कायाकल्प (उपन्यास) : मुंशी प्रेमचंद

Kayakalp (Novel): Munshi Premchand

कायाकल्प : अध्याय एक

दोपहर का समय था; चारों तरफ अंधेरा था। आकाश में तारे छिटके हुए थे। ऐसा सन्नाटा छाया हुआ था, मानो संसार से जीवन का लोप हो गया हो। हवा भी बंद हो गई थी। सूर्यग्रहण लगा हुआ था। त्रिवेणी के घाट पर यात्रियों की भीड़ थी-ऐसी भीड़, जिसकी कोई उपमा नहीं दी जा सकती। वे सभी हिंदू , जिनके दिल में श्रद्धा और धर्म का अनुराग था, भारत के हर एक प्रांत से इस महान् अवसर पर त्रिवेणी की पावन धारा में अपने पापों का विसर्जन करने के लिए आ पहुंचे थे, मानो उस अंधेरे में भक्ति और विश्वास ने अधर्म पर छापा मारने के लिए अपनी असंख्य सेना सजाई हो। लोग इतने उत्साह से त्रिवेणी के संकरे घाट की ओर गिरते-पड़ते लपके चले जाते थे कि यदि जल की शीतल धारा की जगह अग्नि का जलता हुआ कुंड होता, तो भी लोग उसमें कूदते हुए जरा भी न झिझकते?

कितने आदमी कुचल गए, कितने डूब गए, कितने खो गए, कितने अपंग हो गए, इसका अनुमान करना कठिन है। धर्म का विकट संग्राम था। एक तो सूर्यग्रहण, उस पर यह असाधारण अद्भुत प्राकृतिक छटा ! सारा दृश्य धार्मिक वृत्तियों को जगाने वाला था। दोपहर को तारों का प्रकाश माया के पर्दे को फाड़कर आत्मा को आलोकित करता हुआ मालूम होता था। वैज्ञानिकों की बात जाने दीजिए, पर जनता में न जाने कितने दिनों से यह विश्वास फैला हुआ था कि तारागण दिन को कहीं किसी सागर में डूब जाते हैं। आज वही तारागण आंखों के सामने चमक रहे थे, फिर भक्ति क्यों न जाग उठे ! सद्वृत्तियां क्यों न आंखें खोल दें!

घंटे भर के बाद फिर प्रकाश होने लगा, तारागण फिर अदृश्य हो गए, सूर्य भगवान की समाधि टूटने लगी।

यात्रीगण अपने-अपने पापों की गठरियां त्रिवेणी में डाल-डालकर जाने लगे। संध्या होते-होते घाट पर सन्नाटा छा गया। हां, कुछ घायल, कुछ अधमरे प्राणी जहां-तहां पड़े कराह रहे थे और ऊंचे कगार से कुछ दूर पर एक नाली में पड़ी तीन-चार साल की एक लड़की चिल्ला-चिल्लाकर रो रही थी।

सेवा-समितियों के युवक, जो अब तक भीड़ संभालने का विफल प्रयत्न कर रहे थे, अब डोलियां कंधों पर ले-लेकर घायलों और भूले-भटकों की खबर लेने आ पहुंचे। सेवा और दया का कितना अनुपम दृश्य था !

सहसा एक युवक के कानों में उस बालिका के रोने की आवाज पड़ी। अपने साथी से बोला-यशोदा, उधर कोई बच्चा रो रहा है।

यशोदानंदन-हां मालूम तो होता है। इन मूर्खों को कोई कैसे समझाए कि यहां बच्चों को लाने का काम नहीं। चलो, देखें।

दोनों ने उधर जाकर देखा, तो एक बालिका नाली में पड़ी रो रही है। गोरा रंग था, भरा हुआ शरीर, बड़ी-बड़ी आंखें, गोरा मुखड़ा, सिर से पांव तक गहनों से लदी हुई। किसी अच्छे घर की लड़की थी। रोते-रोते उसकी आंखें लाल हो गई थीं। इन दोनों युवकों को देखकर डरी और चिल्लाकर रो पड़ी। यशोदा ने उसे गोद में उठा लिया और प्यार करके बोला-बेटी, रो मत, हम तुझे तेरी अम्मां के घर पहुंचा देंगे। तुझी को खोज रहे थे। तेरे बाप का क्या नाम है?

लड़की चुप तो हो गई, पर संशय की दृष्टि से देख-देखकर सिसक रही थी। इस प्रश्न का कोई उत्तर न दे सकी।

यशोदानंदन ने फिर चुमकारकर पूछा-बेटी, तेरा घर कहाँ है?

लड़की ने कोई जवाब न दिया।

यशोदा-अब बताओ महमूद, क्या करें ?

महमूद एक अमीर मुसलमान का लड़का था। यशोदानंदन से उसकी बड़ी दोस्ती थी। उसके साथ यह भी सेवा-समिति में दाखिल हो गया था। बोला-क्या बताऊं ? कैंप में ले चलो, शायद कुछ पता चले।

यशोदानंदन-अभागे जरा-जरा से बच्चों को लाते हैं और इतना भी नहीं करते कि उन्हें अपना नाम और पता तो याद करा दें।

महमूद-क्यों बिटिया, तुम्हारे बाबूजी का क्या नाम है?

लड़की ने धीरे से कहा-बाबू दी !

महमूद-तुम्हारा घर इसी शहर में है या कहीं और?

लड़की-मैं तो बाबूजी के साथ लेल पर आयी थी!

महमूद-तुम्हारे बाबूजी क्या करते हैं?

लड़की-कुछ नहीं करते।

यशोदानंदन-इस वक्त अगर इसका बाप मिल जाए तो सच कहता हूँ, बिना मारे न छोडूं। बचा गहने पहनाकर लाए थे, जाने कोई तमाशा देखने आए हों !

महमूद-और मेरा जी चाहता है कि तुम्हें पीटूं। मियां-बीवी यहां आए तो बच्चे को किस पर छोड़ आते ! घर में और कोई न हो तो?

यशोदानंदन-तो फिर उन्हीं को यहां आने की क्या जरूरत थी?

महमूद-तुम एथीइस्ट (नास्तिक) हो; तुम क्या जानो कि सच्चा मजहबी जोश किसे कहते हैं?

यशोदानंदन-ऐसे मजहबी जोश को दूर से ही सलाम करता हूँ। इस वक्त दोनों मियां-बीवी हाय-हाय कर रहे होंगे।

महमूद-कौन जाने, वे भी यहां कुचल-कुचला गए हों। लड़की ने साहसकर कहा-तुम हमें घल पहुंचा दोगे? बाबूदी तुमको पैछा देंगे।

यशोदानंदन-अच्छा बेटी, चलो तुम्हारे बाबूजी को खोजें।

दोनों मित्र बालिका को लिए कैंप में आए, पर यहां कुछ पता न चला। तब दोनों उस तरफ गए, जहां मैदान में बहुत से यात्री पड़े हुए थे। महमूद ने बालिका को कंधे पर बैठा लिया और यशोदानंदन चारों तरफ चिल्लाते फिरे-यह किसकी लड़की है? किसी की लड़की तो नहीं खो गई? यह आवाजें सुनकर कितने ही यात्री हां-हां, कहाँ-कहाँ करके दौड़े, पर लड़की को देखकर निराश लौट गए।

चिराग जले तक दोनों मित्र घूमते रहे। नीचे-ऊपर, किले के आस-पास, रेल के स्टेशन पर, अलोपी देवी के मन्दिर की तरफ यात्री-ही-यात्री पड़े हुए थे, पर बालिका के माता-पिता का कहीं पता न चला। आखिर निराश होकर दोनों आदमी कैंप लौट आए।

दूसरे दिन समिति के और कई सेवकों ने फिर पता लगाना शुरू किया। दिन-भर दौड़े, सारा प्रयाग छान मारा, सभी धर्मशालाओं की खाक छानी पर कहीं पता न चला।

तीसरे दिन समाचार-पत्र में नोटिस दिया गया और दो दिन वहां और रहकर समिति आगरे लौट गई। लड़की को भी अपने साथ लेती गई। उसे आशा थी कि समाचार-पत्रों से शायद सफलता हो। जब समाचार-पत्रों से कुछ पता न चला, तब विवश होकर कार्यकर्ताओं ने उसे वहीं के अनाथालय में रख दिया। महाशय यशोदानंदन ही उस अनाथालय के मैनेजर थे।

कायाकल्प : अध्याय दो

बनारस में महात्मा कबीर के चौरे के निकट मुंशी वज्रधरसिंह का मकान है। आप हैं तो राजपूत पर अपने को 'मुंशी' लिखते और कहते हैं। 'मुंशी' की उपाधि से आपको बहुत प्रेम है। 'ठाकुर' के साथ आपको गंवारपन का बोध होता है, इसलिए हम भी आपको मुंशीजी कहेंगे। आप कई साल से सरकारी पेंशन पाते हैं। बहुत छोटे पद से तरक्की करते-करते आपने अंत में तहसीलदारी का उच्च पद प्राप्त कर लिया था। यद्यपि आप उस महान् पद पर तीन मास से अधिक न रहे और उतने दिन भी केवल एवज पर रहे; पर आप अपने आपको 'साबिक तहसीलदार' लिखते थे और मुहल्ले वाले भी उन्हें खुश करने को 'तहसीलदार साहब' ही कहते थे। यह नाम सुनकर आप खुशी से अकड़ जाते थे, पर पेंशन केवल पच्चीस रुपए मिलती थी, इसलिए तहसीलदार साहब को बाजार-हाट खुद ही करना पड़ता था। घर में चार प्राणियों का खर्च था। एक लड़की थी, एक लड़का और स्त्री। लड़के का नाम चक्रधर था, वह इतना जहीन था कि पिता के पेंशन के जमाने में जब घर से किसी प्रकार की सहायता न मिल सकती थी, केवल अपने बुद्धि-बल से उसने एम.ए. की उपाधि प्राप्त कर ली थी। मुंशीजी ने पहले ही से सिफारिश पहुंचानी शुरू कर दी थी। दरबारदारी की कला में वह निपुण थे। हुक्काम को सलाम करने का उन्हें मरज था। हाकिमों के दिए हुए सैकड़ों प्रशंसापत्र उनकी अतुल संपत्ति थे। उन्हें वह बड़े गर्व से दूसरों को दिखाया करते थे। कोई नया हाकिम आए, उससे जरूर रब्त-जब्त कर लेते थे। हुक्काम ने चक्रधर का ख्याल करने के वादे भी किए थे; लेकिन जब परीक्षा का नतीजा निकला और मुंशीजी ने चक्रधर से कमिशनर के यहां चलने को कहा तो उन्होंने जाने से साफ इंकार किया !

मुंशीजी ने त्योरी चढ़ाकर पूछा-क्यों, क्या घर बैठे तुम्हें नौकरी मिल जाएगी?

चक्रधर-मेरी नौकरी करने की इच्छा नहीं है।

वज्रधर-यह खब्त तुम्हें कब से सवार हुआ? नौकरी के सिवा और करोगे ही क्या?

चक्रधर-मैं आजाद रहना चाहता हूँ।

वज्रधर-आजाद रहना था तो एम.ए. क्यों किया?

चक्रधर-इसीलिए कि आजादी का महत्त्व समझूं।

उस दिन से पिता और पुत्र में आए दिन बमचख मचती रहती थी। मुंशीजी बुढ़ापे में भी शौकीन आदमी थे। अच्छा खाने और अच्छा पहनने की इच्छा अभी भी बनी हुई थी। अब तक इसी ख्याल से दिल को समझाते थे कि लड़का नौकर हो जाएगा तो मौज करेंगे। अब लड़के का रंग देखकर बार-बार झुंझलाते और उसे कामचोर, घमंडी, मूर्ख कहकर अपना गुस्सा उतारते थे-अभी तुम्हें कुछ नहीं सूझता, जब मैं मर जाऊंगा तब सूझेगा। तब सिर पर हाथ रखकर रोओगे। लाख बार कह दिया बेटा, यह जमाना खुशामद और सलामी का है। तुम विद्या के सागर बने बैठे रहो, कोई सेंत भी न पूछेगा। तुम बैठे आजादी का मजा उठा रहे हो और तुम्हारे पीछे वाले बाजी मारे जाते हैं। वह जमाना लद गया जब विद्वानों की कद्र थी, अब तो विद्वान टके सेर मिलते हैं, कोई बात नहीं पूछता। जैसे और भी चीजें बनाने के कारखाने खुल गए हैं, उसी तरह विद्वानों के कारखाने खुल गए हैं, और उनकी संख्या हर साल बढ़ती जाती है।

चक्रधर पिता का अदब करते थे, उनको जवाब तो न देते; पर अपना जीवन सार्थक बनाने के लिए उन्होंने जो मार्ग तय कर लिया था, उससे वह न हटते थे। उन्हें यह हास्यास्पद मालूम होता था कि आदमी केवल पेट पालने के लिए आधी उम्र पढ़ने में लगा दे। अगर पेट पालना ही जीवन का आदर्श हो, तो पढ़ने की जरूरत ही क्या है। मजदूर एक अक्षर भी नहीं जानता, फिर भी वह अपना और अपने बाल-बच्चों का पेट बड़े मजे से पाल लेता है। विद्या के साथ जीवन का आदर्श कुछ ऊंचा न हुआ तो पढ़ना व्यर्थ है। विद्या को जीवन का साधन बनाते उन्हें लज्जा आती थी। वह भूखों मर जाते; लेकिन नौकरी के लिए आवेदन-पत्र लेकर कहीं न जाते। विद्याभ्यास के दिनों में भी वह सेवाकार्य में अग्रसर रहा करते थे और अब तो इसके सिवा उन्हें और कुछ सूझता ही न था। दीनों की सेवा और सहायता में जो आनंद और आत्मगौरव था, वह दफ्तर में बैठकर कलम घिसने में कहाँ !

इस प्रकार दो साल गुजर गए। मुंशी वज्रधर ने समझा था, जब यह भूत इसके सिर से उतर जाएगा, शादी-ब्याह की फ्रिक होगी, तो आप-ही-आप नौकरी की तलाश में दौड़ेंगे। जवानी का नशा बहुत दिनों तक नहीं ठहरता। लेकिन जब दो साल गुजर जाने पर भी भूत के उतरने का कोई लक्षण न दिखाई दिया, तो एक दिन उन्होंने चक्रधर को खूब फटकारा-दुनिया का दस्तूर है कि पहले अपने घर में दिया जलाकर तब मस्जिद में जलाते हैं। तुम अपने घर को अंधेरा रखकर मस्जिद को रोशन करना चाहते हो। जो मनुष्य अपनों का पालन न कर सका, वह दूसरों की किस मुंह से मदद करेगा। मैं बुढ़ापे में खाने-पहनने को तरसूं और तुम दूसरों का कल्याण करते फिरो। मैंने तुम्हें पैदा किया दूसरों ने नहीं; मैंने तुम्हें पाला-पोसा, दूसरों ने नहीं; मैं गोद में लेकर हकीम-वैद्यों के द्वार-द्वार दौड़ता फिरा, दूसरे नहीं। तुम पर सबसे ज्यादा हक मेरा है, दूसरों का नहीं।

चक्रधर अब पिता की इच्छा से मुंह न मोड़ सके। उन्हें अपने कॉलेज ही में कोई जगह मिल सकती थी। वहां सभी उनका आदर करते थे, लेकिन यह उन्हें मंजूर न था। वह कोई ऐसा धंधा करना चाहते थे, जिससे थोड़ी देर रोज काम करके अपने पिता की मदद कर सकें। एक घंटे से अधिक समय न देना चाहते थे। संयोग से जगदीशपुर के दीवान ठाकुर हरिसेवकसिंह को अपनी लड़की को पढ़ाने के लिए सुयोग्य और सच्चरित्र अध्यापक की जरूरत पड़ी। उन्होंने कॉलेज के प्रधानाध्यापक को इस विषय में एक पत्र लिखा। तीस रुपए मासिक तक वेतन रखा। कॉलेज का कोई अध्यापक इतने वेतन पर राजी न हुआ। आखिर उन्होंने चक्रधर को उस काम पर लगा दिया। काम बडी जिम्मेदारी का था; किंतु चक्रधर इतने सुशील, इतने गंभीर और इतने संयमी थे कि उन पर सबको विश्वास था।

दूसरे दिन से चक्रधर ने लड़की को पढ़ाना शुरू कर दिया।

कायाकल्प : अध्याय तीन

कई महीने बीत गए। चक्रधर महीने के अंत में रुपए लाते और माता के हाथ पर रख देते। अपने लिए उन्हें रुपए की कोई जरूरत न थी। दो मोटे कुर्तों पर साल काट देते थे। हां, पुस्तकों से उन्हें रुचि थी, पर इसके लिए कॉलेज का पुस्तकालय खुला हुआ था, सेवा-कार्य के लिए चंदों से रुपए आ जाते थे। मुंशी वज्रधर का मुंह भी कुछ सीधा हो गया। डरे कि इससे ज्यादा दबाऊं, तो शायद यह भी हाथ से जाए। समझ गए कि जब तक विवाह की बेड़ी पांव में न पड़ेगी, यह महाशय काबू में नहीं आएंगे । वह बेड़ी बनवाने का विचार करने लगे।

मनोरमा की उम्र अभी तेरह वर्ष से अधिक न थी, लेकिन चक्रधर को पढ़ाते हुए बड़ी झेंप होती थी। वह यही प्रयत्न करते थे कि ठाकुर साहब की उपस्थिति ही में उसे पढ़ाएं। यदि कभी ठाकुर साहब कहीं चले जाते, तो चक्रधर को महान् संकट का सामना करना पड़ता।

एक दिन चक्रधर इसी संकट में जा फंसे। ठाकुर साहब कहीं गए हुए थे। चक्रधर कुर्सी पर बैठे; पर मनोरमा की ओर न ताककर द्वार की ओर ताक रहे थे, मानो वहां बैठते डरते हों। मनोरमा वाल्मीकीय रामायण पढ़ रही थी। उसने दो-तीन बार चक्रधर की ओर ताका, पर उन्हें द्वार की ओर ताकते देखकर फिर किताब देखने लगी। उसके मन में सीता वनवास पर शंका हुई थी और वह इसका समाधान करना चाहती थी। चक्रधर ने द्वार की ओर ताकते हुए पूछा-चुप क्यों बैठी हो, आज का पाठ क्यों नहीं पढ़ती?

मनोरमा-मैं आपसे एक बात पूछना चाहती हूँ, आज्ञा हो तो पूछूं?

चक्रधर ने कातर भाव से कहा-क्या बात है?

मनोरमा-रामचन्द्र ने सीताजी को घर से निकाला तो वह चली क्यों गईं?

चक्रधर-और क्या करती?

मनोरमा-वह जाने से इंकार कर सकती थीं। एक तो राज्य पर उनका अधिकार भी रामचन्द्र ही के समान था, दूसरे वह निर्दोष थीं। अगर वह यह अन्याय न स्वीकार करतीं, तो क्या उन पर कोई आपत्ति हो सकती थी?

चक्रधर-हमारे यहां पुरुषों की आज्ञा मानना स्त्रियों का परम धर्म माना गया है। यदि सीताजी पति की आज्ञा न मानतीं, तो वह भारतीय सती के आदर्श से गिर जातीं।

मनोरमा-यह तो मैं जानती हूँ कि स्त्री को पुरुष की आज्ञा माननी चाहिए लेकिन क्या सभी दशा में? जब राजा से साधारण प्रजा न्याय का दावा कर सकती है, तो क्या उसकी स्त्री नहीं कर सकती? जब रामचन्द्र ने सीता की परीक्षा ले ली थी और अंत:करण से उन्हें पवित्र समझते थे, तो केवल झूठी निंदा से बचने के लिए उन्हें घर से निकाल देना कहाँ का न्याय था?

चक्रधर-राजधर्म का आदर्श पालन करना था।

मनोरमा-तो क्या दोनों प्राणी जानते थे कि हम संसार के लिए आदर्श खड़ा कर रहे हैं? इससे तो यह सिद्ध होता है कि वे कोई अभिनय कर रहे थे। अगर आदर्श भी मान लें तो यह ऐसा आदर्श है, जो सत्य की हत्या करके पाला गया है। यह आदर्श नहीं है, चरित्र की दुर्बलता है। मैं आपसे पूछती हूँ, आप रामचन्द्र की जगह होते, तो क्या आप भी सीता को घर से निकाल देते?

चक्रधर बड़े असमंजस में पड़ गए। उनके मन में स्वयं यही शंका और लगभग इसी उम्र में पैदा हुई थी; पर वह इसका समाधान न कर सके थे। अब साफ-साफ जवाब देने की जरूरत पड़ी तो, बगलें झांकने लगे।

मनोरमा ने उन्हें चुप देखकर फिर पूछा-क्या आप भी उन्हें घर से निकाल देते?

चक्रधर-नहीं, मैं तो शायद नहीं निकालता।

मनोरमा-आप निंदा की जरा भी परवाह न करते?

चक्रधर-नहीं, मैं झूठी निंदा की परवाह न करता।

मनोरमा की आंखें खुशी से चमक उठीं, प्रफुल्लित होकर बोली-यही बात मेरे मन में भी थी। मैंने दादाजी से, भाइयों से, पंडितजी से, लौंगी अम्मां से, भाभी से यही शंका की, पर सब लोग यही कहते थे कि रामचन्द्र तो भगवान हैं, उनके विषय में कोई शंका हो ही नहीं सकती। आपने आज मेरे मन की बात कही। मैं जानती थी कि आप यही जवाब देंगे। इसीलिए मैंने आपसे पूछा था। अब मैं उन लोगों को खूब आड़े हाथों लूंगी।

उस दिन से मनोरमा को चक्रधर से कुछ स्नेह हो गया। पढ़ने-लिखने में उसे विशेष रुचि हो गई। चक्रधर उसे जो काम करने को दे जाते, वह उसे अवश्य पूरा करती। पहले की भांति अब हीले-हवाले न करती। जब उनके आने का समय होता, तो वह पहले ही से आकर बैठ जाती और उनका इंतजार करती। अब उसे उनसे अपने मन के भाव प्रकट करते हुए संकोच न होता। वह जानती थी कि कम-से-कम यहां उनका निरादर न होगा, उनकी हंसी न उड़ाई जाएगी ।

ठाकुर हरिसेवकसिंह की आदत थी कि पहले दो-चार महीने तक तो नौकरों को वेतन ठीक समय पर दे देते, पर ज्यों-ज्यों नौकर पुराना होता जाता था, उन्हें उसके वेतन की याद भूलती जाती थी। उनके यहां कई नौकर ऐसे भी पड़े थे, जिन्होंने बरसों से अपने वेतन नहीं पाए थे, चक्रधर को भी इधर चार महीनों से कुछ न मिला था। न वह आप-ही-आप देते थे, न चक्रधर संकोचवश मांगते थे। उधर घर में रोज तकरार होती थी। मुंशी वज्रधर बार-बार तकाजे करते, झुंझलाते-मांगते क्यों नहीं? क्या मुंह में दही जमाया हुआ है, या काम नहीं करते? लिहाज भले आदमी का किया जाता है। ऐसे लुच्चों का लिहाज नहीं किया जाता, जो मुफ्त में काम कराना चाहते हैं।

आखिर एक दिन चक्रधर ने विवश हो ठाकुर साहब को एक पुरजा लिखकर अपना वेतन मांगा। ठाकुर साहब ने पुरजा लौटा दिया-व्यर्थ की लिखा-पढ़ी करने की उन्हें फुर्सत न थी और कहा-उनको जो कुछ कहना हो, खुद आकर कहें। चक्रधर शरमाते हुए गए और बहुत-कुछ शिष्टाचार के बाद रुपए मांगे। ठाकुर साहब हंसकर बोले-वाह ! बाबूजी, वाह ! आप भी अच्छे मौजी जीव हैं। चार महीनों से वेतन नहीं मिला और आपने एक बार भी न मांगा ! अब तो आपके परे एक-सौ बीस रुपए हो गए। मेरा हाथ इस वक्त तंग है। दस-पांच दिन ठहरिए। आपको महीने-महीने अपना वेतन ले लेना चाहिए था। सोचिए, मुझे एकमुश्त देने में कितनी असुविधा होगी ! खैर, जाइए, दस-पांच दिन में रुपए मिल जाएंगे।

चक्रधर कुछ न कह सके। लौटे, तो मुंह पर घोर निराशा छायी हुई थी। आज दादाजी शायद जीता न छोड़ेंगे। इस ख्याल से उनका दिल कांपने लगा। मनोरमा ने उनका पुरजा अपने पिता के पास ले जाते हुए राह में पढ़ लिया था। उन्हें उदास देखकर पूछा-दादाजी ने आपसे क्या कहा?

चक्रधर उसके सामने रुपए-पैसे का जिक्र न करना चाहते थे। झेंपते हुए बोले-कुछ तो नहीं।

मनोरमा-आपको रुपए नहीं दिए?

चक्रधर का मुंह लाल हो गया। बोले-मिल जाएंगे।

मनोरमा-आपको एक-सौ बीस रुपए चाहिए न?

चक्रधर-इस वक्त कोई जरूरत नहीं है।

मनोरमा-जरूरत न होती तो आप मांगते ही नहीं। दादाजी में बड़ा ऐब है कि किसी के रुपए देते हुए उन्हें मोह लगता है। देखिए, मैं जाकर--

चक्रधर ने रोककर कहा-नहीं-नहीं, कोई जरूरत नहीं।

मनोरमा ने न माना। तुरंत घर में गई और एक क्षण में पूरे रुपए लाकर मेज पर रख दिए, मानो कहीं गिने-गिनाए रखे हुए थे।

चक्रधर-तुमने ठाकुर साहब को व्यर्थ कष्ट दिया।

मनोरमा-मैंने उन्हें कष्ट नहीं दिया ! उनसे तो कहा भी नहीं। दादाजी किसी की जरूरत नहीं समझते। अगर अपने लिए कभी मोटर मंगवानी हो, तो तुरंत मंगवा लेंगे ! पहाड़ों पर जाना हो, तो तुरंत चले जाएंगे, पर जिसके रुपए आते हैं, उसको न देंगे।

वह तो पढ़ने बैठ गई, लेकिन चक्रधर के सामने यह समस्या आ पड़ी कि रुपए लूं या न लूं। उन्होंने निश्चय किया कि न लेना चाहिए। पाठ हो चुकने पर वह उठ खड़े हुए और बिना रुपए लिए बाहर निकल आए। मनोरमा रुपए लिए हुए पीछे-पीछे बरामदे तक आई। बार-बार कहती रही-इसे आप लेते जाइए। जब दादाजी दें तो मुझे लौटा दीजिएगा। पर चक्रधर ने एक न सुनी और जल्दी से बाहर निकल गए।

कायाकल्प : अध्याय चार

चक्रधर डरते हुए घर पहुंचे, तो क्या देखते हैं कि द्वार पर चारपाई पड़ी हुई है; उस पर कालीन बिछी हुई है और एक अधेड़ उम्र के महाशय उस पर बैठे हुए हैं। उनके सामने ही एक कुर्सी पर मुंशी वज्रधर बैठे फर्शी पी रहे थे और नाई खड़ा पंखा झल रहा था। चक्रधर के प्राण सूख गए। अनुमान से ताड़ गए कि यह महाशय वर की खोज में आए हैं। निश्चय करने के लिए घर में जाकर माता से पूछा, तो अनुमान सच्चा निकला। बोले-दादाजी ने इनसे क्या कहा?

निर्मला ने मुस्कराकर कहा-नानी क्यों मरी जाती है, क्या जन्म भर क्वारे ही रहोगे ! जाओ; बाहर बैठो; तुम्हारी तो बड़ी देर से जोहाई हो रही है। आज क्यों इतनी देर लगाई?

चक्रधर-यह हैं कौन?

निर्मला-आगरे के कोई वकील हैं, मुंशी यशोदानंदन !

चक्रधर-मैं तो घूमने जाता हूँ। जब यह यमदूत चला जाएगा, तो आऊंगा।

निर्मला-वाह रे शर्मीले! तेरा-सा लड़का तो देखा ही नहीं। आ, जरा सिर में तेल डाल दूं, बाल न जाने कैसे बिखरे हुए हैं। साफ कपड़े पहनकर जरा देर के लिए बाहर जाकर बैठ।

चक्रधर-घर में भोजन भी है कि ब्याह ही कर देने का जी चाहता है? मैं कहे देता हूँ, विवाह न करूंगा, चाहे इधर की दुनिया उधर हो जाए।

किंतु स्नेहमयी माता कब सुनने वाली थी। उसने उन्हें जबर्दस्ती पकड़कर सिर में तेल डाल दिया, संदूक से एक धुला हुआ कुर्ता निकाल लाई और यों पहनाने लगी, जैसे कोई बच्चे को पहनाए। चक्रधर ने गर्दन फेर ली।

निर्मला-मुझसे शरारत करेगा, तो मार बैलूंगी। इधर ला सिर ! क्या जन्म भर छूटे सांड़ बने रहने का जी चाहता है? क्या मुझसे मरते दम तक चूल्हा-चक्की कराता रहेगा? कुछ दिनों तो बहू का सुख उठा लेने दे।

चक्रधर-तुमसे कौन कहता है भोजन बनाने को? मैं कल से बना दिया करूंगा। मंगला को क्यों छोड़ रखा है?

निर्मला-अब मैं मारनेवाली ही हूँ। आज तक कभी न मारा पर आज पीट दूंगी, नहीं तो जाकर चुपके से बाहर बैठ।

इतने में मुंशीजी ने पुकारा-नन्हें, क्या कर रहे हो? जरा यहां तो आओ।

चक्रधर के रहे-सहे होश भी उड़ गए। बोले-जाता तो हूँ, लेकिन कहे देता हूँ, मैं यह जुआ गले में न डालूंगा। जीवन में मनुष्य का यही काम नहीं है कि विवाह कर ले, बच्चों का बाप बन जाए और कोल्हू के बैल की तरह आंखों पर पट्टी बांधकर गृहस्थी में जुत जाए।

निर्मला-सारी दुनिया जो करती है, वही तुम्हें भी करना पड़ेगा। मनुष्य का जन्म होता ही किसलिए है?

चक्रधर-हजारों काम हैं?

निर्मला-रुपए आज भी नहीं लाए क्या? कैसे आदमी हैं कि चार-चार महीने हो गए, रुपए देने का नाम नहीं लेते ! जाकर अपने दादा को किसी बहाने से भेज दो। कहीं से जाकर रुपए लाएं। कुछ दावत-आवत का सामान करना ही पड़ेगा, नहीं तो कहेंगे कि नाम बड़े और दर्शन थोड़े।

चक्रधर बाहर आए तो मुंशी यशोदानंदन ने खड़े होकर उन्हें छाती से लगा लिया और कुर्सी पर बैठाते हुए बोले-अबकी 'सरस्वती' में आपका लेख देखकर चित्त बहुत प्रसन्न हुआ। इस वैषम्य को मिटाने के लिए आपने जो उपाय बताए हैं, वे बहुत ही विचारपूर्ण हैं।

इस स्नेह-मृदुल आलिंगन और सहृदयपूर्ण आलोचना ने चक्रधर को मोहित कर लिया ! वह कुछ जवाब देना ही चाहते थे कि मुंशी वज्रधर बोल उठे-आज बहुत देर लगा दी? राजा साहब से कुछ बातचीत होने लगी क्या? (यशोदानंदन से) राजा साहब की इनके ऊपर बड़ी कृपा है। बिल्कुल लड़कों की तरह मानते हैं। इनकी बातें सुनने से उनका जी ही नहीं भरता। (नाई से) देख, चिलम बदल दे और जाकर झिनकू से कह दे, सितार-वितार लेकर थोड़ी देर के लिए यहां आ जाए। इधर ही से गणेश के घर जाकर कहना कि तहसीलदार साहब ने एक हांड़ी अच्छा दही मांगा है। देखना, दही खराब हुआ, तो दाम न मिलेंगे।

यह हुक्म देकर मुंशीजी घर में चले गए। उधर की फिक्र थी; पर मेहमान को छोड़कर न जा सकते थे। आज उनका ठाट-बाट देखते ही बनता था। अपना अल्पकालीन तहसीलदारी के समय का अलापाके का चोंगा निकाला था। उसी जमाने की मंदील भी सिर पर थी। आंखों में सुरमा भी था, बालों में तेल भी, मानो उन्हीं का ब्याह होने वाला है। चक्रधर शरमा रहे थे, यह महाशय इनके वेश पर दिल में क्या कहते होंगे। राजा साहब की बात सुनकर तो वह गड़-से गए।

मुंशीजी चले गये, तो यशोदानंदन बोले-अब आपका क्या काम करने का इरादा है?

चक्रधर--अभी तो कुछ निश्चय नहीं किया है। हां, यह इरादा है कि कुछ दिनों आजाद रहकर सेवाकार्य करूं।

यशोदानंदन-इससे बढ़कर क्या हो सकता है ! आप जितने उत्साह से समिति को चला रहे हैं, उसकी तारीफ नहीं की जा सकती। आप जैसे उत्साही युवकों का ऊंचे आदर्शों के साथ सेवाक्षेत्र में आना जाति के लिए सौभाग्य की बात है। आपके इन्हीं गुणों ने मुझे आपकी ओर खींचा है। यह तो आपको मालूम ही होगा कि मैं किस इरादे से आया हूँ। अगर मुझे धन या जायदादकी परवाह होती, तो यहां न आता ! मेरी दृष्टि में चरित्र का जो मूल्य है, वह और किसी वस्तु का नहीं।

चक्रधर ने आंखें नीची करके कहा-लेकिन मैं तो अभी गृहस्थी के बंधन में नहीं पड़ना चाहता। मेरा विचार है कि गृहस्थी में फंसकर कोई तन-मन से सेवाकार्य नहीं कर सकता।

यशोदानंदन-ऐसी बात तो नहीं। इस वक्त भी जितने आदमी सेवा-कार्य कर रहे हैं वे प्रायः सभी बाल-बच्चों वाले आदमी हैं।

चक्रधर-इसी से तो सेवा-कार्य इतना शिथिल है।

यशोदानंदन-मैं समझता हूँ कि यदि स्त्री और पुरुष के विचार और आदर्श एक-से हों, तो पुरुष के कामों में बाधक होने के बदले स्त्री सहायक हो सकती है। मेरी पुत्री का स्वभाव, विचार, सिद्धांत सभी आपसे मिलते हैं और मुझे पूरा विश्वास है कि आप दोनों एक साथ रहकर सुखी होंगे। उसे कपड़े का शौक नहीं, गहने का शौक नहीं, अपनी हैसियत को बढ़ाकर दिखाने की धुन नहीं। आपके साथ वह मोटे-से-मोटे वस्त्र और मोटे-से-मोटे भोजन में संतुष्ट रहेगी। अगर आप इसे अत्युक्ति न समझें, तो मैं यहां तक कह सकता हूँ कि ईश्वर ने आपको उसके लिए बनाया है और उसको आपके लिए। सेवा-कार्य में वह हमेशा आपसे एक कदम आगे रहेगी। अंगरेजी. हिन्दी, उर्दू, संस्कृत पढ़ी हुई है; घर के कामों में इतनी कुशल है कि मैं नहीं समझता, उसके बिना मेरी गृहस्थी कैसे चलेगी? मेरी दो बहुएं हैं, लड़की की मां है; किंतु सब-की-सब फूहड़, किसी में भी वह तमीज नहीं। रही शक्ल-सूरत, वह भी आपको इस तस्वीर से मालूम हो जाएगी।

यह कहकर यशोदानंदन ने कहार से तस्वीर मंगवाई और चक्रधर के सामने रखते हुए बोले-मैं तो इसमें कोई हरज नहीं समझता। लड़के को क्या खबर है कि मुझे बहू कैसी मिलेगी। स्त्री में कितने ही गुण हों, लेकिन यदि उसकी सूरत पुरुष को पसंद न आई, तो वह उसकी नजरों से गिर जाती है और उनका दांपत्य-जीवन दुःखमय हो जाता है। मैं तो यहां तक कहता हूँ कि वर और कन्या में दो-चार बार मुलाकात भी हो जानी चाहिए। कन्या के लिए तो यह अनिवार्य है। पुरुष को स्त्री पसंद न आई, तो वह और शादियां कर सकता है। स्त्री को पुरुष पसंद न आया, तो उसकी सारी उम्र रोते ही गुजरेगी।

चक्रधर के पेट में चूहे दौड़ने लगे कि तस्वीर क्योंकर ध्यान से देखू। वहां देखते शरम आती थी, मेहमान को अकेला छोड़कर घर में न जाते बनता था। कई मिनट तक तो सब्र किए बैठे रहे, लेकिन न रहा गया। पान की तश्तरी और तसवीर लिए हुए घर में चले आए। चाहते थे कि अपने कमरे में जाकर देखें कि निर्मला ने पूछा-क्या बातचीत हुई? कुछ देंगे-दिलाएंगे कि वही इक्यावन रुपए वालों में हैं?

चक्रधर ने उग्र होकर कहा-अगर तुम मेरे सामने देने-दिलाने का नाम लोगी, तो जहर खा लूंगा।

निर्मला-वाह रे ! तो क्या पचीस बरस तक यों ही पाला-पोसा है क्या? मुंह धो रखें! चक्रधर-तो बाजार में खड़ा करके बेच क्यों नहीं लेती? देखो के टके मिलते हैं!

निर्मला-तुम तो अभी से ससुर के पक्ष में मुझसे लड़ने लगे। ब्याह के नाम ही में कुछ जादू है क्या?

इतने में चक्रधर की छोटी बहन मंगला तश्तरी में पान रखकर उनको देने लगी, तो कागज में लिपटी हुई तसवीर उसे नजर आई। उसने तसवीर ले ली और लालटेन के सामने ले जाकर बोली-यह बहू की तसवीर है। देखो, कितनी सुंदर है!

निर्मला ने जाकर तसवीर देखी, तो चकित रह गई। उसकी आंखें आनंद से चमक उठीं। बोली-बेटा, तेरे भाग्य जाग गए। मुझे तो कुछ भी न मिले, तो भी इससे तेरा ब्याह कर दूं। कितनी बड़ी-बड़ी आम की फांक-सी आंखें हैं, मैंने ऐसी सुंदर लड़की नहीं देखी।

चक्रधर ने समीप जाकर उड़ती हुई नजरों से तसवीर देखी और हंसकर बोले-लखावरी ईंट की-सी मोटी तो नाक है, उस पर कहती हो, कितनी सुंदर है!

निर्मला-चल, दिल में तो फूला न समाता होगा, ऊपर से बातें बनाता है।

चक्रधर-इसी मारे मैं यहां न लाता था। लाओ लौटा दूं।

निर्मला-तुझे मेरी ही कसम है, जो भांजी मारे। मुझे तो इस लड़की ने मोह लिया।

चक्रधर पान की तश्तरी और तसवीर लेकर चले; पर बाहर न जाकर अपने कमरे में गए और बड़ी उत्सुकता से चित्र पर आंखें जमा दीं। उन्हें ऐसा मालूम हुआ मानो चित्र ने लज्जा से आंखें नीची कर ली हैं, मानो वह उनसे कुछ कह रही है। उन्होंने तसवीर उठा ली और देखने लगे। आंखों को तृप्ति ही न होती थी। उन्होंने अब तक जितनी सूरतें देखी थीं, उनसे मन में तुलना करने लगे। मनोरमा ही इससे मिलती थी। आंखें दोनों की एक-सी हैं, बाल नेत्रों के समान विहंसते। वर्ण भी एक-से हैं, नख-शिख बिल्कुल मिलता-जुलता ! किंतु यह कितनी लज्जाशील है, वह कितनी चपल ! यह किसी साधु की शांति-कुटीर की भांति लताओं और फूलों से सज्जित है, वह किसी गगनस्पर्शी शैल की भाति विशाल। यह चित्त को मोहित करती है, वह पराभूत करती है। यह किसी पालतू पक्षी की भांति पिंजरे में गाने वाली, वह किसी वन्य-पक्षी की भांति आकाश में उड़ने वाली; यह किसी कवि कल्पना की भांति मधुर और रसमयी, वह किसी दार्शनिक तत्त्व की भांति दुर्बोध और जटिल!

चित्र हाथ में लिए हुए चक्रधर भावी जीवन के मधुर स्वप्न देखने लगे। यह ध्यान ही न रहा कि मुंशी यशोदानंदन बाहर अकेले बैठे हुए हैं। अपना व्रत भूल गए, सेवा सिद्धांत भूल गए, आदर्श भूल गए, भूत और भविष्य भूल वर्तमान में लीन हो गए, केवल एक ही सत्य था और वह इस चित्र की मधुर कल्पना थी।

सहसा तबले की थाप ने उनकी समाधि भंग की। बाहर संगीत-समाज जमा था। मुंशी वज्रधर को गाने-बजाने का शौक था। गला तो रसीला न था; पर ताल-स्वर के ज्ञाता थे। चक्रधर डरे कि दादा इस समय कहीं गाने लगे तो नाहक भद्द हो। जाकर उनके कान में कहा-आप न गाइएगा। संगीत से रुचि थी; पर यह असह्य था कि मेरे पिताजी कत्थकों के सामने बैठकर एक प्रतिष्ठित मेहमान के सामने गाएं।

जब साज मिल गया, तो झिनकू ने कहा-तहसीलदार साहब, पहले आप ही की हो जाए।

चक्रधर का दिल धड़कने लगा; लेकिन मुंशीजी ने उनकी ओर आश्वासन की दृष्टि से देखकर कहा-तुम लोग अपना गाना सुनाओ, मैं क्या गाऊं!

झिनकू-वाह मालिक, वाह ! आपके सामने हम क्या गाएंगे। अच्छे-अच्छे उस्तादों की तो हिम्मत नहीं पड़ती!

वज्रधर अपनी प्रशंसा सुनकर फूल उठते थे। दो-चार बार तो नहीं-नहीं की, फिर ध्रुपद की एक गत छेड़ ही तो दी। पंचम स्वर था, आवाज फटी हुई, सांस उखड़ जाती थी, बार-बार खांसकर गला साफ करते थे, लोच का नाम न था, कभी-कभी बेसुरे भी हो जाते थे; पर साजिंदे वाह-वाह की धूम मचाए हुए थे-क्या कहना है, तहसीलदार साहब ! ओ हो!

मुंशीजी को गाने की धुन सवार होती थी तो जब तक गला न पड़ जाए, चुप न होते थे। गत समाप्त होते ही आपने 'सूर' का पद छेड़ दिया और 'देश' की धुन में गाने लगे।

झिनकू-यह पुराने गले की बहार है। ओ हो !

वज्रधर-नैन नीर छीजत नहिं कबहूँ, निस-दिन बहत पनारे।

झिनकू-जरा बता दीजिएगा, कैसे?

वज्रधर ने दोनों आंखों पर हाथ रखकर बताया।

चक्रधर से अब न सहा गया। नाहक अपनी हंसी करा रहे हैं। इस बेसुरेपन पर मुंशी यशोदानंदन दिल में कितना हंस रहे होंगे ! शर्म के मारे वह वहां खड़े न रह सके। घर में चले गए, लेकिन यशोदानंदन बड़े ध्यान से गाना सुन रहे थे। बीच-बीच में सिर भी हिला देते थे। जब गीत समाप्त हुआ, तो बोले-तहसीलदार साहब आप इस फन के उस्ताद हैं।

वज्रधर-यह आपकी कृपा है, मैं गाना क्या जानूं, इन्हीं लोगों की संगति में कुछ शुद-बुद आ गया।

झिनकू-ऐसा न कहिए मालिक, हम सब तो आप ही के सिखाए-पढ़ाए हैं।

यशोदानंदन-मेरा तो जी चाहता है कि आपका शिष्य हो जाऊं।

वज्रधर-क्या कहूँ, आपने मेरे स्वर्गीय पिताजी का गाना नहीं सुना। बड़ा कमाल था ! कोई उस्ताद उनके सामने मुंह न खोल सकता था। लाखों की जायदादउसी के पीछे लुटा दी। अब तो उसकी चर्चा ही उठती जाती है।

यशोदानंदन-अब की न कहिए। आजकल के युवकों में तो गाने की रुचि ही नहीं रही। न गा सकते हैं, न समझ सकते हैं। उन्हें गाते शर्म आती है।

वज्रधर-रईसों में भी इसका शौक उठता जाता है।

यशोदानंदन-पेट के धंधे से किसी को छुट्टी ही नहीं मिलती, गाए-बजाए कौन ?

झिनक-(यशोदानंदन से) हुजूर को गाने का शौक मालूम होता है!

यशोदानंदन-अजी, जब था तब था ! सितार-वितार की दो-चार गतें बजा लेता था। अब सब छोड़-छाड़ दिया।

झिनकू-कितना ही छोड़-छाड़ दिया है, लेकिन आजकल के नौसिखियों से अच्छे ही होंगे। अबकी आप ही की हो।

यशोदानंदन ने भी दो-चार बार इंकार करने के बाद काफी की धुन में एक ठुमरी छेड़ दी। उनका गला मंजा हुआ था, इस कला में निपुण थे, ऐसा मस्त होकर गाया कि सुनने वाले झूमझूम गए। उनकी सुरीली तान साज में मिल जाती थी। वज्रधर ने तो वाह-वाह का तार बांध दिया। झिनकू के भी छक्के छूट गए। मजा यह कि साथ-ही-साथ सितार भी बजाते थे। आसपास के लोग आकर जमा हो गए। समां बंध गया। चक्रधर ने यह आवाज सुनी तो दिल में कहा, यह महाशय भी उसी टुकरी के लोगों में हैं, उसी रंग में रंगे हुए। अब झेंप जाती रही। बाहर आकर बैठ गए।

वज्रधर ने कहा-भाई साहब, आपने तो कमाल कर दिया। बहुत दिनों से ऐसा गाना न सुना था। कैसी रही, झिनकू?

झिनकू-हुजूर, कुछ न पूछिए, सिर धुन रहा हूँ। मेरी तो अब गाने की हिम्मत ही नहीं पड़ती। आपने हम सबों का रंग फीका कर दिया। पुराने जमाने के रईसों की क्या बातें हैं।

यशोदानंदन-कभी-कभी जी बहला लिया करता हूँ, वह भी लुक-छिपकर। लड़के सुनते हैं तो कानों पर हाथ रख लेते हैं। मैं समझता हूँ, जिसमें यह रस नहीं, वह किसी सोहबत में बैठने लायक नहीं। क्यों बाबू चक्रधर, आपको तो शौक होगा?

वज्रधर-जी छू नहीं गया। बस, अपने लड़कों का हाल समझिए।

चक्रधर ने झेंपते हुए कहा-मैं गाने को बुरा नहीं समझता। हां, इतना जरूर चाहता हूँ कि शरीफ लोग शरीफों में ही गाएं-बजाएं।

यशोदानंदन-गुणियों की जात-पांत नहीं देखी जाती। हमने तो बरसों एक अंधे फकीर की गुलामी की, तब जाके सितार बजाना आया।

आधी रात के करीब गाना बंद हुआ। लोगों ने भोजन किया। जब मुंशी यशोदानंदन बाहर आकर बैठे, तो वज्रधर ने पूछा-आपसे कुछ बातचीत हुई?

यशोदानंदन-जी हां, हुई लेकिन साफ नहीं खुले।

वज्रधर-विवाह के नाम से चिढ़ता है।

यशोदानंदन-अब शायद राजी हो जाएं।

वज्रधर-अजी, सैकड़ों आदमी आ-आकर लौट गए। कई आदमी तो दस-दस हजार तक देने को तैयार थे। एक साहब तो अपनी रियासत ही लिखे देते थे; लेकिन इसने हामी न भरी।

दोनों आदमी सोए। प्रात:काल यशोदानंदन ने चक्रधर से पूछा-क्यों बेटा, एक दिन के लिए मेरे साथ आगरे चलोगे?

चक्रधर-मुझे तो आप इस जंजाल में न फंसाएं तो बहुत अच्छा हो।

यशोदानंदन-तुम्हें जंजाल में नहीं फंसाता बेटा, तुम्हें ऐसा सच्चा मंत्री, ऐसा सच्चा सहायक और ऐसा सच्चा मित्र दे रहा हूँ, जो तुम्हारे उद्देश्यों को पूरा करना अपने जीवन का मुख्य कर्त्तव्य समझेगी। मैं स्वार्थवश ऐसा नहीं कह रहा हूँ। मैं स्वयं आगरे की हिंदू -सभा का मंत्री हूँ और सेवाकार्य का महत्त्व समझता हूँ। अगर मैं समझता कि यह संबंध आपके काम में बाधक होगा, तो कभी आग्रह न करता। मैं चाहता हूँ कि आप एक बार अहिल्या से मिल लें। यों मैं मन से आपको अपना दामाद बना चुका; पर अहिल्या की अनुमति ले लेनी आवश्यक समझता हूँ! आप भी शायद यह पसंद न करेंगे कि मैं इस विषय में स्वेच्छा से काम लूं। आप शरमाएं नहीं, यों समझ लीजिए कि आप मेरे दामाद हो चुके; केवल मेरे साथ सैर करने चल रहे हैं। आपको देखकर आपकी सास, साले-सभी खुश होंगे।

चक्रधर बड़े संकट में पड़े। सिद्धांत-रूप से वह विवाह के विषय में स्त्रियों को पूरी स्वाधीनता देने के पक्ष में थे; पर इस समय आगरे जाते हुए बड़ा संकोच हो रहा था, कहीं उसकी इच्छा न हुई तो? कौन बड़ा सजीला जवान हूँ, बातचीत करने में भी तो चतुर नहीं और उसके सामने तो शायद मेरा मुंह ही न खुले। कहीं उसने मन फीका कर लिया, तो मेरे लिए डूब मरने की जगह न होगी। फिर कपड़े-लत्ते भी नहीं हैं, बस, यह दो कुर्तों की पूंजी है। बहुत हैस-वैस के बाद बोले-मैं आपसे सच कहता हूँ, मैं अपने को ऐसी...ऐसी सुयोग्य स्त्री के योग्य नहीं समझता।

यशोदानंदन-इन हीलों से मैं आपका दामन छोड़ने वाला नहीं हूँ। मैं आपके मनोभावों को समझ रहा हूँ। आप संकोच के कारण ऐसा कह रहे हैं; पर अहिल्या उन चंचल लडकियों में नहीं है, जिसके सामने जाते हुए आपको शरमाना पड़े। आप उसकी सरलता देखकर प्रसन्न होंगे। हां, मैं इतना कर सकता हूँ कि आपकी खातिर से पहले यह कहूँ कि आप परदेशी आदमी हैं, यहां सैर करने आए हैं। स्टेशन पर होटल पूछ रहे थे। मैंने समझा, सीधे आदमी हैं, होटल में लुट जाएंगे, साथ लेता आया। क्यों, कैसी रहेगी?

चक्रधर ने अपनी प्रसन्नता को छिपाकर कहा-क्या यह नहीं हो सकता कि मैं और किसी समय आ जाऊं?

यशोदानंदन-नहीं, मैं इस काम में विलंब नहीं करना चाहता। मैं तो उसी को लाकर दो-चार दिन के लिए यहां ठहरा सकता हूँ; पर शायद आपके घर के लोग यह पसंद न करेंगे।

चक्रधर ने सोचा, अगर मैंने और ज्यादा टालमटोल की, तो कहीं यह महाशय सचमुच ही अहिल्या को यहां न पहुंचा दें। तब तो सारा पर्दा ही खुल जाएगा। घर की दशा देखकर अवश्य ही उनका दिल फिर जाएगा। एक तो जरा-सा घर, कहीं बैठने की जगह नहीं, उस पर न कोई साज, न सामान। विवाह हो जाने के बाद दूसरी बात हो जाती है। लड़की कितने ही बड़े घराने की हो, समझ लेती है, अब तो यही मेरा घर है-अच्छा हो या बुरा। दो-चार दिन अपनी तकदीर को रोकर शांत हो जाती है। बोले-जी हां, यह मुनासिब नहीं मालूम होता। मैं ही चला चलूंगा।

घर में विद्या का प्रचार होने से प्रायः सभी प्राणी कुछ-न-कुछ उदार हो जाते हैं। निर्मला तो खुशी से राजी हो गई। हां, मुंशी वज्रधर को कुछ संकोच हुआ; लेकिन यह समझकर कि यह महाशय लड़के पर लट्टू हो रहे हैं, कोई अच्छी रकम दे मरेंगे, उन्होंने भी कोई आपत्ति न की। अब केवल ठाकुर हरिसेवकसिंह को सूचना देनी थी। चक्रधर यों तो तीसरे पहर पढ़ाने जाया करते थे, पर आज नौ बजते-बजते जा पहुंचे।

ठाकुर साहब इस वक्त अपनी प्राणेश्वरी लौंगी से कुछ बातें कर रहे थे। मनोरमा की माता का देहांत हो चुका था। लौंगी उस वक्त लौंडी थी। उसने इतनी कुशलता से घर संभाला कि ठाकुर साहब उस पर रीझ गए और उसे गृहिणी के रिक्त स्थान पर अभिषिक्त कर दिया। नाम और गुण में इतना प्रत्यक्ष विरोध बहुत कम होगा। लोग कहते हैं, पहले वह इतनी दुबली थी कि फूंक दो तो उड़ जाए; पर गृहिणी का पद पाते ही उसकी प्रतिमा स्थूल रूप धारण करने लगी।

क्षीण जलधारा बरसात की नदी की भांति बढ़ने लगी और इस समय तो स्थूल प्रतिमा की विशाल मूर्ति थी, अचल और अपार। बरसाती नदी का जल गड़हों और गड़हियों में भर गया था। बस, जल-ही-जल दिखाई देता था। न आंखों का पता था, न नाक का, न मुंह का, सभी जगह स्थूलता व्याप्त हो रही थी; पर बाहर की स्थूलता ने अंदर की कोमलता को अक्षुण्ण रखा था। सरल, सदय, हंसमुख, सहनशील स्त्री थी, जिसने सारे घर को वशीभूत कर लिया था। यह उसी की सज्जनता थी, जो नौकरों को वेतन न मिलने पर भी जाने न देती। मनोरमा पर तो वह प्राण देती थी। ईर्ष्या, क्रोध, मत्सर उसे छू भी न गया था। वह उदार न हो पर कृपण न थी। ठाकुर साहब कभी-कभी उस पर भी बिगड़ जाते थे, मारने दौड़ते थे, दो-एक बार मारा भी था; पर उसके माथे पर जरा भी बल न आता। ठाकुर साहब का सिर भी दुखे, तो उसकी जान निकल जाती थी। वह उसकी स्नेहमयी सेवा ही थी, जिसने ऐसे हिंसक जीव को जकड़ रखा था।

इस वक्त दोनों प्राणियों में कोई बहस छिड़ी हुई थी। ठाकुर साहब झल्ला-झल्ला कर बोल रहे थे और लौंगी अपराधियों की भांति सिर झुकाए खड़ी थी कि मनोरमा ने आकर कहा-बाबूजी आए हैं, आपसे कुछ कहना चाहते हैं।

ठाकुर साहब की भौंहें तन गईं। बोले-कहना क्या चाहते होंगे, रुपए मांगने आए होंगे। अच्छा, जाकर कह दो कि आते हैं, बैठिए।

लौंगी-इनके रुपए दे क्यों नहीं देते? बेचारे गरीब आदमी हैं; संकोच के मारे नहीं मांगते, कई महीने तो चढ़ गए?

ठाकुर-यह भी तुम्हारी मूर्खता थी, जिसकी बदौलत मुझे यह तावान देना पड़ता है। कहता था कि कोई ईसाइन रख लो; दो-चार रुपए में काम चल जाएगा। तुमने कहा-नहीं, कोई लायक आदमी होना चाहिए। इनके लायक होने में शक नहीं, पर यह तो बुरा मालूम होता है कि जब देखो, रुपए के लिए सिर पर सवार। अभी कल कह दिया कि घबराइए नहीं, दस-पांच दिनों में मिल जाएंगे तब फिर भूत की तरह सवार हो गए।

लौंगी-कोई ऐसी ही जरूरत आ पड़ी होगी, तभी आए होंगे। एक सौ बीस रुपए हुए न? मैं लाए देती हूँ।

ठाकुर-हां, संदूक खोलकर लाना तो कोई कठिन काम नहीं। अखर तो उसे होती है, जिसे कुआं खोदना पड़ता है।

लौंगी-वही कुआं तो उन्होंने भी खोदा है। तुम्हें चार महीने तक कुछ न मिले, तो क्या हाल होगा, सोचो। मुझे तो बेचारे पर दया आती है।

यह कहकर लौंगी गई और रुपए लाकर ठाकुर साहब से बोली-लो, दे आओ। सुन लेना, शायद कुछ कहना भी चाहते हों।

ठाकुर-लाई भी तो रुपए, नोट न थे क्या?

लौंगी-जैसे नोट वैसे रुपए, इसमें भी कुछ भेद है?

ठाकुर-अब तुमसे क्या कहूँ। अच्छा रख दो, जाता हूँ। पानी तो नहीं बरस रहा है कि भोग रहे होंगे।

ठाकुर साहब ने झुंझलाकर रुपए उठा लिए और बाहर चले, लेकिन रास्ते में क्रोध शांत हो गया। चक्रधर के पास पहुंचे, तो विनय के देवता बने हुए थे।

चक्रधर-आपको कष्ट देने......

ठाकुर-नहीं-नहीं, मुझे कोई कष्ट नहीं हुआ। मैंने आपसे दस-पांच दिन में देने का वादा किया था। मेरे पास रुपए न थे; पर स्त्रियों को तो आप जानते हैं, कितनी चतुर होती हैं। घर में रुपए निकल आए। यह लीजिए।

चक्रधर-मैं इस वक्त एक दूसरे ही काम से आया हूँ। मुझे एक काम से आगरे जाना है। शायद दो-तीन दिन लगेंगे। इसके लिए क्षमा चाहता हूँ।

ठाकुर-हां-हां, शौक से जाइए, मुझसे पूछने की जरूरत न थी।

ठाकुर साहब अंदर चले गए तब मनोरमा ने पूछा-आप आगरे क्या करने जा रहे हैं? चक्रधर-एक जरूरी काम से जाता हूँ।

मनोरमा-कोई बीमारी है क्या? चक्रधर-नहीं, बीमारी कोई नहीं है।

मनोरमा-फिर क्या काम है, बताते क्यों नहीं? जब तक न बतलाइएगा, मैं जाने न दंगी। चक्रधर-लौटकर बता दूंगा।

मनोरमा-आप मुस्करा रहे हैं ! मैं समझ गई, नौकरी की तलाश में जाते हैं।

चक्रधर-नहीं मनोरमा, यह बात नहीं है। मेरी नौकरी करने की इच्छा नहीं है।

मनोरमा-तो क्या आप हमेशा इसी तरह देहातों में घूमा करेंगे?

चक्रधर-विचार तो ऐसा ही है, फिर जैसी ईश्वर की इच्छा!

मनोरमा-आप रुपए कहाँ से लाएंगे? उन कामों के लिए भी तो रुपयों की जरूरत होती होगी?

चक्रधर-भिक्षा मांगूंगा। पुण्य-कार्य भिक्षा पर ही चलते हैं।

मनोरमा-तो आजकल भी आप भिक्षा मांगते होंगे?

चक्रधर-हां, मांगता क्यों नहीं। न मांगू, तो काम कैसे चले!

मनोरमा-मुझसे तो आपने नहीं मांगा।

चक्रधर-तुम्हारे ऊपर तो विश्वास है कि जब मांगूंगा, तब दे दोगी; इसीलिए कोई विशेष काम आ पड़ने पर मांगूंगा।

मनोरमा-और जो उस वक्त मेरे पास न हुए तो?

चक्रधर-तो फिर कभी मांगूगा!

मनोरमा-तो आप मुझसे अभी मांग लीजिए, अभी मेरे पास रुपए हैं, दे दूंगी। फिर आप न जाने किस वक्त मांग बैठे?

यह कहकर मनोरमा अंदर गई और कल वाले एक सौ बीस रुपए लाकर चक्रधर के सामने रख दिए।

चक्रधर-इस वक्त तो मुझे जरूरत नहीं। फिर कभी ले लूंगा।

मनोरमा-जी नहीं, लेते जाइए। मेरे पास खर्च हो जाएंगे। एक दफे भी बाजार गई तो यह गायब हो जाएंगे। इसी डर के मारे मैं बाजार नहीं जाती।

चक्रधर-तुमने ठाकुर साहब से पूछ लिया है?

मनोरमा- उनसे क्यों पूंछू? गुड़िया लाती हूँ, तो उनसे नहीं पूछती; तो फिर इसके लिए उनसे क्यों पूछू?

चक्रधर-तो फिर यों मैं न लूंगा। यह स्थिति और ही है। यह खयाल हो सकता है कि मैंने तुमसे रुपए ठग लिए। तुम्हीं सोचो, हो सकता है या नहीं?

मनोरमा-अच्छा, आप अमानत समझकर अपने पास रखे रहिए।

इतने में सामने से मुश्की घोड़ों की फिटन जाती हुई दिखाई दी। घोड़ों के साजों पर गंगाजमुनी काम किया हुआ था। चार सवार भाले उठाए पीछे दौड़ते चले आते थे।

चक्रधर-कोई रानी मालूम होती हैं।

मनोरमा-जगदीशपुर की महारानी हैं। जब उनके यहां जाती हूँ, मुझे एक गिनी देती हैं। ये आठों गिनियां उन्हीं की दी हुई हैं। न जाने क्यों मुझे बहुत मानती हैं।

चक्रधर-इनकी कोठी दुर्गाकुंड की तरफ है न ! मैं एक दिन इनके यहां भिक्षा मांगने जाऊंगा।

मनोरमा-मैं जगदीशपुर की रानी होती, तो आपको बिना मांगे ही बहुत-सा धन दे देती। चक्रधर ने मुस्कराकर कहा-तब भूल जाती।

मनोरमा-जी नहीं; मैं कभी न भूलती।

चक्रधर-अच्छा, कभी याद दिलाऊंगा। इस वक्त यह रुपए अपने ही पास रहने दो।

मनोरमा-आपको इन्हें लेते संकोच क्यों होता है? रुपए मेरे हैं, महारानी ने मुझे दिए हैं। मैं इन्हें पानी में डाल सकती हूँ, किसी को मुझे रोकने का क्या अधिकार है ! आप न लेंगे तो मैं सच कहती हूँ, आज ही जाकर इन्हें गंगा में फेंक आऊंगी।

चक्रधर ने धर्म-संकट में पड़कर कहा-तुम इतना आग्रह करती हो, तो मैं लिए लेता हूँ लेकिन इसे अमानत समझूगा।

मनोरमा प्रसन्न होकर बोली-हां, अमानत ही समझ लीजिए।

चक्रधर-तो मैं जाता हूँ। किताब देखती रहना।

मनोरमा-आप अगर मुझसे बिना बताए चले जाएंगे, तो मैं कुछ न पढूंगी।

चक्रधर-यह तो बड़ी टेढ़ी शर्त है। बतला ही दूं। अच्छा, हंसना मत। तुम जरा भी मुस्कराई और मैं चला।

मनोरमा-मैं दोनों हाथों से मुंह बंद किए लेती हूँ।

चक्रधर ने झेंपते हुए कहा-मेरे विवाह की कुछ बातचीत है। मेरी तो इच्छा नहीं है, पर एक महाशय जबरदस्ती खींचे लिए चले जाते हैं।

यह कहकर चक्रधर उठ खड़े हुए। मनोरमा भी उनके साथ-साथ आई। जब वह बरामदे से नीचे उतरे, तो प्रणाम किया और तुरंत अपने कमरे में लौट आई। उसकी आंखें डबडबाई हुई थीं और बार-बार रुलाई आती थी; मानो चक्रधर किसी दूर देश जा रहे हों।

कायाकल्प : अध्याय पांच

संध्या समय जब रेलगाड़ी बनारस से चली तो यशोदानंदन ने चक्रधर से पूछा-क्यों भैया, तुम्हारी राय में झूठ बोलना किसी दशा में क्षम्य है या नहीं?

चक्रधर ने विस्मित होकर कहा-मैं तो समझता हूँ, नहीं?

यशोदानंदन-किसी भी दशा में नहीं?

चक्रधर-मैं तो यही कहूँगा कि किसी दशा में भी नहीं, हालांकि कुछ लोग परोपकार के लिए असत्य को क्षम्य समझते हैं।

यशोदानंदन-मैं भी उन्हीं लोगों में हूँ। मेरा ख्याल है कि पूरा वृत्तांत सुनकर शायद आप भी मुझसे सहमत हो जाएं। मैंने अहिल्या के विषय में आपसे झूठी बातें कही हैं। वह वास्तव में मेरी लड़की नहीं है। उसके माता-पिता का हमें कुछ भी पता नहीं।

चक्रधर ने आंखें बड़ी-बड़ी करके कहा-तो फिर आपके यहां कैसे आई?

यशोदानंदन-विचित्र कथा है। पंद्रह वर्ष हुए एक बार सूर्यग्रहण लगा था। मैं उन दिनों कॉलेज में था। हमारी एक सेवा-समिति थी। हम लोग उसी स्नान के अवसर पर यात्रियों की सेवा करने प्रयाग आए थे। तुम तो उस वक्त बहुत छोटे-से रहे होंगे। इतना बड़ा मेला फिर नहीं लगा। वहीं हमें यह लडकी एक नाली में पड़ी रोती मिली। न जाने उसके मां-बाप नदी में डूब गए या भीड में कुचल गए। बहुत खोज की; पर उनका कुछ पता न लगा। विवश होकर उसे साथ लेते गए। चार-पांच वर्ष तक तो उसे अनाथालय में रखा; लेकिन जब कार्यकर्ताओं की फूट के कारण अनाथालय बंद हो गया, तो अपने ही घर में उसका पालन-पोषण करने लगा। जन्म से न हो, पर संस्कारों से वह हमारी लड़की है। उसके कुलीन होने में संदेह नहीं। उसका शील, स्वभाव और चातुर्य देखकर अच्छे-अच्छे घरों की स्त्रियां चकित रह जाती हैं। मैं इधर एक साल से उसके लिए योग्य वर की तलाश में था। ऐसा आदमी चाहता था, जो स्थिति को जानकर उसे सहर्ष स्वीकार करे और पाकर अपने को धन्य समझे। पत्रों में आपके लेख देखकर और आपके सेवा-कार्य की प्रशंसा सुनकर मेरी धारणा हो गई कि आप ही उसके लिए सबसे योग्य हैं। यह निश्चय करके आपके यहां आया। मैंने आपसे सारा वृत्तांत कह दिया। अब आपको अख्तियार है, उसे अपनाएं या त्यागें। हां, इतना कह सकता हूँ कि ऐसा रत्न आप फिर न पाएंगे। मैं यह जानता हूँ कि आपके पिताजी को यह बात असह्य होगी; पर यह भी जानता हूँ कि वीरात्माएं सत्कार्य में विरोध की परवाह नहीं करतीं और अंत में उस पर विजय ही पाती हैं।

चक्रधर गहरे विचार में पड़ गए। एक तरफ अहिल्या का अनुपम सौंदर्य और उज्ज्वल चरित्र था, दूसरी ओर माता-पिता का विरोध और लोकनिंदा का भय; मन में तर्क-संग्राम होने लगा। यशोदानंदन ने उन्हें असमंजस में पड़े देखकर कहा-आप चिंतित देख पड़ते हैं और चिंता की बात भी है; लेकिन जब आप जैसे सुशिक्षित और उदार पुरुष विरोध और भय के कारण कर्त्तव्य और न्याय से मुंह मोड़ें, तो फिर हमारा उद्धार हो चुका ! मैं आपसे सच कहता हूँ, यदि मेरे दो पुत्रों में से एक भी क्वांरा होता और अहिल्या उसे स्वीकार करती तो मैं बड़े हर्ष से उसका विवाह उससे कर देता। आपके सामाजिक विचारों की स्वतंत्रता का परिचय पाकर ही मैंने आपके ऊपर इस बालिका के उद्धार का भार रखा और यदि आपने कर्त्तव्य को न समझा, तो मैं नहीं कह सकता, उस अबला की क्या दशा होगी!

चक्रधर रूप-लावण्य की ओर से तो आंखें बंद कर सकते थे, लेकिन उद्धार के भाव को दबाना उनके लिए असंभव था। वह स्वतंत्रता के उपासक थे और निर्भीकता स्वतंत्रता की पहली सीढ़ी है। उनके मन ने कहा, क्या यह काम ऐसा है कि समाज हंसे? समाज को इसकी प्रशंसा करनी चाहिए। अगर ऐसे काम के लिए कोई मेरा तिरस्कार करे, तो मैं तृण बराबर भी उसकी परवाह न करूंगा। चाहे वह मेरे माता-पिता ही हों। दृढ़ भाव से बोले-मेरी ओर से आप जरा भी शंका न करें। मैं इतना भीरु नहीं हूँ कि ऐसे कामों में समाज-निंदा से डरूं। माता-पिता को प्रसन्न रखना मेरा धर्म है, लेकिन कर्त्तव्य और न्याय की हत्या करके नहीं। कर्त्तव्य के सामने माता-पिता की इच्छा का मूल्य नहीं है।

यशोदानंदन ने चक्रधर को गले लगाते हुए कहा-भैया, तुमसे ऐसी ही आशा थी।

यह कहकर यशोदानंदन ने अपना सितार उठा लिया और बजाने लगे। चक्रधर को कभी सितार की ध्वनि इतनी प्रिय, इतनी मधुर न लगी थी। और न चांदनी कभी इतनी सुहृदय और विहसित। दाएं-बाएं चांदनी छिटकी हुई थी और उसकी मंद छटा में अहिल्या रेलगाड़ी के साथ, अगणित रूप धारण किए दौड़ती चली जाती थी। कभी वह उछलकर आकाश में जा पहुंची थी, कभी नदियों की चंद्रचंचल तरंगों में। यशोदानंदन को न कभी इतना उल्लास हुआ था, न चक्रधर को कभी इतना गर्व। दोनों आनंद-कल्पना में डूबे हुए थे।

गाड़ी आगरे पहुंची तो दिन निकल आया था। सुनहरा नगर हरे-भरे कुंजों के बीच में विश्राम कर रहा था, मानो बालक माता की गोद में सोया हो।

इस नगर को देखते ही चक्रधर को कितनी ही ऐतिहासिक घटनाएं याद आ गईं। सारा नगर किसी उजड़े हुए घर की भांति श्रीहीन हो रहा था।

मुंशी यशोदानंदन अभी कुलियों को पुकार रहे थे कि उनकी निगाह पुलिस के सिपाहियों पर पड़ी। चारों तरफ पहरा था। मुसाफिरों के बिस्तरे, संदूक खोल-खोलकर देखे जाने लगे। एक थानेदार ने यशोदानंदन का भी असबाब देखना शुरू किया।

यशोदानंदन ने आश्चर्य से पूछा-क्यों साहब, आज यह सख्ती क्यों है?

थानेदार-आप लोगों ने जो कांटे बोए हैं, उन्हीं का फल है। शहर में फसाद हो गया है। यशोदानंदन-अभी तीन दिन पहले तो अमन का राज्य था, यह भूत कहाँ से उठ खड़ा हुआ?

इतने में समिति का एक सेवक दौड़ता हुआ आ पहुंचा। यशोदानंदन ने आगे बढ़कर पूछा-क्यों राधा मोहन, यह क्या मामला हो गया? अभी जिस दिन मैं गया हूँ, उस दिन तक तो दंगे का कोई लक्षण न था।

राधा-जिस दिन आप गये, उसी दिन पंजाब से मौलवी दीनमुहम्मद साहब का आगमन हुआ। खुले मैदान में मुसलमानों का एक बड़ा जलसा हुआ। उसमें मौलाना साहब ने न जाने क्या जहर उगला कि तभी से मुसलमानों को कुरबानी की धुन सवार है। इधर हिंदुओं को भी यह जिद है कि चाहे खून की नदी बह जाए, पर कुरबानी न होने पाएगी। दोनों तरफ से तैयारियां हो रही हैं; हम लोग तो समझाकर हार गए।

यशोदानंदन ने पूछा-ख्वाजा महमूद कुछ न बोले?

राधा-वही तो उस जलसे के प्रधान थे।

यशोदानंदन आंखें फाड़कर बोले-ख्वाजा महमूद !

राधा-जी हां, ख्वाजा महमूद ! आप उन्हें फरिश्ता समझें। असल में वे रंगे सियार हैं। हम लोग हमेशा से कहते आए हैं कि इनसे होशियार रहिए, लेकिन आपको न जाने क्यों उन पर इतना विश्वास था।

यशोदानंदन ने आत्मग्लानि से पीड़ित होकर कहा-जिस आदमी को आज पचीस बरसों से देखता आया हूँ, जिसके साथ कॉलेज में पढ़ा, जो इसी समिति का किसी जमाने में मेंबर था उस पर क्योंकर विश्वास न करता? दुनिया कुछ कहे, पर मुझे ख्वाजा महमूद पर कभी शक न होगा।

राधा-आपको अख्तियार है कि उन्हें देवता समझें, मगर अभी-अभी आप देखेंगे कि वे कितनी मुस्तैदी से कुरबानी की तैयारी कर रहे हैं। उन्होंने देहातों से लठैत बुलाए हैं, उन्हीं ने गोएं मोल ली हैं और उन्हीं के द्वार पर कुरबानी होने जा रही है।

यशोदानंदन-ख्वाजा महमूद के द्वार पर कुर्बानी होगी? उनके द्वार पर इसके पहले या तो मेरी कुर्बानी हो जाएगी या ख्वाजा महमूद की। तांगेवाले को बुलाओ।

राधा-बहुत अच्छा हो, यदि आप इस समय यहीं ठहर जाएं।

यशोदानंदन-वाह-वाह ! शहर में आग लगी हुई है और तुम कहते हो, मैं यहीं रह जाऊं। जो औरों पर बीतेगी, वही मुझ पर भी बीतेगी, इससे क्या भागना। तुम लोगों ने बड़ी भूल की कि मुझे पहले से सूचना न दी।

राधा-कल दोपहर तक तो हमें खुद ही न मालूम था कि क्या गुल खिल रहा है। ख्वाजा साहब के पास गए तो उन्होंने विश्वास दिलाया कि कुर्बानी न होने पाएगी, आप लोग इत्मीनान रखें। हमसे तो यह कहा, उधर शाम ही को लठैत आ पहुंचे और मुसलमानों का डेपुटेशन सिटी मैजिस्ट्रेट के पास कुर्बानी की सूचना देने पहुँच गया।

यशोदानंदन-महमूद भी डेपुटेशन में थे?

राधा-वही तो उसके कर्ता-धर्ता थे, भला वही क्यों न होते? हमारा तो विचार है कि वही इस फिसाद की जड़ हैं।

यशोदानंदन-अगर महमूद में सचमुच यह कायापलट हो गया है, तो मैं यही कहूँगा कि धर्म से ज्यादा द्वेष पैदा करने वाली वस्तु संसार में नहीं; और कोई ऐसी शक्ति नहीं है, जो महमूद में द्वेष के भाव पैदा कर सके। चलो पहले उन्हीं से बातें होंगी। मेरे द्वार पर तो इस वक्त बड़ा जमाव होगा।

राधा-जी हां, इधर आपके द्वार पर जमाव है, उधर ख्वाजा साहब के ! बीच में थोड़ी-सी जगह खाली है।

तीनों आदमी तांगे पर बैठकर चले। सड़कों पर पुलिस के जवान चक्कर लगा रहे थे। मुसाफिरों की छड़ियां छीन ली जाती थीं। दो-चार आदमी भी साथ न खड़े होने पाते थे। सिपाही तुरंत ललकारता था। दुकानें सब बंद थीं, कुंजड़े भी साग बेचते न नजर आते थे। हां, गलियों में लोग जमा होकर बातें कर रहे थे।

कुछ दूर तक तीनों आदमी मौन धारण किए बैठे रहे। चक्रधर शंकित होकर इधर-उधर ताक रहे थे। जरा भी घोड़ा रुक जाता तो उनका दिल धड़कने लगता कि किसी ने तांगा रोक तो नहीं लिया; लेकिन यशोदानंदन के मुख पर ग्लानि का गहरा चिह्न दिखाई दे रहा था। उनके मुहल्ले में आज तक कभी कुरबानी न हुई थी। हिंदू और मुसलमान का भेद ही न मालूम होता था। उन्हें आश्चर्य होता था कि और शहरों में कैसे हिंदू -मुसलमानों में झगड़े हो जाते हैं। और तीन ही दिन में यह नौबत आ गई।

सहसा उन्होंने उत्तेजित होकर कहा-राधामोहन देखो, मैं तो यहीं उतर जाता हूँ! जरा महमूद से मिलूंगा। तुम इन बाबू साहब को लेकर घर जाओ। आप मेरे एक मित्र के लड़के हैं, यहां सैर करने आए हैं। बैठक में आपकी चारपाई डलवा देना और देखो, अगर दैव संयोग से मैं लौटकर न आ सकूं, तो घबराने की बात नहीं। जब लोग खून-खच्चर करने पर तुले हुए हैं तो सब कुछ संभव है और मैं उन आदमियों में नहीं हूँ कि गौ की हत्या होता देखूं और शांत खड़ा रहूँ। अगर मैं लौटकर न आ सकूं, तो तुम घर में कहला देना कि अहिल्या का पाणिग्रहण आप ही के साथ कर दिया जाए।

यह कहकर उन्होंने कोचवान से तांगा रोकने को कहा।

चक्रधर-मैं भी आपके साथ ही रहना चाहता हूँ।

यशोदानंदन-नहीं भैया, तुम मेरे मेहमान हो, तुम्हें मेरे साथ रहने की जरूरत नहीं; तुम चलो, मैं भी अभी आता हूँ।

चक्रधर-क्या आप समझते हैं कि गौ-रक्षा आप ही का धर्म है, मेरा धर्म नहीं?

यशोदानंदन-नहीं, यह बात नहीं है, बेटा ! तुम मेरे मेहमान हो और तुम्हारी रक्षा करना मेरा धर्म है।

इस वक्त तांगा धीरे-धीरे ख्वाजा महमूद के मकान के सामने आ पहुंचा। हजारों आदमियों का जमाव था। यद्यपि किसी के हाथ में लाठी या डंडे न थे; पर उनके मुख जिहाद के जोश से तमतमाए हुए थे। यशोदानंदन को देखते ही कई आदमी उनकी तरफ लपके; लेकिन जब उन्होंने जोर से कहा-मैं तुमसे लड़ने नहीं आया हूँ। कहाँ हैं ख्वाजा महमूद? मुमकिन हो तो जरा उन्हें बुला लो, तो लोग हट गए।

जरा देर में एक लंबा-सा आदमी गाढ़े की अचकन पहने, आकर खड़ा हो गया। भरा हुआ बदन था, लम्बी दाढ़ी, जिसके कुछ बाल खिचड़ी हो गए थे और गोरा रंग। मुख से शिष्टता झलक रही थी। यही ख्वाजा महमूद थे।

यशोदानंदन ने त्यौरियां बदलकर कहा-क्यों ख्वाजा साहब, आपको याद है, इस मुहल्ल में कभी कुरबानी हुई है?

महमूद-जी नहीं, जहां तक मेरा ख्याल है, यहां कभी कुर्बानी नहीं हुई।

यशोदानंदन-तो फिर आज आप यहां कुर्बानी करने की नयी रस्म क्यों निकाल रहे हैं?

महमूद इसलिए कि कुरबानी करना हमारा हक है। अब तक हम आपके जजबात का लिहाज करते थे, अपने माने हुए हक भूल गए थे। लेकिन जब आप लोग अपने हकों के सामने हमारे जजबात की परवाह नहीं करते, तो कोई वजह नहीं कि हम अपने हकों के सामने आपके जजबात की परवाह करें। मुसलमानों की शुद्धि करने का आपको पूरा हक हासिल है, लेकिन कम से कम पांच सौ बरसों में आपके यहां शुद्धि की कोई मिसाल नहीं मिलती। आप लोगों ने एक मुर्दा हक को जिंदा किया है। इसलिए न, कि मुसलमानों की ताकत और असर कम हो जाए? जब आप हमें जेर करने के लिए नए-नए हथियार निकाल रहे हैं, तो हमारे लिए इसके सिवा और क्या चारा है कि अपने हथियारों को दूनी ताकत से चलाएं।

यशोदा-इसके यह मानी हैं कि कल आप हमारे द्वारों पर, हमारे मंदिरों के सामने कुरबानी करें और हम चुपचाप देखा करें! आप यहां हरगिज कुरबानी नहीं कर सकते और करेंगे तो इसकी जिम्मेदारी आपके सिर होगी।

यह कहकर यशोदानंदन फिर तांगे पर बैठे। दस-पांच आदमियों ने तांगे को रोकना चाहा; पर कोचवान ने घोड़ा तेज कर दिया। दम के दम तांगा उड़ता हुआ यशोदानंदन के द्वार पर पहुँच गया, जहां हजारों आदमी खड़े थे। इन्हें देखते ही चारों तरफ हलचल मच गई। लोगों ने चारों तरफ से आकर उन्हें घेर लिया। अभी तक फौज का अफसर न था, फौज दुविधा में पड़ी हुई थी, समझ में न आता था कि क्या करें। सेनापति के आते ही सिपाहियों में जान-सी पड़ गई, जैसे सुख धान में पानी पड़ जाए।

यशोदानंदन तांगे से उतर पड़े और ललकारकर बोले-क्यों भाइयों, क्या विचार है? यह कुरबानी होगी? आप जानते हैं, इस मुहल्ले में आज तक कभी कुरबानी नहीं हुई। अगर आज हम यहां कुरबानी करने देंगे, तो कौन कह सकता है कि कल को हमारे मंदिर के सामने गौहत्या न होगी।

कई आवाजें एक साथ आईं-हम मर मिटेंगे, पर यहां कुरबानी न होने देंगे।

यशोदानंदन-खूब सोच लो, क्या करने जा रहे हो। वह लोग सब तरह से लैस हैं। ऐसा न हो कि तुम लाठियों के पहले ही वार में वहां से भाग खड़े हो?

कई आवाजें एक साथ आईं-भाइयों, सुन लो; अगर कोई पीछे कदम हटाएगा, तो उसे गौहत्या का पाप लगेगा।

एक सिक्ख जवान-अजी देखिए, छक्के छुड़ा देंगे।

एक पंजाबी हिंदू -एक-एक की गर्दन तोड़ के रख दूंगा।

आदमियों को यों उत्तेजित करके यशोदानंदन आगे बढ़े और जनता 'महावीर' और 'श्रीरामचन्द्र' की जयध्वनि से वायुमंडल को कंपायमान करती हुई उनके पीछे चली। उधर मुसलमानों ने भी डंडे संभाले। करीब था कि दोनों दलों में मुठभेड़ हो जाए कि एकाएक चक्रधर आगे बढ़कर यशोदानंदन के सामने खड़े हो गए और विनीत किंतु दृढ़ भाव से बोले-आप अगर उधर जाते हैं, तो मेरी छाती पर पांव रखकर जाइए। मेरे देखते यह अनर्थ न होने पाएगा।

यशोदानंदन ने चिढ़कर कहा-हट जाओ। अगर एक क्षण की भी देर हुई, तो फिर पछताने के सिवा और कुछ हाथ न आएगा।

चक्रधर-आप लोग वहां जाकर करेंगे क्या?

यशोदानंदन-हम इन जालिमों से गौ को छीन लेंगे।

चक्रधर-अहिंसा का नियम गौओं ही के लिए नहीं, मनुष्यों के लिए भी तो है।

यशोदानंदन-कैसी बातें करते हो, जी! क्या यहां खड़े होकर अपनी आंखों से गौ की हत्या होते देखें।

चक्रधर-अगर आप एक बार दिल थामकर देख लेंगे, तो यकीन है कि फिर आपको कभी यह दृश्य न देखना पड़े।

यशोदानंदन-हम इतने उदार नहीं हैं।

चक्रधर-ऐसे अवसर पर भी?

यशोदानंदन हम महान् से महान उद्देश्य के लिए भी यह मूल्य नहीं दे सकते। इन दामों स्वर्ग भी मंहगा है।

चक्रधर-मित्रों, जरा विचार से काम लो। कई आवाजें-विचार से काम लेना कायरों का काम है।

एक सिक्ख जवान-जब डंडे से काम लेने का मौका आए, तो विचार को बंद करके रख देना चाहिए।

चक्रधर-तो फिर जाइए, लेकिन उस गौ को बचाने के लिए आपको अपने एक भाई का खून करना पड़ेगा।

सहसा एक पत्थर किसी की तरफ से आकर चक्रधर के सिर में लगा। खून की धारा बह निकली; चक्रधर अपनी जगह से हिले नहीं। सिर थामकर बोले-अगर मेरे रक्त से आपकी क्रोधाग्नि शांत होती हो, तो यह मेरे लिए सौभाग्य की बात है। अगर मेरा खून और कई जानों की रक्षा कर सके, तो इससे उत्तम कौन मृत्यु होगी?

फिर दूसरा पत्थर आया; पर अबकी चक्रधर को चोट न लगी। पत्थर कानों के पास से निकल गया।

यशोदानंदन गरजकर बोले-यह कौन पत्थर फेंक रहा है? सामने क्यों नहीं आता? क्या वह समझता है कि उसी ने गौ-रक्षा का ठेका ले लिया है? अगर वह बड़ा वीर है, तो क्यों नहीं चंद कदम आगे आकर अपनी वीरता दिखाता? पीछे खड़ा पत्थर क्यों फेंकता है !

एक आवाज-धर्मद्रोहियों को मारना अधर्म नहीं है।

यशोदानंदन-जिसे तुम धर्म का द्रोही समझते हो, वह तुमसे कहीं सच्चा हिंदू है !

एक आवाज-सच्चे हिंदू वही तो होते हैं,जो मौके पर बगलें झांकने लगें और शहर छोड़कर दो-चार दिन के लिए खिसक जाएं।

कई आदमी-यह कौन मंत्री पर आक्षेप कर रहा है? कोई उसकी जबान पकड़ कर क्यों नहीं खींच लेता?

यशोदानंदन-आप लोग सुन रहे हैं, मुझ पर कैसे-कैसे दोष लगाए जा रहे हैं। मैं सच्चा हिंदू नहीं; मैं मौका पड़ने पर बगलें झांकता हूँ और जान बचाने के लिए शहर से भाग जाता हूँ। ऐसा आदमी आपका मंत्री बनने के योग्य नहीं है। आप उस आदमी को अपना मंत्री बनाएं, जिसे आप सच्चा हिंदू समझते हों। मैं धर्म से पहले अपने आत्मगौरव की रक्षा करना चाहता हूँ।

कई आदमी-महाशय, आपको ऐसे मुंहफट आदमियों की बात का खयाल न करना चाहिए।

यशोदानंदन-यह मेरी पच्चीस बरसों की सेवा का उपहार है; जिस सेवा का फल अपमान हो, उसे दूर ही से मेरा सलाम है।

यह कहते हुए मुंशी यशोदानंदन घर की तरफ चले। कई आदमियों ने उन्हें रोकना चाहा, कई आदमी उनके पैरों पड़ने लगे; लेकिन उन्होंने एक न मानी। वह तेजस्वी आदमी थे। अपनी संस्था पर स्वेच्छाचारी राजाओं की भांति शासन करना चाहते थे। आलोचनाओं को सहन करने की उनमें सामर्थ्य ही न थी।

उनके जाते ही यहां आपस में तू-तू, मैं-मैं' होने लगी। एक दूसरे पर आक्षेप करने लगे। गालियों की नौबत आई, यहां तक कि दो-चार आदमियों से हाथापाई भी हो गई।

चक्रधर ने जब देखा कि इधर से अब कोई शंका नहीं है, तो वह लपककर मुसलमानों के सामने आ पहुंचे और उच्च स्वर में बोले-हजरात, मैं कुछ अर्ज करने की इजाजत चाहता हूँ।

एक आदमी-सुनो-सुनो, यही तो अभी हिंदुओं के सामने खड़ा था।

दूसरा आदमी-दुश्मनों के कदम उखड़ गए। सब भागे जा रहे हैं।

तीसरा-इसी ने शायद उन्हें समझा-बुझाकर हटा दिया है। देखो क्या कहता है?

चक्रधर-अगर इस गाय की कुरबानी करना आप अपना मजहबी फर्ज समझते हों, तो शौक से कीजिए। मैं आपके मजहबी मामले में दखल नहीं दे रहा हूँ। लेकिन क्या यह लाजिमी है कि इसी जगह कुरबानी की जाए?

एक आदमी-हमारी खुशी है; जहां चाहेंगे, कुरबानी करेंगे, तुमसे मतलब?

चक्रधर-बेशक, मुझे बोलने का कोई हक नहीं है, लेकिन इस्लाम की जो इज्जत मेरे दिल में है, वह मुझे बोलने के लिए मजबूर कर रही है। इस्लाम ने कभी दूसरे मजहब वालों की दिलजारी नहीं की। उसने हमेशा दूसरों के जजबात का एहतराम किया है। बगदाद और रूस, स्पेन और मिस्र की तारीखें उस मजहबी आजादी की शाहिद हैं, जो इस्लाम ने उन्हें अदा की थीं। अगर आप हिंदू जजबात का लिहाज करके किसी दूसरी जगह कुरबानी करें, तो यकीनन इस्लाम के वकार में फर्क न आएगा।

एक मौलवी ने जोर देकर कहा-ऐसी मीठी-मीठी बातें हमने बहुत सुनी हैं। कुरबानी यहीं होगी। जब दूसरे हमारे ऊपर जब्र करते हैं, तो हम उनके जजबात का क्यों लिहाज करें?

ख्वाजा महमूद बड़े गौर से चक्रधर की बातें सुन रहे थे। मौलवी साहब की उद्दण्डता पर चिढ़कर बोले-क्या शरीयत का हुक्म है कि कुरबानी यहीं हो? किसी दूसरी जगह नहीं की जा सकती?

मौलवी साहब ने ख्वाजा महमूद की तरफ अविश्वास की दृष्टि से देखकर कहा-मजहब के मामले में उलमा के सिवा और किसी को दखल देने का मजाज नहीं है।

ख्वाजा-बुरा न मानिएगा, मौलवी साहब ! अगर दस सिपाही यहां आकर खड़े हो जाएं तो बगलें झांकने लगिएगा!

मौलवी-किसकी मजाल है कि हमारे दीन-ओ-उमूर में मजाहमत करे?

ख्वाजा-आपको तो अपने हलवे-मांडे से काम है, जिम्मेदारी तो हमारे ऊपर आएगी, दूकानें तो हमारी लुटेंगी, आपके पास फटे बोरिए और फूटे बंधने के सिवा और क्या रखा है? जब वे लोग मसलहत देखकर किनारा कर गए तो हमें भी अपनी जिद से बाज आ जाना चाहिए। क्या आप समझते हैं कि वे लोग आपसे डरकर भागे? हमारे से दुगने आदमी अगर चढ़ आते, तो संभालना मुश्किल हो जाता।

मौलवी-जनाब, जिहाद करना कोई खालाजी का घर नहीं। आप दुनिया के बंदे हैं, दीन, हकीकत क्या समझें?

ख्वाजा-बजा है; आपकी शहादत तो कहीं नहीं गई है। जिल्लत तो हमारी है।

मौलवी-भाइयों, आप लोग ख्वाजा साहब की ज्यादती देख रहे हैं। आप ही फैसला कीजिए कि दीन मामलात में उलमा का फैसला वाजिब है या उमरा का?

एक मोटे-ताजे दढ़ियल आदमी ने कहा-आप बिस्मिल्लाह कीजिए। उमरा को दीन से कोई सरोकार नहीं।

यह सुनते ही एक आदमी बड़ा-सा छुरा लेकर निकल पड़ा और कई आदमी गाय की सींगें पकड़ने लगे। गाय अब तक तो चुपचाप खड़ी थी। छुरा देखते ही वह छटपटाने लगी। चक्रधर यह दृश्य देखकर तिलमिला उठे। निराशा और क्रोध से कांपते हुए बोले-भाइयों, एक गरीब बेकस जानवर को मारना बहादुरी नहीं। खुदा बेकसों के खून से खुश नहीं होता। अगर जवांमर्दी दिखानी है, तो किसी शेर का शिकार करो, किसी चीते को मारो, किसी जंगली सूअर का पीछा करो। उसकी कुरबानी से, मुमकिन है, खुदा खुश हो। जब तक हिंदू सामने खड़े थे, किसी की हिम्मत न पड़ी कि छुरा हाथ में लेता। जब वे चले गए तो आप लोग शेर हो गए?

एक आदमी-तो क्यों चले गए? मैदान में खड़े क्यों न रहे? गौ-रक्षा का जोश दिखाते। दुम दबाकर भाग क्यों खड़े हुए?

चक्रधर-भाग नहीं खड़े हुए और न लड़ने में वे आपसे कम ही हैं। उनकी समझ में यह बात आ गई कि जानवर की हिमायत में इंसान का खून बहाना इंसान को मुनासिब नहीं।

मौलवी-शुक्र है, उन्हें इतनी समझ तो आई!

चक्रधर-लेकिन आप अभी तक उनकी दिलजारी पर कमर बांधे हुए हैं। खैर आपको अख्तियार है, जो चाहें, करें। मगर मैं यकीन के साथ कहता हूँ कि यह दिलजारी एक दिन रंग लाएगी। यह न समझिए कि इस वक्त कोई हिंदू मैदान में नहीं है। हर एक कुरबानी हिंदुस्तान के इक्कीस करोड़ हिंदुओं के दिलों में जख्म कर देती है, और इतनी बड़ी तादाद के दिलों को दुखाना बड़ी से बड़ी कौम के लिए भी एक दिन पछतावे का बाइस हो सकता है? अगर आपकी गिजा है, तो शौक से खाइए। लाखों गौएं रोज कत्ल होती हैं, हिंदू सिर नहीं उठाते। फिर यह क्योंकर मुमकिन है कि वह आपके मजहबी मामले में दखल दें? हिंदुओं से ज्यादा बेतअस्सुब कौम दुनिया में नहीं है, लेकिन जब आप उनकी दिलजारी और महज दिलजारी के लिए कुरबानी करते हैं, तो उनको जरूर सदमा होता है। और उनके दिलों में जो शोला उठता है, उसका आप कयास नहीं कर सकते। अगर आपको यकीन न आए, तो देख लीजिए कि गाय के साथ ही एक हिंदू कितनी खुशी से अपनी जान दे देता है!

यह कहते हुए चक्रधर ने तेजी से लपककर गाय की गर्दन पकड़ ली और बोले-आज आपको इस गौ के साथ एक इंसान की भी कुरबानी करनी पड़ेगी।

सभी आदमी चकित हो-होकर चक्रधर की ओर ताकने लगे। मौलवी साहब ने क्रोध से उन्मत्त होकर कहा-कलाम पाक की कसम, हट जाओ, वरना गजब हो जाएगा।

चक्रधर-हो जाने दीजिए। खुदा की यही मरजी है कि आज गाय के साथ मेरी भी कुरबानी हो।

ख्वाजा महमूद-क्यों भई, तुम्हारा घर कहाँ है?

चक्रधर-परदेशी मुसाफिर हूँ।

ख्वाजा-कसम खुदा की, तुम जैसा दिलेर आदमी नहीं देखा। नाम के लिए तो गाय को माता कहने वाले बहुत हैं, पर ऐसे विरले ही देखे, जो गौ के पीछे जान लड़ा दे। तुम कलमा क्यों नहीं पढ़ लेते?

चक्रधर-मैं एक खुदा का कायल हूँ। वही सारे जहान का खालिक और मालिक है। फिर और किस पर ईमान लाऊं?

ख्वाजा-वल्लाह, तब तो तुम सच्चे मुसलमान हो। हमारे हजरत को अल्लाहताला का रसूल मानते हो?

चक्रधर-बेशक मानता हूँ, उनकी इज्जत करता हूँ और उनकी तौहीद का कायल हूँ। ख्वाजा-हमारे साथ खाने-पीने से परहेज तो नहीं करते?

चक्रधर-जरूर करता हूँ, उसी तरह, जैसे किसी ब्राह्मण के साथ खाने से परहेज करता हूँ, अगर वह पाक-साफ न हो।

ख्वाजा-काश, तुम जैसे समझदार तुम्हारे और भाई भी होते। मगर यहां तो लोग हमें मलिच्छ कहते हैं। यहां तक कि हमें कुत्तों से भी नजिस समझते हैं। उनकी थालियों में कुत्ते खाते हैं; पर मुसलमान उनके गिलास में पानी नहीं पी सकता। वल्लाह, आपसे मिलकर दिल खुश हो गया। अब कुछ-कुछ उम्मीद हो रही है कि शायद दोनों कौमों में इत्तफाक हो जाए। अब आप जाइए। मैं आपको यकीन दिलाता हूँ, कुरबानी न होगी।

चक्रधर-और साहबों से तो पूछिए।

कई आवाजें-होती तो जरूर, लेकिन अब न होगी। आप वाकई दिलेर आदमी हैं।

ख्वाजा-यहां आप कहाँ ठहरे हुए हैं? मैं आपसे मिलूंगा।

चक्रधर-आप क्यों तकलीफ उठाएंगे, मैं खुद हाजिर हूँगा।

ख्वाजा महमूद ने चक्रधर को गले लगाकर रुखसत किया। इधर उसी वक्त गाय की पगहिया खोल दी गई। वह जान लेकर भागी। और लोग भी इस 'नौजवान' की 'हिम्मत' और 'जवांमर्दी' की तारीफ करते हुए चले।

चक्रधर को आते देखकर यशोदानंदन अपने कमरे से निकल आए और उन्हें छाती से लगाते हुए बोले-भैया, आज तुम्हारा धैर्य और साहस देखकर मैं दंग रह गया। तुम्हें देखकर मुझे अपने ऊपर लज्जा आ रही है। तुमने आज हमारी लाज रख ली। अगर यहां कुरबानी हो जाती, तो हम मुंह दिखाने लायक भी न रहते।

एक बूढ़ा-आज तुमने वह काम कर दिखाया, जो सैकड़ों आदमियों के रक्तपात से भी न

होता!

चक्रधर-मैंने कुछ भी नहीं किया। यह उन लोगों की शराफत थी कि उन्होंने अनुनय-विनय सुन ली।

यशोदानंदन-अरे भाई, रोने का भी तो कोई ढंग होता है। अनुनय-विनय हमने भी सैकड़ों ही बार की, लेकिन हर दफे गुत्थी और उलझती ही गई। आइए, आपके घाव की मरहम-पट्टी तो हो जाए!

चक्रधर को कमरे में बैठाकर यशोदानंदन ने घर में जाकर अपनी स्त्री वागीश्वरी से कहा आज मेरे एक दोस्त की दावत करनी होगी। भोजन खूब दिल लगाकर बनाना। अहिल्या, आज तुम्हारी पाक-परीक्षा होगी।

अहिल्या-वह कौन आदमी था दादा, जिसने मुसलमानों के हाथों से गौ की रक्षा की?

यशोदानंदन-वही तो मेरे दोस्त हैं, जिनकी दावत करने को कह रहा हूँ। बेचारे रास्ते में मिल गए। यहां सैर करने आए हैं। मसूरी जाएंगे।

अहिल्या-(वागीश्वरी से) अम्मां, जरा उन्हें अन्दर बुला लेना, तो दर्शन करेंगे। दादा, मैं कोठे पर बैठी सब तमाशा देख रही थी। जब हिंदुओं ने उन पर पत्थर फेंकना शुरू किया, तो ऐसा क्रोध आता था कि वहीं से फटकारूं। बेचारे के सिर से खून निकलने लगा लेकिन वह जरा भी न बोले। जब वह मुसलमानों के सामने आकर खड़े हुए तो मेरा कलेजा धड़कने लगा कि कहीं सबके सब उन पर टूट न पड़ें। बड़े ही साहसी आदमी मालूम होते हैं। सिर में चोट आई है क्या?

यशोदानंदन-हां, खून जम गया है, लेकिन उन्हें उसकी कुछ परवाह ही नहीं। डॉक्टर को बुला रहा हूँ।

वागीश्वरी-खा-पी चुकें, तो जरा देर के लिए यहीं भेज देना। मेरे लड़कों की जोड़ी तो हैं? यशोदानंदन-अच्छी बात है। जरा सफाई कर लेना।

पड़ोस में एक डॉक्टर रहते थे। यशोदानंदन ने उन्हें बुलाकर घाव पर पट्टी बंधवा दी। फिर देर तक बातें होती रहीं। धीरे-धीरे सारा मुहल्ला जमा हो गया। कई श्रद्धालु जनों ने तो चक्रधर के चरण छुए। आखिर भोजन का समय आया। जब लोग खाने बैठे, तो यशोदानंदन ने कहा-भाई, बाबूजी से जो कुछ कहना हो, कह लो; फिर मुझसे शिकायत न करना कि तुम उन्हें नहीं लाए। बाबूजी, इस घर की तथा मुहल्ले की कई स्त्रियों की इच्छा है कि आपके दर्शन करें। आपको कोई आपत्ति तो नहीं है?

वागीश्वरी-हां बेटा, जरा देर के लिए चले आना; नहीं तो अपने घर जाके कहोगे न कि मैंने जिन लोगों के लिए जान लड़ा दी, उन्होंने बात भी न पूछी।

चक्रधर ने शरमाते हुए कहा-आप लोगों ने मेरी जो खातिर की है, वह कभी नहीं भूल सकता। उसके लिए मैं सदैव आपका एहसान मानता रहूँगा।

ज्यों ही लोग चौके से उठे, अहिल्या ने कमरे की सफाई करनी शुरू की। दीवार की तसवीरें साफ की, फर्श फिर से झाड़कर बिछाया, एक छोटी-सी मेज पर फूलों का गिलास रख दिया, एक कोने में अगरबत्ती जलाकर रख दी। पान बनाकर तश्तरी में रखे। इन कामों से फुर्सत पाकर उसने एकांत में बैठकर फूलों की माला गूंथनी शुरू की। मन में सोचती थी कि न जाने कौन है, स्वभाव कितना सरल है! लजाने में तो औरतों से भी बढ़े हुए हैं। खाना खा चुके, पर सिर न उठाया। देखने में ब्राह्मण मालूम होते हैं। चेहरा देखकर तो कोई नहीं कह सकता कि वह इतने साहसी होंगे।

सहसा वागीश्वरी ने आकर कहा-बेटी, दोनों आदमी आ रहे हैं। साड़ी तो बदल लो।

अहिल्या 'ऊंह' करके रह गई। हां, उसकी छाती में धड़कन होने लगी। एक क्षण में यशोदानंदनजी चक्रधर को लिए हुए कमरे में आए। वागीश्वरी और अहिल्या दोनों खड़ी हो गईं। यशोदानंदन ने चक्रधर को कालीन पर बैठा दिया और खुद बाहर चले गए। वागीश्वरी पंखा झलने लगी; लेकिन अहिल्या मूर्ति की भांति खड़ी रही।

चक्रधर ने उड़ती हुई निगाहों से अहिल्या को देखा। ऐसा महसूस हुआ, मानो कोमल, स्निग्ध एवं सुगंधमय प्रकाश की लहर-सी आंखों में समा गई।

वागीश्वरी ने मिठाई की तश्तरी सामने रखते हुए कहा-कुछ जलपान कर लो भैया, तुमने कुछ खाना भी तो नहीं खाया। तुम जैसे वीरों को सवा सेर से कम न खाना चाहिए। धन्य है वह माता, जिसने ऐसे बालक को जन्म दिया। अहिल्या, जरा गिलास में पानी तो ला। भैया, जब तुम मुसलमानों के सामने अकेले खड़े थे, तो यह ईश्वर से तुम्हारी कुशल मना रही थी। जाने कितनी मनौतियां कर डालीं! कहाँ है वह माला, जो तूने गूंथी थी? अब पहनाती क्यों नहीं?

अहिल्या ने लजाते हुए कांपते हाथों से माला चक्रधर के गले में डाल दी और आहिस्ता से बोली-क्या सिर में ज्यादा चोट आई?

चक्रधर-नहीं तो; ख्वामख्वाह पट्टी बंधवा दी।

वागीश्वरी-जब तुम्हें चोट लगी, तब इसे इतना क्रोध आया था कि उस आदमी को पा जाती, तो मुंह नोच लेती। क्या करते हो बेटा?

चक्रधर-अभी तो कुछ नहीं करता, पड़े-पड़े खाया करता हूँ, मगर जल्दी ही कुछ न कुछ करना ही पड़ेगा। धन से तो मुझे बहुत प्रेम नहीं है और मिल भी जाए तो मुझे उसको भोगने के लिए दूसरों की मदद लेनी पड़े। हां , इतना अवश्य चाहता हूँ कि किसी का आश्रित होकर न रहना पड़े।

वागीश्वरी-कोई सरकारी नौकरी नहीं मिलती क्या?

चक्रधर-नौकरी करने की तो मेरी इच्छा ही नहीं है। मैंने पक्का निश्चय कर लिया है कि नौकरी न करूंगा। न मुझे खाने का शौक है, न पहनने का, न ठाट-बाट का; मेरा निर्वाह बहुत थोड़े में हो सकता है।

वागीश्वरी-और जब विवाह हो जाएगा, तब क्या करोगे?

चक्रधर-उस वक्त सिर पर जो आएगी, देखी जाएगी। अभी से क्यों उसकी चिंता करूं? वागीश्वरी-जलपान तो कर लो, या मिठाई भी नहीं खाते?

चक्रधर मिठाइयां खाने लगे। इतने में महरी ने आकर कहा-बड़ी बहूजी, मेरे लाला को रात से खांसी आ रही है; तिल भर नहीं रुकती, दवाई दे दो।

वागीश्वरी दवा देने चली गई। अहिल्या अकेली रह गई, तो चक्रधर ने उसकी ओर देखकर कहा-आपको मेरे कारण बड़ा कष्ट हुआ। मैं तो इस उपहार के योग्य न था।

अहिल्या-यह उपहार नहीं, भक्त की भेंट है।

चक्रधर-मेरा परम सौभाग्य है कि बैठे-बैठाए इस पद को पहुँच गया।

अहिल्या-आपने आज इस शहर के हिंदू मात्र की लाज रख ली। क्या और पानी दूं?

चक्रधर-तृप्त हो गया। आज मालूम हुआ कि जल में कितना स्वाद है? शायद अमृत में भी यह स्वाद न होगा।

वागीश्वरी ने आकर मुस्कराते हुए कहा-भैया, तुमने तो आधी भी मिठाइयां नहीं खाईं। क्या इसे देखकर भूख-प्यास बंद हो गई? यह मोहनी है, जरा इससे सचेत रहना।

अहिल्या-अम्मां, तुम छोटे-बड़े किसी का लिहाज नहीं करतीं।

वागीश्वरी-अच्छा बताओ, तुमने इनकी रक्षा के लिए कौन-कौन सी मनौतियां की थीं? अहिल्या-मुझे आप दिक करेंगी, तो चली जाऊंगी।

चक्रधर यहां कोई घंटे भर-तक बैठे रहे। वागीश्वरी ने उनके घर का सारा वृत्तांत पूछा-कै भाई हैं, कै बहनें, पिताजी क्या करते हैं, बहनों का विवाह हुआ है या नहीं? चक्रधर को उनके व्यवहार में इतना मातृस्नेह भरा मालूम होता था, मानो उससे उनका परिचय है। चार बजते-बजते ख्वाजा महमूद के आने की खबर पाकर चक्रधर बाहर चले आए। और भी कितने ही आदमी मिलने आए थे। शाम तक उन लोगों से बातें होती रहीं। निश्चय हुआ कि एक पंचायत बनाई जाए और आपस के झगड़े उसी के द्वारा तय हुआ करें। चक्रधर को लोगों ने उस पंचायत का एक मेम्बर बनाया। रात को जब अहिल्या और वागीश्वरी छत पर लेटीं, तो वागीश्वरी ने पूछा-अहिल्या, सो गई क्या?

अहिल्या-नहीं अम्मां, जाग तो रही हूँ।

वागीश्वरी-हां, आज तुझे क्यों नींद आएगी। उनसे ब्याह करेगी?

अहिल्या-अम्मां, मुझे गालियां दोगी, तो मैं नीचे जाकर लेटूंगी, चाहे मच्छर भले ही नोच खाएं।

वागीश्वरी-अरे, तो मैं कौन-सी गाली दे रही हूँ। क्या ब्याह न करेगी? ऐसा अच्छा वर तुझे और कहाँ मिलेगा?

अहिल्या-तुम न मानोगी, लो मैं जाती हूँ।

वागीश्वरी-मैं दिल्लगी नहीं कर रही हूँ, सचमुच पूछती हूँ। तुम्हारी इच्छा हो, तो बातचीत की जाए, अपनी ही बिरादरी के हैं। कौन जाने, राजी हो जाएं।

अहिल्या-सब बातें जानकर भी?

वागीश्वरी-तुम्हारे बाबूजी ने सारी कथा पहले ही सुना दी है।

अहिल्या-जो कहीं न मानें?

वागीश्वरी-टालो मत, दिल की बात साफ-साफ कह दो।

अहिल्या-तुम मेरे दिल का हाल मुझसे अधिक जानती हो, फिर, मुझसे क्यों पूछता हो? वागीश्वरी-वह धनी नहीं हैं, याद रखो।

अहिल्या-मैं धन की लौंडी कभी नहीं रही।

वागीश्वरी-तो अब तुम्हें संशय में क्यों रखू। तुम्हारे बाबूजी तुमसे मिलाने ही के लिए इन्हें काशी से लाए हैं। उनके पास और कुछ हो या न हो, हृदय अवश्य है। और ऐसा हृदय, जो बहुत कम लोगों के हिस्सों में आता है। ऐसा स्वामी पाकर तुम्हारा जीवन सफल हो जाएगा।

अहिल्या ने डबडबाई हुई आंखों से वागीश्वरी को देखा, पर मुंह से कुछ न बोली। कृतज्ञता शब्दों में आकर शिष्टता का रूप धारण कर लेती है। उसका मौलिक रूप वही है, जो आंखों से बाहर निकलते हुए कांपता और लजाता है।

कायाकल्प : अध्याय छ:

मुंशी वज्रधर उन रेल के मुसाफिरों में थे, जो पहले तो गाड़ी में खड़े होने की जगह मांगते हैं, फिर बैठने की फिक्र करने लगते हैं और अंत में सोने की तैयारी कर देते हैं। चक्रधर एक बड़ी रियासत के दीवान की लड़की को पढ़ाएं और वह इस स्वर्ण-संयोग से लाभ न उठाएं! यह क्योंकर हो सकता था। दीवान साहब को सलाम करने आने-जाने लगे। बातें करने में तो निपुण थे ही, दो ही चार मुलाकातों में उनका सिक्का जम गया। इस परिचय ने शीघ्र ही मित्रता का रूप धारण किया। एक दिन दीवान साहब के साथ वह रानी जगदीशपुर के दरबार में पहुंचे और ऐसी लच्छेदार बातें की, अपनी तहसीलदारी की ऐसी जीट उड़ाई कि रानी जी मुग्ध हो गईं ! कोई क्या तहसीलदारी करेगा ! जिस इलाके में मैं था, वहां के आदमी आज तक मुझे याद करते हैं। डींग नहीं मारता, डींग मारने की मेरी आदत नहीं, लेकिन जिस इलाके में मुश्किल से पचास हजार वसूल होता था, उसी इलाके से साल के अंदर मैंने दो लाख वसूल करके दिखा दिया। और लुत्फ यह कि किसी को हिरासत में रखने या कुर्की करने की जरूरत नहीं पड़ी।

ऐसे कार्य-कुशल आदमी की सभी जगह जरूरत रहती है। रानी ने सोचा, इस आदमी को रख लूं, तो इलाके की आमदनी बढ़ जाए। ठाकुर साहब से सलाह की। यहां तो पहले ही से संसारी बात सधी-बधी थीं। ठाकुर साहब ने रंग और भी चोखा कर दिया। उनके दोस्तों में यही ऐसे थे, जिस पर लौगी की असीम कृपादृष्टि थी। दूसरी ही सलामी में मुंशीजी को पच्चीस रुपए मासिक की तहसीलदारी मिल गई। मुंहमांगी मुराद पूरी हुई। सवारी के लिए घोड़ा भी मिल गया। सोने में सुहागा हो गया।

अब मुंशीजी की पांचों अंगुली घी में थीं। जहां महीने में एक बार भी महफिल न जमने पाती थी, वहां अब तीसों दिन जमघट होने लगा। इतने बड़े अहलकार के लिए शराब की क्या कमी; कभी इलाके पर चुपके से दस-बीस बोतलें खिंचवा लेते, कभी शहर के किसी कलवार पर घौंस जमाकर दो-चार बोतलें ऐंठ लेते। बिना हर्र-फिटकरी रंग चोखा हो जाता था। एक कहार भी नौकर रख लिया और ठाकुर साहब के घर से दो-चार कुर्सियां उठवा लाए। उनके हौसले बहुत ऊंचे न थे, केवल एक भले आदमी की भांति जीवन व्यतीत करना चाहते थे। इस नौकरी ने उनके हौसले को बहुत कुछ पूरा कर दिया, लेकिन वह जानते थे कि इस नौकरी का कोई ठिकाना नहीं। रईसों का मिजाज एक-सा नहीं रहता। मान लिया, रानी साहब के साथ निभ ही गई, तो कै दिन ! राजा साहब आते ही पुराने नौकरों को निकाल बाहर करेंगे। जब दीवान ही न रहेंगे, तो मेरी क्या हस्ती? इसलिए उन्होंने पहले ही से नए राजा साहब के यहां आना-जाना शुरू कर दिया था। इसका नाम ठाकुर विशालसिंह था। रानी साहब के चचेरे देवर होते थे। उनके दादा दो भाई थे। बड़े भाई रियासत के मालिक थे। उन्हीं के वंशजों ने दो पीढ़ियों तक राज्य का आनंद भोगा था। अब रानी के निस्संतान होने के कारण विशालसिंह के भाग्य उदय हुए थे। दो-चार गांव थे, जो उनके दादा को गुजारे के लिए मिले थे, उन्हीं को रेहन-बय करके इन लोगों ने पचास वर्ष काट दिए थे यहां तक कि विशालसिंह के पास अब इतनी भी संपत्ति न थी कि गुजर-बसर के लिए काफी होती। उस पर कुल-मर्यादा का पालन करना आवश्यक था। वह महारानी के पट्टीदार थे और इस हैसियत का निर्वाह करने के लिए उन्हें नौकर-चाकर, घोड़ा-गाड़ी सभी कुछ रखना पड़ता था। अभी तक परम्परा की नकल होती चली आती थी। दशहरे के दिन उत्सव जरूर मनाया जाता, जन्माष्टमी के दिन जरूर धूमधाम होती।

प्रात:काल था, माघ की ठंड पड़ रही थी। मुंशीजी ने गर्म पानी से स्नान किया और चौकी से उतरे। मगर खड़ाऊं उलटे रखे हुए थे। कहार खड़ा था कि यह जाएं, तो धोती छांटूं! मुंशीजी ने उलटे खड़ाऊं देखे, तो कहार को डांटा-तुमसे कितनी बार कह चुका कि खड़ाऊं सीधे रखा कर। तुझे याद क्यों नहीं रहता? बता, उलटे खड़ाऊं पर कैसे पैर रखू? आज तो मैं छोड़ देता हूँ, लेकिन कल जो तूने उलटे खड़ाऊं रखे, तो इतना पीटूंगा कि तू भी याद करेगा।

कहार ने कांपते हुए हाथ से खड़ाऊं सीधे कर दिए।

निर्मला ने हलवा बना रखा था। मुंशीजी आकर एक कुर्सी पर बैठ गए और जलता हुआ हलवा मुंह में डाल लिया। बारे किसी तरह उसे निगल गए और आंखों से पानी पोंछते हुए बोले-तुम्हारा कोई काम ठीक नहीं होता। जलता हुआ हलवा सामने रख दिया। आखिर मेरा मुंह जलाने से तुम्हें कुछ मिल तो नहीं गया।

निर्मला-जरा हाथ से देख क्यों न लिया?

वज्रधर-वाह, उलटा चोर कोतवाल को डांटे। मुझी को उल्लू बनाती हो। तुम्हें खुद सोच लेना चाहिए था कि जलता हुआ हलवा खा गए, तो मुंह की क्या दशा होगी। लेकिन तुम्हें क्या परवाह ! लल्लू कहाँ है?

निर्मला-लल्लू मुझसे कहके कहाँ जाते हैं ! पहर रात रहे, न जाने किधर चले गए। जाने कहीं किसानों की सभा होने वाली है। वहीं गए हैं।

वज्रधर-वहां दिन भर भूखों मरेगा। न जाने इसके सिर से यह भूत कब उतरेगा? मुझसे कल दारोगाजी कहते थे, आप लड़के को संभालिए, नहीं तो धोखा खाइएगा। समझ में नहीं आता, क्या करूं! मेरे इलाके के आदमी भी इन सभाओं में अब जाने लगे हैं और मुझे खौफ हो रहा है कि कहीं रानी साहब के कानों में भनक पड़ गई, तो मेरे सिर हो जाएंगी ! मैं यह तो मानता हूँ कि अहलकार लोग गरीबों को बहुत सताते हैं, मगर किया क्या जाए, सताए बगैर काम भी तो नहीं चलता। आखिर उनका गुजर-बसर कैसे हो ! किसानों को समझाना बुरा नहीं, लेकिन आग में कूदना तो बुरी बात है। मेरी तो सुनने की उसने कसम खा ली है, मगर तुम क्यों नहीं समझाती?

निर्मला-जो आग में कूदेगा, आप जलेगा, मुझे क्या करना है। उससे बहस कौन करे! आज सबेरे-सबेरे कहाँ जा रहे हो?

वज्रधर-जरा ठाकुर विशाल सिंह के यहां जाता हूँ।

निर्मला-दोपहर तक लौट आओगे न?

वज्रधर-हां, अगर उन्होंने छोड़ा। मुझे देखते ही टूट पड़ते हैं, तरह-तरह की खातिर करने लगते हैं, दूध लाओ, मेवे लाओ, जान ही नहीं छोड़ते। तीनों औरतों का किस्सा छेड़ देते हैं। बड़े मिलनसार आदमी हैं। मंगला क्या अभी तक सो रही है?

निर्मला-हां, जगा के हार गई, उठती ही नहीं।

वज्रधर-यह तो बुरी बात है। बहू-बेटियों का इतने दिन चढ़े तक सोना क्या मानी?

यह कहकर मुंशीजी ने लोटे का पानी उठाया और जाकर मंगला के ऊपर डाल दिया। निर्मला 'हां-हां' करती रह गई। पानी पड़ते ही मंगला हड़बड़ाकर उठी और यह समझकर कि वर्षा हो रही है, कोठरी में घुस गई। सरदी के मारे कांप रही थी।

निर्मला-सबेरे-सबेरे लेके नहला दिया !

वज्रधर-यह सब तुम्हारे लाड़-प्यार का फल है। खुद दोपहर तक सोती हो, वही आदतें लड़कों को भी सिखाती हो!

निर्मला-स्वभाव सबका अलग-अलग होता है। न कोई किसी के बनाने से बनता है, न बिगाड़ने से बिगड़ता है। मां-बाप को देखकर लड़कों का स्वभाव बदल जाता, तो लल्लू कुछ और ही होता। तुम्हें पिए बिना एक दिन भी चैन नहीं आता, उसे भी कभी पीते देखा है? यह सब कहने की बातें हैं कि लड़के मां-बाप की आदतें सीखते हैं।

वज्रधर ने इसका कुछ जवाब न दिया। कपड़े पहने; बाहर घोड़ा तैयार था, उस पर बैठे और शिवपुर चले।

जब वह ठाकुर साहब के मकान पर पहुंचे, तो आठ बज गए थे ! ठाकुर साहब धूप में बैठे एक पत्र पढ़ रहे थे। बड़ा तेजस्वी मुख था। वह एक काला दुशाला ओढ़े हुए थे, जिस पर समय के अत्याचार के चिह्न न दिखाई दे रहे थे। इस दुशाले ने उनके गोरे रंग को और भी चमका दिया था।

मुंशीजी ने मोढ़े पर बैठते हुए कहा-सब कुशल-आनंद है न?

ठाकुर-हां, ईश्वर की दया है। कहिए, दरबार के क्या समाचार हैं?

यद्यपि ठाकुर साहब रानी के संबंध में कुछ पूछना ओछापन समझते थे, तथापि इस विषय से उन्हें इतना प्रेम था कि बिना पूछे रहा न जाता था।

मुंशीजी ने मुस्कराकर कहा-सब वही पुरानी बातें हैं। डॉक्टरों के पौ बारह हैं। दिन में तीन-तीन डॉक्टर आते हैं।

ठाकुर-क्या शिकायत है?

मुंशी-बुढ़ापे की शिकायत क्या कम है? यह तो असाध्य रोग है।

ठाकुर-उन्हें तो और मनाना चाहिए कि किसी तरह इस मायाजाल से छूट जाएं। दवा-दर्पन की अब क्या जरूरत है। इतने दिन राजसुख भोग चुकीं, पर अब भी जी नहीं भरा!

मुंशी-वह तो अभी अपने को मरने लायक नहीं समझतीं। रोज जगदीशपुर से सोलह कहार पालकी उठाने के लिए बेगार पकड़कर आते हैं। वैद्यजी को लाना और ले जाना उनका काम है।

ठाकुर-अंधेर है और कुछ नहीं। पुराने जमाने में तो खैर सस्ता समय था। जो दो-चार पैसे मजदूरों को मिल जाते थे, वही खाने भर को बहुत थे। आजकल तो एक आदमी का पेट भरने को एक रुपया चाहिए। यह महा अन्याय है। बेचारी प्रजा तबाह हुई जाती है। आप देखेंगे कि मैं इस प्रथा को क्योंकर जड़ से उठा देता हूँ।

मुंशी-आपसे लोगों को बड़ी आशाएं हैं। चमारों पर भी यही आफत है! दस बारह चमार रोज साईसी करने के लिए पकड़ बुलाए जाते हैं। सुना है, इलाके भर के चमारों ने पंचायत की है कि जो साईसी करे, उसका हुक्का-पानी बंद कर दिया जाए । अब या तो चमारों को इलाका छोड़ना पड़ेगा या दीवान साहब को साईस नौकर रखने पड़ेंगे।

ठाकुर-चमारों को इलाके से निकालना दिल्लगी नहीं है। ये लोग समझते हैं कि अभी वही दुनिया है, जो बाबा आदम के जमाने में थी। चारों तरफ देखते हैं कि जमाना पलट गया, यहां तक कि किसान और मजदूर राज्य करने लगे, पर अब भी लोगों की आंखें नहीं खुलतीं। इस देश से न जाने कब यह प्रथा मिटेगी। प्रजा तबाह हुई जाती है। आप देखेंगे, मैं रियासत को क्या कर दिखाता हूँ। कायापलट कर दूंगा। सुनता हूँ, पुलिस आए दिन इलाके में तूफान मचाती रहती है। मैं पुलिस को यहां कदम न रखने दूंगा। जालिमों के हाथों प्रजा तबाह हुई जाती है।

मुंशी-सड़कें इतनी खराब हैं कि इक्के-गाड़ी का गुजर ही नहीं हो सकता।

ठाकुर-सड़कों को दुरुस्त करना मेरा पहला काम होगा। मोटर सर्विस जारी कर दूंगा, जिसमें मुसाफिरों को स्टेशन से जगदीशपुर जाने में सुविधा हो। इलाकों में लाखों बीघे ऊख बोई जाती है और उसका गुड़ या राब बनती है। मेरा इरादा है कि एक शक्कर की मिल खोल दूं और एक अंग्रेज को उसका मैनेजर बना दूं। मैं तो इन लोगों के सुप्रबंध का कायल हूँ। हिंदुस्तानियों पर कभी विश्वास न करें, भूलकर भी नहीं। ये इलाके को तबाह कर देते हैं। शेखी नहीं मारता, इलाके में एक बार रामराज्य स्थापित कर दूंगा, कंचन बरसने लगेगा। आपने किसी महाजन को ठीक किया?

मुंशी-हां, कई आदमियों से मिला था और वे बड़ी खुशी से रुपए देने के लिए तैयार हैं, केवल यही चाहते हैं कि जमानत के तौर पर कोई गांव लिख दिया जाए।

ठाकुर-आपने हामी तो नहीं भर ली?

मुंशी-जी नहीं, हामी नहीं भरी; लेकिन बगैर जमानत के रुपए मिलना मुश्किल मालूम होता है।

ठाकुर-तो जाने दीजिए, कोई ऐसी जरूरत नहीं है, जो टाली न जा सके। अगर कोई मेरे विश्वास पर रुपए दे, तो दे दे, लेकिन रियासत की इंच भर भी जमीन रेहन नहीं कर सकता। मैं फाके करूं; बिक जाऊं, लेकिन रियासत पर आंच न आने दूंगा। हां, इसका वादा करता हूँ कि रियासत मिलने के साल भर बाद कौड़ी-कौड़ी सूद के साथ चुका दूंगा। सच्ची बात तो यह है कि मुझे पहले ही मालूम था कि इस शर्त पर कोई महाजन रुपए देने पर राजी न होगा। ये बला के चीमड़ होते हैं। मुझे तो इनके नाम से चिढ़ है। मेरा वश चले, तो आज इन सबों को तोप पर उड़ा दूं। जितना डर मुझे इनसे लगता है, उतना सांप से भी नहीं लगता। इन्हीं के हाथों आज मेरी यह दुर्गति हुई है, नहीं तो इस गई-बीती दशा में आदमी होता! इन नर-पिशाचों ने सारा रक्त चूस लिया। पिताजी ने केवल पांच हजार लिए थे, जिनके पचास हजार हो गए। और मेरे तीन गांव, जो इस वक्त दो लाख को सस्ते थे, नीलाम हो गए। पिताजी का मुझे यह अंतिम उपदेश था कि कर्ज कभी मत लेना। इसी शोक में उन्होंने देह त्याग दी।

यहां अभी यह बातें हो रही थीं कि जनानखाने में से कलह-शब्द आने लगे। मालूम होता था, कई स्त्रियों में संग्राम छिड़ा हुआ है। ठाकुर साहब ये कर्कश शब्द सुनते ही विकल हो गए, उनके माथे पर बल पड़ गए, मुख तेजहीन हो गया। यही उनके जीवन की सबसे दारुण व्यथा थी। यही कांटा था, जो नित्य उनके हृदय में खटका करता था। उनकी बड़ी स्त्री का नाम वसुमती थी। वह अत्यंत गर्वशीला थी, नाक पर मक्खी भी न बैठने देतीं। उनकी तलवार सदैव म्यान से बाहर रहती थी। वह अपनी सपत्नियों पर उसी भांति शासन करना चाहती थीं, जैसे कोई सास अपनी बहुओं पर करती है। वह यह भूल जाती थीं कि ये उनकी बहुएं नहीं, सपत्नियां हैं। जो उनकी 'हां में हां' मिलाता, उस पर प्राण देती थीं, किंतु उनकी इच्छा के विरुद्ध जरा भी कोई बात हो जाती, तो सिंहनी का-सा विकराल रूप धारण कर लेती थीं।

दूसरी स्त्री का नाम रामप्रिया था। यह रानी जगदीशपुर की सगी बहन थीं। उनके पिता पुराने खिलाड़ी थे, दो दस्ती झाड़ते थे, दोधारी तलवार से लड़ते थे। रामप्रिया दया और विनय की मूर्ति थीं, बड़ी विचारशील और वाक्मधुर। जितना कोमल अंग था, उतना कोमल हृदय भी था। वह घर में इस तरह रहती थीं, मानो थी ही नहीं। उन्हें पुस्तकों से विशेष रुचि थी, हरदम कुछ न कुछ पढ़ा-लिखा करती थीं। सबसे अलग-विलग रहती थीं, न किसी के लेने में; न देने में, न किसी से बैर, न प्रेम।

तीसरी महिला का नाम रोहिणी था। ठाकुर साहब का उन पर विशेष प्रेम था, और वह भी प्राणपण से उनकी सेवा करती थीं। इनमें प्रेम की मात्रा अधिक थी या माया की इसका निर्णय करना कठिन था। उन्हें यह असह्य था कि ठाकुर साहब उनकी सौतों से बातचीत भी करें। वसुमती कर्कशा होने पर भी मलिन हृदय न थीं, जो कुछ मन में होता, वही मुख में। एक बार मुंह से बात निकाल डालने पर फिर उनके हृदय पर उसका कोई चिह्न न रहता था। रोहिणी द्वेष को पालती थीं, जैसे चिड़िया अपने अंडे को सेती है। वह जितना मुंह से कहती थी, उससे कहीं अधिक मन में रखती थीं।

ठाकुर साहब ने अंदर जाकर वसुमती से कहा-तुम घर में रहने दोगी या नहीं? जरा भी शरमलिहाज नहीं कि बाहर कौन बैठा हुआ है। बस, जब देखो, संग्राम मचा रहता है। इस जिंदगी से तंग आ गया। सुनते-सुनते कलेजे में नासूर पड़ गए।

वसुमती-कर्म तो तुमने किए हैं, भोगेगा कौन?

ठाकुर-तो जहर दे दो। जला-जलाकर मारने से क्या फायदा !

वसुमती-क्या वह महारानी लड़ने के लिए कम थीं कि तुम उनका पक्ष लेकर आ दौडे? पूछते क्यों नहीं, क्या हुआ, जो तीरों की बौछार करने लगे?

रोहिणी-आप चाहती हैं कि मैं कान पकड़कर उठाऊं या बैठाऊं, तो यहां कुछ आपके गांव में नहीं बसी हूँ कि कोई आपसे थर-थर कांपा करे!

ठाकुर-आखिर कुछ मालूम भी तो हो, क्या बात हुई?

रोहिणी-वही हुई जो रोज होती है। मैंने हिरिया से कहा, जरा मेरे सिर में तेल डाल दे। मालकिन ने उसे तेल डालते देखा, तो आग हो गईं। तलवार खींचे हुए आ पहुंची और उसका हाथ पकड़कर खींच ले गईं। आज आप निश्चित कर दीजिए कि हिरिया उन्हीं की लौंड़ी है या मेरी भी। यह निश्चय किए बिना आप यहां से न जाने पाएंगे।

वसुमती-वह क्या निश्चय करेंगे, निश्चय मैं करूंगी। हिरिया मेरे साथ मेरे नैहर से आई है और मेरी लौंडी है। किसी दूसरे का उस पर कोई दावा नहीं है।

रोहिणी-सुना आपने? हिरिया पर किसी का दावा नहीं है, वह अकेली उन्हीं की लौंडी है।

ठाकुर-हिरिया इस घर में रहेगी, तो उसे सबका काम करना पड़ेगा।

वसुमती यह सुनकर जल उठीं। नागिन की भांति फुफकारकर बोलीं-इस वक्त तो आपने चहेती रानी की ऐसी डिग्री कर दी, मानो यहां उन्हीं का राज्य है। ऐसे ही न्यायशील होते तो संतान का मुंह देखने को न तरसते!

ठाकुर साहब को ये शब्द बाण-से लगे। कुछ जवाब न दिया। बाहर आकर कई मिनट तक मर्माहत दशा में बैठे रहे। वसुमती इतनी मुंहफट है, यह उन्हें आज मालूम हुआ। सोचा, मैंने तो कोई ऐसी बात नहीं कही थी, जिस पर वह इतना झल्ला जाती। मैंने क्या बुरा कहा कि हिरिया को सबका काम करना पड़ेगा। अगर हिरिया केवल उसी का काम करती है, तो दो महरियां और रखनी पड़ती हैं। क्या वसुमती इतना भी नहीं समझी? ताना ही देना था, तो और कोई लगती हुई बात कह देती। यह तो कठोर से कठोर आघात है, जो वह मुझ पर कर सकती थी। ऐसी स्त्री का तो मुंह न देखना चाहिए।

सहसा उन्हें एक बात सूझी। मुंशीजी से बोले-ज्योतिष की भविष्यवाणी के विषय में आपके क्या विचार हैं? क्या यह हमेशा सच निकलती है?

मुंशीजी असमंजस में पड़े कि इसका क्या जवाब दूं कैसा जवाब रुचिकर होगा-यही उनकी समझ में न आया। अंधेरे में टटोलते हुए बोले-यह तो उसी विद्या के विषय में कहा जा सकता है, जहां अनुमान से काम न लिया जाए। ज्योतिष में बहुत कुछ पूर्व अनुभव और अनुमान ही से काम लिया जाता है।

ठाकुर-बस, ठीक यही मेरा विचार है। अगर ज्योतिष मुझे धनी बतलाए, तो यह आवश्यक नहीं कि मैं धनी हो जाऊं। ज्योतिष के धनी कहने पर भी संभव है कि मैं जिंदगी भर कौड़ियों को मोहताज रहूँ। इसी भांति ज्योतिष का दरिद्र लक्ष्मी का कृपापात्र भी हो सकता है, क्यों?

मुंशीजी को अब भी पांव जमाने को भूमि न मिली। संदिग्ध भाव से बोले-हां, ज्योतिष की धारणा जब मनुष्यों से बदली जा सकती है, तो उसे विधि का लेख क्यों समझा जाए?

ठाकुर साहब ने बड़ी उत्सुकता से पूछा-अनुष्ठानों पर आपका विश्वास है? मुंशीजी को जमीन मिल गई, बोले-अवश्य !

विशालसिंह यह तो जानते थे कि अनुष्ठानों से शंकाओं का निवारण होता है। शनि, राहु आदि का शमन करने के अनुष्ठानों से परिचित थे। बहुत दिनों से मंगल का व्रत भी रखते थे, लेकिन इन अनुष्ठानों पर अब उन्हें विश्वास न था। वह कोई ऐसा अनुष्ठान करना चाहते थे, जो किसी तरह निष्फल ही न हो। बोले-यदि आप यहां के किसी विद्वान् ज्योतिषी से परिचित हों, तो कृपा करके उन्हें मेरे यहां भेज दीजिएगा। मुझे एक विषय में उनसे कुछ पूछना है।

मुंशी-आज ही लीजिए, यहां एक से एक बढ़कर ज्योतिषी पड़े हुए हैं। आप मुझे कोई गैर न समझिए। जब, जिस काम की इच्छा हो, मुझे कहला भेजिए। सिर के बल दौड़ा आऊंगा। बाजार से कोई अच्छी चीज मंगानी हो, मुझे हुक्म दीजिए। किसी वैद्य या हकीम की जरूरत हो, तो मुझे सूचना दीजिए। मैं तो जैसे महारानीजी को समझता हूँ, वैसे ही आपको भी समझता हूँ।

ठाकुर-मुझे आपसे ऐसी ही आशा है। जरा रानी साहब का कुशल-समाचार जल्द-जल्द भेजिएगा। वहां आपके सिवा मेरा और कोई नहीं है। आप ही के ऊपर मेरा भरोसा है। जरा देखिएगा, कोई चीज इधर-उधर न होने पाए, यार लोग नोंच-खसोट न शुरू कर दें।

मुंशी-आप इससे निश्चित रहें। मैं देखभाल करता रहूँगा।

ठाकुर-हो सके, तो जरा यह भी पता लगाइएगा कि रानी ने कहाँ-कहाँ से कितने रुपए कर्ज लिए हैं।

मुंशी-समझ गया, यह तो सहज ही में मालूम हो सकता है।

ठाकुर-जरा इसका भी पता लगाइएगा कि आजकल उनका भोजन कौन बनाता है। पहले तो उनके मैके ही की कोई स्त्री थी। मालूम नहीं, अब भी वही बनाती है या कोई दूसरा रसोइया रखा गया है।

वज्रधर ने ठाकुर साहब के मन का भाव ताड़कर दृढ़ता से कहा-महाराज, क्षमा कीजिएगा, मैं आपका सेवक हूँ, पर रानीजी का भी सेवक हूँ। उनका शत्रु नहीं हूँ। आप और वह दोनों सिंह और सिंहनी की भांति लड़ सकते हैं। मैं गीदड़ की भांति अपने स्वार्थ के लिए बीच में कूदना अपमानजनक समझता हूँ। मैं यहां तक तो सहर्ष आपकी सेवा कर सकता हूँ, जहां तक रानीजी का अहित न हो। मैं तो दोनों ही द्वारों का भिक्षुक हूँ।

ठाकुर साहब दिल में शरमाए, पर इसके साथ मुंशीजी पर उनका विश्वास और भी दृढ़ हो गया। बात बनाते हुए बोले-नहीं, नहीं, मेरा मतलब आपने गलत समझा ! छी:! छी:! मैं इतना नीच नहीं। मैं केवल इसलिए पूछता था कि नया रसोइया कुलीन है या नहीं। अगर वह सुपात्र है, तो वही मेरा भी भोजन बनाता रहेगा।

ठाकुर साहब ने यह बात तो बनाई, पर उन्हें स्वयं ज्ञात हो गया कि बात बनी नहीं। अपनी झेंप मिटाने को वह एक समाचार-पत्र देखने लगे, मानो उन्हें विश्वास हो गया कि मुंशीजी ने उनकी बात सच मान ली।

इतने में हिरिया ने आकर मुंशीजी से कहा-बाबा, मालकिन ने कहा है कि आप जाने लगें तो मुझसे मिल लीजिएगा।

ठाकुर साहब ने गरजकर कहा-ऐसी क्या बात है, जिसको कहने की इतनी जल्दी है। इन बेचारों को देर हो रही है, कुछ निठल्ले थोड़े ही हैं कि बैठे-बैठे औरतों का रोना सुना करें। जा, अंदर बैठ!

यह कहकर ठाकुर साहब उठ खड़े हुए मानो मुंशीजी को विदा कर रहे हैं। वह वसुमती को उनसे बातें करने का अवसर न देना चाहते थे। मुंशीजी को भी अब विवश होकर विदा मांगनी पड़ी।

मुंशीजी यहां से चले तो उनके दिल में एक शंका समाई हुई थी कि ठाकुर साहब कहीं मुझसे नाराज तो नहीं हो गए ! हां, इतना संतोष था कि मैंने कोई बुरा काम नहीं किया। यदि वह सच्ची बात कहने के लिए नाराज हो जाते हैं, तो हो जाएं। मैं क्यों रानी साहब का बुरा चेतूं? बहुत होगा, राजा होने पर मुझे जवाब दे देंगे। इसकी क्या चिंता? इस विचार से मुंशीजी और अकड़कर बैठ गए। वह इतने खुश थे, मानो हवा में उड़े जा रहे हैं। उनकी आत्मा कभी इतनी गौरवोन्मत्त न हुई थी, चिंताओं को कभी उन्होंने इतना तुच्छ न समझा था।

कायाकल्प : अध्याय सात

चक्रधर की कीर्ति उनसे पहले ही बनारस पहुँच चुकी थी। उनके मित्र और अन्य लोग उनसे मिलने के लिए उत्सुक हो रहे थे। बार-बार आते थे और पूछकर लौट जाते थे। जब वह पांचवें दिन घर पहुंचे, तो लोग मिलने और बधाई देने आ पहुंचे। नगर का सभ्य समाज मुक्त कंठ से उनकी तारीफ कर रहा था। यद्यपि चक्रधर गंभीर आदमी थे, पर अपनी कीर्ति की प्रशंसा से उन्हें सच्चा आनंद मिल रहा था। मुसलमानों की संख्या के विषय में किसी को भ्रम होता, तो वह तुरंत उसे ठीक कर देते थे-एक हजार ! अजी, पूरे पांच हजार आदमी थे और सभी की त्यौरियां चढ़ी हुईं। मालूम होता था, मुझे खड़ा निगल जाएंगे। जान पर खेल गया और क्या कहूँ। कुछ लोग ऐसे भी थे, जिन्हें चक्रधर की वह अनुनय-विनय अपमानजनक जान पड़ती थी। उनका ख्याल था कि इससे तो मुसलमान और भी शेर हो गए होंगे। इन लोगों से चक्रधर को घंटों बहस करनी पड़ी, पर वे कायल न हए। मुसलमानों में भी चक्रधर की तारीफ हो रही थी। दो-चार आदमी मिलने भी आए, लेकिन हिंदुओं का जमघट देखकर लौट गए।

और लोग तो तारीफ कर रहे थे, पर मुंशी वज्रधर लड़के की नादानी पर बिगड़ रहे थे-तुम्हीं को क्यों यह भूत सवार हो जाता है? क्या तुम्हारी ही जान सस्ती है। तुम्हीं को अपनी जान भारी पड़ी है? क्या वहां और लोग न थे, फिर तुम क्यों आग में कूदने गए? मान लो, मुसलमानों ने हाथ चला दिया होता, तो क्या कर ते? फिर तो कोई साहब पास न फटकते ! ये हजारों आदमी, जो आज खुशी के मारे फूले नहीं समाते, बात तक न पूछते।

निर्मला तो इतनी बिगड़ी कि चक्रधर से बात न करना चाहती थी।

शाम को चक्रधर मनोरमा के घर गए। वह बगीचे में दौड़-दौड़कर हजारे से पौधों को सींच रही थी। पानी से कपड़े लथपथ हो गए थे। उन्हें देखते ही हजारा फेंककर दौड़ी और पास आकर बोली-आप कब आए, बाबूजी? मैं पत्रों में रोज वहां का समाचार देखती थी और सोचती थी कि आप यहां आएंगे, तो आपकी पूजा करूंगी। आप न होते तो वहां जरूर दंगा हो जाता। आपको बिगड़े हुए मुसलमानों के सामने अकेले जाते हुए जरा भी शंका न हुई?

चक्रधर ने कुर्सी पर बैठते हुए कहा-जरा भी नहीं। मुझे तो यही धुन थी कि इस वक्त कुरबानी न होने दूंगा, इसके बिना दिल में और खयाल न था। अब सोचता हूँ, तो आश्चर्य होता है कि मुझमें इतना बल और साहस कहाँ से आ गया था ! मैं तो यही कहूँगा कि मुसलमानों को लोग नाहक बदनाम करते हैं। फसाद से वे भी उतना ही डरते हैं, जितने हिंदू । शांति की इच्छा भी उनमें हिंदुओं से कम नहीं है। लोगों का यह खयाल कि मुसलमान लोग हिंदुओं पर राज्य करने का स्वप्न देख रहे हैं, बिलकुल गलत है। मुसलमानों को केवल यह शंका हो गई है कि हिंदू उनसे पुराना बैर चुकाना चाहते हैं, और उनकी हस्ती को मिटा देने की फिक्र कर रहे हैं। इसी भय से वे जरा-जरा सी बात पर तिनक उठते हैं और मरने-मारने पर आमादा हो जाते हैं।

मनोरमा-मैंने तो जब पढ़ा कि आप उन बौखलाए हुए आदमियों के सामने नि:शंक भाव से खड़े थे, तो मेरे रोंगटे खड़े हो गए। आगे पढ़ने की हिम्मत न पड़ती थी कि कहीं कोई बुरी खबर न हो। क्षमा कीजिएगा, मैं उस समय वहां होती, तो आपको पकड़कर खींच लाती। आपको अपनी जान का जरा भी मोह नहीं है।

चक्रधर-(हंसकर) जान और है ही किसलिए? पेट पालने ही के लिए तो हम आदमी नहीं बनाए गए हैं! हमारे जीवन का आदर्श कुछ तो ऊंचा होना चाहिए, विशेषकर उन लोगों का, जो सभ्य कहलाते हैं। ठाट से रहना ही सभ्यता नहीं।

मनोरमा--(मुस्कराकर) अच्छा, अगर इस वक्त आपको पांच लाख रुपए मिल जाएं तो आप लें या न लें?

चक्रधर-कह नहीं सकता, मनोरमा, उस वक्त दिल की क्या हालत हो। दान तो न लूंगा, पड़ा हुआ धन भी न लूंगा; लेकिन अगर किसी ऐसी विधि से मिले कि उसे लेने में आत्मा की हत्या न होती हो, तो शायद मैं प्रलोभन को रोक न सकू, पर इतना अवश्य कह सकता हूँ कि उसे भोग-विलास में न उड़ाऊंगा। धन की मैं निंदा नहीं करता, उससे मुझे डर लगता है। दूसरों का आश्रित बनना तो लज्जा की बात है, लेकिन जीवन को इतना सरल रखना चाहता हूँ कि सारी शक्ति है न कमाने और अपनी जरूरतों को पूरा करने ही में न लगानी पड़े।

मनोरमा-धन के बिना परोपकार भी तो नहीं हो सकता।

चक्रधर-परोपकार मैं नहीं करना चाहता, मुझमें इतनी सामर्थ्य ही नहीं। यह तो वे ही लोग कर सकते हैं, जिन पर ईश्वर की कृपादृष्टि हो। मैं परोपकार के लिए अपने जीवन को सरल नहीं बनाना चाहता; बल्कि अपने उपकार के लिए, अपनी आत्मा के सुधार के लिए। मुझे अपने ऊपर इतना भरोसा नहीं है कि धन पाकर भी भोग में न पड़ जाऊं। इसलिए मैं उससे दूर ही रहता हूँ। मनोरमा-अच्छा, अब यह तो बताइए कि आपसे वधूजी ने क्या बातें कीं? (मुस्कराकर), मैं तो जानती हूँ, आपने कोई बातचीत न की होगी, चुपचाप लजाए बैठे रहे होंगे। उसी तरह वह भी आपके सामने आकर खड़ी हो गई होंगी और खड़ी-खड़ी चली गई होंगी।

चक्रधर शरम से सिर झुकाकर बोले-हां, मनोरमा, हुआ तो ऐसा ही। मेरी समझ में न आता था कि क्या करूं। उसने दो बार कुछ बोलने का साहस भी किया।

मनोरमा-आपको देखकर खुश तो हुई होंगी?

चक्रधर- (शरमाकर) किसी के मन का हाल मैं क्या जानूं !

मनोरमा ने अत्यंत सरल भाव से कहा-सब मालूम हो जाता है। आप मुझसे बता नहीं रहे। कम-से-कम उनकी इच्छा तो मालूम हो ही गई होगी। मैं तो समझती हूँ, जो विवाह लड़की की इच्छा के विरुद्ध किया जाता है, वह विवाह ही नहीं है। आपका क्या विचार है?

चक्रधर बड़े असमंजस में पड़े। मनोरमा से ऐसी बातें करते उन्हें संकोच होता था। डरते थे कि कहीं ठाकुर साहब को खबर मिल जाए-सरला मनोरमा ही कह दे तो वह समझेंगे, मैं इसके सामाजिक विचारों में क्रांति पैदा करना चाहता हूँ। अब तक उन्हें ज्ञान न था कि ठाकुर साहब किन विचारों के आदमी हैं। हां, उनके गंगा-स्नान से यह आभास होता था कि वह सनातन धर्म के भक्त हैं। सिर झुकाकर बोले-मनोरमा, हमारे यहां विवाह का आधार प्रेम और इच्छा पर नहीं, धर्म और कर्त्तव्य पर रखा गया है। इच्छा चंचल है, क्षण-क्षण में बदलती रहती है। कर्त्तव्य स्थायी है, उसमें कभी परिवर्तन नहीं होता।

मनोरमा-अगर यह बात है, तो पुराने जमाने में स्वयंवर क्यों होते थे?

चक्रधर स्वयंवर में कन्या की इच्छा ही सर्वप्रधान नहीं होती थी। वह वीरयुग था और वीरता ही मनुष्य का सबसे उज्ज्वल गुण समझा जाता था। लोग आजकल वैवाहिक प्रथा सुधारने का प्रयत्न तो कर रहे हैं।

मनोरमा-जानती हूँ, लेकिन कहीं सुधार हो रहा है? माता-पिता धन देखकर लटटू हो जाते हैं। इच्छा अस्थायी है, मानती हूँ, लेकिन एक बार अनुमति देने के बाद फिर लड़की को पछताने के लिए कोई हीला नहीं रहता।

चक्रधर-अपने मन को समझाने के लिए तर्कों की कभी कमी नहीं रहती, मनोरमा ! कर्त्तव्य ही ऐसा आदर्श है, जो कभी धोखा नहीं दे सकता। ।

मनोरमा-हां, लेकिन आदर्श आदर्श ही रहता है, यथार्थ नहीं हो सकता। (मुस्कराकर) यदि आप ही का विवाह किसी कानी, काली-कलूटी स्त्री से हो जाए तो क्या आपको दुःख न होगा? बोलिए! क्या आप समझते हैं कि लड़की का विवाह किसी खूसट से हो जाता है, तो उसे दुःख नहीं होता? उसका बस चले तो वह पति का मुंह तक न देखे। लेकिन इन बातों को जाने दीजिए। वधूजी बहुत सुंदर हैं?

चक्रधर ने बात टालने के लिए कह--सुंदरता मनोभावों पर निर्भर होती है। माता अपने कुरूप बालक को भी सुंदर समझती है।

मनोरमा-आप तो ऐसी बातें कर रहे हैं, जैसे भागना चाहते हों। क्या माता किसी सुंदर बालक को देखकर यह नहीं सोचती कि मेरा भी बालक ऐसा ही होता !

चक्रधर ने लज्जित होकर कहा-मेरा आशय यह न था। मैं यही कहना चाहता था कि सुंदरता के विषय में सबकी राय एक-सी नहीं हो सकती।

मनोरमा-आप फिर भागने लगे। मैं जब आपसे यह प्रश्न करती हूँ, तो उसका साफ मतलब यह है कि आप उन्हें सुंदर समझते हैं या नहीं?

चक्रधर लज्जा से सिर झुकाकर बोले-ऐसी बुरी तो नहीं है?

मनोरमा-तब तो आप उन्हें खूब प्यार करेंगे?

चक्रधर-प्रेम केवल रूप का भक्त नहीं होता।

सहसा घर के अंदर से किसी के कर्कश शब्द कान में आए, फिर लौंगी का रोना सुनाई दिया। चक्रधर ने पूछा-यह लौंगी रो रही है?

मनोरमा-जी हां! आपकी तो भाई साहब से भेंट नहीं हुई। गुरुसेवकसिंह नाम है। कई महीनों से देहात में जमींदारी का काम करते हैं। हैं तो सगे भाई और पढ़े-लिखे भी खूब हैं, लेकिन भलमनसी छू भी नहीं गई। जब आते हैं, लौंगी अम्मां से झूठमूठ तकरार करते हैं। न जाने उससे इन्हें क्या अदावत है।

इतने में गुरुसेवकसिंह लाल-लाल आंखें किए निकल आए और मनोरमा से बोले बाबूजी कहाँ गए हैं? तुझे मालूम है कब तक आएंगे? मैं आज ही फैसला कर लेना चाहता हूँ।

गुरुसेवकसिंह की उम्र पच्चीस वर्ष से अधिक न थी। लंबे, छरहरे एवं रूपवान् थे; आंखों पर ऐनक थी, मुंह में पान का बीड़ा, देह पर तनजेब का कुर्ता, मांग निकली हुई। बहुत शौकीन आदमी थे।

चक्रधर को बैठे देखकर वह कुछ झिझके और अंदर लौटना चाहते ही थे कि लौंगी रोती हुई आकर चक्रधर के पास खड़ी हो गई और बोली-बाबूजी, इन्हें समझाइए कि मैं अब बुढ़ापे में कहाँ जाऊं? इतनी उम्र तो इस घर में कटी, अब किसके द्वार पर जाऊं? जहां इतने नौकरोंचाकरों के लिए खाने को रोटियां हैं, क्या वहां मेरे लिए एक टुकड़ा भी नहीं? बाबूजी, सच कहती हूँ, मैंने इन्हें अपना दूध पिलाकर पाला है; मालकिन के दूध न होता था, और अब यह मुझे घर से निकालने पर तुले हुए हैं।

गुरुसेवक की इच्छा तो न थी कि चक्रधर से इस कलह के संबंध में कुछ कहें, लेकिन जब लौंगी ने उन्हें पंच बनाने में संकोच न किया, तो वह भी खुल पड़े। बोले-महाशय, इससे यह पूछिए कि अब यह बुढ़िया हुई, इसके मरने के दिन आए, क्यों नहीं किसी तीर्थ-स्थान में जाकर अपने कलुषित जीवन के बचे हुए दिन काटती? मैंने दादाजी से कहा था कि इसे वृन्दावन पहुंचा दीजिए और वह तैयार भी हो गए थे; पर इसने सैकड़ों बहाने किए और वहां न गई। आपसे तो अब कोई पर्दा नहीं है, इसके कारण मैंने यहां रहना छोड़ दिया। इसके साथ इस घर में रहते हुए मुझे लज्जा आती है। इसे इसकी जरा भी परवाह नहीं कि जो लोग सुनते होंगे, तो दिल में क्या कहते होंगे। हमें कहीं मुंह दिखाने की जगह नहीं रही। मनोरमा अब सयानी हुई। उसका विवाह करना है या नहीं? इसके घर में रहते हुए हम किस भले आदमी के द्वार पर जा सकते हैं? मगर इसे इन बातों की बिल्कुल चिंता नहीं। बस, मरते दम तक घर की स्वामिनी बनी रहना चाहती है। दादाजी भी सठिया गए हैं, उन्हें मानापमान की जरा भी फिक्र नहीं। इसने उन पर जाने क्या मोहिनी डाल दी है कि इसके पीछे मुझसे लड़ने पर तैयार रहते हैं। आज मैं निश्चय करके आया हूँ कि इसे घर के बाहर निकालकर ही छोडूंगा। या तो यह किसी दूसरे मकान में रहे या किसी तीर्थस्थान को प्रस्थान करे।

लौंगी-तो बच्चा, सुनो, जब तक मालिक जीता है, लौंगी इसी घर में रहेगी और इसी तरह रहेगी। जब वह न रहेगा, तो जो कुछ सिर पर पड़ेगी, झेल लूंगी। जो तुम चाहो कि लौंगी गली-गली ठोकरें खाए तो यह न होगा ! मैं लौंडी नहीं हूँ कि घर से बाहर जाकर रहूँ। तुम्हें यह कहते लज्जा नहीं आती? चार भांवरें फिर जाने से ही विवाह नहीं हो जाता। मैंने अपने मालिक की जितनी सेवा की है और करने को तैयार हूँ, उतनी कौन ब्याहता करेगी? लाए तो हो बहू, कभी उठकर एक लुटिया पानी भी देती है? खाई है कभी उसकी बनाई हुई कोई चीज? नाम से कोई ब्याहता नहीं होती, सेवा और प्रेम से होती है।

गुरुसेवकसिंह-यह तो मैं जानता हूँ कि तुझे बातें बहुत करनी आती हैं, पर अपने मुंह से जो चाहे बने, मैं तुझे लौंडी ही समझता हूँ।

लौंगी-तुम्हारे समझने से क्या होता है, अभी तो मेरा मालिक जीता है। भगवान उसे अमर करें! जब तक जीती हूँ, इसी तरह रहूँगी, चाहे तुम्हें अच्छा लगे या बुरा। जिसने जवानी में बांह पकड़ी, वह क्या अब छोड़ देगा? भगवान् को कौन मुंह दिखाएगा?

यह कहती हुई लौंगी घर में चली गई। मनोरमा चुपचाप सिर झुकाए दोनों की बातें सुन रही थी। उसे लौंगी से सच्चा प्रेम था। मातृस्नेह का जो कुछ सुख उसे मिला था, लौंगी से ही मिला था। उसकी माता तो उसे गोद में छोड़कर परलोक सिधारी थी। उस एहसान को वह कभी न भूल सकती थी। अब भी लौंगी उस पर प्राण देती थी। इसलिए गुरुसेवकसिंह की यह निर्दयता उसे बहुत बुरी मालूम होती थी।

लौंगी के जाते ही गुरुसेवकसिंह बड़े शांत भाव से एक कुर्सी पर बैठ गए और चक्रधर से बोले-महाशय, आपसे मिलने की इच्छा हो रही थी और इस समय मेरे यहां आने का एक कारण यह भी था। आपने आगरे की समस्या जिस बुद्धिमानी से हल की, उसकी जितनी प्रशंसा की जाए , कम है।

चक्रधर-वह तो मेरा कर्त्तव्य ही था।

गुरुसेवक-इसीलिए कि आपके कर्त्तव्य का आदर्श बहुत ऊंचा है। सौ में निन्यानबे आदमी तो ऐसे अवसर पर लड़ जाना ही अपना कर्त्तव्य समझते हैं। मुश्किल से एक आदमी ऐसा निकलता है, जो धैर्य से काम ले। शांति के लिए आत्मसर्पण करने वाला तो लाख-दो-लाख में एक होता है। आप विलक्षण धैर्य और साहस के मनुष्य हैं। मैंने भी अपने इलाके में कुछ लड़कों का खेल सा कर रखा है। वहां पठानों के कई बड़े-बड़े गांव हैं; उन्हीं से मिले हुए ठाकुरों के भी कई गांव हैं। पहले पठानों और ठाकुरों में इतना मेल था कि शादी, गमी, तीज-त्यौहार में एक-दूसरे के साथ शरीक होते थे, लेकिन अब तो यह हाल है कि कोई त्योहार ऐसा नहीं जाता, जिसमें खून-खच्चर या कम-से-कम मारपीट न हो। आप अगर दो-एक दिन के लिए वहां चलें, तो आपस में बहुत कुछ सफाई हो जाए। मुसलमानों ने अपने पत्रों में आपका जिक्र देखा है और शौक से आपका स्वागत करेंगे। आपके उपदेशों का बहुत कुछ असर पड़ सकता है।

चक्रधर-बातों में असर डालना तो ईश्वर की इच्छा के अधीन है। हां, मैं आपके साथ चलने को तैयार हूँ। मुझसे जो सेवा हो सकेगी, वह उठा न रखूंगा। कब चलने का इरादा है?

गुरुसेवक-चलता तो इसी गाड़ी से; लेकिन मैं इस कुलटा को अबकी निकाल बाहर किए बगैर नहीं जाना चाहता। दादाजी ने रोक-टोक की, तो मनोरमा को लेता जाऊंगा और फिर इस घर में कदम न रखूगा। सोचिए तो, कितनी बड़ी बदनामी है!

चक्रधर बड़े संकट में पड़ गए। विरोध की कटुता को मिटाने के लिए मुस्कराते हुए बोले-मेरे और आपके सामाजिक विचारों में बड़ा अंतर है। मैं बिल्कुल भ्रष्ट हो गया हूँ।

गुरुसेवक-क्या आप लौंगी का यहां रहना अनुचित नहीं समझते?

चक्रधर-जी नहीं, खानदान की बदनामी अवश्य है, लेकिन मैं बदनामी के भय से अन्याय करने की सलाह नहीं दे सकता। क्षमा कीजिएगा, मैं बड़ी निर्भीकता से अपना मत प्रकट कर रहा हूँ।

गुरुसेवक-नहीं-नहीं, मैं बुरा नहीं मान रहा हूँ। (मुस्कराकर) इतना उजड्ड नहीं हूँ कि किसी मित्र की सच्ची राय न सुन सकू। अगर आप मुझे समझा दें कि उसका यहां रहना उचित है, तो मैं आपका बहुत अनुग्रहीत हूँगा। मैं खुद नहीं चाहता कि मेरे हाथों किसी को अकारण कष्ट पहुंचे।

चक्रधर-जब किसी पुरुष का एक स्त्री के साथ पति-पत्नी का संबंध हो जाए, तो पुरुष का धर्म है कि जब तक स्त्री की ओर से कोई विरुद्ध आचरण न देखे, उस संबंध को निबाहे।

गुरुसेवक-चाहे स्त्री कितनी ही नीच जाति की हो?

चक्रधर-हां, चाहे किसी भी जाति की हो!

मनोरमा यह जवाब सुनकर गर्व से फूल उठी। वह आवेश में उठ खड़ी हुई और पुलकित होकर खिड़की के बाहर झांकने लगी। गुरुसेवकसिंह वहां न होते तो वह जरूर कह उठती-आप मेरे मुंह से बात ले गए।

एकाएक फिटन की आवाज आई और ठाकुर साहब उतरकर अंदर गए। गुरुसेवकसिंह भी उनके पीछे-पीछे चले। वह डर रहे थे कि लौंगी अवसर पाकर कहीं उनके कान न भर दे।

जब वह चले गए, तो मनोरमा बोली-आपने मेरे मन की बात कही। बहुत-सी बातों में मेरे विचार आपके विचारों से मिलते हैं।

चक्रधर-उन्हें बुरा तो जरूर लगा होगा!

मनोरमा-वह फिर आपसे बहस करने आते होंगे। अगर आज मौका न मिलेगा तो कल करेंगे। अबकी वह शास्त्रों के प्रमाण पेश करेंगे, देख लीजिएगा।

चक्रधर-खैर, यह तो बताओ कि तुमने इन चार-पांच दिनों में क्या काम किया?

मनोरमा-मैंने तो किताब तक नहीं खोली। बस, समाचार पढ़ती थी और वही बातें सोचती थी। आप नहीं रहते तो मेरा किसी काम में जी नहीं लगता। आप अब कभी बाहर न जाइएगा।

चक्रधर ने मनोरमा की ओर देखा, तो उसकी आंखें सजल हो गई थीं। सोचने लगे। बालिका का हृदय कितना सरल, कितना उदार, कितना कोमल और कितना भावमय है।

कायाकल्प : अध्याय आठ

जगदीशपुर की रानी देवप्रिया का जीवन केवल दो शब्दों में समाप्त हो जाता था-विनोद और विलास। इस वृद्धावस्था में भी उनकी विलास वृत्ति अणुमात्र भी कम न हुई थी। हमारी कर्मेन्द्रियां भले ही जर्जर हो जाएं, चेष्टाएं तो वृद्ध नहीं होती! कहते हैं, बुढ़ापा मरी हुई अभिलाषाओं की समाधि है या पुराने पापों का पश्चात्ताप; पर रानी देवप्रिया का बुढ़ापा अतृप्त तृष्णा थी और अपूर्ण विलासाराधना। वह दान-पुण्य बहुत करती थीं; साल दो-चार यज्ञ भी कर लिया करती थीं, साधु-संतों पर उनकी असीम श्रद्धा थी और धर्मनिष्ठा में उनका ऐहिक स्वार्थ छिपा होता था। परलोक की उन्हें कभी भूलकर भी याद न आती थी। वह भूल गई थीं कि इस जीवन के बाद भी कुछ है। उनके दान और स्नान का मुख्य उद्देश्य था-शारीरिक विकारों से निवृत्ति, विलास में रत रहने की परम योग्यता। यदि वह किसी देवता को प्रसन्न कर सकतीं, तो कदाचित् उससे यही वरदान मांगतीं कि वह कभी बूढ़ी न हों। इस पूजा और व्रत के सिवा वह इस महान् उद्देश्य को पूरा करने के लिए भांति-भांति के रसों और पुष्टिकारक औषधियों का सेवन करती रहती थीं। झुर्रियां मिटाने और रंग को चमकाने के लिए कितने ही प्रकार के पाउडरों, उबटनों और तेलों से काम लिया जाता था। वृद्धावस्था उनके लिए नरक से कम भयंकर न थी। चिंता को तो वह अपने पास न फटकने देती थीं। रियासत उनके भोग-विलास का साधन मात्र थी। प्रजा को क्या कष्ट होता है, उन पर कैसे-कैसे अत्याचार होते हैं, सूखे-झूरे की विपत्ति क्योंकर उनका सर्वनाश कर देती है, इन बातों की ओर कभी उनका ध्यान न जाता था। उन्हें जिस समय जितने धन की जरूरत हो, उतना तुरंत देना मैनेजर का काम था। वह ऋण लेकर दे, चोरी करे या प्रजा का गला काटे, इससे उन्हें कोई प्रयोजन न था।

यों तो रानी साहब को हर एक प्रकार के विनोद से समान प्रेम था। चाहे वह थियेटर हो, या पहलवानों का दंगल या अंगरेजी नाच, पर उनके जीवन की सबसे आनंदमय घड़ियां वे होती थीं, जब वह युवकों और युवतियों के साथ प्रेम क्रीड़ा करती थीं। इस मंडली में बैठकर उन्हें आत्मप्रवंचना का सबसे अच्छा अवसर मिलता था। वह भूल जाती थीं कि मेरा यौवन काल बीत चुका है। अपने बुझे हुए यौवन-दीपक को युवा की प्रज्वलित स्फूर्ति से जलाना चाहती थीं; किंतु इस धुन में वह कितने ही अन्य विलासांध प्राणियों की भांति नीचों को मुंह न लगाती थीं। काशी आनेवाले राजकुमारों और राजकुमारियों ही से उनका सहवास रहता था। आनेवालों की कमी न थी। एकन-एक हमेशा ही आता रहता था। रानी की अतिथिशाला हमेशा आबाद रहती थी। उन्हें युवकों की आंखों में खुब जाने की सनक-सी थी। वह चाहती थीं कि मेरे सौंदर्य-दीपक पर युवक पतंगे की भांति आकर गिरें। उनकी रसमयी कल्पना प्रेम के आघात-प्रत्याघात से एक विशेष स्फूर्ति का अनुभव करती थी।

एक दिन ठाकुर हरिसेवकसिंह मनोरमा को रानी साहब के पास ले गए। रानी उसे देखकर मोहित हो गईं। तब से दिन में एक बार उससे जरूर मिलतीं। वह किसी कारण से न आती, तो उसे बुला भेजतीं। उसका मधुर गाना सुनकर वह मुग्ध हो जाती थीं। हरिसेवकसिंह का उद्देश्य कदाचित् यही था कि वहां मनोरमा को रईसों और राजकुमारों को आकर्षित करने का मौका मिलेगा।

भादों की अंधेरी रात थी। मूसलाधार वर्षा हो रही थी। रानी साहब को आज कुछ ज्वर था, चेष्टा गिरी हुई थी, सिर उठाने को जी न चाहता था; पर पड़े रहने का अवसर न था। हर्षपुर के राजकुमार को आज उन्होंने निमंत्रित किया था। उनके आदर-सत्कार का काम करना जरूरी था। उनके सहवास के सुख से वह अपने को वंचित न कर सकती थीं। उनके आने का समय भी निकट था। रानी ने बड़ी मुश्किल से उठकर आईने में अपनी सूरत देखी। उनके हृदय पर आघात-सा हुआ। मुख प्रभात-चंद्र की भांति मंद हो रहा था।

रानी ने सोचा, अभी राजकुमार आते होंगे। क्या मैं उनसे इसी दशा में मिलूंगी? संसार में क्या कोई ऐसी संजीवनी नहीं है जो काल के कुटिल चिह्न को मिटा दे? ऐसी वस्तु कहीं मिल जाती, तो मैं अपना सारा राज्य बेचकर उसे ले लेती। जब भोगने की सामर्थ्य ही न हो, तो राज्य से और सुख ही क्या ! हा निर्दयी काल! तूने मेरा कोई प्रयत्न सफल न होने दिया।

राजकुमार अब आते होंगे, मुझे तैयार हो जाना चाहिए। ज्वर है, कोई परवाह नहीं। मालूम नहीं, जीवन में फिर ऐसा अवसर मिले या न मिले।

सामने मेज पर एक अलबम रखा था। रानी ने राजकुमार का चित्र निकालकर देखा। कितना सहास्य मुख था, कितना तपस्वी स्वरूप, कितनी सुधामयी छवि !

रानी एक आरामकुर्सी पर लेटकर सोचने लगीं-यह चित्र न जाने क्यों मेरे चित्त को इतने जोर से खींच रहा है। मेरा चित्त कभी इतना चंचल न हुआ था। इसी अलबम में और भी कई चित्र हैं, जो इससे कहीं सुंदर हैं, लेकिन उन नवयुवकों को मैंने कठपुतलियों की तरह नचाकर छोड़ा। यह एक ऐसा चित्र है, जो मेरे हृदय में भूली हुई बातों की याद दिला रहा है, जिसके सामने ताकते हुए मुझे लज्जा-सी आती है!

रानी ने घड़ी की ओर आतुर नेत्रों से देखा। नौ बज रहे थे। अब वह लेटी न रह सकीं; संभलकर उठीं; आलमारी में से एक शीशी निकाली। उसमें से कई बूंदें एक प्याली में डाली और आंखें बंद करके पी गईं। इसका चमत्कारिक असर हुआ, मानो कोई कुम्हलाया फूल ताजा हो जाए; कोई सूखी पत्ती हरी हो जाए। उनके मुखमंडल पर आभा दौड़ गई। आंखों में चंचल सजीवता का विकास हो गया, शरीर में नए रक्त का प्रवाह-सा होने लगा। उन्होंने फिर आईने की ओर देखा और उनके अधरों पर एक मूदुल हास्य की झलक दिखाई दी। उनके उठने की आहट पाकर लौंडी कमरे में आकर खड़ी हो गई। यह उनकी नाइन थी। गुजराती नाम था।

रानी-समय बहुत थोड़ा है, जल्दी कर। गुजराती-रानियों को कैसी जल्दी ! जिसे मिलना होगा, वह स्वयं आएगा और बैठा रहेगा! रानी-नहीं, आज ऐसा ही अवसर है।

नाइन बड़ी निपुण थी, तुरंत शृंगारदान खोलकर बैठ गई और रानी का शृंगार करने लगी, मानो कोई चित्रकार तसवीर में रंग भर रहा हो। आध घंटा भी न गुजरा था कि उसने रानी के केश गूंथकर नागिन की-सी लटें डाल दीं। कपोलों पर एक ऐसा रंग भरा कि झुर्रियां गायब हो गईं और मुख पर मनोहर आभा झलकने लगी। ऐसा मालूम होने लगा, मानो कोई सुंदरी युवती सोकर उठी है। वही अलसाया हुआ अंग था, वही मतवाली आंखें। रानी ने आईने की ओर देखा और प्रसन्न होकर बोलीं-गुजराती, तेरे हाथ में कोई जादू है। मैं तुझे अपने साथ स्वर्ग में ले चलूंगी। वहां तो देवता लोग होंगे, तेरी मदद की और भी जरूरत होगी।

गुजराती-आप कभी इनाम तो देतीं नहीं। बस, बखान करके रह जाती हैं !

रानी-अच्छा, बता क्या लेगी?

गुजराती-मैं लूंगी तो वही लूंगी, जो कई बार मांग चुकी हूँ। रुपए-पैसे लेकर मुझे क्या करना है!

यह एक दीवारगीर पर रखी हुई मदन की छोटी-सी मूर्ति थी। चतुर मूर्तिकार ने इस पर कुछ ऐसी कारीगरी की थी जिससे कि दिन के साथ उसका भी रंग बदलता रहता था।

गुजराती-अच्छा, तो न दीजिए, लेकिन फिर मुझसे कभी न पूछिएगा कि क्या लेगी?

रानी-क्या मुझसे नाराज हो गई? (चौंककर)वह रोशनी दिखाई दी? कुंवर साहब आ गए ! मैं झूलाघर में जाती हूँ। वहीं लाना।

यह कहकर रानी ने फिर वही शीशी निकाली और दुगुनी मात्रा में दवा पीकर झूलाघर की ओर चलीं। यह एक विशाल भवन था, बहुत ऊंचा और इतना लंबा-चौड़ा कि झूले पर बैठकर खूब पेंगें ली जा सकती थीं। रेशम की डोरियों में पड़ा हुआ एक पटरा छत से लटक रहा था; पर चित्रकारों ने ऐसी कारीगरी की थी कि मालूम होता था, किसी वृक्ष की डाल में पड़ा हुआ है। पौधों, झाड़ियों और लताओं ने उसे यमुना-तट का कुंज-सा बना दिया था। कई हिरन और मोर इधर-उधर विचरा करते थे। रात को उस भवन में पहुँचकर सहसा यह ज्ञान न होता था कि यह कोई भवन है। पानी का रिमझिम बरसना, ऊपर से हल्की-हल्की फुहारों का पड़ना, हौज में जलपक्षियों का क्रीड़ा करना-यह सब किसी उपवन की शोभा दर्शाता था।

रानी झूले की डोरी पकड़कर खड़ी हो गईं और एक हिरन के बच्चे को बुलाकर उसका मुंह सहलाने लगीं। सहसा कदमों की आहट हुई। रानी मेहमान का स्वागत करने के लिए द्वार पर आईं, पर यह राजकुमार न थे, मनोरमा थी। रानी को कुछ निराशा तो हुई; किंतु मनोरमा भी आज के अभिनय की पात्री थी। उन्होंने उसे बुलवा भेजा था।

रानी-बड़ी देर लगाई! तेरी राह देखते-देखते आंखें थक गईं।

मनोरमा-पानी के मारे घर से निकलने की हिम्मत ही न पड़ती थी।

रानी-राजकुमार ने न जाने क्यों देर की। आ, तब तक कोई गीत सुना।

यहीं हौज के किनारे एक संगमरमर का चबूतरा था। दोनों जाकर उस पर बैठ गईं।

रानी-क्या मैं बहुत बुरी लगती हूँ।

मनोरमा-आप तो सौंदर्य की देवी मालूम होती हैं!

रानी-चल, झूठी। मुझसे अपना रूप बदलेगी?

मनोरमा-मैं तो आपकी लौंडी की तरह भी नहीं हूँ। मुझे आपके साथ बैठते शरम आती है।

रानी-अच्छा बता, संसार में सबसे अमूल्य रत्न कौन-सा है?

मनोरमा-कोहनूर हीरा होगा, और क्या?

रानी-दुत् पगली ! संसार की सबसे उत्तम, देव-दुर्लभ वस्तु यौवन है। बता, तूने किसी से प्रेम किया है?

मनोरमा-जाइए, मैं आपसे नहीं बोलती।

रानी-आह ! तूने तीर मार दिया। यही बिगड़ना तो पुरुषों पर जादू का काम करता है। काश, मेरे मुंह से ऐसी बातें निकलतीं। सच बता, तूने किसी युवक से कभी प्रेम किया है? अच्छा आ, आज मैं सिखा दूं।

मनोरमा-आप मुझे छेड़ेंगी, तो मैं चली जाऊंगी।

रानी-ऐं, तो इतना चिढ़ती क्यों है? ऐसी कोई बालिका तो नहीं। देख, सबसे पहली बात है, कटाक्ष करने की कला में निपुण होना। जिसे यह कला आती है, वह चाहे चन्द्रमुखी न हो; फिर भी पुरुष का हृदय छीन सकती है। सौंदर्य स्वयं कुछ नहीं कर सकता, उसी तरह जैसे कोई सिपाही शस्त्रों से कुछ नहीं कर सकता, जब तक वह उन्हें चलाना न जानता हो। चतुर खिलाड़ी एक बांस की छड़ी से वह काम कर सकता है, जो दूसरे संगीन और बंदूक से भी नहीं कर सकते। मान ले, मैं तेरा प्रेमी हूँ। बता, मेरी ओर कैसे ताकेगी?

मनोरमा ने लज्जा से सिर झुका लिया। उसे रानी की रसिकता पर कुतूहल हो रहा था। वह कितनी ही बार यहां आई थी; पर रानी को कभी इतना मदमत्त न पाया था।

रानी ने उसकी ठुड्डी पकड़कर मुंह उठा दिया और बोली-पगली, इस भांति सिर झुकाने से क्या होगा ! पुरुष समझेगा, यह कुछ जानती ही नहीं। अच्छा, समझ ले कि तू पुरुष है; देख, मैं तेरी ओर कैसे ताकती हूँ। सिर उठाकर मेरी ओर देख। कहती हूँ सिर उठा, नहीं तो मैं चुटकी काट लूंगी। हां, इस तरह।

यह कहकर रानी ने मनोरमा को भ्रकुटि-विलास और लोचन-कटाक्ष का ऐसा कौशल दिखाया कि मनोरमा का अज्ञात मन भी एक क्षण के लिए चंचल हो उठा। कटाक्ष में कितनी उत्तेजक शक्ति है, इसका कुछ अनुमान हो गया।

रानी-तुझे कुछ मालूम हुआ?

मनोरमा-मुझे तो तीर-सा लगा। आप मोहिनी मंत्र जानती होंगी।

रानी-तू युवक होती, तो इस समय छाती पर हाथ धरे आहतों की भांति खड़ी होती; यह तो कटाक्ष हुआ। आ, अब तुझे बताऊं कि आंखों से प्रेम की बातें कैसे की जाती हैं। मेरी ओर देख !

यह कहते-कहते रानी को फिर शिथिलता का अनुभव हुआ। 'सुधाविंदु' का प्रकाश मंद होने लगा। विकल होकर पूछा-क्यों री, देख तो मेरा मुख कुछ उतरा जाता है?

मनोरमा ने चौंककर कहा-आपको यह क्या हो गया? मुख बिल्कुल पीला पड़ गया है। क्या आप बीमार हैं?

रानी-हां बेटी, बीमार हूँ। राजकुमार अब भी नहीं आए? तू जाकर गुजराती से 'सुधाविंदु' की शीशी और प्याला मांग ला। जल्द आना, नहीं तो मैं गिर पडूंगी !

मनोरमा दवा लाने गई, तो राजकुमार इन्द्रविक्रम को मोटर से उतरते देखा। कोई तीस वर्ष की अवस्था थी। मुख से संयम, तेज और संकल्प झलक रहा था। ऊंचा कद था, गोरा रंग, चौड़ी छाती, ऊंचा मस्तक, आंखों में इतनी चमक और तेजी थी कि हृदय में चुभ जाती थी। वह केवल एक पीले रंग का रेशमी कुर्ता पहने हुए थे और गले में सफेद चादर डाल ली थी। मनोरमा ने किसी देव ऋषि का एक चित्र देखा था। मालूम होता था, इन्हीं को देखकर वह चित्र खींचा गया था।

उनके मोटर से उतरते ही चपरासी ने सलाम किया और लाकर दीवानखाने में बैठा दिया। इधर मनोरमा ने गुजराती से शीशी ली और जाकर रानी से यह समाचार कहा। रानी चबूतरे पर लेटी हुई थीं। सुनते ही उठ बैठी और मनोरमा के हाथ से शीशी ले, प्याली में बिना गिने कई बूंद निकाल, पी गईं।

दवा ने जाते ही अपना असर दिखाया। रानी के मुखमंडल पर फिर वही मनोरम छवि, अंगों में फिर वही चपलता, वाणी में फिर वही सरसता, आंखों में फिर वही मधुर हास्य, कपोलों पर वही अरुण ज्योति शोभा देने लगी। वह उठकर झूले पर जा बैठीं। झूला धीरे-धीरे झूलने लगा। रानी का अंचल हवा से उड़ने लगा और केश बिखर गए। यही मोहिनी छवि वह राजकुमार को दिखाना चाहती थीं।

एक क्षण में राजकुमार ने झूलाघर में प्रवेश किया। रानी झूले से उतरना ही चाहती थीं कि वह उनके पास आ गए और बोले-क्या मधुर कल्पना स्वप्न-साम्राज्य में विहार कर रही हैं?

रानी-जी नहीं, प्रतीक्षा नैराश्य की गोद में विश्राम कर रही है। इतनी देर क्यों राह दिखाई?

राजकुमार-मेरा अपराध नहीं। मैं आ ही रहा था कि विश्वविद्यालय के कई छात्र आ पहुंचे और मुझे एक गंभीर विषय पर व्याख्यान देने के लिए घसीट ले गए। बहुत हीले-हवाले किए, लेकिन उन सबों ने एक न सुनी।

रानी-मैं तो आपसे शिकायत कब करती हूँ? आप आ गए, यही क्या कम अनुग्रह है? न आते तो मैं क्या कर लेती? लेकिन इसका प्रायश्चित करना पड़ेगा, याद रखिए। आज रात भर कैद रखूंगी।

राजकुमार-अगर प्रेम के कारावास में प्रायश्चित है, तो मैं उसमें जीवन पर्यंत रहने को तैयार हूँ।

रानी-आप बातें बनाने में निपुण मालूम होते हैं। इन निर्दयी केशों को जरा संभाल दीजिए, बार-बार मुख पर आ जाते हैं।

राजकुमार-मेरे कठोर हाथ उन्हें स्पर्श करने योग्य नहीं हैं।

रानी ने कनखियों से-मर्मभेदी कनखियों से-राजकुमार को देखा। यह असाधारण जवाब था। उन कोमल, सुगंधित, लहराते हुए केशों के स्पर्श का अवसर पाकर ऐसा कौन था, जो अपना धन्य भाग न समझता ! रानी दिल में कटकर रह गईं। उन्होंने पुरुष को सदैव विलास की एक वस्तु समझा था। प्रेम से उनका हृदय कभी आंदोलित न हुआ था। वह लालसा ही को प्रेम समझती थीं। उस प्रेम से, जिसमें त्याग और भक्ति है, वह वंचित थीं; लेकिन इस समय उन्हें इसी प्रेम का अनुभव हो रहा था। उन्होंने दिल को बहुत संभालकर राजकुमार से इतनी बातें की थीं। उनका अंत:करण उन्हें राजकुमार से यह वासनामय व्यवहार करने पर धिक्कार रहा था। राजकुमार का देव स्वरूप ही उनकी वासना-वृत्ति को लज्जित कर रहा था। सिर नीचा करके कहा-यदि हाथों की भांति हृदय भी कठोर है, तो वहां प्रेम का प्रवेश कैसे होगा?

राजकुमार-बिना प्रेम के तो कोई उपासक देवी के सम्मुख नहीं जाता। प्यास के बिना भी आपने किसी को सागर की ओर जाते देखा है?

रानी अब झूले पर न रह सकीं। इन शब्दों में निर्मल प्रेम झलक रहा था। जीवन में यह पहला ही अवसर था कि देवप्रिया के कानों में ऐसे सच्चे अनुराग में डूबे हुए शब्द पड़े। उन्हें ऐसा मालूम हो रहा था कि इनकी आंखें मेरे मर्मस्थल में चुभी जा रही हैं। वह उन तीव्र नेत्रों से बचना चाहती थीं। झूले से उतरकर रानी ने अपने केश समेट लिए और बूंघट से माथा छिपाती हुई बोलीं-श्रद्धा देवताओं को भी खींच लाती है। भक्त के पास सागर भी उमड़ता चला आता है।

यह कहकर वह हौज के किनारे जा बैठीं और फौवारे को घुमाकर खोला, तो राजकुमार पर गुलाब जल की फुहारें पड़ने लगीं। उन्होंने मुस्कराकर कहा-गुलाब से सिंचा हुआ पौधा लू के झोंके न सह सकेगा। इसका खयाल रखिएगा।

रानी ने प्रेम सजल नेत्रों से ताकते हुए कहा-अभी गुलाब से सींचती हूँ, फिर अपने प्राण जल से सींचुगी, पर उसका फल खाना मेरे भाग्य में है या नहीं, कौन जाने! उस वस्तु का आशा कैसे करूं, जिसे मैं जानती हूँ कि मेरे लिए दुर्लभ है।

दवप्रिया ने यह कहते-कहते एक लंबी सांस ली और आकाश की ओर देखने लगी। उसके मन में एक शंका हो उठी, क्या यह दुर्लभ वस्तु मुझे मिल सकती है? मेरा यह मुंह कहाँ?

राजकुमार ने करुण स्वर में कहा-जिस वस्तु को आप दुर्लभ समझ रही हैं, वह आज से बहुत पहले आपको भेंट हो चुकी है। आप मुझे नहीं जानती; पर मैं आपको जानता हूँ-बहुत दिनों से जानता हूँ। अब आपके मुंह से केवल यह सुनना चाहता हूँ कि आपने मेरी भेंट स्वीकार कर ली?

रानी-उस रत्न को ग्रहण करने की मुझमें सामर्थ्य नहीं है। आपकी दया के योग्य हूँ, प्रेम के योग्य नहीं।

राजकुमार-कोई ऐसा धब्बा नहीं है, जो प्रेम के जल से छूट न जाए। ।

रानी-समय के चिह्न को कौन मिटा सकता है? हाय ! आपने मेरा असली रूप नहीं देखा। यह मोहिनी छवि, जो आप देख रहे हैं, बहुत दिन हुए, मेरा साथ छोड़ चुकी। अब मैं अपने यौवनकाल का चित्र-मात्र हूँ। आप मेरी असली सूरत देखेंगे, तो कदाचित् घृणा से मुंह फेर लेंगे।

यह कहते-कहते रानी को अपनी देह शिथिल होती हुई जान पड़ी। 'सुधाविंदु' का असर मिटने लगा। उनका चेहरा पीला पड़ गया, झुर्रियां दिखाई देने लगीं। उन्होंने लज्जा से मुंह छिपा लिया और यह सोचकर कि शीघ्र ही यह प्रेमाभिनय समाप्त हो जाएगा, वह फूट-फूटकर रोने लगीं। राजकुमार ने धीरे से उनका हाथ पकड़ लिया और प्रेम-मधुर-स्वर में बोले-प्रिये, मैं तुम्हारे इसी रूप पर मुग्ध हूँ, उस बने हुए रूप पर नहीं। मैं वह वस्तु चाहता हूँ, जो इस पर्दे के पीछे छिपी हुई है। वह बहुत दिनों से मेरी थी; हां, इधर कुछ दिनों से उस पर मेरा अधिकार न था। मेरी तरफ ध्यान से देखो, मुझे पहचानती हो? कभी देखा है?

रानी ने हैरत में आकर राजकुमार के मुंह पर नजर डाली। ऐसा मालूम हुआ, मानो आंखों के सामने से पर्दा हट गया। याद आया, मैंने इन्हें कहीं देखा है। जरूर देखा है। वह सोचने लगीं मैंने इन्हें कहाँ देखा है? याद न आया। बोलीं-मैंने आपको कहीं पहले देखा है।

राजकुमार-खूब याद है कि आपने मुझे देखा है? भ्रम तो नहीं हो रहा है?

रानी-नहीं, मैंने आपको अवश्य देखा है। संभव है, कभी रेलगाड़ी में देखा हो; मगर मुझे ऐसा मालूम होता है कि आप और मैं कभी बहुत दिनों एक ही जगह रहे हैं। मुझे तो याद नहीं आता। आप ही बताइए।

राजकुमार-खूब याद कर लिया?

रानी-(सोचकर) हां, कुछ ठीक याद नहीं आता। शायद तब आपकी उम्र कुछ कम थी; मगर थे आप ही।

राजकुमार ने गंभीर भाव से कहा-हां प्रिये, मैं ही था। तुमने मुझे अवश्य देखा है, हम और तुम एक साथ रहे हैं और इसी घर में। यही मेरा घर था। तुम स्त्री थीं मैं पुरुष था। तुम्हें याद है, हम और तुम इसी जगह, हौज के किनारे शाम को बैठा करते थे? अब पहचाना?

देवप्रिया की आंखें फिर राजकुमार की ओर उठीं। आईने की गर्द साफ हो गई। बोलींप्राणेश! तुम्ही हो इस रूप में?

यह कहते-कहते वह मूर्च्छित हो गईं।

कायाकल्प : अध्याय नौ

रानी देवप्रिया का सिर राजकुमार के पैरों पर था और आंखों से आंसू बह रहे थे। उनकी ओर ताकते हुए विचित्र भय हो रहा था। उसे कुछ-कुछ संदेह हो रहा था कि मैं सो तो नहीं रही हूँ। कोई मनुष्य माया के दुर्भद्य अंधकार को चीर सकता है? जीवन और मृत्यु के मध्यवर्ती अपार विस्मृत सागर को पार कर सकता है? जिसमें यह सामर्थ्य हो, वह मनुष्य नहीं, प्रेत योनि का जीव है। विचार आते ही रानी का सारा शरीर कांप उठा, पर इस भय के साथ ही उसके मन में उत्कंठा हो रही थी कि उन्हीं चरणों में लिपटी हुई इसी क्षण प्राण त्याग दूं। राजकुमार उसके पति हैं, इसमें तो संदेह न था, संदेह केवल यह था कि मेरे साथ यह कोई प्रेतलीला तो नहीं कर रहे हैं? वह रह-रहकर छिपी हुई निगाहों से उनके मुख की ओर ताकती थी, मानो निश्चय कर रही हो कि पति ही हैं या मुझे भ्रम हो रहा है।

सहसा राजकुमार ने उसे उठाकर बैठा दिया और उसके मनोभावों को शांत करते हुए बोले-हां प्रिये! मैं तुम्हारा वही चिरसंगी हूँ, जो अपनी प्रेमाभिलाषाओं को लिए हुए कुछ दिनों को तुमसे जुदा हो गया था। मुझे तो ऐसा मालूम हो रहा है कि कोई यात्रा करके लौटा आ रहा हूँ। जिसे हम मृत्यु कहते हैं, और जिसके भय से संसार कांपता है, वह केवल एक यात्रा है। उस यात्रा में भी मुझे तुम्हारी याद आती रहती थी। विकल होकर आकाश में इधर-उधर दौड़ा करता था। प्रायः सभी प्राणियों की यही दशा थी। कोई अपने संचित धन का अपव्यय देख-देखकर कुढ़ता था, कोई अपने बाल-बच्चों को ठोकरें खाते देखकर रोता था। वे दृश्य इस मृर्त्यलोक के दृश्यों से कहीं करुणाजनक, कहीं दुःखमय थे। कितने ही ऐसे जीव दिखाई दिए, जिनके सामने यहां सम्मान से मस्तक झुकता था, वहां उनका नग्न स्वरूप देखकर उनसे घृणा होती थी। यह कर्मलोक है, वहां भोगलोक; और कर्म का दंड कर्म से कहीं भयंकर होता है। मैं भी उन्हीं अभागों में था। देखता था कि मेरे प्रेम सिंचित उद्यान को भांति-भांति के पशु कुचल रहे हैं, मेरे प्रणय के पवित्र सागर में हिंसक जल-जंतु दौड़ रहे हैं, और देख-देखकर क्रोध से विहल हो जाता था। अगर मुझमें वज्र गिराने की सामर्थ्य होती, तो गिराकर उन पशुओं का अंत कर देता। मुझे यही जलन थी। कितने दिनों मेरी यह अवस्था रही, इसका कुछ निश्चय नहीं कर सकता, क्योंकि वहां समय का बोध कराने वाली मात्राएं न थीं; पर मुझे तो ऐसा जान पड़ता था कि इस दशा में पड़े हुए मुझे कई युग बीत गए। रोज नई-नई सूरतें आतीं और पुरानी सूरतें लुप्त होती रहती थीं। सहसा एक दिन मैं लुप्त हो गया। कैसे लुप्त हुआ, यह याद नहीं; पर होश आया, तो मैंने अपने को बालक के रूप में पाया। मैंने राजा हर्षपुर के घर में जन्म लिया था।

इस नए घर में मेरा लालन-पालन होने लगा। ज्यों-ज्यों बढ़ता था स्मृति पर पर्दा-सा पड़ता जाता था। पिछली बातें भूलता जाता था, यहां तक कि जब बोलने की सामर्थ्य हुई, तो माया अपना काम पूरा कर चुकी थी। बहुत दिनों तक अध्यापकों से पढ़ता रहा। मुझे विज्ञान में विशेष रुचि थी। भारतवर्ष में विज्ञान की कोई अच्छी प्रयोगशाला न होने के कारण मुझे यूरोप जाना पड़ा। वहां मैं कई वैज्ञानिक परीक्षाएं करता रहा। जितना ही रहस्यों का ज्ञान बढ़ता था, उतनी ही ज्ञानपिपासा भी बढ़ती थी; किंतु इन परीक्षाओं का फल मुझे लक्ष्य से दूर लिए जाता था। मैंने सोचा था, विज्ञान द्वारा जीव का तत्त्व निकाल लूंगा; पर सात वर्षों तक अनवरत परिश्रम करने पर भी मनोरथ न पूरा हुआ।

एक दिन मैं बर्लिन की प्रधान प्रयोगशाला में बैठा हुआ यही सोच रहा था कि एक तिब्बती भिक्षु आ निकला। मुझे चिंतित देखकर वह एक क्षण मेरी ओर ताकता रहा फिर बोला-बालू से मोती नहीं निकलते, भौतिक ज्ञान से आत्मा का ज्ञान नहीं प्राप्त होता।

मैंने चकित होकर पूछा-आपको मेरे मन की बात कैसे मालूम हुई?

भिक्षु ने हंसकर कहा-आपके मन की इच्छा तो आपके मुख पर लिखी हुई है। जड़ से चेतन का ज्ञान नहीं होता। यह क्रिया ही उल्टी है। उन महात्माओं के पास जाओ, जिन्होंने आत्माज्ञान प्राप्त किया है। वही तुम्हें वह मार्ग दिखाएंगे।

मैंने पूछा-ऐसे महात्माओं के दर्शन कहाँ होंगे? मेरा तो अनुमान है कि वह विद्या ही लोप हो गई और उसके जानने का जो दावा करते हैं, वे बने हुए महात्मा हैं।

भिक्षु-यथार्थ कहते हो; लेकिन अब भी खोजने से ऐसे महात्मा मिल जाएंगे। तिब्बत की तपोभूमि में आज भी ऐसी महान् आत्माएं हैं, जो माया का रहस्य खोल सकती हैं। हां, जिज्ञासा की सच्ची लगन चाहिए।

मेरे मन में बात बैठ गई। तिब्बत की चर्चा बहुत दिनों से सुनता आता था। भिक्षु से वहां की कितनी ही बातें पूछता रहा। अंत में उसी के साथ तिब्बत चलने की ठहरी। मेरे मित्रों को यह बात मालूम हुई तो वे भी मेरे साथ चलने पर तैयार हो गए। हमारी एक समिति बनाई गई, जिसमें दो अंग्रेज, दो फ्रेंच और दो जर्मन थे। अपने साथ नाना प्रकार के यंत्र लेकर हम लोग अपने मिशन पर चले। मार्ग में किन-किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, वहां कैसे पहुंचे, विहारों में क्या-क्या दृश्य देखे, इसकी चर्चा करने लगूं तो कई दिन लग जाएंगे। कई बार तो हम लोग मरते-मरते बचे, लेकिन वहां चित्त को जो शांति मिली, उसके लिए हम मर भी जाते, तो दुःख न होता। अंग्रेजों को तो सफलता न हुई, क्योंकि वे तिब्बत की सैनिक स्थिति का निरीक्षण करने आए थे और भिक्षाओं ने उनकी नीयत भांप ली थी। लेकिन शेष चारों मित्रों ने तो पाली और संस्कृत के ऐसे-ऐसे ग्रंथ खोज निकाले कि उन्हें यहां से ले जाना कठिन हो गया। जर्मन तो ऐसे प्रसन्न थे, मानो उन्हें कोई प्रदेश हाथ आ गया हो।

शरद-ऋतु थी; जलाशय हिम से ढक गए थे। चारों ओर बर्फ दिखाई देती थी। मेरे मित्र लोग तो पहले ही चले गए थे। अकेला मैं ही रह गया था। एक दिन संध्या समय मैं इधर-उधर विचरता हुआ एक शिला पर जाकर खड़ा हो गया। सामने का दृश्य अत्यंत मनोरम था, मानो स्वर्ग का द्वार खुला हुआ है। उसका बखान करना उसका अपमान करना है। मनुष्य की वाणी में न इतनी शक्ति है, न शब्दों में इतना चित्र्य ! इतना ही कह देना काफी है कि वह दृश्य अलौकिक था, स्वर्गापम था। विशाल दृश्यों के सामने हम मंत्र-मुग्ध-से हो जाते हैं, अवाक् होकर ताकते हैं, कुछ कह नहीं सकते। मौन आश्चर्य की दशा में खड़ा ताक ही रहा था कि सहसा मैंने एक वृद्ध पुरुष को सामने की गुफा से निकलकर पर्वत-शिखर की ओर जाते देखा। जिन शिलाओं पर कल्पना के भी पांव डगमगा जाएं, उन पर वह इतनी सुगमता से चले जाते थे कि विस्मय होता था। बड़े-बड़े दरों को इस भांति फांद जाते थे, मानो छोटी-छोटी नालियां हैं। मनुष्य की यह शक्ति कि वह, उस हिम से ढके हुए दुर्गम श्रृंग पर इतनी चपलता से चला जाए! और मनुष्य भी वह, जिसके सिर के बाल सन की भांति सफेद हो गए थे!

मुझे ख्याल आया कि इतना पुरुषार्थ प्राप्त करना किसी सिद्ध ही का काम है। मेरे मन में उनके दर्शन की तीव्र उत्कण्ठा हुई, पर मेरे लिए ऊपर चढ़ना असाध्य था। वह न जाने फिर कब तक उतरें, कब तक वहां खड़ा रहना पड़े। उधर अंधेरा बढ़ता जाता था। आखिर मैंने निश्चय किया कि आज चलूं, कल से रोज दिन भर यहीं बैठा रहूँगा; कभी न कभी तो दर्शन होंगे ही। मेरा मन कह रहा था कि इन्हीं से तुझे आत्मज्ञान प्राप्त होगा। दूसरे दिन मैं प्रात:काल वहां आकर बैठ गया और सारे दिन शिखर की ओर टकटकी लगाए देखता रहा; पर चिड़िया का पूत भी न दिखाई दिया।

एक महीने तक यही मेरा नित्य का नियम रहा! रात भर विहार में पड़ा रहता, दिनभर शिला पर बैठा रहता। पर महात्माजी न जाने कहाँ गायब हो गए थे। उनकी झलक तक न दिखाई देती थी। मैंने कई बार ऊपर चढ़ने का प्रयत्न किया, पर सौ गज से आगे न जा सका। कील-कांटे ठोंकते, शिलाओं पर रास्ता बनाते कई महीनों में शिखर पर पहुँचना संभव था; पर यह अकेले आदमी का काम न था, अन्य भिक्षुओं से पूछता तो हंसकर कहते-उनके दर्शन हमें दुर्लभ हैं, तुम्हें क्या होंगे? बरसों में कभी एक बार दिखाई दे जाते हैं। कहाँ रहते हैं, कोई नहीं जानता; किंतु अधीर न होना। वह यदि तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हो गए, तो तुम्हारी मनोकामना पूरी हो जाएगी। यह भी सुनने में आया कि कई भिक्षु उनके दर्शनों की चेष्टा में प्राणों से हाथ धो बैठे हैं। उनमें इतना विद्युत्तेज है कि साधारण मनुष्य उनके सम्मुख खड़ा ही नहीं हो सकता। उनकी नेत्रज्योति बिजली की तरह हृदयस्थल में लगती है। जिसने यह आघात सह लिया, उसकी तो कुशल है; जो नहीं सह सकता, वह वहीं खड़ा-खड़ा भस्म हो जाता है। कोई योगी ही उनसे साक्षात् कर सकता है।

यह बातें सुन-सुनकर मेरी भक्ति और भी दृढ़ होती चली जाती थी। मरूंया जिऊं, पर उनके दर्शन अवश्य करूंगा, यह धारणा मन में जम गई। योगी की क्रियाएं तो पहले ही करने लगा था, इसलिए मुझे विश्वास था कि मैं उनके तेज का सामना कर सकता हूँ। दिव्यज्ञान प्राप्त करने के प्रयत्न में मर जाना भी श्रेय की बात होगी। क्या था, क्या कहूँगा? कहाँ से मैं आया हूँ, कहाँ जाऊंगा? इन प्रश्नों का उत्तर किसी ने आज तक न दिया और न दे सकता है। वह तो अपने अनुभव की बात है। हम उसका अनुभव ही कर सकते हैं, किसी को बता नहीं सकते। इस महान उद्योग में मर जाना भी मनुष्य के लिए गौरव की बात है।

एक वर्ष गुजर गया और महात्माजी के दर्शन न हुए। न जाने कहाँ जाकर अंतर्धान हो गए। वहां से न किसी को पत्र लिख सकता था, न संसार की कुछ खबर मिलती थी। कभी-कभी जी ऐसा घबराता था कि चलकर अन्य सांसारिक प्राणियों की भांति जीवन का सुख भोगूं। इसमें रखा ही क्या है कि मैं क्या था और क्या हूँगा। पहले तो यही निश्चित नहीं कि मुझे यह ज्ञान प्राप्त भी होगा और हो भी गया, तो उससे मेरा या संसार का क्या उपकार होगा। बिना इन रहस्यों के जाने भी जीवन को उच्च और पवित्र बनाया जा सकता है। वहां की सुरम्यता अजीर्ण हो गई, वह कमनीय प्राकृतिक छटा आंखों में खटकने लगी। विवश होकर स्वर्ग में भी रहना पड़े तो वह नरक-तुल्य हो जाए।

अंत में एक दिन मैंने निश्चय किया कि अब जो होना हो सो हो; इस पर्वत-शृंग पर अवश्य चलूंगा। यह निश्चय करके मैंने चढ़ना शुरू किया, लेकिन दिन गुजर गया और मैं सौ गज से आगे न जा सका। मेरी चढ़ाई उन विज्ञान के खोजियों की-सी न थी, जो सभी साधनों से लैस होते हैं। मैं अकेला था; न कोई यंत्र, न मंत्र, न कोई रक्षक, न प्रदर्शक; भोजन का भी ठिकाना नहीं, प्राणों पर खेलना था। करता क्या ! ज्ञान के मार्ग में यंत्रों का जिक्र ही क्या! आत्मसमर्पण तो उसकी पहली क्रिया है। जानता था कि मर जाऊंगा; किंतु पड़े-पड़े मरने से उद्योग करते हुए मरना अच्छा था।

पहली रात मैंने एक चट्टान पर बैठकर काटी। बार-बार झपकियां आती थीं; पर चौंक-चौंक पड़ता था। जरा चूका और रसातल पहुंचा। इतनी कुशल थी कि गर्मी के दिन आ गए थे। हिम का गिरना बंद था; पर जहां इतना आराम था, वहां पिघली हुई हिम-शिलाओं के गिरने से क्षणमात्र में जीवन से हाथ धोने की शंका भी थी। वह भयंकर निशा, यह भयंकर जंतुओं की गरज और तड़प याद करता हूँ, तो आज भी रोमांच हो जाता है। बार-बार पूर्व दिशा की ओर ताकता था; पर निर्दयी सूर्य उदय होने का नाम न लेता था। खैर, किसी तरह रात कटी, सबेरे फिर चला। आज की चढ़ाई इतनी सीधी न थी, और पचास गज से आगे न जा सका। रास्ते में एक दर्रा पड़ गया, जिसे पार करना असंभव था। इधर-उधर बहुत निगाह दौड़ाई, पर ऐसा कोई उतार न दिखाई दिया, जहां से उतरकर दर्रे को पार कर सकता। इधर भी सीधी दीवार थी, उधर भी। संयोग से एक जगह दोनों ओर दो छोटे-छोटे वृक्ष दिखाई दिए। मेरी जेब में पतली रस्सी का एक टुकड़ा पड़ा हुआ था। अगर किसी तरह इस रस्सी को दोनों वृक्षों में बांध सकूँ तो समस्या हल हो जाए , लेकिन उस पार रस्सी को पेड़ में कौन बांधे? आखिर मैंने रस्सी के एक सिरे में पत्थर का एक भारी टुकडा खूब कसकर बांधा और उसको लंगर की भांति उस पारवाले वृक्ष पर फेंकने लगा कि किसी डाल में फंस जाए , तो पार हो जाऊं। बार-बार पूरा जोर लगाकर लंगर फेंकता था; पर लंगर वहां तक न पहुँचता था। सारा दिन इसी लंगरबाजी में कट गया, रात आ गई। शिलाओं पर सोना जान-जोखिम था। इसलिए वह रात मैंने वृक्ष ही पर काटने की ठानी। मैं उस पर चढ़ गया और दो डालों में रस्सी फंसा-फंसाकर एक छोटी-सी खाट बना ली। आधी रात गुजरी थी कि बड़े जोर से धमाका हुआ। उस अथाह खोह में कई मिनट तक उसकी आवाज गूंजती रही। सबेरे देखा तो बर्फ की एक बड़ी शिला ऊपर से पिघलकर गिर पड़ी थी और उस दर्रे पर उसका एक पुल-सा बन गया था। मैं खुशी के मारे फूला न समाया। जो मेरे किए कभी न हो सकता था, वह प्रकृति ने अपने आप ही कर दिया। यद्यपि उस पुल पर से ! को पार करना प्राणों से खेलना था-मृत्यु के मुख में पांव रखना था; पर दूसरा कोई उपाय न था। मैंने ईश्वर को स्मरण किया और संभल-संभलकर उस हिम राशि पर पांव रखता हुआ खाई को पार कर गया। इस असाध्य साधना में सफल होने से मेरे मन में यह धारणा होने लगी कि मर नहीं सकता। कोई अज्ञात शक्ति मेरी रक्षा कर रही है। किसी कठिन कार्य में सफल हो जाना आत्मविश्वास के लिए संजीवनी के समान है। मुझे पक्का विश्वास हो गया कि मेरा मनोरथ अवश्य पूरा होगा।

उस पार पहुँचते ही सीधी चट्टान मिली। दर्रे के किनारे और चट्टान में केवल एक बालिश्त, और कहीं-कहीं एक हाथ का अंतर था। उस पतले रास्ते पर चलना तलवार की धार पर पैर रखना था। चट्टान से चिमट-चिमटकर चलता हुआ, दो-तीन घंटों के बाद मैं एक ऐसे स्थान पर जा पहुंचा, जहां चट्टान की तेजी बहुत कम हो गई थी। मैं लेटकर ऊपर को रेंगने लगा। संभव था, मैं संध्या तक इस तरह रेंगता रहता, पर संयोग से एक समतल शिला मिल गई और उसे देखते ही मुझे जोर की थकान मालूम होने लगी। जानता था कि यहां सोकर फिर उठने की नौबत न आएगी, पर जरासे लेट जाने के लोभ को मैं किसी तरह संवरण न कर सका। नींद को दूर रखने के लिए एक गीत गाने लगा। लेकिन न जाने कब आंखें झपक गईं।

कह नहीं सकता कि कितनी देर तक सोया, जब नींद खुली और चाहा कि उठूँ, तो ऐसा मालूम हुआ कि ऊपर मानो बोझ रखा हुआ था। सब अंग जकड़े हुए थे। कितना ही जोर मारता था, पर अपनी जगह से हिल न सकता था, चेतना किसी डूबते हुए नक्षत्र की भांति डूबती जाती थी। समझ गया कि जीवन से इतने दिनों तक का साथ था। पूर्व स्मृतियां चेतना की अंतिम जागृति की भांति जागृत हो गईं। अपनी मूर्खता पर पछताने लगा। व्यर्थ प्राण खोए। इतना जानने ही से तो उद्धार न होगा कि मैं पूर्वजन्म में क्या था। यह ज्ञान न रखते हुए भी संसार में एक से एक ज्ञानी, एक से एक प्रणवीर, एक से एक धर्मात्मा हो गए। क्या उनका जीवन सार्थक हुआ? यही सोचते-सोचते न जाने कब मेरी चेतना का अपहरण हो गया। जब मेरी आंख खुली तो देखा कि एक छोटी सी कुटी में मृगचर्म पर कंबल ओढ़े पड़ा हुआ हूँ और एक पुरुष बैठा मेरे मुख की ओर वात्सल्यदृष्टि से देख रहा है। मैंने इन्हें पहचान लिया। यह वही महात्मा थे, जिनके दर्शनों के लिए मैं लालायित हो रहा था। मुझे आंखें खोलते देखकर वह सदय भाव से मुस्कराए और बोले-हिम-शय्या कितनी प्रिय वस्तु है ! पुष्प-शय्या पर तुम्हें कभी इतना सुख मिला था?

मैं उठ बैठा और महात्मा के चरणों पर सिर रखकर बोला-आपके दर्शनों से जीवन सफल हो गया। आपकी दया न होती, तो शायद वहीं मेरा अंत हो जाता।

महात्मा-अंत कभी किसी का नहीं होता। जीव अनंत है। हां, अज्ञानवश हम ऐसा समझ लेते हैं।

मैं-मुझे आपके दर्शनों की बड़ी इच्छा थी। आपमें अमानुषीय शक्ति है।

महात्मा-इसीलिए ऐसा समझते हो कि तुमने मुझे शिलाओं पर चढ़ते देखा है? यह तो अमानुषीय शक्ति नहीं है। यह तो साधारण मनुष्य भी अभ्यास से कर सकता है।

मैं-आपने योग द्वारा ही यह बल प्राप्त किया होगा!

महात्मा-नहीं, मैं योगी नहीं; प्रयोगी हूँ। आपने डारविन का नाम सुना होगा। पूर्व जन्म में मेरा ही नाम डारविन था।

मैंने विस्मित होकर कहा-आप ही डारविन थे?

महात्मा-हां, उन दिनों मैं प्राणिशास्त्र का प्रेमी था। अब प्राणशास्त्र का खोजी हूँ।

सहसा मुझे अपनी देह में एक अद्भुत शक्ति का संचालन होता हुआ मालूम हुआ। नाड़ी की गति तीव्र हो गई, आंखों से ज्योति की रेखाएं-सी निकलने लगीं। वाणी में ऐसा विकास हुआ, मानो कोई कली खिल गई हो। मैं फुर्ती से उठ बैठा और महात्माजी के चरणों पर झुकने लगा; कितु उन्होंने मुझे रोककर कहा-तुम मुझे शिलाओं पर चलते देख विस्मित हो गए, पर वह समय आ रहा है, जब आने वाली जाति जल, स्थल और आकाश में समान रीति से चल सकेगी। यह मेरा विश्वास है। पृथ्वी का क्षेत्र उन्हें छोटा मालूम होगा। वह पृथ्वी से अन्य पिंडों में उतनी सुगमता से आ-जा सकेंगे, जैसे एक देश से दूसरे देश में।

मैं-आपको अपने पूर्व जन्म का ज्ञान योग द्वारा ही हुआ होगा?

महात्मा-नहीं, मैं पहले ही कह चुका कि मैं योगी नहीं, प्रयोगी हूँ। तुमने तो विज्ञान पढ़ा है, क्या तुम्हें मालूम नहीं कि संपूर्ण ब्रह्मांड विद्युत का अपार सागर है। जब हम विज्ञान द्वारा मन के गुप्त रहस्य जान सकते हैं, तो क्या अपने पूर्व संस्कार न जान सकेंगे? केवल स्मृति को जगा देने ही से पूर्व जन्म का ज्ञान हो जाता है।

मैं-मुझे भी वह ज्ञान प्राप्त हो सकता है?

महात्मा-मुझे हो सकता है, तो आपको क्यों न हो सकेगा ! अभी तो आप थके हुए हैं। कुछ भोजन करके स्वस्थ हो जाइए, तो मैं आपको अपनी प्रयोगशाला की सैर कराऊं।

मैं क्या आपकी प्रयोगशाला भी यहीं है?

महात्मा-हां, इसी कमरे से मिली हुई है। आप क्या भोजन करना चाहते हैं?

मैं-उसके लिए आप कोई चिंता न करें। आपका जूठन मैं भी खा लूंगा।

महात्मा-(हंसकर) अभी नहीं खा सकते। अभी तुम्हारी पाचन-शक्ति इतनी बलवान नहीं है। तुम जिन पदार्थों को खाद्य समझते हो, उन्हें मैंने बरसों से नहीं खाया। मेरे लिए उदर को स्थूल वस्तुओं से भरना वैसा ही अवैज्ञानिक है, जैसे इन वायुयान के दिनों में बैलगाड़ी पर चलना। भोजन का उद्देश्य केवल संचालन शक्ति को उत्पन्न करना है। जब वह शक्ति हमें भोजन करने की अपेक्षा कहीं आसानी से मिल सकती है तो उदर को क्यों अनावश्यक वस्तुओं से भरें? वास्तव में आने वाली जाति उदरविहीन होगी।

यह कहकर उन्होंने मुझे थोड़े से फल खिलाए, जिनका स्वाद आज तक याद करता हूँ। भोजन करते ही मेरी आंखें खुल-सी गईं। ऐसे फल न जाने किस बाग में पैदा होते होंगे। यहां की विद्युत्मय वायु ने पहले ही आश्चर्यजनक स्फूर्ति उत्पन्न कर दी थी। यह भोजन करके तो मुझे ऐसा मालूम होने लगा कि मैं आकाश में उड़ सकता हूँ। वह चढ़ाई, जिसे मैं असाध्य समझ रहा था, अब तुच्छ मालूम होती थी।

अब महात्माजी मुझे अपनी प्रयोगशाला की सैर कराने चले। यह एक विशाल गुफा थी, जिसके विस्तार का अनुमान करना कठिन था। उसकी चौड़ाई पांच सौ हाथ से कम न रही होगी। लंबाई उसकी चौगुनी थी। ऊंची इतनी कि हमारे ऊंचे-ऊंचे मीनार भी उसके पेट में समा सकते थे। बौद्ध मूर्तिकारों की अद्भुत चित्रकला यहां भी विद्यमान थी। यह पुराने समय का कोई विहार था। महात्माजी ने उसे प्रयोगशाला बना लिया था।

प्रयोगशाला में कदम रखते ही मैं एक दूसरी ही दुनिया में पहुँच गया। जेनेवा नगर आंखों के सामने था और एक भवन में राष्ट्रों के मंत्री बैठे हुए किसी राजनीतिक विषय पर बहस कर रहे थे। उनकी आंखों के इशारे, ओठों का हिलना और हाथों का उठना साफ दिखाई देता था। उनके मुख से निकला हुआ एक-एक शब्द साफ-साफ कानों में आता था। एक क्षण के लिए मैं धोखे में आ गया कि जेनेवा ही में बैठा हूँ। जरा और आगे बढ़ा तो संगीत की ध्वनि कानों में आई। मैंने यूरोप में यह आवाज सुनी थी। पहचान गया, पैड्रोस्की की आवाज थी। मेरे आश्चर्य की सीमा न रही। जिन आविष्कारों का बड़े-बड़े विद्वानों को आभास मात्र था, वे सब यहां अपने समुन्नत, पूर्ण रूप में दिखाई दे रहे थे। इस निर्जन स्थान में, आबादी से कोसों दूर, इतनी ऊंचाई पर कैसे इन प्रयोगों में सफलता हुई, ईश्वर ही जान सकते हैं। महात्मा लोग तो योग की क्रियाओं ही में कुशल होते हैं। अध्यात्म उनका क्षेत्र है। विज्ञान पर उन्होंने कैसे आधिपत्य जमाया !

महात्माजी मेरी ओर देखकर मुस्कराए और बोले-विज्ञान अंत:करण को भी गुप्त नहीं छोड़ता। तुम्हें इन बातों से आश्चर्य हो रहा है, पर यथार्थ यह है कि विज्ञान ने योग को बहुत सरल कर दिया है। वह बहिर्जगत् से अब धीरे-धीरे अंतर्जगत् में प्रवेश कर रहा है। मनोयोग की जटिल क्रियाओं द्वारा जो सिद्धि बरसों में प्राप्त होती थी, वह अब क्षणों में हो जाती है। कदाचित् वह समय दूर नहीं कि हम विज्ञान द्वारा मोक्ष भी प्राप्त कर सकेंगे।

मैंने पूछा-क्या पूर्व समय का ज्ञान भी किसी प्रयोग द्वारा हो सकता है?

महात्मा-हो सकता है, लेकिन उससे किसी उपकार की आशा नहीं। विज्ञान अगर प्राणियों का उपकार न करे, तो उसका मिट जाना ही अच्छा। केवल जिज्ञासा को शांत करने, विलास में योग देने, या यथार्थ की सहायता करने के लिए योग करना उसका दुरुपयोग करना है। मैं चाहूँ तो अभी एक क्षण में यूरोप के बड़े-से-बड़े नगर को नष्ट-भ्रष्ट कर दूं, लेकिन विज्ञान प्राण-रक्षा के लिए है, वध करने के लिए नहीं।

मुझे निराशा तो हुई, पर आग्रह न कर सका। शाम तक प्रयोगशाला के यंत्रों को देखता रहा। किंतु उनमें अब मन न लगता था। यही धुन सवार थी कि क्योंकर यह दुस्तर कार्य सिद्ध करूं। आखिर उन्हें किसी तरह पसीजते न देखकर मैंने उसी, हिकमत से काम लिया, जो निरुपायों का आधार है। बोला-भगवन्, आपने वह सब कर दिखाया जिसका संसार के विज्ञानवेत्ता अभी केवल स्वप्न देख रहे हैं।

महात्माजी पर इन शब्दों का वही असर पड़ा, जो मैं चाहता था। यद्यपि मैंने यथार्थ ही कहा था, लेकिन कभी-कभी यथार्थ भी खुशामद का काम कर जाता है। प्रसन्न होकर बोले-मैं गर्व तो नहीं करता; पर ऐसी प्रयोगशाला संसार में दूसरी नहीं है।

मैं-यूरोपवालों को खबर मिल जाए , तो आपको आराम से बैठना मुश्किल हो जाए । महात्मा-मैंने कितनी ही नई-नई बातें खोज निकालीं, पर उनका गौरव आज दूसरों को प्राप्त है। लेकिन इसकी क्या चिंता ! मैं विज्ञान का उपासक हूँ, अपनी ख्याति और गौरव का नहीं।

मैं-आपने इस देश का मुख उज्ज्वल कर दिया।

महात्मा-मेरा यान आकाश में जितनी ऊंचाई तक पहुँच सकता है, उसकी यूरोपवाले कल्पना भी नहीं कर सकते। मुझे विश्वास है कि शीघ्र ही मेरी चन्द्रलोक की यात्रा सफल होगी। यूरोप के वैज्ञानिकों की तैयारियां देख-देखकर मुझे हंसी आती है। जब तक हमको वहां की प्राकृतिक स्थिति का ज्ञान न हो, हमारी यात्रा सफल नहीं हो सकती। सबसे पहले विचारधाराओं को वहां ले जाना होगा। विद्वान् लोग भी कभी-कभी बालकों की-सी कल्पनाएं करने लगते हैं।

मैं-वह दिन हमारे लिए सौभाग्य और गर्व का होगा।

महात्मा-प्राचीन काल में ऋषिगण योग-बल से त्रिकाल-दृष्टि प्राप्त किया करते थे। पर उसमें बहुधा भ्रम हो जाता था। उसकी सहायता का कोई प्रत्यक्ष प्रमाण न होता था। मैंने वैज्ञानिक परीक्षाओं से उस कार्य को सिद्ध किया है। प्रण तो मैंने यही किया था कि किसी को यह रहस्य न बताऊंगा, लेकिन तुम्हारी तपस्या देखकर दया आ रही है ! मेरे साथ आओ।

मैं महात्माजी के पीछे-पीछे एक ऐसी गुफा में पहुंचा, जहां केवल एक छोटी-सी चौकी रखी हुई थी। महात्माजी ने गंभीर मुख से कहा-तुम्हें यह बात गुप्त रखनी होगी।

मैंने कहा-जैसी आज्ञा।

महात्मा-तुम इसका वचन देते हो?

मैं-आप इसकी किचित् मात्र भी चिंता न करें।

महात्मा-अगर किसी यश और धन के इच्छुक को यह खबर मिल गई, तो वह संसार में एक महान् क्रांति उपस्थित कर देगा और कदाचित् मुझे प्राणों से हाथ धोना पड़े। मैं मर जाऊंगा, किंतु इस गुप्त ज्ञान का प्रचार न करूंगा। तुम इस चौकी पर लेट जाओ और आंखें बंद कर लो।

चौकी पर लेटते ही मेरी आंखें झपक गईं और पूर्व जन्म के दृश्य आंखों के सामने आ गए। हां प्रिये, मेरा अतीत जीवित हो गया। यही भवन था; यही माता-पिता थे, जिनकी तसवीरें दीवानखाने में लगी हुई हैं। मैं लड़कों के साथ बाग में गेंद खेल रहा था। फिर दूसरा दृश्य सामने आया। मैं गुरु की सेवा में बैठा हुआ पढ़ रहा था। यह वही गुरुजी थे, जिनकी तसवीर तुम्हारे कमरे में है, एक तिल का भी अंतर नहीं है। इसके बाद युवावस्था का दृश्य आया। मैं तुम्हारे साथ एक नौका पर बैठा हुआ नदी में जल-क्रीड़ा कर रहा था। याद है वह दृश्य, जब हवा वेग से चलने लगी थी और तुम डर कर मेरे हृदय से चिपट गई थीं।

देवप्रिया-खूब याद है, प्राणेश! खूब याद है।

राजकुमार-वह दृश्य याद है, जब मैं लता-कुंज में घास पर बैठा हुआ तुम्हें पुष्पाभषणों से अलंकृत कर रहा था?

देवप्रिया-हां प्राणनाथ ! खूब याद है। यही तो स्थान है।

राजकुमार-पांचवां दृश्य वह था, जब मैं मृत्यु-शय्या पर पड़ा हुआ था। माता-पिता सिरहाने खड़े थे और तुम मेरे पैरों पर सिर रखे रो रही थीं! याद है?

देवप्रिया-हाय प्राणनाथ ! वह दिन भूल सकती हूँ?

राजकुमार-एक क्षण में मेरी आंखें खुल गईं। पर जो कुछ देखा था, वह सब आंखों में फिर

रहा था, मानो बचपन की बातें हों। मैंने महात्मा से पूछा-मेरे माता-पिता जीवित हैं? उन्होंने एक क्षण आंखें बंद करके सोचने के बाद कहा-उनका देहावसान हो गया है। तुम्हारे शोक में दोनों घुल-घुलकर मर गए।

मैं-और मेरी स्त्री?

महात्मा-वह अभी जीवित है।

मैं-किस नगर में है?

महात्मा-काशी के समीप जगदीशपुर में। किंतु तुम्हारा वहां जाना उचित नहीं, यह ईश्वरी इच्छा के विरुद्ध होगा और संस्कारों के क्रम को पलटना अनिष्ट का मूल है।

मैंने उस समय तो कुछ न कहा, पर उसी क्षण मैंने तुमसे मिलने का दृढ़ संकल्प कर लिया। मुझे अब वहां एक-एक क्षण एक-एक युग हो गया। दो दिन तो मैं किसी तरह रहा, तीसरे दिन मैंने महात्माजी से विदा होकर प्रस्थान कर दिया। महात्माजी बड़े प्रेम से मुझसे गले मिले और चलते-चलते ऐसी क्रिया बतलाई, जिसके द्वारा हम अपनी आयु और बल को इच्छानुसार बढ़ा सकते हैं। तब मुझे गले से लगाकर एक यान पर बैठा दिया। यान मुझे हरिद्वार पहुंचाकर आप-ही-आप लौट गया। यह उनके यानों की विशेषता है। हरिद्वार से मैं सीधा हर्षपुर पहुंचा और एक सप्ताह तक माता-पिता की सेवा में रहकर यहां आ पहुंचा। तुसमे मिलने के पहले मैं कई बार इधर निकला। यहां की हर एक वस्तु मेरी जानी-पहचानी मालूम होती थी। दो-चार पुराने दोस्त भी दिखलाई दिए; पर उनसे मैं बोला नहीं। एक दिन जगदीशपुर की सैर भी कर आया। ऐसा मालूम होता था कि मेरी बाल्यावस्था वहीं गुजरी हो। तुमसे मिलने के पहले कई दिन गहरी चिंता में पड़ा रहा। एक विचित्र शंका होती थी। अकस्मात् तुमसे पार्क में मुलाकात हो गई। कह नहीं सकता, तुम्हें देखकर मेरे चित्त की क्या दशा हुई। ऐसा जी चाहता था, दौड़कर हृदय से लगा लूं। महात्मा के अंतिम शब्द भूल गए और मैं वहां तुमसे मिल गया।

देवप्रिया ने रोते हुए कहा-प्राणनाथ, आपके दर्शन पाते ही मेरा हृदय गद्गद हो गया। ऐसा मालूम हुआ, मानो आपसे मेरा पुराना परिचय है, मानो मैंने आपको कहीं देखा है। आपने एक दृष्टि में मेरे मन के उन भावों को जागृत कर दिया, जिन्हें मेरी विलासिता ने कुचल-कुचलकर शिथिल कर दिया था स्वामी ! मैं आपके चरणों को स्पर्श करने योग्य नहीं हूँ। लेकिन जब तक जीऊंगी, तब तक आपकी स्मृति को हृदय में संचित रखूगी।

राजकुमार-प्रिये, तुम्हें मालूम है, विवाह का संबंध देह से नहीं, आत्मा से है। क्या आत्मा अनंत और अमर नहीं?

देवप्रिया ने इसका कोई उत्तर न दिया। प्रश्नसूचक नेत्रों से राजकुमार की ओर ताकने लगी।

राजकुमार-तो अब तुम्हें मेरे साथ चलने में कोई आपत्ति नहीं है?

देवप्रिया ने रुंधे हुए कंठ से कहा-प्राणनाथ, आप मुझसे यह प्रश्न क्यों करते हैं? आप मेरा उद्धार कर रहे हैं, आपको छोड़कर और किसकी शरण जाऊंगी? अब तो मुझे आप मार-मारकर भी भगाएं, तो आपका दामन न छोडूंगी। आह स्वामी! यह शुभ अवसर जीते-जी मिलेगा, इसकी तो स्वप्न में भी आशा न थी। मेरा सौभाग्य सूर्य इतने दिनों के बाद फिर उदय होगा, यह तो कदाचित् मेरे देवताओं को भी न मालूम होगा। न जाने किसके पुण्य-प्रताप से मुझे यह दिन देखना नसीब हुआ है। कौन स्त्री इतनी सौभाग्यवती हुई है? आपको पाकर मैं सब कुछ पा गई। अब मुझे किसी बात की अभिलाषा नहीं रही। आपकी चेरी हूँ-वही चेरी, जो एक बार आपके ऊपर अपना सर्वस्व अर्पण कर चुकी है।

राजकुमार ने रानी को कंठ से लगाकर कहा-यह हमारा पुनर्संयोग है!

देवप्रिया-नहीं प्राणनाथ, मैं इसे प्रेम-मिलन समझती हूँ।

यह कहते-कहते रानी चुप हो गई। उसे याद आ गया कि मुझ जैसी वृद्धा ऐसे देवरूप पुरुष के योग्य नहीं है। अभी दया के वशीभूत होकर यह मेरा उद्धार कर देंगे, पर दया कब तक प्रेम का पार्ट खेलेगी? संभव है, इनकी दया-दृष्टि मुझ पर सदैव बनी रहे, लेकिन मैं रनिवास की युवतियों को कौन मुंह दिखाऊंगी, जनता के सामने कैसे निकलूंगी? उस दशा में तो दया मेरी रक्षा न कर सकेगी। यह अवस्था तो असह्य हो जाएगी।

राजकुमार ने उसके मनोभावों को ताडकर कहा-प्रिये, तुम्हारे मन में शंकाओं का उठना स्वाभाविक है, लेकिन उन्हें निकाल डालो। मैं विलास का दास होता, तो तुम्हारे पास आता ही नहीं ! मेरे चित्त की वृत्ति वासना की ओर नहीं है। मैं रूप-सौंदर्य का मूल्य जानता हूँ और उनका मुझ पर कोई आकर्षण नहीं हो सकता। मेरे लिए तो तुम इस रूप में भी उतनी ही प्रिय हो। हां, तुम्हारे संतोष के लिए मुझे वह क्रियाएं करनी पड़ेंगी, जो महात्माजी ने चलते-चलते बताई थीं। जिसके द्वारा मैंने मायान्धकार पर विजय पाई, उसके द्वारा काल की गति को भी पलट सकूँगा। मुझे पूरा विश्वास है कि मुरझाया हुआ फूल एक बार फिर हरा हो जाएगा वही छवि, वही सौरभ, वही कोमलता फिर इसकी बलाएं लेंगी। लेकिन तुम्हें भी मेरे लिए बड़े-बड़े त्याग करने पड़ेंगे। संभव है, तुम्हें राजभवन के बदले किसी वन में वृक्षों के नीचे रहना पड़े, रत्न-जटित आभूषणों के बदले वन्य पुष्पों पर ही संतोष करना पड़े। क्या तुम उन कष्टों को सह सकोगी?

देवप्रिया-आपको पाकर अब मुझे किसी भी वस्तु की इच्छा नहीं रही। विलास सच्चे सुख की छाया मात्र है। जिसे सच्चा सुख मयस्सर हो, वह विलास की तृष्णा क्यों करे?

रानी मुंह से तो ये बातें कह रही थीं, किंतु इस विचार से उनका चित्त प्रफुल्लित हो रहा था कि मेरा यौवन-पुष्प फिर खिलेगा और सौंदर्य दीपक फिर जलेगा।

राजकुमार-तो अब मैं जा रहा हूँ। कल संध्या समय फिर आऊंगा। इसी बीच में तुम यात्रा की तैयारी कर लेना।

देवप्रिया ने राजकुमार का हाथ पकड़कर कहा-मैं आपके साथ चलूंगी। मुझे न जाने कैसी शंकाएं हो रही हैं। मैं अब एक क्षण के लिए भी आपको न छोडूंगी।

राजकुमार-यों चलने से लोगों के मन में भांति-भांति की शंकाएं होंगी। मेरे पुनर्जन्म का किसी को विश्वास न आएगा; लोग समझेंगे कि ऐब को छिपाने के लिए यह कथा गढ़ ली गई है, केवल कुत्सित प्रेम को छिपाने के लिए यह कौशल किया गया है। इसलिए तुम किसी तीर्थयात्रा....

रानी ने बात काटकर कहा-मुझे अब लोकनिंदा का भय नहीं है। मैं यह कहने को तैयार हूँ कि अपने प्राणपति के साथ जा रही हूँ।

राजकुमार ने मुस्कराकर कहा-अगर मैं तुमसे दगा करूं, तो?

रानी ने भयातुर होकर कहा-प्राणनाथ, ऐसी बातें न करो। मैं अपने को तुम्हारे चरणों पर अर्पण कर चुकी, लेकिन कुसंस्कारों से मुक्त नहीं हूँ। यदि कोई आदमी कभी आकर मुझसे कहे कि इन्द्रजाल का खेल कर रहे हैं, तो मैं नहीं कह सकती कि मेरी क्या दशा होगी। अलौकिक बातों को समझने के लिए अलौकिक बुद्धि चाहिए और मैं इससे वंचित हूँ। मैं निष्कपट भाव से अपने मन की दुर्बलताएं प्रकट कर रही हूँ। मुझे क्षमा कीजिएगा। अभी बहुत दिन गुजरेंगे, जब मैं इस स्वप्न को यथार्थ समझूगी। इस स्वप्न को भंग न कीजिए। इस वक्त यहीं आराम कीजिए, रात बहुत बीत गई है। मैं तब तक कुंवर विशालसिंह को सूचना दे दूं कि वह आकर अपना राज्य संभालें। कल मैं प्रात:काल आपके साथ चलने को तैयार हो जाऊंगी।

यह कहकर रानी ने राजकुमार के लिए भोजन लाने की आज्ञा दी। जब वह भोजन करने लगे, तो आप ही खड़ी होकर उन्हें पंखा झलने लगी! ऐसा स्वर्गीय आनंद उसे प्राप्त न हुआ था। उसके मर्मस्थल में प्रेम और उल्लास की तरंगें उठ रही थीं; जी चाहता था कि इसी क्षण इनके चरणों पर गिरकर प्राण त्याग दूं।

कुंवर साहब लेटने गए, तो रानी ने विशालसिंह के नाम पत्र लिखा :

'कुंवर विशालसिंहजी,

इतने दिनों तक मायाजाल में फंसे रहने के बाद मेरा चित्त संसार से विरक्त हो गया है। मैं तीर्थयात्रा करने जा रही हूँ और शायद फिर न लौटूंगी। किसी तीर्थस्थान में ही अपने जीवन के शेष दिन काटूंगी। आपको उचित है कि आकर अपने राज्य का भार संभालें। मुझे खेद है कि मेरे कारण आपको बड़े-बड़े कष्ट भोगने पड़े। आपने मेरे साथ जो अनीति की, उसे भी मैं क्षमा करती हूँ। मायान्ध होकर हम सभी ऐसा करते हैं। मेरी आपसे इतनी ही प्रार्थना है कि मेरी लौंडियों और सेवकों पर दया कीजिएगा। मैं अपने साथ कोई चीज नहीं ले जा रही हूँ। मेरी ईश्वर से यही प्रार्थना है कि वह आपको सद्बुद्धि दे और आपकी कीर्ति देश-देशांतरों में फैलाए ! मैं आपको विश्वास दिलाती हूँ कि मेरे लिए इससे बढ़कर आनंद की और कोई बात न होगी।

आपकी-देवप्रिया'

यह पत्र लिखकर रानी ने मेज पर रखा ही था कि उन्हें खयाल आया, मैं अपना राज्य क्यों छोडूं? मैं हर्षपुर से भी तो इसकी देखभाल कर सकती हूँ? साल में महीने-दो महीने के लिए यहां आना कौन मुश्किल है? चलकर प्राणनाथ से पूछू, उन्हें इसमें कोई आपत्ति तो न होगी ! वह राजकुमार के कमरे के द्वार तक गईं, पर अंदर कदम न रख सकीं। खयाल आया, समझेंगे अभी तक इसकी तृष्णा बनी हुई है। उल्टे पांव लौट आई।

रात के दो बज गए थे। देवप्रिया यात्रा की तैयारियां कर रही थी। उसके मन में प्रश्न हो रहा था, कौन-कौन-सी चीजें साथ ले जाऊं? पहले वह अपने वस्त्रागार में गई। शीशे की अलमारियों में एक-से-एक अपूर्व वस्त्र चुने हुए रखे थे। इस समूह में से उसने खोजकर अपनी सोहाग की साड़ी निकाल ली, जिसे पहने आज पच्चीस वर्ष हो गए। आज उसकी शोभा और सभी साड़ियों से बढ़ी हुई थी। उसके सामने सभी कपड़े फीके जंचते थे।

फिर वह अपने आभूषणों की कोठरी में गई। इन आभूषणों पर वह जान देती थी। ये उसे अपने राज्य से भी प्रिय थे। लेकिन इस समय इनको छूते हुए उसे ऐसा भय हो रहा था, मानो चोरी कर रही है। उसने बहुत साहस करके रत्नों का वह संदूकचा निकाला, जिस पर इन पच्चीस बरसों में उसने लाखों रुपए खर्च किए थे और उसे अंचल में छिपाए हुए बाहर निकली। इस लोभ को वह संवरण न कर सकी।

वह अपने कमरे में आकर बैठी ही थी कि गुजराती आकर खड़ी हो गई। देवप्रिया ने पूछा-सोई नहीं?

गुजराती-सरकार नहीं सोईं, तो मैं कैसे सोती?

"मैं तो कल तीर्थ यात्रा करने जा रही हूँ?"

"मुझे भी साथ ले चलिएगा ?"

"नहीं, मैं अकेली जाऊंगी ?"

"सरकार लौटेंगी कब तक?"

"कह नहीं सकती। बहुत दिन लगेंगे। बता, तुझे क्या उपहार दूं?"

"मैं तो एक बार मांग चुकी। लूंगी तो वही लूंगी।"

"मैं तुझे नौलखा हार दूंगी।"

"उसकी मुझे इच्छा नहीं।"

"जड़ाऊ कंगन लेगी?"

"जी नहीं!"

"वह रत्न लेगी, जो बड़ी-बड़ी रानियों को भी मयस्सर नहीं?"

"जी नहीं, वह आप ही को शोभा देगा।"

"पागल है क्या! एक रत्न के दाम एक लाख से कम न होंगे!"

"वह आप ही को मुबारक हो!"

रानी ने रत्नों का संदूकचा खोलकर गुजराती के सामने रख दिया और बोली-इनमें से जो चाहे, निकाल ले।

गुजराती ने संदूकचा बंद करके कहा-मुझे इनमें से कोई न चाहिए।

रानी ने एक क्षण सोचने के बाद कहा-अच्छा, जा वही मूर्ति ले ले।

"आप खुशी से दे रही हैं न?"

"हां, खुशी से!"

"भगवान आपका भला करे!"

यह कहकर गुजराती खुश-खुश वहां से चली गई। थोड़ी ही देर के बाद रानी भी रत्नों का संदूकचा लिए हुई उठी और तोशाखाने में जाकर उसे उस स्थान पर रख दिया, जहां से निकाला था। उनका मन एक क्षण के लिए चंचल हो गया, लेकिन उसे धिक्कारती हुई वह जल्दी से अपने कमरे में चली आईं।

सहसा कोयल की कूक सुनाई दी। रानी ने चौंककर द्वार का पर्दा हटा दिया। उसकी स्निग्ध. मधुर, संगीतमय आभा किवाड़ों के शीशों द्वारा कमरे में प्रवेश कर रही थी, मानो किसी नवयौवना के हृदय में प्रेम का उदय हो रहा हो। उसी नवयौवना की भांति देवप्रिया उस अरुण छटा को देखकर सशंक हो उठी।

उसी समय राजकुमार द्वार पर आकर खड़े हो गए।

रानी ने कहा-मैं तैयार हूँ।

राजकुमार-और मेरा जी चाहता है कि यहीं तुम्हारी उपासना में अपना जीवन व्यतीत करूं। मुझे अपने उद्देश्य में जितनी सफलता हुई, उतनी मुझे आशा न थी। इस देश के सिवा ऐसी देवियां और कहाँ, जो इस भांति अपने को आदर्श पर बलिदान कर दें?

आधे घंटे के बाद राजकुमार भी संध्योपासना करके निकले। मोटर तैयार थी। दोनों आदमी उस पर आ बैठे। जब मोटर चली, तब रानी ने उस भवन को करुण नेत्रों से देखा था और एक ठंडी सांस ली। उसके हृदय की वही दशा हो रही थी, जो किसी नववधू की पति के घर जाते समय होती है। शोक और हर्ष, आशा और दुराशा, ममत्व और विराग का एक विचित्र समावेश हो गया था। घर के नौकर-चाकर, सिपाही-प्यादे सभी सजल नेत्र खड़े थे और मोटर चली जा रही थी।

कायाकल्प : अध्याय दस

मुंशी वज्रधर विशालसिंह के पास से लौटे, तो उनकी तारीफों के पुल बांध दिए। रईस हो तो ऐसा हो। आंखों में कितना शील है ! किसी तरह छोड़ते ही न थे। यों समझो कि लड़कर आया हूँ। प्रजा पर तो जान देते हैं। बेगार की चर्चा सुनी, तो उनकी आंखों में आंसू भर गए। उनके जमाने में प्रजा चैन करेगी। यह तारीफ सुनकर चक्रधर को विशालसिंह से श्रद्धा-सी हो गई। उनसे मिलने गए और समिति के संरक्षकों में उनका नाम दर्ज कर लिया। तब से कुंवर साहब समिति की सभाओं में नित्य सम्मिलित होते थे। अतएव अबकी उनके यहां कृष्णाष्टमी का उत्सव हुआ, तब चक्रधर पर अपने सहवर्गियों के साथ उसमें शरीक हुए।

कुंवर साहब कृष्ण के परम भक्त थे। उनका जन्मोत्सव बड़ी धूमधाम से मनाते थे। उनकी स्त्रियों में इस विषय में मतभेद था। उनके व्रत भी अलग-अलग थे। तीज के सिवा तीनों कोई एक व्रत न रखती थीं। रोहिणी कृष्ण की उपासिका थी, तो वसुमती रामनवमी का उत्सव मनाती थी, नवरात्रि का व्रत रखती, जमीन पर सोती और दुर्गा पाठ सुनती। रही रामप्रिया, वह कोई व्रत न रखती थी। कहती-इस दिखावे से क्या फायदा? मन शुद्ध चाहिए, यही सबसे बड़ी भक्ति है। जब मन में ईर्ष्या और द्वेष की ज्वाला दहक रही हो, राग और मत्सर की आंधी चल रही हो, तो कोरा व्रत रखने से क्या होगा! ये उत्सव आपस में प्रीति बढ़ाने के लिए मनाए जाते हैं। जब प्रीति के बदले द्वेष बढ़े, तो उनका न मनाना ही अच्छा !

संध्या हो गई थी। बाहर कंवल, झाड़ आदि जलाए जा रहे थे। चक्रधर अपने मित्रों के साथ बनाव-सजाव में मसरूफ थे। संगीत-समाज के लोग आ पहुंचे थे। गाना शुरू होने ही वाला था कि वसुमती और रोहिणी में तकरार हो गई। वसुमती को यह तैयारियां एक आंख न भाती थीं। उसके रामनवमी के उत्सव में सन्नाटा-सा रहता था। विशालसिंह उस उत्सव में उदासीन रहते थे। वसुमती इसे उनका पक्षपात समझती थी। उसके विचार से उनके इस असाधारण उत्साह का कारण कृष्ण की भक्ति नहीं, रोहिणी के प्रति स्नेह था। वह दिल में जल-भुन रही थी। रोहिणी सोलहों शृंगार किए पकवान बना रही थी। कदाचित् वसुमती को जलाने ही के लिए आप ही आप गीत गा रही थी। घर के सब बरतन उसी के यहां बिधे हुए थे। उसका यह अनुराग देख-देखकर वसुमती के कलेजे पर सांप-सा लोट रहा था। वह इस रंग में भंग मिलाना चाहती थी। सोचते-सोचते उसे एक बहाना मिल गया। महरी को भेजा, जाकर रोहिणी से कह-घर के बरतन जल्दी से खाली कर दें। दो थालियां, दो बटलोइयां, कटोरे, कटोरियां मांग लो? उनका उत्सव रात भर होगा, तो कोई कब तक बैठा उनकी राह देखता रहेगा? उनके उत्सव के लिए दूसरे क्यों भूखों मरें! महरी गई, तो रोहिणी ने तन्नाकर कहा-आज इतनी जल्दी भूख लग गई। रोज तो आधी रात तक बैठी रहती थी, आज आठ बजे ही भूख सताने लगी। अगर ऐसी ही जल्दी है, तो कुम्हार के यहां से हाडियां मंगवा लें। पत्तल मैं दे दूंगी।

वसुमती ने यह सुना, तो आग हो गई- हांडियां चढ़ाएं मेरे दुश्मन ! जिनकी छाती फटती हो, मैं क्यों हांडी चढाऊं? उत्सव मनाने की बड़ी साध है, तो नए बासन क्यों नहीं मंगवा लेती? अपने कृष्ण से कह दें, गाड़ी भर बरतन भेज दें। क्या जबरदस्ती दूसरों को भूखों मारेंगी?

रोहिणी रसोई से बाहर निकलकर बोली-बहन, जरा मुंह संभालकर बातें करो। देवताओं का अपमान करना अच्छा नहीं।

वसुमती-अपमान तो तुम करती हो, व्रत के दिन यों बन-ठनकर इठलाती फिरती हो। देवता रंग-रूप नहीं देखते, भक्ति देखते हैं !

रोहिणी-मैं बनती-ठनती हूँ, तो दूसरे की आंखें क्यों फूटती हैं? भगवान के जन्म के दिन भी न बनूं-ठनूं? उत्सव में तो रोया नहीं जाता !

वसुमती-तो और बनो-ठनो, मेरे अंगूठे से। आंखें क्यों फोड़ती हो? आंखें फूट जाएंगी, तो चल्लू भर पानी भी न दोगी!

रोहिणी-आज लड़ने ही पर उतारू हो आई हो क्या? भगवान सब दु:ख दें, पर बुरी संगत न दें। लो, यही गहने-कपड़े आंखों में गड़ रहे हैं? न पहनूंगी। जाकर बाहर कह दें, पकवान, प्रसाद किसी हलवाई से बनवा लें। मुझे क्या, मेरे मन का हाल भगवान् आप जानते हैं, पड़ेगी उन पर जिनके कारण यह सब हो रहा है।

यह कहकर सेहिणी अपने कमरे चली गई। सारे गहने-कपड़े उतार फेंके और मुंह ढांपकर चारपाई पर पड़ रही। ठाकुर साहब ने यह समाचार सुना, तो माथा कूटकर बोले-इन चाण्डालिनों से आज शुभोत्सव के दिन भी शांत नहीं बैठा जाता। इस जिंदगी से तो मौत ही अच्छी है। घर में आकर रोहिणी से बोले-तुम मुंह ढांपकर सो रही हो, या उठकर पकवान बनाती हो?

रोहिणी ने पड़े-पड़े उत्तर दिया-फट पड़े वह सोना जिससे टूटे कान। ऐसे उत्सव से बाज आई, जिसे देखकर घर वालों की छाती फटे।

विशालसिंह-तुमसे तो बार-बार कहा कि उसके मुंह न लगा करो। एक चुप सौ वक्ताओं को हरा सकता है। दो बातें सुन लो, तो तीसरी बात कहने का साहस न हो। फिर तुमसे बडी भी तो ठहरीं; यों भी तुमको उनका लिहाज करना ही चाहिए।

जिस दिन वसुमती ने विशालसिंह को व्यंग्य-बाण मारा था, जिसकी कथा हम कह चके हैं, उसी दिन से उन्होंने उससे बोलना-चालना छोड़ दिया था। उससे कुछ डरने लगे थे, उसके क्रोध की भयंकरता का अंदाजा पा लिया था। किंतु रोहिणी क्यों दबने लगी? यह उपदेश सुना, तो झंझलाकर बोली-रहने भी दो, जले पर नमक छिड़कते हो। जब बड़ा देख-देखकर जले, बात-बात पर कोसे, तो कोई कहाँ तक उनका लिहाज करे? उन्हें मेरा रहना जहर लगता है, तो क्या करूं? घर छोड़कर निकल जाऊं? वह इसी पर लगी हुई हैं। तुम्हीं ने उन्हें सिर चढ़ा लिया है। कोई बात होती है, तो मुझी को उपदेश करने दौड़ते हो, सीधा पा लिया है न ! उनसे बोलते हुए तो तुम्हारा भी कलेजा कांपता है। तुम न शह देते तो उनकी मजाल थी कि यों मुझे आंखें दिखातीं !

विशालसिंह-तो क्या मैं उन्हें सिखा देता हूँ कि तुम्हें गालियां दें?

रोहिणी-और क्या करते हो ! जब घर में कोई न्याय करने वाला नहीं रहा, तो इसके सिवा और क्या होगा? सामने तो चुडैल की तरह बैठी हुई हैं, जाकर पूछते क्यों नहीं? मुंह में कालिख क्यों नहीं लगाते? दूसरा पुरुष होता तो जूतों से बात करता, सारी शेखी किरकिरी हो जाती। लेकिन तुम तो खुद मेरी दुर्गति कराना चाहते हो। न जाने क्यों तुम्हें ब्याह का शौक चर्राया था?

कुंवर साहब ज्यों-ज्यों रोहिणी का क्रोध शांत करने की चेष्टा करते थे, वह और भी बिफरती जाती थी और बार-बार कहती थी, तुमने मेरे साथ क्यों ब्याह किया? यहां तक कि अंत में वह भी गर्म पड़ गए और बोले-और पुरुष स्त्रियों से विवाह करके कौन-सा सुख देते हैं, जो मैं तुम्हें नहीं दे रहा हूँ? रही लड़ाई-झगड़े की बात। तुम न लड़ना चाहो, तो कोई जबर्दस्ती तुमसे न लड़ेगा। आखिर रामप्रिया भी तो इसी घर में रहती है।

रोहिणी-तो मैं स्वभाव ही से लड़ाकू हूँ?

विशालसिंह-यह मैं थोड़े ही कहता हूँ।

रोहिणी-और क्या कहते हो? साफ-साफ कहते हो फिर मुकरते क्यों हो। मैं स्वभाव से ही झफड़ालू हूँ। दूसरों से छेड़-छेड़कर लड़ती हूँ। यह तुम्हें बहुत दूर की सूझी। वाह, क्या नई बात निकाली है ! कहीं छपवा दो, तो खासा इनाम मिल जाएगा।

विशालसिंह-तुम बरबस बिगड़ रही हो। मैंने तो दुनिया की बात कही थी और तुम अपने ऊपर ले गईं।

रोहिणी-क्या करूं, भगवान् ने बुद्धि ही नहीं दी। वहां भी 'अंधेर नगरी और चौपट राजा' होंगे। बुद्धि तो दो ही प्राणियों के हिस्से में पड़ी है, एक आपकी ठकुराइन के-नहीं-नहीं, महारानी के-और दूसरे आपके। जो कुछ बची-खुची, वह आपके सिर में लूंस दी गई।

विशालसिंह-अच्छा, उठकर पकवान बनाती हो कि नहीं? कुछ खबर है, नौ बज रहे हैं। रोहिणी-मेरी बला जाती है। उत्सव मनाने की लालसा नहीं रही।

विशालसिंह-तो तुम न उठोगी?

रोहिणी-नहीं, नहीं, नहीं! या और दो-चार बार कह दूं?

वसुमती सायबान में बैठी हुई दोनों प्राणियों की बातें तन्मय होकर सुन रही थीं, मानो कोई सेनापति अपने प्रतिपक्षी की गति का अध्ययन कर रहा हो, कि कब यह चूके और कब मैं दबा बैलूं। क्षण-क्षण में परिस्थिति बदल रही थी। कभी अवसर आता हुआ दिखाई देता था, फिर निकल जाता था। यहां तक कि अंत में प्रतिद्वंद्वी की एक भद्दी चाल ने उसे अपेक्षित अवसर दे दिया। विशालसिंह को मुंह लटकाए रोहिणी की कोठरी से निकलते देखकर बोली-क्या मेरी सूरत देखने की कसम खा ली है, या तुम्हारे हिसाब से मैं घर में हूँ ही नहीं! बहुत दिन तो हो गए रूठे, क्या जन्म भर रूठे ही रहोगे? क्या बात है, इतने उदास क्यों हो?

विशालसिंह ने ठिठककर कहा-तुम्हारी ही लगाई हुई आग को तो शांत कर रहा था; पर उल्टे हाथ जल गए। यह क्या रोज-रोज तूफान खड़ा करती हो? चार दिन की जिंदगी है इसे हंस-खेलकर नहीं काटते बनता? मैं तो ऐसा तंग हो गया हूँ कि जी चाहता है कि कहीं भाग जाऊं। सच कहता हूँ जिंदगी से तंग आ गया। यह सब आग तुम्हीं लगा रही हो।

वसुमती-कहाँ भागकर जाओगे? नई-नवेली बहू को किस पर छोड़ोगे? नए ब्याह का कुछ सुख तो उठाया ही नहीं।

विशालसिंह-बहुत उठा चुका, जी भर गया।

वसुमती-बस, एक ब्याह और कर लो, एक ही और, जिसमें चौकड़ी पूरी हो जाए।

विशालसिंह-क्या बैठे-बैठे जलाती हो? विवाह क्या किया था, भोग-विलास करने के लिए या तुमसे कोई बड़ी सुंदरी होगी?

वसुमती-अच्छा, आओ, सुनते जाओ।

विशालसिंह-जाने दो, लोग बाहर बैठे होंगे।

वसुमती-अब यही तो नहीं अच्छा लगता। अभी घंटे-भर वहां बैठे चिकनी-चुपड़ी बातें करते रहे तो नहीं देर हुई; मैं एक क्षण के लिए बुलाती हूँ तो भागे जाते हो। इसी दोअक्खी की तो तुम्हें सजा मिल रही है!

यह कहकर वसुमती ने आकर उनका हाथ पकड़ लिया, घसीटती हुई अपने कमरे में ले गई और चारपाई पर बैठाती हुई बोली-औरतों को सिर चढ़ाने का यही फल है। उसे तो तब चैन आए, जब घर में अकेली वही रहे। जब देखो तब अपने भाग्य को रोया करती है, किस्मत फूट गई, मां-बाप ने कुएं में झोंक दिया, जिंदगी खराब हो गई। यह सब मुझसे नहीं सुना जाता, यही मेरा अपराध है। तुम उसके मन के नहीं हो, सारी जलन इसी बात की है। पूछो, तुझे कोई जबरदस्ती निकाल लाया था, या तेरे मां-बाप की आंखें फूट गई थीं? वहां तो यह मंसूबे थे कि बेटी मुंहजोर है ही, जाते ही जाते राजा को अपनी मुट्ठी में करके रानी बन बैठेगी ! क्या मालूम था कि यहां उसका सिर कुचलने को कोई और बैठा हुआ है। यही बातें खोलकर कह देती हैं, तो तिलमिला उठती है और तुम दौड़ते हो मनाने। बस, उसका मिजाज और आसमान पर चढ़ जाता है। दो दिन, चार दिन रूठी पड़ी रहने दो, फिर देखो, भीगी बिल्ली हो जाती है या नहीं। यह निरंतर का नियम है कि लोहे को लोहा ही काटता है। कुमानस के साथ कुमानस बनने ही से काम चलता है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने नारियों के विषय में जो कहा है, बिल्कुल सच है।

विशालसिंह-यहां वह खटबांस लेकर पड़ी है, अब पकवान कौन बनाए?

वसमती-तो क्या जहां मुर्गा न होगा, वहां सबेरा ही न होगा? आखिर जब वह नहीं थी, तब भी तो जन्माष्टमी मनाई जाती थी। ऐसा कौन-सा बड़ा काम है? मैं बनाए देती हूँ। भगवान और ही बंटे हुए हैं, या मुझे जन्माष्टमी से कोई बैर है!

विशालसिंह ने पुलकित होकर कहा-बस, तुम्हारी इन्हीं बातों पर मेरी जान जाती है। कुलवंती स्त्रियों का यही धर्म है। आज तुम्हारी धानी साड़ी गजब ढा रही है। कवियों ने सच कहा है. यौवन प्रौढ़ होकर और भी अजेय हो जाता है। चंद्रमा का पूरा प्रकाश भी तो पूर्णिमा ही को होता है।

वसुमती-खुशामद करना कोई तुमसे सीख ले।

विशालसिंह-जो चीज कम हो, वह और मंगवा लेना।

विजय के गर्व से फूली हुई वसुमती आधी रात तक बैठी भांति-भांति के पकवान बनाती रही। द्वेष ने बरसों की सोई हुई कृष्ण-भक्ति को जागृत कर दिया। वह इन कामों में निपुण थी। श्रम से उसे कुछ रुचि-सी थी। निठल्ले न बैठा जाता था। रोहिणी जिस काम को दिन भर मरमरकर करती, उसे वह दो घंटे में हंसते-हंसते पूर्ण कर देती थी। रामप्रिया ने उसे बहुत व्यस्त देखा, तो वह भी आ गई और दोनों मिलकर काम करने लगीं।

विशालसिंह बाहर गए और कुछ देर तक गाना सुनते रहे; पर वहां जी न लगा। फिर भीतर चले आए और रसोईघर के द्वार पर मोढ़ा डालकर बैठ गए। भय था कि कहीं रोहिणी कुछ कह न बैठे और दोनों फिर न लड़ मरें।

वसुमती ने कहा-बाहर क्या हो रहा है?

विशालसिंह-गाना शुरू हो गया है। तुम इतनी महीन पूरियां कैसे बनाती हो? फट नहीं जातीं!

वसुमती-चाहूँ तो इससे भी महीन बेल दूं, कागज मात हो जाए।

विशालसिंह-मगर खिलेंगी न?

वसुमती-खिलाकर दिखा दूं, डब्बे-सी न फूल जायें तो कहना। अभी महारानी नहीं उठीं क्या? इसमें छिपकर बातें सुनने की बुरी लत है। न जाने क्या चाहती है। बहुत औरतें देखीं; लेकिन इसके ढंग सबसे निराले हैं। मुहब्बत तो इसे छू नहीं गई। अभी तुम तीन दिन बाहर कराहते रहे; पर कसम ले लो, जो उसका मन जरा भी मैला हुआ हो। हम लोगों के प्राण तो नखों में समा गए थे। रात-दिन देवी-देवता मनाया करती थीं। वहां पान चबाने, आईना देखने और मांग-चोटी करने के सिवा और दूसरा कोई काम ही न था। ऐसी औरतों पर कभी विश्वास न करें।

विशालसिंह-सब देखता हूँ, और समझता हूँ, निरा गधा नहीं हूँ।

वसुमती-यही तो रोना है कि तुम देखकर भी नहीं देखते, समझकर भी नहीं समझते। जहां उसने मुस्कराकर, आंखें मटकाकर बातें की, मस्त हो गए। लल्लो-चप्पो किया करते हो। थर-थर कांपते रहते हो कि कहीं रानी नाराज न हो जाएं। आदमी में सब ऐब हों, किंतु मेहर-बस न हो। ऐसी कोई बड़ी सुंदर भी तो नहीं है।

रामप्रिया-एक समय सखि सुअर सुंदर! जवानी में कौन नहीं सुंदर होता?

वसुमती-उसके माथे से तों तुम्हारे तलुवे अच्छे। सात जन्म ले, तो भी तुम्हारे गर्द को न

पहुंचे।

विशालसिंह-मैं मेहर-बस हूँ?

वसुमती-और क्या हो?

विशालसिंह-मैं उसे ऐसी-ऐसी बातें कहता हूँ कि वह भी याद करती होगी। घंटों रुलाता हूँ।

वसुमती-क्या जाने, यहां तो जब देखती हूँ, उसे मुस्कराते देखती हूँ! कभी आंखों में आंसू न देखा।

रामप्रिया-कड़ी बात भी हंसकर कही जाए, तो मीठी हो जाती है।

विशालसिंह-हंसकर नहीं कहता। डांटता हूँ, फटकारता हूँ। लौंडा नहीं हूँ कि सूरत पर लटू हो जाऊं।

वसुमती-डांटते होगे; मगर प्रेम के साथ। ढलती उम्र में सभी मर्द तुम्हारे ही जैसे हो जाते हैं। कोई नई बात नहीं है। मैं तुमसे लाख रूठी रहूँ, लेकिन तुम्हारा मुंह जरा भी गिरा देखा और जान निकल गई। सारा क्रोध हवा हो जाता है। वहां जब तक जाकर पैर न सहलाओ, तलुओं से आख न मलो, देवीजी सीधी ही नहीं होतीं। कभी-कभी तुम्हारी लंपटता पर मुझे हंसी आती है। आदमी कड़े दम चाहिए जिसका अन्याय देखे, उसे डांटे दे, बुरी तरह डांट दे, खून पी लेने पर उतारू हो जाए। ऐसे ही पुरुषों से स्त्रियां प्रेम करती हैं। भय बिना प्रीति नहीं होती। आदमी ने स्त्री की पूजा की कि वह उनकी आंखों से गिरा। जैसे घोड़ा पैदल और सवार पहचानता है, उसी तरह औरत भी भकुए और मर्द को पहचानती है। जिसने सच्चा आसन जमाया और लगाम कड़ी रखी, उसी की जय है। जिसने रास ढीली कर दी, उसकी कुशल नहीं।

रामप्रिया मुंह फेरकर मुस्कराई और बोली-बहन, तुम सब गुर बताए देती हो, किसके माथे जाएगी?

वसुमती-हम लोगों की लगाम कब ढीली थी?

रामप्रिया-जिसकी लगाम कभी कड़ी न थी, वह आज लगाम तानने से थोड़े ही काबू में आई जाती है और भी दुलत्तियां झाड़ने लगेगी।

विशालसिंह-मैंने तो अपनी जान में कभी लगाम ढीली नहीं की। आज ही देखो, कैसी फटकार बताई।

वसुमती-क्या कहना है, जरा मूंछे खड़ी कर लो, लाओ, पगिया मैं सवार दूं। यह नहीं कहते कि उसने ऐसी-ऐसी चोटें कीं कि भागते ही बना!

सहसा किसी के पैरों की आहट पाकर वसुमती ने द्वार की ओर देखा। रोहिणी रसोई के द्वार से दबे पांव चली जा रही थी। मुंह का रंग उड़ गया। दांतों से ओठ दबाकर बोली-छिपी खड़ी थी। मैंने साफ देखा। अब घर में रहना मुश्किल है। देखो, क्या रंग लाती है।

विशालसिंह ने पीछे की ओर सशंक नेत्रों से देखकर कहा-बड़ा गजब हुआ। चुडैल सब सुन गई होगी। मुझे जरा भी आहट न मिली।

वसुमती-उंह, रानी रूठेंगी, अपना सोहाग लेंगी। कोई कहाँ तक डरे? आदमियों को बलाओ, यह सामान यहां से ले जाएं।

भादों की अंधेरी रात थी। हाथ को हाथ न सूझता था। मालूम होता था, पृथ्वी पाताल में चली गई है या किसी विराट जंतु ने उसे निगल लिया है। मोमबत्तियों का प्रकाश तिमिर सागर में पांव रखते कांपता था। विशालसिंह भोग के पदार्थ थालियों में भरवा-भरवाकर बाहर रखवाने में लगे हुए थे। कोई केले छील रहा था, कोई खीरे काटता था। कोई दोनों में प्रसाद सजा रहा था। एकाएक रोहिणी एक चादर ओढ़े हुए घर से निकली और बाहर की ओर चली। विशालसिंह दहलीज के द्वार पर खड़े थे। इस भरी सभा में उसे यों निश्शंक भाव से निकलते देखकर उनका रक्त खौलने लगा। जरा भी न पूछा, कहाँ जाती हो, क्या बात है। मूर्ति की भांति खड़े रहे। दिल ने कहा-जिसने इतनी बेहयाई की, उससे और क्या आशा की जा सकती है? वह जहां जाती हो, जाए; जो जी में आए, करे। जब उसने मेरा सिर ही नीचा कर दिया, तो मुझे उसकी क्या परवाह? बेहया, निर्लज्ज तो है ही, कुछ पूढू और गालियां देने लगे, तो मुंह में और भी कालिख लग जाए। जब उसको मेरी परवाह नहीं, तो मैं क्यों उसके पीछे दौडूं? और लोग अपने-अपने काम में लगे हुए थे। रोहिणी पर किसी की निगाह न पड़ी।

इतने में चक्रधर उनसे कुछ पूछने आए, तो देखा कि महरी उनके सामने खड़ी है और क्रोध से आंखें लाल किए कह रहे हैं-अगर वह मेरी लौंडी नहीं है, तो मैं भी उसका गुलाम नहीं हूँ। अगर वह स्त्री होकर इतना आपे से बाहर हो सकती है, तो मैं पुरुष होकर उसके पैरों पर सिर न रखूगा। इच्छा हो जाए, मैंने तिलांजलि दे दी। अब इस घर में कदम न रखने दूंगा। (चक्रधर को देखकर) आपने भी तो उसे देखा होगा?

चक्रधर-किसे? मैं तो केले छील रहा था। कौन गया है?

विशालसिंह-मेरी छोटी पत्नीजी रूठकर बाहर चली गई हैं। आपसे घर का वास्ता है। आज औरतों में किसी बात पर तकरार हो गई। अब तक तो मुंह फुलाए पड़ी रहीं, अब यह सनक सवार हुई। मेरा धर्म नहीं है कि मैं उसे मनाने जाऊं! आप धक्के खाएंगी। उसके सिर पर कुबुद्धि सवार है।

चक्रधर-किधर गई हैं. महरी?

महरी-क्या जानूं, बाबूजी? मैं तो बरतन मांज रही थी। सामने ही गई होंगी।

चक्रधर ने लपककर लालटेन उठा ली और बाहर निकलकर दाएं-बाएं निगाहें दौड़ाते, तेजी से कदम बढ़ाते हुए चले। कोई दो सौ कदम गए होंगे कि रोहिणी एक वृक्ष के नीचे खड़ी दिखलाई दी। ऐसा मालूम होता था कि वह छिपने के लिए कोई जगह तलाश कर रही है। चक्रधर उसे देखते ही लपककर समीप जा पहुंचे और कुछ कहना ही चाहते थे कि रोहिणी खुद बोली-क्या मुझे पकड़ने आए हो? अपना भला चाहते हो, तो लौट जाओ, नहीं तो अच्छा न होगा। मैं उन पापियों का मुंह न देखूगी।

चक्रधर-आप इस अंधेरे में कहाँ जाएंगी? हाथ को हाथ सूझता नहीं।

रोहिणी-अंधेरे में डर उसे लगता है, जिसका कोई अवलंब हो। जिसका संसार में कोई नहीं, उसे किसका भय? गला काटने वाले अपने होते हैं, पराए गला नहीं काटते। जाकर कह देना, अब आराम से टांगें फैलाकर सोइए, अब तो कांटा निकल गया।

चक्रधर-आप कुंवर साहब के साथ बड़ा अन्याय कर रही हैं। बेचारे लज्जा और शोक से खड़े रो रहे हैं।

रोहिणी-क्यों बातें बनाते हो? वह रोएंगे, और मेरे लिए? मैं जिस दिन मर जाऊंगी, उस दिन घी के चिराग जलेंगे। संसार में ऐसे अभागे प्राणी भी होते हैं। अपने मां-बाप को क्या कहूँ? ईश्वर उन्हें नरक में भी चैन न दे। सोचे थे, बेटी रानी हो जाएगी, तो हम राज करेंगे। यहां जिस दिन डोली से उतरी, उसी दिन से सिर पर विपत्ति सवार हुई। पुरुष रोगी हो, बूढा हो, दरिद्र हो; पर नीच न हो। ऐसा नीच और निर्दयी आदमी संसार में न होगा। नीचों के साथ नीच बनना ही पड़ता है।

चक्रधर-आपके यहां खड़े होने से कुंवर साहब का कितना अपमान हो रहा है, इसकी आपको जरा भी फिक्र नहीं?

रोहिणी-तुम्हीं ने तो मुझे रोक रखा है।

चक्रधर-आखिर आप कहाँ जा रही हैं?

रोहिणी-तुम पूछने वाले कौन होते हो? मेरा जहां जी चाहेगा, जाऊंगी। उनके पांव में मेंहदी नहीं रची हुई थी। उन्होंने मुझे घर से निकलते भी देखा था। क्या इसका मतलब यह नहीं है कि अच्छा हुआ, सिर से बला टली। दुतकार सहकर जीने से मर जाना अच्छा है।

चक्रधर-आपको मेरे साथ चलना होगा।

रोहिणी-तुम्हें यह कहने का क्या अधिकार है?

चक्रधर-जो अधिकार सचेत को अचेत पर, सजान को अजान पर होता है, वहा अधिकार मुझे आपके ऊपर है। अंधे को कुएं में गिरने से बचाना हर एक प्राणी का धर्म है।

रोहिणी-मैं न अचेत हं, न अजान, न अंधी। स्त्री होने ही से बावली नहीं हो गई हूँ। जिस घर में मेरा पहनना-ओढ़ना-हंसना बोलना, देख-देखकर दूसरों की छाती फटती है, जहां कोई अपनी बात तक नहीं पूछता, जहां तरह-तरह के आक्षेप लगाए जाते हैं, उस घर में कदम न रखूगी।

यह कहकर रोहिणी आगे बढ़ी कि चक्रधर ने सामने खड़े होकर कहा-आप आगे नहीं जा सकतीं।

रोहिणी-जबरदस्ती रोकोगे?

चक्रधर-हां, जबरदस्ती रोङगा।

रोहिणी-सामने से हट जाओ।

चक्रधर-मैं आपको एक कदम भी आगे न रखने दूंगा। सोचिए, आप अपनी अन्य बहनों को किस कुमार्ग पर ले जा रही हैं? जब वे देखेंगे कि बड़े-बड़े घरों की स्त्रियां भी रूठकर घर से निकल खड़ी होती हैं, तो उन्हें भी जरा-सी बात पर ऐसा ही साहस होगा या नहीं? नीति के विरुद्ध कोई काम करने का फल अपने ही तक नहीं रहता, दूसरों पर उसका और भी बुरा असर पड़ता है।

रोहिणी-मैं चुपके से चली जाती थी, तुम्हीं तो ढिंढोरा पीट रहे हो।

चक्रधर-जिस तरह रण से भागते हुए सिपाही को देखकर लोगों को उससे घृणा होती है-यहां तक कि उसका वध कर डालना भी पाप नहीं समझा जाता, उसी तरह कुल में, कलंक लगाने वाली स्त्रियों से भी सबको घृणा हो जाती है और कोई उनकी सूरत तक नहीं देखना चाहता। हम चाहते हैं कि सिपाही गोली और आग के सामने अटल खड़ा रहे। उसी तरह हम यह भी चाहते हैं कि स्त्री सब झेलकर अपनी मर्यादा का पालन करती रहे ! हमारा मुंह हमारी देवियों से उज्ज्वल है और जिस दिन हमारी देवियां इस भांति मर्यादा की हत्या करने लगेंगी, उसी दिन हमारा सर्वनाश हो जाएगा।

रोहिणी रुंधे हुए कंठ से बोली-तो क्या चाहते हो कि मैं फिर उसी आग में जलू?

चक्रधर-हां, यही चाहता हूँ। रणक्षेत्र में फूलों की वर्षा नहीं होती। मर्यादा की रक्षा करना उससे कहीं कठिन है।

रोहिणी-लोग हंसेंगे कि घर से निकली तो थी बड़े दिमाग से, आखिर झख मारकर लौट आई।

चक्रधर-ऐसा वही कहेंगे, जो नीच और दुर्जन हैं। समझदार लोग तो आपकी सराहना ही करेंगे।

रोहिणी ने कई मिनट तक आगा-पीछा करने के बाद कहा-अच्छा चलिए, आप भी क्या कहेंगे। कोई बुरा कहे या भला। हां, कुंवर साहब को इतना जरूर समझा दीजिएगा कि जिन महारानी को आज वह घर की लक्ष्मी समझे हुए हैं, वह एक दिन उनको बड़ा धोखा देंगी। मैं कितनी ही आपे से बाहर हो जाऊं, पर अपना ही प्राण दूंगी; वह बिगड़ेंगी तो प्राण लेकर छोड़ेंगी। आप किसी मौके से जरूर समझा दीजिएगा।

यह कहकर रोहिणी घर की ओर लौट पड़ी; लेकिन चक्रधर का उसके ऊपर कहाँ तक असर पड़ा और कहाँ तक स्वयं अपनी सहज बुद्धि का, इसका अनुमान कौन कर सकता है? वह लौटते वक्त लज्जा से सिर नहीं गड़ाए हुए थी, गर्व से उसकी गर्दन उठी हुई थी। उसने अपनी टेक को मर्यादा की वेदी पर बलिदान कर दिया था; पर उसके साथ ही उन व्यंग्य वाक्यों की रचना भी कर ली थी, जिससे वह कुंवर साहब का स्वागत करना चाहती थी।

जब दोनों आदमी घर पहुंचे, तो विशालसिंह अभी तक वहां मूर्तिवत् खड़े थे, महरी भी खड़ी थी। भक्त जन अपना-अपना काम छोड़कर लालटेन की ओर ताक रहे थे। सन्नाटा छाया हुआ था।

रोहिणी ने दहलीज में कदम रखा; मगर ठाकुर साहब ने उसकी ओर आंख उठा कर भी न देखा। जब वह अंदर चली गई, तो उन्होंने चक्रधर का हाथ पकड़ लिया और बोले-मैं तो समझता था किसी तरह न आएगी; मगर आप खींच ही लाए। क्या बहुत बिगड़ती थी?

चक्रधर ने कहा-आपको कुछ नहीं कहा। मुझे तो बहुत समझदार मालूम होती हैं। हां, मिजाज नाजुक है; बात बर्दाश्त नहीं कर सकतीं।

विशालसिंह-मैं यहां से टला तो नहीं, लेकिन सच पूछिए तो ज्यादती मेरी ही थी। मेरा क्रोध बहुत बुरा है। अगर आप न पहुँच जाते तो बड़ी मुश्किल पड़ती। जान पर खेल जानेवाली स्त्री है। आपका यह एहसान कभी न भूलूंगा। देखिए तो, सामने कुछ रोशनी-सी मालूम हो रही है, बैंड भी बज रहा है। क्या माजरा है?

चक्रधर-हां, मशालें और लालटेनें हैं। बहुत से आदमी भी साथ हैं। और लोग भी आंगन में उतर आए और सामने देखने लगे। सैकड़ों आदमी कतार बांधे मशालों और लालटेनों के साथ चले आ रहे थे, आगे-आगे दो अश्वारोही भी नजर आते थे। बैंड की मनोहर ध्वनि आ रही थी। सब खड़े-खड़े देख रहे थे; पर किसी की समझ में न आता था कि माजरा क्या है !

कायाकल्प : अध्याय ग्यारह

सभी लोग बड़े कुतूहल से आने वालों को देख रहे थे। कोई दस-बारह मिनट में वह विशालसिंह के घर के सामने आ पहुंचे। आगे-आगे दो घोड़ों पर मुंशी वज्रधर और ठाकुर हरिसेवकसिंह थे। पीछे कोई पचीस-तीस आदमी साफ-सुथरे कपड़े पहने चले आते थे। दोनों तरफ कई झंडीबरदार थे, जिनकी झंडियां हवा में लहरा रही थीं। सबसे पीछे बाजे वाले थे ! मकान के सामने पहुँचते ही दोनों सवार घोड़ों से उतर पड़े और हाथ बांधे हुए कुंवर साहब के सामने आकर खड़े हो गए। मुंशीजी की सज-धज निराली थी। सिर पर एक शमला था, देह पर एक नीचा आबा। ठाकुर साहब भी हिंदुस्तानी लिबास में थे। मुंशीजी खुशी से मुस्कराते थे, पर ठाकुर साहब का मुख मलिन था।

ठाकुर साहब बोले-दीनबंधु, हम सब आपके सेवक आपकी सेवा में यह शुभ सूचना देने के लिए हाजिर हुए हैं कि महारानी ने राज्य से विरक्त होकर तीर्थयात्रा को प्रस्थान किया है और अब हमें श्रीमान् की छत्रछाया के नीचे आश्रय लेने का वह स्वर्णावसर प्राप्त हुआ है, जिसके लिए हम सदैव ईश्वर से प्रार्थना करते रहते थे। यह हमारा परम सौभाग्य है कि आज से श्रीमान् हमारे भाग्यविधाता हुए। यह पत्र है, जो महारानीजी ने श्रीमान् के नाम लिख रखा था।

यह कहकर ठाकुर साहब ने रानी का पत्र विशाल सिंह के हाथ में दिया। कुंवर साहब ने एक ही निगाह में आद्योपांत पढ़ लिया और उनके मुख पर मंद हास्य की आभा झलकने लगी। पत्र जेब में रखते हुए बोले-यद्यपि महारानी की तीर्थ यात्रा का समाचार जानकर मुझे अत्यंत खेद हो रहा है, लेकिन इस बात का सच्चा आनंद भी है कि उन्होंने निवृत्ति मार्ग पर पग रखा; क्योंकि ज्ञान ही से मुक्ति प्राप्त होती है। मेरी ईश्वर से यही विनय है कि उसने मेरी गर्दन पर जो कर्तव्य का भार रखा है उसे संभालने की मुझे शक्ति दे और प्रजा के प्रति मेरा जो धर्म है, उसके पालन करने की भी शक्ति प्रदान करे। आप लोगों को मैं विश्वास दिलाता हूँ कि मैं यथासाध्य अपना कर्त्तव्य पालन करने में ऊंचे आदर्शों को सामने रखूगा; लेकिन सफलता बहुत कुछ आप ही लोगों की सहानुभूति और सहकारिता पर निर्भर है, और मुझे आशा है कि आप मेरी सहायता करने में किसी प्रकार की कोताही न करेंगे। मैं इस समय यह भी जता देना अपना कर्त्तव्य समझता हूँ कि मैं अत्याचार का घोर शत्रु हूँ और ऐसे महापुरुषों को, जो प्रजा पर अत्याचार करने के अभ्यस्त रहे हैं, मुझसे जरा भी नरमी की आशा न रखनी चाहिए।

इस कथन में शिष्टता की मात्रा अधिक और नीति की बहुत कम थी, फिर भी सभी राज्य कर्मचारियों को यह बातें अप्रिय जान पड़ीं। सबके कान खड़े हो गए और हरिसेवक को तो ऐसा मालूम हुआ कि यह निशाना मुझी पर है। उनके प्राण सूख गए। सभी आपस में कानाफूसी करने लगे।

कुंवर साहब ने लोगों को ले जाकर फर्श पर बैठाया और खुद मसनद लगाकर बैठे। नजराने की निरर्थक रस्म अदा होने लगी। बैंड ने बधाई देनी शुरू की। चक्रधर ने पान और इलायची से सबका सत्कार किया। कुंवर साहब का जी बार-बार चाहता था कि घर में जाकर यह सुख-संवाद सुनाऊं; पर मौका न देखकर जब्त किए हुए थे। मुंशी वज्रधर अब तक खामोश बैठे थे। ठाकुर हरिसेवक को यह खुशखबरी सुनाने का मौका देकर उन्होंने अपने ऊपर कुछ कम अत्याचार न किया था। अब उनसे चुप न रहा गया। बोले-हुजूर, आज सबसे पहले मुझी को यह हाल मालूम हुआ।

हरिसेवक ने इसका खंडन किया-मैं तो आपके साथ ही पहुँच गया था।

वज्रधर-आप मुझसे जरा देर बाद पहुंचे। मेरी आदत है कि बहुत सबेरे उठता हूँ। देर तक सोता, तो एक दिन भी तहसीलदारी न निभती। बड़ी हुकूमत की जगह है, हुजूर ! वेतन तो कुछ ऐसा ज्यादा न था; पर हुजूर, अपने इलाके का बादशाह था। खैर, ड्योढ़ी पर पहुंचा तो सन्नाटा छाया हुआ था। न दरबान का पता, न सिपाही का। घबराया कि माजरा क्या है। बेधड़क अंदर चला गया। मुझे देखते ही गुजराती रोती हुई दौड़ी आई और तुरंत रानी साहब का खत लाकर मेरे हाथ में रख दिया। रानी जी ने उससे शायद यह खत मेरे ही हाथ में देने को कहा था।

हरिसेवक-यह तो कोई बात नहीं। मैं पहले पहुँचता, तो मुझे खत मिलता। आप पहले पहुंचे, आपको मिल गया।

वज्रधर-आप नाराज क्यों होते हैं। मैंने तो केवल अपना विचार प्रकट किया है। वह खत पढ़कर मेरी जो दशा हुई, बयान नहीं कर सकता। कभी रोता था, कभी हंसता था। बस, यही जी चाहता था कि उड़कर हुजूर को खबर दूं। ठीक उसी समय ठाकुर साहब पहुंचे। है यही बात न, दीवान साहब?

हरिसेवक-मुझे खबर मिल गई थी। आदमियों को चौकसी रखने की ताकीद कर रहा था।

वज्रधर-आपने बाहर से जो कुछ किया हो, मुझे उसकी खबर नहीं, अंदर आप उसी वक्त पहुंचे, जब मैं खत लिए खड़ा था। मैंने आपको देखते ही कहा सब कमरों में ताला लगवा दीजिए और दफ्तर में किसी को न जाने दीजिए।

हरिसेवक-इतनी मोटी-सी बात के लिए मुझे आपकी सलाह की आवश्यकता न थी।

वज्रधर-यह मेरा मतलब नहीं। अगर मैंने तहसीलदारी की है, तो आपने भी दीवानी की है। सरकारी नौकरी न सही, फिर भी काम एक ही है। जब हर एक कमरे में ताला पड़ गया, दफ्तर का दरवाजा बंद कर दिया गया, तो सलाह होने लगी कि हुजूर को कैसे खबर दी जाए । कोई कहता था, आदमी दौड़ाया जाए , कोई मोटर से खबर भेजना चाहता था। मैंने यह मुनासिब नहीं समझा। इतनी उम्र तक भाड़ नहीं झोंका हूँ। जगदीशपुर खबर भेजकर सब कर्मचारियों को बुलाने की राय दी। दीवान साहब को मेरी राय पसंद आई। इसी कारण इतनी देर हुई। हुजूर, सारे दिन दौड़ते-दौड़ते पैरों में छाले पड़ गए। आज दोहरी खुशी का दिन है। गुस्ताखी माफ, मिठाइयां खिलाइए और महफिल जमाइए। एक हफ्ते तक गाना होना चाहिए। हुजूर, यही देना दिलाना, खाना खिलाना याद रहता है।

विशालसिंह-अब इस वक्त तो भजन होने दीजिए, कल यहीं महफिल जमेगी।

वज्रधर-हुजूर, मैंने पहले ही से गाने-बजाने का इंतजाम कर लिया है। लोग आते ही होंगे। शहर के अच्छे-अच्छे उस्ताद बुलाए हैं। हुजूर, एक से एक गुणी हैं। सभी का मुजरा होगा।

अभी तहसीलदार साहब ने बात पूरी भी न की थी कि झिनकू ने अंदर आकर सलाम किया और बोला-दीनानाथ, उस्ताद लोग आ गए हैं। हुक्म हो तो हाजिर हों।

मुंशीजी तुरंत बाहर गए और उस्तादों को हाथों हाथ ले आए। दस-बारह आदमी थे, सबके सब बूढ़े, किसी का मुंह पोपला, किसी की कमर झुकी हुई, कोई आंखों का अंधा। उनका पहनावा देखकर ऐसा अनुमान होता था कि कम-से-कम तीन शताब्दी पहले के मनुष्य हैं। बड़ी नीची अचकन, जिस पर हरी गोट लगी हुई, वही चुनावदार पाजामा, वही उलझी हुई तार-तार पगड़ी, कमर में पटका बंधा हुआ। दो-तीन उस्ताद नंग-धडंग थे, जिनके बदन पर एक लंगोटी के सिवा और कुछ न था। यही सरस्वती के उपासक थे और इन्हीं पर उनकी कृपा-दृष्टि थी।

उस्तादों ने अंदर आकर कुंवर साहब और अन्य सज्जनों को झुक-झुककर सलाम किया और घुटने तोड़-तोड़ बैठे। मुंशीजी ने उनका परिचय कराना शुरू किया। यह उस्ताद मेडूखां हैं, महाराज अलवर के दरबारी हैं, वहां से हजार रुपए सालाना वजीफा मिलता है। आप सितार बजाने में अपना सानी नहीं रखते। किसी के यहां आते-जाते नहीं, केवल भगवद्भजन किया करते हैं। यह चंदू महाराज हैं, पखावज के पक्के उस्ताद। ग्वालियर के महाराज इनसे लाख कहते हैं कि आप दरबार में रहिए। दो हजार रुपए महीने तक देते हैं, लेकिन आपको काशी से प्रेम है। छोड़कर नहीं जाते। यह उस्ताद फजलू हैं, राग-रागिनियों के फिकैत, स्वरों से रागिनियों की तसवीर खींच देते हैं। एक बार आपने लाट साहब के सामने गाया था। जब गाना बंद हआ, तो साहब ने आपके पैरों पर अपना टोपी रख दी और घंटों छाती पीटते रहे। डॉक्टरों ने जब दवा दी, तो उनका नशा उतरा।

विशालसिंह-यहां वह रागिनी न गवाइएगा, नहीं तो लोग लोट-पोट हो जाएंगे। यहां तो डॉक्टर भी नहीं है।

वज्रधर-हुजूर, रोज-रोज यह बातें थोडे ही होती हैं। बड़े से बड़े कलावंत को भी जिदंगी में केवल एक बार गाना नसीब होता है। फिर लाख सिर मारें, वह बात नहीं पैदा होती है।

परिचय के बाद गाना शुरू हुआ। फजलू ने मलार छेड़ा और मुंशीजी झूमने लगे। फजलू भी मुंशीजी ही को अपना कमाल दिखाते थे। उनके सिवा और उनकी निगाह में कोई था ही नहीं। उस्ताद लोग वाह-वाह' का तार बांधे हुए थे; मुंशीजी आंखें बंद किए सिर हिला रहे थे और महफिल के लोग एक-एक करके बाहर चले जा रहे थे। दो-चार सज्जन बैठे थे। वे वास्तव में सो रहे थे। फजलू को इसकी जरा भी परवाह नहीं थी कि लोग उसका गाना पसंद करते हैं या नहीं। उस्ताद उस्तादों के लिए गाते हैं। गुणी गुणियों की ही निगाह में सम्मान पाने का इच्छुक होता है। जनता की उसे परवाह नहीं होती। अगर उस महफिल में अकेले मुंशीजी होते तो भी फजलू इतना ही मस्त होकर गाता। धनी लोग गरीबों की क्या परवाह करते हैं? विद्वान् मूरों को कब ध्यान में लाते हैं? इसी भाति गुणी जन अनाड़ियों की परवाह नहीं करते। उनकी निगाह में मर्मज्ञ का स्थान धन और वैभव के स्वामियों से कहीं ऊंचा होता है।

मलार के बाद फजलू ने 'निर्गुण' गाना शुरू किया; रागिनी का नाम तो उस्ताद ही बता सकते हैं। उस्तादों के मुख से सभी रागिनियां समान रूप धारण करती हुई मालूम होती हैं। आग में पिघलकर सभी धातुएं एक-सी हो जाती हैं। मुंशीजी को इस राग ने मतवाला कर दिया। पहले बैठे-बैठे झमते थे, फिर खड़े होकर झूमने लगे, झूमते-झूमते, आप ही आप उनके पैरों में एक गति-सी होने लगी। हाथ के साथ पैरों से भी ताल देने लगे। यहां तक कि वह नाचने लगे। उन्हें इसकी जरा भी टोप न थी कि लोग दिल में क्या कहते होंगे। गुणी को अपना गुण दिखाते शर्म नहीं आती। पहलवान को अखाड़े में ताल ठोंककर उतरते क्या शर्म! जो लड़ना नहीं जानते, वे ढकेलने से भी अखाडे में नहीं जाते। सभी कर्मचारी मुंह फेर-फेरकर हंसते थे। जो लोग बाहर चले गए थे, वे भी यह तांडव नृत्य देखने के लिए आ पहुंचे। यहां तक कि विशालसिंह भी हंस रहे थे। मुंशीजी के बदले देखने वालों को झेंप हो रही थी, लेकिन मुंशीजी अपनी धुन में मग्न थे। गुणी गुणियों के सामने अनुरक्त हो जाता है। अनाड़ी लोग तो हंस रहे थे और गुणी लोग नृत्य का आनंद उठा रहे थे। नृत्य ही अनुराग की चरम सीमा है।

नाचते-नाचते आनंद से विह्वल होकर मुंशीजी गाने लगे। उनका मुख अनुराग से प्रदीप्त हो रहा था। आज बड़े सौभाग्य से बहुत दिनों के बाद उन्हें यह स्वर्गीय आनंद प्राप्त करने का अवसर मिला था। उनकी बूढी हड्डियों में इतनी चपलता कहाँ से आ गई, इसका निश्चय करना कठिन है। इस समय तो उनकी फुर्ती और चुस्ती जवानों को भी लज्जित करती थी। उनका उछलकर आगे जाना, फिर उछलकर पीछे आना, झुकना और मुड़ना, और एक-एक अंग को फेरना वास्तव में आश्चर्यजनक था। इतने में कृष्ण के जन्म का मुहूर्त आ पहुंचा। सारी महफिल खड़ी हो गई और सभी उस्तादों ने एक स्वर से मंगलगान शुरू किया। साजों के मेले ने समां बांध दिया। केवल दो ही प्राणी ऐसे थे जिन्हें इस समय भी चिंता घेरे हुए थी। एक तो ठाकुर हरिसेवकसिंह, दूसरे कुंवर विशालसिंह। एक को यह चिंता लगी हुई थी कि देखें, कल क्या मुसीबत आती है, दूसरे को यह फिक्र थी कि इस दुष्ट से क्योंकर पुरानी कसर निकालूं। चक्रधर अब तक तो लज्जा से मुंह छिपाए बाहर खड़े थे, मंगल-गान समाप्त होते ही आकर प्रसाद बांटने लगे। किसी ने मोहन भोग का थाल उठाया, किसी ने फलों का। कोई पंचामृत बांटने लगा। हड़बोंग-सा मच गया। कुंवर साहब ने मौका पाया, तो उठे और मुंशी वज्रधर को इशारे से बुला, दालान में ले जाकर पूछने लगे-दीवान साहब ने तो मौका पाकर खूब हाथ साफ किए होंगे?

वज्रधर-मैंने तो ऐसी कोई बात नहीं देखी। बेचारे दिन भर सामान की जांच-पड़ताल करते रहे। घर तक न गए।

विशालसिंह-यह सब तो आपके कहने से किया। आप न होते, तो न जाने क्या गजब ढाते।

वज्रधर-मेरी बातों का यह मतलब न था कि वह आपसे कीना रखते हैं। इन छोटी-छोटी बातों की ओर ध्यान देना उनका काम नहीं है। मुझे तो यह फिक्र थी कि दफ्तर के कागज तैयार हो जाएं। मैं किसी की बुराई न करूंगा। दीवान साहब को आपसे अदावत थी, यह मैं मानता हूँ। रानी साहब का नमक खाते थे और आपका बुरा चाहना उनका धर्म था; लेकिन अब वह आपके सेवक हैं और मुझे पूरा विश्वास है कि वह उतनी ही ईमानदारी से आपकी सेवा करेंगे।

विशालसिंह-आपको पुरानी कथा मालूम नहीं। इसने मुझ पर बड़े-बड़े जुल्म किए हैं। इसी के कारण मुझे जगदीशपुर छोड़ना पड़ा। बस चला होता, तो इसने मुझे कत्ल करा दिया होता?

वज्रधर-गुस्ताखी माफ कीजिएगा। आपका बस चलता, तो क्या रानीजी की जान बच जाती, या दीवान साहब जिंदा रहते? उन पिछली बातों को भूल जाइए। भगवान ने आज आपको ऊंचा रुतबा दिया है। अब आपको उदार होना चाहिए। ऐसी बातें आपके दिल में न आनी चाहिए। मातहतों से उनके अफसर के विषय में कुछ पूछताछ करना अफसर को जलील कर देना है। मैंने इतने दिनों तहसीलदारी की लेकिन नायब साहब ने तहसीलदार के विषय में चपरासियों से कभी कुछ नहीं पूछा। मैं तो खैर इन मामलों को समझता हूँ, लेकिन दूसरे मातहतों से यदि आप ऐसी बातें करेंगे, तो वह अपने अफसर की हजारों बुराइयां आपसे करेंगे। मैंने ठाकुर साहब के मुंह से एक भी बात ऐसी नहीं सुनी, जिससे यह मालूम हो कि वह आपसे कोई अदावत रखते हैं।

विशालसिंह ने कुछ लज्जित होकर कहा-मैं आपको ठाकुर साहब का मातहत नहीं, अपना मित्र समझता हूँ और इसी नाते से मैंने आपसे यह बात पूछी थी। मैंने निश्चय कर लिया था कि सबसे पहला वार इन्हीं पर करूंगा; लेकिन आपकी बातों ने मेरा विचार पलट दिया। आप भी उन्हें समझा दीजिएगा कि मेरी तरफ से कोई शंका न रखें। हां, प्रजा पर अत्याचार न करें।

वज्रधर-नौकर अपने मालिक का रुख देखकर ही काम करता है। रानीजी को हमेशा रुपए की तंगी रहती थी। दस लाख की आमदनी भी उनके लिए काफी न होती थी। ऐसी हालत में ठाकुर साहब को मजबूर होकर प्रजा पर सख्ती करनी पड़ती थी। वह कभी आमदनी और खर्च का हिसाब न देखती थीं। जिस वक्त जितने रुपए की उन्हें जरूरत पड़ती थी, ठाकुर साहब को देने पड़ते थे। जहां तक मुझे मालूम है, इस वक्त रोकड़ में एक पैसा भी नहीं है। गद्दी के उत्सव के लिए रुपयों का कोई-न-कोई और प्रबंध करना पड़ेगा। दो ही उपाय हैं या तो कर्ज लिया जाए, अथवा प्रजा से कर वसूलने के सिवाय ठाकुर साहब और क्या कर सकते हैं?

विशालसिंह-गद्दी के उत्सव के लिए मैं प्रजा का गला नहीं दबाऊंगा। इससे तो यह कहीं अच्छा है कि उत्सव मनाया ही न जाए।

वज्रधर-हुजूर, यह क्या फरमाते हैं? ऐसा भी कहीं हो सकता है?

विशालसिंह-खैर, देखा जाएगा। जरा अंदर जाकर रानियों को भी खुशखबरी दे आऊ।

यह कहकर कुंवर साहब घर में गए। सबसे पहले रोहिणी के कमरे में कदम रखा। वह पीछे की तरफ की खिड़की खोले खड़ी थी। उस अंधकार में उसे अपने भविष्य का रूप खिंचा हुआ नजर आता था। पति की निष्ठुरता ने आज उसकी मदांध आंखें खोल दी थीं। वह घर से निकलने की भूल स्वीकार करती थी, लेकिन कुंवर साहब का उसको मनाने न जाना बहुत अखर रहा था। इस अपराध का इतना कठोर दंड ! ज्यों-ज्यों वह उस स्थिति पर विचार करती थी, उसका अपमानित हृदय और भी तड़प उठता था।

कुंवर साहब ने कमरे में कदम रखते ही कहा-रोहिणी, ईश्वर ने आज हमारी अभिलाषा पूरी की है। जिस बात की आशा न थी, वह पूरी हो गई।

रोहिणी-तब तो घर में रहना और भी मुश्किल हो जाएगा। जब कुछ न था, तभी मिजाज न मिलता था। अब तो आकाश पर चढ़ जाएगा। काहे को कोई जीने पाएगा?

विशालसिंह ने दुःखित होकर कहा-प्रिये, यह इन बातों का समय नहीं है। ईश्वर को धन्यवाद दो कि उसने हमारी विनय सुन ली।

रोहिणी-जब अपना कोई रहा ही नहीं, तो राजपाट लेकर चाटूंगी?

विशालसिंह को क्रोध आया; लेकिन इस भय से कि बात बढ़ जाएगी, कुछ बोले नहीं। वहां से वसुमती के पास पहुंचे। वह मुंह लपेटे पड़ी हुई थी। जगाकर बोले-क्या सोती हो, उठो खुशखबरी सुनाएं।

वसुमती-पटरानीजी को तो सुना ही आए, मैं सुनकर क्या करूंगी? अब तक जो बात मन में थी, वह आज तुमने खोल दी। तो यहां बचा हुआ सत्तू खाने वाले पाहुने नहीं हैं?

विशालसिंह-क्या कहती हो? मेरी समझ में नहीं आता।

वसुमती-हां, अभी भोले-नादान बच्चे हो, समझ में क्यों आएगा? गर्दन पर छुरी फेर रहे हो, ऊपर से कहते हो कि तुम्हारी बातें समझ में नहीं आतीं। ईश्वर मौत भी नहीं देते कि इस आए दिन की दांता-किलकिल से छूटती। यह जलन अब नहीं सही जाती। पीछे वाली आगे आई, आगे वाली कोने में। मैं यहां से बाहर पांव निकालती, तो सिर काट लेते, नहीं तो कैसी खुशामदें कर रहे हो। किसी के हाथों में भी जस नहीं; किसी की लातों में भी जस है।

विशालसिंह दु:खी होकर बोले-यह बात नहीं है, वसुमती ! तुम जान-बूझकर नादान बनती हो। मैं इधर ही आ रहा था। ईश्वर से कहता हूँ, उसका कमरा अंधेरा देखकर चला गया, देखू क्या बात है।

वसुमती-मुझसे बातें न बनाओ, समझ गए? तुम्हें तो ईश्वर ने नाहक मूंछे दे दी। औरत होते तो किसी भले आदमी का घर बसता। जांघ तले की स्त्री सामने से निकल गई और तुम टुकुरटुकुर ताकते रहे। मैं कहती हूँ, आखिर तुम्हें यह क्या हो गया है? उसने कुछ कर-करा तो नहीं दिया? जैसे काया ही पलट हो गई ! जो एक औरत को काबू में नहीं रख सकता, वह रियासत का भार क्या संभालेगा?

यह कहकर उठी और झल्लाई हुई छत पर चली गई। विशालसिंह कुछ देर उदास खड़े रहे, तब रामप्रिया के कमरे में प्रवेश किया। वह चिराग के सामने बैठी कुछ लिख रही थी। पति की आहट पाकर सिर ऊपर उठाया, तो देखा आंखों में आंसू भरे हुए हैं। विशालसिंह ने चौंककर पूछा-क्या बात है, प्रिये, रो क्यों रही हो? मैं तुम्हें एक खुशखबरी सुनाने आया हूँ।

रामप्रिया ने आंसू पोंछते हुए कहा-सुन चुकी हूँ, मगर आप उसे खुशखबरी कैसे कहते हैं? मेरी प्यारी बहन सदा के लिए संसार से चली गई, क्या यह खुशखबरी है? अब तक और कुछ नहीं था, तो उसकी कुशल-क्षेम का समाचार तो मिलता रहता था। अब क्या मालूम होगा कि उस पर क्या बीत रही है। दुखिया ने संसार का कुछ सुख न देखा। उसका तो जन्म ही व्यर्थ हुआ। रोते ही रोते उम्र बीत गई।

यह कहकर रामप्रिया फिर सिसक-सिसककर रोने लगी।

विशालसिंह-उन्होंने पत्र में तो लिखा है कि मेरा मन संसार से विरक्त हो गया है।

रामप्रिया-इसको विरक्त होना नहीं कहते। यह तो जिंदगी से घबराकर भाग जाना है। जब आदमी को कोई आशा नहीं रहती, तो वह मर जाना चाहता है। यह विराग नहीं है। विराग ज्ञान से होता है, और उस दशा में किसी को घर से निकल भागने की जरूरत नहीं होती। जिसे फूलों की सेज पर भी नींद नहीं आती थी, वह पत्थर की चट्टानों पर कैसे सोएगी? बहन से बड़ी भूल हुई। क्या अंत समय ठोकरें खाना ही उसके कर्म में लिखा था?

यह कहकर वह फिर सिसकने लगी। विशालसिंह को उसका रोना बुरा मालूम हुआ। बाहर आकर महफिल में बैठ गए। मेडूखां सितार बजा रहे थे। सारी महफिल तन्मय हो रही थी। जो लोग फजलू का गाना न सुन सके थे, वे भी इस वक्त सिर घुमाते और झूमते नजर आते थे। ऐसा मालूम होता था, मानो सुधा का अनंत प्रवाह स्वर्ग की सुनहरी शिलाओं से गले मिल-मिलकर नन्हीं-नन्हीं फुहारों में किलोल कर रहा हो। सितार के तारों से स्वर्गीय तितलियों की कतारें-सी निकल-निकलकर समस्त वायुमंडल में अपने झीने परों से नाच रही थीं। उसका आनंद उठाने के लिए लोगों के हृदय कानों के पास आ बैठे थे।

किंतु इस आनंद और सुधा के अनंत प्रवाह में एक प्राणी हृदय के ताप से विकल हो रहा था। वह राजा विशालसिंह थे, सारी बारात हंसती थी, दूल्हा रो रहा था।

राजा साहब ऐश्वर्य के उपासक थे। तीन पीढ़ियों से उनके पुरखे यही उपासना करते चले आते थे। उन्होंने स्वयं इस देवता की तन-मन से आराधना की थी। आज देवता प्रसन्न हुए थे। तीन पीढ़ियों की अविरल भक्ति के बाद उनके दर्शन मिले थे। इस समय घर के सभी प्राणियों को पवित्र हृदय से उनकी वन्दना करनी चाहिए थी, सबको दौड़-दौड़कर उनके चरणों को धोना और उनकी आरती करनी चाहिए थी। इस समय ईर्ष्या, द्वेष और क्षोभ को हृदय में पालना उस देवता के प्रति घोर अभक्ति थी। राजा साहब को महिलाओं पर दया न आती, क्रोध आता था। सोच रहे थे, जब अभी से ईर्ष्या के मारे इनका यह हाल है, तो आगे क्या होगा। तब तो आए दिन, तलवारें चलेंगी। इनकी सजा यह है कि इन्हें इसी जगह छोड़ दूं। लड़ें जितना लड़ने का बूता हो, रोएं जितनी रोने की शक्ति हो ! जो रोने के लिए बनाया गया हो, उसे हंसाने की चेष्टा करना व्यर्थ है। इन्हें राजभवन ले जाकर गले का हार क्यों बनाऊं? उस सुख को, जिसका मेरे जीवन के साथ ही अंत हो जाना है, इन क्रूर क्रीड़ाओं से क्यों नष्ट करूं?

कायाकल्प : अध्याय बारह

दूसरी वर्षा भी आधी से ज्यादा बीत गई, लेकिन चक्रधर ने माता-पिता से अहिल्या का वृत्तांत गुप्त ही रखा। जब मुंशीजी पूछते-वहां क्या बात कर आए? आखिर यशोदानंदन को विवाह करना है या नहीं? न आते हैं, न चिट्ठी-पत्री लिखते हैं, अजीब आदमी हैं। न करना हो, तो साफ-साफ कह दें। करना हो, तो उसकी तैयारी करें। ख्वाहमख्वाह झमेले में फंसा रखा है-तो चक्रधर कुछ इधर-उधर की बातें करके टाल जाते। उधर यशोदानंदन बार-बार लिखते, तुमने मुंशीजी से सलाह की या नहीं। अगर तुम्हें उनसे कहते शर्म आती हो, तो मैं आकर कहूँ? आखिर इस तरह कब तक समय टालोगे? अहिल्या तुम्हारे सिवा किसी और से विवाह न करेगी, यह मानी हुई बात है। फिर उसे वियोग का व्यर्थ क्यों कष्ट देते हो? चक्रधर इन पत्रों के जवाब में भी यही लिखते कि मैं खुद फिक्र में हूँ। ज्यों ही मौका मिला, जिक्र करूंगा। मुझे विश्वास है कि पिताजी राजी हो जाएंगे।

जन्माष्टमी के उत्सव के बाद मुंशीजी घर आए, तो उनके हौसले बढ़े हुए थे। राजा साहब के साथ-ही-साथ उनके सौभाग्य का सूर्य उदय होता हुआ मालूम होता था। अब वह अपने ही शहर के किसी रईस के घर चक्रधर की शादी कर सकते थे। अब इस बात की जरूरत न होगी कि लड़की के पिता से विवाह का खर्च मांगा जाए। अब वह मनमाना दहेज ले सकते थे और धूमधाम से बारात निकाल सकते थे। राजा साहब जरूर उनकी मदद करेंगे, लेकिन मुंशी यशोदानंदन को वचन दे चुके थे, इसलिए उनसे एक बार पूछ लेना उचित था। अगर उनकी तरफ से जरा भी विलंब हो, तो साफ कह देना चाहते थे कि मुझे आपके यहां विवाह करना मंजूर नहीं। यों दिल में निश्चय करके एक दिन भोजन करते समय उन्होंने चक्रधर से कहा-मुंशी यशोदानंदन भी कुछ ऊल-जलूल आदमी हैं। अभी तक कानों में तेल डाले हुए बैठे हैं। क्या समझते हैं कि मैं गरजू हूँ?

चक्रधर-उनकी तरफ से तो देर नहीं है। वह तो मेरे खत का इंतजार कर रहे हैं।

वज्रधर-मैं तो तैयार हूँ, लेकिन अगर उन्हें कुछ पसोपेश हो तो मैं उन्हें मजबुर नहीं करना चाहता। उन्हें अख्तियार है, जहां चाहे करें। यहां सैकड़ों आदमी मुंह खोले हुए है। उस वक्त जो बात थी, वह अब नहीं है। तुम आज उन्हें लिख दो कि या तो इसी जाड़े में शादी कर दें, या कहीं और बातचीत करें। उन्हें समझता क्या हूँ! तुम देखोगे कि उनके जैसे आदमी इसी द्वार पर नाक रगड़ेंगे। आदमी को बिगड़ते देर लगती है, बनते देर नहीं लगती। ईश्वर ने चाहा, तो एक बार फिर धूम से तहसीलदारी करूंगा।

चक्रधर ने देखा कि अब अवसर आ गया है। इस वक्त चूके तो फिर न जाने कब ऐसा अच्छा मौका मिले। आज निश्चय ही कर लेना चाहिए। बोले-उन्हें तो कोई पसोपेश नहीं। पसोपेश जो कुछ होगा, आप ही की तरफ से होगा। बात यह है कि कन्या मुंशी यशोदानंदन की पुत्री नहीं

वज्रधर-पुत्री नहीं है ! वह तो लड़की ही बताते थे। तुम्हारे सामने की तो बात है। खैर, पुत्री न होगी, भतीजी होगी, नातिन होगी, बहन होगी। मुझे आम खाने से मतलब है या पेड़ गिनने से, जब लड़की तुम्हें पसंद है और वह अच्छा दहेज दे सकते हैं तो मुझे और किसी बात की चिंता नहीं।

चक्रधर-वह लड़की उन्हें किसी मेले में मिली थी। तब उसकी उम्र तीन-चार बरस की थी। उन्हें उस पर दया आ गई, घर लाकर पाला, पढ़ाया, लिखाया।

वज्रधर-(स्त्री से) कितना दगाबाज आदमी है ! क्या अभी तक लड़की के मां-बाप का पता नहीं चला?

चक्रधर-जी नहीं, मुंशीजी ने उनका पता लगाने की चेष्टा की, पर कोई फल न निकला। वज्रधर-अच्छा, तो यह किस्सा है ! वह झूठा आदमी है, बना हुआ मक्कार।

निर्मला-जो लोग मीठी बातें करते हैं, उनके पेट में छुरी छिपी रहती है। न जाने किस जाति की लड़की है। क्या ठिकाना? तुम साफ-साफ लिख दो, मुझे नहीं करना है। बस!

वज्रधर-मैं तुमसे तो सलाह नहीं पूछता हूँ। तुम्हीं ने इतने दिन नेकनामी के साथ तहसीलदारी नहीं की है। मैं खुद जानता हूँ, ऐसे धोखेबाज के साथ कैसे पेश आना चाहिए।

खाना खाकर दोनों आदमी उठे, तो मुंशीजी ने कहा-कलम-दवात लाओ, मैं इसी वक्त यशोदानंदन को खत लिख दूं। बिरादरी का वास्ता न होता, तो हरजाने का दावा कर देता।

चक्रधर आरक्त मुख और संकोचरुद्ध कंठ से बोले-मैं तो वचन दे आया हूँ।

निर्मला-चल, झूठा कहीं का, खा मेरी कसम !

चक्रधर-सच अम्मां, तुम्हारे सिर की कसम!

वज्रधर-तो यह क्यों नहीं कहते कि तुमने सब कुछ आप ही आप तय कर लिया है। फिर मुझसे क्या सलाह पूछते हो? आखिर विद्वान् हो, बालिग हो, अपना भला-बुरा सोच सकते हो, मुझसे पूछने की जरूरत ही क्या ! लेकिन तुमने लाख एम० ए० पास कर लिया हो, वह तजुरबा कहाँ से लाओगे, जो मुझे है? रीझ गए ! मगर याद रखो, स्त्री में सुंदरता ही सबसे बड़ा गुण नहीं है। मैं तुम्हें हरगिज यह शादी न करने दूंगा।

चक्रधर-अगर और लोग भी यही सोचने लगे तो सोचिए, उस बालिका की क्या दशा होगी?

वज्रधर-तुम कोई शहर के काजी हो? तुमसे मतलब? बहुत होगा, जहर खा लेगी। तुम्ही को उसकी सबसे ज्यादा फिक्र क्यों है? सारा देश तो पड़ा हुआ है।

चक्रधर-अगर दूसरों को अपने कर्त्तव्य का विचार न हो, तो इसका यह मतलब नहीं किमैं भी अपने कर्त्तव्य का विचार न करूं।

वज्रधर-कैसी बेतुकी बातें करते हो, जी ! जिस लड़की के मां-बाप का पता नहीं, उससे विवाह करके क्या खानदान का नाम डुबाओगे? ऐसी बात करते हुए तुम्हें शर्म भी नहीं आती?

चक्रधर-मेरा खयाल है कि स्त्री हो या पुरुष, गुण और स्वभाव ही उसमें मुख्य वस्तु है। इसके सिवा और सभी बातें गौण हैं।

वज्रधर-तुम्हारे सिर नई रोशनी का भूत तो नहीं सवार हुआ था? एकाएक यह क्या कायापलट हो गई?

चक्रधर-मेरी सबसे बड़ी अभिलाषा तो यही है कि आप लोगों की सेवा करता जाऊं, आपकी मर्जी के खिलाफ कोई काम न करूं, लेकिन सिद्धांत के विषय में मजबूर हूँ।

वज्रधर-सेवा करना तो नहीं चाहते, मुंह में कालिख लगाना चाहते हो; मगर याद रखो, तुमने यह विवाह किया तो अच्छा न होगा। ईश्वर वह दिन न लाए कि मैं अपने कुल में कलंक लगते

देखू।

चक्रधर्-तो मेरा भी यही निश्चय है कि मैं और कहीं विवाह न करूंगा।

यह कहते हुए चक्रधर बाहर चले आए और बाबू यशोदानंदन को एक पत्र लिखकर सारा किस्सा बयान किया। उसके अंतिम शब्द ये थे-'पिताजी राजी नहीं होते और यद्यपि मैं सिद्धांत के विषय में उनसे दबना नहीं चाहता; लेकिन उनसे अलग रहने और बुढ़ापे में उन्हें इतना बड़ा सदमा पहुंचाने की मैं कल्पना भी नहीं कर सकता। मैं बहुत लज्जित होकर आपसे क्षमा चाहता हूँ। अगर ईश्वर की यही इच्छा है, तो जीवन-पर्यंत अविवाहित ही रहूँगा, लेकिन यह असंभव है कहीं और विवाह कर लूं। जिस तरह अपनी इच्छा से विवाह करके माता-पिता को दुखी करने की कल्पना नहीं कर सकता, उसी तरह उनकी इच्छा से विवाह करके जीवन व्यतीत करने की कल्पना मेरे लिए असह्य है।'

इसके बाद उन्होंने दूसरा पत्र अहिल्या के नाम लिखा। यह काम इतना आसान न था; प्रेमपत्र की रचना कवित्त की रचना से कहीं कठिन होती है। कवि चौड़ी सड़क पर चलता है, प्रेमी तलवार की धार पर। तीन बजे कहीं जाकर चक्रधर यह पत्र पूरा कर पाया। उसके अंतिम शब्द ये थे-'हे प्रिये, मैं अपने माता-पिता का वैसा ही भक्त हूँ, जैसा कोई और बेटा हो सकता है। उनकी सेवा में अपने प्राण तक दे सकता हूँ, किंतु यदि इस भक्ति और आत्मा की स्वाधीनता में विरोध आ पड़े, तो मुझे आत्मा की रक्षा करने में जरा भी संकोच न होगा। अगर मुझे यह भय न होता कि माता जी अवज्ञा से रो-रोकर प्राण दे देंगी और पिताजी देश-विदेश मारे-मारे फिरेंगे, तो मैं यह असह्य यातना न सहता। लेकिन मैं सब-कुछ तुम्हारे ही फैसले पर छोड़ता हूँ, केवल इतनी ही याचना करता हूँ कि मुझ पर दया करो।'

दोनों पत्रों को डाकघर में डालते हुए वह मनोरमा को पढ़ाने चले गए।

मनोरमा बोली-आज आप बड़ी जल्दी आ गए, लेकिन देखिए, मैं आपको तैयार मिली। मैं जानती थी कि आप आ रहे होंगे, सच!

चक्रधर ने मुस्कराकर पूछा-तुम्हें कैसे मालूम हुआ कि मैं आ रहा हूँ?

मनोरमा-यह न बताऊंगी; किंतु मैं जान गई थी। अच्छा कहिए तो आपके विषय में कुछ और बताऊं। आज आप किसी-न-किसी बात पर रोए हैं। बताइए, सच है कि नहीं?

चक्रधर ने झेंपते हुए कहा-झूठी बात है। मैं क्यों रोता, कोई बालक हूँ?

मनोरमा खिलखिलाकर हंस पड़ी और बोली-बाबूजी, कभी-कभी आप बड़ी मौलिक बात कहते हैं। क्या रोना और हंसना बालकों ही के लिए है? जवान और बूढ़े नहीं रोते?

चक्रधर पर उदासी छा गई। हंसने की विफल चेष्टा करके बोले-तुम चाहती हो कि मैं तुम्हारे दिव्य ज्ञान की प्रशंसा करूं? वह मैं न करूंगा।

मनोरमा-अन्याय की बात दूसरी है, लेकिन आपकी आंखें कहे देती हैं कि आप रोए हैं! (हंसकर) अभी आपने यह विद्या नहीं पढ़ी, जो हंसी को रोने का और रोने को हंसी का रूप दे सकती है।

चक्रधर-क्या आजकल तुम उस विद्या का अभ्यास कर रही हो?

मनोरमा-कर तो नहीं रही हूँ, पर करना चाहती हूँ।

चक्रधर-नहीं मनोरमा, तुम वह विद्या न सीखना; मुलम्मे की जरूरत सोने को नहीं होती।

मनोरमा-होती है, बाबूजी, होती है। इससे सोने का मूल्य चाहे न बढ़े; पर चमक बढ़ जाती है। आपने महारानी की तीर्थयात्रा का हाल तो सुना ही होगा। अच्छा बताइए, आप इस रहस्य को समझते हैं?

चक्रधर-क्या इसमें भी कोई रहस्य है?

मनोरमा और नहीं क्या ! मैं परसों रात को बड़ी देर तक वहीं थी! हर्षपुर के राजकुमार आए हुए थे। उन्हीं के साथ गई हैं।

चक्रधर-खैर होगा। तुमने क्या काम किया है? लाओ, देखू।

मनोरमा-एक छोटा-सा लेख लिखा है; पर आपको दिखाते शर्म आती है।

चक्रधर-तुम्हारे लेख बहुत अच्छे होते हैं। शर्म की क्या बात है?

मनोरमा ने सकुचाते हुए अपना लेख उनके सामने रख दिया और वहां से उठकर चली गई। चक्रधर ने लेख पढ़ा, तो दंग रह गए। विषय था-ऐश्वर्य से सुख ! वे क्या हैं? काल पर विजय, लोकमत पर विजय, आत्मा पर विजय। लेख में इन्हीं तीनों अंगों की विस्तार के साथ व्याख्या की गई थी। चक्रधर उन विचारों की मौलिकता पर मुग्ध तो हुए, पर इसके साथ ही उन्हें उनकी स्वच्छन्दता पर खेद भी हुआ। ये भाव किसी व्यंग्य में तो उपयुक्त हो सकते थे, लेकिन एक विचारपूर्ण निबंध में शोभा न देते थे। उन्होंने लेख समाप्त करके रखा ही था कि मनोरमा लौट आई और बोली-हाथ जोड़ती हूँ बाबूजी, इस लेख के विषय में कुछ न पूछिएगा, मैं इसी के भय से चली गई थी।

चक्रधर-पूछना तो बहुत कुछ चाहता था, लेकिन तुम्हारी इच्छा नहीं है, तो न पूछूगा। केवल इतना बता दो कि ये विचार तुम्हारे मन में क्यों कर आए। ऐश्वर्य का सुख विहार और विलास तो नहीं, यह तो ऐश्वर्य का दुरुपयोग है। यह तो व्यंग्य मालूम होता है।

मनोरमा-आप जो समझिए।

चक्रधर-तुमने क्या समझकर लिखा है?

मनोरमा-जो कुछ आंखों देखा, वही लिखा।

यह कहकर मनोरमा ने वह लेख उठा लिया और तुरंत फाड़कर खिड़की के बाहर फेंक दिया। चक्रधर हां-हां करते रह गए। जब वह फिर अपनी जगह पर आकर बैठी, तो चक्रधर ने गंभीर स्वर से कहा-तुम्हारे मन में ऐसे कुत्सित विचारों को स्थान पाता देखकर मुझे दुःख होता है।

मनोरमा ने सजल नयन होकर कहा-अब मैं ऐसा लेख कभी न लिखूगी।

चक्रधर-लिखने की बात नहीं है। तुम्हारे मन में ऐसे भाव आने ही न चाहिए। काल पर हम विजय पाते हैं, अपनी सुकीर्ति से, यज्ञ से, व्रत से। परोपकार ही अमरत्व प्रदान करता है। काल पर विजय पाने का अर्थ यह नहीं है कि कृत्रिम साधनों से भोग-विलास में प्रवृत्त हों, वृद्ध होकर जवान बनने का स्वप्न देखें और अपनी आत्मा को धोखा दें। लोकमत पर विजय पाने का अर्थ है, अपने सद्विचारों और सत्कर्मों से जनता का आदर और सम्मान प्राप्त करना। आत्मा पर विजय पाने का आशय निर्लज्जता या विषयवासना नहीं, बल्कि इच्छाओं का दमन करना और कुवृत्तियों को रोकना है। यह मैं नहीं कहता कि तुमने जो कुछ लिखा है, वह यथार्थ नहीं है। उनकी नग्न यथार्थता ही ने उन्हें इतना घृणित बना दिया है। यथार्थ का रूप अत्यंत भयंकर होता है। अगर हम यथार्थ को ही आदर्श मान लें तो संसार नरक के तुल्य हो जाए। हमारी दृष्टि मन की दुर्बलता पर पड़नी चाहिए। बल्कि दुर्बलताओं में भी सत्य और सुंदरता की खोज करनी चाहिए। दुर्बलता की ओर हमारी प्रवृत्ति स्वयं इतनी बलवती है कि उसे उधर ढकेलने की जरूरत नहीं। ऐश्वर्य का एक सुख और है, जिसे तुमने न जाने क्यों छोड़ दिया? जानती हो, वह क्या है?

मनोरमा-अब उसकी और व्याख्या करके मुझे लज्जित न कीजिए।

चक्रधर-तुम्हें लज्जित करने के लिए नहीं, तुम्हारा मनोरंजन करने के लिए बताता हूँ। पुरानी बातों को भूल जाना है। ऐश्वर्य पाते ही हमें अपना पूर्व जीवन विस्मृत हो जाता है। हम अपने पुराने हमजोलियों को नहीं पहचानते। ऐसा भूल जाते हैं, मानो कभी देखा ही न था। मेरे जितने धनी मित्र थे, वे मुझे भूल गए। कभी सलाम करता हूँ, तो हाथ तक नहीं उठाते। ऐश्वर्य का यह एक खास लक्षण है। कौन कह सकता है कि कुछ दिनों के बाद तुम्हीं मुझे न भूल जाओगी!

मनोरमा-मैं आपको भूल जाऊंगी! असंभव है। मुझे तो ऐसा मालूम होता है कि पूर्व जन्म में मेरा और आपका किसी-न-किसी रूप में साथ था। पहले ही दिन से मुझे आपसे इतनी श्रद्धा हो गई, मानो पुराना परिचय हो। मैं जब कभी कोई बात सोचती हूँ, तो आप उसमें अवश्य पहुँच जाते हैं। अगर ऐश्वर्य पाकर आपको भूल जाने की संभावना हो तो मैं उसकी ओर आंख उठाकर भी न देखूगी।

चक्रधर ने मुस्कराकर कहा-जब हृदय यही रहे तब तो।

मनोरमा - यही रहेगा। देख लीजिएगा, मैं मरकर भी आपको नहीं भूल सकती।

इतने में ठाकुर हरिसेवक आकर बैठ गए। आज वह बहुत प्रसन्नचित्त मालूम होते थे। अभी थोड़ी ही देर पहले राजभवन से लौटकर आए थे। रात को नशा जमाने का अवसर न मिला था उसकी कसर इस वक्त पूरी कर ली थी। आंखें चढ़ी हुई थीं। चक्रधर से बोले-आपने कल महाराजा साहब के यहां उत्सव का प्रबंध जितनी सुंदरता से किया, उसके लिए आपको बधाई देता हूँ। आप न होते, तो सारा खेल बिगड़ जाता। महाराजा साहब बड़े ही उदार हैं। अब तक मैं उनके विषय में कुछ और ही समझे हुए था। कल उनकी उदारता और सज्जनता ने मेरा संशय दूर कर दिया। आपसे तो बिल्कुल मित्रों का-सा बर्ताव करते हैं।

चक्रधर-जी हां, अभी तक तो उनके बारे में कोई शिकायत नहीं है।

हरिसेवक-महाराज को एक प्राइवेट सेक्रेटरी की जरूरत तो पड़ेगी ही। आप कोशिश करें; तो आपको अवश्य ही वह जगह मिल जाएगी। आप घर के आदमी हैं; आपके हो जाने से बड़ा इत्मीनान हो जाएगा। एक सेक्रेटरी के बगैर महाराजा साहब का कार्य नहीं चल सकता। कहिए तो जिक्र करूं?

चक्रधर-जी नहीं, अभी तो मेरा इरादा कोई स्थायी नौकरी करने का नहीं है; दूसरे, मुझे विश्वास भी नहीं है कि मैं उस काम को संभाल सकूँगा।

हरिसेवक-अजी, काम करने से सब आ जाता है और आपकी योग्यता मेरे सामने है। मनोरमा को पढ़ाने के लिए कितने ही मास्टर आए, कोई भी दो-चार महीने से ज्यादा न ठहरा। आप जब से आए हैं, इसने बहुत खासी तरक्की कर ली है। मैं अब तक आपकी तरक्की नहीं कर सका, इसका मुझे खेद है। इस महीने से आपको पचास रुपए महीने मिलेंगे, यद्यपि मैं इसे भी आपकी योग्यता और परिश्रम को देखते हुए बहुत कम समझता हूँ।

लौंगी देवी भी आ पहुंची। कही-बदी बात थी। ठाकुर साहब का समर्थन करके बोली-देवता रूप हैं, देवता रूप ! मेरी तो इन्हें देखकर भूख-प्यास बंद हो जाती है।

हरिसेवक-तो तुम इन्हीं को देख लिया करो, खाने का कष्ट न उठाना पड़े।

लौंगी-मेरे ऐसे भाग्य कहाँ! क्यों बेटा, तुम नौकरी क्यों नहीं कर लेते?

चक्रधर-जितना आप देती हैं, मेरे लिए उतना ही काफी है।

लौंगी-इसी से शादी-ब्याह नहीं करते? अबकी लाला (वज्रधर) आते हैं, तो उनसे कहती हूँ, लडके को कब तक छूटा रखोगे?

हरिसेवक-शादी यह खुद ही नहीं करते, वह बेचारे क्या करें! यह स्वाधीन रहना चाहते हैं। लौंगी-तो कोई रोजगार क्यों नहीं करते, बेटा?

चक्रधर-अभी इस चरखे में नहीं पड़ना चाहता।

हरिसेवक-यह और ही विचार के आदमी हैं। माया फांस में नहीं पड़ना चाहते।

लौंगी-धन्य है, बेटा, धन्य है ! तुम सच्चे साधु हो।

इस तरह की बातें करके ठाकुर साहब अंदर चले गए। लौंगी भी उनके पीछे-पीछे चली गई। मनोरमा सिर झुकाए दोनों प्राणियों की बातें सुन रही थी और किसी शंका से उसका दिल कांप रहा था। किसी आदमी में स्वभाव के विपरीत आचरण देखकर शंका होती है। आज दादाजी इतने उदार क्यों हो रहे हैं? आज तक इन्होंने किसी को पूरा वेतन भी नहीं दिया, तरक्की करने का जिक्र ही क्या ! आज विनय और दया की मूर्ति क्यों बने जाते हैं, इसमें अवश्य कोई रहस्य है। बाबूजी से कोई कपट लीला तो नहीं करना चाहते हैं? जरूर यही बात है। कैसे इन्हें सचेत कर दूं?

वह यही सोच रही थी कि गुरुसेवकसिंह कंधे पर बंदूक रखे, शिकारी कपड़े पहने एक कमरे से निकल आए और बोले-कहिए, महाशय ! दादाजी तो आज आपसे बहुत प्रसन्न मालूम होते थे।

चक्रधर ने कहा-यह उनकी कृपा है।

गुरुसेवक-कृपा के धोखे में न रहिएगा। ऐसे कृपालु नहीं हैं। इनका मारा पानी भी नहीं मांगता। इस डाइन ने इन्हें पूरा राक्षस बना दिया है। शर्म भी नहीं आती। आपसे जरूर कोई मतलब गांठना चाहते हैं।

चक्रधर ने मुस्कराकर कहा-लौंगी अम्मां से आपका मेल नहीं हुआ?

गुरुसेवक-मेल? मैं उससे मेल करूंगा ! मर जाए, तो कंधा तक न दूं। डाइन है, लंका की डाइन, उसके हथकंडों से बचते रहिएगा। वेतन कभी बाकी न रखिएगा। दादाजी को तो इसने बुद्धू बना छोड़ा है। दादाजी जब किसी पर सख्ती करते हैं, तो तुरंत घाव पर मरहम रखने पहुँच जाती है। आदमी धोखे में आकर समझता है, यह दया और क्षमा की देवी है ! वह क्या जाने कि यही आग लगाने वाली है और बुझाने वाली भी। इसका चरित्र समझने के लिए मनोविज्ञान के किसी बड़े पंडित की जरूरत है।

चक्रधर ने आकाश की ओर देखा, तो घटा घिर आई थी। पानी बरसा ही चाहता था। उठकर बोले-आप इस विद्या में बहुत कुशल मालूम होते हैं।

जब वह बाहर निकल गए, तो गुरुसेवक ने मनोरमा से पूछा-आज दोनों इन्हें क्या पढ़ा रहे थे?

मनोरमा-कोई खास बात तो नहीं थी।

गुरुसेवक-यह महाशय भी बने हुए मालूम होते हैं। सरल जीवन वालों से बहुत घबराता हूँ। जिसे यह राग अलापते देखो, समझ जाओ कि या तो उसके लिए अंगूर खट्टे हैं, या स्वांग रचकर कोई बड़ा शिकार मारना चाहता है।

मनोरमा-बाबूजी उन आदमियों में नहीं हैं।

गुरुसेवक-तुम क्या जानो ! ऐसे गुरुघंटालों को मैं खूब पहचानता हूँ।

मनोरमा-नहीं भाई साहब, बाबूजी के विषय में आप धोखा खा रहे हैं। महाराजा साहब इन्हें अपना प्राइवेट सेक्रेटरी बनाना चाहते हैं, लेकिन वह मंजूर नहीं करते।

गुरुसेवक-सच ! उस जगह का वेतन तो चार-पांच सौ से कम न होगा।

मनोरमा-इससे क्या कम होगा ! चाहें तो इन्हें अभी वह जगह मिल सकती है। राजा साहब इन्हें बहुत मानते हैं, लेकिन यह कहते हैं, मैं स्वाधीन रहना चाहता हूँ। यहां भी अपने घरवालों के बहुत दबाने से आते हैं।

गुरुसेवक-मुझे वह जगह मिल जाए , तो बड़ा मजा आए।

मनोरमा-मैं तो समझती हूँ, इसका दुगुना वेतन मिले, तो भी बाबूजी स्वीकार न करेंगे। सोचिए कितना ऊंचा आदर्श है।

गुरुसेवक-मुझे किसी तरह वह जगह मिल जाती, तो जिंदगी बड़े चैन से कटती।

मनोरमा-अब गांवों का सुधार न कीजिएगा?

गुरुसेवक-वह भी करता रहूँगा, यह भी करता रहूँगा। राजमंत्री होकर प्रजा की सेवा करने का जितना अवसर मिल सकता है, उतना स्वाधीन रहकर नहीं। कोशिश करके देखू, इसमें तो कोई बुराई नहीं है।

यह कहते हुए वह कमरे में चले गए।

मेघों का दल उमड़ा चला आता था। मनोरमा खिड़की के सामने खड़ी आकाश की ओर भयातुर नेत्रों से देख रही थी। अभी बाबूजी घर न पहुंचे होंगे। पानी आ गया तो जरूर भीग जाएंगे। मुझे चाहिए था कि उन्हें रोक लेती। भैया न आ जाते, तो शायद वह अभी खुद ही बैठते। ईश्वर करे, वह पहुँच गए हों।

  • कायाकल्प : अध्याय (13-24)
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