक महीने से बीमार हूँ, जीने की आशा नहीं, अगर तुम आ जाओ, तो तुम्हें देख लूं, नहीं तो यह अभिलाषा भी साथ जाएगी ! मैं कई महीने हुए, आगरे में पड़ी हूँ। जी घबराया करता है। अगर किसी तरह स्वामीजी को ला सको, तो अंत समय उनके चरणों के दर्शन भी कर लूं। मैं जानती हूँ, वह न आएंगे। व्यर्थ ही उनसे आग्रह न करना, मगर तुम आने में एक क्षण का भी विलंब न करना।

शंखधर डाकखाने के सामने खड़ा देर तक रोता रहा। माताजी बीमार हैं। पुत्र और स्वामी के वियोग से ही उनकी यह दशा हुई। क्या वह माता को इस दशा में छोड़कर एक क्षण भी यहां विलंब कर सकता है? उसने पांच साल तक अपना कोई समाचार न लिखकर माता के साथ जो अन्याय किया था, उसकी व्यथा से वह अधीर हो उठा।

उसका मुख उतरा हुआ देखकर चक्रधर ने पूछा--क्यों बेटा, आज उदास क्यों मालूम होते हो?

शंखधर--माताजी का पत्र आया है, वह बहुत बीमार हैं। मैं पिताजी को खोजने निकला था। वह तो न मिले, माताजी भी चली जा रही हैं। पिताजी इस समय मिल जाते, तो मैं उनसे अवश्य कहता....

चक्रधर--क्या कहते, कहो न?

शंखधर--कह देता कि..कि....आप ही माताजी के प्राण ले रहे हैं। आपका विराग और तप किस काम का, जब अपने घर के प्राणी की रक्षा नहीं कर सकते? आपके पास बड़ी-बड़ी आशाएं लेकर आया था, पर आपने भी अनाथ पर दया न की। आपको परमात्मा ने योगबल दिया है, आप चाहते, तो पिताजी की टोह लगा देते।

चक्रधर ने गंभीर स्वर में कहा--बेटा, मैं योगी नहीं हूँ, पर तुम्हारे पिताजी की टोह लगा चुका हूँ। उनसे मिल भी चुका हूँ। तुम नहीं जानते, पर वे गुप्त रीति से तुम्हें देख भी चुके हैं। आह ! उन्हें तुमसे जितना प्रेम है, उसकी कल्पना नहीं कर सकते। तुम्हारी माता को वह नित्य याद किया करते हैं, लेकिन उन्होंने अपने जीवन का जो मार्ग निश्चित कर लिया है, उसे छोड़ नहीं सकते और न स्वयं किसी के साथ जबरदस्ती कर सकते हैं। तुम्हारी माताजी अपनी ही इच्छा से वहां रह गई थीं। वह तो उन्हें अपने साथ लाने को तैयार थे।

शंखधर--आजकल तो माताजी आगरे में हैं। वागीश्वरी देवी से मिलने आई थीं, वहीं बीमार पड़ गईं, लेकिन आपने पिताजी से भेंट की और मुझसे कुछ न कहा। इससे तो यह प्रकट होता है कि आपको भी मुझ पर दया नहीं आती।

चक्रधर ने कुछ जवाब न दिया। जमीन की ओर ताकते रहे। वह अत्यंत कठिन परीक्षा में पड़े हुए थे। बहुत दिन के बाद, अनायास ही उन्हें पुत्र का मुख देखने का सौभाग्य प्राप्त हो गया था। वे सारी भावनाएं, सारी अभिलाषाएं, जिन्हें वह दिल से निकाल चुके थे, जाग उठी थी और इस समय वियोग के भय से आर्तनाद कर रही थीं। वह मोह-बंधन, जिसे वह बड़ी मुश्किल से ढीला कर पाए थे, अब उन्हें शतगुण वेग से अपनी ओर खींच रहा था, मानो उसका हाथ उनके अस्थिपंजर को चीरता हुआ उनके अंतस्तल तक पहुँच गया है।

सहसा शंखधर ने अवरुद्ध कंठ से कहा--तो मैं निराश हो जाऊँ?

चक्रधर ने हृदय से निकलते उच्छ्वास को दबाते हुए कहा--नहीं बेटा, संभव है, कभी वह स्वयं पत्र-प्रेम से विकल होकर तुम्हारे पास दौड़े जाएं। इसका निश्चय तुम्हारे आचरण करेंगे। अगर तुम अपने जीवन में ऊंचे आदर्श का पालन कर सके, तो तुम उन्हें अवश्य खींच लोगे। यदि तुम्हारे आचरण भ्रष्ट हो गए, तो कदाचित् इस शोक में वह अपने प्राण दे दें।

शंखधर--आपके दर्शन मुझे फिर कब होंगे? आपका पता कैसे मिलेगा? यद्यपि मुझे पिताजी के दर्शनों का सौभाग्य नहीं प्राप्त हुआ, लेकिन पिता के पुत्र-प्रेम की मेरे मन में जो कल्पना थी, जिसकी तृष्णा मुझे पांच साल तक वन-वन घुमाती रही, वह आपकी दया से पूरी हो गई। मैंने आपको पिता-तुल्य ही समझा है और जीवन-पर्यंत समझता रहूँगा। यह स्नेह, यह वात्सल्य, यह अपार करुणा मुझे कभी न भूलेगी। इन चरण-कमलों की भक्ति मेरे मन में सदैव बनी रहेगी। आपके दर्शनों के लिए मेरी आत्मा सदैव विकल रहेगी और माताजी के स्वस्थ होते ही मैं फिर आपकी सेवा में आऊंगा।

चक्रधर ने आर्द्र कंठ से कहा--नहीं बेटा, तुम यह कष्ट न करना। मैं स्वयं कभी-कभी तुम्हारे पास आया करूंगा ! मैंने भी तुमको पुत्र-तुल्य समझा है और सदैव समझता रहूँगा। मेरा आशीर्वाद सदैव तुम्हारे साथ रहेगा।

संध्या समय शंखधर अपने पिता से विदा होकर चला। चक्रधर को ऐसा मालूम हो रहा था, मानो उनका हृदय वक्ष-स्थल को तोडकर शंखधर के साथ चला जा रहा है। जब वह आंखों से ओझल हो गया तो उन्होंने एक लंबी सांस ली और बालकों की भांति बिलख-बिलखकर रोने लगे। ऐसा मालूम हुआ, मानो चारों ओर शून्य है। चला गया ! वह तेजस्वी कुमार चला गया, जिसको देखकर छाती गज भर की हो जाती थी, और जिसके जाने से अब जीवन निरर्थक, व्यर्थ जान पड़ता था ! उन्हें ऐसी भावना हुई कि फिर उस प्रतिभा संपन्न युवक के दर्शन न होंगे !

अड़तालीस

अहिल्या के आने की खबर पाकर मुहल्ले की सैकड़ों औरतें टूट पड़ी। शहर के बड़े-बड़े घरों की स्त्रियां भी आ पहुंची। शाम तक तांता लगा रहा। कुछ लोग डेपुटेशन बनाकर संस्थाओं के लिए चंदै मांगने आ पहुंचे। अहिल्या को इन लोगों से जान बचानी मुश्किल हो गई। किस-किससे अपनी विपत्ति कहे? अपनी गरज के बावले अपनी कहने में मस्त रहते हैं, किसी की सुनते ही कब हैं? इस वक्त अहिल्या को फटे हालों यहां आने पर बड़ी लज्जा आई। वह जानती कि यहां यह हरबोंग मच जाएगा, तो साथ दस-बीस हजार के नोट लेती आती। उसे अब इस टूटे-फूटे मकान में ठहरते भी लज्जा आती थी। जब से देश ने जाना कि वह राजकुमारी है, तब से वह कहीं बाहर न गई थी। कभी काशी रहना हुआ, कभी जगदीशपुर। दूसरे शहर में आने का यह पहला ही अवसर था। अब उसे मालूम हुआ कि धन केवल भोग की वस्तु नहीं है, उससे यश और कीर्ति भी मिलती है। भोग से तो उसे घृणा हो गई थी, लेकिन यश का स्वाद उसे पहली ही बार मिला। शाम तक उसने पंद्रह-बीस हजार के चंदे लिख दिए और मुंशी वज्रधर को रुपए भेजने के लिए पत्र लिख दिया। खत पहुँचने की देर थी। रुपए आ गए। फिर तो उसके द्वार पर भिक्षुकों का जमघट रहने लगा। लंगडों-अंधों से लेकर जोड़ी और मोटर पर बैठने वाले भिक्षुक भिक्षा दान मांगने आने लगे। कहीं से किसी अनाथालय के निरीक्षण करने का निमंत्रण आता, कहीं से टी-पार्टी में सम्मिलित होने का। कमारी-सभा, बालिका विद्यालय, महिला क्लब आदि संस्थाओं ने उसे मानपत्र दिए और उसने ऐसे सुंदर उत्तर दिए कि उसकी योग्यता और विचारशीलता का सिक्का बैठ गया। 'आए थे हरिभजन को, ओटन लगे कपास' वाली कहावत हुई। तपस्या करने आई थी, यहां सभ्य समाज की क्रीडाओं में मग्न हो गई। अपने अभीष्ट का ध्यान ही न रहा।

ख्वाजा महमूद को भी खबर मिली। बेचारे आंखों से माजूर थे। मुश्किल से चल-फिर सकते थे। उन्हें आशा थी कि रानीजी मुझे जरूर सरफराज फरमाएंगी, लेकिन जब एक हफ्ता गुजर गया और अहिल्या ने उन्हें सरफराज न किया, तो एक दिन तामजान पर बैठकर स्वयं आए और लाठी टेकते हुए द्वार पर खड़े हो गए। उनकी खबर पाते ही अहिल्या निकल आई और बड़ी नम्रता से बोली-ख्वाजा साहब, मिजाज तो अच्छे हैं? मैं खुद ही हाजिर होने वाली थी, आपने नाहक तकलीफ की।

ख्वाजा--खुदा का शुक्र है। जिंदा हूँ। हुजूर तो खैरियत से रहीं?

अहिल्या--आपकी दुआ है, मगर आप मुझसे यों बातें कर रहे हैं, गोया मैं कुछ और हो गई हूँ। मैं आपकी पाली हुई वही लड़की हूँ, जो आज से पंद्रह साल पहले थी, और आपको उसी निगाह से देखती हूँ।

ख्वाजा साहब अहिल्या की नम्रता और शील पर मुग्ध हो गए। वल्लाह! क्या इन्कसार है, कितनी खाकसारी है ! इसी को शराफत कहते हैं कि इंसान अपने को भूल न जाए। बोले--बेटी, तुम्हें खुदा ने यह दरजा अता किया, मगर तुम्हारा मिजाज वही है, वरना किसे अपने दिन याद रहते हैं। प्रभुता पाते ही लोगों की निगाहें बदल जाती हैं, किसी को पहचानते तक नहीं, जमीन पर पांव तक नहीं रखते। कसम खुदा की, मैंने जिस वक्त तुम्हें नाली में रोते पाया था, उसी वक्त समझ गया था कि यह किसी बड़े घर का चिराग है। मैं यशोदानंदन मरहूम से भी बराबर यह बात कहता रहा। इतनी हिम्मत, इतनी दिलेरी, अपनी असमत के लिए जान पर खेल जाने का यह जोश, राजकुमारियों ही में हो सकता है। खुदा आपको हमेशा खुश रखे। आपको देखकर आंखें मसरूर हो गईं। आपकी अम्मांजान तो अच्छी तरह हैं? क्या करूं, पड़ोस में रहता हूँ, मगर बरसों आने की नौबत नहीं आती। उनकी सी पाकीजा सिफत खातून दुनिया में कम होंगी?

अहिल्या--आप उन्हें समझाते नहीं, क्यों इतना कष्ट झेलती हैं?

ख्वाजा--अरे बेटा, एक बार नहीं, हजार बार समझा चुका, मगर जब वह खुदा की बंदी मानें भी। कितना कहा कि मेरे पास जो कुछ है, वह तुम्हारा है ! यशोदानंदन मरहूम से मेरा बिरादराना रिश्ता है। सच पूछो तो मैं उन्हीं का बनाया हुआ हूँ। मेरी जायदादमें तुम्हारा भी हिस्सा है, लेकिन मेरी बातों का मुतलक लिहाज न किया। यह तवक्कुल खुदा की देन है। आपको इस मकान में तकलीफ होती होगी। मेरा बंगला खाली है, अगर कोई हरज न समझो, तो उसी में कयाम करो।

वास्तव में अहिल्या को उस घर में बड़ी तकलीफ होती थी। रात में नींद ही न आती। आदमी अपनी आदतों को एकाएक नहीं बदल सकता। पंद्रह साल से वह उस महल में रहने की आदी हो रही थी, जिसका सानी बनारस में न था। इस तंग, गंदे एवं टूटे-फूटे अंधेरे मकान में जहां रात भर मच्छरों की शहनाई बजती रहती थी, उसे कब आराम मिल सकता था? उसे चारों तरफ से बदबू आती हुई मालूम होती थी। सांस लेना मुश्किल था, पर ख्वाजा साहब के निमंत्रण को वह स्वीकार न कर सकी, वागीश्वरी से अलग वह वहां न रह सकती थी। बोली-नहीं ख्वाजा साहब, यहां मुझे कोई तकलीफ नहीं है। आदमी को अपने दिन न भूलने चाहिए। इसी में सोलह साल रही हूँ। जिंदगी में जो कुछ सुख देखा, वह इसी घर में देखा। पुराने साथी का साथ कैसे छोड़ दूं!

ख्वाजा--बाबू चक्रधर का अब तक कुछ पता न चला?

अहिल्या--इसी लिहाज से तो मैं बड़ी बदनसीब हूँ, ख्वाजा साहब ! उनको गए पंद्रह साल गुजर गए। पांच साल से लड़का भी गायब है। उन्हीं की तलाश में निकला हुआ है। लोग समझते होंगे कि इसकी-सी सुखी औरत दुनिया में न होगी ! और मैं अपनी किस्मत को रोती हूँ। इरादा था कुछ दिनों अम्मांजी के साथ अकेली पड़ी रहूँगी, पर अमीरी की बला यहां भी सिर से न टली। कहिए, अब यहां तो आपस में दंगा-फिसाद नहीं होता?

ख्वाजा--जी नहीं, अभी तक तो खुदा का फजल है, लेकिन यह देखता हूँ कि आपस में पहले की-सी मुहब्बत नहीं है। दोनों कौमों में कुछ ऐसे लोग हैं, जिनकी इज्जत और सरवत दोनों को लड़ाते रहने पर ही कायम है। बस, वह एक न एक शिगूफा छोड़ा करते हैं। मेरा तो यह कौल है कि हिंदू रहो, चाहे मुसलमान, खुदा के सच्चे बंदे रहो। सारी खूबियां किसी एक ही कौम के हिस्से में नहीं आईं। न सब मुसलमान पाकीजा हैं, न सब हिंदू देवता हैं, इसी तरह न सभी हिंदू काफिर हैं, न सभी मुसलमान मोमिन। जो आदमी दूसरी कौम से जितनी नफरत करता है, समझ लीजिए कि वह खुदा से उतनी दूर है। मुझे आपसे कमाल हमदर्दी है, मगर चलने-फिरने से मजबूर हूँ, वर्ना बाबू साहब जहां होते, वहां से खींच लाता।

ख्वाजा साहब जाने लगे, तो अहिल्या ने इस्लामी यतीमखाने के लिए पांच हजार रुपए दान दिए। इस दान से मुसलमानों के दिलों पर भी उसका सिक्का बैठ गया। चक्रधर की याद फिर ताजी हो गई। मुसलमान महिलाओं ने भी उसकी दावत की।

अहिल्या को अब रोज ही किसी-न-किसी जलसे में जाना पड़ता, और वह बड़े शौक से जाती। दो ही सप्ताह में उसका कायापलट-सा हो गया। यश-लालसा ने धन की उपेक्षा का भाव उसके दिल से निकाल दिया ! वास्तव में वह समारोहों में अपनी मुसीबतें भूल गई। अच्छे-अच्छे व्याख्यान तैयार करने में वह इतना तत्पर रहने लगी, मानो उसे नशा हो गया है। वास्तव में यह नशा ही था। यह लालसा से बढ़कर दूसरा नशा नहीं।

वागीश्वरी पुराने विचारों की स्त्री थी। उसे अहिल्या का यों घूम-घूमकर व्याख्यान देना और रुपए लुटाना अच्छा न लगता था। एक दिन उसने कह ही डाला-क्यों री अहिल्या, तू अपनी संपत्ति लुटाकर ही रहेगी?

अहिल्या ने गर्व से कहा--और है ही किसलिए, अम्मांजी? धन में यही बुराई है। कि इससे विलासिता बढ़ती है, लेकिन इसमें परोपकार करने की सामर्थ्य भी है।

वागीश्वरी ने परोपकार के नाम से चिढ़कर कहा--तू जो कर रही है, यह परोपकार नहीं, यश-लालसा है। अपने पुरुष और पुत्र का उपकार तो तू कर न सकी, संसार का उपकार करने चली है!

अहिल्या--तुम तो अम्मांजी आपे से बाहर हो जाती हो।

वागीश्वरी--अगर तू धन के पीछे अंधी न हो जाती, तो तुझे यह दंड न भोगना पड़ता। तेरा चित्त कुछ-कुछ ठिकाने पर आ रहा था, तब तक तुझे यह नई सनक सवार हो गई। परोपकार तो तब समझती, जब तू वहीं बैठे-बैठे गुप्त रूप से चंदे भिजवा देती। मुझे शंका हो रही है कि इस वाह-वाह से तेरा सिर न फिर जाए । धन का भूत तेरे पीछे बुरी तरह पड़ा हुआ है और अभी तेरा कुछ और अनिष्ट करेगा।

अहिल्या ने नाक सिकोड़कर कहा--जो कुछ करना था, कर चुका, अब क्या करेगा? जिंदगी ही कितनी रह गई है, जिसके लिए रोऊं?

दूसरे दिन प्रात:काल डाकिया शंखधर का पत्र लेकर पहुंचा, जो जगदीशपुर और काशी से घूमता हुआ आया था। अहिल्या पत्र पढ़ते ही उछल पड़ी और दौड़ी हुई वागीश्वरी के पास जाकर बोली-अम्मां, देखो, लल्लू का पत्र आ गया। दोनों जने एक ही जगह हैं। मुझे बुलाया है।

वागीश्वरी--ईश्वर को धन्यवाद दो बेटी। कहाँ हैं?

अहिल्या--दक्षिण की ओर हैं, अम्मांजी! पता-ठिकाना सब लिखा हुआ है।

वागीश्वरी--तो बस, अब तू चली जा। चल, मैं भी तेरे साथ चलूंगी।

अहिल्या--आज पूरे पांच साल के बाद खबर मिली है, अम्मांजी ! मुझे आगरे आना फल गया। यह तुम्हारे आशीर्वाद का फल है, अम्मांजी।

वागीश्वरी--मैं तो उस लड़के के जीवट को बखानती हूँ कि बाप का पता लगाकर ही छोड़ा। अहिल्या--इस आनंद में आज उत्सव मनाना चाहिए, अम्मांजी।

वागीश्वरी--उत्सव पीछे मनाना, पहले वहां चलने की तैयारी करो। कहीं और चले गए, तो हाथ मलकर रह जाओगी।

लेकिन सारा दिन गुजर गया और अहिल्या ने यात्रा की कोई तैयारी न की। वह अब यात्रा के लिए उत्सुक न मालूम होती थी। आनंद का पहला आवेश समाप्त होते ही वह इस दुविधा में पड़ गई थी कि वहां जाऊं या न जाऊं? वहां जाना केवल दस-पांच दिन या महीने के लिए जाना न था, वरन् राजपाट से हाथ धो लेना और शंखधर के भविष्य को बलिदान करना था। वह जानती थी कि पितृभक्त शंखधर पिता को छोड़कर किसी भांति न आएगा और मैं भी प्रेम के बंधन में फंस जाऊंगी। उसने यही निश्चय किया कि शंखधर को किसी हीले से बुला लेना चाहिए। उसका मन कहता था कि शंखधर आ गया, तो स्वामी के दर्शन भी उसे अवश्य होंगे। शंखधर ने पत्र में लिखा था कि पिताजी को मुझसे अपार स्नेह है। क्या यह पुत्र-प्रेम उन्हें खींच न लाएगा? वह चाहे संन्यासी ही के रूप में आएं, पर आएंगे जरूर, और जब अबकी वह उनके चरणों को पकड़ लेगी, तो फिर वह नहीं छुड़ा सकेंगे। शंखधर के राजसिंहासन पर बैठ जाने के बाद यदि स्वामीजी की इच्छा हुई, तो वह उनके साथ चली जाएगी और शेष जीवन उनके चरणों की सेवा में काटेगी। इस वक्त वहां जाकर वह अपनी प्रेमाकांक्षाओं की वेदी पर अपने पुत्र के जीवन को बलिदान न करेगी। जैसे इतने दिनों पति वियोग में जली है, उसी तरह कुछ दिन और जलेगी। उसने मन में यह निश्चय करके शंखधर के पत्र का उत्तर दे दिया। लिखा--'मैं बहुत बीमार हं, बचने की कोई आशा नहीं, बस, एक बार तुम्हें देखने की अभिलाषा है। तुम आ जाओ, तो शायद जी उडूं, लेकिन न आए तो समझ लो अम्मां मर गई।' अहिल्या को विश्वास था कि यह पत्र पढ़कर शंखधर दौड़ा चला आएगा और स्वामी भी यदि उसके साथ न आएंगे, तो उसे आने से रोकेंगे भी नहीं।

अभागिनी अहिल्या ! तू फिर धन-लिप्सा के जाल में फंस गई। क्या इच्छाएं भी राक्षसों की भांति अपने ही रक्त से उत्पन्न होती हैं? वे कितनी अजेय हैं। जब ऐसा ज्ञात होने लगा कि वे निर्जीव हो गई हैं, तो सहसा वे फिर जी उठी और संख्या में पहले से शतगुण होकर। पंद्रह वर्ष की दारुण वेदना एक क्षण में विस्मृत हो गई। धन्य रे तेरी माया !

संध्या समय वागीश्वरी ने पूछा--क्या जाने का इरादा नहीं है?

अहिल्या ने शरमाते हुए कहा--अभी तो अम्मांजी मैंने लल्लू को बुलाया है। अगर वह न आवेगा, तो चली जाऊंगी।

वागीश्वरी--लल्लू के साथ क्या चक्रधर भी आ जाएंगे? तू ऐसा अवसर पाकर भी छोड़ देती है। न जाने तुझ पर क्या आने वाली है !

अहिल्या अपने सारे दुःख भूलकर शंखधर के राज्याभिषेक की कल्पना में विभोर हो गई।

उनचास

गाड़ी अंधकार को चीरती हुई चली जाती थी। सहसा शंखधर हर्षपुर' का नाम सुनकर चौंक पड़ा। वह भूल गया, मैं कहाँ जा रहा हूँ, किस काम से जा रहा हूँ और मेरे रुक जाने से कितना बड़ा अनर्थ जो जाएगा? किसी अज्ञात शक्ति ने उसे गाड़ी छोड़कर उतर आने पर मजबूर कर दिया। उसने स्टेशन को गौर से देखा। उसे जान पड़ा, मानो उसने इसे पहले भी देखा है। वह एक क्षण तक आत्मविस्मृति की दशा में खड़ा रहा। फिर टहलता हुआ स्टेशन के बाहर चला गया।

टिकट बाबू ने पूछा--आपका टिकट तो आगरे का है?

शंखधर ने लापरवाही से कहा--कोई हरज नहीं।

वह स्टेशन से बाहर निकला, तो उस समय अंधकार में भी वह स्थान परिचित मालूम हुआ। ऐसा जान पड़ा, मानो बहुत दिनों तक यहां रहा है। वह सड़कों पर हो लिया और आबादी की ओर चला। ज्यों-ज्यों बस्ती निकट आती थी, उसके पांव तेज होते जाते थे। उसे एक विचित्र उत्साह हो रहा था, जिसका आशय वह स्वयं कुछ न समझ सकता था। एकाएक उसके सामने एक विशाल भवन दिखाई दिया। भवन के सामने एक छोटा-सा बाग था। वह बिजली की रोशनी से जगमगा रहा था। उस दिव्य प्रकाश में भवन की शुभ्र छटा देखकर शंखधर उछल पड़ा। उसे ज्ञात हुआ, यही उसका पुराना घर है, यहीं उसका बालपन बीता है। भवन के भीतर का एक-एक कमरा उसकी आंखों में फिर गया ! ऐसी इच्छा हुई कि उड़कर अंदर चला जाऊं। बाग के द्वार पर एक चौकीदार संगीन चढ़ाए खड़ा था। शंखधर को अंदर कदम रखते देखकर बोला-तुम कौन हो?

शंखधर ने डांटकर कहा--चुप रहो, महारानीजी के पास जा रहे हैं।

वह रानी कौन थी, वह क्यों उसके पास जा रहा था, और उसका रानी से कब परिचय हुआ था, यह सब शंखधर को कुछ याद न आता था। दरबान को उसने जो जवाब दिया था, वह भी अनायास ही उसके मुंह से निकल गया था। जैसे नशे में आदमी का अपनी चेतना पर कोई अधिकार नहीं रहता, उसकी वाणी, उसके अंग, उसकी कर्मेद्रियां उसके काबू के बाहर हो जाती हैं, वही दशा शंखधर की भी हो रही थी। चौकीदार उसका उत्तर सुनकर रास्ते से हट गया और शंखधर ने बाग में प्रवेश किया। बाग का एक-एक पौधा, एक-एक क्यारी, एक-एक कुंज, एक-एक मूर्ति, हौज, संगमरमर का चबूतरा उसे जाना-पहचाना-सा मालूम हो रहा था। वह नि:शंक भाव से राजभवन में जा पहुंचा।

एक सेविका ने पूछा--तुम कौन हो?

शंखधर ने कहा--साधु हूँ। जाकर महारानी को सूचना दे दें।

सेविका--महारानीजी इस समय पूजा पर हैं। उनके पास जाने का हुक्म नहीं है।

शंखधर--क्या बहुत देर तक पूजा करती हैं?

सेविका--हां, कोई तीन बजे रात को पूजा से उठेंगी। उसी वक्त नाम मात्र को पारण करेंगी और घंटे भर आराम करके स्नान करने चली जाएंगी। फिर तीन बजे रात तक एक क्षण के लिए भी आराम न करेंगी। यही उनका जीवन है।

शंखधर--बड़ी तपस्या कर रही हैं!

सेविका--और कैसी तपस्या होगी, महाराज? न कोई शौक है, न श्रृंगार है, न किसी से हंसना, न बोलना। आदमियों की सूरत से कोसों भागती हैं। दिन-रात जप-तप के सिवा और कोई काम ही नहीं। जब से महाराज का स्वर्गवास हुआ है, तभी से तपस्विनी बन गई हैं। आप कहाँ से आए हैं और उनसे क्या काम है?

शंखधर--साधु-संतों को किसी से क्या काम? महारानी की साधु-सेवा की चर्चा सुनकर चला आया।

सेविका--आपकी आवाज तो मालूम होता है, कहीं सुनी है, लेकिन आपको देखा नहीं।

यह कहते-कहते वह सहसा कांप उठी। शंखधर की तेजमयी मूर्ति में उसे उस आकृति का प्रतिबिंब अमानुषीय प्रकाश से दीप्त दिखाई दिया, जिसे उसने बीस वर्ष पूर्व देखा था ! वह सादृश्य प्रतिक्षण प्रत्यक्ष होता जाता था, यहां तक कि वह भयभीत होकर वहां से भागी और रानी कमला के कमरे में जाकर सहमी हुई खड़ी हो गई।

रानी कमलावती ने आग्नेय नेत्रों से देखकर पूछा--तू यहां क्या करने आई? इस समय तेरा यहां क्या काम है?

सेविका--महारानीजी, क्षमा कीजिए। प्राणदान मिले तो कहूँ। आंगन में एक तेजस्वी पुरुष खड़ा आपको पूछ रहा है। मैं क्या कहूँ महारानीजी, उसका कंठ-स्वर और आकृति हमारे महाराज से इतनी मिलती है कि मालूम होता है, वही खड़े हैं। न जाने, कैसी दैवी लीला है ! अगर मैंने कभी किसी का अहित चेता हो, तो मैं सौ जन्म नरक भोगू।

रानी कमला पूजा पर से उठ खड़ी हुई और गंभीर भाव से बोली--डर मत, डर मत, उन्होंने तुझसे क्या कहा?

सेविका--सरकार, मेरा तो कलेजा कांप रहा है। उन्होंने सरकार का नाम लेकर कहा कि उन्हें द्वारे आने की सूचना दे दे।

रानी--उनकी क्या अवस्था है?

सेविका--सरकार, अभी तो मसें भीग रही हैं।

रानी कमला देर तक विचार में मग्न खड़ी रहीं। क्या हो सकता है। क्या इस जीवन में अपने प्राणाधार के दर्शन फिर हो सकते हैं? बीस ही वर्ष तो हुए उन्हें शरीर त्याग किए हुए। क्या ऐसा कभी हो सकता है?

उसकी पूर्व स्मृतियां जागृत हो गईं। एक पर्वत की गुफा में महेन्द्र के साथ रहना याद आया। उस समय भी वह ब्रह्मचर्य का पालन कर रहे थे। उनके कितने ही अलौकिक कृत्य याद आ गए, जिनका मर्म वह अब तक न समझ सकी थी। फिर वायुयान पर उनके साथ बैठकर उड़ने की याद आई। आह ! वह गीत याद आया, जो उस समय उसने गाया था। उस समय प्राणनाथ कितने प्रेमविहल हो रहे थे। उनकी प्रेम-प्रदीप्त छवि उसके सामने छा गई। हाय ! उन नेत्रों में कितनी तृष्णा थी, कितनी अतृप्त लालसा! उस अपार सुखमय अशांति, उस मधुर व्यथापूर्ण उल्लास को याद करके वह पुलकित हो उठी। आह ! वह भीषण अंत ! उसे ऐसा जान पड़ा, वह खड़ी न रह सकेगी।

सेविका ने कातर स्वर में पूछा--सरकार, क्या आज्ञा है?

रानी ने चौंककर कहा--चल, देखू तो कौन है?

वह हृदय को संभालती हुई आंगन में आई। वहीं बिजली के उज्ज्वल प्रकाश में उसे शंखधर की दिव्य मूर्ति ब्रह्मचर्य के तेज से चमकती हुई खड़ी दिखाई दी; मानो उसका सौभाग्य सूर्य उदित हो गया हो। क्या अब भी कोई संदेह हो सकता था? लेकिन संस्कारों को मिटाना भी तो आसान नहीं। संसार में कितना कपट है, क्या इसका उसे काफी अनुभव न था ! यद्यपि उसका हृदय उन चरणों से दौड़कर लिपट जाने के लिए अधीर हो रहा था, फिर भी मन को रोककर उसने दूर ही से पूछा-महाराज, आप कौन हैं और मुझे क्यों याद किया है?

शंखधर ने रानी के समीप जाकर कहा--क्या मुझे इतनी जल्द भूल गईं, कमला? क्या इस रूपांतर ही से तुम्हें यह भ्रम हो रहा है? मैं वही हूँ, जिसने न जाने कितने दिन हुए, तुम्हारे हृदय में प्रेम के रूप में जन्म लिया था, और तुम्हारे प्रियतम के रूप में तुम्हारे सत्, व्रत और सेवा में अमर होकर आज तक उसी अपार आनंद की खोज में भटकता फिरता हूँ। क्या कुछ और परिचय दूं? वह पर्वत की गुफा तुम्हें याद है? वह वायुयान पर बैठकर आकाश में भ्रमण करना याद है? आह ! तुम्हारे उस स्वर्गीय संगीत की ध्वनि अभी तक कानों में गूंज रही है। प्रिये, कह नहीं सकता, कितनी बार तुम्हारे हृदय-मंदिर के द्वार पर भिक्षुक बनकर आया, लेकिन दो बार आना याद है। मैंने उसे खोलकर अंदर जाना चाहा, पर दोनों ही बार असफल रहा। वही अतृप्त आकांक्षा मुझे फिर खींच लाई है, और...

रानी कमला ने उन्हें अपना वाक्य पूरा न करने दिया। वह दौड़कर उनके चरणों पर गिर पड़ी और उन्हें अपने आंसुओं से पखारने लगी। यह सौभाग्य किसको प्राप्त हुआ है? जिस पवित्र मूर्ति की वह बीस वर्ष से उपासना कर रही थी, वही उसके सम्मुख खड़ी थी। वह अपना सर्वस्य त्याग देगी, इस ऐश्वर्य को तिलांजलि दे देगी और अपने प्रियतम के साथ पर्वतों में रहेगी। वह सब कुछ झेलकर अपने स्वामी के चरणों से लगी रहेगी। इसके सिवा अब उसे कोई आकांक्षा, कोई इच्छा नहीं है।

लेकिन एक ही क्षण में उसे अपनी शारीरिक अवस्था की याद आ गई। उसके उन्मत्त हृदय को ठोकर-सी लगी। यौवन काल के रूप-लावण्य के लिए उसका मन लालायित हो उठा, वे काले-काले लंबे केश, वह पुष्प के समान विकसित कपोल, वे मदभरी आंखें, वह कोमलता, वह माधुर्य अब कहाँ? क्या इस दशा में वह अपने स्वामी की प्राणेश्वरी बन सकेगी?

सहसा शंखधर बोले--कमला, कभी तुम्हें मेरी याद आती थी?

रानी ने उनका हाथ पकड़कर कहा--स्वामी, आज बीस वर्ष से तुम्हारी उपासना कर रही हूँ। आह ! आप उस समय आए हैं, जब मेरे पास प्रेम नहीं, केवल श्रद्धा और भक्ति है। आइए, मेरे हृदय-मंदिर में विराजिए।

शंखधर--ऐसा क्यों कहती हो, कमला?

कमला ने सजल नेत्रों से शंखधर की ओर देखा, पर मुंह से कुछ न बोली। शंखधर ने उसके मन का भाव ताड़कर कहा--प्रिये, मेरी दृष्टि में तुम वही हो, जो आज से बीस वर्ष पहले थीं। नहीं, तुम्हारा आत्मस्वरूप उससे कहीं सुंदर, कहीं मनोहर हो गया है, लेकिन तुम्हें संतुष्ट करने के लिए मैं तुम्हारा कायाकल्प कर दूंगा। विज्ञान में इतनी विभूति है कि काल के चिह्नों को भी मिटा दे?

कमला ने कातर स्वर में कहा--प्राणनाथ, क्या यह संभव है?

शंखधर--हां प्रिये, प्रकृति जो कुछ कर सकती है, वह सब विज्ञान के लिए संभव है। यह ब्रह्मांड एक विराट् प्रयोगशाला के सिवा और क्या है?

कमला के मनोल्लास का अनुमान कौन कर सकता है? आज बीस वर्ष के बाद उसके होठों पर मधुर हास्य क्रीडा करता हुआ दिखाई दिया। दान, व्रत और तप के प्रभाव का उसे आज अनुभव हुआ। इसके साथ ही उसे अपने सौभाग्य पर भी गर्व हो उठा। यह मेरी तपस्या का फल है ! मैं अपनी तपस्या से प्राणनाथ को देवलोक से खींच लायी हूँ! दूसरा कौन इतना तप कर सकता है? कौन इंद्रिय सुखों को त्याग सकता है?

यह भाव मन में आया ही था कि कमला चौंक पड़ी ! हाय ! यह क्या हुआ? उसे ऐसा मालूम हुआ कि उसकी आंखों की ज्योति क्षीण हो गई है। शंखधर का तेजमय स्वरूप उसे मिटा-मिटा-सा दिखाई दिया और सभी वस्तुएं साफ नजर न आती थीं, केवल शंखधर दूर-दूर होते जा रहे थे।

कमला ने घबराकर कहा--प्राणनाथ, क्या आप मुझे छोड़कर चले जा रहे हैं ! हाय ! इतनी जल्द?

शंखधर ने गंभीर स्वर में कहा--नहीं प्रिये, प्रेम का बंधन इतना निर्बल नहीं होता।

कमला--तो आप मुझे जाते हुए क्यों दीखते हैं?

शंखधर--इसका कारण अपने मन में देखो!

प्रात:काल शंखधर ने कहा--प्रिये, मेरी प्रयोगशाला की दशा क्या है?

कमला--चलिए, आपको दिखाऊं।

शंखधर--उस कठिन परीक्षा के लिए तैयार हो?

कमला--आपके रहते मुझे क्या भय है?

लेकिन प्रयोगशाला में पहुँचकर सहसा कमला का दिल बैठ गया। जिस सुख की लालसा उसे माया के अंधकार में लिए जाती है, क्या वह सुख स्थायी होगा? पहले ही की भांति क्या फिर दुर्भाग्य की एक कुटिल क्रीड़ा उसे इस सुख से वंचित न कर देगी? उसे ऐसा आभास हुआ कि अनंत काल से वह सुख-लालसा के इसी चक्र में पड़ी हुई यातनाएं झेल रही है। हाय रे ईश्वर ! तूने ऐसा देवतुल्य पुरुष देकर भी मेरी सुख-लालसा को तृप्त न होने दिया।

इतने में शंखधर ने कहा--प्रिये, तुम इस शिला पर लेट जाओ और आंखें बंद कर लो। कमला ने शिला पर बैठकर कातर स्वर में पूछा--प्राणनाथ, तब मुझे ये बातें याद रहेंगी? शंखधर ने मुस्कराकर कहा--सब याद रहेंगी प्रिये, इससे निश्चित रहो।

कमला--मुझे यह राजपाट त्याग करना पड़ेगा?

शंखधर ने देखा, अभी तक कमला मोह में पड़ी हुई है। अनंत सुख की आशा भी उसके मोह-बंधन को नहीं तोड़ सकी। दुःखी होकर बोले-हां, कमला, तुम इससे बड़े राज्य की स्वामिनी बन जाओगी। राज्य सुख में बाधक नहीं होता, यदि विलास की ओर न ले जाए।

पर कमला ने ये शब्द न सुने। शिला से प्रवाहित विद्युत शक्ति ने उसे अचेत कर दिया था। केवल उसकी आंखें खुली थीं। उनमें अब भी तृष्णा चमक रही थी।

पचास

राजा विशालसिंह की हिंसा-वृत्ति किसी प्रकार शांत न होती थी। ज्यों-ज्यों अपनी दशा पर उन्हें दुःख होता था, उनके अत्याचार और भी बढ़ते थे। उनके हृदय में अब सहानुभूति, प्रेम और धैर्य के लिए जरा भी स्थान न था। उनकी संपूर्ण वृत्तियां 'हिंसा-हिंसा !' पुकार रही थीं। जब उन पर चारों ओर से दैवी आघात हो रहे थे, उनकी दशा पर दैव को लेशमात्र भी दया न आती थी, तो वह क्यों किसी पर दया करें? अगर उनका वश चलता तो इंद्रलोक को भी विध्वंस कर देते। देवताओं पर ऐसा आक्रमण करते कि वृत्रासुर की याद भूल जाती। स्वर्ग का रास्ता बंद पाकर वह अपनी रियासत को ही खून के आंसू रुलाना चाहते थे। इधर कुछ दिनों से उन्होंने प्रतिकार का एक और ही शस्त्र खोज निकाला था। उन्हें नि:संतान रखकर मिली हुई संतान उनकी गोद से छीनकर, दैव ने उनके साथ सबसे बड़ा अन्याय किया था। दैव के शस्त्रालय में उनका दमन करने के लिए यही सबसे कठोर शस्त्र था। इसे राजा साहब उनके हाथों से छीन लेना चाहते थे। उन्होंने सातवां विवाह करने का निश्चय कर लिया था। राजाओं के लिए कन्याओं की क्या कमी? ब्राह्मणों ने राशि, वर्ण और विधि मिला दी थी। बड़े-बड़े पंडित इस काम के लिए बुलाए गए थे। उन्होंने व्यवस्था दे दी थी कि यह विवाह कभी निष्फल नहीं जा सकता, अतएव कई महीने से इस सातवें विवाह की तैयारियां बड़े जोरों से हो रही थीं। कई राजवैद्य रात-दिन बैठे भांति-भांति के रस बनाते रहते। पौष्टिक औषधियां चारों ओर से मंगाई जा रही थीं। राजा साहब यह विवाह इतनी धूमधाम से करना चाहते थे कि देवताओं के कलेजे पर सांप लोटने लगे।

रानी मनोरमा ने इधर बहुत दिनों से घर या रियासत के किसी मामले में बोलना छोड़ दिया था। वह बोलती भी, तो सुनता कौन? कहाँ तो यह हाल था कि राजा साहब को उसके बगैर एक क्षण भी चैन न आता था, उसे पाकर मानो वह सब कुछ पा गए थे। रियासत का सियाह-सुफेद सब कुछ उसी के हाथों में था, यहां तक कि उसके प्रेम-प्रवाह में राजा साहब की संतान-लालसा भी विलीन हो गई थी। वही मनोरमा अब दूध की मक्खी बनी हुई थी। राजा साहब को उसकी सूरत से घृणा हो गई थी। मनोरमा के लिए अब यह घर नरक-तुल्य था। चुपचाप सारी विपत्ति सहती थी। उसे बड़ी इच्छा होती थी कि एक बार राजा साहब के पास जाकर पूछू, मुझसे क्या अपराध हुआ है, पर राजा साहब उसे इसका अवसर ही न देते थे। उनके मन में एक धारणा बैठ गई थी और किसी तरह न हटती थी। उन्हें विश्वास था कि मनोरमा ही ने रोहिणी को विष देकर मार डाला। इसका कोई प्रमाण हो या न हो, पर यह बात उनके मन में बैठ गई थी। इस हत्यारिन से वह कैसे बोलते?

मनोरमा को आए दिन कोई न कोई अपमान सहना पड़ता था। उसका गर्वचूर करने के लिए रोज कोई न कोई षड्यंत्र रचा जाता था। पर वह उद्दंड प्रकृति वाली मनोरमा अब धैर्य और शांति का अथाह सागर है, जिसमें वायु के हल्के-हल्के झोकों से कोई आंदोलन नहीं होता। वह मुस्कराकर सब कुछ शिरोधार्य करती जाती है। यह विकट मुस्कान उसका साथ कभी नहीं छोड़ती। इस मुस्कान में कितनी वेदना, विडंबनाओं की कितनी अवहेलना छिपी हुई है, इसे कौन जानता है? वह मुस्कान नहीं, वह भी देखा, यह भी देखा' वाली कहावत का यथार्थ रूप है। नई रानी साहिबा के लिए सुंदर भवन बनवाया जा रहा था। उसकी सजावट के लिए एक बड़े आईने की जरूरत थी। शायद बाजार में इतना बड़ा आईना न मिल सका। हुक्म हुआ-छोटी रानी के दीवानखाने का बड़ा आईना उतार लाओ। मनोरमा ने यह हुक्म सुना और मुस्करा दी। फिर कालीन की जरूरत पड़ी। फिर वही हुआ-छोटी रानी के दीवानखाने से लाओ। मनोरमा ने मुस्कराकर सारी कालीनें दे दी। इसके कुछ दिनों बाद हुक्म हुआ-छोटी रानी की मोटर नए भवन में लाई जाए । मनोरमा इस मोटर को बहुत पसंद करती थी, उसे खुद चलाती थी। यह हुक्म सुना, तो मुस्करा दी। मोटर चली गई।

मनोरमा के पास पहले बहुत-सी सेविकाएं थी। इधर घटते-घटते उनकी संख्या तीन तक पहुँच गई थी। एक दिन हुक्म हुआ कि तीन सेविकाओं में से दो नए महल में नियुक्त की जाएं। उसके एक सप्ताह बाद वह एक भी बुला ली गई। मनोरमा के यहां अब कोई सेविका न रही। इस हुक्म का भी मनोरमा ने मुस्कराकर स्वागत किया।

मगर अभी सबसे कठोर आघात बाकी था। नई रानी के लिए तो नया महल बन ही रहा था; उसकी माताजी के लिए एक दूसरे मकान की जरूरत पड़ी। माताजी को अपनी पुत्री का वियोग असह्य था। राजा साहब ने नए महल में उनका निवास उचित न समझा। माता के रहने से नई रानी की स्वाधीनता में विघ्न पड़ेगा, इसलिए हुक्म हुआ कि छोटी रानी का महल खाली करा लिया जाए । रानी ने यह हुक्म सुना और मुस्करा दी ! महल खाली करा दिया गया। जिस हिस्से में पहले महरियां रहती थीं, उसी को उसने अपना निवास स्थान बना लिया। द्वार पर टाट के परदे लगवा दिए। यहां पर भी उतनी ही प्रसन्न थी, जितनी अपने महल में।

एक दिन गरुसेवक मनोरमा से मिलने आए। राजा साहब की अप्रसन्नता का पहला वार उन्हीं पर हुआ था। वह दरबार से अलग कर दिए गए थे। वह अपनी जमींदारी की देखभाल करते थे। अधिकार छीने जाने पर वह अधिकार के शत्रु हो गए थे। अब फिर वह किसानों का संगठन करने लगे थे, बेगार के विरुद्ध अब फिर उनकी आवाज उठने लगी थी। मनोरमा पर ये सब अत्याचार देख-देखकर उनकी क्रोधाग्नि भड़कती रहती थी। जिस दिन उन्होंने सुना कि मनोरमा अपने महल से निकाल दी गई है, उनके क्रोध का पारावार न रहा। उनकी सारी वृत्तियां इस अपमान का बदला लेने के लिए तिलमिला उठीं।

मनोरमा ने उनका तमतमाया हुआ चेहरा देखा, तो कांप उठी।

गुरुसेवक ने आते ही पूछा--तुमने महल क्यों छोड़ दिया?

मनोरमा--कोई किसी से जबरदस्ती मान करा सकता है? मुझे वहीं कौन-सा ऐसा बड़ा सुख था, जो महल छोड़ने का दुःख होता? मैं यहां भी खुश हूँ।

गुरुसेवक--मैं देख रहा हूँ, बुड्ढा दिन-दिन सठियाता जाता है। विवाह के पीछे अंधा हो गया है।

मनोरमा--भैया, आप मेरे सामने ऐसे शब्द मुंह से न निकालें। आपके पैरों पड़ती हूँ।

गुरुसेवक--तुम शब्दों को कहती हो, मैं इनकी मरम्मत करने की फिक्र में हूँ। जरा विवाह का मजा चख लें।

मनोरमा ने त्योरियां बदलकर कहा--भैया, मैं फिर कहती हूँ कि आप मेरे सामने ऐसी बातें न करें। मुझे उनसे कोई शिकायत नहीं। वह इस समय अपने होश में नहीं हैं। यही क्या, कोई आदमी शोक के ऐसे निर्दय आघात सहकर अपने होश में नहीं रह सकता। मैं या आप उनके मन के भावों का अनुमान नहीं कर सकते। जिस प्राणी ने चालीस वर्ष तक एक अभिलाषा को हृदय में पाला हो, उसी एक अभिलाषा के लिए उचित-अनुचित, सब कुछ किया हो और चालीस वर्ष के बाद जब उस अभिलाषा के पूरे होने के सब सामान हो गए हों, एकाएक उसके गले पर छुरी चल जाए , तो सोचिए कि उस प्राणी की क्या दशा होगी? राजा साहब ने सिर पटक कर प्राण नहीं दे दिए, यही क्या कम है? कम से कम मैं तो इतना धैर्य न रख सकती। मुझे इस बात का दुःख है कि उनके साथ मुझे जितनी सहानुभूति होनी चाहिए, मैं नहीं कर रही हूँ।

गुरुसेवक ने गंभीर भाव से कहा--अच्छा, प्रजा पर इतना जुल्म क्यों हो रहा है? यह भी बेहोशी है?

मनोरमा--बेहोशी नहीं तो और क्या है। जो आदमी पैंसठ वर्ष की उम्र में संतान के लिए विवाह करे, वह बेहोश ही है। चाहे उसमें बेहोशी का कोई लक्षण न भी दिखाई दे।

गुरुसेवक लज्जित और निराश होकर यहां से चलने लगे, तो मनोरमा खड़ी हो गई और आंखों में आंसू भरकर बोली-भैया, अगर कोई शंका की बात हो, तो मुझे बतला दो।

गुरुसेवक ने आंखें नीची करके कहा--शंका की कोई बात नहीं। शंका की कौन बात हो सकती है, भला?

मनोरमा--मेरी ओर ताक नहीं रहे हो, इससे मुझे शक होता है। देखो भैया, अगर राजा साहब पर जरा भी आंच आई, तो बुरा होगा। जो बात हो, साफ-साफ कह दो।

गुरुसेवक--मुझसे राजा साहब से मतलब ही क्या? अगर तुम खुश हो, तो मुझे उनसे कौनसी दुश्मनी है? रही प्रजा। वह जाने और राजा साहब जानें। मुझसे कोई सरोकार नहीं, मगर बुरा न मानो, तो एक बात पूछू। वह तो तुम्हें ठोकरें मारते हैं और तुम उनके पांव सहलाती हो। क्या समझती हो कि तुम्हारी इस भक्ति से राजा साहब फिर तुमसे खुश हो जाएंगे?

मनोरमा ने भाई को तिरस्कार की दृष्टि से देखकर कहा--अगर ऐसा समझती हूँ तो क्या बुराई करती हूँ। उनकी खुशी की परवा नहीं, तो फिर किसकी खुशी की परवा करूंगी? जो स्त्री अपने पति से दिल में कीना रखे, उसे विष खाकर प्राण दे देना चाहिए। हमारा धर्म कीना रखना नहीं, क्षमा करना है। मेरा विवाह हुए बीस वर्ष से अधिक हुए। बहुत दिनों तक मुझ पर उनकी कृपादृष्टि रही। अब वह मुझसे तने हुए हैं। शायद मेरी सूरत से भी घृणा हो। लेकिन आज तक उन्होंने मुझे एक भी कठोर शब्द नहीं कहा। संसार में ऐसे कितने पुरुष हैं, जो अपनी जबान को इतना संभाल सकते हों? मेरी यह दशा जो हो रही है, मान के कारण हो रही है। अगर मैं मान को त्याग कर उनके पास जाऊं, तो मुझे विश्वास है कि इस समय भी मुझसे वह हंसकर बोलेंगे और जो कुछ कहूँगी, उसे स्वीकार करेंगे। क्या इन बातों को मैं कभी भूल सकती हूँ? मैं तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ, अगर कोई शंका की बात हो तो मुझे बतला दो।

गुरुसेवक ने बंगलें झांकते हुए कहा--मैं तो कह चुका, मुझसे इन बातों से कोई मतलब नहीं।

यह कहते हुए गुरुसेवक ने आगे कदम बढ़ाया। मगर मनोरमा ने उनका हाथ पकड़ लिया और अपनी ओर खींचती हुई बोली-तुम्हारे मुख का भाव कहे देता है कि तुम्हारे मन में कोई न कोई बात अवश्य है, जिसे तुम मुझसे छिपा रहे हो। जब तक मुझे न बताओगे, मैं तुम्हें जाने न दूंगी।

गुरुसेवक--नोरा ! तुम नाहक जिद करती हो।

मनोरमा--अच्छी बात है, न बताइए। जाइए, अब न पूछूंगी। आज से समझ लीजिएगा कि नोरा मर गई।

गुरुसेवक ने हारकर कहा--अगर मैं कोई बात अनुमान से बता ही दूं, तो तुम क्या कर लोगी?

मनोरमा--अगर रोक सकूँगी, तो रो दूंगी।

गुरुसेवक--उसको तुम नहीं रोक सकतीं, मनोरमा ! और न मैं ही रोक सकता हूँ। मनोरमा कुछ उत्तेजित होकर बोली-कुछ मुंह से कहिए भी तो।

गुरुसेवक--प्रजा राजा साहब की अनीति से तंग आ गई है।

मनोरमा यह तो मैं बहुत पहले से जानती हूँ! भारत भी तो अंग्रेजों की अनीति से तंग आ गया है। फिर इससे क्या?

गुरुसेवक--मैं विश्वासघात नहीं कर सकता।

मनोरमा--भैया, बता दीजिए, नहीं तो पछताइएगा।

गुरुसेवक--मैं इतना नीच नहीं हूँ। बस, बस, इतना ही बता देता हूँ कि राजा साहब से कह देना, विवाह के दिन सावधान रहें।

गुरुसेवक लपककर बाहर चले गए ! मनोरमा स्तंभित-सी खड़ी रह गई, मानो हाथ के तोते उड़ गए हों। इस वाक्य का आशय उसकी समझ में न आया। हां, इतना समझ गई कि बारात के दिन कुछ न कुछ उपद्रव अवश्य होने वाला है !

कल ही विवाह का दिन था। सारी तैयारियां हो चुकी थीं। संध्या हो गई थी। प्रात:काल बारात यहां से चलेगी। ज्यादा सोचने-विचारने का समय नहीं था। इसी वक्त राजा साहब को सचेत कर देना चाहिए। कल फिर अवसर हाथ से निकल जाएगा। उसने राजा साहब के पास जाने का निश्चय किया, मगर पुछवाए किससे कि राजा साहब हैं या नहीं? इस वक्त तो वह रोज सैर करने जाते हैं, आज शायद सैर करने न गए हों, मगर तैयारियों में लगे होंगे !

मनोरमा उसी वक्त राजा साहब के दीवानखाने की ओर चली। इस संकट में वह मान कैसे करती? मान करने का समय नहीं है। चार वर्ष के बाद आज उसने पति के शयनागार में प्रवेश किया। जगह वही थी, पर कितनी बदली हुई। पौधों के गमले सूखे पड़े थे, चिड़ियों के पिंजरे खाली। द्वार पर चिक पड़ी हुई थी। राजा साहब कहीं बाहर जाने के लिए कपड़े पहने तैयार थे। मेज पर बैठे जल्दी-जल्दी कोई पत्र लिख रहे थे, मनोरमा को देखते ही कुर्सी से चौंककर उठ बैठे और बाहर की ओर चले, मानो कोई भयंकर जंतु सामने आ गया हो।

मनोरमा ने सामने खड़े होकर कहा--मैं आपसे एक बहुत जरूरी बात कहने आई हूँ। एक क्षण के लिए ठहर जाइए।

राजा साहब कुछ झिझककर खड़े हो गए। जिस अत्याचारी के आंतक से सारी रियासत त्राहि-त्राहि कर रही थी, जिसके भय से लोगों के रक्त सूखे जाते थे, जिसके सम्मुख जाने का साहस किसी को नहीं होता था, उसे ही देखकर दया आती थी। वह भवन जो किसी समय आसमान से बातें करता था, इस समय पृथ्वी पर मस्तक रगड़ रहा था। यह निराशा की सजीव मूर्ति थी, दलित अभिलषाओं की जीती-जागती तस्वीर, पराजय की करुण प्रतिमा, मर्दित अभिमान का आर्तनाद। और वह मोह का उपासक विवाह करने जा रहा था। मनोरथों पर पड़ी हुई तुषार सिर, मूंछ और भौंहों को संपूर्ण रूप से ग्रस चुकी थी, जिनकी ठंडी सांसों से दांत तक गल गए थे वही अपनी झुकी हुई कमर और कांपती हुई टांगों से प्रणय मंदिर की ओर दौड़ा जा रहा था। वाह रे, मोह की कुटिल क्रीड़ा !

मनोरमा ने आग्रहपूर्ण स्वर से कहा--जरा बैठ जाइए, मैं आपका बहुत समय न लूंगी।

राजा--बैलूंगा नहीं, मुझे फुरसत नहीं है। जो बात कहनी है, वह कह दो, मगर मुझे ज्ञान का उपदेश मत देना।

मनोरमा ज्ञान का उपदेश मैं भला आपको क्या दूंगी? केवल इतना ही कहती हूँ कि कल बारात में सावधान रहिएगा।

राजा--क्यों?

मनोरमा-उपद्रव हो जाने का भय है।

बस-बस, इतना ही कहना है या कुछ और?

मनोरमा--बस इतना ही।

राजा--तो तुम जाओ, मैं उपद्रवों की परवा नहीं करता। लुटेरों का भय उसे होता है, जिसके पास सोने की गठरी हो। मेरे पास क्या है, जिसके लिए डरूं?

एकाएक उनकी मुखाकृति कठोर हो गई। आंखों में अस्वाभाविक प्रकाश दिखाई दिया। उदंडता से बोले-मुझे किसी का भय नहीं है। अगर किसी ने चूं भी किया तो रियासत में आग लगा दूंगा। खुन की नदी बहा दूंगा। विशालसिंह रियासत का मालिक है, उसका गुलाम नहीं। कौन है जो मेरे सामने खड़ा हो सके-मेरी एक तेज निगाह शत्रुओं का पित्ता पानी कर देने के लिए काफी है।

मनोरमा का हृदय करुणा से व्याकुल हो उठा। इन शब्दों में कितनी मानसिक वेदना भरी हई थी, वे होश की बातें नहीं, बेहोशी की बाढ़ थी। आग्रह करके बोली-फिर भी सावधान रहने में तो कोई बुराई नहीं। मैं आपके साथ रहूँगी।

राजा ने मनोरमा को घोर सशंक नेत्रों से देखकर कहा--नहीं, नहीं, तुम मेरे साथ नहीं रह सकतीं, किसी तरह नहीं। मैं तुमको खूब जानता हूँ।

यह कहते हुए राजा साहब बाहर चले गए। मनोरमा खड़ी सोचती रह गई कि इन बातों का क्या आशय है? इन शब्दों में जो शंका और दुश्चिंता छिपी हुई थी, यदि इनकी गंध भी उसे मिल जाती, तो शायद उसका हृदय फट जाता, वह वहीं खड़ी-खड़ी चिल्लाकर रो पड़ती। उसने समझा, शायद राजा साहब को उसे अपने साथ रखने में वही संकोचमय आपत्ति है, जो प्रत्येक पुरुष को स्त्रियों से सहायता लेने में होती है। इस वक्त लौट गई, लेकिन वह खटका उसे बराबर लगा हुआ था।

रात अधिक बीत गई थी। बाहर बारात की तैयारियां हो रही थीं। ऐसा शानदार जुलूस निकालने की आयोजना की जा रही थी, जैसा इस नगर में कभी न निकला हो। गोरी फौज थी, काली फौज थी, रियासत की फौज थी। फौजी बैंड था, कोतल घोड़े, सजे हुए हाथी, फूलों की संवारी हुई सवारी गाड़ियां, सुंदर पालकियां-इतनी जमा की गई थीं कि शाम से घड़ी रात तक उनका तांता ही न टूटे। बैंड से लेकर डफले और नृसिंह तक सभी प्रकार के बाजे थे। सैकड़ों ही विमान सजाए गए थे और फुलवारियों की तो गिनती ही नहीं थी। सारी रात द्वार पर चहल-पहल रही। और सारी रात राजा साहब सजावट का प्रबंध करने में व्यस्त रहे। मनोरमा कई बार उनके दीवानखाने में आई और उन्हें वहां न देखकर लौट गई। उसके जी में बार-बार आता था कि बाहर ही चलकर राजा साहब से अनुनय-विनय करूं, लेकिन भय यही था कि कहीं वह सबके सामने बकझक न करने लगे। उसे कुछ कह न बैठें। जो अपने होश में नहीं, उसे किसकी लज्जा और किसका संकोच ! आखिर, जब इस तरह जी न माना, तो वह द्वार पर जाकर खड़ी हो गई कि शायद राजा साहब उसे देखकर उसकी तरफ आएं, लेकिन उसे देखकर भी राजा साहब उसकी ओर न आए, बल्कि और दूर निकल गए।

सारे शहर में इस जुलूस और इस विवाह का उपहास हो रहा था, नौकर-चाकर तक आपस में हंसी उड़ाते थे, राजा साहब की चुटकियां लेते थे। अपनी धुन में मस्त राजा साहब को कुछ न सूझता था, कुछ न सुनाई देता था। सारी रात बीत गई और मनोरमा को कुछ कहने का अवसर न मिला। तब वह अपनी कोठरी में लौट आई और ऐसी फूट-फूटकर रोई, मानो उसका कलेजा बाहर निकल पड़ेगा। उसे आज बीस वर्ष पहले की बात याद आई। जब उसने राजा से विवाह के पहले कहा था-मुझे आपसे प्रेम नहीं है, और न हो सकता है। उसने अपने मनोभावों के साथ कितना अन्याय किया था। आज वह बड़ी खुशी से राजा साहब की रक्षा के लिए अपना बलिदान कर देगी। इसे वह अपना धन्य भाग्य समझेगी। यह उस अखंड प्रेम का प्रसाद है, जिसका उसने पंद्रह वर्ष तक आनंद उठाया और जिसकी एक-एक बात उसके हृदय पर अंकित हो गई थी। उन अंकित चिह्नों को कौन उसके हृदय से मिटा सकता है? निष्ठुरता में इतनी शक्ति नहीं! अपमान में इतनी शक्ति नहीं! प्रेम अमर है, अमिट है।

दूसरे दिन बारात निकलने से पहले मनोरमा फिर राजा साहब के पास जाने को तैयार हुई, लेकिन कमरे से निकली ही थी कि दो हथियारबंद सिपाहियों ने उसे रोका।

रानी ने डांटकर कहा--हट जाओ, नमकहरामो ! मैंने ही तुम्हें नौकर रखा और तुम मुझसे ही गुस्ताखी करते हो?

एक सिपाही बोला--हुजूर के हुक्म के ताबेदार हैं, क्या करें? महाराजा साहब का हुक्म है कि हुजूर इस भवन से बाहर न निकलने पावें। हमारा क्या अपराध है, सरकार?

मनोरमा--तुम्हें किसने यह आज्ञा दी है?

सिपाही--खुद महाराजा साहब ने।

मनोरमा--मैं केवल एक मिनट के लिए राजा साहब से मिलना चाहती हूँ।

सिपाही--बड़ी कड़ी ताकीद है सरकार, हमारी जान न बचेगी।

मनोरमा ऐंठकर रह गई। एक दिन सारी रियासत उसके इशारे पर चलती थी। आज पहरे के सिपाही तक उसकी बात नहीं सुनते। तब और अब में कितना अंतर है !

मनोरमा ने वहीं खड़े-खड़े पूछा--बारात निकलने में कितनी देर है?

सिपाही--अब कुछ देर नहीं है। सब तैयारी हो चुकी है।

मनोरमा--राजा साहब की सवारी के साथ पहरे का कोई विशेष प्रबंध भी किया गया है?

सिपाही--हां हुजूर ! महाराज के साथ एक सौ गोरे रहेंगे। महाराज की सवारी उन्हीं के बीच में रहेगी।

मनोरमा संतुष्ट हो गई। उसकी इच्छा पूरी हो गई। राजा साहब सावधान हो गए, किसी बात का खटका नहीं। वह अपने कमरे में लौट गई।

चार बजते-बजते बारात निकली। जुलूस की लंबाई दो मील से कम न थी। भांति-भांति के बाजे बज रहे थे, रुपए लुटाए जा रहे थे, पग-पग पर फूलों की वर्षा की जा रही थी। सारा शहर तमाशा देखने को फटा पड़ता था।

इसी समय अहिल्या और शंखधर ने नगर में प्रवेश किया और राजभवन की ओर चले, किंतु थोड़ी ही दूर गए थे कि बारात के जुलूस ने रास्ता रोक दिया। जब यह मालूम हुआ कि महाराज विशालसिंह की बारात है, तो शंखधर ने मोटर रोक दी और उस पर खड़े होकर अपना रूमाल हिलाते हुए जोर से बोले-सब आदमी रुक जाएं, कोई एक कदम भी आगे न बढ़े ! फौरन महाराज साहब को सूचना दो कि कुंवर शंखधर आ रहे हैं।

दम के दम में सारी बारात रुक गई। कुंवर साहब आ गए। यह खबर वायु के झोंके की भांति इस सिरे से उस सिरे तक दौड़ गई! जो जहां था, वहीं खड़ा रह गया। फिर उनके दर्शन के लिए लोग दौड़-दौड़कर जमा होने लगे। जुलूस तितर-बितर हो गया। विशालसिंह ने यह भगदड़ देखी, तो समझे, कुछ उपद्रव हो गया। गोरों को तैयार हो जाने का हुक्म दे दिया। कुछ अंधेरा हो चला था। किसी ने राजा साहब से साफ तो न कहा कि कुंवर साहब आ गए, बस जिसने सुना, झंडी-झंडे, बल्लम-भाले फेंक-फांककर भागा। राजा साहब का घबरा जाना स्वाभाविक ही था। उपद्रव की शंका पहले ही से थी। तुरंत खयाल हुआ कि उपद्रव हो गया। गोरों को बंदूकें संभालने का हुक्म दिया।

उसी क्षण शंखधर ने सामने आकर राजा साहब को प्रणाम किया।

शंखधर को देखते ही राजा साहब घोड़े से कूद पड़े और उसे छाती से लगा लिया। आज इस शुभ मुहूर्त में, वह अभिलाषा भी पूरी हो गई, जिसके नाम को वह रो चुके थे। बार-बार कुंवर को छाती से लगाते थे, पर तृप्ति ही न होती थी। आंखों से आंसू की झड़ी लगी हुई थी। जब जरा चित्त शांत हुआ तो बोले-तुम आ गए बेटा, मुझ पर बड़ी दया की। चक्रधर को लाए हो न?

शंखधर ने कहा--वह तो नहीं आए।

राजा--आएंगे, मेरा मन कहता है। मैं तो निराश हो गया था, बेटा। तुम्हारी माता भी चली गईं। तुम पहले ही चले गए, फिर मैं किसका मुंह देख-देखकर जीता? जीवन का कुछ तो आधार चाहिए। अहिल्या तभी से न जाने कहाँ घूम रही है।

शंखधर--वह तो मेरे साथ हैं।

राजा--अच्छा, वह भी आ गई। वाह, मेरे ईश्वर ! सारी खुशियां एक ही दिन के लिए जमा कर रखी थीं। चलो, उसे देखकर आंखें ठंडी करूं।

बारात रुक गई। राजा साहब और शंखधर अहिल्या के पास आए। पिता और पुत्री का सम्मिलन बड़े आनंद का दृश्य था। कामनाओं के वे वृक्ष, जो मुद्दत हुई, निराशा-तुषार की भेंट हो चुके थे, आज लहलहाते, हरी-भरी पत्तियों से लदे हुए सामने खड़े थे। आंसुओं का वेग शांत हुआ, तो राजा साहब बोले-तुम्हें यह बारात देखकर हंसी आई होगी। सभी हंस रहे हैं, लेकिन बेटा, यह बारात नहीं है। कैसी बारात और कैसा दूल्हा ! यह विक्षिप्त हृदय का उद्गार है, और कुछ नहीं। मन कहता था-जब ईश्वर को मेरी सुधि नहीं, मुझ पर जरा भी दया नहीं करते, अकारण ही मुझे सताते हैं, तो मैं क्यों उनसे डरूं? जब स्वामी को सेवक की फिक्र नहीं, तो सेवक को स्वामी की फिक्र क्यों होने लगी? मैंने उतना अन्याय किया, जितना मुझसे हो सका। धर्म और अधर्म, पाप और पुण्य के विचार दिल से निकाल डाले। आखिर मेरी विजय हुई कि नहीं?

अहिल्या-लल्लू अपने लिए रानी भी लेता आया है।

राजा--सच कहना। यह तो खूब हुई। क्या वह भी साथ है?

मोटर के पिछले भाग में बहू बैठी थी। अहिल्या ने पुकारकर कहा-बहू, पिताजी के चरणों के दर्शन कर लो।

बहू आई। राजा साहब देखकर चकित हो गए। ऐसा अनुपम सौंदर्य उन्होंने किसी चित्र में भी न देखा था। बहू को गले लगाकर आशीर्वाद दिया और अहिल्या से मुस्कराकर बोले-शंखधर तो बड़ा भाग्यवान मालूम होता है। यह देवकन्या कहाँ से उड़ा लाया?

अहिल्या--दक्षिण के एक राजा की कुमारी है। ऐसा शील स्वभाव है कि देखकर भूख प्यास बंद हो जाती है। आपने सच ही कहा-देवकन्या है।

राजा--तो यह मेरी बारात का जुलूस नहीं, शंखधर के विवाह का उत्सव है !

इक्यावन

कमला को जगदीशपुर में आकर ऐसा मालूम हुआ कि वह एक युग के बाद अपने घर आई है। वहां की सभी चीजें, सभी प्राणी उसके जाने-पहचाने थे; पर अब उनमें कितना अंतर हो गया था। उसका विशाल नाचघर बिल्कुल बेमरम्मत पड़ा हुआ था। मोर उड़ गए थे, हिरन भाग गए थे और फौवारे सूखे हुए पड़े थे। लताएं और गमले कब के मिट चुके थे, केवल लंबे-लंबे स्तम्भ खड़े थे; पर कमला को नाचघर के विध्वंस होने का जरा भी दुःख न हुआ। उसकी यह दशा देखकर उसे एक प्रकार का संतोष हुआ, मानो उसके घृणित विलास की चिता हो । अगर वह नाचघर आज वैसा ही हरा-भरा होता, जैसे उसके समय में था, तो क्या वह उसके अंदर कदम रख सकती? कदाचित् वह वहीं गिर पड़ती। अब भी उसे ऐसा जान पड़ा कि यह उसके उसी जीवन का चित्र है। कितनी ही पुरानी बातें उसकी आंखों में फिर गईं, कितनी ही स्मृतियां जागृत हो गईं। भय और ग्लानि से उसके रोएं खड़े हो गए। आह ! यही वह स्थान है, जहां उस हतभागिनी ने स्वयं अपने पति को पहचानकर उसके लिए अपने कलुषित प्रेम का जाल बिछाया था। आह ! काश, वह पिछली बातें भूल जातीं। उस विलास-जीवन की याद उसके हृदय पट से मिट जाती ! उन बातों को याद रखते हुए क्या इस जीवन का आनंद उठा सकती थी? मृत्यु का भयंकर हाथ न जाने कहाँ से निकलकर उसे डराने लगा। ईश्वरीय दंड के भय से वह कांप उठी। दीनता के साथ मन में ईश्वर से प्रार्थना की-भगवान्, पापिनी मैं हूँ, मेरे पापों के लिए महेन्द्र को दंड मत देना। मैं सहस्र जीवन तक प्रायश्चित करूंगी, मुझे वैधव्य की आग में न जलाना !

नाचघर से निकलकर देवप्रिया ने रानी मनोरमा के कमरे में प्रवेश किया। वह अनुपम छवि अब मलिन पड़ गई थी। जिस केशराशि को हाथ में लेकर एक दिन वह चकित हो गई थी, उसका अब रूपांतर हो गया था। जिन आंखों में मद, माधुर्य का प्रवाह था, अब वह सूखी पड़ी थीं। उत्कंठा की वह एक करुण प्रतिमा थी जिसे देखकर हृदय के टुकड़े हुए जाते थे। कौन कह सकता था, वह सरला विशालसिंह के गले पड़ेगी।

मनोरमा बोली--नाचघर देखने गई थीं। आजकल तो बेमरम्मत पड़ा हुआ है। उसकी शोभा तो रानी देवप्रिया के साथ चली गयी।

देवप्रिया ने धीरे से कहा--वहां आग क्यों न लग गई-यही आश्चर्य है?

मनोरमा--क्या कुछ सुन चुकी हो?

देवप्रिया--हां, जितना जानती हूँ, उतना ही बहुत है और ज्यादा नहीं जानना चाहती।

यहां से वह रानी रामप्रिया के पास गई। उसे देखकर देवप्रिया की आंखें सजल हो गईं। बड़ी मुश्किल से आंसुओं को रोक सकी। आहे ! जिस बालिका को उसने एक दिन गोद में खिलाया था, वही अब इस समय यौवन की स्मृति मात्र रह गई थी।

देवप्रिया ने वीणा की ओर देखकर कहा--आपको संगीत से बहुत प्रेम है?

रामप्रिया अनिमेष नेत्र से उसकी ओर ताक रही थी। शायद देवप्रिया की बात उसके कानों तक पहुंची ही नहीं।

देवप्रिया ने फिर कहा--मैं भी आपसे कुछ सीढ़ेंगी। रामप्रिया अभी तक उसकी छवि निहारने में मग्न थी। अब की भी कुछ न सुन सकी।

देवप्रिया फिर बोली--आपको मेरे साथ बहुत परिश्रम न करना पड़ेगा। थोड़ा बहुत जानती भी हूँ।

यह कहकर उसने फिर वीणा उठा ली और यह गीत गाने लगी--

प्रभु के दर्शन कैसे पाऊ?

बनकर सरस सुमन की लतिका, पद कमलों से लग जाऊं

या तेरे मन मंदिर की हरि, प्रेम पुजारिन बन जाऊं। प्रभु के दर्शन कैसे पाऊं?

आह! यही गीत था, जो रामप्रिया ने कितनी बार देवप्रिया को गाते सुना था, वही स्वर था, वही माधुर्य था, वही लोच था, वही हृदय में चुभने वाली तान थी। रामप्रिया ने भयातुर नेत्रों से देवप्रिया की ओर देखा और मूर्छित हो गई। देवप्रिया को भी अपनी आंखों के सामने एक पर्दा-सा गिरता हुआ मालूम हुआ। उसकी आंखें आप-ही-आप झपकने लगीं। एक क्षण और; सारा रहस्य खुल जाएगा! कदाचित् कायाकल्प का आवरण हट जाए और फिर न जाने क्या हो? वह रामप्रिया को उसी दशा में छोड़कर इस तरह अपने भवन की ओर चली, मानो कोई उसे दौड़ा रहा हो।

मनोरमा को ज्यों ही एक लौंडी से रामप्रिया के मूर्छित हो जाने की खबर मिली, वह तुरंत रामप्रिया के पास आई और घंटों की दौड़-धूप के बाद कहीं रामप्रिया ने आंखें खोलीं। मनोरमा को खड़ी देखकर वह फिर सहम उठी और सशंक दृष्टि से चारों ओर देखकर उठ बैठी।

मनोरमा ने कहा--आपको एकाएक यह क्या हो गया? अभी तो बहू यहां बैठी थीं।

रामप्रिया ने मनोरमा के कान के पास मुंह ले जाकर कहा--कुछ कहते नहीं बनता बहन? मालूम नहीं, आंखों को धोखा हो रहा है या क्या बात है। बहू की सूरत बिल्कुल देवप्रिया बहन से मिलती है। रत्ती भर भी फर्क नहीं है।

मनोरमा--कुछ-कुछ मिलती तो है, मगर इससे क्या? एक ही सूरत के दो आदमी क्या नहीं होते?

रामप्रिया--नहीं मनोरमा, बिल्कुल वही सूरत है। रंग-ढंग, बोलचाल सब वही है। गीत भी इसने वही गाया, जो देवप्रिया बहन गाया करती थी। बिल्कुल यही स्वर था, यही आवाज। अरे बहन, तुमसे क्या कहूँ, आंखों में वही मुस्कराहट है, तिल और मसों में भी फर्क नहीं। तुमने देवप्रिया को जवानी में नहीं देखा। मेरी आंखों में तो आज भी उनकी वह मोहिनी छवि फिर रही है। ऐसा मालूम होता है कि बहन स्वयं कहीं से आ गई हैं। क्या रहस्य है, कह नहीं सकती; पर यह वही देवप्रिया हैं, इसमें रत्ती भर भी संदेह नहीं।

मनोरमा--राजा साहब ने भी तो रानी देवप्रिया को जवानी में देखा होगा?

रामप्रिया--हां, देखा है और देख लेना, वह भी यही बात कहेंगे। सूरत का मिलना और बात है, वही हो जाना और बात है। चाहे कोई माने या न माने, मैं तो यही कहूँगी कि देवप्रिया फिर अवतार लेकर आई है।

मनोरमा--हां, यह बात हो सकती है।

रामप्रिया--सबसे बड़ा आश्चर्य तो यह है कि इसने गीत भी वही गाया, जो देवप्रिया बहन को बहुत पसंद था। ज्योतिषियों से इस विषय में राय लेनी चाहिए। देवप्रिया को जो कुछ भोगविलास करना था, कर चुकी। अब वह यहां क्या करने आई है?

मनोरमा--आप तो ऐसी बात कर रही हैं, मानो वह अपनी खुशी से आई है।

रामप्रिया--यह तो होता ही है, और क्या समझती हो? आत्मा को वही जन्म मिलता है, जिसकी उसे प्रबल इच्छा होती है। मैंने कई पुस्तकों में पढ़ा है, आत्माएं एक जन्म का अधूरा काम पूरा करने के लिए फिर उसी घर में जन्म लेती हैं। इसकी कितनी ही मिसालें मिलती है।

मनोरमा--लेकिन रानी देवप्रिया तो राजपाट स्वयं छोड़कर तीर्थयात्रा करने गई थीं।

रामप्रिया--क्या हुआ बहन, उनकी भोग तृष्णा शांत न हुई थी। अगर वही तृष्णा उन्हें फिर लाई है, तो कुशल नहीं है।

मनोरमा--आपकी बातें सुनकर तो मुझे भी शंका होने लगी है।

इसी समय अहिल्या सामने से निकल गई। मारे गर्व और आनंद के उसके पांव जमीन पर न पड़ते थे। पति की याद भी इस आनंद प्रवाह में विलीन हो गई थी; जैसे संगीत की ध्वनि आकाश में विलीन हो जाती है।

बावन

मुंशी वज्रधर ने यह शुभ समाचार सुना, तो फौरन घोड़े पर सवार हुए और राजभवन आ पहुंचे। शंखधर उनके आने का समाचार पाकर नंगे पांव दौड़े और उनके चरणों को स्पर्श किया। मुंशीजी ने पोते को छाती से लगा लिया और गद्गद कंठ से बोले-यह शुभ दिन भी देखना बदा था बेटा, इसी से अभी तक जीता हूँ। यह अभिलाषा पूरी हो गई। बस, इतनी लालसा और है कि तुम्हारा राजतिलक देख लूं। तुम्हारी दादी बैठी तुम्हारी राह देख रही हैं। क्या उन्हें भूल गए?

शंखधर ने लजाते हुए कहा--जी नहीं, शाम को जाने का इरादा था। उन्हीं के आशीर्वाद से तो मुझे पिताजी के दर्शन हुए। उन्हें कैसे भूल सकता हूँ?

मुंशीजी--तुम लल्लू को अपने साथ घसीट नहीं लाए?

शंखधर--वह अपने जीवन में जो पवित्र कार्य कर रहे हैं, उसे छोड़कर कभी न आते। मैंने अपने को जाहिर भी नहीं किया, नहीं तो वह मुझसे मिलना भी स्वीकार न करते।

इसके बाद शंखधर ने अपनी यात्रा का, अपनी कठिनाइयों का और पिता से मिलने का सारा वृत्तांत कहा।

यों बातें करते हुए मुंशीजी राजा साहब के पास आ पहुंचे। राजा साहब ने बड़े आदर से उनका अभिवादन किया और बोले-आप तो इधर का रास्ता ही भूल गए।

मुंशीजी--महाराज, अब आपका और मेरा संबंध और प्रकार का है। ज्यादा आऊं जाऊं तो आप ही कहेंगे, यह अब क्या करने आते हैं, शायद कुछ लेने की नीयत से आते होंगे। कभी जिदंगी में धनी नहीं रहा, पर मर्यादा की सदैव रक्षा की है।

राजा--आखिर आप दिन भर बैठे-बैठे वहां क्या करते हैं, दिल नहीं घबराता? (मुस्कराकर) समधिनजी में भी तो अब आकर्षण नहीं रहा।

मुंशीजी--वाह, आप उस आकर्षण का मजा क्या जानोगे? मेरा तो अनुभव है कि स्त्री-पुरुष का प्रेम-सूत्र दिन-दिन दृढ़ होता जाता है। अब तो राजकुमार का तिलक हो जाना चाहिए। आप भी कुछ दिन शांति का आनंद उठा लें।

राजा--विचार तो मेरा भी है, लेकिन मुंशीजी! न जाने क्या बात है कि जब से शंखधर आया है, क्यों शंका हो रही है कि इस मंगल में कोई न कोई विघ्न अवश्य पड़ेगा। दिल को बहुत समझाता हूँ, लेकिन न जाने क्यों यह शंका अंदर से निकलने का नाम नहीं लेती।

मुंशीजी--आप ईश्वर का नाम लेकर तिलक कीजिए। जब टूटी हुई आशाएं पूरी हो गईं, तो अब सब कुशल ही होगा। आज मेरे यहां कुछ आनंदोत्सव होगा। आजकल शहर में अच्छे-अच्छे कलावंत आए हुए हैं, सभी आएंगे। आपने कृपा की, तो मेरे सौभाग्य की बात होगी।

राजा--नहीं मुंशीजी, मुझे तो क्षमा कीजिए। मेरा चित्त शांत नहीं। आपसे सत्य कहता हूँ मुंशीजी, आज अगर मेरा प्राणांत हो जाये तो मुझसे बढ़कर सुखी प्राणी संसार में न होगा। अगर प्राण देने की कोई सरल तरकीब मुझे मालूम होती, तो जरूर दे देता। शोक की पराकाष्ठा देख ली, आनंद की पराकाष्ठा भी देख ली। अब और कुछ देखने की आकांक्षा नहीं है। डरता हूँ, कहीं पलड़ा फिर न दूसरी ओर झुक जाये।

मुंशीजी देर तक बैठे राजा साहब को तस्कीन देते रहे, फिर सब महिलाओं को अपने यहां आने का निमंत्रण देकर और शंखधर को गले लगाकर वह घोड़े पर सवार हो गए। इन निर्बुद्व जीव ने चिंताओं को कभी अपने पास नहीं फटकने दिया। धन की इच्छा थी, ऐश्वर्य की इच्छा थी; पर उन पर जान न देते थे। संचय करना तो उन्होंने सीखा ही न था। थोड़ा मिला तब भी अभाव रहा, बहुत मिला तब भी अभाव रहा। अभाव से जीवन पर्यंत उनका गला न छूटा। एक समय था, जब स्वादिष्ट भोजनों को तरसते थे। अब दिल खोलकर दान देने को तरसते हैं। क्या पाऊं और क्या दे दूं? बस, फिक्र थी तो इतनी। कमर झुक गई थी, आंखों से सूझता भी कम था, लेकिन मजलिस नित्य जमती थी, हंसी-दिल्लगी करने में कभी न चूकते थे। दिल में कभी किसी से कीना नहीं रखा और न कभी किसी की बुराई चेती।

दूसरे दिन संध्या समय मुंशीजी के घर बड़ी धूमधाम से उत्सव मनाया गया। निर्मला पोते को छाती से लगाकर खूब रोई। उसका जी चाहता था, यह मेरे ही घर रहता। कितना आनंद होता! शंखधर से बातें करने से उसको तृप्ति ही न होती थी। अहिल्या ही के कारण उसका पुत्र हाथ से गया। पोता भी उसी के कारण हाथ से जा रहा है। इसलिए अब भी उसका मन अहिल्या से न मिलता था। निर्मला को अपने बाल-बच्चों के साथ रहकर सभी प्रकार का कष्ट सहना मंजूर था। वह अब इस अंतिम समय किसी को आंखों की ओट न करना चाहती थी। न जाने कब दम निकल जाए , कब आंखें बंद हो जाएं। बेचारी किसी को देख भी न सके।

बाहर गाना हो रहा था। मुंशीजी शहर के रईसों की दावत का इंतजाम कर रहे थे। अहिल्या लालटेन ले-लेकर घर भर की चीजों को देख रही थी और अपनी चीजों के तहस-नहस होने पर मन-ही-मन झुंझला रही थी। उधर निर्मला चारपाई पर लेटी शंखधर की बातें सुनने में तन्मय हो रही थी। कमला उसके पांव दबा रही थी, और शंखधर उसे पंखा झल रहा था। क्या स्वर्ग में इससे बढकर कोई सुख होगा? इस सुख से उसे अहिल्या वंचित कर रही थी। आकर उसका घर मटियामेट कर दिया।

प्रात:काल जब शंखधर विदा होने लगे, तो निर्मला ने कहा--बेटा, अब बहुत दिन न चलूंगी। जब तक जीती हूँ, एक बार रोज आया करना।

मुंशीजी ने कहा--आखिर सैर करने को तो रोज ही निकलोगे। घूमते हुए इधर भी आ जाया करो। यह मत समझो कि यहां आने से तुम्हारा समय नष्ट होगा। बड़े-बूढ़ों के आशीर्वाद निष्फल नहीं जाते। मेरे पास राजपाट नहीं; पर ऐसा धन है, जो राजपाट से कहीं बढ़कर है। बड़ी सेवा, बड़ी तपस्या करके मैंने उसे एकत्र किया है। वह मुझसे ले लो। अगर साल भर भी बिना नागा अभ्यास करो, तो बहुत कुछ सीख सकते हो। इसी विद्या की बदौलत तुमने पांच वर्ष देश-विदेश की यात्रा की। कुछ दिन और अभ्यास कर लो, तो पारस हो जाओ।

निर्मला ने मुंशीजी का तिरस्कार करते हुए कहा--भला, रहने दो अपनी विद्या, आए हो वहां से बड़े विद्वान बनके। उसे तुम्हारी विद्या नहीं चाहिए। चाहे तो सारे देश के उस्तादों को बुलाकर गाना सुने। उसे कमी काहे की है?

मुंशीजी--तुम तो हो मूर्ख। तुमसे कोई क्या कहे? इस विद्या से देवता प्रसन्न हो जाते हैं, ईश्वर के दर्शन हो जाते हैं, तुम्हें कुछ खबर भी है? जो बड़े भाग्यवान् होते हैं, उन्हें ही यह विद्या आती है।

निर्मला--जभी तो बड़े भाग्यवान हो।

मुंशीजी--तो और क्या भाग्यहीन हूँ? जिसके ऐसा देवरूप पोता हो, ऐसी देव-कन्या-सी बहू हो, मकान हो, जायदाद हो, चार को खिलाकर खाता हो, क्या वह अभागा है? जिसकी इज्जत आबरू से निभ जाए , जिसका लोग यश गावें, वही भाग्यवान् है। धन गाड़ लेने से ही कोई भाग्यवान् नहीं हो जाता।

आज राजा साहब के यहां भी उत्सव था, इसलिए शंखधर इच्छा रहते हुए भी न ठहर सके।

स्त्रियां निर्मला के चरणों को अंचल से स्पर्श करके विदा हो गईं, शंखधर खड़े हो गए। निर्मला ने रोते हुए कहा--कल मैं तुम्हारी बाट देखती रहूँगी।

शंखधर ने कहा--अवश्य आऊंगा।

जब मोटर में बैठ गए, तो निर्मला द्वार पर खड़ी होकर उन्हें देखती रही। शंखधर के साथ उसका हृदय भी चला जा रहा था। युवकों के प्रेम में उद्विग्नता होती है, वृद्धों का प्रेम हृदय विदारक होता है। युवक जिससे प्रेम करता है, उससे प्रेम की आशा भी रखता है। अगर उसे प्रेम के बदले प्रेम न मिले, तो वह प्रेम को हृदय से निकालकर फेंक देगा। वृद्ध जनों की भी क्या वही आशा होती है? वे प्रेम करते हैं और जानते हैं कि इसके बदले में उन्हें कुछ न मिलेगा या मिलेगी, तो दया। शंखधर की आंखों में आंसू न थे, हृदय में तड़प न थी। वह यों प्रसन्नचित्त चले जा रहे थे, मानो सैर करके लौटे जा रहे हों। मगर निर्मला का दिल फटा जाता था और मुंशी वज्रधर की आंखों के सामने अंधेरा छा रहा था।

तिरपन

कई दिन गजर गए। राजा साहब हरिभजन और देवोपासना में व्यस्त थे। इधर पांच-छ: वर्षों से उन्होंने किसी मंदिर की तरफ झांका भी न था। धर्म-चर्चा का बहिष्कार-सा कर रखा था। रियासत में धर्म का खाता ही तोड़ दिया गया था। जो कुछ धार्मिक जीवन था, वह वसुमति के दम से। मगर अब एकाएक देवताओं से राजा साहब की फिर श्रद्धा हो आई थी। धर्मखाता फिर खोला गया और जो वत्तियां बंद कर दी गई थीं; वे फिर से बांधी गईं। राजा साहब ने फिर चोला बदला। वह धर्म या देवता किसी के साथ नि:स्वार्थ प्रेम नहीं रखते थे। जब संतान की ओर से निराशा हो गई तो उनका धर्मानुराग भी शिथिल हो गया। जब अहिल्या और शंखधर ने उनके जीवन-क्षेत्र में पदार्पण किया, तब फिर धर्म और दान व्रत की ओर उनकी रुचि हुई। जब शंखधर चला गया और ऐसा मालूम हुआ कि अब उसके लौटने की आशा नहीं रही है, तो राजा साहब ने धर्म की अवहेलना ही नहीं की, बल्कि देवताओं के साथ जोर-जोर से प्रतिरोध भी करने लगे। धर्मसंगत बातों को चुन-चुनकर बंद किया। अधर्म की बातें चुन-चुनकर ग्रहण की। शंखधर के लौटते ही उनका धर्मानुराग फिर जागृत हो गया। संपत्ति मिलने पर ही तो रक्षकों की आवश्यकता होती है।

इन दिनों राजा साहब बहुधा एकांत में बैठे किसी चिंता में निमग्न रहते थे, बाहर कम निकलते। भोजन से भी उन्हें अरुचि हो गई थी। वह मानसिक अंधकार, जो नैराश्य की दशा में उन्हें घेरे हुए था, अब एकाएक आशा के प्रकाश से छिन्न-भिन्न हो गया था। धर्मानुराग के साथ उनका कर्त्तव्यज्ञान भी जाग पड़ा था। जैसे जीवन-लीला के अंतिम कांड में हमें भक्ति की चिंता सवार होती है बड़े-बड़े भोगी भी रामायण और भागवत का पाठ करने लगते हैं, उसी भांति राजा साहब को भी अब बहुधा अपनी अपकीर्ति पर पश्चाताप होता था।

आधी रात से अधिक बीत चुकी थी। रनिवास में सोता पड़ा हुआ था। अहिल्या के बहुत समझाने पर भी मनोरमा अपने पुराने भवन में न आई। वह उसी छोटी कोठरी में पड़ी हुई थी। सहसा राजा साहब ने प्रवेश किया। मनोरमा विस्मित होकर उठ खड़ी हुई।

राजा साहब ने कोठरी को ऊपर-नीचे देखकर करुणस्वर में कहा--नोरा, मैं आज तुमसे अपना अपराध क्षमा कराने आया हूँ। मैंने तुम्हारे साथ बड़ा अन्याय किया है, इसे क्षमा कर दो। मुझे इतने दिनों तक क्या हो गया था, कह नहीं सकता। ऐसा मालूम होता था कि शत्रुओं से घिरा हूँ। मन में भांति-भांति की शंकाएं उठा करती थीं। किसी पर विश्वास न होता था। अब भी मुझे किसी अनिष्ट की शंका हो रही है; लेकिन वह दशा नहीं। तुम मेरी रक्षा के लिए जो कुछ कहती और करती थीं, उसमें मुझे कपट की गंध आती थी। अबकी भी तुमने मुझे सावधान रहने के लिए कहा था; लेकिन मैं उसका आशय कुछ और ही समझ बैठा था। और तुम्हारे ऊपर पहरा बिठा दिया था। अपने होश में रहने वाला आदमी कभी ऐसी बातें न करेगा।

मनोरमा ने सजल नेत्र होकर कहा--उन बातों को याद न कीजिए। आपको भी दुःख होता है और मुझे भी दुःख होता है। मेरा ईश्वर ही जानता है कि एक क्षण के लिए भी मेरे हृदय में आपके प्रति दुर्भावना नहीं उत्पन्न हुई।

राजा--जानता हूँ नोरा, जानता हूँ। तुम्हें इस कोठरी में पड़े देखकर इस समय मेरा हृदय फटा जाता है ! अब मुझे मालूम हो रहा है कि दुर्दिन में मन के कोमल भावों का सर्वनाश हो जाता है और इनकी जगह कठोर एवं पाशविक भाव जागृत हो जाते हैं। सच तो यह है नोरा कि मेरा जीवन निष्फल हो गया। प्रभुता पाकर मुझे जो कुछ करना चाहिए था, सो कुछ न किया; जो कुछ करने के मंसूबे दिल में थे, एक भी पूरे न हुए। जो कुछ किया, उलटा ही किया। मैं रानी देवप्रिया के राज्य प्रबंध पर हसा करता था; पर मैंने प्रजा पर जितना अन्याय किया, उतना देवप्रिया ने कभी नहीं किया था। मैं कर्ज को काला सांप समझता था; पर आज रियासत कर्ज के बोझ से लदी हुई है। प्रजा रानी देवप्रिया का नाम आज भी आदर के साथ लेती है। मेरा नाम सुनकर लोग कानों पर हाथ रख लेते हैं। मैं कभी-कभी सोचता हूँ, मुझे यह रियासत न मिली होती, तो मेरा जीवन कहीं अच्छा होता।

मनोरमा--मुझे भी अक्सर यही विचार हुआ करता है।

राजा--अब जीवन-लीला समाप्त करते समय अपने जीवन पर निगाह डालता हूँ, तो मालूम होता है, मेरा जन्म ही व्यर्थ हुआ। मुझसे किसी का उपकार न हुआ। मैं गृहस्थ के उस सुख से भी वंचित रहा, जो छोटे से छोटे मनुष्य के लिए भी सुलभ है। मैंने कुल मिलाकर छ: विवाह किए और सातवां करने जा रहा था। क्या किसी भी स्त्री को मुझसे सुख पहुंचा? यहां तक कि तुम जैसी देवी को भी मैं सुखी न रख सका। नोरा, इसमें रत्ती भर भी बनावट नहीं है कि मेरे जीवन में अगर कोई मधुर स्मृति है, तो वह तुम हो, और तुम्हारे साथ मैंने यह व्यवहार किया ! कह नहीं सकता, मेरी आंखों पर क्या पर्दा पड़ा हुआ था। शंखधर अपने साथ मेरे हृदय की सारी कोमलताओं को लेता गया था। उसे पाकर आज मैं फिर अपने को पा गया हूँ। सच कहता हूँ, उसके आते ही मैं अपने को पा गया, लेकिन नोरा, हृदय अंदर ही अंदर कांप रहा है। मैं इस शंका को किसी तरह दिल से बाहर नहीं निकाल सकता कि कोई अनिष्ट होने वाला है। उस समय मेरी क्या दशा होगी? उसकी कल्पना करके मैं घबरा जाता हूँ, मुझे रोमांच हो जाता है और जी चाहता है, प्राणों का अंत कर दूं। ऐसा मालूम होता है, मैं सोने की गठरी लिए भयानक वन में अकेला चला जा रहा हूँ, न जाने कब डाकुओं का निर्दय हाथ मेरी गठरी पर पड़ जाए । बस, यह धड़कन मेरे रोम-रोम में समायी हुई है।

मनोरमा--जब ईश्वर ने गई हुई आशाओं को जिलाया है, तो अब सब कुशल ही होगी। अगर अनिष्ट होना होता तो यह बात ही न होती। मैं तो यही समझती हूँ।

राजा--क्या करूं नोरा, मुझे इस विचार से शांति नहीं होती। मुझे भय होता है कि यह किसी अमंगल का पूर्वाभास है।

यह कहते-कहते राजा साहब मनोरमा के और समीप चले आए और उसके कान के पास मुंह ले जाकर बोले-यह शंका बिल्कुल अकारण ही नहीं है, नोरा ! रानी देवप्रिया के पति मेरे बड़े भाई होते थे। उनकी सूरत शंखधर से बिल्कुल मिलती है। जवानी में मैंने उनको देखा था। हू-बू-हू यही सूरत थी। तिल बराबर भी फर्क नहीं। भाई साहब का एक चित्र भी मेरे अलबम में है। तुम यही कहोगी कि यह शंखधर ही का चित्र है। इतनी समानता तो जुड़वा भाइयों में भी नहीं होती। कोई पुराना नौकर नहीं है, नहीं तो मैं इसकी साक्षी दिला देता। पहले शंखधर की सूरत भाई साहब से उतनी ही मिलती थी, जितनी मेरी। अब तो ऐसा जान पड़ता है कि स्वयं भाई साहब ही आ गए हैं।

मनोरमा--तो इसमें शंका की क्या बात है? उसी वृक्ष का फल शंखधर भी तो है।

राजा--आह ! नोरा, तुम यह बात नहीं समझ रही हो। तुम्हें कैसे समझा दूं? इसमें भयंकर रहस्य है, नोरा ! मैंने अबकी शंखधर को देखा, तो चौंक पड़ा। सच कहता हूँ, उसी वक्त मेरे रोएं खड़े हो गए।

मनोरमा--आश्चर्य तो मुझे भी हो रहा है। रानी रामप्रिया आई थीं। वह कहती थीं, बहू की सूरत रानी देवप्रिया से बिल्कुल मिलती है। वह भी बहू को देखकर विस्मित रह गई थीं।

राजा ने घबराकर कहा--रामप्रिया ने मुझसे बात नहीं कही, नोरा! अब कुशल नहीं है। मैं तुमसे कहता हूँ नोरा, मेरी बात को यथार्थ समझो। अब कुशल नहीं है। कोई भारी दुर्घटना होने वाली है। हा! विधाता, इससे तो अच्छा था मैं नि:संतान ही रहता।

राजा साहब ने विकल होकर दोनों हाथों से सिर पकड़ लिया और चिंता में डूब गए। एक क्षण बाद मानो मन-ही-मन निश्चय करके, कि अमुक दशा में उन्हें क्या करना होगा, अत्यंत स्नेहकरुण शब्दों में मनोरमा से बोले-क्यों नोरा, एक बात तुमसे पूछू, बुरा तो न मानोगी? मेरे मन में कभी-कभी यह प्रश्न हुआ करता है कि तुमने मुझसे क्यों विवाह किया? उस वक्त भी मेरी अवस्था ढल चुकी थी। धन का इच्छुक मैंने तुम्हें कभी नहीं पाया। जिन वस्तुओं पर अन्य स्त्रियां प्राण देती हैं, उनकी ओर मैंने तुम्हारी रुचि कभी नहीं देखी। वह क्या केवल ईश्वरीय प्रेरणा थी, जिनके द्वारा पूर्व-पुण्य का उपहार दिया गया हो?

मनोरमा ने मुस्कराकर कहा--दंड कहिए।

राजा--नहीं नोरा, मैंने जीवन में जो कुछ सुख और स्वाद पाया, वह तुम्हारे स्नेह और माधुर्य में पाया। यह भाग्य की निर्दय क्रीड़ा है कि जिसे मैं अपना सर्वस्व सुख समझता था, उस पर सबसे अधिक अन्याय किया; किंतु अब मुझे अपने अन्याय पर दु:ख के बदले एक प्रकार का संतोष हो रहा है। वह परीक्षा थी, जिसने तुम्हारे सतीत्व को और भी उज्ज्वल कर दिया, जिसने तुम्हारे हृदय की उस अपार कोमलता का परिचय दे दिया, जो कठोर होना नहीं जानती, जो कंचन की भांति तपने पर और भी विशुद्ध एवं उज्ज्वल हो जाती है। इस परीक्षा के बिना तुम्हारे ये गुण छिपे रह जाते। मैंने तुम्हारे साथ जो-जो नीचताएं कीं, वे किसी दूसरी स्त्री में शत्रुता के भाव उत्पन्न कर देतीं। वह मानसिक वेदना, वह अपमान, वह दुर्जनता दूसरा कौन सहता और सहकर हृदय में मैल न आने देता? इसका बदला मैं तुम्हें क्या दे सकता हूँ?

मनोरमा--स्त्री क्या बदले ही के लिए पुरुष की सेवा करती है?

राजा--इस विषय को और न बढ़ाओ मनोरमा, नहीं तो कदाचित् तुम्हें मेरे मुंह से अपनी अन्य बहनों के विषय में अप्रिय सत्य सुनना पड़ जाए । मेरे इस प्रश्न का उत्तर दो, जो अभी मैंने तुमसे किया था। वह कौन-सी बात थी, जिसने तुम्हें मुझसे विवाह करने की प्रेरणा दी?

मनोरमा--बता दूं? आप हंसिएगा तो नहीं? मैं रानी बनना चाहती थी। मैंने बाबूजी से आपकी तारीफ सुनी थी। इसका भी एक कारण था-आपकी सहृदयता और आपकी विश्वासमय सेवा।

राजा--रानी किसलिए बनना चाहती थीं, नोरा?

मनोरमा--आप राजा जिस लिए बनना चाहते थे, उसी लिए मैं रानी बनना चाहती थी। कीर्ति, दान, यश, सेवा मैं इन्हीं को अधिकार के सुख समझती हूँ, प्रभुता और विलास को नहीं।

राजा--इसका आशय यह नहीं है कि कीर्ति तुम्हारे जीवन की सबसे बड़ी आकांक्षा थी या कुछ और? कीर्ति के लिए तुमने यौवन के अन्य सुखों का त्याग कर दिया। मैं पहले से ही जानता था नोरा, और इसीलिए स्वभाव के कृपण होने पर भी मैंने तुम्हारे उपकार के कामों में बाधा नहीं डाली। मेरे लिए सेवा और उपकार गौण बातें थीं। अधिकार, ऐश्वर्य, शासन इन्हीं को मैं प्रधान समझता हूँ। तुम्हारा आदर्श कुछ और है, मेरा कुछ और जब कीर्ति के लिए तुमने जीवन के और सुखों पर लात मार दी, तो मैं चाहता हूँ कि कोई ऐसी व्यवस्था कर दूं, जिससे तुम्हें आगे चलकर किसी बाधा का सामना न करना पड़े। कौन जानता है कि क्या होने वाला है, नोरा ! पर मैं यह आशा कदापि नहीं करता कि शंखधर तुम्हें प्रसन्न रखने की उतनी ही चेष्टा करेगा, जितनी उसे करनी चाहिए। मैं उसकी बुराई नहीं कर रहा हूँ। मनुष्य का स्वभाव ही ऐसा है, इसलिए मैं यह चाहता हूँ कि रियासत का एक भाग तुम्हारे नाम लिख दूं। मेरी बात सुन लो मनोरमा ! मैंने दुनिया देखी है और दुनिया का व्यवहार जानता हूँ। इसमें न मेरी कोई हानि है न तुम्हारी और न शंखधर की। तुम्हें इसका अख्तियार होगा कि यदि इच्छा हो, तो अपना हिस्सा शंखधर को दे दो; लेकिन एक हिस्से पर तुम्हारा नाम होना जरूरी है। मैं कोई आपत्ति न मानूंगा।

मनोरमा--मेरी कीर्ति अब इसी में है कि आपकी सेवा करती रहूँ।

राजा--नोरा, तुम अब भी मेरी बातें नहीं समझीं। मेरे मन में कैसी-कैसी शंकाएं हैं, यह मैं तुमसे कहूँ, तो तुम्हारे ऊपर जुल्म होगा। मुझे लक्षण बुरे दिखाई दे रहे हैं।

मनोरमा ने अबकी दृढ़ता से कहा--शंकाएं निर्मूल हैं; लेकिन यदि ईश्वर कुछ बुरा ही करने वाले हों, तो भी मैं शंखधर की प्रतियोगिनी बनना स्वीकार न करूंगी, जिसे मैंने पुत्र की भांति पाला है। चक्रधर का पुत्र इतना कृतघ्न नहीं हो सकता।

राजा ने जांघ पर हाथ पटकर कहा--नोरा, तुम अब भी नहीं समझी। खैर, कल से तुम नए भवन में रहोगी। यह मेरी आज्ञा है।

यह कहते हुए वह उठ खड़े हुए। बिजली के निर्मल प्रकाश में मनोरमा उन्हें खड़ी देखती रही। गर्व से उसका हृदय फूला न समाता था। इस बात का गर्व नहीं था कि अब फिर रियासत में उसकी तूती बोलेगी, फिर वह मनमाना धन लुटाएगी। गर्व इस बात का था कि स्वामी मेरा इतना आदर करते हैं। आज विशालसिंह ने मनोरमा के हृदय पर अंतिम विजय पाई। आज मनोरमा को अपने स्वामी की सहृदयता ने जीत लिया। प्रेम सहृदयता ही का रसमय रूप है। प्रेम के अभाव में सहृदयता ही दम्पति के सुख का मूल हो जाती है।

चौवन

राजा साहब को अब किसी तरह शांति न मिलती थी। कोई न कोई भयंकर विपत्ति आने वाली है, इस शंका को वह दिल से न निकाल सकते थे। दो-चार प्राणियों को जोर-जोर से बातें करते सुनकर वह घबरा जाते थे कि कोई दुर्घटना तो नहीं हो गई। शंखधर कहीं जाता, तो जब तक कुशल से लौट न आए, वह व्याकुल रहते थे। उनका जी चाहता था कि यह मेरी आंखों के सामने से दूर न हो। उसके मुख की ओर देखकर उनकी आंखें आप ही आप सजल हो जाती थीं। वह रात को उठकर ठाकुरद्वारे में चले जाते और घंटों ईश्वर की वंदना किया करते। जो शंका उनके मन में थी, उसे प्रकट करने का उन्हें साहस न होता था। वह उसे स्वयं व्यक्त करते थे। वह अपने मरे हुए भाई की स्मृति को मिटा देना चाहते थे, पर वह सूरत आंख से न टलती। कोई ऐसी क्रिया, ऐसी आयोजना, ऐसी विधि न थी, जो इन पर मंडराने वाले संकट का मोचन करने के लिए न की जा रही हो; पर राजा साहब को शांति न मिलती थी।

संध्या हो गई थी। राजा साहब ने मोटर मंगवाई और मुंशी वज्रधर के मकान पर जा पहुंचे। मुंशीजी की संगीत मंडली जमा हो गई थी। संगीत ही उनका दान, व्रत, ध्यान और तप था। उनकी सारी चिंताएं और सारी बाधाएं संगीत के स्वरों में विलीन हो जाती थीं। मुंशीजी राजा साहब को देखते ही खड़े होकर बोले-आइए, महाराज! आज ग्वालियर के एक आचार्य का गाना सुनवाऊं! आपने बहुत गाने सुने होंगे, पर इनका गाना कुछ और ही चीज है।

राजा साहब मन में मुंशीजी की बेफिक्री पर झुंझलाए। ऐसे प्राणी भी संसार में हैं, जिन्हें अपने विलास के आगे किसी वस्तु की परवाह नहीं। शंखधर से मेरा और इनका एक-सा संबंध है, पर यह अपने संगीत में मस्त हैं और मैं शंकाओं से व्यग्र हो रहा हूँ। सच है-"सबसे अच्छे मूढ जिन्हें न व्यापत जगत गति !" बोले-इसीलिए तो आया ही हूँ पर जरा देर के लिए आपसे कुछ बातें करना चाहता हूँ।

दोनों आदमी अलग एक कमरे में जा बैठे। राजा साहब सोचने लगे, किस तरह बात शुरू करूं? मुंशीजी ने उनको असमंजस में देखकर कहा--मेरे लायक जो काम हो, फरमाइये। आप बहुत चिंतित मालूम होते हैं। बात क्या है?

राजा--मुझे आपके जीवन पर डाह होता है। आप मुझे भी क्यों नहीं निर्बुद्व रहना सिखा देते!

मुंशीजी--यह तो कोई कठिन बात नहीं। इतना समझ लीजिए कि ईश्वर ने संसार की सृष्टि की है और वही इसे चलाता है। जो कुछ उसकी इच्छा होगी, वही होगा। फिर उसकी चिंता का भार क्यों लें।

राजा--यह तो बहुत दिनों से जानता हूँ। पर इससे चित्त को शांति नहीं होती ! अब मुझे मालूम हो रहा है कि संसार में मन लगाना ही सारे दुःख का मूल है। जगदीशपुर राज्य को भोगना ही मेरे जीवन का लक्ष्य था। मैंने अपने जीवन में जो कुछ किया, इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए। अपने जीवन पर कभी एक क्षण के लिए भी विचार नहीं किया। जब राज्य न था, तब अवश्य कुछ दिनों के लिए सेवा के भाव मन में जागृत हुए थे-वह भी बाबू चक्रधर के सत्संग से। राज्य मिलते ही मेरा कायापलट हो गया। फिर कभी आत्मचिंतन की नौबत न आई। शंखधर को पाकर मैं निहाल हो गया। मेरे जीवन में ज्योति-सी आ गई, मैं सब कुछ पा गया, पर अबकी जब से शंखधर लौटा है, मझे उसके विषय में भयंकर शंका हो रही है। आपने मेरे भाई साहब को देखा था?

मंशीजी--जी नहीं, उन दिनों तो मैं यहां से बाहर नौकर था। अजी, तब इल्म की कदर थी। मिडिल पास करते ही सरकारी नौकरी मिल गई थी। स्कूल में कोई लड़का मेरी टक्कर का न था।

अध्यापकों को भी मेरी बुद्धि पर आश्चर्य होता था। बड़े पंडितजी कहा करते थे, यह लड़का एक दिन ओहदे पर पहुंचेगा। उनकी भविष्यवाणी उस दिन पूरी हुई, जब मैं तहसीलदारी पर पहुंचा।

राजा--भाई साहब की सूरत आज तक मेरी आंखों में फिर रही है। यह देखिए, उनकी तस्वीर है।

राजा साहब ने एक फोटो निकालकर मुंशीजी को दिखाया। मुंशीजी उसे देखते ही बोले--यह तो शंखधर की तस्वीर है।

राजा-नहीं साहब, यह मेरे बड़े भाई का फोटो है। शंखधर ने तो अभी तक तस्वीर ही नहीं खिंचवाई। न जाने तस्वीर खिंचवाने से उसे क्यों चिढ़ है !

मुंशीजी--मैं इसे कैसे मान लूं? यह तस्वीर साफ शंखधर की है।

राजा--तो मालूम हो गया कि मेरी आंखें धोखा नहीं खा रही थीं?

मुंशीजी--जी हां, यकीन मानिए तब तो बड़ी विचित्र बात है।

राजा--अब आपसे क्या अर्ज करूं? मुझे बड़ी शंका हो रही है। रात को नींद नहीं आती। दिन को बैठे चौंक पड़ता हूँ। प्राणियों की सूरतें कभी इतनी नहीं मिलती। भाई साहब ने ही फिर मेरे घर में जन्म लिया है। इसमें मुझे बिल्कुल शंका नहीं रही। ईश्वर ही जाने, क्यों उन्होंने कृपा की है, अगर शंखधर का बाल भी बांका हुआ, तो मेरे प्राण न बचेंगे।

मुंशीजी--ईश्वर चाहेंगे तो सब कुशल होगी। घबराने की कोई बात नहीं। कभी-कभी ऐसा होता है।

राजा--अगर ईश्वर चाहते कि कुशल हो, तो यह समस्या ही क्यों आगे आती? उन्हें कुछ आनेष्ट करना है। मेरी शंका निर्मूल नहीं है मुंशीजी ! बहू की सूरत भी रानी देवप्रिया से मिल रही है। रामप्रिया तो बहू को देखकर मूर्च्छित हो गई थी। वह कहती थी, देवप्रिया ही ने अवतार लिया है। भाई और भावज का फिर इस घर में अवतार लेना क्या अकारण ही है? भगवान, अगर तुम्हें फिर वही लीला दिखानी हो, तो मुझे संसार से उठा लो।

मुंशीजी ने अब की कुछ चिंतित होकर कहा--यह तो वास्तव में बड़ी विचित्र बात है!

राजा--विचित्र नहीं है, मुंशीजी, इस रियासत का सर्वनाश होने वाला है ! रानी देवप्रिया ने अगर जन्म लिया है, तो वह कभी सधवा नहीं रह सकती। उसे न जाने कितने दिनों तक अपने पूर्व कर्मों का प्रायश्चित करना पड़ेगा। दैव ने मुझे दंड देने ही के लिए मेरे पूर्व कर्मों के फलस्वरूप यह विधान किया है, पर आप देख लीजिएगा, मैं अपने को उसके हाथों की कठपुतली न बनाऊंगा; अगर मैंने बुरे कर्म किए हैं तो मुझे चाहे जो दंड दो, मैं उसे सहर्ष स्वीकार करूंगा। मुझे अंधा कर दो, भिक्षुक बना दो, मेरा एक-एक अंग गल-गलकर गिरे, मैं दाने-दाने को मोहताज हो जाऊँ। ये सारे ही दंड मुझे मंजूर हैं, लेकिन शंखधर का सिर दुखे, यह मैं सहन नहीं कर सकता। इसके पहले मैं अपनी जान दे दूंगा। विधाता के हाथ की कठपुतली न बनूंगा।

मुंशीजी--आपने किसी पंडित से इस विषय में पूछताछ नहीं की?

राजा--जी नहीं, किसी से नहीं। जो बात प्रत्यक्ष देख रहा हूँ, उसे किसी से क्या पूछू? कोई अनुष्ठान, कोई प्रायश्चित इस संकट को नहीं टाल सकता। उसके रूप की कल्पना करके मेरी आंखों में अंधेरा छा जाता है। पंडित लोग अपने स्वार्थ के लिए तरह-तरह के अनुष्ठान बता देंगे, लेकिन अनुष्ठानों से क्या विधि का विधान पलटा जा सकता है? मैं अपने को इस धोखे में नहीं डाल सकता। मुंशीजी, अनुष्ठानों का मूल्य मैं खूब जानता हूँ। माया बड़ी कठोर-हृदया होती है, मुंशीजी ! मैंने जीवन-पर्यंत उसकी उपासना की है। कर्म-अकर्म का एक क्षण भी विचार नहीं किया। इसका मुझे यह उपहार मिल रहा है ! लेकिन मैं उसे दिखा दूंगा कि वह मुझे अपने विनोद का खिलौना नहीं बना सकती। मैं उसे कुचल दूंगा, जैसे कोई जहरीले सांप को कुचल डालता है। अपना सर्वनाश अपनी आंखों देखने ही में दुख है। मैं उस पिशाचिनी को यह अवसर न दूंगा कि वह मुझे रुलाकर आप हंसे। मैं संसार के सबसे सुखी प्राणियों में हूँ। इसी दशा में हूँ और इसी दशा में संसार से विदा हो जाऊंगा। मेरे बाद मेरा निर्माण किया हुआ भवन रहेगा या गिर पड़ेगा, इसकी मुझे चिंता नहीं। अपनी आंखों से अपना सर्वनाश न देखूगा । मुझे आश्चर्य हो रहा है कि इस स्थिति में भी आप कैसे संगीत का आनंद उठा सकते हैं?

मुंशीजी ने गंभीर भाव से कहा--मैं अपनी जिंदगी में कभी नहीं रोया। ईश्वर ने जिस दशा में रखा, उसी में प्रसन्न रहा। फाके भी किए हैं और आज ईश्वर की दया से पेट भर भोजन भी करता हूँ पर रहा एक ही रस। न साथ कुछ लाया हूँ, न ले जाऊंगा। व्यर्थ क्यों रोऊ?

राजा--आप ईश्वर को दयालु समझते हैं? ईश्वर दयालु नहीं है।

मुंशीजी--मैं ऐसा नहीं समझता।

राजा--नहीं, वह परले सिरे का कपटी व निर्दयी जीव है, जिसे अपने ही रचे हुए प्राणियों को सताने में आनंद मिलता है, जो अपने ही बालकों के बनाए हुए घरौंदे रौंदता फिरता है। आप उसे दयालु कहें, संसार उसे दयालु कहे, मैं तो नहीं कह सकता। अगर मेरे पास शक्ति होती, तो मैं उसका सारा विधान उलट-पलट देता। उसमें संसार के रचने की शक्ति है, किंतु उसे चलाने की नहीं!

राजा साहब उठ खड़े हुए और चलते-चलते गंभीर भाव से बोले--जो बात पूछने आया था, वह तो भूल ही गया। आपने साधु-संतों की बहुत सेवा की है। मरने के बाद जीव को किसी बात का दुःख तो नहीं होता?

मुंशी--सुना तो यही है कि होता है और उससे अधिक होता है, जितना जीवन में।

राजा--झूठी बात है, बिल्कुल झूठी। विश्वास नहीं आता। उस लोक के दुःख-सुख और ही प्रकार के होंगे। मैं तो समझता हूँ, किसी बात की याद ही न रहती होगी। सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर ये सब विद्वानों के गोरख-धंधे हैं। उनमें न पडूंगा। अपने को ईश्वर की दया और भय के धोखे में न डालूंगा! मेरे बाद जो कुछ होना है, वह तो होगा ही, आपसे इतना ही कहना है कि अहिल्या को ढाढ़स दीजिएगा। मनोरमा की ओर से मैं निश्चित हूँ। वह सभी दशाओं में संभल सकती है। अहिल्या उस वज्रघात को न सह सकेगी।

मुंशीजी ने भयभीत होकर राजा साहब का हाथ पकड़ लिया और सजल नेत्र होकर बोले--आप इतने निराश क्यों होते हैं? ईश्वर पर भरोसा कीजिए। सब कुशल होगी।

राजा--क्या करूं मेरा हृदय आपका-सा नहीं है। शंखधर का मुंह देखकर मेरा खून ठंडा हो जाता है। वह मेरा नाती नहीं शत्रु है। इससे कहीं अच्छा था कि नि:संतान रहता। मुंशीजी, आज मुझे ऐसा मालूम हो रहा है कि निर्धन होकर मैं इससे कहीं सुखी रहता।

राजा साहब द्वार की ओर चले-मुंशीजी भी उनके साथ मोटर तक आए। शंका के मारे मुह से शब्द न निकलता था। दीन भाव से राजा साहब की ओर देख रहे थे, मानो प्राण-दान मांग रहे हों।

राजा साहब ने मोटर पर बैठकर कहा--अब तकलीफ न कीजिए। जो बात कही है उसका ध्यान रखिएगा।

मुंशीजी मूर्तिवत् खड़े रहे। मोटर चली गई।

पचपन

शंखधर राजकुमार होकर भी तपस्वी है। विलास की किसी भी वस्तु से उसे प्रेम नहीं। दूसरों से वह बहुत प्रसन्न होकर बातें करता है। अहिल्या और मनोरमा के पास वह घंटों बैठा गप-शप किया करता है। दादा और दादी के समीप जाकर तो उसकी हंसी की पिटारी-सी खुल जाती है, लेकिन सैर-शिकार से कोसों भागता है। एकांत मैं बैठा हुआ वह नित्य गहरे विचारों में मग्न रहता है। उसके जी में बार-बार आता है कि पिताजी के पास चला जाऊं, पर घर वालों के दुःख का विचार करके जाने की हिम्मत नहीं पड़ती। जब उसके पिता ने सेवाव्रत ले रखा है, तो वह किस हृदय से राजसुख भोगे? नरम-नरम तकिए उसके हृदय में कांटे के समान चुभते हैं, स्वादिष्ट भोजन उसे जहर की तरह लगता है।

पर सबसे विचित्र बात यह है कि वह कमला से भागता रहता है। युवती देवप्रिया अब वह रानी कमला नहीं है, जो हर्षपुर में तप और व्रत में मग्न रहती थी। वे सभी कामनाएं, जो रमणी के हृदय में लहरें मारा करती हैं, उदित हो गई हैं। वह नित्य नए रूप बदलकर शंखधर के पास आती है, पर ठीक उसी समय शंखधर को या तो कोई जरूरी काम बाहर ले जाता है, या वह कोई धार्मिक प्रश्न उठा देता है। रात को भी शंखधर कुछ न कुछ पढ़ता-लिखता रहता है। कभी-कभी सारी रात पढ़ने में कट जाती है। देवप्रिया उसकी राह देखती-देखती सो जाती है। विपत्ति तो यह है कि देवप्रिया को पूर्वजन्म की सभी बातें याद हैं, वायुयान का दृश्य भी याद है, पर वह सोचती है, एक बार ऐसा हुआ, तो क्या बार-बार होगा? उसने अपना वैधव्य कितने संयम से व्यतीत किया था। पूर्व-कर्मों का प्रायश्चित क्या इतने पर भी पूरा नहीं हुआ?

प्रकृति माधुर्य में डूबी हुई है। आधी रात का समय है। चारों तरफ चांदनी छिटकी हुई है। वृक्षों के नीचे कैसा जाल बिछा हुआ है ! क्या पक्षी हृदय को फंसाने के लिए? नदियों पर कैसा सुंदर जाल है ! क्या मीन हृदय को तड़पाने के लिए? ये जाल किसने फैला रखे हैं?

देवप्रिया ने आज अपने आभूषण उतार दिए हैं, केश खोल दिए हैं और वियोगिनी के रूप में पति से प्रेम की भिक्षा मांगने जा रही है। आईने के सामने जाकर खड़ी हो गई। आईना चमक उठा। देवप्रिया विजय गर्व से मुस्करायी। कमरे के बाहर निकली।

सहसा उसके अंत:करण में कहीं से आवाज आई, 'सर्वनाश !' देवप्रिया के पांव रुक गए। देह शिथिल पड़ गई। उसने भीत दृष्टि से इधर-उधर देखा। फिर आगे बढ़ी।

उसी समय वायु बड़े वेग से चली। कमरे में कोई चीज 'खट-खट !' करती हुई नीचे गिर पड़ी। देवप्रिया ने कमरे में जाकर देखा, शंखधर का तैल-चित्र संगमरमर की भूमि पर गिरकर चूरचूर हो गया था। देवप्रिया के अंत:करण में फिर वही आवाज आई-'सर्वनाश !' उसके रोएं खड़े हो गए। पुष्प के समान कोमल शरीर मुरझा गया। वह एक क्षण तक खड़ी रही। फिर आगे बढ़ी।

शंखधर दीवानखाने में बैठे सोच रहे थे। मेरे बार-बार जन्म लेने का हेतु क्या है? क्या मेरे जीवन का उद्देश्य जवान होकर मर जाना ही है? क्या मेरे जीवन की अभिलाषाएं कभी पूरी न होंगी? संसार के सब प्राणियों के लिए यदि भोग-विलास वर्जित नहीं है, तो मेरे लिए ही क्यों है? क्या परीक्षा की आग में जलते ही रहना मेरे जीवन का ध्येय है?

देवप्रिया द्वार पर जाकर खड़ी हो गई।

शंखधर ने उसका अलंकार-विहीन रूप देखा, तो उन्मत्त हो गए। अलंकारों का त्याग करके वह मोहिनी हो गई थी।

देवप्रिया ने द्वार पर खड़े-खड़े कहा--अंदर आऊं?

शंखधर के अंत:करण में कहीं से आवाज आई। मुंह से कोई शब्द न निकला।

देवप्रिया ने फिर कहा--अंदर आऊं?

शंखधर ने कातर-स्वर में कहा-नेकी और पूछ-पूछ !

देवप्रिया-नहीं प्रियतम, तुम्हारे पास आते डर लगता है।

शंखधर ने एक पग बढ़कर देवप्रिया का हाथ पकड़ा और अंदर खींच लिया। उसी वक्त वायु का वेग प्रचंड हो गया। बिजली का दीपक बुझ गया। कमरे में अंधकार छा गया।

देवप्रिया ने सहमी हुई आवाज में कहा--मुझे छोड़ दो! उसका हृदय धक-धक कर रहा था।

सितार पर चोट पड़ते ही जैसे उसके तार गूंज उठते हैं, वैसे ही शंखधर का स्नायुमंडल थरथरा उठा। रमणी को करपाश में लपेट लेने की प्रबल इच्छा हुई। मन को संभालकर कहा--घर आई हुई लक्ष्मी को कौन छोड़ता है !

देवप्रिया--बिना बुलाया मेहमान बिना कहे जा भी तो सकता है।

शंखधर की विचित्र दशा थी। भीतर भय था, बाहर इच्छा। मन पीछे हटता था, पैर आगे बढ़ते थे। उसने बिजली का बटन दबाकर कहा--लक्ष्मी बिना बुलाए नहीं आती प्रिये! कभी नहीं। उपासक का हृदय अव्यक्त रूप से नित्य उसकी कामना करता ही रहता है। वह मुंह से कुछ न कहे, पर उसके रोम-रोम से आह्वान के शब्द निकलते हैं।

देवप्रिया की चिरक्षुधित प्रेमाकांक्षा आतुर हो उठी। अनंत वियोग से तड़पता हुआ हृदय आलिंगन के लिए चीत्कार करने लगा। उसने अपना सिर शंखधर के वक्षस्थल पर रख दिया और दोनों बाहें उसके गले में डाल दीं। कितना कोमल, कितना मधुर, कितना अनुरक्त स्पर्श था ! शंखधर प्रेमोल्लास से विभोर हो गया था। उसे जान पड़ा कि पृथ्वी नीचे कांप रही है और आकाश ऊपर उड़ा जाता है। फिर ऐसा हुआ कि वज्र बड़े वेग से उसके सिर पर गिरा।

वह मूर्छित हो गया।

देवप्रिया के अंत:करण में फिर आवाज आई-'सर्वनाश! सर्वनाश! सर्वनाश !'

घबराकर बोली-प्रियतम, तुम्हें क्या हो गया? हाय ! तुम कैसे हुए जाते हो? हाय ! मैं जानती कि मुझ पापिन के कारण तुम्हारी यह दशा होगी, तो अंतकाल तक वियोगाग्नि में जलती रहती, पर तुम्हारे निकट न आती। प्यारे, आंखें खोलो तुम्हारी कमला रो रही है।

शंखधर ने आंखें खोल दीं। उनमें अकथनीय शोक था, असहनीय वेदना थी, अपार तष्णा थी।

अत्यंत क्षीण स्वर में बोला--प्रिये ! फिर मिलेंगे। यह लीला उस दिन समाप्त होगी, जब प्रेम में वासना न रहेगी।

चांदनी अब भी छिटकी हुई थी। वृक्षों के नीचे भी चांदनी का जाल बिछा हुआ था। जल क्षेत्र में अब भी चांदनी नाच रही थी। वायु-संगीत अब भी प्रवाहित हो रहा था, पर देवप्रिया के लिए चारों ओर अंधकार और शून्य हो गया था।

सहसा राजा विशालसिंह द्वार पर आकर खड़े हो गए।

देवप्रिया ने विलाप करके कहा--हाय नाथ ! तुम मुझे छोड़कर कहाँचले गए? क्या इसीलिए, इसी क्षणिक मिलाप के लिए मुझे हर्षपुर से लाए थे?

राजा साहब ने यह करुण विलाप सुना और उनके पैरों तले से जमीन निकल गई। उन्होंने विधि को परास्त करने का संकल्प किया था। विधि ने उन्हें परास्त कर दिया। वह विधि को हाथ का खिलौना बनाना चाहते थे। विधि ने दिखा दिया, तुम मेरे हाथ के खिलौने हो। वह अपनी आंखों से जो कुछ न देखना चाहते थे, वह देखना पड़ा और इतनी जल्द! आज ही वह मुंशी वज्रधर के पास से लौटे थे। आज ही उनके मुख से वे अहंकारपूर्ण शब्द निकले थे। आह ! कौन जानता था कि विधि इतनी जल्द यह सर्वनाश कर देगा! इससे पहले कि वह अपने जीवन का अंत कर दें, विधि ने उनकी आशाओं का अंत कर दिया।

राजा साहब ने कमरे में जाकर शंखधर के मुख की ओर देखा। उनके जीवन का आधार निर्जीव पड़ा हुआ था। यही दृश्य आज से पचास वर्ष पहले उन्होंने देखा था। यही शंखधर था ! हां, यही शंखधर था ! यही कमला थी ! हां, यही कमला थी ! वह स्वयं बदल गए थे। उस समय दिल में मनसूबे थे, बड़े-बड़े इरादे थे। आज नैराश्य और शोक के सिवा कुछ न था।

उनके मुख से विलाप का एक शब्द भी न निकला। आंखों से आंसू की एक बूंद भी न गिरी। खड़े-खड़े भूमि पर गिर पड़े और दम निकल गया।

कायाकल्प : अध्याय छप्पन

शंखधर के चले आने के बाद चक्रधर को संसार शून्य जान पड़ने लगा। सेवा का वह पहला उत्साह लुप्त हो गया। उसी सुंदर युवक की सूरत आंखों में नाचती रहती। उसी की बातें कानों में गूंजा करतीं। भोजन करने बैठते, तो उसकी जगह खाली देखकर उनके मुंह में कौर न धंसता। हरदम कुछ खोए-खोए से रहते थे। बार-बार यह जी चाहता था कि उसके पास चला जाऊं! बार-बार चलने का इरादा करते, पर पग रुक जाते। साईंगंज से जाने का अब उनका जी नहीं चाहता था। इतने दिनों तक वह एक जगह कभी नहीं रहे। शंखधर जिस कंबल पर सोता था, उसे रोज झाड़-पोंछकर तह करते हैं। शंखधर अपनी खंजरी यहीं छोड़ गया है। चक्रधर के लिए संसार में इससे बहुमूल्य कोई वस्तु नहीं है। शंखधर की पुरानी धोती और फटे हुए कुर्ते सिरहाने रखकर सोते हैं। रमणी अपने सुहाग के जोड़े की भी इतनी देख-रेख न करती होगी।

संध्या हो गई है। चक्रधर मंदिर के दालान में बैठे हुए चलने की तैयारी कर रहे हैं। अब यहां नहीं रहा जा सकता। उस देवकुमार को देखने के लिए आज वह बहुत विकल हो हो रहे हैं।

गांव के चौधरी ने आकर कहा--महाराज, आप व्यर्थ गठरी बांध रहे हैं। हम लोगों का प्रेम फिर आधे रास्ते से खींच लाएगा। आप हमारी विनती न सुनें, पर प्रेम की रस्सी को कैसे तोड़ डालिएगा?

चक्रधर--नहीं भाई, अब जाने दो। बहुत दिन हो गए।

चौधरी का लड़का नीचे रखी हुई खंजरी उठाकर बजाने लगा। चक्रधर ने उसके हाथ से खंजरी छीन ली और बोले-खंजरी हमें दे दो बेटा, टूट जाएगी।

लड़के ने रोकर कहा--हम खंजरी लेंगे।

चौधरी ने चक्रधर की ओर देखकर कहा--बाबाजी के चरण छुओ, तो दिला दूं।

चक्रधर बोले--नहीं भाई, खंजरी न दूंगा। यह खंजरी उस युवक की है, जो कई दिनों तक मेरे पास रहा था। दूसरे की चीज कैसे दे दूं?

गांव के बहुत से आदमी जमा हो गए। चक्रधर विदा हुए। कई आदमी मील भर तक उनके साथ आए।

लेकिन प्रात:काल लोग मंदिर पर पूजा करने आए, तो देखा कि बाबा भगवानदास चबूतरे पर झाडू लगा रहे हैं।

एक आदमी बोला--हम कहते थे, महाराज न जाइए, लेकिन आपने न माना। आखिर हमारी भक्ति खींच लाई न? अब इसी गांव में आपको कुटी बनानी पड़ेगी।

चक्रधर ने सकुचाते हुए कहा--अभी यहां कुछ दिन और अन्न-जल है, भाई! सचमुच इस गांव की मुहब्बत नहीं छोड़ती।

चक्रधर ने मन में निश्चय किया, अब शंखधर को देखने का इरादा कभी न करुंगा। वह अपने घर पहुँच गया। संभव है, उसका तिलक भी हो गया हो। मेरी याद भी उसे न आती होगी। मैं व्यर्थ ही उसके लिए इतना चिंतित हूँ। पुत्र सभी के होते हैं, पर उसके पीछे कोई इतना अंधा नहीं हो जाता कि और सब काम छोड़कर बस उसी के नाम रोता रहे।

फिर सोचा-एक बार देख आने में हरज ही क्या है? कोई मुझे बांध तो रखेगा नहीं। जब उस वक्त कोई न रोक सका, तो आज कौन रोकेगा? जरा देखू, किस ढंग से राज करता है। मेरे उपदेशों का कुछ फल हुआ या पड़ गया उसी चक्कर में? धुन का पक्का तो जरूर है। कर्मचारियों के हाथ की कठपुतली तो शायद न बने, मगर कुछ कहा नहीं जा सकता। मानवीय चरित्र इतना जटिल है कि बुरे से बुरा आदमी भी देवता हो जाता है, और अच्छे से अच्छा आदमी पशु। मुझे देखकर झेंपेगा तो क्या ! मैं यों उसके सम्मुख जाऊं ही क्यों? दूर ही से देखकर चला आऊंगा। रंग-ढंग से दो-चार आदमियों से बातें करते ही मालूम हो जाएगा।

यह सोचते-सोचते चक्रधर सो गए। रात को उन्हें एक भयंकर स्वप्न दिखाई दिया। क्या देखते हैं कि शंखधर एक नदी के किनारे उनके साथ बैठा हुआ है। सहसा दूर से एक नाव आती हुई दिखाई दी। उसमें से मन्नासिंह उतर पड़ा। उसने हंसकर कहा--बाबूजी, यही राजकुमार हैं न? मैं बहुत दिनों से खोज रहा हूँ। राजा साहब इन्हें बुला रहे हैं। शंखधर उठकर मन्नासिंह के साथ चला। दोनों नाव पर बैठे। मन्नासिंह डांड़ चलाने लगा। चक्रधर किनारे ही खड़े रह गए। नाव थोडी ही दूर जाकर चक्कर खाने लगी। शंखधर ने दोनों हाथ उठाकर उन्हें बुलाया ! वह दौड़े, पर इतने में नाव डब गई। एक क्षण में फिर नाव ऊपर आ गई। मन्नासिंह पूर्ववत् डांड़ चला रहा था, पर शंखधर का पता न था।

चक्रधर जोर से चीख मारकर जग पड़े! उनका हृदय धक-धक कर रहा था। उनके मुख से शब्द निकल पड़े-ईश्वर ! यह स्वप्न है या होने वाली बात? अब उनसे वहां न रहा गया। उसी वक्त उठ बैठे, बकुचा लिया और चल खड़े हुए।

चांदनी छिटकी हुई थी। चारों ओर सन्नाटा था। पर्वत श्रेणियां अभिलाषाओं की समाधियों सी मालूम होती थीं। वृक्षों के समूह श्मशान से उठने वाले धुएं की तरह नजर आते थे। चक्रधर कदम बढ़ाते हुए पथरीली पगडंडियों पर चले जाते थे !

चक्रधर की इस वक्त वह मानसिक दशा हो गई थी, जब अपने ही को अपनी खबर नहीं रहती। वह सारी रात पथरीले पथ पर चलते रहे। प्रात:काल रेलवे स्टेशन मिला। गाड़ी आई, उस पर जा बैठे। गाड़ी में कौन लोग थे, उन्हें देख-देखकर लोग उनसे क्या प्रश्न करते थे, उनका वह क्या उत्तर देते थे, रास्ते में कौन-कौन से स्टेशन मिले, कब दोपहर हुई, कब संध्या हुई, इन बातों का उन्हें जरा भी ज्ञान न हुआ। पर वह कर वही रहे थे, जो उन्हें करना चाहिए था। किसी की बातों का ऊटपटांग जवाब न देते थे, जिन गाड़ियों पर बैठना न चाहिए था, उन पर न बैठते थे, जिन स्टेशनों पर उतरना न चाहिए था, वहां न उतरते थे। अभ्यास बहुधा चेतना का स्थान ले लिया करता है।

तीसरे दिन प्रात:काल गाड़ी काशी जा पहुंची। ज्यों ही गाड़ी गंगा के पुल पर पहुंची, चक्रधर की चेतना जाग उठी ! संभल बैठे। गंगा के बाएं किनारे पर हरियाली छाई हुई थी। दूसरी ओर काशी का विशाल नगर, ऊंची अट्टालिकाओं और गगनचुंबी मंदिर-कलशों से सुशोभित, सूर्य के स्निग्ध प्रकाश से चमकता हुआ खड़ा था। मध्य में गंगा मंद गति से अनंत की ओर दौड़ी चली जा रही थी, मानो अभिमान से अटल नगर और उच्छृखलता से झूमती हुई हरियाली से कह रही हो-अनंत जीवन अनंत प्रवाह में है। आज बहुत दिनों के बाद यह चिरपरिचित दृश्य देखकर चक्रधर का हृदय उछल पड़ा। भक्ति का उद्गार मन में उठा। एक क्षण के लिए वह अपनी सारी चिंताएं भूल गए, गंगा-स्नान की प्रबल इच्छा हुई। इसे वह किसी तरह न रोक सके।

स्टेशन पर कई पुराने मित्रों से उनकी भेंट हो गई। उनकी सूरतें कितनी बदल गई थीं। वे चक्रधर को देखकर चौंके, कुशल पूछी और जल्दी से चले गए। चक्रधर ने मन में कहा-कितने रूखे लोग हैं कि किसी को बातें करने की फुर्सत नहीं।

वह एक तांगे पर बैठकर स्नान करने चले। थोड़ी ही दूर गए थे कि गुरुसेवकसिंह मोटर पर सामने से आते दिखाई दिए। चक्रधर ने तांगेवाले को रोक दिया। गुरुसेवक ने भी मोटर रोकी और पूछा-क्या अभी चले आ रहे हैं?

चक्रधर--जी हां, चला ही आता हूँ।

गुरुसेवक ने मोटर आगे बढ़ा दी। चक्रधर को इनसे इतनी रुखाई की आशा न थी। चित्त खिन्न हो उठा।

दशाश्वमेध घाट पहुँचकर तांगे से उतरे। इसी घाट पर वह पहले भी स्नान किया करते थे। सभी पंडे उन्हें जानते थे, पर आज किसी ने भी प्रसन्न चित्त से उनका स्वागत नहीं किया। ऐसा जान पड़ता था कि उन लोगों को उनसे बातें करते जब हो रहा है। किसी ने न पूछा-कहाँ-कहाँ घूमे? क्या करते रहे?

स्नान करके चक्रधर फिर तांगे पर आ बैठे और राजभवन की ओर चले। ज्यों-ज्यों भवन निकट आता था, उनका आशंकित हृदय अस्थिर होता जाता था।

तांगा सिंहद्वार पहुंचा। वह राज्य पताका, जो मस्तक ऊंचा किए लहराती रहती थी, झुकी हुई थी। चक्रधर का दिल बैठ गया। इतने जोर से धड़कन होने लगी, मानो हथौड़े की चोट पड़ रही हो।

तांगा देखते ही एक बूढ़ा दरबान आकर खड़ा हो गया, चक्रधर को ध्यान से देखा और भीतर की ओर दौड़ा। एक क्षण के अंदर हाहाकार मच गया। चक्रधर को मालूम हुआ कि वह किसी भयंकर जंतु के उदर में पड़े हुए तड़फड़ा रहे हैं।

किससे पूछे, क्या विपत्ति आई है? कोई निकट नहीं आता। सब दूर सिर झुकाए खड़े हैं। वह कौन लाठी टेकता हुआ चला आता है? अरे! यह तो मुंशी वज्रधर हैं। चक्रधर तांगे से उतरे और दौड़कर पिता के चरणों पर गिर पड़े।

मुंशीजी ने तिरस्कार के भाव से कहा--दो-चार दिन पहले न आते बना कि लड़के का मुंह तो देख लेते। अब आए हो, जबकि सर्वनाश हो गया! क्या बैठे यही मना रहे थे?

चक्रधर रोए नहीं, गंभीर एवं सुदृढ़ भाव से बोले-ईश्वर की इच्छा। मुझे किसी ने एक पत्र तक न लिखा। बीमारी क्या थी?

मुंशी--अजी, सिर तक नहीं दुखा, बीमारी होना किसे कहते हैं? बस, होनहार ! तकदीर ! रात को भोजन करके बैठे एक पुस्तक पढ़ रहे थे। बहू से बातें करते हुए स्वर्ग की राह ली। किसी हकीम वैद्य की अक्ल नहीं काम करती कि क्या हो गया था। जो सुनता, दांतों तले अंगुली दबाकर रह जाता है। बेचारे राजा साहब भी इस शोक में चल बसे। तुमने उसे भुला दिया था, पर उसे तुम्हारे नाम की रट लगी हुई थी। बेचारे के दिल में कैसे-कैसे अरमान थे ! हम और तुम क्या रोएंगे, रोती है प्रजा ! इतने ही दिनों में सारी रियासत उस पर जान देने लगी थी। इस दुनिया में क्या कोई रहे! जी भर गया। अब तो जब तक जीना है, तब तक रोना है। ईश्वर बड़ा ही निर्दयी है।

चक्रधर ने लंबी सांस खींचकर कहा--मेरे कर्मों का फल है। ईश्वर को दोष न दीजिए।

मुंशी--तुमने ऐसे कर्म किए होंगे, मैंने नहीं किए। मुझे क्यों इतनी बड़ी चोट लगाई? मैं भी अब तक ईश्वर को दयालु समझता था, लेकिन अब वह श्रद्धा नहीं रही। गुणानुवाद करते सारी उम्र बीत गई। उसका यह फल ! उस पर कहते हो, ईश्वर को दोष न दीजिए। अपने कल्याण ही के लिए तो ईश्वर का भजन किया है या किसी की जीभ खुजलाती है? कसम ले लो, जो आज से कभी एक पद भी गाऊं। तोड़ आया सितार-सारंगी, सरोद-पखावज, सब पटककर तोड़ डाले। ऐसे निर्दयी की महिमा कौन गाए और क्यों गाए? मर्द आदमी, तुम्हारी आंखों में आंसू भी नहीं निकलते? खड़े ताक रहे हो! मैं कहता हूँ-रो लो, नहीं तो कलेजे में नासूर पड़ जाएगा ! बड़े-बड़े त्यागी देखे हैं, लेकिन जो पेट भरकर रोया नहीं, उसे फिर हंसते नहीं देखा। आओ, अंदर चलो। बहू ने दीवार से सिर पटक दिया, पट्टी बांधे पड़ी हुई है। तुम्हें देखकर उसे धीरज हो जाएगा! मैं डरता हूँ कि वहां जाकर कहीं तुम भी रो न पड़ो, नहीं तो उसके प्राण ही निकल जाएंगे।

यह कहकर मुंशीजी ने उनका हाथ पकड़ लिया और अंत:पुर में ले गए। अहिल्या को उनके आने की खबर मिल गई थी। उठना चाहती थी, पर उठने की शक्ति न थी।

चक्रधर ने सामने आकर कहा--अहिल्या !

अहिल्या ने फिर चेष्टा की। बरसों की चिंता, कई दिनों के शोक और उपवास एवं बहुतसा रक्त निकल जाने के कारण शरीर जीर्ण हो गया था। करवट घूमकर दोनों हाथ पति के चरणों की ओर बढ़ाए, पर वह चरणों को स्पर्श न कर सकी, हाथ फैले रह गए, और एक क्षण में भूमि पर लटक गए। चक्रधर ने घबराकर उसके मुख की ओर देखा। निराशा मुरझाकर रह गई थी। नेत्रों में करुण याचना भरी हुई थी।

चक्रधर ने रुंधे हुए स्वर में कहा--अहिल्या, मैं आ गया, अब कहीं न जाऊंगा ! ईश्वर से कहता हूँ, कहीं न जाऊंगा। हाय ईश्वर! क्या मुझे यही दिखाने के लिए यहां लाया था?

अहिल्या ने एक बार तृषित, दीन एवं तिरस्कारमय नेत्रों से पति की ओर देखा। आंखें सदैव के लिए बंद हो गईं।

उसी वक्त मनोरमा आकर द्वार पर खड़ी हो गई। चक्रधर ने आंसुओं को रोकते हुए कहा--रानीजी, जरा आकर इन्हें चारपाई से उतरवा दीजिए।

मनोरमा ने अंदर आकर अहिल्या का मुख देखा और रोकर बोली--आपके दर्शन बदे थे, नहीं तो प्राण कबके निकल चुके थे। दुखिया का कोई भी अरमान पूरा न हुआ। यह कहते-कहते मनोरमा की आंखों से आंसुओं की झड़ी लग गई !

कायाकल्प : अध्याय उपसंहार

कई साल बीत गए हैं। मुंशी वज्रधर नहीं रहे। घोड़े की सवारी का उन्हें बड़ा शौक था। नर घोड़े ही पर सवार होते थे। बग्घी, मोटर, पालकी इन सभी को वह जनानी सवारी कहते थे! एक दिन जगदीशपुर से बहुत रात गए लौट रहे थे। रास्ते में एक नाला पड़ता था। नाले में उतरने के लिए रास्ता भी बना हुआ था, लेकिन मुंशीजी नाले में उतरकर पार करना अपमान की बात समझते थे। घोड़े ने जस्त मारी, उस पार निकल भी गया, पर उसके पांव गड्ढे में पड़ गए। गिर पड़ा, मुंशीजी भी गिरे और फिर न उठे। हंस-खेल कर जीवन काट दिया। निर्मला भी पति का वियोग सहने के लिए बहुत दिन जीवित न रही। उसकी अंतिम अभिलाषा, कि चक्रधर फिर विवाह कर लें, पूरी नहीं हो सकी।

देवप्रिया फिर जगदीशपुर पर राज्य कर रही है। हां, उसका नाम बदल गया है। विलासिनी देवप्रिया अब तपस्विनी देवप्रिया है। उसका भविष्य अब अंधकारमय नहीं है। प्रभात की आशामयी किरणें उसके जीवन-मार्ग को आलोकित कर रही हैं।

रानी मनोरमा नए भवन में रहती हैं। उसने कितनी ही चिड़ियां पाल रखी हैं। उन्हीं की देख-रेख में अब वह अपने दिन काटती है। पक्षियों में वह अपनी मनोव्यथा को विलीन कर देना चाहती है। उसके शयनागार में सोने के चौखट में खड़ा हुआ एक चित्र दीवार से लटका हुआ है, जिसमें दीवान हरिसेवक के मुंह से निकले हुए शब्द अंकित हैं--

'लौंगी को देखो !'

आज से कई साल पहले, जब राजा साहब जीवित थे, मनोरमा को उसके पिता ने यही अंतिम उपदेश दिया था। उसी दिन से यह उपदेश उसका जीवन-मंत्र बना हुआ है।

चक्रधर बहुत दिन घर पर न रहे। माता-पिता के बाद वह घर, घर ही न रहा। फिर दक्षिण की ओर सिधारे, लेकिन अब वह केवल सेवा-कार्य ही नहीं करते, उन्हें पक्षियों से बहुत प्रेम हो गया है। विचित्र पक्षियों की उन्हें नित्य खोज रहती है। भक्तजन उनका यह पक्षी-प्रेम देखकर उन्हें प्रसन्न करने के लिए नाना प्रकार के पक्षी लाते रहते हैं। इन पक्षियों के अलग-अलग नाम हैं। अलग-अलग उनके भोजन की व्यवस्था है। उन्हें पढ़ाने, घुमाने व चुगाने का समय नियत है।

सांझ हो गई थी। मनोरमा बाग में टहल रही थी। सहसा हौज के पास एक बहुत ही सुंदर पिंजरा दिखाई दिया। उसमें पहाड़ी मैना बैठी हुई थी। रानीजी को आश्चर्य हुआ। यहां पिंजरा कहाँ से आया? उसके पास कई चिड़ियां थीं, जिन्हें उसने सैकड़ों रुपए खर्च करके खरीदा था, पर ऐसी सुंदर एक भी चीज न थी। रंग पीला था। सिर पर लाल दाग था; चोंच इतनी प्यारी कि चूम लेने को जी चाहता था। मनोरमा समीप गई, तो मैना बोली-नोरा ! हमें भूल गईं? तुम्हारा पुराना सेवक हूँ।

मनोरमा के आश्चर्य का पारावार न रहा। उसे कुछ भय-सा लगा। इसे मेरा नाम किसने पढ़ाया? किसकी चिड़िया है? यहां कैसे आई? इसका स्वामी अवश्य कोई होगा? आता होगा, देखू कौन है?

मनोरमा बड़ी देर तक खड़ी उस आदमी का इंतजार करती रही। जब अब भी कोई न आया, तो उसने माली को बुलाकर पूछा-यह पिंजरा बाग में कौन लाया?

माली ने कहा--पहचानता तो नहीं हुजूर, पर हैं कोई भले आदमी। मुझसे देर तक रियासत की बातें पूछते रहे। पिंजरा रखकर गए कि और चिड़ियां लेता आऊ पर लौटकर न आए।

रानी--आज फिर आएंगे?

माली--हां, हुजूर, कह तो गए हैं।

रानी--आएं तो मुझे खबर देना।

माली--बहुत अच्छा, सरकार।

रानी--सूरत कैसी है, बता सकता है?

माली--बड़ी-बड़ी आंखें हैं, हुजूर, लंबे आदमी हैं। एक-एक बाल पक रहा है।

रानी ने उत्सुकता से कहा--आएं तो मुझे जरूर बुला लेना।

रानी पिंजरा लिए हुए चली आई। रात भर वही मैना उसके ध्यान में बसी रही। उसकी बातें कानों में गूंजती रहीं।

कौन कह सकता है, यह संकेत पाकर उसका मन कहाँ--कहाँ विचर रहा था। सारी रात वह मधुर स्मृतियों का सुखद स्वप्न देखने में मग्न रही। प्रात:काल उसके मन में आया, चलकर देखू, वह आदमी आया है या नहीं। वह भवन से निकली, पर फिर लौट गई।

थोड़ी ही देर में फिर वही इच्छा हुई वह आदमी कौन है, क्या यह बात उससे छिपी हुई थी? वह बाग में फाटक तक आई, पर वहीं से लौट गई। उसका हृदय हवा के पर लगाकर उस मनुष्य के पास पहुँच जाना चाहता था, पर आह ! कैसे जाए?

चार बजे वह ऊपर के कमरे में जा बैठी और उस आदमी की राह देखने लगी। वहां से माली का मकान साफ दिखाई देता था। बैठे-बैठे बहुत देर हो गई। अंधेरा होने लगा। रानी ने एक गहरी सांस ली। शायद अब न आएंगे।

सहसा उसने देखा, एक आदमी दो पिंजरे दोनों हाथों से लटकाए बाग में आया। मनोरमा का हृदय बांसों उछलने लगा। सहस्र घोड़ों की शक्ति वाला इंजन उसे उस आदमी की ओर खींचता हुआ जान पड़ा। वह बैठी न रह सकी। दोनों हाथों से हृदय थामे, सांस बंद किए मनोवेग से आंदोलित वह खड़ी रही। उसने सोचा, माली अभी मुझे बुलाने आता होगा, पर माली न आया और वह आदमी वहीं पिंजरा रखकर चला गया! मनोरमा अब वहां न रह सकी। हाय! वह चले जा रहे हैं! तब जमीन पर लेटकर फफक-फफक रोने लगी।

सहसा माली ने आकर कहा--सरकार, वह आदमी दो पिंजरे रख गया है और कह गया है कि फिर कभी और चिड़िया लेकर आऊंगा।

मनोरमा ने कठोर स्वर में पूछा--तूने मुझसे उसी वक्त क्यों नहीं कहा।

माली पिंजरे को उसके सामने जमीन पर रखता हुआ बोला--सरकार, मैं उसी वक्त आ रहा था, पर उसी आदमी ने मना किया। कहने लगा, अभी सरकार को क्यों बुलाओगे? मैं फिर कभी और चिड़िया लाकर आप ही उनसे मिलूंगा।

रानी कुछ न बोली। पिंजरे में बंद दोनों चिड़ियों को सजल नेत्रों से देखने लगी।

  • कायाकल्प : अध्याय (13-24)
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