काव्य में अभिव्यंजनावाद (निबन्ध) : आचार्य रामचन्द्र शुक्ल

Kavya Mein Abhivyanjanavaad (Nibandh) : Acharya Ramchandra Shukla

(माननीय विद्वज्जन!

आज मेरे ऐसे अयोग्य और अकर्मण्य व्यक्ति को इस आसन पर पहुँचा कर आप महानुभावों ने केवल अपने अमोघ कृपाबल का परिचय दिया है, यह कहना तो कदाचित् बहुत दिनों से चली आती हुई एक रूढ़ि या परंपरा का पालन मात्र समझा जायगा। पर इसका प्रमाण आपको अभी थोड़ी देर में मिल जायगा। ऐसी जगमगाती विद्वन्मंडली के बीच मेरा कर्तव्यि केवल अपने दोनों कान खुले रखने का था, न कि मुँह खोलने का। पर आप लोग शायद इधर कार्यभार से थककर कुछ विनोद की सामग्री चाहते थे। मूर्ख हास्यरस के प्राचीन आलंबन हैं। न जाने कब से वे इस संसार की रुखाई के बीच लोगों को खुलकर हँसने का अवसर देते चले आ रहे हैं। यदि मुझसे इतना भी हो सके तो मैं अपना परम सौभाग्य समझूँगा।

सम्मेलन ने जबसे अपने अधिवेशन के साथ वाङ्मय के कुछ विभागों की अलग अलग बैठकों की व्यवस्था की तभी से यह समझा जाने लगा है कि वह प्रचारकार्य के साथ साथ प्रत्येक विभाग की स्थिति की निरंतर समीक्षा का विधान भी करना चाहता है। वाङ्मय के भिन्न भिन्न क्षेत्र किस दशा में हैं इसकी सम्यक् विवृत्ति प्रत्येक क्षेत्र के कार्यकर्तव्याओं द्वारा मिलकर विचार करने से ही हो सकती है। आज जिस विभाग की विचारसभा में सम्मिलित होने का अधिकार आप महानुभावों ने मुझे दिया है, वह है साहित्यविभाग। अत: इस बात का ध्याअन मुझे बराबर रखना पड़ेगा कि जो कुछ मैं कहूँ वह उस विभाग के भीतर की बात हो। कहीं उसके बाहर न जापडे, इस डर से कुछ हदबंदी मैं कर लेना चाहता हूँ, यह स्थिर कर लेना चाहता हूँ, कि शुद्ध साहित्य के भीतर क्या क्या आता है। ) चौबीसवें हिन्दी साहित्य सम्मेलन, इंदौर की साहित्य परिषद् के सभापति पद से किया हुआ भाषण।


साहित्य के अंतर्गत वह सारा वाङ्मय लिखा जा सकता है जिसमें अर्थबोध के अतिरिक्त भावोन्मेष अथवा चमत्कारपूर्ण अनुरंजन हो तथा जिसमें ऐसे वाङ्मय की विचारात्मक समीक्षा या व्याख्या हो। भावोन्मेष से मेरा अभिप्राय हृदय की किसी प्रकार की प्रवृत्ति सेरति, करुणा, क्रोध इत्यादि से लेकर रुचि अरुचि तक से है और चमत्कार से अभिप्राय उक्तिवैचित्र्य के कुतूहल से है। अर्थ से मेरा अभिप्राय वस्तु या विषय से है। अर्थ चार प्रकार के होते हैंप्रत्यक्ष, अनुमित, आप्तोपलब्धा, और कल्पित। प्रत्यक्ष की बात हम अभी छोड़ते हैं। भाव या चमत्कार से नि:संग विशुद्ध रूप में अनुमित अर्थ का क्षेत्र दर्शन विज्ञान है, आप्तोपलब्धा का क्षेत्र इतिहास है, कल्पित अर्थ का प्रधान क्षेत्र काव्य है। पर भाव या चमत्कार से समन्वित होकर ये तीनों प्रकार के अर्थ काव्य के आधार हो सकते हैं और होते हैं। यह अवश्य है कि अनुमित और आप्तोपलब्धा अर्थ के साथ काव्यभूमि में कल्पित अर्थ का योग थोड़ा रहता है, जैसे दार्शनिक कविताओं में, रामायण, पद्मावत आदि ऐतिहासिक काव्यों में। गंभीर भाव प्रेरित काव्यों में कल्पना प्रत्यक्ष और अनुमन के दिखाए मार्ग पर काम करती है और बहुत प्रधान और बारीक काम करती है। कहने का तात्पर्य यह कि साहित्य के भीतर पहले तो वे सब कृतियाँ आती हैं जिनमें भावव्यंजक या चमत्कार विधायक अंश पर्याप्त होता है, फिर उन कृतियों की रमणीयता और मूल्य हृदयंगम करानेवाली समीक्षाएँ या व्याख्याएँ। अर्थबोध कराना मात्र, किसी बात की जानकारी कराना मात्र, जिस कथन या प्रबंध का उद्देश्य होगा वह साहित्य के भीतर न आएगा और चाहे जहाँ जाय।

इस दृश्य से साहित्यक्षेत्र के भीतर आनेवाली रचनाओं के तीन रूप तो हमारे यहाँ पहले से मिलते हैंश्रव्यकाव्य, दृश्यकाव्य और कथात्मक गद्यकाव्य। इनमें से पहले दो तो अब तक ज्यों के त्यों बने हैं। कथात्मक गद्यकाव्य का स्थान अब उपन्यासों और छोटी कहानियों ने ले लिया है। चौथा रूप है काव्यात्मक गद्यप्रबंध या लेख। पाँचवाँ है वह विचारात्मक निबंध या लेख जिसमें भावव्यंजना और भाषा का वैचित्र्य या चमत्कार भी हो अथवा जिसमें पूर्वोक्त चारों प्रकार की कृतियों की मार्मिक समीक्षा या व्याख्या हो। काव्यसमीक्षा के अतिरिक्त और प्रकार के विचारपरंपरा द्वारा गृहीत अर्थों या तथ्यों के साथ लेखक का व्यक्तिगत वाग्वैचित्रय तथा उसके हृदय के भाव या प्रवृत्तियाँ पूरी पूरी झलकती हैं। इस प्रकार मेरे विचार के विषय ठहरते हैंक़ाव्य, नाटक, उपन्यास, गद्य काव्य और निबंध, जिनमें साहित्यालोचना भी सम्मिलित है। (इन्हीं के संबंध में मैं अपनी कुछ भली या बुरी धारणाएँ क्रम से आप लोगों के सम्मुख प्रकट करूँगा, इस आशा से कि उनका बहुत कुछ संशोधान और परिष्कार इस विद्वन्मंडली के बीच हो जायगा। पहले मैं प्रत्येक का स्वरूप समझने का प्रयास करूँगा, फिर अपने साहित्य में उसके विकास पर कुछ निवेदन करूँगा' प्रक़ाश डालना' तो मुझे आता नहीं।)

उपर्युक्त पाँचों प्रकार की रचनाओं में भाव या चमत्कार के परिमाण में ही नहीं, उसकी शासनविधि में भी भेद होता है। कहीं तो वह शासन इतना सर्वग्रासी और कठोर होता है कि भाव या चमत्कार के इशारे पर ही भाषा अनेक प्रकार के रूप रंग बनाकर नाचती दिखाई पड़ती है; अपना खास काम लुक छिपकर करती है। कहीं इतनी कोमल होती है कि वह अपना पहला काम खुलकर करती हुई भाव का कार्यसाधन करती है और अच्छी तरह करती है। भाषा का असल काम यह है कि प्रयुक्त शब्दों के अर्थयोग द्वारा हीया तात्पर्य वृत्ति द्वारा हीपूर्वोक्त चार प्रकार के अर्थों में से किसी एक का बोध कराए। जहाँ इस रूप में कार्य न करके वह ऐसे अर्थों का बोध कराती है जो बाधित, असंभव, असंगत या असंबद्धा होते हैं वहाँ वह केवल भाव या चमत्कार की साधना मात्र होती है, उसका वस्तुज्ञापनकार्य एक प्रकार से कुछ नहीं होता। ऐसे अर्थों का मूल्य इस दृष्टि से नहीं ऑंका जाता कि वे कहाँ तक वास्तविक, संभव या अव्याहत हैं बल्कि इस दृष्टि से ऑंका जाता है कि वे किसी भावना को कितने तीव्र और बढ़े चढ़े रूप में व्यंजित करते हैं अथवा उक्ति में कितना वैचित्र्य या चमत्कार लाकर अनुरंजन करते हैं। ऐसे अर्थविधान की संभावना काव्य में सबसे अधिक होती है। पर यह समझना चाहिए कि काव्य में अर्थ सदा इसी संक्रमित, अधीन दशा में ही पाया जाता है। बहुत सी अत्यंत मार्मिक और भावपूर्ण कविताएँ ऐसी होती हैं जिनमें भाषा कोई वेशभूषा या रंगरूप नहीं बनाती; अर्थ अपने खुले रूप में ही पूरा रसात्मक प्रभाव डालते हैं।

काव्य की अपेक्षा रूपक या नाटक में भावव्यंजना या चमत्कार के लिए स्थान परिमित होता है। उसमें भाषा अपनी अर्थक्रिया अधिकतर सीधा ढंग से करती है, केवल बीच में ही भाव या चमत्कार उसे दबाकर अपना काम लेते हैं। बात यह है कि नाटक कथोपकथन के सहारे पर चलते हैं। पात्रों की बातचीत यदि बराबर वक्रता लिए अतिरंजित या हवाई होगी तो वह अस्वाभाविक हो जायगी और सारा नाटकत्व निकल जायगा। यह ठीक है कि पश्चिम में कुछ कवियों ने (नाटककारों ने नहीं) केवल कल्पना की उड़ान दिखानेवाले नाटक लिखे हैं, पर वे शुद्ध नाटक की कोटि में नहीं लिए जाते। यही बात मन की भावनाओं या विकारों को मूर्त रूप में पात्रों के रूप में खड़े करनेवाले नाटकों के संबंध में भी कही जा सकती है।

आख्यायिका या उपन्यास के कथाप्रवाह और कथोपकथन में अर्थ अपने प्रकृत रूप में और भी अधिक विद्यमन रहता है और उसे दबानेवाले भावविधान या उक्तिवैचित्र्य के लिए और थोड़ा स्थान बचता है। उपन्यास में मन बहुत कुछ घटनाचक्र में लगा रहता है। पाठक का मर्मस्पर्श बहुत कुछ घटनाएँ ही करती हैं; पात्रों द्वारा भावों की लंबी चौड़ी व्यंजना की अपेक्षा उतनी नहीं रहती।

काव्यात्मक गद्यप्रबंध या लेख छंद के बंधन से मुक्त काव्य ही है, अत: रचना भेद से उनमें भी अर्थ का उन्हीं रूपों में ग्रहण होता है जिन रूपों में छंदोबद्धा काव्य में होता है अर्थात् कहीं तो वह अपने प्रकृत और सीधा रूप में विद्यमन रहता है और कहीं भाव या चमत्कार द्वारा संक्रमित रहता है।

उपर्युक्त चारों प्रकार की रचनाओं में कल्पनाप्रसूत 'वस्तु' या अर्थ की प्रधानता रहती है, शेष तीन प्रकार के अर्थ सहायक के रूप में रहते हैं। पर निबंध में विचारप्रसूत अर्थ अंगी होता है और आप्तोपलब्धा या कल्पित अर्थ अंग रूप में रहता है। दूसरी बात यह है कि प्रकृत निबंध अर्थप्रधान होता है। व्यक्तिगत वाग्वैचित्रय अर्थोपहित होता है, अर्थ के साथ के साथ मिलाजुला होता है और हृदय के भाव या प्रवृत्तियाँ बीच बीच में अर्थ के साथ झलक मारती हैं।

साहित्य के अंतर्गत आनेवाली पाँचों प्रकार की रचनाओं का आभास देकर अब मैं सबसे पहले काव्य को लेता हूँ जिसकी परंपरा सभ्य, असभ्य सब जातियों में अत्यंत प्राचीन काल से चली आती है। लोक में जैसे और सब विषयों का प्रकाश मनुष्य की वाणी या भाषा द्वारा होता है वैसे ही काव्य का प्रकाश भी। भाषा का पहला काम है शब्दों के द्वारा अर्थ का बोध कराना। यह काम वह सर्वत्रा करती है इतिहास में, दर्शन में, विधान में, नित्य की बातचीत में, लड़ाई झगड़े में और काव्य में भी। भावोन्मेष; चमत्कारपूर्ण अनुरंजन इत्यादि और जो कुछ वह करती है उसमें अर्थ का बोध अवश्य रहता है। अर्थ जहाँ होगा वहाँ उसकी योग्यता और प्रसंगानुकूलता अपेक्षित होगी। जहाँ वाक्य या कथन में यह 'योग्यता', उपपन्नता या प्रकरण संबद्धाता नहीं दिखाई पड़ती वहाँ लक्षणा और व्यंजना नामक शक्तियों का आह्नान किया जाता है और 'योग्य' अथवा 'प्रकरणसंबद्धा' अर्थ प्राप्त किया जाता है। यदि इस अनुष्ठान से भी योग्य या संबद्धा अर्थ की प्राप्ति नहीं होती तो वह काव्य या कथन प्रलाप मात्र मन लिया जाता है। यदि किसी लड़की को दिखाकर कोई किसी से कहे कि 'तुमने इस लड़की को काटकर कुएँ में डाल दिया' तो सुननेवालों के मन में इस वाक्य का अर्थ सीधा न धाँसेगा, वह एकदम असंभव या अनुपयुक्त जान पड़ेगा। फिर चट लक्षणा के सहारे वे इस अबाधित या समझ में आनेवाले अर्थ तक पहुँच जायँगे कि 'तुमने इस लड़की को बुरे घर में ब्याहकर अत्यंत कष्ट में डाल दिया।' इसी प्रकार गरमी से व्याकुल लोगों मंय से कोई बोल उठे कि 'एक पत्ती भी नहीं हिल रही है तो शेष लोगों को शायद पहले यह कथन नितांत अप्रासंगिक जान पड़े, पर पीछे वे व्यंजना के सहारे कहनेवाले के इस सुसंगत अर्थ तक पहुँच जायँगे कि 'हवा बिलकुल नहीं चल रही है।' इससे यह स्पष्ट है कि लक्ष्यार्थ और व्यंग्यार्थ भी 'योग्यता' या 'उपयुक्तता' को पहुँचा हुआ, समझ में आने योग्य रूप में आया हुआ, अर्थ ही होता है। अयोग्य और अनुपपन्न वाच्यार्थ ही लक्षणा या व्यंजना द्वारा योग्य बुद्धिग्राह्य रूप में परिणत होकर हमारे सामने आता है।

व्यंजना के संबंध में कुछ विचार करने की आवश्यकता है। व्यंजना दो प्रकार की मानी गई वस्तुव्यंजना और भावव्यंजना। किसी तथ्य या वृत्त की व्यंजना वस्तुव्यंजना कहलाती है और किसी भाव की व्यंजना भावव्यंजना (भाव की व्यंजना ही जब रस के सब अवयवों के सहित होती है तब रसव्यंजना कहलाती है)। यदि थोड़ा ध्याहन देकर विचार किया जाय तो दोनों भिन्न प्रकार की वृत्तियाँ ठहरती हैं। वस्तुव्यंजना किसी तथ्य या वृत्त का बोध कराती है पर भावव्यंजना जिस रूप में मानी गई है उस रूप में किसी भाग का संचार करती है, उसकी अनुभूति उत्पन्न करती है। बोध या ज्ञान कराना एक बात है और कोई भाव जगाना दूसरी बात। दोनों भिन्न कोटि की क्रियाएँ हैं पर साहित्य के ग्रंथों में दोनों में केवल इतना ही भेद स्वीकार किया गया है कि एक में वाच्यार्थ से व्यंग्यार्थ पर आने का पूर्वापर क्रम श्रोता या पाठक को लक्षित होता है, दूसरी में यह क्रम होने पर भी लक्षित नहीं होता। पर बात इतनी ही नहीं जान पड़ती। रति, क्रोध आदि भावों का अनुभव करना एक अर्थ से दूसरे अर्थ पर जाना नहीं है, अत: किसी भाव की अनुभूति को व्यंग्यार्थ कहना बहुत उपयुक्त नहीं जान पड़ता। यदि व्यंग्य कोई अर्थ होगा तो वस्तु या तथ्य ही होगा और इस रूप में होगा कि 'अमुक प्रेम कर रहा है, अमुक क्रोध कर रहा है', स्वयं क्रोध या रति भाव का रसात्मक अनुभव करना नहीं है। रसव्यंजना इस रूप में मानी भी नहीं गई है। अत: भावव्यंजना या रसव्यंजना वस्तुव्यंजना से सर्वथा भिन्न कोटि की वृत्तिहै।

रसव्यंजना की इसी भिन्नता या विशिष्टता के बल पर 'व्यक्तिविवेक' कार महिमभट्ट का सामना किया गया था जिनका कहना था कि 'व्यंजना अनुमन से भिन्न कोई वस्तु नहीं।' विचार करने पर वस्तुव्यंजना के संबंध में भट्टजी का पक्ष ठीक ठहरता है। व्यंग्य वस्तु या तथ्य तक हम वास्तव में अनुमन द्वारा ही पहुँचते हैं पर रसव्यंजना लेकर जहाँ वे चले हैं वहाँ उनके मार्ग में बाधा पड़ी है। अनुमन द्वारा बेधड़क इस प्रकार के ज्ञान तक पहुँचकर कि 'अमुक के मन में प्रेम है या क्रोध है' उन्हें फिर इस ज्ञान को 'आस्वाद पदवी' तक पहुँचाना पड़ा है। इस 'आस्वाद पदवी' तक इत्यादि का ज्ञान इस प्रक्रिया से पहुँचता है, यह सवाल ज्यों का त्यों रह जाता है। अत: इस विषय को स्पष्ट कर देना चाहिए। या तो हम भाव या रस के संबंध में 'व्यंजना' शब्द का प्रयोग न करें अथवा वस्तु या तथ्य के संबंध में। शब्दशक्ति का विषय बड़े महत्तव का है। वर्तमन साहित्यसेवियों को इसके संबंध में विचार परंपरा जारी रखनी चाहिए। काव्य की मीमांसा या स्वच्छ समीक्षा के लिए यह बहुत उपयोगी सिद्ध होगी।

आजकल के प्रसिद्ध अंग्रेजी समालोचक रिचर्ड्स जो योरोपीय साहित्य में समीक्षा के नाम पर फैलाए हुए बहुत से अर्थशून्य वाग्जाल को हटाकर शुद्ध विवेचनात्मक समीक्षा का रास्ता निकाल रहे हैं, हमारे यहाँ के शब्दशक्तिनिरूपण के ढर्रे पर अर्थमीमांसा को लेकर चले हैं। उन्होंने व्यावहारिक काव्यसमीक्षा, (प्रैक्टिकल क्रिटिसिज्म) नामक अपने बड़े ग्रंथ में चार प्रकार के अर्थ माने हैं(1) प्रस्तुत अर्थ या व्यंग्य वस्तु (सेंस), (2) व्यंग्य भाव (फीलिंग), (3) बोधव्य की विशेषता (टोन) और भीतरी उद्देश्य (इंटेंशन)। जिन्होंने अपने यहाँ के शब्दशक्ति निरूपण का अच्छी तरह मनन किया है, वे देख सकते हैं कि इन चारों में दो ही मुख्य हैं। तीसरे का समावेश हमारे यहाँ आर्थी व्यंजना के कारणों के अंतर्गत हो जाता है

वक्तृबोद्धाव्यवाक्यानामन्यसन्निधिवाच्ययो:।

प्रस्तावदेशकालानां काकोश्चेष्टादिकस्य चड्ड

चौथे का समावेश अभिधामूलक धवन्यार्थ के अंतर्गत हो जाता है जिसका एक उदाहरण यह है'हे धार्मिक! बेधड़क फिरिए। उस कुत्तो को जो आपको सताता था, गोदावरी तट के उस कुंज में रहनेवाले सिंह ने मार डाला।' इसमें कहनेवाली नायिका का भीतरी उद्देश्य यह है कि भगतजी उस एकांत कुंज के फूल आदि तोड़ने न जाया करें; पर वह और ही ढंग से कहती है कि बेधड़क फिरिए' हमारे यहाँ शब्दशक्तियों के भेदनिरूपण का जैसा स्वच्छ मार्ग है वैसा यदि रिचर्ड्स को मिलता तो उन्हें उक्त पिछले दो प्रकार के अलग अर्थ न रखने पड़ते।

उक्त चार प्रकार के अर्थों का उल्लेख करके रिचर्ड्स ने कहा है कि उक्ति में कभी किसी अर्थ की प्रधानता रहती है, कभी किसी अर्थ की। काव्य में अधिकतर व्यंग्य भाव की प्रधानता रहती है। पर वे कहते हैं कि, इसका यह अभिप्राय नहीं कि काव्य में प्रस्तुत अर्थ या तथ्य ध्याान देने की वस्तु नहीं। कभी कभी सीधी सादी प्रस्तुत वस्तु या अर्थ ही से भाव की व्यंजना हो जाती है। कभी वाच्यार्थ से व्यंजित वस्तु निकालनी पड़ती है। क्या यह कहने की आवश्यकता है कि काव्यमीमांसा की यह वही पद्धाति है जो हमारे यहाँ स्वीकृत है।

आजकल पाश्चात्य वादवृक्षों के बहुत से पत्तोक़ुछ हरे नोचे हुए, कुछ सूखकर गिरे पाए हुएयहाँ पारिजातपत्रा की तरह प्रदर्शित किए जाने लगे हैं, जिससे साहित्य के उपवन में बहुत गड़बड़ी दिखाई देने लगी है। इन पत्तोंन की परख के लिए अपनी ऑंखें खुली रखने और पेड़ों की परीक्षा करने की आवश्यकता है जिनके वे पत्तो हैं पर यह बात हो नहीं रही है। यूरोप के समीक्षाक्षेत्र में नवीनता और अनूठेपन की झोंक में काव्य के संबंध में न जाने कितनी अत्युक्त बातें चला करती हैं, जैसे'क़ला कला ही के लिए,' 'अभिव्यंजना ही सब कुछ है, अभिव्यंग्य कोई वस्तु नहीं', 'काव्य में अर्थ ध्याहन देने की कोई वस्तु नहीं', 'काव्य में बुद्धि घातक होती है' इत्यादि इत्यादि। 'कला कला ही के लिए' का शोर यूरोप में तो बंद हुआ, पर यहाँ उसकी गूँज अब तक सुनाई दिया करती है। और सब बात अभी छोड़कर यहाँ हम प्रसंगवश 'बुद्धि' और 'अर्थ' वाली बात लेते हैं।

ऊपर शब्दशक्तियों के संबंध में हम जो कुछ कह आए हैं उससे इस बात का आभास मिलता है कि भारतीय दृष्टि के अनुसार 'अर्थ' काव्य में क्या काम करता है और 'बुद्धि' का काव्य में क्या स्थान है। 'अर्थ' से अभिप्राय योग्य और उपपन्न अर्थ से है, यह दिखाया जा चुका है। वाच्यार्थ के अयोग्य या अनुपपन्न होने पर योग्य और उपपन्न अर्थ प्राप्त करने के लिए लक्षणा और व्यंजना का सहारा लिया जाताहै। अब प्रश्न यह है कि काव्य की रमणीयता किसमें रहती है? वाच्यार्थ में अथवालक्ष्यार्थ या व्यंग्यार्थ में? इसका बेधड़क उत्तर यही है कि वाच्यार्थ में, चाहे वह योग्य और उपपन्न हो अथवा अयोग्य और अनुपपन्न। मेरा यह कथन विरोधभास का चमत्कार दिखाने के लिए नहीं है, सोलह आने ठीक है। कोई रसात्मक या चमत्कारविधायक उक्ति लीजिए। उस उक्ति में ही अर्थात् उसके वाच्यार्थ ही में, काव्यत्व या रमणीयता होगी, उसके लक्ष्यार्थ या व्यंग्यार्थ में नहीं। जैसे, यह लक्षणायुक्त वाक्य लीजिए

जीकर, हाय! पतंग मरे क्या?

इसमें भी यही बात है। जो कुछ वैचित्र्य या चमत्कार है वह इस अयोग्य और अनुपपन्न या उसके वाच्यार्थ में ही है। इनके स्थान पर यदि इसका यह लक्ष्यार्थ कहा जाय कि 'जीकर पतंग क्यों कष्ट भोगें?' तो कोई वैचित्र्य या चमत्कार न रहेगा। अब 'साकेत' में उर्मिला की यह रसात्मक उक्ति लीजिए

आप अवधि बन सकूँ कहीं तो क्या कुछ देर लगाऊँ?

मैं अपने को आप मिटाकर, जाकर उनको लाऊँ?

जिसका वाच्यार्थ बहुत ही अत्युक्त, व्याहत और बुद्धि को सर्वथा अग्राह्य है, उर्मिला जब आप मिट ही जायगी तब अपने प्रिय लक्ष्मण को वन से लाएगी क्या? पर सारा रस, सारी रमणीयता; इसी व्याहत और बुद्धि को अग्राह्य वाच्यार्थ में है; इस योग्य और बुद्धिग्राह्य व्यंग्यार्थ में नहीं कि 'उर्मिला को अत्यंत औत्सुक्य हैं'। इससे स्पष्ट है कि वाच्यार्थ की काव्य होता है, व्यंग्यार्थ या लक्ष्यार्थ नहीं। हिन्दी के पुराने कवि देव ने शायद यही समझकर काव्य में केवल वाच्यार्थ माना था। 1 तो फिर लक्ष्यार्थ या व्यंग्यार्थ का काव्य में प्रयोजन क्या है? वाच्यार्थ बाधित व्याहत या अनुपपन्न होने पर लक्षणा और व्यंजना के सहारे योग्य और बुद्धिग्राह्य अर्थ प्राप्त करने का प्रयास क्यों किया जाता है? इस प्रयास का अभिप्राय यही है कि काव्य की उक्ति चाहे कितनी ही अतिरंजित, दूरारूढ़ और उड़ानवाली हो उसका वाच्यार्थचाहे कितना प्रकरणच्युत, व्याहत और असंभव हो उसकी तह में छिपा हुआ कुछ न कुछ योग्य और बुद्धिग्राह्य अर्थ होना चाहिए। योग्य और बुद्धिग्राह्य अर्थप्राप्त करने केलिए चाहे कितनी ही मिट्टी मिट्टी मैं तार्किकों की बुद्धि से कह गया, रसज्ञों और सहृदयों की दृष्टि से सोना या रत्न कहना चाहिएख़ोदकर हटानी पड़े, उसे प्राप्त करना चाहिए। अब पूछिए कि जो योग्य और बुद्धिग्राह्य अर्थ खोदकर निकाला जाता है उसका काव्य में प्रयोजन क्या है, वह किस काम आता है। काव्य तो वह है नहीं; काव्य तो है


1. 'अभिधा' उत्तम काव्य है, मधय लच्छना लीन।

अधाम व्यंजना रस बिरस, उलटी कहत नवीनड्ड

अयोग्य, अनुपपन्न बुद्धि को अग्राह्य उक्ति। सुनिए वह काव्य नहीं, 'काव्य को धारण करनेवाला सत्य है जिसकी देखरेख में काव्य मनमानी क्रीड़ा कर सकता है।' व्यंजना करनेवाली उक्ति की साधुता और सच्चाई की परख के लिए उसको सामने रखने की आवश्यकता होती है। यह आवश्यकता अधिकतर समीक्षकों और आलोचकों को पड़ती है। वे उस सत्य के साथ किसी उक्ति का संबंध देखकर यह निर्णयकरते हैं कि उस उक्ति का स्वरूप ठीक ठिकाने का है या ऊटपटाँग। इस प्रकार यहाँ के साहित्यमीमांसकों की दृष्टि में काव्य में योग्य अर्थ होना अवश्य चाहिएयोग्यता चाहे खुली हो या छिपी हो; अत्यंत अयोग्य और असंबद्धा प्रलाप के भीतर भी कभी कभी काव्य के प्रयोजन भर की योग्यता छिपी रहती है, जैसेशोकोन्मत्ता या वियोग विक्षिप्त के प्रलाप में शोक की विह्नलता या वियोग की व्याकुलता ही 'योग्यता' है।

काव्य के साथ अर्थ की योग्यता अर्थात् बुद्धि का कितना और किधार से लगाव होता है, इस विषय में हमारे यहाँ का यही विवेचन समझना चाहिए। ऊपर काव्य और कला के संबंध में समय समय पर फैशन की तरह चलनेवाले नाना वादों, प्रवादों और अपवादों की चर्चा की जा चुकी है, जिनके बहुत से वाक्यखंड हमारे वर्तमन साहित्य के क्षेत्र में भी मंत्रों की तरह जपे जाने लगे हैं। इस प्रसंग में एक बात की ओर ध्याकन देना सबसे पहले आवश्यक है। यूरोप में कला और काव्य समीक्षा के बड़े बड़े संप्रदाय इटली और फ्रांस से चलते रहे हैं। इटली बहुत दिनों से चित्रकारी, मूर्तिकारी, नक्काशी, बेलबूटों की इमारती सजावट आदि के लिए प्रसिद्ध चला आ रहा है। इन्हीं इलाकों के बीच काव्य की भी गिनती की गई। फल यह हुआ कि काव्य के स्वरूप के संबंध में भी नक्काशी और बेलबूटों की सी भावना जड़ पकड़ती गई। काव्य का प्रभाव भी उसी प्रकार का समझा जाने लगा जिस प्रकार का बेलबूटों की सजावट और नक्काशी का पड़ता है। इससे अधिक गंभीर श्रेणी का प्रभाव ढूँढ़ने की आवश्यकता धीरे धीरे दूर सी होने लगी। बेलबूटों की सजावट और नक्काशी में जिस ढंग से अनुरंजन करनेवाला सौंदर्यविधान होता है उसी ढंग से अनुरंजन करनेवाला सौंदर्यविधान काव्य में समझा जाने लगा। अत: जिस प्रकार बेलबूटे और नक्काशी का संबंध जगत् या जीवन की किसी वास्तविक दशा; स्थिति या तथ्य से नहीं होता, उसी प्रकार काव्य का भी नहीं होता। शिल्पकार या कलाकार के मन में सौंदर्य की भावनाएँ जिन रूपरेखाओं या आकारों में प्रस्फुटित होती हैं उन्हीं रूपों और आकारों को वह बेलबूटों और नक्काशियों में अभिव्यंजित कर देता है। वे बेलबूटे कल्पना की स्वतंत्र सृष्टि होते हैंसृष्टि के किसी खंड से ठीक ठीक अनुकरण नहीं। जीवन के किसी वास्तविक तथ्य, भाव (मनोविकार) या विचार के रूप में उनका अर्थ ढँढ़ना व्यर्थ है। अपने अर्थ वे आप ही हैं। यही बात काव्य के संबंध में भी समझी जाने लगी।

मेरे देखने में 'कला कला ही के लिए है', 'कला कल्पना की नूतन सृष्टि में है, प्रकृति के ज्यों के त्यों चित्रण में नहीं', 'काव्य कल्पना का लोक है'ये सब उक्त बेलबूटेवाली हलकी धारणा के कच्चे बच्चे हैं।

इस धारणा को बहुत दूर तक घसीटकर इसे शास्त्री य रूप देने का सबसे प्रकांड प्रयास इटली के क्रोचे ने अपने 'सौंदर्यशास्त्र' में किया जिसका प्रभाव केवल काव्य चर्चा में ही नहीं, काव्यरचना में भी बहुत कुछ दिखाई पड़ता है। उसने अभिव्यंजनावाद (एक्सप्रेशनिज्म) का प्रवर्तन किया जिसके अनुसार कला में अभिव्यंजना ही सब कुछ हैअभिव्यंजना से अलग कोई और अभिव्यंग्य वस्तु या अर्थ नहीं होता। काव्य की गिनती कलाओं में ही की गई है। अत: काव्य में उक्ति से अलग कोई दूसरा अर्थदूसरी वस्तु, तथ्य या भावनहीं होता। काव्य की उक्ति किसी दूसरी उक्ति की प्रतिनिधि नहीं। जो अर्थ किसी उक्ति के शब्दों से निकलता है उसका संबंध किसी दूसरे अर्थ से नहीं होता। साहित्य की परिभाषा में इसे यों कह सकते हैं कि काव्य में वाच्यार्थ का कोई व्यंग्यार्थ नहीं होता।

अब यह देखिए कि उक्त 'वाद' के भीतर प्रकृति की नाना वस्तुओं, दृश्यों और व्यापारों तथा हृदय के रति, क्रोध, शोक इत्यादि अनेक भावों का क्या स्थान ठहरता है। वे केवल उपादान मात्र रह जाते हैं। कुछ फूल पत्तियों इत्यादि के रंग और आकार लेकर जिस प्रकार मनमाने बेलबूटे और नक्काशियाँ बनाई जाती हैं, उसी प्रकार काव्य में भी वाह्य प्रकृति से फूल पत्तोंल, नदी नालों, पर्वत, समुद्र, बुलबुल, कोकिल, चातक, भ्रमर, चाँदनी, समीर इत्यादि; मनुष्य के व्यापारों से रोना, गाना, हँसना, कूदना इत्यादि; शरीर से मुख, कान, नाक, अश्रु, श्वास, उच्छ्वास इत्यादि; मनुष्यों की अंत:प्रकृति से रति, हास, शोक, भय इत्यादि लेकर और उनका मनमाना योग करके एक अनूठी सृष्टि, प्रकृति से सर्वथा स्वतंत्र एक नई रचना, खड़ी की जाती है। इन अनेक पदार्थों का वर्णन या इन अनेक भावों की व्यंजना, काव्य का लक्ष्य नहीं होता। ये तो उपादान मात्र हैं ख़िलौने बनानेवाले कुम्हार की मिट्टी और रंग हैं। अत: प्रस्तुत अप्रस्तुत का, अलंकार अलंकार्य का कोई सवाल नहीं।

यहाँ से अब स्पष्ट देखा जा सकता है कि उपर्युक्त वाद बेलबूटों और नक्काशियों के संबंध में तो बिलकुल ठीक घटता है पर काव्य की सच्ची मार्मिक भूमि से बहुत दूर रहता है। उसे दृष्टि में रखकर जो चलेगा उसके निकट काव्य का सहृदयता, भावुकता और मार्मिकता से कोई संबंध नहीं। उक्त वाद के प्रभाव से प्रस्तुत की हुई रचनाओं को देखकर कोई पूछ सकता है कि क्या कवि के लिए अनुभूति सचमुच आवश्यक है। यदि काव्य की तह में जीवन का कोई सच्चा मार्मिक तथ्य, सच्ची भावानुभूति नहीं तो उसका मूल्य मनोरंजन करनेवाली सजावट या खेल तमाशे के मूल्य से कुछ भी अधिक नहीं। पर उक्त वाद के प्रतिपादक ने उसका मूल्य दूसरी दुनिया में ढूँढ़ निकालने की चेष्टा की है। उसके कला की अभिव्यंजना के इस व्यवसाय को वाह्यप्रकृति और अंत:प्रकृति दोनों से परे जो आत्मा है, उसकी अपनी निज की क्रिया कहा है इस जगत् और जीवन से स्वतंत्र। यहाँ पर यह सूचित कर देना आवश्यक है कि क्रोचे को यह आत्मावादी बात मिली कहाँ से। यह पुराने ईसाई भक्त संतों से मिली है जिन्हें दिव्य आभास हुआ करता था और जिसका उल्लेख आगे होगा। 'काव्य में रहस्यवाद' नामक पुस्तक में दिखा चुका हूँ कि किस प्रकार ईसा की 19वीं शताब्दी के आरंभ में घोर रहस्यवादी ऍंगरेज कवि ब्लेक ने संतों के आभासवाली बात पकड़कर मनुष्य की कल्पना को इलहाम के दर्जे तक पहुँचाया था। उसने कहा था

'कल्पना का लोक नित्यलोक है। यह शाश्वत और अनंत है। उस नित्य लोक में उन सब वस्तुओं की नित्य और पारमार्थिक सत्ताएँ हैं जिन्हें हम प्रकृति रूपी दर्पण में प्रतिबिंबित देखते हैं।'

परीक्षा के लिए क्रोचे के अभिव्यंजनावाद का संक्षेप में परिचय दे देना, मैं समझता हूँ, अच्छा होगा। मैं कई जगह दिखा चुका हूँ कि किस प्रकार यूरोप के समीक्षाक्षेत्र में, इधर बहुत दिनों से काव्य के, कल्पना और भाव इन दोनों अवयवों में से केवल 'कल्पना' 'कल्पना' की ही पुकार सुनाई पड़ती है। कल्पना है काव्य का क्रियात्मक बोधपक्ष जिसका विधान हमारे यहाँ के रसवादियों ने भाव के योग में ही काव्य के अन्तर्भूत माना है। अलंकारवादी या वक्रोक्तिवादी अलबत ज्ञानात्मक अवयव ही से प्रयोजन रखते हैं। जैसा कि ऊपर दिखाया जा चुका है, क्रोचे काव्य में कल्पना की क्रिया और उसके बोध ही को सब कुछ मनता है। अत: कलानुभूति या काव्यानुभूति को वह ज्ञान स्वरूप ही मनकर चला है। उसका सिद्धांत संक्षेप में हम नीचे देते हैं, उसने कलासंबंधी ज्ञान को तर्कसंबंधी ज्ञान से इस प्रकार अलग किया है

(1) कलासंबंधी ज्ञान हैस्वयंप्रकाश ज्ञान (इंटयूशन), कल्पना में अद्भुत ज्ञान, व्यक्ति का संकेतग्रह अर्थात् किसी एक विशेष वस्तु का ज्ञान।

(2) तर्क संबंधी ज्ञानप्रमा (कंसेप्ट) निश्चयात्मिका बुद्धि द्वारा प्राप्त ज्ञान, भिन्न भिन्न व्यक्तियों के परस्पर संबंध का ज्ञान अर्थात् जाति का संकेतग्रह।

स्वयंप्रकाश ज्ञान का अभिप्राय है मन में आपसे आपबिना बुद्धि की क्रिया या सोच विचार केउठी हुई मूर्त भावना, जिसकी वास्तविकता अवास्तविकता का कोई सवाल नहीं। वह मूर्त भावना या कल्पना आत्मा की अपनी क्रिया है जो दृश्य जगत् के नाना रूपों और व्यापारों को (अर्थात् मन में संचित उनकी छाया और संस्कारों) द्रव्य या उपादान की तरह लेकर हुआ करती है। दृश्य जगत् के नाना रूप व्यापार है द्रव्य (मैटर)। इसी द्रव्य के सहारे आत्मा की क्रिया मूर्त रूप में अपना प्रकाश करती है। 'द्रव्य' की प्रतीति मात्र तो जड़त्व या निष्क्रियता है ऐसी प्रतीति है जो विवश होकर चित्रण करनी ही पड़ती है। मनुष्य की आत्मा द्रव्य की प्रतीति मात्र करती है। उसकी सृष्टि नहीं करती। आत्मा की अपनी स्वतंत्र क्रिया है। कल्पना, जो रूप का सूक्ष्म साँचा खड़ा करती है और उस साँचे में स्थूल द्रव्य को डालकर अपनी कृति को गोचर या व्यक्त करती है। वह 'साँचा' आत्मा की कृति या आध्याात्मिक वस्तु होने के कारण, परमार्थत: एकरस और स्थिर होता है। उसकी अभिव्यंजना में जो नानात्व दिखाई पड़ता है, वह स्थूल 'द्रव्य' के कारण जो परिवर्तनशील होता है। कला के क्षेत्र में यही 'साँचा' (फार्म) सब कुछ है, द्रव्य या सामग्री (मैटर) ध्या न देने की वस्तु नहीं है। 1

स्वयंप्रकाश ज्ञान (इंटयूशन) का 'साँचे' में ढलकर व्यक्त होना ही कल्पना है और कल्पना ही मूल अभिव्यंजना (एक्सप्रेशन) है जो भीतर होती है और शब्द, रंग आदि द्वारा बाहर प्रकाशित की जाती है। यदि सचमुच स्वयंप्रकाश ज्ञान हुआ है, भीतर अभिव्यंजना हुई है, तो वह बाहर भी प्रकाशित हो सकती है। लोगों का यह कहना कि कवि के हृदय में बहुत सी भावनाएँ उठती हैं, जिन्हें वह अच्छी तरह व्यक्त नहीं कर सकता क्रोचे नहीं मनता। वह कहता है कि जो भावना या कल्पना बाहर व्यक्त नहीं हो सकती उसे अच्छी तरह उठी हुई ही न समझना चाहिए। प्रत्येक अभिव्यंजना (एक्स्प्रेशन) या उसके बाहरी रूप उक्ति की अपनी अलग विशेष सत्ता होती है। अनेक अभिव्यंजनाओं या उक्तियों के बीच कुछ सामान्य लक्षण ढँढ़कर काव्य के संबंध में कुछ कहना सुनना व्यर्थ है। 2

अत: साहित्यशास्त्र में रचनाओं के जो अनेक भेद किए गए हैं, कला की दृष्टि में वे निरर्थक हैं, जैसेअनेक प्रकार के अलंकार तथा वास्तविक (रियलिस्टिक) और प्रतीकात्मक (सिंबलिक) वाह्यार्थ निरूपक (आब्जेक्टिव) और अंतर्वृत्ति निरूपक (सब्जेक्टिव), रूढ़िबद्धा और स्वच्छंद, अलंकृत अनलंकृत इत्यादि भेद।

अलंकार के संबंध में क्रोचे कहता है कि अलंकार तो शोभा के लिए ऊपर से जोड़ी या पहनाई हुई वस्तु को कहते हैं। अभिव्यंजना या उक्ति में अलंकार जुड़ कैसे सकता है? यदि कहिए बाहर से, तो उसे उक्ति से सदा अलग रहना चाहिए। यदि कहिए भीतर से, तो वह या तो उक्ति के लिए 'दाल भात में मूसरचंद' होगा अथवा उसका एक अंग ही होगा।

रस, अलंकार आदि के नाना भेद क्रोचे के अनुसार, कला की सिद्धि में कोई योग न देकर तर्क या शास्त्रपक्ष में सहायक होते हैं। इन सबका मूल्य केवल 'वैज्ञानिक समीक्षा' में है, कलानिरूपिणी समीक्षा में नहीं। कला संबंधी भाग उस प्रकार का अनुभव भी नहीं जिस प्रकार का सुख दु:ख का अनुभव होता है। यदि वह आनंदानुभव माना जाय तो गुलाबजामुन खाने और इत्र सूँघने के आनंद के समन ही ठहरता है और एक तरह का भोगविलास ही है। हाँ, यह अवश्य है कि जैसे और प्रकार आध्याहत्मिक भासों के साथ आनंदानुभूति लगी रहती है वैसे ही कलासंबंधी भास के साथ भी।


1. ऐन एइस्थेटिक फैक्ट इज फार्म ऐंड नथिंग एल्स।

2. आगे चलकर क्रोचे को कुछ अभिव्यंजनाओं में सजातीय साम्य (फैमिली लाइकनेसेज) स्वीकार करना पड़ा है। सजातीय, विजातीय भेद मन लेना वर्गीकरण की संभावना स्वीकार करना ही है।

पर इस आनुषंगिक वस्तु को मूल वस्तु के अलग समझना चाहिए। आगे चलकर क्रोचे उस रसवाद का भी खंडन करता है, जिसमें रति, क्रोध, शोक आदि भिन्न भिन्न भावों की रस रूप में अनुभूति ही काव्यानुभूति मानी गई है। वह कहता है कि रसवादी रसानुभूति को वास्तविक अनुभूति से इसी बात में विशेष बतलाते हैं कि वह नि:स्वार्थ और निर्लिप्त होती है। पर यह भेद व्यर्थ है। इस भेद के सहारे लोगों ने कलासमीक्षा के क्षेत्र में किसी जमाने में प्रचलित 'सत्यं शिवं सुंदरम्' (दि ट्रयू, दि गुड एंड दी ब्यूटीफुल)इन भिन्न भिन्न क्षेत्रों के शब्दों के बीच सामंजस्य स्थापना का प्रकांड प्रयत्न किया पर इसका जमाना लद गया। 1

अनुभूति तो क्रोचे के अनुसार शरीर के योगक्षेम से संबंध रखनेवाली भीतरी क्रिया है। अत: उसके सुखदायक दु:खदायक, उपयोगी अनुपयोगी, लाभकारी हानिकारी दो पक्ष अवश्य ही होंगे। यदि कला में सुखात्मक भाव (जैसे, रति, हास) का मूल्य होता है तो इसका मतलब यह है कि दु:खात्मक भाव (जैसे, शोक, जुगुप्सा) का कोई मूल्य नहीं। पर काव्य में दोनों प्रकार के भाव बराबर देखे जाते हैं। कला या काव्य का मूल्य तो 'सुंदर' शब्द द्वारा व्यक्त किया जाता है, जैसेयोगक्षेम संबंधी (इकानामिक) मूल्य 'उपयोगी' या 'कल्याणकारी' या 'शुभ' (शिवम्) शब्द द्वारा, बुद्धिसंबंधी मूल्य 'सत्य' शब्द द्वारा, धर्मसंबंधी मूल्य 'उचित' शब्द द्वारा। पर कला के क्षेत्र में, 'सुंदर' शब्द को भी क्रोचे एक विशेष अर्थ में स्वीकार करता है। सौंदर्य से उसका तात्पर्य केवल अभिव्यंजना के सौंदर्य से, उक्ति के सौंदर्य से है, किसी प्रस्तुत वस्तु के

सौंदर्य से नहीं। किसी वास्तविक या प्रस्तुत वस्तु में सौंदर्य कहाँ? क्रोचे तो कल्पना की सहायता के बिना प्रकृति में कोई सौंदर्य नहीं मनते। जो कुछ सौंदर्य होता है वह केवल अभिव्यंजना में, उक्तिस्वरूप में। यदि सुंदर कही जा सकती है तो उक्ति ही, असुंदर कही जा सकती है तो उक्ति ही। इस मौके पर अपने पुराने कवि केशवदासजी याद आ गए, जो कह गए हैं कि'देखे मुख भावै, अनदेखेई कमलचंद ताते मुख मुखै सखी, कमलौ न चंद री।' केशवदासजी को भी कमल चंद इत्यादि


1. पर यहाँ अभी तक चल रहा है। योरपीय समीक्षाक्षेत्र की इस पदावली को हिंदुस्तान में सबसे पहले दाखिल करनेवाले ब्रह्मसमाज के प्रवर्तक राजा राममोहन राय थे। उनके पीछे महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर ने इसकी खूब उद्धारण की और यह बँगला के साहित्यक्षेत्र में तब से बराबर चलती आ रही है। 'सत्यं शिवं सुंदरम' अंग्रेजी के दि ट्रयू, दि गुड ऐंड दि ब्यूटीफुल का अनुवाद है यह मैं 'काव्य में रहस्यवाद' नाम के निबंध में दिखा चुका हूँ। आजकल हिन्दी में भी यह पदावली, शायद उपनिषद्वाक्य समझी जाकर बहुत उध्दृत की जाती है, यद्यपि यूरोप से इसका फैशन उठे बहुत दिन हुए। प्रसिद्ध आधुनिक समालोचक रिचर्ड्स ने इसका उल्लेख इस प्रकार किया हैदस ऐराइजेज दि फेंटम प्राब्लेम आव दि एइस्थेटिक मोड आर एइस्थेटिक स्टेटए लिगैसी फ्राम दि डेज आव ऐब्स्ट्रैक्ट इनवेस्टिगेशन इंटु दि गुड दि ब्यूटीफुल ऐंड दि ट्रयू।

प्रिंसिपुल्स आव क्रिटिसिज्म।

देखने में कुछ भी अच्छे या सुंदर नहीं लगते थे। हाँ, जब वे उपमा उत्प्रेक्षापूर्ण किसी काव्योक्ति में समन्वित होकर आते थे तब वे सुंदर दिखाई पड़ने लगते थे।

फिर लोग क्यों नाहक 'प्रकृति की सुषमा, शोभा, छटा, सुंदरता इत्यादि कहा करते हैं?' क्रोचे कहता है कि बात यह है कि काव्य की उक्तियों के निर्माण में प्रकृति के क्षेत्र से बहुत सी सामग्री न जाने कितने दिनों से लोग लेते चले आ रहे हैं। इससे उन वस्तुओं को असंख्य उक्तियों में सुंदर देखते देखते उनके संबंध में सुंदरता की भावना बँध गई है और हम उन्हें वास्तविक या प्रत्यक्ष रूप में भी सुंदर समझा करते हैं।

क्रोचे आरंभ में ही कलासंबंधी उद्भावना को ज्ञानस्वरूप (भावानुभूतिस्वरूप या आस्वादस्वरूप नहीं) मनकर चला है, यद्यपि आगे चलकर उसने माना है कि इस ज्ञान के साथ एक विशेष प्रकार का आनंद भी बराबर लगा रहता है। उसके मन में यह आनंद और प्रकार के आनंदों से सर्वथा भिन्न होता है। काव्य को ही लीजिए। उसमें सुखात्मक (जैसे, रति, हास) और दु:खात्मक (जैसे, शोक, जुगुप्सा) दोनों प्रकार के भावों की अभिव्यंजना होती है। अत: यह प्रश्न उठता है कि शोक या करुणा की अनुभूति आनंदस्वरूप कैसे होगी। इस उलझन से पीछा छुड़ाने के लिए आधुनिक 'सौंदर्यशास्त्र' में अनुभूत्याभास (एपेरेंट फीलिंग) का सिद्धांत निकाला गया है। इस सिद्धांत के प्रवर्तकों का कहना है कि 'कला संबंधी अनुभूति अनुभूत्याभास मात्र होती है, वह बहुत तीव्र और क्षोभकारिणी नहीं होती।' क्रोचे कहता है कि वह बहुत तीव्र या क्षोभकारिणी इसलिए नहीं होती कि उसका संबंध केवल उक्ति के स्वरूप (फार्म) से होता है। जीवन के वास्तविक मनोविकार जो इतने तीव्र और क्षोभकारक होते हैं वह इस कारण कि उनका संबंध वस्तु या तथ्य (मैटर) से होता है। वास्तविक स्थिति या वस्तु की अनुभूति एक बात है, अभिव्यंजना दूसरी बात। दोनों को भिन्न भिन्न क्षेत्रों के विषय समझना चाहिए। कला में तो विचार की बात है अभिव्यंजना।

कला के क्षेत्र में 'सुंदर असुंदर' का प्रयोग अभिव्यंजना या उक्ति के लिए ही हो सकता है, यह कह आए हैं। अभिव्यंजना या उक्ति को न लेकर यदि हम वर्ण वस्तुओं को लेते हैं तो सुंदर असुंदर ही नहीं और भी अनेक प्रकार के भेद ठहरते हैं, जैसेसुंदर, कुरूप, बीभत्स, भयानक, भव्य, अद्भुत, दिव्य, इत्यादि। आलंबनों के इन गुणों के अनुसार साहित्य में अनेक भेद किए भी गए है। क्रोचे कहता है कि ये सब भेद कला के काम के नहीं, इनका ठीक स्थान मनोविज्ञान में है। इन अनेक श्रेणियों में विभक्त प्रमेयों या वस्तुओं का कला से केवल इतना लगाव है कि उसकी अभिव्यंजना में ये सब की सब वस्तुएँ जीवनक्षेत्र से संगृहीत उपादान या मसाले का काम देती हैं। अर्थात् काव्य की उक्ति में इनका भी, प्रतिबिंब आ जाया करता है। एक दूसरा आकस्मिक संबंध यह भी है कि वास्तविक जीवन में अनुभूत होनेवाली इन वस्तुओं की प्रतीति के भीतर कभी कभी कला का आभास भी आ जाया करता है। 1

इसमें तो कुछ कहना ही नहीं कि कला सौंदर्य का विधान करती है। पर काव्य आदि कलाओं में असुंदर और कुरूप वस्तुओं का वर्णन भी बराबर आया करता है। अत: अभिव्यंजना या उक्ति को न पकड़कर वर्णवस्तु को पकड़नेवालों के लिए सुंदर के भीतर कुरूप या असुंदर वस्तुओं के लिए स्थान निकालने में बड़ी अड़चन पड़ी। कुछ लोगों ने कहा कि काव्य आदि में असुंदर और बीभत्स आदि विरुद्धा वस्तुएँ सुंदर को और झलकाने के लिए रखी जाती हैं पर क्रोचे के अनुसार यह सब बखेड़ा व्यर्थ है और अभिव्यंजना या उक्ति के स्वरूप को ही पकड़ने से दूर हो जाता है।

अब क्रोचे के अनुसार अभिव्यंजना का असल स्वरूप क्या है, यह भी थोड़ा देख लीजिए। वह कहता है कि साधारणत: लोग कवि के शब्दों, गायक के स्वरों, चित्रकार के खींचे हुए आकारों को ही अभिव्यंजना समझा करते हैं। कभी कभी व्यंजना का अर्थ लज्जा से ऑंखें नीची करना, भय से काँपना, क्रोध से दाँत पीसना इत्यादि समझा जाता है। पर ये कला की अभिव्यंजनाएँ नहीं हैं, भौतिक अभिव्यंजनाएँ हैं। अनेक प्रकार की उग्र चेष्टाएँ करते हुए क्रोध से तिलमिलाते हुए मनुष्य में और कला पक्ष से क्रोध की अभिव्यंजना करते हुए मनुष्य में बड़ा अंतर है। इस प्रकार की भौतिक अभिव्यंजना कलाशून्य होती है। कला की असल अभिव्यंजना तो है कल्पना, जो एक आध्याौत्मिक क्रिया है। शब्द, रंग, भौतिक रूप, चेष्टा इत्यादि तो कल्पना को, आध्यारत्मिक वस्तु को, प्रकाशित करनेवाली भौतिक अभिव्यंजना है। कला की अभिव्यंजना की प्रक्रिया का यह क्रम कहा जा सकता है

(1) अंतस्संस्कार (इंप्रेशंस)

(2) अभिव्यंजना अर्थात् कलापरक आध्यासत्मिक योजना या कल्पना (एक्स्प्रेशन आव स्पिरिचुअल एइस्थेटिक सिंथेसिस)

(3) सौंदर्य की भावना से उत्पन्न आनुषंगिक आनंद (हेडोनिस्टिक ऐकंपनीमेट आर प्लेजर आव दि ब्यूटीफुल),

(4) कलापरक आध्यारत्मिक वस्तु (कल्पना) का स्थूल भौतिक रूपों में अवतरण (शब्द, स्वर चेष्टा, रंग, रेखा आदि)।

इन सबमें मूल प्रक्रिया है नंबर 2 अर्थात् अभिव्यंजना। ये चारों विधान पूरे हो जाने पर अभिव्यंजना का अनुष्ठान पूर्ण हो जाता है।

यहाँ तक तो क्रोचे का 'अभिव्यंजनावाद' हुआ जिसे यहाँ तक संक्षेप में और


1. दि फैक्ट्स बेयर नो रिलेशन टु दि आर्टिस्टिक फैक्ट बियांड दि जेनेरिक वन दैट आल आव देम, इन सो फार ऐज दे डेजिग्नेट दि मैटीरियल आव लाइफ, कैन बी रिप्रजेंटेड बाइ आर्ट, ऐंड दि अदर ऐक्सिडेंटल रिलेशन, दैट एइस्थेटिक फैक्ट आलसो मे समटाइम्स एंटर इंटू दि प्रोसेज ड्रेस्क्राइब्ड।

जहाँ तक स्पष्ट रूप में हो सका मैंने आप महानुभावों के सम्मुख रखा। 'कल्पना आध्याेत्मिक जगत् का आभास है', 'कला कला ही के लिए है', 'कल्पना का लोक ही निराला है', 'काव्य नूतन सृष्टि है', 'प्रकृति के किसी खंड का अनुकरण नहीं', 'प्रकृति को भावना के नए रूप रंग में दिखाना ही काव्य है', 'काव्य सौंदर्य की साधना है', इत्यादि अनेक वादों और प्रवादों का समन्वय इसके भीतर मिलता है। इसी से इसका थोड़ा विवरण देकर मैंने आप लोगों का समय लिया। आजकल हमारे साहित्य के समीक्षाक्षेत्र में भी बड़े यत्न से गृहीत जो अनेक चमत्कारपूर्ण वाक्य, शब्द और उक्तियाँ बिखरी हुई मिला करती हैं, उनके मूल स्थान और तात्पर्य का पता ठिकाना भी इसमें मिलेगा। यूरोप में 'कला' और 'सौंदर्य' की पुकार किस प्रकार काव्यसमीक्षा को भी इस 'वाद की ओर धीरे धीरे घसीटती रही', यह पहले कहा जा चुका है। 'सौंदर्यशास्त्र' में जिस प्रकार चित्रकला, मूर्तिकला आदि शिल्पों का विचार होने लगा उसी प्रकार काव्य का भी। सबसे बेढंगी बात तो यही हुई। अत: इस वाद का प्रतिषेधा करने के पहले मैं यही कह देना चाहता हूँ कि 'सौंदर्यशास्त्र', जिसके भीतर इसका निरूपण हुआ है काव्य संबंधी मीमांसा का ठीक स्थान ही नहीं। पहले तो 'सौंदर्यशास्त्र' अभी कोई ठीक ठिकाने का शास्त्र नहींक़भी होगा, यह भी नहीं कहा जा सकता। यदि हो भी तो काव्य से उसका संबंध नहीं।

सच बात तो यह है कि काव्य के स्वरूपलक्षण में 'सुंदर' शब्द उतने काम का नहीं जितना समझा जाने लगा है। इसी से पंडितराज ने अपने काव्यलक्षण में 'सुंदर' शब्द का प्रयोग न करके 'रमणीय' शब्द का प्रयोग किया है। 'रमणीय' का अभिप्राय है जिसमें मन रमे अर्थात् जिसे मन अपने सामने कुछ देर रखना या बार बार लाना चाहे। कोरी कहानी की अलग अलग घटनाओं में मन रमता नहीं; उसके किसी खंड पर कुछ देर जमा नहीं रहना चाहता। कहानी सुननेवाला कहता है, 'तब क्या हुआ?' कविता सुननेवाला, 'जरा फिर तो कहिए।' अर्थ के मैदान में 'सुंदर शब्द की दौड़ उतनी नहीं जितनी 'रमणीय' शब्द की। दूसरी बात यह है कि 'सुंदर' शब्द वाह्यार्थ की ओर संकेत करता जान पड़ता है और 'रमणीय' शब्द हृदय की ओर। इसी से काव्य की समीक्षाओं में 'सुंदर' शब्द का प्रयोग करके, कभी कभी फिर यह कहने की जरूरत पड़ा करती है कि 'सौंदर्य तो मन की भावना है, किसी बाहरी वस्तु में स्थित कोई गुण नहीं।' यह 'सुंदर' शब्द काव्यानुभूति के स्वरूप को संकुचित करता है। प्रत्येक कविता का ग्रहण सौंदर्यानुभूति के रूप में नहीं होता। क्रोचे या अपने यहाँ के चमत्कारवादी और वक्रोक्तिवादी के अनुसार यदि हम अभिव्यंजना या कल्पना की उड़ान को ही सब कुछ मानें तो भी 'सुंदर' शब्द बिना खींचतान के सर्वत्रा काम नहीं देता। बहुत सी उक्तियों से केवल एक प्रकार का चमत्कारपूर्ण प्रसादन होता है।

संसार में मनुष्य जाति के बीच कविता हृदय के भावों को लेकर ही उठी है। प्रेम, उत्साह, आश्चर्य, करुणा आदि की व्यंजना के लिए ही आदिम कवियों ने अपना स्निग्ध कंठ खोला था। तब से आजतक संसार की प्रत्येक सच्ची कविता की तह में भावानुभूति आत्मा की तरह रहती चली आ रही है। काव्य में भाव के आलंबन (कभी कभी उद्दीपन) के रूप में ही जगत् की किसी वस्तु का ग्रहण हो सकता है, और किसी रूप में नहीं। कविता देवी के अंत:पुर में 'सुंदर' 'प्रिय' होकर ही प्रवेश कर सकता है। जो 'सुंदर' प्रेम का आलंबन होता है, जिसकी ओर हमारी रागात्मिका वृत्ति प्रवृत्त होती है, जिसका स्मरण आने पर हृदय द्रवीभूत हो सकता हैचाहे वह व्यक्ति या वस्तु हो, चाहे प्रकृति का कोई खंडवही काव्य का असली अंग हो सकता है। बेलबूटे या नक्काशी की सौंदर्यभावना भावानुभूति के रूप में नहीं होती। अत: कलावादियों को भावानुभूति से सौंदर्यभावना को अलग करना पड़ा। तबसे तरह तरह के सौंदर्यशास्त्र बनने लगे जिनमें एक दूसरे से भिन्न 'सौंदर्य के पचीसों लक्षण और उसके संबंध में पचीसों मत प्रकाशित होते आ रहे हैं, जो कलाओं पर तो कुछ दूर तक घटते हैं पर काव्य को दूर ही दूर से छूते हैं।'

इन मतों का यूरोप के अनेक कवियों की रचनाओं पर थोड़ा बहुत प्रभाव पड़ता ही है, पर सच्चे कवियों पर नहीं। अधिकांश की रचनाएँ हृदय की मार्मिकता से ही संबंध रखती हैं। कुछ को यह 'कलावाद' और 'सौंदर्यवाद' का हल्ला खटकता भी है। हाल में इंगलैंड में रूपर्ट ब्रुक नामक एक कवि हुआ है जो कवित्व की सच्ची मार्मिक भावना लेकर इस जगत् में आया था, पर थोड़ी अवस्था में ही सन् 1914 में योरपीय महायुद्ध में मरा। उसने सौंदर्यवादियों के नाना मतों को अपनी भली बुरी रुचि का आलाप मात्र कहा, विशेषत: क्रोचे के वितंडावाद को। वहाँ के और सच्चे कवियों के समन उसे भी उसी प्रकार भाव या हृदय की मार्मिक अनुभूति में ही कविता की आत्मा के दर्शन होते थे जिस प्रकार भारतीय सहृदयों और कवियों को। काव्य में सौंदर्यभावना को एक अलग अनुभूति मननेवालों के इस तर्क को कि 'जब कोई कहता है कि यह वस्तु 'सुंदर' है तब उसका यह मतलब नहीं होता कि वह प्रिय (अर्थात् प्यार करने की वस्तु) है; अत: सिद्ध है कि सौंदर्य की भावना का प्रिय की भावना से अलग अस्तित्व है' उसने लचर कहा था। 1

सारा उपद्रव काव्य को कलाओं के भीतर लेने से हुआ है। इसी कारण काव्य के स्वरूप की भावना भी धीरे धीरे बेलबूटे और नक्काशी की भावना के रूप में


1. इट इज पासिब्ली ट्रयू, दैट ह्नेन मेन से 'दिस इज ब्यूटीफुल', दे डू नाट मीन 'दिस इज लब्ली'। दे मे मीन दैट एइस्थेटिक इमोशन एक्जिस्ट्स। माइ ओन्ली कमेंट्स आर दैट इट डज नाट फालो दैट दि एइस्थेटिक इमोशन डज एक्जिस्ट; ऐंड दैट, ऐज मैटर आव फैक्ट, दे आर रांग।

ज़ान वेब्स्टर ऐंड दि एलिजावेथन ड्रामा।

आती गई। हमारे यहाँ 'काव्य' की गिनती चौंसठ कलाओं में नहीं की गई है। इसीसे यहाँ वाग्वैचित्रय के अनुयायियों द्वारा चमत्कारवाद, वक्रोक्तिवाद आदि चलाए जाने पर भी इस प्रकार का वितंडावाद नहीं खड़ा किया गया। इधर हमारी हिन्दी में भी काव्यसमीक्षा के प्रसंग में 'कला' शब्द की बहुत अधिक उद्धारणी होने लगी है। मेरे देखने में तो हमारे काव्य समीक्षा क्षेत्र से जितनी जल्दी यह शब्द निकले उतना ही अच्छा। इसका जड़ पकड़ना ठीक नहीं।

अब मैं क्रोचे की मुख्य मुख्य बातों को, विशेषत: ऐसी बातों को जो काव्य के संबंध में भारतीय भावना के विरुद्धा पड़ती हैं, विचार के लिए लेता हूँ

पहले इस प्रश्न को लीजिए कि काव्यसंबंधिनी भावना का मूल या प्रधान रूप क्या है? क्रोचे ने कल्पनापक्ष को प्रधानता देकर उसका रूप 'ज्ञानात्मक' कहा है। हमारे यहाँ के रससिद्धांत के अनुसार उसका मूल रूप भावात्मक या अनुभूत्यात्मक है। मनोविज्ञान के अनुसार 'भाव' कोई एक अकेली वृत्ति नहीं, एक वृत्तिचक्र (सिस्टम) है जिसके भीतर बोधवृत्ति या ज्ञान (काग्निशन); इच्छा या संकल्प (कोनेशन), प्रवृत्ति (टेंडेंसी) और लक्षण (सिंप्टम्स)ये चार मनसिक और शारीरिक वृत्तियाँ आती हैं। अत: भाव का एक अवयव प्रतीति या बोध भी होता है। रसनिरूपण में जो 'विभाव' कहा गया है वही कल्पनात्मक या ज्ञानात्मक अवयव है जो भाव का संचार करता है। कवि और पाठक दोनों के मन में कल्पना कुछ मूर्त रूप या आलंबन खड़ा करती है जिसके प्रति भाव का अनुभव होता है। उस भाव की अनुभूति के साथ साथ आलंबन का बोध या ज्ञान भी बना रहता है। आलंबन चाहे व्यक्ति हो, चाहे वस्तु, चाहे व्यापार या घटना, चाहे प्रकृति का कोई खंड। इससे यह स्पष्ट व्यंजित है कि भावानुभूति के योग में ही कल्पना का स्थान काव्य के विधान में हमारे यहाँ स्वीकार किया गया है। यों तो मूर्त रूप मन में बराबर उठा करते हैं क़भी कभी ये रूप परस्पर अन्वित होकर भी कोई ऐसी योजना मन में नहीं लाते जिसे कोई काव्य कह सके, जैसेक़िसी मशीन के सारे कलपुरजों का रूप। कभी कभी मूल भावना या कल्पना वैज्ञानिक या दार्शनिक विचार में प्रयोजनीय होती है जो या तो किसी भाव द्वारा प्रेरित हो अथवा भाव का प्रवर्तन और संचार करती हो। सब प्रकार की कल्पना काव्य की प्रक्रिया नहीं कही जा सकती। अत: काव्य में हृदय की अनुभूति अंगी है, मूर्त रूप अंगभाव प्रधान है, कल्पना सहयोगिनी।

कल्पना में उठे हुए रूपों की प्रतीति (परसेप्शन) मात्र का 'ज्ञान' कहना उसे ऊँचे दर्जे को पहुँचाना है। यूरोप में पुराने जमाने के ईसाई संतों को, जब वे ईश्वर प्रेम में बेसुधा और उन्मत्ता होते थे, अनेक प्रकार के आध्याीत्मिक आभास हुआ करते थे जिन्हें वे अटपटी बानी में, अधयवसित विचित्र रूपकों या अन्योक्तियों द्वारा प्रकट किया करते थे। उनके तरह तरह के अर्थ लगाए जाते थे, पर 'लखै कोई बिरलै'। उन 'आभासों' के संबंध में कहा यह जाता था कि वे सूक्ष्म आध्या त्मिक जगत् की बातें हैं, अत: स्थूल जगत् के नाना रूपों के सहारे अभिव्यंजित होकर व्यक्त हो सकती हैं। इसी मजहबी रहस्यवाद का संस्कार क्रोचे के निरूपण में छिपा है जिसके कारण वह कल्पना को ज्ञान कहता है। 'ज्ञान' शब्द में एक विशेष गुरुत्व या महत्तव है। अत: जो अंतर्दशा जिसे बहुत प्रिय होगी उसे यह महत्तव देना उसके लिए स्वाभाविक ही है। यदि ऐसी अंतर्दशा लोगों की दृष्टि में बेठौर ठिकाने की हुई तो उसे वह उच्च भूमि का ज्ञान आध्यासत्मिक या पारमार्थिक ज्ञान कह देगा। 1

फ्रांस के दार्शनिक बर्गसन पर भी उपर्युक्त संस्करण का प्रभाव पूरा पूरा है। कल्पना रूपी स्वयंप्रकाश ज्ञान (इंटयूशन) को वह भी 'आत्मा की अपनी सृष्टि' और 'पारमार्थिक ज्ञान' कहता है और बुद्धि की विवेचना द्वारा उपलब्ध ज्ञान या प्रमा को व्यावहारिक ज्ञान। कल्पना को आध्या्त्मिक आभास घोषित करने का प्रभाव यूरोप के काव्य रचना क्षेत्र में भी बहुतों पर पड़ा है, और बुरा पड़ा है। जबकि कल्पना में आई हुई बात आध्याकत्मिक जगत् की होती है तब कम से कम उसका रूप रंग तो जगत् से कुछ विलक्षण होना चाहिए। इस धारणा की हद पर पहुँचा हुआ 'दूसरे जगत् के पंछियों' का एक दल अंग्रेजी के काव्यक्षेत्र से गुजर चुका है।

दार्शनिकता का यह मजहबी पुट कि मूर्त भावना या कल्पना आत्मा की अपनी क्रिया है। यह तो केवल आवश्यकता पड़ने पर अव्यक्त और अनिर्वचनीय का सहारा लेने के लिए दिया गया है। जिसे क्रोचे आत्मा के कारखाने से निकले हुए रूप कहता है, वे वास्तव में वाह्य जगत् से प्राप्त किए हुए रूप हैं। इंद्रियज ज्ञान के जो संस्कार (छाप) मन में संचित रहते हैं वे ही कभी बुद्धि के धाक्के से, कभी यों ही, भिन्न भिन्न ढंग से अन्वित होकर जगा करते हैं। यही मूर्त भावना या कल्पना है। यह अन्विति या योजना वाह्य जगत् से प्राप्त रूपों के ढंग पर होती है जिसमें एक एक रूप की सत्ता अलग अलग बनी रहती है। इस अन्वित रूपसमूह को आध्याूत्मिक 'साँचा' कहना और पृथक् पृथक् रूपों को उस साँचे में भरा जानेवाला 'मसाला' बताना वितंडावाद के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है? किसी साँचे में जो वस्तुएँ भरी जायँगी, वे घुल मिलकर गीली मिट्टी या गारा हो जायँगी, उनके पृथक् पृथक् रूप कहाँ रह जायँगे? पर कल्पना में जो रूपसमष्टि खड़ी होती है, उसके अंतर्भूत रूपों की अलग अलग प्रतीति होती है।


1. एनी स्टेट आव माइंड इन ह्निच एनी वन टेक्स ए ग्रेट इंटरेस्ट इज वेरी लाइक्ली टु बी काल्ड 'नालेज'। इफ दिस स्टेट आव माइंड इज वेरी अनलाइक दोज यूजुअली सो काल्ड, दि न्यू 'नालेज' बिल बी सेट इन दि आपोजिशन टु बी ओल्ड ऐज आव सुपीरियर मोर रियल ऐंड मोर एसेंशल नेचर।

मीनिंग आव मीनिंग (सी. के. आगडेन ऐंड आई. ए. रिचर्ड्स)

देअर थिअरी वाज दैट दे वेअर टुसिंग, ऐज पासिबुल लाइक बर्ड्स आव ऐनदर वर्ल्ड।

पोएट्री ऐंड रेनेसाँ आव वंडर (टी डब्ल्यू. डंटन)।

कल्पना में आए हुए रूप आध्या्त्मिक जगत् के हैं, वाह्य जगत् से प्राप्तनहीं है, पुराने ईसाई संतों और ब्लेक के इसी प्रवाद को ग्रहण करने के कारण 'साँचों' की विलक्षण उद्भावना की गई है। बात यह है कि उक्त प्रवाद को सुनकर एक साधारण समझ का आदमी भी शंका कर सकता है कि यदि कल्पना में आए हुए रूप वाह्य जगत् के रूपों की छाप नहीं है; खास आत्मा से निकले हुए हैं तो उनकी उद्भावना जन्मांधों को भी वैसी ही होनी चाहिए जैसी ऑंखवालों को। इसके समाधान का प्रयास यह कहकर किया जाएगा कि आत्मा से केवल सूक्ष्म 'साँचे' निकला करते हैं जो वाह्य जगत् से प्राप्त मूर्त द्रव्य भराव के बिना व्यक्त ही नहीं हो सकते। जन्मांधों की आत्मा से भी ये सूक्ष्म साँचे निकलते हैं, पर अव्यक्त ही रह जाते हैं। अब इस अव्यक्त का प्रमाण माँगने कौन जायगा?

क्रोचे ने जिसे वाह्य जगत् या जीवन से इकट्ठा किया हुआ 'द्रव्य' या उपादान (मसाला) कहा है उसके अंतर्गत प्रकृति के नाना रूपव्यापार, जीवन की भिन्न भिन्न घटनाएँ या तथ्य सब कुछ हैं। जबकि ये 'द्रव्य' या उपादान मात्र हैं तब कला की अभिव्यंजना में इनकी वास्तविकता अवास्तविकता, औचित्य अनौचित्य, योग्यता अयोग्यता आदि का विचार अपेक्षित नहीं। योग्यता अयोग्यता का विचार कहाँ तक और किस रूप में अपेक्षित होता है, इसका विचार मैं शब्दशक्ति के प्रसंग में अर्थ की योग्यता के अंतर्गत पहले कर चुका हूँ। अब औचित्य अनौचित्य लीजिए । लोक की रीति नीति, आचार व्यवहार की दृष्टि से अनौचित्य शिल्प अर्थात् बेलबूटे, नक्कासी आदि की सौंदर्यभावना में तो सचमुच कोई बाधा नहीं डालता, पर काव्य का प्रभाव कभी कभी बहुत हलका कर देता है। यही बात हमारे यहाँ 'रसाभास' और भावाभास के अंतर्गत सूचित की गई है। काव्य को हम जीवन से अलग नहीं कर सकते। उसे हम जीवन पर मार्मिक प्रभाव डालनेवाली वस्तु मनते हैं। कला 'कला ही के लिए' वाली बात को जीर्ण होकर मरे बहुत दिन हुए। एक क्या कई क्रोचे उसे फिर जिला नहीं सकते। काव्यानुभूति जीवन क्षेत्र में संचित अनुभूतियों का ही रसात्मक रूप है। अत्यंत अनूठी उक्ति द्वारा कही हुई दुराचार की बात से अनुरंजन हो सकता है, पर उसमें कुछ विरक्ति भी मिली रहेगी। यदि भावव्यंजना में भाव अनुचित है, ऐसे के प्रति हैं जैसे के प्रति न होना चाहिए, तौ 'साधाणीकरण' न होगा, अर्थात् श्रोता या पाठक का हृदय उस भाव की रसात्मक अनुभूति ग्रहण न करेगा; उस भाव में लीन न होगा।

'कला कला ही के लिए' इस पुराने प्रवाद ने कुछ दिनों से यह सवाल खड़ा कर रखा है कि 'सदाचार' का काव्य में कोई स्थान है या नहीं।' सन् 1891 में इंगलैंड के आस्करवाइल्ड ने बड़े धड़ल्ले के साथ कहा 'समालोचना' में सबसे पहली बात तो यह है कि समालोचक को यह परख हो कि 'कला' और 'आचार' के क्षेत्र सर्वथा पृथ्क पृथक् हैं।' तब से कई इसी का अनुवाद करते आए, जैसे'क़ला स्वत: न सदाचारपरक हो सकती है, न दुराचारपरक', कला के भीतर नैतिक सदसत् का भेद आ नहीं सकता। आप लोग फिर देखें कि ये दोनों कथन भी बेलबूटे और नक्काशी पर ही ठीक घटते हैं। उन्हीं की धारणा यहाँ भी काम कर रही है। यह तो स्पष्ट ही है कि 'काव्य और सदाचार' के संबंध में यह मत कला ही के लिए वाले वाद का एक पुछल्ला है। उस वाद को उड़े बहुत दिन हो गए। जो कुछ उसका अवशेष था उसे इंगलैंड के अत्यंत निर्मल दृष्टि वर्तमन समालोचक रिचर्ड्स ने योरपीय समीक्षा क्षेत्र के बहुत से निरर्थक शब्दजाल और कूड़ा करकट के साथ हटा दिया है और साफ कह दिया है कि सदाचार से कला का घनिष्ठ संबंध है।

'कलावाद' और 'अभिव्यंजनावाद' के एक बड़े उत्साही प्रचारक मि. स्ंपिगर्न हैं जिन्होंने 'समालोचना की नई पद्धाति' (दि न्यू क्रिटिसिज्म) नाम की एक छोटी सी पुस्तिका (जिसे एक पैंफ्लेट कहना चाहिए) में इन वादों की कुछ बातें अधूरे, अनपचे और असंबद्धा रूप में इकट्ठी कर दी हैं। 'काव्य में नैतिक सदसत् का विचार अनपेक्षित है' इस मत का बड़े जोश के साथ उन्होंने उस पुस्तिका में इस प्रकार कथन किया है' शुद्ध काव्य के भीतर सदाचार दुराचार ढूँढ़ना ऐसा ही है जैसा रेखागणित के समत्रिकोण त्रिभुज को सदाचारपूर्ण कहना और समद्विबाहु त्रिभुज को दुराचारपूर्ण।' पर जिस पेड़ की जड़ ही कट गई, उसकी डालियों को कोई कैसे हरी कर सकता है?

अभी सन् 1929 में कैलिफोर्निया (अमेरिका) विश्वविद्यालय के साहित्य विभाग के आचार्यों के आलोचनासंबंधी निबंधों का जो संग्रह प्रकाशित हुआ है उसमें प्रो. टी. के. ह्निप्ल का 'काव्य और सदाचार' (पोएट्री एंड मारल्स) पर एक निबंध है। इस निबंध में इस मत का कि 'काव्य' के भीतर नैतिक सदसत् का भेद आ ही नहीं सकता, कई तरह से निराकरण कर दिया गया है। निबंध के आरंभ में ही उन्होंने स्ंपिगर्न के उपर्युक्त कथन को यह कहकर लिया है कि, और कुछ कहने के पहले मैं इस पुरानी लकीर के समर्थक मि. स्ंपिगर्न के कथन को लेता हूँ1। प्रो. ह्निप्ल ने अपने निबंध में यह दिखा दिया है कि, कला का स्वत: कोई अर्थ नहीं। कविता मनुष्य के हृदय की अनुभूति है जो मनुष्य के ही हृदय में पहुँचाई जाती है। अत: मनुष्य के साथ उसका संबंध नित्य है। मनव जीवन से असंबद्धा उसका कुछ मूल्य नहीं। प्रो. ह्निप्ल अंत मं उस पक्ष पर आ गए हैं जिसके विचार से हमारे यहाँ 'रसाभास' और 'साधाणीकरण' का निरूपण हुआ है। वह है श्रोता या पाठक का पक्ष। श्रोता


1. बिफोर आइ स्पीक फर्दर लेट् मी कोट ह्नाट आइ कंसिडर दि मोस्ट विगरस स्टेटमेंट दि आर्थोडाक्स व्यू, फ्राम मि. स्ंपिगर्न्स 'दि न्यू क्रिटिसिज्म।' एसेस इन क्रिटिसिज्म

(बाइ मेंबर्स आव दि डिपार्टमेंट आव इंगलिश, यूनिवर्सिटी आव कैलिफोर्निया 1929)।

यह मैंने यहाँ इसलिए उध्दृत कर दिया है जिससे 'कला में सदाचार का विचार अनपेक्षित है' इसेएक आधुनिक सिद्धांत बताकर गंदी और कुरुचिपूर्ण पुस्तकों की तीव्र आलोचना का रास्ता न रोका जाय।

मनुष्य समाज में रहनेवाला प्राणी है। जीवन में सत् असत् की जो भावना वह प्राप्त किए रहेगा, किसी काव्य द्वारा प्राप्त अनुभूति का सामंजस्य उसके साथ वह अवश्य चाहेगा। यदि यह सामंजस्य न होगा तो उस काव्य का पूरा रसात्मक ग्रहण वह न कर सकेगा। कविता वही सार्थक है जो दूसरे के हृदय में जाकर अपना प्रकाश कर सके, जैसा कि गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है

'मनि, मानिक, मुकता छबि जैसी।

अहि, गिरि, गज सिर सोह न तैसीड्ड

नृप किरीट तरुनी तन पाई।

लहहिं सकल सोभा अधिकाईड्ड

तैसई सुकबि कबित बुधा कहहीं।

उपजहिं अनत, अनत छबि लहहींड्ड'

हमारे यहाँ रस के आरंभ में ही सच्ची रस की अनुभूति कैसे होती है यहबताते हुए 'सत्तवोद्रेकात्' कहकर झगड़ा साफ कर दिया गया है। रसानुभूति के समय प्रकृति सत्वस्थ रहती है, रजोगुण और तमोगुण का प्रभाव उस समय नहीं रहता।

अब रही यह बात कि काव्य की अनुभूति और वस्तु है, भाव की अनुभूति और। अर्थात् काव्यानुभूति भावानुभूति के रूप में नहीं होती। क्रोचे का तर्क यह है कि भावानुभूति सुखात्मक या दु:खात्मक हुआ करती है। शोक, घृणा, भय आदि दु:खात्मक अनुभूतियाँ हैं, पर इनकी व्यंजना काव्य में होती है। यदि भावानुभूति के रूप में काव्यानुभूति मानें तो इनकी व्यंजना की अनुभूति दु:खात्मक होगी। पर इनकी व्यंजनावाले काव्य भी लोग बराबर पढ़ते हैं, सुनते हैं। क्या लोग व्यर्थ बैठे बिठाए दु:ख मोल लेते हैं? क्रोचे द्वारा उपस्थित की हुई बाधा बहुत पुरानी है। हजारों वर्ष से लोग इसके समाधान का प्रयत्न करते आए हैं। हमारे यहाँ के साहित्यग्रंथों में भी ऐसा प्रयत्न हुआ है, पर मुझे यह कहने में संकोच नहीं कि उससे समाधान नहीं होता। शंका का समाधान तो नहीं होता पर यह भासित अवश्य हो जाता है कि काव्यानुभूति भावानुभूति के रूप में ही होती है। बात यह है कि पूर्वपक्ष बहुत ही सटीक है। वह यह कि यदि रसानुभूति आनंदस्वरूप ही है तो करुणरस के नाटक आदि पढ़ने देखने से श्रोताओं या दर्शकों को ऑंसू क्यों आ जाते हैं? ऑंसू का आना भावोद्रेक का वाह्य लक्षण (सिंप्टम) है। अत: मनोविज्ञान की दृष्टि से यह तो साफ प्रकट है कि काव्यानुभूति भावानुभूति के रूप मं ही होती है। रहा यह कि वह आनंदस्वरूप होती है या नहीं। मुझे इस बात का विशेष आग्रह नहीं।

मनोविज्ञानियों ने भी इस विषय को विचार के लिए लिया है। कुछ ने तो काव्यश्रवण से उत्पन्न भावानुभूति को क्रीड़ावृत्ति (प्ले इंपल्स) मनकर संतोष कियाहै। कुछ ने अनुभूत्याभास (ऐपेरेंट फीलिंग्स) कहकर। मेरा अपना विचार कुछ और है। मैं इस दिशा को हृदय की मुक्त दशा मनता हूँएेसी मुक्त दशा जिसमें व्यक्ति बद्धा घेरे से छूटकर वह अपनी स्वच्छंद भावात्मिका क्रिया में तत्पर रहता है। इस दशा को प्राप्त करने की प्रवृत्ति होना कोई आश्चर्य की बात नहीं; चाहे इस दशा को आप 'आनंद' कहिए या न कहिए। 'आनंद' कहिएगा तो उसके पहले 'अलौकिक' लगाना पड़ेगा और कहना न कहना बराबर हो जायगा।

भाव या हृदय को अनुभूति ऐसी वस्तु से, जिसका सच्ची कविता के साथ नित्य संबंध है, पीछा छुड़ाना क्रोचे के लिए सहज न था। एक स्थान पर उसकी सत्ता उसे स्वीकार करनी पड़ी है। वह कहता है, 'द्रव्य' वह भावात्मकता है जो कला के रूप में निरूपित न हुई हो। 1 'द्रव्य' से उसका अभिप्राय मन के भीतर वाह्य प्रकृति के रूपसंस्कारों (छापों) से है, यह मैं सूचित कर आया हूँ। मन में संचित वाह्य जगत् के नाना रूपों की भावात्मकता का मतलब क्या हो सकता है? बस यही न कि उनमें भावों के उद्बोधान की शक्ति होती है। बस, यही तोमेरा क्या काव्य से वास्तव में प्रभावित होनेवालों मात्र कापक्ष है। काव्य में उन रूपों का विधान इसीलिए होता है कि वे किसी भाव को, हृदय की किसी मार्मिक वृत्ति को जगाएँ। अत: सच्ची काव्यानुभूति भावानुभूति के ही लय में होती है, यह सिद्धहै।

अब अलंकारों को लीजिए। क्रोचे अलंकार अलंकार्य का भेद न मनकर अलंकार को शाब्दिक अभिव्यंजना या उक्ति से भिन्न कोई पदार्थ नहीं मनता। उसकी यही बात इधर उधर से आकर हमारे नए काव्यक्षेत्र में भी इस रूप में सुनाई पड़ा करती है कि 'अलंकार कोई चीज नहीं, उसका जमाना गया। पर नई रंगत की कविताओं को देखिए तो पता चलता है कि उसी का जमाना आजकल आ गया है। बात यह है कि आजकल इस प्रकार के लटके कि 'रस अलंकार तो पुरानी चीजें हैं, उनका जमाना गया इधर उधर से नोचकर ही दुहराए जाते हैं। वे कहाँ से आए हैं, उनका पूरा मतलब क्या है, यह सब जानने या समझने की कोई जरूरत नहीं समझी जाती। इन वाक्यों को बात बात में दुहरानेवालों में से अधिकांश तो इतना ही जानते हैं कि रस, अलंकार आदि हमारे साहित्य के बहुत काल से व्यवहृत शब्द हैं, अंग्रेजी शब्दों के अनुवाद नहीं। इससे इनका नाम लेना फैशन के खिलाफ है। दिन में सैकड़ों बार 'हृदय की अनुभूति, हृदय की अनुभूति' चिल्लाएँगे, पर 'रस' का नाम सुनकर ऐसा मुँह बनाएँगे मानो उसे न जाने कितना पीछे छोड़ आए हैं। भलेमनस इतना भी नहीं जानते कि हृदय की अनुभूति ही साहित्य में 'रस' और 'भाव' कहलाती है। यदि जानते तो कोई नया आविष्कार समझकर 'हृदयवाद' लेकर सामने न आते। संभव है इसका पता पाने पर कि 'हृदयवाद' तो 'रसवाद' ही है, वे इस शब्द को छोड़ दें। शब्दशक्ति, रस और अलंकार ये विषय विभाग काव्यसमीक्षा के लिए इतने उपयोगी हैं कि इनको अंतर्भूत करके संसार की नई पुरानी सब प्रकार की कविताओं


1. मैटर इज ए मोटिविटी नाट एइस्थेटिकली एलाबोरेटेड।

की बहुत सी सूक्ष्म, मार्मिक और स्वच्छ आलोचना हो सकती है। रिचर्ड्स ऐसे वर्तमन अंग्रेजी समालोचक किस प्रकार अब समीक्षा में बहुत कुछ भारतीय पद्धाति का अवलंबन करके कूड़ा करकट हटा रहे हैं, यह मैं शब्दशक्ति के प्रसंग में दिखा चुका हूँ। खैर, अब प्रस्तुत विषय पर आना चाहिए।

अलंकार अलंकार्य का भेद मिट नहीं सकता। शब्दशक्ति के प्रसंग में हम दिखा आए हैं कि उक्ति चाहे कितनी ही कल्पनामयी हो उसकी तह में कोई 'प्रस्तुत अर्थ' अवश्य ही होना चाहिए। इस अर्थ से या तो किसी तथ्य की या भाव की व्यंजना होगी। इस 'अर्थ' का पता लगाकर इस बात का निर्णय होगा कि व्यंजना ठीक हुई है या नहीं। अलंकारों (अर्थालंकारों) के भीतर भी कोई अर्थ व्यंग्य रहता है, चाहे उसे गौण ही कहिए। उदाहरण के लिए पंतजी की ये पंक्तियाँ लीजिए

'बाल्य सरिता के कूलों से

खेलती थी तरंग सी नित

इसी में था असीम अवसित।'

इसका प्रस्तुत अर्थ इस प्रकार कहा जा सकता है'वह बालिका अपने बाल्यजीवन के प्रवाह की सीमा के भीतर उछलती कूदती थी। उसके उस बाल्य जीवन में अत्यंत अधिक और अनिर्वचनीय आनंद प्रकट होता था।

बिना इस प्रस्तुत अर्थ को सामने रखे, न तो कवि की उक्ति की समीचीनता की परीक्षा हो सकती है, न उसकी रमणीयता के स्थल ही सूचित किए जा सकते हैं। अब यह देखिए कि उक्त प्रस्तुत अर्थ को कवि की उक्ति सुंदरता के साथ अच्छी तरह व्यंजित कर सकी हैं या नहीं। पहले 'बाल्य सरिता' यह रूपक लीजिए। कोई अवस्था स्थिर नहीं होती, प्रवाह रूप में बहती चली जाती है, इससे साम्य ठीक है। अब नदी की मूर्त भावना का प्रभाव लीजिए। नदी की धारा देखने से स्वच्छता, द्रुत गति, चपलता, उल्लास आदि की स्वभावत: भावना होती है, अत: प्रभाव भी वैसा ही रम्य है जैसा भोलीभाली, स्वच्छ हृदय प्रफुल्ल और चंचल बालिका को देखने से पड़ता है। अत: कह सकते हैं कि यह रूपक समीचीन और रम्य है। बाल्यावस्था या कोई अवस्था हो, उसकी दो सीमाएँ होती हैं एक सीमा के पार व्यतीत अवस्था होती है दूसरी सीमा के पार आनेवाली अवस्था। अत: दो 'कूलों' भी बहुत ठीक है। तरंग नदी की सीमा के भीतर ही उछलती है, बालिका भी बाल्यावस्था के बीच स्वच्छंद 'क्रीड़ा' करती है। अत: 'तरंग सी' उपमा भी अच्छी है। असीम अर्थात् ब्रह्म अनंत आनंद स्वरूप है और उस बालिका में भी अपरिमित आनंद का आभास मिलता है। अत: यह कहना ठीक ही है कि मानो उस ससीम बाल्यजीवन के भीतर असीम आनंदस्वरूप ब्रह्म ही आ बैठा है। इसलिए यह प्रतीयमन उत्प्रेक्षा भी अनूठी है क्योंकि इसके भीतर 'अधिक' अलंकार के वैचित्र्य की भी झलक है।

यह सब समीक्षा प्रस्तुत अप्रस्तुत का भेद समझकर प्रस्तुत अर्थ को सामने रखने से ही संभव है। यह लटका कि कला की अभिव्यंजना का अर्थ क्या? चल नहीं सकता। पुराने कलावाद के प्रचारक मि. स्ंपिगर्न भी काव्य की समीक्षा में यह देखना आवश्यक समझते हैं कि 'कवि क्या करने बैठा था और कहाँ तक सफलता के साथ उसे वह कर सका।' अब इस प्रकार प्रस्तुत अर्थ तक पहुँचे बिना 'कवि क्या करने बैठा था' इसका पता कैसे लग सकता है? इस प्रस्तुत अर्थ को सामने रखे बिना उस कविता की समालोचना किस रूप में हो सकती है? इसी रूप में न कि 'बाल्यसरितावाह! क्या सफलता की स्रोतस्विनी बहाई गई है जिसकी मधुमयी तरंगमाला में मन स्वर्गलोक का अंचल चूम आता है। असीम अवसितदेखिए कल्पना किस प्रकार ससीम की दीवारें फाँदकर असीम से जा भिड़ी और उसे ससीम के भीतर खींच लाई और संपुटित कर दिया।'

रस, अलंकार आदि के नाना भेदनिरूपण क्रोचे के अनुसार कला के निरूपण में कोई योग न देकर तर्क या शास्त्रपक्ष में सहायक होते हैं। उन सबका मूल्य केवल वैज्ञानिक समीक्षा में है, कलानिरूपिणी समीक्षा में नहीं। इस संबंध में मेरा वक्तव्य यह है कि वैज्ञानिक या विचारात्मक समीक्षा ही कलानिरूपिणी समीक्षा है। उसी का नाम समीक्षा है। उसके अतिरिक्त जो कल्पनात्मक या भावात्मक पदावली व्यवहृत होगी वह समीक्षा न होगी। किसी कविता का आधार लेकर खड़ा किया हुआ एक हवाई महल होगा, 'धुएँ का धारहरा' होगा। किसी उक्ति के संबंध में पूछा जायगा कि कैसी है, तो कहा जायगा कि इसे पढ़कर ऐसी भावना होती है कि मानो स्वर्गंगाके सुनहरे तट पर कल्पवृक्ष के नीचे बैठकर पीयूषपान करती हुई किसी अप्सरा ने मेरे ऊपर भूल से कुल्ला कर दिया।' 'कलावाद' और 'अभिव्यंजनावाद' के प्रभाव के यूरोप में समीक्षा के क्षेत्र में इधर तरह तरह की अर्थशून्य पदावली प्रचलित होतीआ रही थी, जैसे'क़ला कला के लिए' के बड़े भारी प्रतिपादक डॉ. ब्रैडले की यह प्रशस्ति 'कविता एक आत्मा है। पता नहीं कहाँ से आती है। न तो हमारे आदेश पर वह बोलेगी, न हमारी भाषा में बोलेगी। वह हमारी दासी नहीं, हमारी स्वामिनी है।' इस प्रकार के वाक्यरचना से काव्य के स्वरूपबोध में क्या सहायता पहुँच सकतीहै? समीक्षा के नाम पर इस प्रकार अर्थशून्य वागाडंबर की चाल निकलती देख अत्यंत सूक्ष्मदर्शी समालोचक रिचर्ड्स बहुत खिन्न हुए और उन्होंने इसका कठोर प्रतिषेधाकिया। 1

1. (क) बट दोज इनडाइरेक्ट डिवाइसेज फार एक्सप्रेसिंग फीलिंग थ्रू लॉजिकल इरेंलेवेंस ऐंड नानसेंस, थ्रू स्टेटमेंट्स नाट टु बी टेकेन सिरिअस्ली दो प्री एमिनेट्ली ऐपेरेंट इन पोएट्री, आर नाट पेक्यूलिअर टु इट। ए ग्रेट पार्ट आव ह्नाट पासेज फार क्रिटिसिज्म कम्स अंडर दिस हेड।

प्रैक्टिकल क्रिटिसिज्म, भाग, 3 अधयाय 1।

(ख) ए फ्यू कंजेक्चर्स, ए सप्लाइ आव ऐडमानिशंस, मेनी ऐक्यूट आइसोलेटेड आब्जर्वेशंस,समब्रिलिएंट गेसेज, मच ओरेटरी ऐंड ऐप्लाइड पोएट्री इनएक्लास्टिबुल कन्फ्यूजन, ए सफिशेंसी आव डाग्मा, नो स्माल स्टाक आव प्रेज्यूडिसेज ह्निम्सीज ऐंड क्राचेट्स, ए प्राफ्यूजन आव मिस्टिसिज्म, ए लिटिल जेनुइन स्पेक्यूलेशन, संड्री स्ट्रे इंस्परेशंस, आव सच ऐज दीज इज एक्स्टैट क्रिटिकल थियरीकंपोज्ड।

प्रिंसिपुल्स आव क्रिटिसिज्म।

खेद है कि यह अर्थशून्य वागाडंबर पहले बंगला की मासिक पत्रिकाओं में पहुँचकर और वहाँ से 'छलना', 'कुहकिनी', 'काकलीं' इत्यादि लेता हुआ हिन्दी के समीक्षाक्षेत्र में घोर रूप में प्रकट हुआ। यूरोप के साहित्य क्षेत्र की भली बुरी सब प्रकार की प्रवृत्तियों को ग्रहण करने में बंगाल उसके आगे रहता आया है। 'सत्यं शिवं सुंदरम्' की बात पहले कह चुका हूँ। सन् 1885 में फ्रांस में उठा हुआ रहस्यात्मक मजहबी प्रतीकवाद, जिसमें कुछ वस्तुओं, शब्दों और ध्वानियों में तांत्रिकों के ढंग पर विशेष अर्थों का आरोप किया गया था, ब्रह्मसमाज की सांप्रदायिक कविताओं में गृहीत हुआ, फिर श्री रवींद्रनाथ ठाकुर के प्रभाव से और व्यापक होकर हिन्दी में आया। पर यहाँ पर प्रसंग समीक्षा के नाम पर कल्पनात्मक और भावात्मक वागाडंबर का है। इस संबंध में पहली बात समझने की यह है कि 'समीक्षा' अच्छी तरह देखना और विचार करना है। वह जब होगी तब विचारात्मक होगी। कल्पनात्मक या भावात्मक कृति की परीक्षा विचार या विवेचन द्वारा ही हो सकती है, उसके जोड़ में दूसरी कल्पना भिड़ाने से नहीं। भाषा के दो प्रकार के प्रयोग होते हैंसांकेतिक (सिंबलिक) या तथ्यबोधक तथा भावप्रवर्तक (एमोटिव)1। समीक्षा प्रथम प्रकार के प्रयोग से ही हो सकती है दूसरे प्रकार से नहीं।

कलावाद के प्रचारक मि. स्ंपिगर्न का उल्लेख ऊपर हो चुका है। उन्होंने विचारात्मक आलोचना और भावात्मक समीक्षा मेंज़िसे उन्होंने प्रभावात्मक समीक्षा (इंप्रेशनिस्ट क्रिटिसिज्म) कहा हैपुरुष और स्त्रीं का भेद बताया है। प्रथम को उन्होंने 'मरदानी समीक्षा' कहा है, द्वितीय को 'जनानी समीक्षा'। 2 खैर यही सही। तब भी अपने साहित्य के वर्तमन सहयोगियों से इतना निवेदन करूँगा कि 'भाई कुछ मरदानी समीक्षा भी होनी चाहिए।' केवल इसी प्रकार की समीक्षा से कि एक बार इस कविता के प्रवाह में पड़कर बहना ही पड़ता है। स्वयं कवि को भी विवशता के साथ बहना पड़ा है, 'वह एकाधिक बार मयूर की भाँति अपने सौंदर्य पर आप ही नाच उठा है', काम नहीं चल सकता।

'कलावाद' और 'अभिव्यंजनावाद' का इतना विस्तृत उल्लेख मैंने इस कारण किया कि इनका प्रभाव यूरोप में समीक्षा के स्वरूप पर तो बहुत अधिक और काव्यरचना के स्वरूप पर भी थोड़ा बहुत पड़ा है। यदि इन दोनों वादों से उत्पन्न प्रवृत्तियाँ वहीं की वहीं रह जातीं, बंगभाषा के प्रसाद से हमारे हिन्दी साहित्य क्षेत्र में भी न प्रकट होतीं तो मुझे इनके उल्लेख द्वारा आप लोगों का अमूल्य समय नष्ट करने की कोई आवश्यकता न होती। अब मैं नीचे संक्षेप में इन प्रवृत्तियों का उल्लेख करता हूँ


1. दि मीनिंग आव मीनिंग (अधयाय 7), सी. के. आगडेन ऐंड आई. ए. रिचर्ड्स।

2. देअर आर टू सेक्सेज आव क्रिटिसिज्मदि मैस्क्युलिन क्रिटिसिज्म, दैट नेवर, ऐट आल ईवेंट्स इज डामिनेटेड बाइ दि आब्जेक्ट आव इट्स स्टडीज, ऐंड दि फेमिनिन क्रिटिसिज्म, दैट, रेस्पांड्स टु दि ल्योर आव आर्ट विद ए काइंड आव पैसिव एक्सटैसी। दि न्यूक्रिटिसिज्म।

(1) प्रस्तुत मार्मिक रूपविधान के प्रयत्न का त्याग और केवल प्रचुर अप्रस्तुत रूपविधान में ही प्रतिभा या कल्पना का प्रयोग।

(2) जीवन के किसी मार्मिक पक्ष को लेकर भाव या मार्मिक अनुभूति में लीन करने का प्रयास छोड़ केवल उक्ति में वैलक्षण्य लाने का प्रयास।

(3) जीवन की विविधा मार्मिक दशाओं को प्रत्यक्ष करनेवाले प्रबंधकाव्यों की ओर से उदासीनता और प्रेमसंबंधी मुक्तकों या प्रगीत मुक्तकों (लिरिक्स) की ओर अत्यंत अधिक प्रवृत्ति।

(4) 'अनंत', 'असीम' ऐसे कुछ शब्दों द्वारा उनपर आध्याात्मिक रंग चढ़ाने की प्रवृत्ति।

(5) काव्य के स्वरूप के संबंध में शिल्प अर्थात् बेलबूटे और नक्काशीवाली हल की धारणा।

(6) समालोचना हवाई होना और विचारशीलता का द्रास।

अब इनमें से एक एक को लेकर कुछ विचार करने की आवश्यकता है। आप लोग घबराएँ न, जो कुछ कहना होगा बहुत थोड़े में कहूँगा।

इन छह बातों को अलग अलग लेने के पहले मैं यह प्रतिपादित कर देना चाहता हूँ कि हमारे यहाँ काव्य का लक्ष्य है जगत् और जीवन के मार्मिक पक्ष को गोचर रूप में लाकर सामने रखना जिससे मनुष्य अपने व्यक्तिगत संकुचित घेरे से अपने हृदय को निकालकर उसे विश्वव्यापिनी और त्रिकालवर्तिनी अनुभूति में लीन करे। इसी लक्ष्य के भीतर जीवन के ऊँचे से ऊँचे उद्देश्य आ जाते हैं। इसी लक्ष्य की साधना से मनुष्य का हृदय जब विश्वहृदय, भगवान् के लोकरक्षक और लोकरंजक हृदय, से जा मिलता है तब वह भक्ति में लीन कहा जाता है। उस दशा में धर्म कर्म के साथ उसका पूर्ण सामंजस्य घटित हो जाता है। भक्ति, धर्म और ज्ञान दोनों की रसात्मक अनुभूति है। जिस धर्म की साधना में हृदय का योग नहीं वह शुष्क, नीरस और अधूरा है। इसी प्रकार जिस ज्ञान के साथ हृदय लगा नहीं चलता वह शुष्क, नीरस और अधूरा हैउसमें मिठास न रहने का मतलब यह है कि ब्रह्म के केवल चित्स्वरूप का कुछ स्पर्श हुआ, आनंदस्वरूप छूने को रह गया। यही बात गोस्वामीजी ने इस ढंग से कही है

ब्रह्मपयोनिधि, मंदरज्ञान, संत सुर आहि।

कथासुधा मथि काढ़ही, भक्तिमधुरता जाहिड्ड

ब्रह्म से गोस्वामीजी का अभिप्राय व्यक्त ब्रह्म'सिया राममय सब जग'से है। यह जगत् ब्रह्म का व्यक्त स्वरूप है और समष्टि रूप में शाश्वत और अनंत है विशेष रूप में अनित्य है, पर रूपपरंपरा नित्य है। ज्ञान इस रूपसागर का मंथन करके अनेक कथाएँ या तथ्य निकालता है और हृदय उनको आलंबन के रूप में सामने रखकर भक्ति की मधुरता का अनुभव करता है। इस प्रकार जब ज्ञान और भक्तिबुद्धि और हृदयदोनों सहयोगी होकर काम करें तब अंत:करण की पूर्णता समझनी चाहिए।

जिस प्रकार हृदय के योग के बिना, भक्ति के बिना, ज्ञान को गोस्वामीजी ने मधुरतारहित और नीरस कहा है, उसी प्रकार धार्माचरण और सदाचार को भी कड़ुवा कहा है

सूर सुजान सपूत सुलच्छन गनियत गुन गरुवाई।

बिनु हरिभजन इंदारुन के फल तजत नहीं करुवाईड्ड

उन्होंने स्पष्ट कहा है कि धार्माचरण और शिष्टाचार हृदय के योग के बिना, हर्ष पुलक के बिना, व्यर्थ है

रामहिं सुमिरत, रन भिरत, देत, परत गुरु पाय।

तुलसी जिनहिं न पुलक तन, ते जग जीवत जायड्ड

सारांश यह है कि हृदय की ऐसी भावदशा कभी कभी होती है जिसका न धर्म से विरोध होता है न ज्ञान से, और न किसी दूसरी भावदशा से। यही सामंजस्य हमारे यहाँ का मूल मंत्र है। जिस काव्य में यह सामंजस्य न होगा उसका मूल्य गिरा हुआ होगा।

धर्म के साथ हृदय के भाव या काव्य की अभिव्यंजना के अविरोध की चर्चा पहले हो चुकी है। अब ज्ञान और भाव, बुद्धि और हृदय के सामंजस्य के संबंध में थोड़ा विचार कर लेने की आवश्यकता है। इस सामंजस्य का अभिप्राय यह है कि बुद्धि अपना स्वतंत्र रूप से ज्ञानसंपादन का कार्य करे और हृदय भावप्रदर्शन का। एक दूसरे के कार्य में बाधक न हो, हस्तक्षेप न करे। बुद्धि यह न कहने जाय कि हृदय क्या? वह तो फालतू काम किया करता है। हृदय यह न कहने जाय कि बुद्धि क्या? वह तो रूखे लक्कड़ चीरा करती है। दोनों एक दूसरे के सहयोगी के रूप में काम करें। बुद्धि देश और काल के बीच हमारे ज्ञान का प्रसार बढ़ाती है। जगत् के अनेक तथ्य ऐसे होते हैं जो हमारी वाह्य इंद्रियों तथा सामान्य स्थूल बुद्धि को प्रत्यक्ष नहीं होते। बुद्धि अपनी सूक्ष्म क्रिया द्वारा विशेष मनन और चिंतन द्वारा उसका निरूपण करती है और कवि की प्रतिभा या कल्पना द्वारा उसे गोचर और मार्मिक रूप में सामने रखती है। ऐसी दशा में प्रतिभा या कल्पना अनुमन के इशारे पर चलती है और सामान्य रूप से निरूपित तथ्य के बीच से ऐसे विशेष दृश्य की उद्भावना कर लेती है जो मर्मस्पर्शी होता है। नाना भावों के लिए आलंबन आरंभ में ज्ञानेंद्रियाँ उपस्थित करती हैं; फिर ज्ञानेंद्रियों द्वारा प्राप्त सामग्री से प्रतिभा या कल्पना उनका भिन्न भिन्न रूपों में समन्वय करती है। अत: यह कहा जा सकता है कि ज्ञान ही भावों के संचार के लिए मार्ग खोलता है। ज्ञानप्रसार के भीतर ही भावप्रसार होता है। आरंभ में मनुष्य जाति की चेतन सत्ता इंद्रियज ज्ञान की समष्टि के रूप में ही अधिकतर रही। पीछे ज्यों ज्यों सभ्यता बढ़ती गई है त्यों त्यों मनुष्य की ज्ञानसत्ता बुद्धिव्यवसायात्मक होती गई है। अब मनुष्य का ज्ञानक्षेत्र बुद्धिव्यवसायात्मक या विचारात्मक होकर विस्तृत हो गया है। अत: उसके विस्तार के साथ हमें अपने हृदय का भी विस्तार बढ़ाना पड़ेगा। शुद्ध (किसी वाद या संप्रदाय के नहीं) विचार और चिंतन की क्रिया से वैज्ञानिक विवेचन और अनुसंधान द्वारा उद्धाटित परिस्थितियोंऔरतथ्यों के मर्मस्पर्शी पक्ष का भी मूर्त और सजीव चित्रणउसका भी इस रूप में प्रत्यक्षीकरण कि वह हमारे किसी भाव का आलंबन हो सकेक़ुछ कवियों का कामहोगा।

ये परिस्थितियाँ बहुत ही व्यापक होंगी, ये तथ्य न जाने कितनी बातों की तह में छिपे होंगे। यदि अत्याचार होगा तो रावण के अत्याचार सा लोकव्यापी होगा। हाय होगी तो पृथ्वी के एक कोने से दूसरे कोने तक होगी; पर एक हाय करनेवाला दूसरे हाय करनेवाले से इतनी दूर पर होगा कि सम्मिलित हाय की दारुणता केवल बाहरी ऑंखों की पहुँच के बाहर होगी। यदि प्राणियों की किसी सामान्य प्रवृत्ति का चित्रण होगा तो सामग्री कीटाणुओं की दुनिया तक से लाई जा सकती है। जगत् रूपी घनचक्कर और गोरखधांधो की महत्ता और जटिलता से चकित होने की चाह में हम अपनी अंतर्दृष्टि के सामने एक ओर अणुओं परमाणुओं और दूसरी ओर ज्योतिष्क पिंडों के भ्रमणचक्रों तक को ला सकते हैं। उपर्युक्त सामंजस्य प्रतिष्ठित हो जाने पर ज्ञान विज्ञान के साथ काव्य का कोई विरोध न दिखाई पड़ेगा।

हमारे यहाँ धर्म की रसात्मक अनुभूति या भक्ति में ज्ञान उक्त सामंजस्य के कारण कभी बाधक नहीं हुआ और न धर्म ने आग और कुल्हाड़े से ज्ञान विज्ञान का विरोध किया। हमारे यहाँ 'कर्म और 'उपासना' के समन 'ज्ञान' भी धर्म का एक अंग बहुत प्राचीन काल से माना गया था। पर सामी मजहबों में अक्ल की दखल न होने के कारण पाश्चात्य देशों में ज्ञान विज्ञान के प्रचार में बहुत बाधा पड़ी थी। बुद्धि की स्वाभाविक क्रिया द्वारा उपलब्ध ज्ञान के लिए ईसाई मत में जगह न थी। अत: जब ईसाई मत में सांप्रदायिक दर्शन (थियोलाजी) की नींव डालने के लिए आर्य जातियों, विशेषत: यूनानियों के तत्वसचिंतकों द्वारा प्रवर्तित ज्ञान की बातों को लेने की आवश्यकता हुई तब वे मनुष्य की स्वाभाविक बुद्धि द्वारा उपलब्ध ज्ञान के रूप में तो ली नहीं जा सकती थीं। यहूदी, ईसाई आदि सामी मतों के भीतर तो वे ही बातें ली जा सकती थीं जो किसी पैगंबर, पहुँचे हुए रहस्यदर्शी संत या सिद्ध को 'हाल', अथवा प्रेमोन्माद की दशा में दिव्य आभास के रूप में प्राप्त हुई हो। । 1 प्रेमोन्माद या मूर्छा की दशा में रहस्यदर्शी भक्त संतों को अंत:करण के भीतर ईश्वर का समागम प्राप्त होता था और उस आध्याशत्मिक जगत्की कुछ बातें आभास के रूप में उनपर प्रकाशित की जाती थीं। ईसा की छठी शताब्दी

1. दि विलीफ इन मिस्टिकल थियालाजी ऐंड इट्स कनेक्टेड फेनामेना वाज टेकेन ओवर बाई क्रिश्चिऐनिटी फ्राम जूडाइज्म। जूडाइज्म टेंडेड टु रिगार्ड गॉड ऐज सो ट्रैंसेंडेंट ऐंड इनएफेमेबुल दैट ही कुड डील विद क्रीचर्स ओन्ली बाइ ऐंजेलिक मेडिएशन। इट वाज दि फैशन टु सी आर राइट आव ऐपीकैलिप्स, सिंबलिक विजंस; ऐंजेलिक मिनिस्टर्स। एनसाइक्लोपीडिया आव रेलिजन ऐंड एथिक्स।

से लेकर बारहवीं तेरहवीं शताब्दी तक यूनानी दर्शनों में निरूपित बात इन्हीं 'आभासों' के रूप में रहस्यदर्शी संत लोग कहा करते थे। 1

ईश्वरीय आभास का रूप देने के लिए ये बातें नाना प्रकार की अन्योक्तियों और अधयवसित रूपकों में लपेटकर विचित्र शब्दों में कही जाती थीं। अत: कबीर आदि रहस्यवादी संतों और यूरोप के रहस्यवादी कवियों की उक्तियों में जो वैलक्षण्य का विचित्र रूपकजाल रहता है उसका भी सांप्रदायिक कारण और इतिहास है। ईसवी सन् 604 में संत ग्रेगरी नामक एक प्रसिद्ध महात्मा हो गए हैं। मूर्छा उन्माद की दशा में ईश्वर का जो समागम होता है उसके संबंध में उन्होंने कहा कि साधक ईश्वर को ठीक वैसा ही नहीं देखता जैसा कि वह परमार्थत: है, बल्कि उसका सोपाधि रूप देखता है। हमारे भीतर कल्मष का जो अंधकार रहता है वह उस शुद्ध ज्योति को ठीक ठीक हम तक पहुँचने नहीं देता। हम उसे साफ नहीं देख सकते, वैसे ही देख सकते हैं जैसे बहुत दूर की वस्तु कुछ धुधंली सी दिखाई पड़ती है। इसके उपरांत ईसा की बारहवीं शताब्दी में संत बरनार्ड ने यह बताया कि रहस्यदर्शी को 'हाल' या आवेश की दशा में आध्याीत्मिक ज्ञान की उपलब्धि किस ढंग से होती है। उन्होंने कहा कि 'जब साधक के हृदयदेश में ईश्वर की भेजी हुई ज्योति की किरण झलक की तरह क्षणमात्र के लिए आ जाती है तब या तो उस परम तेज की चकाचौंधा कम करने के लिए अथवा उसके द्वारा प्रकाशित ज्ञान को दूसरों तक कुछ पहुँचाने के योग्य बनाने के लिए, उस प्रेषित ज्ञान या तथ्य को व्यंजित करने के उपयुक्त पार्थिव जगत् का कुछ अनूठा रूपविधान (रूपक) सामने आ जाता है। छलावे की तरह भासित हुए उस रूपक को 'छायादृश्य' (फैटैज्माटा) कहतेहै। । 2

1. दि फंडामेंटल मेटाफिजिक्स आन ह्निच दि डाक्ट्रिन आव क्रिश्चियन मिस्टिसिज्म इज ग्राउंडेड, इजग्रीक रैशनलिस्टिक मेटाफिजिक्स, फार्म्युलेटेड बाइ साक्रेटीज ऐंड हिज ग्रेट सक्सेसर्स प्लैटो, ऐरिस्टोटलऐंड प्लाटिनस...गाड, एकार्डिंग टु दिस ग्रीक इंटरप्रिटेशन, इज ऐब्सोल्यूट रिएलिटी विद नोऐडमिक्श्चरआव मैटर, दैट इज विद नो पोटेंशैलिटी एंड पासिबिलिटी आव चेंज। देयर इज, हाउएवर, समथिंग इन हयूमन सोल ह्निच इज अनसंडर्ड फ्राम दि ऐब्सोल्यूट, समथिंग ह्निच एसेंशली इज दैट रिएलिटी दिसइनटेलेक्चुअल फार्म्युलेशन नेसेसैरिली इनवाल्ब्स ए वाया निगेटिवही इज नाट दिस, ही इज नाट दिस। वही

देखिए किस प्रकार इस उद्धारण में उपनिषद् के ब्रह्मवाद का ही निरूपण है और 'नेति, नेति' वाक्य भी ज्यों का त्यों आया है।

2. ह्नेन समथिंग फ्राम गाड हैज मोमेंटैरिली ऐंड, ऐज इट वेयर , विद दि स्विफ्टनेस आव ए फ्लैश आव लाइट, शेड इट्स रे अपान दि माइंड इन एक्स्टेसी आव स्पिरिट, इम्मीडिएली, ह्नेयर फार दि टेंपरिंग आव दिस टू ग्रेट रेडिऐंस, आर फार दि सेक आव इपार्टिंग इट टु अदर्स, देयर प्रेजेंट, देमसेल्वस सटेन इमेजनरीलाइकनेसेज आव लोअर थिंग्स, सूटेड टु दि मीनिंग्ज ह्निच हैव बीन इन्फ्यूज्ड फ्राम ऐबव, बाइ मीन्स आव ह्निच दैट मोस्ट प्योर ऐंड ब्रिलिएंट रे इज ए इन मैनर शेडेड, ऐंड बोथ बिकम मोर बेयरेबल टू दि सोल इटसेल्फ ऐंड मोर केपेबुल आव बीइंग कम्युनिकेटेड। वही।

इसी 'छायादृश्य' के लक्षणों का अनुकरण सामी मजहबों के भीतर चले हुए भक्ति के रहस्यमार्गों में पाया जाता है। सूफियों में इसी परंपरा का निर्वाह शराब, प्याले आदि के रूपकों में मिलता है जो एक प्रकार के प्रतीक (सिंबल्स) से हो गए हैं। निर्गुन पंथ की बानियों मेंविशेषत: कबीरदास की बानी मेंज़ो वेदांत, हठयोग आदि की साधारण बातों को लेकर पहेली के ढंग के रूपक बाँधने की प्रवृत्ति पाई जाती है, वह भी इसी रूढ़ि का निर्वाह है। रहस्यवादी ऍंगरेज कवि ब्लेक ने कल्पना को जो ईश्वर का दिव्य साक्षात्कार बताया, उसका भी यही सांप्रदायिक मूल है। इधर क्रोचे ने जो 'वाद' खड़ा किया है, वह भी इसी का आधुनिक वाग्विस्तारहै।

ईसाई भक्तिमार्ग के इस 'छायादृश्य' (फैटैज्माटा) वाले प्रवाद का प्रभाव यूरोप के काव्यक्षेत्र में भी समय समय पर प्रकट होता रहा। सन् 1885 में फ्रांस के रहस्यात्मक प्रतीकवादियों (सिंबलिस्टिक डिकेडेंट्स) ने कविता का जो ढंग पकड़ा था उसमें उक्त छायादृश्यवाली धारणा का पूरा अनुसरण था। इसी से जब उक्त रहस्यवाद का ढंग ब्रह्मसमाज के भजनों में दिखाई दिया तब पुराने ईसाई भक्तों के उसी 'छायादृश्य' (फैटैज्माटा) के अनुकरण के कारण उस ढंग की रचनाओं को 'छायावाद' कहने लगे। यह है हिन्दी के वर्तमन काव्यक्षेत्र में प्रचलित 'छायावाद' शब्द का मूल और इतिहास।

प्राचीन आर्य जातियों में रहस्यवाद की प्रवृत्ति नहीं थीन यूरोप में, न भारत में। प्राचीन यूनानी और रोमन दोनों इससे बचे हुए थे। 1 तत्वज्ञान संपन्न यूनानी जाति स्वच्छ विचार और संयत आत्मा धारण करती थी। वह परमात्मबोध के लिए शुद्ध चिंतनमार्ग को छोड़कर रहस्यवाद के अंधकार में भटकनेवाली नहीं थी। यही स्थिति प्राचीन भारतीय आर्यों की भी थी। यहाँ परमार्थतत्व बोध के लिए बुद्धि की स्वाभाविक पद्धाति, चिंतन के विशुद्ध मार्ग के अतिरिक्त और कोई दूसरा मार्ग स्वीकृत न था। उपनिषद् की ब्रह्मविद्या के प्रवर्तक इसी स्वाभाविक बुद्धि की निश्चयात्मिका वृत्ति

द्वारा, शुद्ध अनुमन और विचार की परंपरा द्वारा, ज्ञान की उपलब्धि करते थे। उनके द्वारा प्रवर्तित हमारा 'ज्ञानकांड' मूर्छा, स्वप्न या बेहोशी की उपज नहीं है, तत्व चिंतन का फल है। वही हमारे वेदांत के ब्रह्मस्पर्शी प्रसाद की नींव है। उपनिषदों का तत्व ज्ञानात्मक (रेशनलिस्टिक) स्वरूप स्पष्ट है। उनमें बहुत से स्थल संवाद के रूप में हैं, जिसमें शंकासमाधान भी है। जनक की सभा में शास्त्रर्थ के रूप में ब्रह्मवाद

1. टेकेन आल इन आल, इट इज एविडेंट दैट मिस्टिसिज्म प्लेड इन्कांस्पिक्युअस रोल इन दि रेलिजस लाइफ आव दि हेलेनीज। दि ग्रीक जीनिअस लब्ड क्लिअरनेस ऐंड सेल्फ पजेशन टू वेल टु सीक दि डिवाइन इन मिस्टिकल डार्कनेस ऐंड सेल्फ सरेंडर।

परहैप्स नो सेमी सिविलाइज्ड पीपुल वाज एवर मोर फ्री फ्राम मिस्टिसिज्म, इन अवर सेंस आव दि टर्म, दैन दि ओल्ड रोमंस।

दि साइकोलाजी आव रेलिजस मिस्टिसिज्म (बाई जेम्स एच.एल. ल्यूबा)।

की चर्चा होती थी। उपनिषदों के स्फुट विचारों को ही व्यवस्थित शास्त्र के रूप में संकलित करने के लिए वादरायण ने ब्रह्म सूत्रों की रचना की। 1

खेद है कि ईसाई मत से प्रभावित ब्रह्मसमाज ने उपनिषदों का पल्ला पकड़कर उन्हें रहस्यवादी रूप देने का प्रयत्न किया। बहुत से पाश्चात्य लेखकों ने बड़ी खुशी से इन्हें इस रूप में ग्रहण किया और उपनिषदों के ज्ञान को रहस्यवाद की कोटि में रखा। बात यह है कि उस कोटि में जाने से उसका तात्विञक मूल्य घट जाता है और प्राचीन भारतीय आर्यों की तत्वरज्ञानसंपन्नता कुछ ओट में पड़ जाती है और यूनानियों के सामने दिखाई पड़ती है। उपनिषद् यदि रहस्यदर्शियों के स्वप्न या आभास हैं तब तो प्राचीन भारतीय भी सभ्यता की उसी सीढ़ी पर थे जिसपर प्राचीन यहूदी। उपनिषदों को रहस्यवाद कहने का आधार केवल यही है कि उनकी कुछ बातें उपमाओं या लक्षणाओं के द्वारा कुछ अनूठे ढंग से कही हुई मिलती हैं। बात यह है कि उस प्राचीन काल में दार्शनिक विवेचन को व्यक्त करने की व्यवस्थित शैली नहीं निकली थी। चिंतन करते करते कभी कभी ऋषि भावोन्मुख भी हो जाते थे और अपनी बात अनूठी उक्ति के रूप में कह देते थे।

ज्ञान जब प्राप्त होगा तब शुद्धबुद्धि की क्रिया से ही। कल्पना, स्वप्न, भावोन्माद आदि द्वारा किसी उच्चकोटि का ज्ञान तो दूर की बात है साधारण बातें भी नहीं जानी जा सकतीं। न हम कान से देख सकते हैं न नाक से सुन सकते हैं। पर प्रेमलक्षणा भक्ति क्यों और किस प्रकार (ज्ञान का भी एक रहस्यमय साधन) सामी मजहबों में मानी गई, यह हम अभी दिखा आए हैं। रहस्यवादी जो बातें कहते हैं वे तत्वहज्ञ दार्शनिकों द्वारा निश्चित की हुई होती हैं, आसमन से टपकी या आत्मा से उठी नहीं होती। उन्हीं बातों को सुनकर या इधर उधर से लेकर वे उनपर कल्पना का रंग चढ़ाते और उन्हें अनूठे रूपकों और अन्योक्तियों में कहा करते है। । 2 कोई कह सकता है कि आज तक किसी पहुँचे हुए रहस्यवादी ने कोई एक भी बात ऐसी कही है जो पहले से प्रचलित


1. देखिए एन, मैकनिकल की पुस्तक 'इंडियन थेइज्म फ्राम दि वैदिक टु दि मुहम्मदन पीरियड' तथा 'इंसाइक्लोपीडिया आव रेलिजन ऐंड एथिक्स' में उनका निबंध, जिसके नीचे लिखे हुएवाक्य ध्या नदेनेयोग्यहैं

इट इज ट्रयू आव मच इन दि उपनिषद्स दैट इट इज सीकिंग टु डिस्कवर दि रिलेशंस आव मैन विद दि यूनिवर्स रादर दैन हिज रिलेशन विद दि गाड। इट इज आफेन कंसर्न्ड विद दि रिलेशन आव दि नोअर ऐंड दि नोन, रादर दैन विद दैट आव दि वर्शिपर ऐंड गाड। इट गिब्स ए मेटाफिजिक रादर दैन ऐन एथिक आर रिलिजन।

2. इट इज नाट नेसेसरी टु कन्क्लूड दैट 'ओरैक्युलर कम्युकेशन' आर मिस्टीरिअस इनफार्मेशन, आर आइडियाज विद नावेल्टी आव कंटेंट, कम्स इंटू दि वर्ल्ड थ्रू दि सीक्रेट डोर आव मिस्टिकल ओपेनिंग्ज, 'आइडिआज' ऐंड 'कम्युनिकेशंस' ऐंड इन्फार्मेशन प्रूव आल्वेज, ह्नेन दे आर एग्जामिंड, टु हैव ए हिस्टारिक बैकग्राउंड। दे शो दि माक्र्स आव ग्रुप एक्सपीरिएंस ऐंड दे डू नाट ड्राप रेडीमेड इंटू दि वर्ल्ड फ्राम सम अदर रीजन।

रूफ़स एम. जोन्स (एनसाइक्लोपीडिया आव रिलिजन ऐंड एथिक्स)

न चली आती हो? कबीर की बानी में ज्ञान की कोई एक नूतन कणिका भी कोई किसी पहुँचे हुए रहस्यवादी ने कोई एक भी बात ऐसी कही है जो पहले से प्रचलित दिखा सकता है? ज्ञान के क्षेत्र के रहस्यवाद का कोई मूल्य नहीं। रहस्यवाद से किसी नए तथ्य की, नए ज्ञान की, उपलब्धि नहीं हो सकती, यह बात रहस्यवाद पर तात्विटक दृष्टि से विचार करनेवालों ने लिखी है। 1

सामी मतों के भक्तिमार्गों में ज्ञानपक्ष यद्यपि लिया गया है आर्य जाति के तत्वसचिंतकों से, पर बताया जाता है ऊपर लिखे रहस्यात्मक ढंग से आभास रूप में प्राप्त। इसी से पाश्चात्य लेखक भारतीय भक्तिमार्ग को भी रहस्यवाद के भीतर घसीटा करते हैं। पर यह उनका शुद्ध भ्रम है, यह मैं आगे दिखाऊँगा। सामी मतों की भक्तिसाधना में दांपत्य वासना (सेक्स इस्टिक्ट) का सहारा लिया गया जिससे 'माधुर्य भाव' का विकास उनमें विशेष दिखाई पड़ता है। ईसाइयों की धर्मपुस्तक में एक जगह आया है कि 'जिस प्रकार दूल्हा दुलहिन के साथ रमण करता है, इसी प्रकार ईश्वर तुझमें रमण करे।' इसी को लेकर 'स्वर्गीय दूल्हा' (हेवेन्ली ब्राइडग्रुम) की भावना चली। जिस प्रकार हमारे यहाँ के हठयोगियों ने मनुष्य के भीतर चक्रों, कमलों, मणिपूर इत्यादि की कल्पना की है, उसी प्रकार साधक ईसाइयों ने उस स्वर्गीय दूल्हे के साथ विहार करने के लिए अंतर्देश में कई प्रकार के रंगमहल या कोठरियाँ कायम कीथीं।

ईसा की बारहवीं शताब्दी के द्वितीय चरण में संत बरनार्ड नाम के जो प्रसिद्ध भक्त हो गए हैं, उन्होंने दूल्हे के 'तीसरे कक्ष' में प्रवेश का इस प्रकार वर्णन किया है'यद्यपि वे (ईश्वर) कई बार मेरे भीतर आए पर मैंने न जाना कि कब आए। आ जाने पर कभी कभी मुझे उनकी आहट मिली है, उनके विद्यमन होने का स्मरण भी मुझे है, वे आनेवाले हैं, इसका आभास भी मुझे कभी कभी पहले से मिला है, पर वे कब बाहर गए, इसका पता मुझे कभी न चला।'

अब इसी प्रकार की रचना की झलक आप आज इस बीसवीं शताब्दी में भी 'गीतांजलि', 'साधना' तथा मासिक पत्रों में समय समय पर निकलनेवाले गद्यकाव्यों में स्पष्ट देख सकते हैं। कबीर की 'सुन्नि महलिया' भी सामी रहस्यवाद की ओर से आई है।

भारतवर्ष के वैष्णव धर्म में भी जैसे सेव्य, सेवक आदि कई भावों से उपासना मानी गई थी वैसे ही गोपियों के कृष्णप्रेम को लेकर 'माधुर्यभाव' की उपासना भी मानी गई थी; पर उसका स्वरूप केवल भावात्मक था; उसमें न भीतर महलों आदि


1. दि मिस्टिकल एक्सपीरिएंस कंसिस्ट्स इन लीप्स आव इनसाइट थ्रू हाइटेंड लाइफ, इन ऐन इंटैंसिफाइंग आव विजन थ्रू दि फ्यूजिंग आव आल दि डीप लाइंग पावर्स आव इंटेलेक्ट, इमोशंस ऐंड विल, ऐंड इन ए करेस्पांडिंग सर्ज आव कन्विक्शन, थ्रू दि डायनेमिक इंटीग्रेशन आव पर्सनैलिटी, रादर दैन इन दि गिफ्ट आव न्यू फैक्ट्स। वही।

की कल्पना थी, न मूर्छा, उन्माद आदि लक्षण। पीछे मुसलमानी शासनकाल में कुछ कृष्णभक्तों पर, जैसेचैतन्य महाप्रभु, मीरा, नागरीदास परसूफियों का प्रभाव पड़ा। भारतवर्ष के भीतर माधुर्य भाव का ग्रहण प्राचीन काल में दक्षिण में हुआ। बड़े बड़े मंदिरों में जो देवदासियाँ रहा करती थीं इसका प्रवर्तन पहले उन्हीं के बीच जान पड़ता है। माता पिता लड़कियों को मंदिर में चढ़ा आते थे, जहाँ उनका विवाह ठाकुरजी के साथ हो जाता था। वे ही देवदासियाँ हो जाती थीं। उनके लिए मंदिर में प्रतिष्ठित भगवान् की उपासना पतिरूप में विधोय थी; इन देवदासियों में से कुछ उच्च कोटि की भक्तिनें निकल आती थीं।

दक्षिण में अंदाल इसी प्रकार की भक्तिन थी, जिसका जन्म वि. सं. 773के आसपास हुआ था। यह बहुत छोटी अवस्था में किसी साधु को एक पेड़ के नीचे मिली थी। वह साधु भगवान् का स्वप्न पाकर इसे विवाह के वस्त्रा पहनाकर श्रीरंगजी के मंदिर में छोड़ आया था। अंदाल के पद द्रविड़ भाषा में 'तिरुप्पावइ' नामक पुस्तक में अब तक मिलते हैं। अंदाल एक स्थान पर कहती है'अब मैं यौवन को प्राप्त हूँ और स्वामी कृष्ण के अतिरिक्त और किसी को अपना पति नहीं बना सकती।' इस भाव की उपासना यदि कुछ दिन चले तो उसमें रहस्य का समावेश अवश्य हो जायगा। भारतीय भक्ति का मूल रूप रहस्यात्मक न होने के कारण इस 'माधुर्य भाव' का अधिक प्रचार न हुआ। पीछे मुसलमानी जमाने में सूफियों की देखादेखी इस भाव की ओर कुछ कृष्णभक्त रहस्यात्मक ढंग से प्रवृत्त हुए।

भारतवर्ष में धर्म के भीतर भी ज्ञान की प्रकृत पद्धाति और प्रेम की प्रकृत पद्धाति स्वीकृत थी; अत: न ज्ञान के क्षेत्र में और न भगवत्प्रेम के क्षेत्र में रहस्यवाद की आवश्यकता हुई। साधनात्मक और क्रियात्मक रहस्यवाद का अलबत योग, तंत्र और रसायन के रूप में विकास हुआ। यहाँ ज्ञानमार्ग, भक्तिमार्ग और योगमार्ग तीनों अलग अलग रहे हैं। इस स्पष्ट विभाग के कारण भारतीय परंपरा का भक्त न तो पारमार्थिक ज्ञान का दावा करता है, न अलौकिक सिद्धि या रहस्यदर्शन का। ज्ञान के अधिकारी तर्कबुद्धिसंपन्न, चिंतनशील दार्शनिक ही माने जाते हैं। तत्व ज्ञान की झलक के लिए शुद्ध बुद्धि के अतिरिक्त और कोई दूसरी खिड़की नहीं मानी जाती। भारतीय भक्त हृदय भी उसी पद्धाति से भगवान् से प्रेम करता है, जिस पद्धाति से पुत्रा, कलत्रा से। इस प्रेम के लिए कोई अप्राकृतिक पद्धाति अपेक्षित नहीं। भक्त की अनुभूति एक प्राकृतिक या स्वाभाविक अनुभूति है। पर रहस्यवादी की ईश्वरसमागमवाली दशा या तो योगिकों की तुरीयावस्था अथवा चित्तविक्षेप के रूप में मानी जाती हैज़ैसीक़िसी भूत या देवता के सिर आने पर होती है। इस दशा पर आस्था सभ्यता की आदिम अवस्था का संस्कार है जो किसी न किसी रूप में अब तक चला चलता है। उसी के कारण जैसा भूतप्रेत, कुलदेवता आदि का सिर पर आना वैसा ही यह ईश्वर का सिर पर आना समझा जाता है। हमारे यहाँ के भक्ति मार्ग में यह बिलकुल नहीं है। आज तक किसी भक्त महात्मा के सिर पर न कभी राम कृष्ण आए, न ब्रह्महाँ, ब्रह्मराक्षस अलबत आते हैं। हनुमनजी भी कभी कभी भक्तमंडली से उछलकर किसी सेवक के सिर पर आ जाया करते हैं।

भारतीय परंपरा के भक्त का प्रेममार्ग सीधा सादा और स्वाभाविक है, जिस पर चलना सब जानते हैं, चाहे चलें न। वह ऐसा नहीं जिसे कोई बिरला ही जानता हो या पा सकता हो। वह तो संसार में सबके लिए ऐसा ही सुलभ है, जैसेअन्न और जल

निगम अगम, साहब सुगम, राम साँचिली चाह।

अंबु असन अवलोकियत, सुलभ सबै जग माहड्ड तुलसी

जिस हृदय से भक्ति की जाती है, वह सबके पास है। सरलता इस मार्ग का नित्यलक्षण हैमन की सरलता, बचन की सरलता और कर्म की सरलता

सूधो मन, सूधो बचन, सूधी सब करतूति।

तुलसी सूधी सकल बिधि, रघुबर प्रेम प्रसूतिड्ड

भारतीय परंपरा के सच्चे भक्त में दुराव छिपाव की प्रवृत्ति नहीं होती। उसे यह प्रकट करना नहीं रहता कि जो बातें मैं जानता हूँ उसे कोई बिरला ही समझ सकता है, इससे अपनी वाणी को अटपटी और रहस्यमयी बनाने की आवश्यकता उसे कभी नहीं होती। वह सीधीसादी सामान्य बात को भी रूपकों में लपेटकर पहेली बनाने और असंबद्धाता के साथ कहने नहीं जाता। बात यह है कि अपना प्रेम वह किसी अज्ञात के प्रति नहीं बताता। उसका उपास्य ज्ञात होता है। उसके निकट ईश्वर ज्ञात और अज्ञात दोनों है। जितना अज्ञात है उसे तो वह परमार्थान्वेषी दार्शनिकों के चिंतन के लिए छोड़ देता है और जितना ज्ञात है उसी को लेकर वह प्रेम में लीन रहता है। ज्ञात पक्ष में यह सारा जगत् ब्रह्म का व्यक्त प्रसार है जिनके भीतर रक्षण और रंजन की नित्यकला भासमन रहती है। बाहर जगत् के बीच इस कला का दर्शन भक्ति का पक्ष है। 'अपने मन के भीतर ढूँढ़ना' यह योग का पक्ष है। बाहर जगत् में जहाँ रक्षण और रंजन की यह कला भक्त को दिखाई पड़ती है वहाँ वह सिर झुकाता है। श्रीमद्भागवत में इस सिद्धांत का स्पष्टीकरण हम पाते हैं। ब्रज के गोप इंद्र की पूजा किया करते थे। श्रीकृष्ण ने नंद से कहा कि इससे अच्छा तो यह है कि हम इस गोवर्धान पर्वत की पूजा करें। जो साक्षात् या सीधा पालन पोषण, रंजन करता दिखाई दे वही देवता है

तस्मात्सम्पूजयेत्कर्म स्वभावस्थ: स्वकर्मकृत्।

अद्बजसा येन वर्तेत तदेवास्य हि दैवतम्ड्ड(भागवत, 10/24/18)

तस्माद्गवां ब्राह्मणानामद्रेश्नारभ्यतां मख:।

य इंद्रयागसमारम्भास्तैरयं साध्यातां मखड्ड(भागवत, 10/24/25)

यही 'अंजसपूजा' सीधा उसकी पूजा जो प्रत्यक्ष रक्षक और प्रत्यक्ष रंजक हैभारतीय भक्तिभावना का प्रधान स्वरूप है। इसी से प्रत्यक्ष वाह्य जगत् के बीच राम कृष्ण के रूप में अपनी रक्षण रंजन कला का प्रकाश करनेवाले भगवान् के व्यक्त रूप को लेकर भारतीय भक्तिमार्ग सच्ची भावुकता के साथ चला। यदि किसी पर्वत से, किसी वृक्ष से, किसी पशु से प्रक़ृति के छोटे बड़े किसी रूप सेलोक का उपकार है तो उसमें स्थित हमारी पूज्य बुद्धि भगवान् ही के प्रति समझनी चाहिए। इस प्रकार व्यक्त और प्रत्यक्ष रूपों के प्रति पूज्य बुद्धि हमारे भक्तिमार्ग का वह प्रधान अवयव है जो उसे उन मार्गों से अलग करता है जो ऐसे प्रत्यक्ष रूपों के प्रति पूज्य भाव रखना पाप कहते हैं।

सारांश यह है कि हमारे यहाँ का (सगुण) भक्तिकाव्य भी ब्रह्म के अज्ञात और अव्यक्त स्वरूप को आध्याात्मिक आभास द्वारा बताने का दावा करता हुआ नहीं चला है। वह इसी व्यक्त जगत् और जीवन के बीच भगवान् की कला का दर्शन कराकर भावमग्न करना चाहता है। भक्तिमार्ग के संबंध में यहाँ इतना निवेदन करने का मेरा अभिप्राय केवल इतना ही है कि सूर, तुलसी आदि भक्त कवियों की रचनाएँ भी रहस्यात्मक स्वप्न, आभास आदि की दृष्टि से न देखी जायँ, और उनसे तरह तरह के आध्यारत्मिक अर्थ निकालने की बेजा हरकत न की जाय। भक्तिकाव्य भी काव्य ही है; और काव्य की तह में, जैसा कि मैं कहता आ रहा हूँ, इसी जगत् और जीवन की मार्मिक अनुभूतियाँ छिपी रहती हैं।

कविता के संबंध में मेरी धारणा बराबर से यही रही है कि वह एक ऐसी साधना है कि जिसके द्वारा शेष सृष्टि के साथ मनुष्य के शुद्ध रागात्मक संबंध की रक्षा और निर्वाह, तथा उसके हृदय का प्रसार और परिष्कार होता है। जब तक कोई अपनी पृथक् सत्ता की भावना को ऊपर किए जगत् के नाना रूपों और व्यापारों को अपने व्यक्तिगत योगक्षेम, हानि, लाभ, सुख दु:ख आदि से संबद्धा करके देखता रहता है तब तक उसका हृदय एक प्रकार से बद्धा रहता है। इन रूपों और व्यापारों के सामने जब कभी वह अपनी पृथक् सत्ता की धारणा से छूटकर अपने आपको, बिलकुल भूलकरविशुद्ध अनुभूति मात्र रह जाता है, तब वह मुक्त हृदय हो जाता है। जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की यह मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है। हृदय की मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्दविधान करती आई है वही कविता है। कविता के साथ 'आनंद' शब्द जुड़ा रहने से उसे विलास की सामग्री न समझना चाहिए। जो केवल अपने विलास या सुखभोग की सामग्री को ढूँढ़ा करते हैं उनमें उस रागात्मक 'सत्तव' की कमी है जिसके द्वारा व्यक्त सत्ता मात्र के साथ मनुष्य अपने हृदय के सब भावों काक़ेवल प्रेम, हर्ष, आश्चर्य आदि का ही नहीं, करुणा, क्रोध, जुगुप्सा आदि का भी ठीक और उपयुक्त संबंध घटित कर लेता है। इसी से हमारे यहाँ 'सत्वोद्रेक' के बिना सच्ची रसानुभूति नहीं मानी गई।

चिर प्रतिष्ठित काव्य के प्रकृत स्वरूप के संबंध में इतना कहकर अब मैं क्रोचेके'अभिव्यंजनावाद' की उन छह बातों को लेता हूँ जो इस स्वरूप के विरुद्धा पड़ती हैं और जिनका प्रभाव इधर उधर हमारे वर्तमन साहित्यक्षेत्र में भी दिखाई पड़ने लगा है।

(1) प्रस्तुत के मार्मिक रूपविधान का त्याग और केवल प्रचुर अप्रस्तुत रूपविधान में ही प्रतिभा या कल्पना का प्रयोग।

उक्त वाद के अनुसार तो काव्य में प्रस्तुत पक्ष कुछ होता ही नहीं। प्रस्तुत पक्ष तो तब होगा जब काव्य की अभिव्यंजना का जगत् या जीवन की बातों से कोई संबंध होगा। जबकि किसी प्रकार का संबंध ही नहीं, जबकि अभिव्यंजना अधयात्म जगत् से उठी हुई वस्तु है, तब कैसा प्रस्तुत? क्रोचे के अनुसार काव्य में जीवन की कुछ वस्तुएँ या बातें जो ले ली जाया करती हैं, वे केवल मसाले के रूप में अब, ये ही वस्तुएँ या बातें साहित्य में 'प्रस्तुत' कहलाती हैं। अत: जब इन वस्तुओं या बातों के प्रति किसी प्रकार की अनुभूति उत्पन्न करना काव्य का उद्देश्य ही नहीं तब इनको ऐसे मार्मिक रूप में रखने की आवश्यकता ही क्या जिससे उनके प्रति कोई भाव जगे। प्रस्तुत कहलानेवाली जीवन की वस्तुओं या बातों का तो सहारा मात्र कल्पना की एक नूतन सृष्टि खड़ी करने में लिया जाता है। अत: कवि की प्रतिभा या कल्पना का प्रयोग प्रस्तुत के मार्मिक प्रत्यक्षीकरण में नहीं उससे अलग विचित्र या रमणीय रूपविधान में है। प्रस्तुत से अलग रूपविधान ही अप्रस्तुत या उपमन कहलाता है। उपर्युक्त धारणा अंग्रेजी के समीक्षाक्षेत्र में इतना जोर पकड़ गई है कि 'रूप विधान' (इमैजरी) शब्द का प्रयोग अप्रस्तुत रूपविधान के लिए ही होता है। श्रीयुत रवींद्रनाथ ठाकुर का काव्य के अलंकारों पर एक लेख मैंने कहीं देखा था जिसमें रूपविधान के संबंध में यही धारणा स्पष्ट लक्षित होती थी। उनके रूप और 'अरूप' नामक प्रबंध के अंतर्गत इस कथन में भी इसी का आभास पाया जाता है

'मनुष्य की साहित्य शिल्प कला में हृदय का भाव रूप में धाृत जरूर होता है, पर रूप में बद्धा नहीं होता। इसलिए वह केवल नए नए रूप के प्रवाह की सृष्टि करता है, इसीलिए प्रतिभा को नवनवोन्मेषिणी बुद्धि कहते हैं।' इसके आगे उन्होंने यह दृष्टांत दिया है'मन लिया जाय कि पूर्णिमा की शुभ्ररात्रि का सौंदर्य देखकर किसी कवि ने वर्णन किया कि मानो सुरलोक से नीलकांत मणिमय प्रांगण में सुरांगनाएँ नंदन की नवमल्लिका की फूलशय्या।'

यह उद्धारण मैंने केवल यह दिखाने के लिए दिया है कि ठाकुर महोदय भी प्रतिभा का प्रयोग अप्रस्तुत विधान में ही समझते हैं। उनके उपर्युक्त वचन क्रोचे की इस बात का समर्थन नहीं करते हैं कि काव्य में न कोई प्रस्तुत पक्ष होता है, न उसके प्रति हृदय की कोई अनुभूति। यहाँ उन्होंने स्पष्ट रीति से प्रस्तुत वस्तु 'रात्रि' में सौंदर्य माना है, और उसके प्रति हृदय में प्रिय भाव का उदय कहा है। अत: जो लोग विलायती समीक्षाओं में से इधर उधर के ऐसे वाक्य लेकर कि 'काव्य का विषय क्या?' 'काव्य का अर्थ क्या?' अपनी जानकारी प्रकट किया करते हैं उन्हें ठाकुर महोदय के इस कथन पर ध्या न देना चाहिए।

यहाँ मेरा अभिप्राय केवल इस धारणा को असंगत सिद्ध करने का है कि काव्य में प्रतिभा या कल्पना का काम केवल ढूँढ़ ढूँढ़कर, या अपनी अंतरात्मा में से निकाल निकालकर, तरह तरह के अप्रस्तुत रूपों का विधान करना ही है। यह तो हमारे यहाँ का वही पुराना 'अलंकारवाद' ही हुआ जो थोड़ा रूप बदलकर और अलंकार शब्द को हटाकर प्रकट हुआ है। क्या रूप बदला है, यह मैं अलंकार के प्रसंग में सूचित करूँगा। जो अप्रस्तुत रूपविधान या उपमानों की योजना में ही प्रतिभा का प्रयोग और काव्यत्व मानेंगे उनके निकट वाल्मीकि का हेमंतवर्णन, कालिदास का मेघदूत, वर्ड्सवर्थ के सीधा सीधा रूप में चित्रित बिना तड़क भड़कवाले सामान्य ग्रामीण दृश्य काव्य ही न ठहरेंगे। मेघदूत न कल्पना की कोरी उड़ान है, न कला की विचित्रता। वह है प्राचीन भारत के सबसे भावुक हृदय का अपनी प्यारी भूमि की रूपमाधुरी पर सीधीसादी प्रेमदृष्टि। क्या 'त्वथ्यायत्तां कृषिफलमिति भ्रूविकारानभिज्ञै:, त्वामारूढं पवनपदवीम्, 'विश्रांतस्सन् ब्रज वननदीतीर जातानि सिंचन्' इत्यादि प्रस्तुत रूपविधान काव्य नहीं? जिन्हें इनमें काव्य न दिखाई पड़े उनके संबंध में समझना चाहिए कि वे बरातों में निकलनेवाली कागज की फुलवारी को काव्य समझ बैठे हैं। वे केवल तमाशबीन हैं।

प्रस्तुत पक्ष का रूपविधान भी कवि की प्रतिभा द्वारा ही होता है। भाव की प्रेरणा से नाना रूपसंस्कार जग पड़ते हैं जिनका अपनी प्रतिभा या कल्पना द्वारा समन्वय करके कवि प्रस्तुत वस्तुओं या तथ्यों का एक मार्मिक दृश्य खड़ा करता है। काव्य मं प्रतिभा या कल्पना का मैं यह पहला काम समझता हूँ। जो नाना प्रकार के अप्रस्तुत उपमन जोड़ने में ही काव्य समझेंगे उनके हृदय पर प्रकृति की नाना वस्तुओं और व्यापारों का कोई मार्मिक प्रभाव न रह जायगा। वे मार्मिक से मार्मिक प्रत्यक्ष दृश्य के सामने वार्निश किए हुए काठ के कुंदे या गढ़ी हुई पत्थर की मूर्ति के सामने खड़े रह जायँगे। ऐसे लोगों के द्वारा काव्य का विभाव पक्ष ही धवस्त हो जायगा।

अप्रस्तुत योजना पर ही अधिक ध्या न देने की प्रवृत्ति आजकल की नई रंगत की कविताओं में भी दिखाई पड़ रही है। पं. सुमित्रनंदन पंत ऐसे कवियों पर भी, जो जगत् और जीवन की मार्मिक अनुभूतियों से संपन्न हैं; 'अभिव्यंजनावाद' से निकली हुई इस प्रवृत्ति का प्रभाव कहीं कहीं अधिक मात्रा में दिखाई पड़ जाता है, जैसे उनकी 'छाया' नाम की कविता में।

(2) जीवन के किसी मार्मिक पक्ष को लेकर सच्ची भावानुभूति में लीन करने का प्रयास छोड़, अभिव्यंजनावाद या उक्ति में वैलक्षण्य लाने का प्रयास।

क्रोचे का 'अभिव्यंजनावाद' सच पूछिए तो एक प्रकार का 'वक्रोक्तिवाद' है। संस्कृत साहित्य के क्षेत्र में भी कुंतक नाम के एक आचार्य 'वक्रोक्ति:काव्य जीवितम' कह उठे थे। उनकी दृष्टि में भी 'उक्ति की वक्रता' ही काव्य है। वक्रता काव्य में अपेक्षित अवश्य होती है, पर वहीं तक जहाँ तक उससे हृदय की किसी अनुभूति का संबंध होता है। यों ही बोध मात्र कराने के लिए जिस रूप में बात कही जाती है उसी रूप में रखने से भावानुभूति नहीं जगती। बात को ऐसे रूप में रखना पड़ता है जो भाव जगाने में समर्थ हो। इसी से कहा गया है कि 'इतिवृत्तमात्र निर्वाहेणनात्मपदलाभ:।' इस रूप में बात बिना अलंकार के, बिना किसी प्रकार की अप्रस्तुत योजना के भी कही जा सकती है। इसी से 'काव्यप्रकाश' और 'साहित्यदर्पण' में अलंकार काव्य का कोई नित्य अंग नहीं माना गया है। प्रस्तुत बातें ज्यों की त्यों सादे रूप में भी आकर भाव की बहुत अच्छी और स्वाभाविक व्यंजना कर देती हैं, जैसे ठाकुर कवि का सवैया लीजिए

वा निरमोहिनी रूप की रासि जऊ उर हेतु न ठानति ह्नैहै,

बारहिं बार बिलोकि घरी घरी सूरति तो पहिचानति ह्नैहै।

ठाकुर या मन की परतीति है जौ पै सनेह न मनति ह्नैहै,

आवत हैं नित मेरे लिए इतनो तो विसेष कै जानति ह्नैहैड्ड

इसमें अपने प्रेम का परिचय देने के लिए आतुर किसी नए प्रेमी के चित्त के 'वितर्क' की कैसी सीधीसादी व्यंजना है। इसमें आई हुई बातें प्रस्तुत होने पर भी 'इतिवृत्त मात्र' की दृष्टि से फालतू हैं। 'इतिवृत्त' का मतलब है 'इतनी ही तो बातहै'। 'इतनी ही तो बात है' कहनेवाला व्यर्थ वे सब बातें न कहने जायगा जो सवैये मेंहैं।

भावना को गोचर और सजीव रूप देने के लिए, भाव की विमुक्ति और स्वच्छंद गति के लिए काव्य में वक्रता या वैचित्र्य अत्यंत प्रयोजनीय वस्तु है, इसमें संदेह नहीं। 'खड़ी बोली' की कविता जिस रूखी चेष्टा के साथ खड़ी हुई थी, उसमें काव्य की झलक बहुत कम थी। खड़ी बोली की कविताओं में उपमा, रूपक आदि के ढाँचे तो रहते थे पर लाक्षणिक मूर्तिमत्ता और भाषा की विमुक्त स्वच्छंद गति दिखाई नहीं देती थी। 'अभिव्यंजनावाद' के कारण यूरोप के काव्यक्षेत्र में उत्पन्न वक्रोक्ति या वैचित्र्य की प्रवृत्ति जो हिन्दी के वर्तमन काव्यक्षेत्र में आई उससे खड़ी बोली की कविता की व्यंजनाप्रणाली में बहुत कुछ सजीवता और स्वच्छंदता आई। लक्षणाओं के अधिक प्रचार से काव्यभाषा की व्यंजकता अवश्य बढ़ रही है। दूसरी अच्छी बात यह हुई कि अप्रस्तुतों या उपमानों के रखने में केवल सादृश्य, साधार्म्य पर दृष्टि न रहकर उसके द्वारा उत्पन्न प्रभाव पर अधिक रहने लगी।

पर यह सब शुभ लक्षण देखकर जितना संतोष होता है उससे शायद ही कुछ कम खेद यह देखकर होता है कि अधिकतर लोग केवल वक्रता या अभिव्यंजना की विचित्रता को ही सब कुछ मनने लगे हैं। जीवन की अनेक मार्मिक दशाओं, जगत् की अनेक मार्मिक परिस्थितियों के उद्धाटन द्वारा भावों में मग्न करने में कवियों की वाणी तत्पर नहीं दिखाई दे रही है। अत: वर्तमन रचनाओं का बहुत सा भाग जीवन से विच्छिन्न सा दिखाई पड़ता है।

(3) जीवन की विविधा मार्मिक दशाओं को प्रत्यक्ष करनेवाले प्रबंधकाव्यों की ओर से उदासीनता और मुक्तकोंविशेषत: प्रेमोद्गारपूर्ण प्रगीत मुक्तकों (लिरिक्स)क़ी ओर अत्यंत अधिक प्रवृत्ति।

यह यूरोप के वर्तमन काव्यक्षेत्र की बहुत व्यापक क्या सामान्य प्रवृत्ति है जिसके कारण वहाँ बहुत दिनों से सफल महाकाव्य के दर्शन दुर्लभ हो गए हैं। मिल्टन, दाँते और गेटे की रचनाएँ ही अंतिम के समन दिखाई पड़ रही हैं; शेली के समय से लेकर अब तक महाकाव्य के लिए प्रयत्न तो होते रहे, पर सफल नहीं हुए। बात यह है कि प्रवृत्ति अंतर्वृत्तिनिरूपक (सब्जेक्टिव) प्रगीत मुक्तकों की ओर ही अधिक हो जाने के कारण वाह्यर्थनिरूपिणी (आब्जेक्टिव) प्रतिभा का द्रास हो गया और छोटी छोटी फुटकल रचनाओं के अभ्यास के कारण किसी सुव्यवस्थित, भव्य और विशाल आयोजन की क्षमता जाती रही। इस संबंध में डॉ. डब्ल्यू. पी. केर की बात ध्यानन देने योग्य है। यूरोप में महाकाव्य के द्रास के कारणों का विचार करते हुए वे एक बड़ा भारी कारण उपन्यासों का चलन बताते हैं। उपन्यासों का बहुत कुछ आकर्षण संवादों मेंबातचीत के रंग ढंग से होता है। इस बात में पद्यबद्धा कथाकाव्य उसका सामना नहीं कर सकते। पर आधुनिक प्रबंधकाव्यों के प्रयासी प्राय: संवादों को ही, आकर्षण की वस्तु समझ, प्रधानता दिया करते हैं। कथाप्रवाह को मार्मिक बनाने का प्रयत्न वे नहीं करते। 1

इधर पंद्रह वर्ष के भीतर हिन्दी साहित्य क्षेत्र को लें तो डॉ. केर की बात बहुत कुछ ठीक घटती पाई जायगी। बात यह है कि यदि एक जगह की प्रवृत्ति दूसरी जगह पहुँचाई जायगी तो उसके साथ लगी हुई भलाई या बुराई भी। मैथिलीशरणजी गुप्त के 'साकेत' को लीजिए जिसे काव्य की दृष्टि में मैं खड़ी बोली की अत्यंत प्रौढ़ रचना मनता हूँ, उसमें पुराने ढाँचे का शब्दकौशलपूर्ण चमत्कार और नए ढंग की अभिव्यंजना का वैचित्र्य दोनों प्रचुर परिमाण में पाए जाते हैं। दोनों का सुंदर


1. मोस्ट आव दि ग्रेट सक्सेसेज इन प्रोजनरेटिव आर वन थ्रू डायलाग, नाट थ्रू प्योर नरेटिव। हियर वर्स कैनाट कंपीट नरेटिव पोएट्री मस्ट रिलाई फार मोर दैन दि नावेल आन प्योर नरेटिव। नरेटिव पोएट्री हैविंग टु रिलाई ग्रेटली अपान प्योर नरेटिव मस्ट गिव अप मोस्ट आव दि ओपेनिंग्ज यूज्ड सो फाइनली बाइ दि ग्रेट प्रोज स्टोरी टेलर। ड़ब्ल्यू. पी. केर।

मेल उस काव्य की विशेषता है। पर खेद है कि एक बड़ा प्रबंधकाव्य या महाकाव्य लिखने की इच्छा उन्हें उस समय हुई जब उनकी प्रवृत्ति देखादेखी अंग्रेजी ढंग के फुटकल प्रगीतकाव्यों (लिरिक्स) की ओर हो चुकी थी। इससे प्रबंधकाव्य के अवयवों केज़ीवन की विविधा दशाएँ सामने लानेवाले घटनाचक्र, वस्तुवर्णन, संवाद और भावव्यंजना के ठीक ठीक परिमाण की व्यवस्था वे न रख सके। संवाद और भावव्यंजना, इन्हीं दो अवयवों की प्रधानता हो गई। दो सर्ग तो उर्मिला के वियोग की नाना दशाओं की व्यंजना में ही लग गए। कथाप्रवाह या संबंधनिर्वाह बहुत कम पाया जाता है। कथाप्रवाह या संबंधनिर्वाह प्रबंधकाव्य की पहली वस्तु है, जैसा कि माघ कवि ने कहा है

बह्नपि स्वेच्छया कामं प्रकीर्णमभिधीयते।

अनुज्झितार्थसम्बन्ध: प्रबन्धा दुरुदाहर:ड्ड

पर डॉ. केर ने महाकाव्य रचने की असफलता का कारण जो उपन्यासों का प्रचार बताया है, वह ठीक तो है, पर अकेला नहीं। इस असफलता का मुख्य कारण है कलावाद; 'अभिव्यंजनावाद' आदि के प्रभाव से प्रगीत मुक्तकों की ओर ही कवियों का टूट पड़ना। हिन्दी साहित्य के इतिहास में भी प्रबंधकाव्यों की रचना भक्तिकाल के भीतर ही विशद रूप से मिलती है। रीतिकाल प्रकीर्णकों या मुक्तकों का काल था। तब से बराबर हिन्दी में भी फुटकल रचनाओं के अभ्यासी कवि चले आए, इससे अच्छे प्रबंधकाव्य न बन सके।

पहले रीतिकाल की फुटकल रचनाओं के अभ्यास से प्रबंधकाव्य का मार्ग रुका रहा अब आजकल प्रगीत मुक्तकों (लिरिक्स) की योरपीय प्रवृत्ति के अनुसरण से उसके मार्ग में बाधा पड़ रही है। उपन्यासों के प्रचार को मैं वैसा बाधक नहीं समझता।

(4) असीम, अनंत ऐसे शब्दों द्वारा रचनाओं पर आध्याेत्मिक रंग चढ़ाने की प्रवृत्ति।

जो रचनाएँ वस्तुत: रहस्यवाद को लेकर चलें उनमें तो आध्याहत्मिक पुट आवश्यक ही है। उनको एक सांप्रदायिक परंपरा के अंतर्गत मनकर अलग ही छोड़ देना चाहिए। पर नए ढंग की जितनी कविताएँ बनें सबके भीतर कहीं न कहीं असीम, अनंत को संपुटित करने की मैं कोई जरूरत नहीं समझता। मैं कई बार कह चुका हूँ कि आजकल जितनी कविताएँ 'छायावाद' की कही जाती हैं उनमें से अधिकांश का 'रहस्यवाद' से कोई संबंध ही नहीं। 'छायावाद' शब्द किस प्रकार रहस्यवाद सूचक है, यह मैं दिखा आया हूँ। अत: नई रंगत की कविता के लिए मैं यह शब्द ठीक नहीं समझता। श्रीयुत पं. सुमित्रनंदन पंत की प्राय: सब कविताएँ जगत् और जीवन के किसी मार्मिक पक्ष से संबंध रखती हैं। श्री जयशंकर प्रसादजी की वाणी भी या तो वेदना की विवृत्ति में अथवा सुख सौंदर्य और रमणीयता की अनुभूति उत्पन्न करने में लीन देखी जाती है। इधर उधर स्वप्न, छाया, मद, मदिर आदि रहस्यवाद के कुछ रूढ़ शब्दों और कहीं कहीं अनंत असीम की ओर संकेतों के रहने से ही कविता रहस्यवाद की नहीं हो जाती। नई पद्धाति की कविताओं की सामान्य आकर्षक विशेषता व्यंजना की प्रणाली में है। वह प्रणाली हमारे कुछ नवीन कुशल कवियों के हाथ में स्वतंत्र विकास कर रही है। अत: अब उस पर से 'छायावाद' के नाम की विलायती बंगला मुहर हट जानी चाहिए।

रवींद्र बाबू यदि अनंत की ओर ताका करें तो यह आवश्यक नहीं कि सबकी टकटकी उसी ओर लगे। उनको तो मैं एक बड़ा भारी आलंकारिक मनता हूँ। किसी बात को जितने अधिक विलक्षण और व्यंजक शब्दों में वे लपेट सकते हैं, दूसरा नहीं। उनके लाए हुए अप्रस्तुत रूप अद्भुत दीप्ति के साथ अर्थ और भाव का प्रकाश करते हैं। इतना होने पर भी उनकी जिन रचनाओं में 'आध्याेत्मिक' अदा विशेष रहती है उनकी तह में अनुभूति की कोई नवीन भूमि नहीं मिलती। वही रूप की क्षणभंगुरता, ससीम का असीम के साथ मिलन आदि दिखाई पड़ता है। पर जो कविताएँ जगत् या जीवन की किसी मार्मिक वस्तु या तथ्य को लेकर अथवा लोकवाद के साथ समन्वित होकर चली हैं वे अत्यंत हृदयग्राहिणी हैं। उदाहरण के लिए 'ताजमहल' को लक्ष्य करके लिखी हुई कविता लीजिए, जिसमें कवि शाहजहाँ को इस प्रकार संबोधिात करके

हे सम्राट् कवि, एइ तव हृदयेर छबि,

एइ तव नव मेघदूत, अपूर्व अद्भुत।

कहता है'हीरा, मोती और माणिक की घटा, शून्य दिगंत के इंद्रजाल इंद्रधनुष की छटा की भाँति यदि लुप्त हो जाती है तो हो जाय, केवल एक बूँद ऑंखों का ऑंसू यह शुभ्र, समुज्ज्वल ताजमहल'क़ाल के कपोलप्रांत पर बचा रहे।

कहने का तात्पर्य यह है कि वर्तमन काव्य और समीक्षा दोनों के क्षेत्र में 'आध्याहत्मिक' शब्द भी बहुत से निरर्थक वाग्जाल का कारण हो रहा है। इसके कारण अनुभूति की सच्चाई (सिंसिऐरिटी) की भी कम परवा की जा रही है।

(5) 'कला' शब्द के कारण काव्य के स्वरूप के संबंध में शिल्पवाली, बेलबूटे और नक्काशीवाली हल्की धारणा।

इसके संबध में पहले बहुत कुछ कहा जा चुका है। यह देखकर खेद होता है कि इस हलकी धारणा का प्रचार बढ़ता जाता है। कारण यह है कि बड़े लोगों की ओर से भी बीच बीच में इसे सहारा मिलता जाता है। श्री रवींद्रनाथ ठाकुर पर भी इस धारणा का पूरा प्रभाव जान पड़ता है। वे भी कभी तो शिल्प के अंतर्गत काव्य को भी ले लेते हैं और कभी शिल्प साहित्य एक साँस में कह जाते हैं। मैं फिर भी जोर के साथ कहता हूँ कि यदि काव्य के प्रकृत स्वरूप की रक्षा इष्ट है, तो उसका 'पीछा' इस 'कला' शब्द से जहाँ तक शीघ्र छुड़ाया जाय अच्छा।

(अपने भाषण के आरंभ में ही मैंने अपनी अयोग्यता प्रमाणित करने का वचन दिया था। कम से कम मैंने इतना तो अवश्य सिद्ध कर दिया कि मेरा इस परिषद् का सभासद चुना जाना 'कला की दृष्टि से', अनुपयुक्त हुआ।)

आजकल की नई रचनाओं में कुछ दूर तक चलनेवाली संश्लिष्ट रूप योजना तथा भावनाओं की अन्विति (यूनिटी) का जो अभाव पाया जाता है उसकी जवाबदेही भी मैं कलावाद, ही के सिर मढ़ना चाहता हूँ।

(6) समालोचना का हवाई होना और विचारशीलता का द्रास।

इसके संबंध में भी पीछे बहुत कुछ कहा जा चुका है। यहाँ इतना ही कहना है कि विचारशीलता के द्रास से पुष्ट और समर्थ साहित्य का विकास रुक जायगा। भारतवर्ष का संपर्क संसार के और भागों में बढ़ रहा है। यदि हममें विवेक बल रहेगा तो हम चारों ओर से उपयोगी और पोषक सामग्री लेकर और पचाकर

अपने साहित्य को पुष्ट और दृढ़ करेंगे। यदि यह विवेकबल न रहेगा तो जैसे अनेक प्रकार के विदेशी लोगों ने आकर यहाँ अड्डा जमा लिया है, वैसे ही अनेक प्रकारकी व्याधियाँ आकर हमारे साहित्य को ग्रस लेंगी और उसका स्वतंत्र विकास रुक जायगा।

यहाँ तक तो 'कलावाद' और 'अभिव्यंजनावाद' के भले बुरे प्रभाव का वर्णन हुआ। अब मैं अपने यहाँ की साहित्य मीमांसा पद्धाति के संबंध में दो चार बातें निवेदन कर देना चाहता हूँ। शब्दशक्ति के प्रसंग में कह आया हूँ कि इस पद्धाति पर चलकर हम सारे संसार के नए पुराने काव्य की बहुत सी स्पष्ट और स्वच्छ समीक्षा कर सकते हैं। मैं अब अधिक समय न लेकर रस, रीति और अलंकार के संबंध में कुछ अपने विचार प्रकट करूँगा।

पहले 'रस' लीजिए। इसका निरूपण बहुत ही व्यवस्थित रूप में हुआ है। स्थायी संचारी का भेद बहुत ही मार्मिक और सूक्ष्म दृष्टि से वैज्ञानिक आधार पर हुआ है, क्योंकि कुछ भाव स्थायी कहे गए और कुछ संचारी। अच्छी तरह विचार करने पर भेद का आधार मिल जाता है। स्थायी वे ही भाव माने गए हैं जो संक्रामक हैं, जिनकी, व्यंजना श्रोता या पाठक में उन्हीं भावों का संचार कर सकती है।

मनोविज्ञान में भावों की प्रधानता और स्थायित्व का जो विचार किया गया है वह दूसरी दृष्टि से। भावों के वर्गीकरण आदि की हमारे यहाँ बहुत अच्छी व्यवस्था हुई। पर इसका मतलब यह नहीं कि उत्तारोत्तार बढ़ती हुई विचारपरंपरा द्वारा उसकी और उन्नति, परिष्कृति और संशोधान न हो। स्थायित्व की ही बात लीजिए। अच्छी तरह ध्या न देने पर यह पता लगेगा कि भाव की तीन दशाएँ होती हैं क्षणिक दशा, स्थायी दशा और शील दशा। किसी भाव की क्षणिक दशा अनेक अवसर पर एक आलंबन के प्रति होती है, स्थायी दशा अनेक अवसरों पर एक ही आलंबन के प्रति होती है और शीलदशा अनेक आलंबनों के प्रति होती है। क्षणिक दशा मुक्तक रचनाओं में देखी जाती है; स्थायी दशा महाकाव्य, खंडकाव्य आदि प्रबंधों में और शीलदशा पत्रों के चरित्रचित्रण में। इतना मैंने केवल उदाहरण के लिए कहा है। साहित्यक्षेत्र की इन सब बातों का विचार मैंने एक अलग ग्रंथ में किया है जो समय पर प्रकाशित होगा।

इसके अंतर्गत हमारे यहाँ बड़े महत्तव का सिद्धांत 'साधाणीकरण' का है। 'साधाणीकरण' का सीधा शब्दों में अर्थ हैश्रोता का भी उसी भाव में मग्न होना जिस भाव की कोई काव्यगत पात्र (या कवि) व्यंजना कर रहा है। यह दशा तो रस की 'उत्तम दशा' है। पर रस की एक 'मध्ययम दशा' भी होती है जिसमें पात्र द्वारा व्यंजित भाव में श्रोता का हृदय योग न देकर उस पात्र के प्रति किसी विपरीत भाव का अनुभव करने लगता है। जैसे कोई क्रोधी या क्रूर प्रकृति का पात्र यदि किसी निरपराध, दीन और अनाथ पर क्रोध की प्रबल व्यंजना कर रहा है तो श्रोता या पाठक के मन में क्रोध का रसात्मक संचार न होगा, बल्कि क्रोध प्रदर्शित करनेवाले उस पात्र के प्रति अश्रद्धा, घृणा आदि का भाव जग सकता है। यह भी एक प्रकार की रसात्मक अनुभूति ही है, पर मध्य म कोटि की। अत: प्रकृति के वैचित्र्यप्रदर्शन की दृष्टि से लिखे हुए पाश्चात्य नाटकों से इसी प्रकार की अनुभूति होगी। पर हमारे यहाँ के पुराने नाटकों में रस की प्रधानता रहने से 'साधाणीकरण' अधिक अपेक्षित होताहै।

'चमत्कारवादियों' के कुतूहल को भी काव्यानुभूति के अंतर्गत ले लेने पर रसानुभूति की क्रमश: उत्तम, मध्यकम और निकृष्ट तीन दशाएँ हो जाती हैं।

अब अलंकार लीजिए। अलंकारों में अधिकतर साम्यमूलक अलंकार ही अधिक चलते हैं। अत: इस साम्य के संबंध में थोड़ा विवेचन कर लेना चाहिए। हमारे यहाँ साम्य मुख्यत: तीन प्रकार के माने गए हैं सादृश्य (रूप की समनता), साधार्म्य (धर्म अर्थात् गुण, क्रिया आदि की समनता) तथा शब्दसाम्य (केवल शब्द या नाम के आधार पर समनता)। इनमें से तीसरे को लेकर तमाशे खड़े करना तो केशव ऐसे चमत्कारवादी कवियों का काम है। प्रथम दो के संबंध में ही कुछ निवेदन करने की आवश्यकता है। सादृश्य के संबंध में पहली बात ध्याेन में रखने की यह है कि काव्य में उसकी योजना बोध या जानकारी कराने के लिए नहीं की जाती है, बल्कि सौंदर्य, माधुर्य, भीषणता इत्यादि की भावना जगाने के लिए की जाती है, जैसेक़िसी क्रुद्धा व्यक्ति की ऑंखों के संबंध में यही कहा जायगा कि 'वे अंगारे सी लाल हैं' यह नहीं कहा जायगा कि 'कमल के समन लाल हैं'।

इस बात का स्पष्ट शब्दों में निर्देश न होने से बहुत से कवियों ने केवल सादृश्य कोरूपरंग की समनता को पकड़कर सुंदर वस्तुओं के कुछ भद्दे उपमन खड़े कर दिए हैं, जैसेक़ेवल पतलापन लेकर कटि की उपमा भिड़ की कमर या सिंहनी की कमर से दे दी; यह न सोचा कि भिड़ की कमर का चित्र कल्पना में आने से किसी प्रकार की सौंदर्यभावना पहले से जगी भी होगी तो वह भी भाग खड़ी होगी। तात्पर्य यह कि काव्य में जो अप्रस्तुत वस्तुएँ (उपमन) लाई जाती हैं वे यह देखकर कि उनके द्वारा प्रस्तुत के संबंध में सौंदर्य, माधुर्य आदि की भावना में कुछ वृद्धि होगी। अत: प्रभावसाम्य पहले देख लेना चाहिए।

बड़े हर्ष की बात है कि हिन्दी की वर्तमन नए ढंग की कविताओं में विशेषत: प्रभावसाम्य पर ही दृष्टि रखी जाती है। सादृश्य अत्यंत अल्प या न रहने पर भी केवल प्रभावसाम्य का हलका सा संकेत लेकर ही अप्रस्तुत की बेधड़क योजना कर दी जाती है। कुछ उदाहरण लीजिए

'पल्लव' से

(1) इंद्रधानु सा आशा का सेतु; अनिल में अटका कभी अछोर।

(साम्य के आधारविविधाता, आधार की सूक्ष्मता)

(2) नवोढ़ा बाल लहर।

(साम्य का आधारलज्जा से खिसकना या सिकुड़ना)

(3) सिसकते हैं समुद्र से मन।

(साम्य का आधारसिसकने का शब्द नहीं, सिसकने में छाती नीचे

ऊपर होना मात्र)।

'ऑंसू' से

(1) उनका सुख नाच रहा था,

दुख द्रुमदल के हिलने से।

ऋंगार चमकता उनका।

मेरी करुणा मिलने से।

(विरहव्यथा का क्षोभ = द्रुमदल का हिलना)

अभिप्राय यह है कि प्रेमी जितना ही विकल होता है प्रेमपात्र अपने सौंदर्य का प्रभाव देख उतना ही प्रसन्न होता है। प्रेमी रोकर जितना ही ऑंसू गिराता है उतना ही मानो प्रेमपात्र का सौंदर्य धुलकर निखरता आता है अर्थात् लोगों की दृष्टि में उसकी सुंदरता और भी अधिक दिखाई पड़ती जाती है।

(2) जल उठा स्नेह दीपक सा

नवनीत हृदय था मेरा।

अब शेष धूमरेखा से

चित्रित कर रहा ऍंधोरा।

(धुमरेखा = बातों की धुधंली स्मृति। ऍंधोरा = हृदय का अंधकार या शून्यता)

अभिप्राय यह है कि प्रिय के रहने पर हृदय अंधकारमय या शून्य हो गया, उसके बीच केवल धुधंली पुरानी स्मृतियाँ इस प्रकार उठ उठकर घूम रही हैं जिस प्रकार दीपक बुझने पर धुंए की रेखा ऍंधोरे में उठ उठकर अनेक बल खाती घूमतीहै।

प्रभाव और रमणीयता पर दृष्टि रखकर कुछ हमारे पुराने कवियों ने भी अत्यंत मार्मिक और सुंदर अप्रस्तुत योजना की है, जैसे सूरदासजी ने इस पद में

ज्यों चकई प्रतिबिंब देखि के आनंदी पिय जानि।

सूर पवन मिस निठुर बिधाता चपल कियो जल आनिड्ड

थोड़े से हेर फेर के साथ यही भावना पंतजी की इन पंक्तियों में है

मिले थे दो मनस अज्ञात,

स्नेह शशि बिंबित था भरपूर।

अनिल सा कर अकरुण आघात,

प्रेम प्रतिमा कर दी वह चूरड्ड

काव्य के वर्तमन समीक्षकों की दृष्टि में दबी हुई या प्रच्छन्न अप्रस्तुत योजना जिसे हमारे यहाँ व्यंग्य रूपक कहेंगे, बहुत उत्कृष्ट मानी जाती है; जैसा कि जायसी की इस उक्ति में है

हीरा लेइ सो विद्रुम धारा। विहँसत जगत भएउ उजियारा।

यह पद्मिनी के ओठों और दाँतों का वर्णन है, जिसमें अप्रस्तुत प्रभात का रूप बिलकुल छिपा हुआ है। पद्मिनी के हँसने पर दाँतों की उज्ज्वल आभा अधारों की अरुण आभा लेकर जब फैलती है तब सारा संसार प्रकाशित या प्रफुल्ल हो जाता है, उसी प्रकार जैसे प्रभात काल की श्वेत अरुण आभा फैलने से भूमंडल प्रकाशित हो जाता है। इसी प्रकार वर्षा का व्यंग्य रूपक पंतजी के इस पद्य मेंहै

जब निरस्त्रा त्रिभुवन का यौवन

गिरकर प्रबल तृषा के भार,

रोमावलि की शरशय्या में

तड़प तड़प करता चीत्कार,

हरते हो तब तुम जग का दु:ख

बहा प्रेम सुरसरि की धार।

अप्रस्तुत विधान के नए ढंग का अच्छा निरूपण आजकल के दो प्रतिनिधि कवियों की इन पंक्तियों से हो जाता है

(क) सुरीले ढीले अधारों बीच

अधूरा उनका लचका गान;

बिकच बचपन को, मन को खींच

उचित बन जाता था उपमन। पंत

(इसमें कहा गया है कि उस बालिका का गान ही बाल्यावस्था और उसके भोले मन का उपमन बन जाता था अर्थात् वह गान स्वत: शैशव और उसकी उमंग ही था। उसमें उपमन उपमेय के बीच व्यंग्य व्यंजक भाव का ही संबंध है, रूप साम्य कुछ भी नहीं।)

(ख) कामना कला की बिकसी

कमनीय मूर्ति ही तेरी;

खिंचती अब हृदय पटल पर

अभिलाषा बनकर मेरी। प्रसाद

(कला सौंदर्य का विधान करती है। स्वयं कला के मन में जो सौंदर्य की भावना है वही मानो तेरे रूप से मूर्त होकर व्यक्त हुई है, और इधर मेरे मन में उस रूपदर्शन का अभिलाष रूप रमणीय भाव बनी है। इस प्रकार 'आश्रय' और 'आलंबन; दोनों का विधान हो गया। इसमें भी वही व्यंग्य व्यंजक भाव का संबंधहै।)

ये दोनों उक्तियाँ इस बात का पूरा संकेत करती हैं कि किस प्रकार अप्रस्तुत विधान में व्यंजकता पर ही मुख्य दृष्टि रखी जाती है।

नए ढंग की कविता की सबसे बड़ी विशेषता है लाक्षणिकता। कुछ वस्तुओं का प्रतीकवत् (सिंबल्स) ग्रहण भी इसी के अंतर्गत आ जाता है। लक्षणा का पेट बहुत गहरा है। नए ढंग की कविताओं के भीतर यहाँ से वहाँ तक लक्षणाएँ भरी मिलेंगी उपादान लक्षणा भी, लक्षण लक्षणा भी; जैसे

(1) मर्म पीड़ा के हास।

(हास=पूर्ण विकसित या प्रबुद्धा रूप। पीड़ा और हास के विरोध के कारण 'विरोधभास' का भी चमत्कार है।)

(2) चाँदनी का स्वभाव में भास।

विचारों में बच्चों की साँस।

(चाँदनी=स्वच्छता, शीतलता और मृदुलता। बच्चों की साँस=भोलापन)।

(3) स्नेह का वासंती संसार,

पुन: उच्छ्वासों का आकाश।

(वासंती संसार = संयोग की सुख दशा। आकाश = शून्य जीवन। वसंत के पीछे ताप और बगोले भरे ग्रीष्म का अप्रस्तुत रूप भी छिपा हुआ है।)

व्यंजना की इन पद्धातियों में ही कहीं अंग्रेजी भाषा की शैली ज्यों की त्यों मिलती है, जैसे'बच्चों के तुतले भय सी' तुतले=तुतली बोली में व्यंजित)।

इस प्रकार का अनुकरण मैं अच्छा नहीं समझता। कहीं कहीं इससे उक्ति बिलकुल अजनबी हो जाती है, जैसे'विचारों में बच्चों की साँस'। जो अंग्रेजी के 'इनोसेंट ब्रेथ' से परिचित नहीं, वे इसे लेकर व्यर्थ हैरान होंगे। रचना करते समय इस बात का ध्या न पहले रहना चाहिए कि जो कुछ मैं लिख रहा हूँ, हिन्दी पढ़े लोगों के लिए लिख रहा हूँ, अंग्रेजी पढ़े लोगों के लिए नहीं। एक दिन मैंने देखा कि मेरे एक मित्र हिन्दी की एक मासिक पत्रिका लिए बैठे हैं। निकट आया, तब देखा कि उनके सामने एक कविता खुली है। उन्होंने मुझे देखते ही उसकी पहली ही पंक्ति पर उँगली रखकर कहा कि 'देखिए तो यह क्या है'। वह पंक्ति इस प्रकार थी

मेरे जीवन के अंतिम पाहन।

मैंने कहा यह कुछ नहीं, अंग्रेजी का लास्ट माइलस्टोन है।

अब 'रीति' की बात लीजिए। 'रीति' का विधान शुद्ध नाद का प्रभाव उत्पन्न करने के लिए हुआ है। इसी दृष्टि से कोमल रसों में कोमल वर्णों और रौद्र भयानक आदि उग्र और कठोर रसों में परुष और कर्कश वर्णों का प्रयोग अच्छा बताया गया है। पर इसका मतलब यह नहीं कि 'मंजु मंजुल, प्रांजल' तथा उद्दंड, प्रचंड, मार्तंड' लिखकर ही काव्य की सिद्धि समझ ली जाए। इसका मतलब इतना ही है कि पूर्ण प्रभाव उत्पन्न करने के लिए काव्य बहुत कुछ संगीत तत्वम का भी सहारा लेता है। बहुत सी रचनाएँ तो केवल पदलालित्य और छंद की मधुरता के कारण ही लोकप्रिय हो जाती हैं। संस्कृत साहित्य में रीति पर सबसे ज्यादा जोर देनेवाले वामन हुए हैं।

पर 'रीति' को बिलकुल एक पुरानी बात समझकर टालना न चाहिए। अभी एक प्रकार का फरांसीसी रीतिवाद (फ्रेंच इंप्रेशनिज्म) बड़े जोर शोर से चला है, जिसमें शब्दों के अर्थों पर उतना जोर न देकर उनकी नाद शक्ति पर ही अधिक ध्या न देने का आग्रह किया गया है। इसका थोड़ा सा परिचय मैं आगे दूँगा।

शब्दशक्ति, रस, रीति और अलंकारअपने यहाँ की ये बातें काव्य की स्पष्ट और स्वच्छ मीमांसा में कितने काम की हैं, मैं समझता हूँ, इसके संबंध में अब और अधिक कहने की आवश्यकता नहीं। देशी विदेशी, नई पुरानी सब प्रकार की कविताओं की समीक्षा का मार्ग, इनका सहारा लेने से सुगम होगा। आवश्यकता इस बात की है कि उत्तारोत्तार नवीन विचारपरंपरा द्वारा इन पद्धातियों की परिष्कृति, उन्नति और समृद्धि होती रहे। पर यह हो कैसे? वर्तमन हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में कुछ लोग तो ऐसे हैं जो लक्षणों की पुरानी लकीर से जरा भी इधर उधर होने की कल्पना ही नहीं कर सकते। बेचारे नवीनतावादी अभी कलाबाजी कर रहे हैं; उन्हें विलायती समीक्षा क्षेत्र के उड़ते हुए लटकों की उद्धारणी और यूरोप के ग्रंथकारों की नाममाला जपने से फुरसत नहीं। अब रहे उच्च आधुनिक शिक्षा प्राप्त 'संस्कृत स्कालर' नामक प्राणी। वे तो भारतीय वाङ्मय में जो कुछ हो चुका है उसी को संसार के सामनेसंसार का अर्थ आजकल यूरोप और अमेरिका लिया जाता है रखने में लगे हैं। यही उनका परम पुरुषार्थ है। उन्हें अपने साहित्य को और आगे बढ़ाकर उन्नत करने से क्या प्रयोजन?

यहाँ तक तो मैंने अपने यहाँ की काव्यमीमांसा की पद्धाति का, पाश्चात्य समीक्षा क्षेत्र के नाना वादों प्रवादों से चली प्रवृत्तियों का तथा हिन्दी के आधुनिक साहित्य क्षेत्र पर उन प्रवृत्तियों के भले बुरे प्रभाव का वर्णन किया। पर वे प्रवृत्तियाँ पुरानी हैं क़ुछ तो पचासों वर्ष, कुछ तो सैकड़ों वर्ष पुरानी। पर, जैसा कि मैं कई जगह कह चुका हूँ, यूरोप में साहित्य की प्रवृत्तियाँ तो इधर कपड़े के फैशन की तरह जल्दी जल्दी बदला करती हैं। वहाँ की पुरानी प्रवृत्तियों से गला छूटेगा तो नई आकर दबाएँगी चाहे कुछ दिनों पीछे, वहाँ पुरानी हो जाने पर। इससे पहले से सावधान रहना मैं अच्छा समझताहूँ।

यूरोप के वर्तमन साहित्य क्षेत्र की सबसे नई घटना है 'बुद्धि के साथ युद्ध'। इस युद्ध के नायक हैं फ़्रांस के अनातोले फ्रांस जिन्होंने कहा है 'बुद्धि के द्वारा सत्य को छोड़कर और सब कुछ सिद्ध हो सकता है। मनुष्य बुद्धि या तर्क के आदर्श पर कोई कर्म नहीं करता, अपने प्रेम, घृणा, वैर, भय आदि मनोविकारों के आदेश पर ही सब कुछ करता है। बुद्धि पर उसे विश्वास नहीं होता। बुद्धि या तर्क का सहारा तो लोग अपनी भली बुरी प्रवृत्तियों को ठीक प्रमाणित करने के लिए लेते हैं।' ईसा की 19वीं शताब्दी में जो अधिक भौतिकवाद इतने जोर शोर से यूरोप में उठा था उसी से क्षुब्धा होकर प्रतिकार स्वरूप वहाँ कई प्रकार के आंदोलन चले। 'आध्याूत्मिकता' जगी, मशीनों का विरोध शुरू हुआ, मनुष्य के साथ भ्रातृभाव उमड़ा और अक्ल पर चढ़ाई बोल दी गई। और क्षेत्रों में क्या हुआ, इससे तो यहाँ प्रयोजन नहीं। साहित्य के क्षेत्र में जो हुआ या हो रहा है उसी की ओर थोड़ा ध्या न देने की जरूरत है।

कुछ लोगों को एकबारगी यह भासित होने लगा कि अब जो अच्छे अच्छे काव्य नहीं बनते हैं, उसका एक मात्र कारण है बुद्धि। बुद्धि इतनी अधिक बढ़ गई है कि उसने प्रतिभा और भावना के वे सब रास्ते ही रोक दिए हैं जिनसे कविता का स्रोत बहा करता था। यह दशा देख कुछ लोग तो हाथ पर हाथ रखकर, निराश होकर बैठे रहे और यह समझ लिया कि अब कविता देवी का भोलापन सब दिन के लिए गया। अब इस युग में मनुष्य जाति की अंतर्वृत्ति बुद्धि से इतनी जकड़ उठी है कि कविता का पुनरुद्धार असंभव है। इन्हीं नैराश्यवादियों में अनातोले फ्रांस हैं। वर्तमन अंग्रेजी साहित्य क्षेत्र में उनके नैराश्य में योग देनेवाले हैं मि. हाजमन और टी. एस. एलियट। ये लोग केवल समय समय पर अपनी कुढ़न और बौखलाहट भर प्रकट कर देते हैं।

पर कुछ लोग ऐसे भी हैं जो एकबारगी निराश नहीं हैं। वे बुद्धि के पीछे डंडा लेकर खड़े हो गए हैं। वे भावना के खोए भोलेपन को लौटा लाने की कुछ आशा रखते हैं। वे समझते हैं कि बुद्धि द्वारा फैलाए हुए जाल को छिन्न भिन्न करके वे भावना के स्वतंत्र विचरण के लिए फिर मैदान निकाल लेंगे। इनमें से कुछ लोग तो बड़ी मेहनत से तरह तरह के प्राचीन चित्र और जंगली जातियों की चित्रकारियाँ इकट्ठी कर रहे हैं कि शायद कला का रहस्य कुछ मिल जाय। इन चित्रों के रंग और रेखाएँ भद्दी भी होती हैं तो विचित्र सिध्दांतों की उद्भावना करके समझाया जाता है कि वे इस सिद्धांत पर हैं, उस सिद्धांत पर हैं। बुद्धिग्रस्त होने के कारण हम उनके सौंदर्य की अनुभूति तक नहीं पहुँच पाते हैं। इंगलैंड के प्रसिद्ध लेखक और नाटककार बरनार्ड शॉ भी सुधार की आशा रखनेवाले बुद्धि विरोधियों में हैं। उनका कहना है कि बुद्धि उत्पादिका या क्रियात्मिका नहीं, केवल निश्चयात्मिका है। उससे हमारा उद्धार नहीं हो सकता। हमें क्रियात्मिका वृत्ति का सहारा लेना चाहिए, नहीं तो हम गए, सब दिन के लिए।

काव्य के क्षेत्र से बुद्धि को एकबारगी निकाल बाहर करने पर सबसे मुस्तैद दिखाई पड़ते हैं ई. ई. कमिंग्ज साहब जो अमेरिका के एक कवि हैं। इन्होंने बुद्धि का पूरा विरोध प्रदर्शित करने के लिए अपनी एक पुस्तक का नाम रखा है। 'पाँच होता है' अर्थात् दो और दो चार नहीं, पाँच होता है। इस संबंध में एक बड़ा मनोरंजक निबंध' कविता का खोया हुआ भोलापन' (दि लास्ट इनोसेंस आव पोएट्री) कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के साहित्य विभाग के अधयापकों के लिखे निबंधों के सन् 1929 के संग्रह में है। 1

आजकल कहीं कहीं समीक्षाओं के भीतर जो यह लिखा देखने को मिलता है कि 'यह तो बुद्धिवाद है; यह तो बुद्धित्व है वह किस दिशा से उड़कर आया हुआ वाक्य है, इसका कुछ पता उपर्युक्त विवरण से लग सकता है। पश्चिम में काव्य की भावना में बुद्धि क्यों इतनी बाधक दिखाई दे रही है, उसका कारण प्रत्यक्ष है। उसका कारण है काव्य के संबंध में यह संकुचित और बालोचित धारणा कि उसकी अनुभूति 'विस्मय' और 'कुतूहल' के रूप में होती है। 'विस्मय' और 'कुतूहल' बालकों और जंगली जातियों का लक्षण अवश्य है। पर बहुत निम्नकोटि की काव्यानुभूति 'कुतूहल' और 'विस्मय' के रूप में होती है, यह मैं अच्छी तरह दिखा चुका हूँ।

(अब वर्तमन योरपीय काव्यक्षेत्र की दो चार और प्रवृत्तियों का उल्लेख करके मैं अपने भाषण को समाप्त करना चाहता हूँ।)

इधर हाल में इंगलैंड के काव्यक्षेत्र में गत महायुद्ध के दो चार वर्ष पहले से 'प्रकृति की ओर फिर लौटने' के लक्षण कवियों ने दिखाए। रूपर्ट ब्रुक जिनका उल्लेख पीछे हो चुका है, इसी पक्ष के अनुयायी थे। वे बड़ी ही सच्ची भावना के कवि थे। प्रकृति के चिरपरिचित सादे और सामान्य माधुर्य ने उनके मन में घर कर लिया था। रूपों की चमक, तड़क, भड़क, भव्यता, विशालता की ओर जिस प्रकार उनका मन नहीं लगता था उसी प्रकार वचनवक्रता, भाषा की उछलकूद, कल्पना की उड़ान की ओर भी उनकी प्रवृत्ति नहीं थी। हेरल्ड मुनरी आदि कई एक इस पक्ष के अनुयायी कवि अभी वर्तमन हैं। जीवन की सामान्य और घरेलू वस्तुओं को ये लोग बड़े प्यार की दृष्टि से देखतेहैं।

एक दूसरे सिद्धांत के प्रवर्तक एफ. एस. फंलिग है जिनकी 'तारकजाल में' नाम की पुस्तक सन् 1909 में प्रकाशित हुई थी। उनका सिद्धांत है कि कविता में जो बात कही जाय वह सब इस रूप में हो कि उनकी मूर्त भावना हो सके। इसलिए इस सिद्धांत को लोग 'मूर्तविधानवाद' (इमैजिज्म) कहने लगे। इसके अनुयायी काव्य में भाववाचक शब्द रखने के विरोधी हैं। विचारात्मक तथा लंबी कविताएँ भी ये लोग अच्छी नहीं समझते।


1. ऐसेज इन क्रिटिसिज्म (बाइ मेंबर्स आव दि डिपार्टमेंट आव इंगिलश, यूनिवर्सिटी आव कैलिफोर्निया1929)।

पहले एक प्रकार के 'रीतिवाद' का उल्लेख हो चुका है जो फ्रांस से 'संवेदनावाद' (इंप्रेशनिज्म) के नाम से चला है। उसके अनुयायी कविता को संगीत के और निकट लाना चाहते हैं। ये लोग शब्दों के प्रयोग में उनके अर्थों पर ध्या न देना उतना आवश्यक नहीं समझते जितना उनकी नादशक्ति पर, जैसेयदि मधुमक्खियों के धावे का वर्णन होगा तो 'भिन भिन' 'मिन मिन' ऐसी ध्वयनिवाले; हवा के बहने और पत्तोंन के बीच घुसने का वर्णन होगा तो 'सर सर' 'मर मर' ऐसी ध्व्निवाले शब्द इकट्ठे किए जायँगे। तुलसीदासजी की चौपाई का यह चरण इसका उदाहरण होगा

कंकन, किंकिनि नूपुर धुनि सुनि।

इसमें 'झनकार' की संवदेना का अनुभव सुनने मात्र से हो जाता है। वीररसकी कविताओं में पाए जानेवाले 'चटाक पटाक' 'कड़क धड़क' आदि शब्दों तथा अमृतध्वँनि छंद से तो हिन्दी पाठक भी पूरे परिचित होंगे। सूदन कवि की ये पंक्तियाँ ही देखिए

धाड़धाद्धारं धाड़धाद्धारं भड़भब्भरं भड़भब्भरं।

तड़तत्तारं तड़तत्तारं कड़कक्करं कड़कक्करंड्ड

'संवेदनावाद' और 'मूर्तविधानवाद' दोनों को मिलाकर सबसे विलक्षण तमाशा ई. ई. कमिंग्ज साहब ने खड़ा किया है। उन्होंने पदभंग, पदलोप, वाक्यलोप तथा अक्षरविन्यास, चरणविन्यास इत्यादि के न जाने कितने नए नए करतबदिखाएहैं,जैसे

सि पाही (सीटी ) देता है।

उनकी रचना का ढंग दिखाने के लिए उनकी एक कविता, थोड़े से आवश्यक हेर फेर के साथ, नीचे देता हूँ। यद्यपि इसकी विशेषताएँ बहुत कुछ अंग्रेजी भाषा और उसके छंदों की मात्रा आदि से संबंध रखती हैं और हिन्दी में नहीं दिखाई जा सकतीं, फिर भी कुछ अंदाजा रूप रंग का हो जायगा। कविता यह है

सूर्यास्त

सं दंश

स्वर्ण 'गुन्' जाल

शिखर पर

रजत

पाठ करता है

बड़े बड़े घंटे बजते हैं गेरू से

मोटे निठल्ले नगाड़े

और एक उत्तांग

पवन

खींचता है

सागर

को

स्वप्न

से

यह समुद्र के किनारे सूर्यास्त का वर्णन है जिसका विषय यह है। समुद्र की खारी हवा काटती सी है। डूबते सूर्य की किरणें ऊँची उठी तरंग की श्वेत फेनिल चोटी पर पड़कर पीली मधुमक्खियों के फैले हुए झुंड सी लगती हैं। वह ऊपर उठी लहर देवमंदिर के मंडप सी जान पड़ती है, जिसके भीतर पाठ होता है, बड़े बड़े घंटे बजते हैं, गेरू से पुते दरवाजे होते हैं, नगाड़े बजते हैं, बड़ी तोंदवाले मोटे निठल्ले पुजारी बैठे रहते हैं। हवा समुद्र के जल को वैसे ही खींचती जान पड़ती है जैसे मछुवा जाल खींचता हो। सूर्यास्त हो जाता है। धुंधालापन, फिर अंधकार हो जाता है; लोग सोतेहैं।

अब किस ढंग से इन सब बातों की संवेदना उत्पन्न करने के लिए पदविन्यास किया गया है, थोड़ा यह देखिए। 'स' से सनसनाहट अर्थात् हवा चलने की और 'दंश' से चमड़ा फटने, पानी की ठंडक और मधुमक्खियों के पीले रंग का आभास दिया गया है। 'गुन्' से गुनगुनाहट और गुंजार का संकेत किया गया है, जो 'दंश' के साथ मिलकर मधुमक्खियों की भावना उत्पन्न करता है। 'जाल' झुंड का द्योतक है। 'पाठ', 'घंटे' और 'नगाड़े' को मिलाकर, मंदिरों में होनेवाले शब्द तथा समुद्र के गर्ज़न और छीटे के कलकल का आभास दिया गया है। लटके हुए 'घंटे' की मूर्त भावना में लहरों के नीचे ऊपर झूलने का भी संकेत है। 'गेरू' में संध्याए की ललाई झलकाई गई है। 'नगाड़े' में निकली हुई तोंद का भी संकेत है। रचना के प्रथम खंड में 'सूर्य' और 'समुद्र' शब्द नहीं रखे गए हैं। 'स्वर्ण' में तपे सोने के ताप और दम की भावना रखकर सूर्य का, और 'रजत' में शीतलता और स्वच्छता की भावना रखकर जलराशि वा समुद्र का संकेत फिर कर दिया गया है। (बड़ी कृपा!) इसमें 'स' के अनुप्रास से भी सहायता ली गई है। यह अनुप्रास पहले खंड में 'स' अक्षर के आरंभ होनेवाले 'सूर्य' और 'समुद्र' इन दो शब्दों की ओर भी इशारा करताहै।

कमिंग्ज साहब की समझ में यह विषय को ठीक वैसे ही सामने रखना है जैसे संवेदना उत्पन्न होती है। इसमें ऐसे शब्द नहीं हैं जो अर्थ संबंध मिलाने के लिए या व्याकरण के अनुसार वाक्य विन्यास के लिए लाए जाते हैं, पर संवेदना उत्पन्न करने में काम नहीं देते (जैसे, 'और', 'किंतु', 'फिर' इत्यादि)। उनके अनुसार यह खालिस कविता है, जिसमें से भाषा, व्याकरण तात्पर्य बोध आदि का अनुरोध पूरा करनेवाले फालतू शब्द निकाल दिए गए हैं।

थोड़ा सोचिए कि कमिंग्ज के इस विचित्र विधान के मूल में क्या है। काव्यदृष्टि की परिमिति और प्रतिभा के अनवकाश के बीच नवीनता के लिए नैराश्यपूर्णआकुलता। 'सूर्योदय', 'सूर्यास्त' आदि बहुत पुराने विषय हैं जिनपर न जाने कितने कितने कवि अच्छी अच्छी कविता कर गए हैं। अब इन्हीं को लेकर जो विलक्षणता और नवीनता दिखाना चाहेगा वह मार्मिक दृष्टि के प्रसार के अभाव में सिवा इसके कि नए नएवादों का अंधा अनुसरण करे, शब्दों की कलाबाजी दिखाए, पहेली खड़ा करे और करेगा क्या?'1

(काव्य और समालोचना के विवेचन में, मैं समझता हूँ मैंने बहुत अधिक समय ले लिया इतना अधिक कि अब साहित्य के और अंगों के संबंध में केवल दो दो बातें ही कही जा सकती हैं।)

नाटक

साहित्य का एक बड़ा आवश्यक अंग 'दृश्य काव्य' है जिसके अनेक भेद हमारे यहाँ किए गए हैं। रचना की प्रक्रिया का भी बड़ा प्रकांड, कौशलपूर्ण और जटिल निरूपण है। हमारे साहित्य में रूपक या नाटक भी काव्य ही हैं, अत: रस ही पर दृष्टि उनमें भी रखी गई है। पाश्चात्य नाटकों में अंत:प्रकृति के वैचित्र्य प्रदर्शन पर विशेष दृष्टि रखी जाती है। हिन्दी में नाटकों का जिस रूप में विकास हुआ उनमें दोनों दृष्टियों का मेल है। यह बात बहुत अच्छी हुई है। भारतेंदु काल में जिन नाटकों की रचना हुई उनमें अंत:प्रकृति के वैचित्र्य का विधान नहीं के बराबर है। पर इधर जो नाटक लिखे जा रहे हैं उनमें यह विधान भी आ रहा है।

1. अंग्रेजी में यह कविता इस रूप में लिखी गई है

सनसेट

स्टिगिंग

गोल्ड स्वार्म्स

अपान दि स्पायर्स

सिलवर

चैंट्स दि लिटैंनीज दि

ग्रेट बेल्स आर रिंगिंग विद रोज

दि ल्यूड फैट बेल्स

ऐंड ए टाल

विंड

इज ड्रैगिंग

दि सी

विद ड्रीम्स

पाश्चात्य नाटकों की प्रवृत्ति इधर एकदम 'वास्तविकता' की ओर ही रही है। नाटक से काव्यत्व और भावात्मकता दूर करने का प्रयास हो रहा है। पुराने साम्यवादी होने के कारण बर्नार्ड शॉ ने मनुष्य समाज के व्यवस्था संबंधी प्रश्नों को लेकर वर्तमन परिस्थितियों का बहुत सटीक प्रत्यक्षीकरण किया है। एक अंकवाले नाटकों का चलन भी वहाँ हो रहा है। हमारी हिन्दी में भी इस प्रकर के नाटकों के ऊपरी ढाँचे लेकर दो एक सज्जन 'नवीनता के आंदोलन' में अपना योग प्रदर्शित कर रहे हैं।

मेरा नम्र निवेदन यह है कि पश्चिम में चाहे जो हो रहा हो, हमें अपने दृश्य साहित्य को एकदम मँगनी की वस्तु बनाने की आवश्यकता नहीं। जिस देश में दृश्य काव्य का आविर्भाव अत्यंत प्राचीन काल में हुआ हो उसके भीतर उसका स्वतंत्र रूप में नूतन विकास न हो सके, यह खेद की बात होगी। यह देखकर मुझे अत्यंत आनंद होता है कि 'प्रसाद' जी के नाटकों में इस प्रकार के विकास के पूरे लक्षण मिलते हैं। उनके ऐतिहासिक नाटकों में सबसे बड़ी विशेषता है प्राचीन काल के रीति व्यवहार, शिष्टाचार, शासन व्यवस्था आदि का ठीक इतिहास सम्मत चित्रण। वस्तु विन्यास और शील निरूपण का कौशल भी उत्कृष्ट कोटि का है। उनके रचे'अजात शत्रु', 'स्कंदगुप्त' आदि नाटकों को लेकर आज हिन्दी पूरा गर्व कर सकती है। मेरे देखने में अच्छे सामाजिक नाटकों का अभाव अभी बना है। इसके लिए 'प्रसाद' जी से न कहूँगा। जिस ऐतिहासिक क्षेत्र को उन्होंने लिया है उसी के भीतर उन्हें अपनी प्रतिभा का उत्तारोत्तर विकास करना चाहिए। 'वरमाला' के लेखक श्री गोविंदवल्लभ पंत भी अच्छे नाटककार हैं। स्वर्गीय पं. बदरीनाथ भट्ट की 'दुर्गावती' में अभिनय की विनोदपूर्ण सामग्री है।

इधर हाल में पं. सुमित्रनंदन पंत ने 'ज्योत्स्ना' लिखकर 'कल्पना जगत्' को प्रत्यक्ष रूप में लाने का अच्छा आयोजन किया है। पर ऐसे नाटक शुद्ध नाटक की कोटि में न आकर, काव्य की कोटि में ही अपना स्थान रखते हैं। शेली ने भी पृथिवी, पवन इत्यादि प्राकृतिक शक्तियों को लेकर इस ढंग के दो एक नाटक लिखे थे, जिनके अभिनय का ख्याल किसी ने कभी नहीं किया।

हर्ष की बात यह है कि पारसी ढंग की थिएटर कंपनियों ने भी अब हिन्दी में लिखे नाटकों का अभिनय आरंभ कर दिया है। इसके लिए सबसे पहले साधुवाद के पात्र हैं पं. नारायण प्रसाद बेताब। उनके अतिरिक्त आगा हशर साहब, मोहम्मद इसहाक साहब (शबाब), बाबू आनंद प्रसाद कपूर, बाबू शिवप्रसाद गुप्त तथा व्याकुल जी ने भी थिएटरों में खेले जाने के लिए कई नाटक लिखे हैं।

उपन्यास

हमारे यहाँ के 'कादंबरी', 'दशकुमारचरित' आदि पुराने कथात्मक गद्य प्रबंध गद्यकाव्य के रूप में ही मिलते हैं। उनकी रचना अत्यंत अलंकृत और रसात्मक है। हमारे आधुनिक हिन्दी साहित्य में 'उपन्यास' का नाम भी बँगला से आया और उपन्यास का अंग्रेजी ढाँचा भी। कथात्मक गद्य प्रबंध के लिए वास्तव में यह ढाँचा बहुत ही उत्कृष्ट है। उपन्यास के दो तरह के ढाँचे मिलते हैं & पुराने और नए। पुराने ढाँचे में काव्यत्व की मात्रा यथेष्ट रहती थी। परिच्छेदों के आरंभ में अच्छे अलंकृत दृश्य वर्णन होते थे और पात्रों की बातचीत भी कहीं कहीं रसात्मक होती थी। बँगला में जिस समय उपन्यास आए उस समय यूरोप में पुराना ढाँचा ही प्रचलित था, जिसे बहुत ही सुंदर ढंग से बंकिमचंद्र, रमेशचंद्र दत्ता आदि ने भारतीय साहित्य में लिया-ऐसे सुंदर ढंग से कि यह जान ही न पड़ा कि वह कहीं बाहर से आया है। भारतेंदु काल से लेकर प्रेमचंदजी के पहले तक हिन्दी में भी उपन्यास इसी ढाँचे पर लिखे जाते रहे।

पीछे यूरोप में 'नाटक' और 'उपन्यास' दोनों से काव्यत्व का अवयव बहुत कुछ निकालने की प्रवृत्ति हुई और दृश्य वर्णन, भावव्यंजना, आलंकारिक चमत्कार आदि हटाए जाने लगे। इस नए ढाँचे के उपन्यास, जहाँ तक मुझे स्मरण आता है, प्रेमचंदजी के समय से हिन्दी में आने लगे। वर्तमन सामाजिक जीवन के विविध पक्षों और अंतर्वृत्तियों की बड़ी पैनी परख प्रेमचंदजी को मिली है। उन्होंने हिन्दी के उपन्यास क्षेत्र को जगमगा दिया। वे हमारे गर्व और गौरव के कारण हैं। सामाजिक उपन्यास हिन्दी में अच्छे लिखे जा रहे हैं। पर एक मेरा निवेदन है। इधर बहुत से उपन्यासों में देश की सामान्य जीवनपद्धाति को छोड़ बिलकुल योरपीय सभ्यता के साँचे में ढले हुए छोटे से समुदाय के जीवन का चित्रण बहुत अधिक पाया जाता है। मिस्टर, मिसेज, मिस, ड्राइंग रूम, टेनिस, मोटर पर हवाखोरी, सिनेमा इत्यादि ही उपन्यासों में अधिक दिखाई पड़ने लगे हैं। मैं जानता हूँ कि आधुनिक जीवन का यह भी एक पक्ष है, पर सामान्य पक्ष नहीं। देश के असली, सामाजिक और गृहस्थे जीवन के जैसे चित्र पुराने उपन्यासों में रहते थे वैसे अब कम होते जा रहे हैं। यह मैं अच्छा नहीं समझता।

उपन्यास के पुराने ढाँचे के संबंध में मैं एक बात कहना चाहता हूँ। वह यह कि वह कुछ बुरा न था। उसमें हमारे भारतीय कथात्मक गद्य प्रबंध के स्वरूप का भी आभास रहता था।

मनुष्य के दोषों और पापों को उदार दृष्टि से देखना, सत्पथ से भटके हुए लोगों के प्रति घृणा का भाव न उत्पन्न करके दया का भाव उत्पन्न करना और जीवन की कठोर वास्तविक परिस्थितियों के बीच भी उदात्त और कोमल भावों का स्फुरण दिखाना आधुनिक उपन्यासों का आदर्श माना जाता है।

उपन्यासकारों में इधर प्रेमचंदजी के अतिरिक्त पं. विश्वंभरनाथ कौशिक, श्री सुदर्शन, बाबू वृंदावनलाल वर्मा, बाबू प्रतापनारायण श्रीवास्तव, श्रीयुत जैनेंद्रकुमार आदि महानुभाव बहुत अच्छा कार्य कर रहे हैं।

मेरे देखने में उत्कृष्ट कोटि के ऐतिहासिक उपन्यासों का अभाव ज्यों का त्यों बना है। यदि जयशंकर 'प्रसाद' जी इस ओर भी ध्या न दें तो इस अभाव की पूर्ति बहुत अच्छी तरह हो सकती है। मैं तो अपनी ओर से यही कहँगा कि सामाजिक उपन्यास का क्षेत्र तो वे प्रेमचंदजी ऐसे लोगों के लिए छोड़ दें जो ऐतिहासिक नाटकों की रचना को 'गड़े हुए मुर्दे उखाड़ना' कहते हैं और स्वयं इतिहास के प्राचीन क्षेत्रमें स्वच्छंद क्रीड़ा करनेवाली अपनी प्रतिभा को ऐतिहासिक उपन्यासों की ओर प्रवृत्त करें।

इधर यूरोप में छोटी कहानियों का बहुत अधिक प्रचार हुआ। ये होती भी हैं अत्यंत मार्मिक। यह कम हर्ष की बात नहीं है कि हमारी हिन्दी में भी इनका अच्छा विकास हुआ। मेरे देखने में कहानियों के तीन रूप हिन्दी में दिखाई पड़ रहे हैं-(1) योरपीय आदर्श पर सादे ढंग से केवल कुछ घटनाएँ और बातचीत सामने रखनेवाला-जिसका नमूना है स्वर्गीय गुलेरीजी की प्रसिद्ध कहानी 'उसने कहा था'। (2) कुछ अलंकृत दृश्य चित्रयुक्त-यह रूप 'हृदयेश' जी की कहानियों में मिलता है। (3) कल्पनात्मक और भावात्मक-यह रूप 'प्रसाद' जी और राय कृष्णदासजी की कहानियों में मिलेगा।

प्रेमचंदजी ने भी बड़ी सुंदर छोटी कहानियाँ लिखी हैं। कहानियों के क्षेत्र में श्री पं. ज्वालादत्ता शर्मा, श्री पं. जनार्दन प्रसाद झा द्विज', श्री राजेश्वर प्रसाद सिंह, श्री चतुरसेन शास्त्रीग, श्रीयुत गोविंदवल्लभ पंत, बाबू, शिवपूजन सहाय, पं. भगवती प्रसाद वाजपेयी, श्री बालकृष्ण शर्मा 'नवीन', श्रीयुत जैनेंद्र कुमार विशेष उल्लेख योग्यहैं।

हास्यरस की कहानियाँ लिखनेवाले पहले तो श्रीयुत जी. पी. श्रीवास्तव ही थे, अब बाबू अन्नपूर्णानंदजी शिष्ट हास का बहुत अच्छा नमूना सामने ला रहे हैं।

हास्यरस के संबंध में पश्चिम में इस बात का भी निरूपण हुआ है कि हास्य के आलंबन से विनोद तो होता ही है, पर उसके प्रति कोई और भाव भी] जैसे-घृणा, विरक्ति, उपेक्षा, दया-रहता है। अब तक यही विवेचित हुआ था कि उत्कृष्ट हास्यरस में आलंबन के प्रति प्रेमभाव होता है, अर्थात् वह प्रिय लगता है। पर अब यह कहा जाने लगा है कि उसके प्रति दया का भाव होना चाहिए, और वह दया ऐसी हो जिसके पात्र, हम अपने को भी समझें-अर्थात् जिस स्थिति में आलंबन को देख हम हँसें उसमें हम भी हों।

गद्य काव्य

जब से श्रीयुत रवींद्रनाथ ठाकुर की 'गीतांजलि' की बहुत ख्याति हुई तब से हिन्दी में नए ढंग के गद्यकाव्य बहुत दिखाई पड़ने लगे। श्रीयुत राय कृष्णदासजी की 'साधना', वियोगी हरि का 'अंतर्नाद' आदि कई प्रसिद्ध पुस्तकों के अतिरिक्त आजकल मासिक पत्रिकाओं में भी समय समय पर अनेक रूप रंग के भावात्मक गद्यप्रबंध निकला करते हैं। साहित्य में इस प्रकार के गद्यप्रबंधों का भी एक विशिष्ट स्थान है। पर इनकी भरमार मैं अच्छी नहीं समझता। यदि इसी प्रकार के गद्य की ओर ही लोगों का ध्यापन रहेगा, तो प्रकृत गद्य का विकास रुक जायगा और भाषा की शक्ति की वृद्धि मेंबहुत बाधा पड़ेगी। वर्तमन उर्दू साहित्य के क्षेत्र में भी इस प्रकार के भावात्मक गद्य कीप्रवृत्ति देख उर्दू साहित्य के इतिहास लेखक श्रीयुत राम बाबू सक्सेना बहुत घबराए हैं।

निबंध

ऐसे प्रकृत निबंध जिनमें विचार प्रवाह के बीच लेखक के व्यक्तिगत वाग्वैचित्य्े तथा उसके हृदय के भावों की अच्छी झलक हो, हिन्दी में अभी कम देखने में आ रहेहैं।आशा है इस अंग की पूर्ति की ओर भी हमारे सहयोगी साहित्य सेवियों का ध्यामन जाएगा।

भाषा

साहित्य के नाना अंगों का विशद रूप में निर्माण देख जितना आनंद होता है उतना ही भाषा की ओर असावधानी देख खेद होता है। मासिक पत्रिकाओं में बहुत से लेखों को उठाकर देखिए तो उनमें व्याकरण की अशुद्धियाँ भरी मिलेंगी। हमारे सुयोग्य संपादकगण यदि इस ओर ध्याकन दें तो मुझे विश्वास है कि यह बुराई दूर हो सकती है। खैर यह बुराई तो दूर हो जाएगी, पर हमारी भाषा का स्वरूप ही विकृत करनेवाली एक प्रवृत्ति बहुत भयंकर रूप में बढ़ रही है-वह है अंग्रेजी के चलते वाक्यों और मुहावरों को शब्द प्रतिशब्द अनुवाद करके रखना। 'दृष्टिकोण' 'प्रकाश डालना' आदि तक तो खैरियत थी, पर जब उपन्यासों में इस तरह के वाक्य भरे जाने लगे] जैसे-

(1) उसके हृदय में अवश्य ही एक ललितकोना होगा जहाँ रतन ने स्थान पा लिया होगा।

(2) वह उन लोगों में से न था जो घास को थोड़ी देर भी अपने पैरों तले उगने देते हों।

तब हमारी भाषा अपना नया ठिकाना ढूँढ़ेगी?

आजकल कभी कभी हिन्दी हिंदुस्तानी का झगड़ा भी उठा करता है। हमारे साहित्य की भाषा का स्वरूप क्या होना चाहिए, यह पचासों वर्ष पहले स्थिर हो चुका। उसमें फेरफार करने की कोई आवश्यकता नहीं। अपने साहित्य की भाषा का स्वरूप हम वही रख सकते हैं जो बराबर से चला आ रहा है तथा जो उत्तरी भारत के और भूखंडों के साहित्य की भाषा के स्वरूप के मेल में होगा। हिन्दी हिंदुस्तानी के संबंध में प्रो. धीरेंद्र वर्मा ने एकेडमी की 'तिमाही पत्रिका' में जो कुछ लिखा था, मैं उसे खासा स्पष्टवाद समझता हूँ।

(अब मैं आप महानुभावों का बहुत अधिक समय ले चुका। इस स्थान पर एक प्रकार से आप लोगों के धैर्य की पूरी परीक्षा हो गई। मेरी निस्सार और रूखी सूखी बातों को इतनी देर बैठकर सुनना, अनुग्रह के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है? आज अपने वर्तमन हिन्दी साहित्य के प्रशस्त प्रसार को देख मुझे उन दिनों का स्मरण हो रहा है जब थोड़े से लोग किसी भव्य भविष्य की आशा बाँधो हिन्दी की सेवा कर रहे थे। आज अपने को इतने बड़े और प्रभावशाली विद्वन्मंडल के सामने खड़ा पाकर मुझे तो ऐसा भासित हो रहा है कि वह भव्य भविष्य यही था। मेरी पुरानी कामनाएँ तो आज पूर्ण हो गईं पर जीवनक्षेत्र में कामनाओं का अंत नहीं। एक पूरी हुई, फिर दूसरी। जिन ऑंखों से मैंने इतना देखा उन्हीं से अब अपने हिन्दी साहित्य को विश्व की नित्य और अखंड विभूति से शक्ति, सौंदर्य और मंगल का प्रभूत संचय करके एक स्वतंत्र 'नव निधि' के रूप में प्रतिष्ठित देखना चाहता हूँ। अपनी इस कामना को आप महानुभावों के सम्मुख प्रकट करके अब मैं क्षमा माँगता और धन्यवाद देता हुआ अपना वक्तव्य समाप्त करता हूँ।)


(चौबीसवें हिन्दी साहित्य सम्मेलन, इंदौर की साहित्य परिषद के सभापति पद से दिया गया भाषण, 1935 ई.)
(चिन्तामणि-2)

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