काव्य-कला (निबंध) : महादेवी वर्मा
Kavya-Kala (Hindi Nibandh) : Mahadevi Verma
सत्य पर जीवन का सुन्दर ताना-बाना बुनने के लिए कला सृष्टि ने स्थूल सूक्ष्म सभी विषयों को अपना उपकरण बनाया। वह पाषाण की कठोर स्थूलता से रंग-रेखाओं की निश्चित सीमा, उससे ध्वनि की क्षणिक स्थिति और तब शब्द की सूक्ष्म व्यापकता तक पहुँची अथवा किसी और क्रम से, यह जान लेना बहुत सहज नहीं। परन्तु शब्द के विस्तार में कला सृजन को, पाषाण की मूर्तिमत्ता, रंग-रेखा की सजीवता, स्वर का माधुर्य सब कुछ एकत्र कर लेने की सुविधा प्राप्त हो गयी । काव्य में कला का उत्कर्ष एक ऐसे बिन्दु तक पहुँच गया, जहाँ से वह ज्ञान को भी सहायता दे सका, क्योंकि सत्य काव्य का साध्य और सौन्दर्य उसका साधन है। एक अपनी एकता में असीम रहता है और दूसरा अपनी अनेकता में अनन्त, इसी से साधन के परिचय - स्निग्ध खण्ड रूप से साध्य की विस्मयभरी अखण्ड स्थिति तक पहुँचने का क्रम आनन्द की लहर पर लहर उठाता हुआ चलता है।
इस व्यापक सत्य के साथ हमारी सीमा का सम्बन्ध कुछ जटिल-सा है। हमारी दृष्टि के सामने क्षितिज तक जो अनन्त विस्तार फैला है, वह मिट नहीं सकता, पर हम अपनी आँख के सामने एक छोटा-सा तिनका भी खड़ा करके उसे इन्द्रजाल के समान ही अपने लिए लुप्त कर सकते हैं। फिर जब तक हम उसे अपनी आँख से कुछ अन्तर पर एक विशेष स्थिति में, उस विस्तार के साथ रखकर न देखें, तब तक हमारे लिए वह क्षितिजव्यापी विस्तार नहीं के बराबर है। केवल तिनका ही हमारी दृष्टि की सीमा को सब ओर से घेरकर विराट् बन जाएगा। परन्तु उस तृण-विशेष पर ही नहीं, लता, वृक्ष, खेत, वन आदि सभी खण्ड-रूपों पर ठहरती हुई हमारी दृष्टि उस विस्तार का ज्ञान करा सकती है। बिना रूपों की सीमा के उस असीम विस्तार का बोध होना कठिन है और विस्तार की व्यापक पीठिका में अभाव के उन रूपों की अनेकात्मकता की अनुभूति सम्भव नहीं । अखण्ड सत्य के साथ हमारी स्थिति भी कुछ ऐसी ही रहती है। उसका जितना अंश हम अपनी सीमा से घेर सकते हैं, उसे ऐसी स्थिति में रखकर देखना आवश्यक हो जाता है, जहाँ वह हमारी सीमा में रहकर भी सत्य की व्यापकता में अपनी निश्चित स्थिति बनाये रहे ।
व्यक्ति की सीमा में तो सत्य की ऐसी दोहरी स्थिति सहज ही नहीं, स्वाभाविक भी है, अन्यथा उसे तत्त्वतः ग्रहण करना सम्भव न हो सकेगा। परन्तु खण्ड में अखण्ड की इस स्थिति को प्रेषणीय बना लेना दुष्कर नहीं तो कठिन अवश्य है। आकार की रेखाओं की संख्या, लम्बाई-चौड़ाई, हल्का भारीपन आदि गणित के अंकों में बाँधे जा सकते हैं, परन्तु रेखा से परिणाम तक व्याप्त सजीवता का परिचय संख्या, मात्रा या तोल से नहीं दिया जा सकता। आकार को ठीक नाप-जोख के साथ दूसरे तक पहुँचा देना जितना सहज है, जीवन को सम्पूर्ण अतुलनीयता के साथ दूसरे को दे सकना उतना ही कठिन ।
सत्य की व्यापकता में से हम चाहे जिस अंश को ग्रहण करें, वह हमारी सीमा में बँधकर व्यष्टिगत हो ही जाता है और इस स्थिति में हमारी सीमा के साथ सापेक्ष पर अपनी व्यापकता में निरपेक्ष बना रहता है। दूसरे के निकट हमारी सीमा से घिरा सत्य हमारा रहकर ही अपना परिचय देना चाहता है और दूसरा हमें तोलकर ही उस सत्य का मूल्य आँकने की इच्छा रखता है। इतना ही नहीं, उसकी तुला पर रुचि-वैचित्र्य, संस्कार, स्वार्थ आदि के न जाने कितने पासंगों की उपस्थिति भी सम्भव है, अतः सत्य के सापेक्ष ही नहीं, निरपेक्ष मूल्य के सम्बन्ध में भी अनेक मतभेद उत्पन्न हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त मनुष्य की चिर अतृप्त जिज्ञासा भी कुछ कम नहीं रोकती-टोकती! 'हमने अमुक वस्तु को अमुक स्थिति में पाया' इतना कथन ही पर्याप्त नहीं, क्योंकि सुननेवाला कहाँ-कहाँ कहकर उसे अपने प्रत्यक्ष ज्ञान की परिधि में बाँध लेने को व्याकुल हो उठेगा। अब यदि वह हमारी ही स्थिति में, हमारे ही दृष्टिकोण से उसे न देख सके, तो वह वस्तु कुछ भिन्न भी लग सकती है और तब विवाद की कभी न टूटनेवाली शृंखला में नित्य नयी कड़ियाँ जुड़ने लगेंगी। बाह्य जीवन में तो यह समस्या किसी अंश तक सरल की भी जा सकती है, परन्तु अन्तर्जगत् में इसे सुलझा लेना सदा ही कठिन रहा है।
इस सत्य सम्बन्धी उलझन को सुलझाने के लिए जीवन न ठहर सकता है। और न इसे छोड़कर आगे बढ़ सकता है, अतः वह सुलझाता हुआ चलता है। बाह्य जीवन में, राजनीति, समाज, शासन, धर्म आदि इतिवृत्त के समान सत्य का परिचय भर देते चलते हैं। मनुष्य की हठीली जिज्ञासा किसी ग्रन्थि को पकड़कर रुक न जाए, इस भय से उन्होंने प्रत्येक ग्रन्थि पर अनुग्रह और दण्ड की इतनी चिकनाहट लगा दी है, जिससे हाथ फिसल भर जावे। कहीं महाभाष्य के समान बहुत विस्तार में उलझे हुए और कहीं सूत्रों के समान संक्षिप्त रूप में सुलझे हुए सिद्धान्त कभी सत्य के संग्रहालय जैसे जान पड़ते हैं और कभी अस्त्रागार जैसे; कहीं सत्य की विकलांग मूर्तियों का स्मरण करा देते हैं और कहीं अधूरे रेखाचित्रों का; पर व्यापक स्पन्दित सत्य का अभाव नहीं दूर कर पाते। मनुष्य के बाह्य जीवन की निर्धनता देखने के लिए वे सहस्राक्ष बनने पर बाध्य हैं और उसके अन्तर्जगत् के वैभव के लिए धृतराष्ट्र होने पर विवश ।
हमारी बुद्धिवृत्ति बाहर के स्थूलतम बिन्दु से लेकर भीतर के सूक्ष्मतम बिन्दु तक जीवन को एक अर्द्धवृत्त में घेर सकती है, परन्तु दूसरा अर्द्धवृत्त बनाने के लिए हमारी रागात्मिका वृत्ति ही अपेक्षित रहेगी। हमारे भाव - क्षेत्र और ज्ञानक्षेत्र की स्थिति पृथ्वी के दो गोलाद्ध के समान है, जो मिलकर भूगोल को पूर्णता देते हैं और अकेले आधा संसार ही घेर सकते हैं। एक ओर का भूखण्ड दूसरे का पूरक बना रहने के लिए ही उसे अन्तर पर रखकर अपनी दृष्टि का विषय नहीं बना पाता; परन्तु इससे दोनों में से किसी की भी स्थिति सन्दिग्ध नहीं हो जाती ।
हमारी बुद्धि और रागात्मिका वृत्ति के दो अर्द्धवृत्तों से घिरे सत्य के सम्बन्ध में भी यही सत्य रहेगा। हमारे व्यावहारिक जीवन का प्रत्येक कार्य संकल्प-विकल्प, कल्पना - स्वप्न, सुख-दुःख आदि की भिन्नवर्णी कड़ियोंवाली श्रृंखला के एक सिरे में झूलता रहता है। इस श्रृंखला की प्रायः सभी कड़ियों की स्थिति अन्तर्जगत् में ही सम्भव है। व्यवहारजगत् केवल कार्य से सम्बन्ध रखता है, बुद्धि कार्य के स्थूल ज्ञान से लेकर उसे जन्म देनेवाले सूक्ष्म विचार तक जानती है और हृदय तज्जनित सुख-दुःख से लेकर स्वप्न कल्पना तक की अनुभूतियाँ संचित करता है। इस प्रकार बाह्य जीवन की सीमा में वामन जैसा लगनेवाला कार्य भी हमारे अन्तर्जगत् की असीमता में बढ़ते-बढ़ते विराट हो सकता है।
बहिर्जगत् से अन्तर्जगत् तक फैले और ज्ञान तथा भाव - क्षेत्र में समान रूप से व्याप्त सत्य की सहज अभिव्यक्ति के लिए माध्यम खोजते खोजते ही मनुष्य ने काव्य और कलाओं का आविष्कार कर लिया होगा। कला सत्य को ज्ञान के सिकता-विस्तार में नहीं खोजती, अनुभूति की सरिता के तट से एक विशेष बिन्दु पर ग्रहण करती है। तट पर एक ही स्थान पर बैठे रहकर भी हम असंख्य नयी तरंगों को सामने आते और पुरानी लहरों को आगे जाते देखकर नदी से परिचित हो जाते हैं। वह किसी पर्वतीय उद्गम से निकलकर, कहाँ-कहाँ बहती हुई, किस समुद्र की अगाध तरलता में विलीन हो जाती है, यह प्रत्यक्ष न होने पर भी हमारी अनुभूति में नदी पूर्ण है और रहेगी। जब हम कहते हैं कि हमने एक ओर चाँदी की धूल जैसी झिलमिलाती बालू और दूसरी ओर दूर हरीतिमा में तटरेखा बनाती हुई, अथाह नील जल से भरी नदी देखी, तब सुननेवाला कोई प्रचलित नाप-जोख नहीं माँगता । हमने इतने गज प्रवाह नापा है, इतने सौ लहरें गिनी हैं, इतने फीट गहराई नापी है, इतने सेर पानी तोला है आदि-आदि, नाप-तोल न बताकर भी हम नदी का ठीक परिचय दूसरे के हृदय तक पहुँचा देते हैं। सुननेवाला उस नदी को ही नहीं, उसके शाश्वत सौन्दर्य को भी प्रत्यक्ष पाकर एक ऐसे आनन्द की स्थिति में पहुँच जाता है, जहाँ गणित के अंकों में बँधी नाप-जोख के लिए स्थान नहीं।
मस्तिष्क और हृदय परस्पर पूरक रहकर भी एक ही पथ से नहीं चलते। बुद्धि में समानान्तर पर चलनेवाली भिन्न-भिन्न श्रेणियाँ हैं और अनुभूति में एकतारता लिये गहराई । ज्ञान के क्षेत्र में एक छोटी रेखा के नीचे उससे बड़ी रेखा खींचकर पहली का छोटा और भिन्न अस्तित्व दिखाया जा सकता है। इसके असंख्य उदाहरण, विज्ञान जीवन की स्थूल सीमा में और दर्शन जीवन की सूक्ष्म असीमता में दे चुका है। पर अनुभूति के क्षेत्र में एक की स्थिति से नीचे और अधिक गहराई में उतरकर भी हम उसके साथ एक ही रेखा पर रहते हैं। एक वस्तु को एक व्यक्ति अपनी स्थिति-विशेष में अपने विशेष दृष्टि - बिन्दु से देखता है, दूसरा अपने धरातल पर अपने से और तीसरा अपनी सीमा रेखा पर अपने से तीनों ने वस्तु-विशेष को जिन विशेष दृष्टिकोणों से, जिन विभिन्न परिस्थितियों में देखा है, वे उनके तद्विषयक ज्ञान को भिन्न रेखाओं में घेर लेंगी। इन विभिन्न रेखाओं के नीचे ज्ञान के एक सामान्य धरातल की स्थिति है अवश्य, परन्तु वह अपनी एकता के परिचय के लिए ही इस अनेकता को सँभाले रहती है।
अनुभूति के सम्बन्ध में यह कठिनाई सरल हो जाती है। एक व्यक्ति अपने दुःख को बहुत तीव्रता से अनुभव कर रहा है, उसके निकट आत्मीय की अनुभूति में तीव्रता की मात्रा कुछ घट जाएगी और साधारण मित्र में उसका और भी न्यून हो जाना सम्भव है; पर जहाँ तक दुःख के सामान्य संवेदन का प्रश्न है, वे तीनों एक ही रेखा पर, निकट, दूर, अधिक दूर की स्थिति में रहेंगे। हाँ, जब उनमें से कोई उस दुःख को अनुभूति के क्षेत्र से निकालकर बौद्धिक धरातल पर रख लेगा तब कथा ही दूसरी हो जाएगी। अनुभूति अपनी सीमा में जितनी सबल है, उतनी बुद्धि नहीं। हमारे स्वयं जलने की हल्की अनुभूति भी दूसरे के राख हो जाने के ज्ञान से अधिक स्थायी रहती है।
बुद्धिवृत्ति अपने विषय को ज्ञान के अनन्त विस्तार के साथ रखकर देखती है, अतः व्यष्टिगत सीमा में उसका सन्दिग्ध हो उठना स्वाभाविक ही रहेगा। 'अमुक ने धूम देखकर अग्नि पायी' की जितनी आवृत्तियाँ होंगी, हमारा धूम और अग्नि की सापेक्षता विषयक ज्ञान उतनी ही निश्चित स्थिति पा सकेगा। पर अपने विषय पर केन्द्रित होकर उसे जीवन की अनन्त गहराई तक ले जाना अनुभूति का लक्ष्य रहता है, इसी से हमारी व्यक्तिगत अनुभूति जितनी निकट और तीव्र होगी, दूसरे का अनुभूत सत्य हमारे समीप उतना ही असन्दिग्ध होकर आ सकेगा। तुमने जिसे पानी समझा वह बालू की चमक है, तुमने जिसे काला देखा वह नीला है, तुमने जिसे कोमल पाया वह कठोर है, आदि-आदि कहकर हम दूसरे में स्वयं उसी के इन्द्रियजन्य ज्ञान के प्रति, अविश्वास उत्पन्न कर सकते हैं, परन्तु 'तुम्हें जो काँटा चुभने की पीड़ा हुई वह भ्रान्ति है' यह हमसे असंख्य बार सुनकर भी कोई अपनी पीड़ा के अस्तित्व में सन्देह नहीं करेगा।
जीवन के निश्चित बिन्दुओं को जोड़ने का कार्य हमारा मस्तिष्क कर लेता है, पर इस क्रम से बनी परिधि में सजीवता के रंग भरने की क्षमता हृदय में ही सम्भव है। काव्य या कला मानो इन दोनों का सन्धिपत्र है, जिसके अनुसार बुद्धिवृत्ति झीने वायुमण्डल के समान बिना भार डाले हुए ही जीवन पर फैली रहती है और रागात्मिका वृत्ति उसके धरातल पर सत्य को अनन्त रंग-रूपों में चिर नवीन स्थिति देती रहती है। अतः काव्यकला का सत्य जीवन की परिधि में सौन्दर्य के माध्यम द्वारा व्यक्त अखण्ड सत्य है ।
सौन्दर्य सम्बन्धी समस्या भी कुछ कम उलझी हुई नहीं है। बाह्यजगत् अनेक रूपात्मक है और उन रूपों का, सुन्दर तथा कुरूप में एक व्यावहारिक वर्गीकरण भी हो चुका है। क्या कला इस वर्गीकरण की परिधि में आनेवाले सौन्दर्य को ही सत्य का माध्यम बनाकर शेष को छोड़ दे ? केवल बाह्य रेखाओं और रंगों का सामंजस्य ही सौन्दर्य कहा जाए तो प्रत्येक भूखण्ड का मानव समाज ही नहीं, प्रत्येक व्यक्ति भी अपनी रुचि में दूसरे से भिन्न मिलेगा। किसके रुचि वैचित्र्य के अनुसार सामंजस्य की परिभाषा बनायी जाए, यह प्रश्न सत्य से भी अधिक जटिल हो उठेगा।
सत्य की प्राप्ति के लिए काव्य और कलाएँ जिस सौन्दर्य का सहारा लेते हैं, वह जीवन की पूर्णतम अभिव्यक्ति पर आश्रित है, केवल बाह्य रूपरेखा पर नहीं। प्रकृति का अनन्त वैभव, प्राणिजगत् की अनेकात्मक गतिशीलता, अन्तर्जगत् की रहस्यमयी विविधता, सब कुछ इनके सौन्दर्य कोश के अन्तर्गत है और इसमें से क्षुद्रतम वस्तु के लिए भी ऐसे मुहूर्त आ उपस्थित होते हैं, जिनमें वह पर्वत के समकक्ष खड़ी होकर ही सफल हो सकती है और गुरुतम वस्तु के लिए भी ऐसे लघु क्षण आ पहुँचते हैं, जिनमें वह छोटे तृण के साथ बैठकर ही कृतार्थ बन सकती है।
जीवन का जो स्पर्श विकास के लिए अपेक्षित है, उसे पाने के उपरान्त छोटा, बड़ा, लघु, गुरु, सुन्दर, विरूप, आकर्षक, भयानक, कुछ कलाजगत् से बहिष्कृत नहीं किया जाता। उजले कमलों की चादर जैसी चाँदनी में मुस्कराती हुई विभावरी अभिराम है, पर अँधेरे के स्तर पर स्तर ओढ़कर विराट् बनी हुई काली रजनी भी कम सुन्दर नहीं। फूलों के बोझ से झुक झुक पड़नेवाली लता कोमल है, पर शून्य नीलिमा की ओर विस्मित बालक-सा ताकनेवाला ठूंठ भी कम सुकुमार नहीं। अविरत जलदान से पृथ्वी को कँपा देनेवाला बादल ऊँचा है, पर एक बूँद आँसू के भार से नत और कम्पित तृण भी कम उन्नत नहीं। गुलाब के रंग और नवनीत की कोमलता में कंकाल छिपाये हुए रूपसी कमनीय है, पर झुर्रियों में जीवन का विज्ञान लिखे हुए वृद्ध भी कम आकर्षक नहीं। बाह्य जीवन की कठोरता, संघर्ष, जय, पराजय, सब मूल्यवान् हैं, पर अन्तर्जगत् की कल्पना, स्वप्न, भावना आदि भी कम अनमोल नहीं ।
उपयोग की कला और सौन्दर्य की कला को लेकर बहुत से विवाद सम्भव होते रहे, परन्तु यह भेद मूलतः एक-दूसरे से बहुत दूरी पर नहीं ठहरते ।
कला शब्द से किसी निर्मित पूर्ण खण्ड का ही बोध होता है और कोई भी निर्माण अपनी अन्तिम स्थिति में जितना सीमित है, आरम्भ में उतना ही फैला हुआ मिलेगा। उसके पीछे स्थूल जगत् का अस्तित्व, जीवन की स्थिति, किसी अभाव की अनुभूति, पूर्ति का आदर्श, उपकरणों की खोज, एकत्रीकरण की कुशलता आदि-आदि का जो इन्द्रजाल रहता है, उसके अभाव में निर्माण की स्थिति शून्य के अतिरिक्त कौन-सी संज्ञा पा सकेगी ! चिड़िया का कलरव कला न होकर कला का विषय हो सकेगा, पर मनुष्य के गीत को कला कहना होगा। एक में वह सहज प्रवृत्ति मात्र है, पर दूसरे ने सहज प्रवृत्ति के आधार पर अनेक स्वरों को विशेष सामंजस्यपूर्ण स्थिति में रखकर एक विशेष रागिनी की सृष्टि की है, जो अपनी सीमा में जीवनव्यापी सुख-दुःखों की अनुभूति को अक्षय रखती है। इस प्रकार प्रत्येक कला-कृति के लिए निर्माण सम्बन्धी विज्ञान की भी आवश्यकता होगी और उस विज्ञान की सीमित रेखाओं में व्यक्त होनेवाले जीवन के व्यापक सत्य की अनुभूति की भी। जब हमारा ध्यान किसी एक पर ही केन्द्रित हो जाता है, तब दोनों को जोड़नेवाली कड़ियाँ अस्पष्ट होने लगती हैं।
एक कृति को ललित कहकर चाहे हम जीवन के दृष्टि से ओझल शिखर पर प्रतिष्ठित कर आवें और दूसरी को उपयोगी का नाम देकर चाहे जीवन के धूलभरे प्रत्यक्ष चरणों पर रख दें, परन्तु उन दोनों ही की स्थिति जीवन से बाहर सम्भव नहीं। उनकी दूरी हमारे विकास-क्रम से बनी है, कुछ उनकी तात्त्विक भिन्नता से नहीं । नीचे की पहली सीढ़ी से चढ़कर जब हम ऊपर की अन्तिम सीढ़ी पर खड़े हो जाते हैं, तब उन दोनों की दूरी हमारे आरोह-क्रम की सापेक्ष है- स्वयं एक-एक तो न वे नीची हैं, न ऊँची ।
व्यावहारिक जगत् में हमने पहले खाद्य, आच्छादन, छाया आदि की समस्याओं को जिन मूलस्वरूपों में सुलझाया था, उन्हें यदि आज के व्यंजन, वस्त्राभूषण और भवन के ऐन्द्रजालिक विस्तार में रखकर देखें, तो वे कला के स्थूल और सूक्ष्म उपयोग से भी अधिक रहस्यमयी हो उठेंगे। जो बाह्य जगत् में सहज था, वह अन्तर्जगत् में भी स्वाभाविक हो गया, अतः उपयोग सम्बन्धी स्थूलता सूक्ष्म होते-होते एक रहस्यमय विस्तार में हमारी दृष्टि से ओझल हो गयी और तब हम उसका निकटवर्ती छोर पकड़कर दूसरे को अस्तित्वहीन कहकर खोजने की चिन्ता से मुक्त होने लगे ।
सत्य तो यह है कि जब तक हमारे सूक्ष्म अन्तर्जगत् का बाह्य जीवन में पग-पग पर उपयोग होता रहेगा, तब तक कला का, सूक्ष्म उपयोग सम्बन्धी विवाद भी विशेष महत्त्व नहीं रख सकता। हमारे जीवन में सूक्ष्म और स्थूल की जैसी समन्वयात्मक स्थिति है, वही कला को; केवल स्थूल या केवल सूक्ष्म में निर्वासित न होने देगी। जब हम एक व्यक्ति के कार्य को स्वीकार करेंगे, तब उसकी पटभूमिका बने हुए वायवी स्वप्न, सूक्ष्म आदर्श, रहस्यमयी भावना आदि का भी मूल्य आँकना आवश्यक हो जाएगा और कला यदि उस वातावरण का ऐसा परिचय देती है, जो कार्य से न दिया जा सकेगा तो जीवन को उसके लिए भीतर-बाहर के सभी द्वार खोलने पड़ेंगे।
उपयोग की ऐसी निम्नोन्नत भूमियाँ हो सकती हैं, जो अपनी बाह्य रूपों में एक-दूसरी से सर्वथा भिन्न जान पड़ें, परन्तु जीवन के व्यापक धरातल पर उनके मूल्य में विशेष अन्तर नहीं रहता ।
हमारी शिराओं में संचरित जीवन रस और दूर मिट्टी में उत्पन्न अन्न के उपयोग में प्रत्यक्षतः कितना अन्तर और अप्रत्यक्षतः कैसी एकता है, यह कहने की आवश्यकता नहीं। रोगी की व्याधि-विशेष में शल्यक्रिया के लिए शस्त्र - विशेष उपयोगी हो सकता है, परन्तु उसके सिरहाने किसी सहृदय द्वारा रखा हुआ अधखिला गुलाब का फूल भी कम उपयोगी नहीं। अपनी वेदना में छटपटाता हुआ वह, उस फूल की धीरे-धीरे खिलने और हौले-हौले झड़नेवाली पंखुड़ियों को देख-देखकर, कई बार विश्राम की साँस लेता है, किस प्रकार अपने अकेलेपन को भर देता है, कितने भावों की सम-विषम भूमियों के पार आता-जाता है और कैसे चिन्तन के क्षणों में अपने-आपको खोता है, पाता है, यह चाहे हमारे लिए प्रत्यक्ष न हो, परन्तु रोगी के जीवन में तो सत्य रहेगा ही। चतुर चिकित्सक, रोग का निदान, उपयुक्त औषधि और पथ्य आदि का उपयोग स्पष्ट है, परन्तु रोगी की स्वस्थ इच्छाशक्ति, वातावरण का अनिर्वचनीय सामंजस्य, सेवा करनेवाले का हृदयगत स्नेह, सद्भाव आदि उपयोग में अप्रत्यक्ष होने के कारण कम महत्त्वपूर्ण हैं, यह कहना अपनी भ्रान्ति का परिचय देना होगा।
जब केवल शारीरिक स्थिति से सम्बन्ध रखनेवाला उपयोग भी इतना जटिल है, तब महत्त्वपूर्ण जीवन को अपनी परिधि में घेरनेवाले उपयोग का प्रश्न कितना रहस्यमय हो सकता है, यह स्पष्ट है।
जिस प्रकार एक वस्तु के स्थूल से लेकर सूक्ष्म तक असंख्य उपयोग हैं, उसी प्रकार एक जीवन को सूक्ष्मतम से लेकर स्थूलतम तक अनन्त परिस्थितियों के बीच से आगे बढ़ना होता है। इसके अतिरिक्त मनुष्य के अभाव और उनकी पूर्तियों में इतनी संख्यातीत विविधता है, उसके कार्य-कारण के सम्बन्ध में इतनी मापहीन व्यापकता है कि उपयोग - विशेष की एक रेखा से समस्त जीवन को घेर लेने का प्रयास असफल ही रहेगा। मनुष्य का जीवन इतना एकांगी नहीं कि उसे हम केवल अर्थ, केवल काम या ऐसी ही किसी एक कसौटी पर रखकर सम्पूर्ण रूप से खरा या खोटा कह सकें। कपटी-से-कपटी लुटेरा भी अपने साथियों के साथ जितना सच्चा है, उसे देखकर महान् सत्यवादी भी लज्जित हो सकता है। कठोर से कठोर अत्याचारी भी अपनी सन्तान के प्रति इतना कोमल है कि कोई भावुक भी उसकी तुलना में न ठहरेगा। उद्धत से उद्धत बर्बर भी अपने माता-पिता के सामने इतना विनत मिलता है कि उसे नम्र शिष्य की संज्ञा देने की इच्छा होती है। सारांश यह कि जीवन के एक छोर से दूसरे छोर तक जो एक स्थिति में रह सके, ऐसा जीवित मनुष्य सम्भव ही नहीं, अतः एकान्त उपयोग की कल्पना ही सहज है।
जिस चढ़े हुए धनुष की प्रत्यंचा कभी नहीं उतरती, वह लक्ष्यवेध के काम का नहीं रहता। जो नेत्र एक भाव में स्थिर हैं, जो ओठ एक मुद्रा में जड़ हैं, जो अंग एक स्थिति में अचल हैं, वे चित्र या मूर्ति में ही अंकित रह सकते हैं। जीवन की गतिशीलता में विश्वास कर लेने पर मनुष्य की असंख्य परिस्थितियों और विविध आवश्यकताओं में विश्वास करना अनिवार्य हो उठता है और अभाव की विविधता से उपयोग की बहुरूपता एक अविच्छिन्न सम्बन्ध में बँधी है। यह सत्य है कि जीवन में किसी आवश्यकता का अनुभव नित्य होता रहता है और किसी का यदाकदा; परन्तु निरन्तर अनुभूत अभावों की पूर्ति ही पूर्ति है और जिनका अनुभव ऐसा नियमित नहीं, वे अभाव ही नहीं, ऐसी धारणा भ्रान्तिपूर्ण है ।
कभी-कभी एकरस अनेक वर्षों की तुलना में सहानुभूति, स्नेह, सुख-दुःख के कुछ क्षण कितने मूल्यवान् ठहरते हैं, इसे कौन नहीं जानता! अनेक बार व्यक्ति के जीवन में एक छन्द, एक चित्र या एक घटना ने अभूतपूर्व परिवर्तन सम्भव कर दिया है। कारण स्पष्ट है। जब कवि, चित्रकार या संयोग के मार्मिक सत्य ने, उस व्यक्ति को, एक क्षणिक कोमल मानसिक स्थिति में छू पाया, तब वे क्षण अनन्त कोमलता और करुणा के सौन्दर्य-द्वार खोलने में समर्थ हो सके। ऐसे कुछ क्षण युगों से अधिक मूल्यवान्, अतः उपयोगी मान लिये जाएँ तो आश्चर्य की बात नहीं ।
वास्तव में जीवन की गहराई की अनुभूति के कुछ क्षण होते हैं, वर्ष नहीं । परन्तु वे क्षण निरन्तरता से रहित होने के कारण कम उपयोगी नहीं कहे जा सकते । जो क्रूर मनुष्य सौ-सौ शास्त्रों के नित्य मनन से कोमल नहीं बन पाता, वह य एक छोटे-से निर्दोष बालक के सरल और आकस्मिक प्रश्न मात्र से द्रवित हो उठता है, तो वह क्षणिक प्रश्न शास्त्रमनन की निरन्तरता से अधिक उपयोगी क्यों न माना जावे! एक बाण-विद्ध क्रौंच से प्रभावित ऋषि 'मा निषाद प्रतिष्ठां त्वं' - कहकर यदि प्रथम श्लोक और आदिकाव्य की रचना में समर्थ हो सका, तो उस क्षुद्र पक्षी की व्यथा को मनीषी की ज्ञानगरिमा से अधिक मूल्य क्यों न दिया जावे! यदि एक वैज्ञानिक, फल के गिरने से पृथ्वी की आकर्षण शक्ति का पता लगा सका तो उस तुच्छ फल का टूटना, पर्वतों के टूटने से अधिक महत्त्वपूर्ण क्यों न समझा जावे !
यदि नित्य और नियमित स्थूल ही उपयोग की कसौटी रहे, तो शरीर की कुछ आवश्यकताओं के अतिरिक्त और कुछ भी महत्त्व की परिधि में नहीं आता। परन्तु हमारे इस निष्कर्ष को जीवन तो स्वीकार करे! बुद्धि ने अपनी सीमा में स्थूलतम से सूक्ष्मतम तक सब कुछ ज्ञेय माना है और हृदय ने अपनी परिधि में उसे संवेदनीय । जीवन ने इन दोनों को समान रूप से स्वीकृति देकर इस दोहरे उपयोग को असंख्य विभिन्न और ऊँचे-नीचे स्तरों में विभाजित कर डाला है। जब इनमें से एक को लक्ष्य बनाकर हम जीवन का विकास चाहते हैं, तब हमारा प्रयास अपनी दिशा में गतिशील होकर भी सम्पूर्ण जीवन को सामंजस्यपूर्ण गति नहीं देता ।
जीवन की अनिश्चित से अनिश्चित स्थिति भी उपयोग के प्रश्न को एकांगी नहीं बना पाती। युद्ध के लिए प्रस्तुत सैनिक की स्थिति से अधिक अनिश्चित स्थिति और किसी की सम्भव नहीं, परन्तु उस स्थिति में भी जीवन भोजन, आच्छादन और अस्त्र-शस्त्र के उपयोग में ही सीमित नहीं हो जाता। मस्तिष्क और हृदय को क्षण भर विश्राम देनेवाले सुख के साधन, प्रियजनों के स्नेह-भरे सन्देश, रक्षणीय वस्तुओं के सम्बन्ध में ऊँचे-ऊँचे आदर्श, जय के सुनहले - रुपहले स्वप्न, अडिग साहस और विश्वास की भावना, अन्तश्चेतना का अनुशासन आदि मिलकर ही तो वीर को वीरता से मरने और सम्मान से जीने की शक्ति दे सकते हैं। पौष्टिक भोजन, झिलमिलाते कवच और चकाचौंध उत्पन्न करनेवाले अस्त्र-शस्त्र मात्र वीर हृदय का निर्माण नहीं करते; उसके निर्मायक उपकरण तो अन्तर्जगत् में छिपे रहते हैं। यदि हम अन्तर्जगत् के वैभव को अनुपयोगी सिद्ध करना चाहें तो कवच में यन्त्रचालित काठ के पुतले भी खड़े किये जा सकते हैं, क्योंकि जीवित मनुष्य की तुलना में उनकी आवश्यकताएँ नहीं के बराबर और उपयोग सहस्रगुण अधिक रहेंगे।
उपयोग की ऐसी ही भ्रान्ति पर तो हमारा यन्त्र-युग खड़ा है। परन्तु संसार ने हँसने-रोने, थकने-मरनेवाले मनुष्य को खोकर जो वीतराग, अथक और अमरदेवता पाया है, उसने जीवन को आत्महत्या का वरदान देने के अतिरिक्त और क्या किया? समाज और राष्ट्र में मनुष्य की स्थिति न केवल तात्कालिक है और न अनिश्चित; अतः उसके जीवन से सम्बन्ध रखनेवाले उपयोग को, अधिक व्यापक धरातल पर स्थायित्व की रेखाओं में देखना होगा।
उपयोगिता के प्रश्न के साथ एक कठिनाई और है। जैसे-जैसे उपयोग की भूमि ऊँची होती जाती है, वैसे-वैसे वह प्रत्यक्षता में न्यून और व्यापकता में अधिक होती चलती है। सबसे नीची भूमि जिस अंश तक सापेक्ष है, सबसे ऊँची इसी अंश तक निरपेक्ष। उपयोगिता की दृष्टि से खाद्य, भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के स्वास्थ्य, रुचि आदि की अपेक्षा रखता है; परन्तु उससे बना रस, रोगी, स्वस्थ आदि सभी प्रकार के व्यक्तियों के लिए समान रूप से उपयोगी रहेगा। इसी से उपयोग की प्रत्यक्ष और निम्न भूमि पर जैसी विभिन्नता मिलती है, वैसी उन्नत पर अप्रत्यक्ष भूमि पर सहज नहीं ।
'दूसरे के दुःख से सहानुभूति रखो यह सिद्धान्त जब व्यावहारिक जीवन में केवल विधिनिषेध के रूप में आता है, तब भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में इसके प्रयोग के रूप विभिन्न रहते हैं और प्रयोग से छुटकारा देनेवाले तर्क विविध । परन्तु जब यही इतिवृत्त, हमारी भावभूमि पर, हृदय की प्रेरणा बनकर उपस्थित होता है, तब न प्रयोगों में इतनी विभिन्नता दिखाई देती है और न तर्क की आवश्यकता रहती है। किसी का दुःख जब हमारे हृदय को स्पर्श कर चुका, तब हम उसके और अपने सम्बन्ध को, साधारण लौकिक आदान-प्रदान की तुला पर तोलने में असमर्थ ही रहेंगे।
यदि हम किसी के दुःख को बँटा लेंगे तो दूसरा भी हमारे दुःख में सहभागी होगा, यह सामाजिक नियम न हमें स्मरण रहता है और न हम स्मरण करना चाहेंगे। इसी से महानतम त्यागों के पीछे विधिनिषेधात्मक नैतिकता के संस्कार चाहे रहें, परन्तु स्वयं विधिनिषेध की सतर्क चेतना सम्भव नहीं रहती। सत्य बोलना उचित है, इस सिद्धान्त को गणित के नियम के समान रट-रटकर जो सत्य बोलने की शक्ति पाता है, वह सच्चा सत्यवादी नहीं । सत्यवादी तो उसे कहेंगे, जिसमें सत्य बोलना, विधिनिषेध की सीमा पार कर स्वभाव ही बन चुका है। उपयोग की इस सूक्ष्म, पर व्यापक भूमि पर सत्य में जैसी एकता है, स्थूल और संकीर्ण धरातल पर वैसी ही अनेकता। इसी कारण संसार-भर के दार्शनिक, धर्म-संस्थापक, कवि आदि के सत्य में, देशकाल और व्यक्ति की दृष्टि से विभिन्नता होने पर भी मूलगत एकता मिलती है।
सत्य तो यह है कि उपयोग का प्रश्न जीवन के समान ही निम्न- उन्नत, सम-विषम, प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष भूमियों में समान रूप से व्याप्त है और रहेगा।
जहाँ तक काव्य तथा अन्य ललित कलाओं का सम्बन्ध है, वे उपयोग की उस उन्नत भूमि पर स्थायी हो पाती हैं, जहाँ उपयोग सामान्य रह सके। करुण रागिनी, उपयोग की जिस भूमि पर है, वहाँ यह प्रत्येक श्रोता के हृदय में एक करुण भाव जाग्रत् करके ही सफल हो सकेगी, हर्ष और उल्लास का नहीं । व्यक्ति के संस्कार, परिस्थिति, मानसिक स्थिति आदि के अनुसार उसकी मात्राओं में न्यूनाधिक्य हो सकता है; परन्तु उसके उपयोग में इतनी विभिन्नता सम्भव नहीं कि एक में हर्ष का संचार हो और दूसरे में विषाद का उद्रेक ।
जीवन को गति देने के दो ही प्रकार हैं- एक तो बाह्य अनुशासनों का सहारा देकर उसे चलाना और दूसरे, अन्तर्जगत् में ऐसी स्फूर्ति उत्पन्न कर देना, जिससे सामंजस्यपूर्ण गतिशीलता अनिवार्य हो उठे । अन्तर्जगत् में प्रेरणा बननेवाले साधनों की स्थिति, उस बीज के समान है, जिसे मिट्टी को रंग-रूप-रस आदि में व्यक्त होने की सुविधा देने के लिए, स्वयं उनके अन्धकार में समाकर दृष्टि से ओझल हो जाना पड़ता है।
विधिनिषेध की दृष्टि से महान् कलाकार के पास उतना भी अधिकार नहीं, जितना चौराहे पर खड़े सिपाही को प्राप्त है। वह न किसी को आदेश दे सकता है और न उपदेश, और यदि देने की नासमझी करता भी है तो दूसरे उसे न मानकर समझदारी का परिचय देते हैं। वास्तव में कलाकार तो जीवन का ऐसा संगी है, जो अपनी आत्म-कहानी में, हृदय की कथा कहता है और स्वयं चलकर पग-पग के लिए पथ प्रशस्त करता है। वह बौद्धिक परिणाम नहीं, किन्तु अपनी अनुभूति दूसरे तक पहुँचाता है और वह भी एक विशेषता के साथ। काँटा चुभाकर काँटे का ज्ञान तो संसार दे ही देगा, परन्तु कलाकार बिना काँटा चुभने की पीड़ा दिये हुए ही उसकी कसक की तीव्र- मधुर अनुभूति, दूसरे तक पहुँचाने में समर्थ है। अपने अनुभवों की गहराई में, वह जिस जीवन-सत्य से साक्षात् करता है, उसे दूसरे के लिए संवेदनीय बनाकर कहता चलता है, 'यह सौन्दर्य तुम्हारा ही तो है, पर मैं आज देख पाया।' जीवन को स्पर्श करने का उसका ढंग ऐसा है कि हम उसके सुख-दुःख, हर्ष-विषाद, हार-जीत सब कुछ प्रसन्नतापूर्वक ही स्वीकार करते हैं-दूसरे शब्दों में हम बिना खोजने का कष्ट उठाये हुए ही कलाकार के सत्य में अपने-आपको पाते हैं। दूसरे के बौद्धिक निष्कर्ष तो हमें अपने भीतर उनका प्रतिबिम्ब खोजने पर बाध्य करते हैं, किन्तु अनुभूति हमारे हृदय से तादात्म्य करके प्राप्ति का सुख देती है।
उपदेशों के विपरीत अर्थ लगाये जा सकते हैं, नीति के अनुवाद भ्रान्त हो सकते हैं, परन्तु सच्चे कलाकार की सौन्दर्य-सृष्टि का अपरिचित रह जाना सम्भव है, बदल जाना सम्भव नहीं। मनु की जीवन-स्मृतियों में अनर्थ की सम्भावना है, पर वाल्मीकि का जीवन-दर्शन श्लेषहीन ही रहेगा। इसी से कलाकारों के मठ नहीं निर्मित हुए, महन्त नहीं प्रतिष्ठित हुए, साम्राज्य नहीं स्थापित हुए और सम्राट् नहीं अभिषिक्त हुए। कवि या कलाकार अपनी सामान्यता में ही सबका ऐसा अपना बन गया कि समय-समय पर, धर्म नीति आदि को, जीवन के निकट पहुँचने के लिए उससे परिचय-पत्र माँगना पड़ा।
कवि में दार्शनिक को खोजना बहुत साधारण हो गया है। जहाँ तक सत्य के मूल रूप का सम्बन्ध है, वे दोनों एक-दूसरे के अधिक निकट हैं अवश्य, पर साधन और प्रयोगों की दृष्टि से उनका एक होना सहज नहीं । दार्शनिक बुद्धि के निम्न स्तर से अपनी खोज आरम्भ करके उसे सूक्ष्म बिन्दु तक पहुँचाकर सन्तुष्ट हो जाता है—उसकी सफलता यही है कि सूक्ष्म सत्य के उस रूप तक पहुँचने के लिए वही बौद्धिक दिशा सम्भव रहे । अन्तर्जगत् का सारा वैभव परखकर सत्य का मूल्य आँकने का उसे अवकाश नहीं, भाव की गहराई में डूबकर जीवन की थाह लेने का उसे अधिकार नहीं। वह तो चिन्तन-जगत् का अधिकारी है। बुद्धि, अन्तर का बोध कराकर एकता का निर्देश करती है और हृदय एकता की अनुभूति देकर अन्तर की ओर संकेत करता है। परिणामतः चिन्तन की विभिन्न रेखाओं का समानान्तर रहना अनिवार्य हो जाता है। सांख्य जिस रेखा पर बढ़कर लक्ष्य की प्राप्ति करता है, वह वेदान्त को अंगीकृत न होगी और वेदान्त जिस क्रम से चलकर सत्य तक पहुँचता है, उसे योग स्वीकार न कर सकेगा।
काव्य में बुद्धि हृदय से अनुशासित रहकर ही सक्रियता पाती है, इसी से उसका दर्शन न बौद्धिक तर्क-प्रणाली है और न सूक्ष्म बिन्दु तक पहुँचानेवाली विशेष विचार-पद्धति। वह तो जीवन को, चेतना और अनुभूति के समस्त वैभव के साथ, स्वीकार करता है। अतः कवि का दर्शन, जीवन के प्रति उसकी आस्था का दूसरा नाम है। दर्शन में, चेतना के प्रति नास्तिक की स्थिति भी सम्भव है, परन्तु काव्य में अनुभूति के प्रति अविश्वासी कवि की स्थिति असम्भव ही रहेगी। जीवन के अस्तित्व को शून्य प्रमाणित करके भी दार्शनिक बुद्धि के सूक्ष्म बिन्दु पर विश्राम कर सकता है; परन्तु यह अस्वीकृति कवि के अस्तित्व को डाल से टूटे पत्ते की स्थिति दे देती है।
दोनों का मूल अन्तर न जानकर ही हम किसी भी कलाकार में बुद्धि की एक रूप, एक दिशावाली रेखा ढूँढ़ने का प्रयास करते हैं और असफल होने पर खीझ उठते हैं। इसका यह अर्थ नहीं कि दर्शन और कवि की स्थिति में विरोध है। कोई भी कलाकार दर्शन ही क्या, धर्म, नीति आदि का विशेषज्ञ होने के कारण ही कलासृजन के उपयुक्त या अनुपयुक्त नहीं ठहरता। यह समस्या तो तब उत्पन्न होती है जब वह अपनी कला को ज्ञान-विशेष का एकांगी, शुष्क और बौद्धिक अनुवाद मात्र बनाने लगता है।
कवि का वेदान्त ज्ञान जब अनुभूतियों से रूप, कल्पना से रंग और भावजगत् से सौन्दर्य पाकर साकार होता है, तब उसके सत्य में जीवन का स्पन्दन रहेगा, बुद्धि की तर्क-शृंखला नहीं। ऐसी स्थिति में उसका पूर्ण परिचय न अद्वैत दे सकेगा और न विशिष्टाद्वैत । यदि कवि ने इतनी सजीव साकारता के बिना ही अपने ज्ञान को कला के सिंहासन पर अभिषिक्त कर दिया, तो वह विकलांग मूर्ति के समान न निरा देवता रहता है और न कोरा पाषाण कला जीवन की विविधता समेटती हुई आगे बढ़ती है, अतः सम्पूर्ण जीवन को गला- पिघलाकर तर्कसूत्र में परिणत कर लेना, उसका लक्ष्य नहीं हो सकता।
व्यष्टि और समष्टि में समान रूप से व्याप्त जीवन के हर्ष-शोक, आशा-निराशा, सुख-दुःख आदि की संख्यातीत विविधता को स्वीकृति देने के लिए ही कला-सृजन होता है। अतः कलाकार के जीवन-दर्शन में हम उसका जीवनव्यापी दृष्टिकोण मात्र पा सकते हैं। जो सम-विषम परिस्थितियों की भीड़ में नहीं मिल पाता, सरल - कठिन संघर्षों के मेले में नहीं खो जाता और मधुर कटु सुख - दुःखों की छाया में नहीं छिप जाता, वही व्यापक दृष्टिकोण कवि का दर्शन कहा जाएगा। परन्तु ज्ञान क्षेत्र और काव्यजगत् के दर्शन में उतना ही अन्तर रहेगा, जितना दिशा की शून्य सीधी रेखा और अनन्त रंग-रूपों से बसे हुए आकाश में मिलता है ।
काव्य की परिधि में बाह्य और अन्तर्जगत् दोनों आ जाने के कारण, अभिव्यक्ति के स्वरूप मतभेदों को जन्म देते रहे हैं। केवल बाह्य जगत् की यथार्थता काव्य का लक्ष्य रहे अथवा उस यथार्थ के साथ सम्भाव्य यथार्थ अर्थात् आदर्श भी व्यक्त हो, यह प्रश्न भी उपेक्षणीय नहीं । यथार्थ और आदर्श दोनों को यदि चरम सीमा पर रखकर देखा जाए, तो एक प्रत्यक्ष इतिवृत्त में बिखर जाएगा और दूसरा असम्भव कल्पनाओं में बँध जाएगा। ऐसे यथार्थ और आदर्श की स्थिति जीवन में ही कठिन हो जाती है, फिर उसकी काव्य-स्थिति के सम्बन्ध में क्या कहा जावे!
काव्य में गोचर जगत् तो सहज स्वीकृति पा लेता है, पर स्थूल जगत् में व्याप्त चेतन और प्रत्यक्ष सौन्दर्य में अन्तर्हित सामंजस्य की स्थिति बहुत सहज नहीं ।
हमारे प्राचीन काव्य ने बौद्धिक तर्कवाद से दूर उस आत्मानुभूत ज्ञान को स्वीकृति दी है, जो इन्द्रियजन्य ज्ञान - सा अनायास पर उससे अधिक निश्चित और पूर्ण माना गया है। इस ज्ञान के आधार सत्य की तुलना, उस आकाश से की जा सकती है, जो ग्रहण शक्ति की अनुपस्थिति में अपना शब्दगुण नहीं व्यक्त करता । इसी कारण ऐसे ज्ञान की उपलब्धि आत्मा के उस संस्कार पर निर्भर है, जो सामान्य सत्य को विशिष्ट सीमा में ग्रहण करने की शक्ति भी देता है और उस सीमित ज्ञानानुभूति को जीवन की व्यापक पीठिका देनेवाला सौन्दर्यबोध भी सहज कर देता है ।
जैसे रूप, रस, गन्ध आदि की स्थिति होने पर भी, करण (इन्द्रिय) के अभाव या अपूर्णता में, कभी उनका ग्रहण सम्भव नहीं होता और कभी वे अधूरे ग्रहण किये जाते हैं, वैसे ही आत्मानुभूतज्ञान, आत्मा के संसार की मात्रा और उससे उत्पन्न ग्रहणशक्ति की सीमा पर निर्भर रहेगा। कवि को द्रष्टा या मनीषी कहनेवाले युग के सामने यही निश्चित तर्कक्रम से स्वतन्त्र ज्ञान रहा।
यह ज्ञान व्यक्तिसामान्य नहीं, यह कहकर हम उसकी उपेक्षा नहीं कर सकते, क्योंकि हमारा प्रत्यक्ष जगत्-सम्बन्धी ज्ञान भी इतना सामान्य नहीं विज्ञान का भौतिक ज्ञान ही नहीं, नित्य का व्यवहार ज्ञान भी व्यक्ति की सापेक्षता नहीं छोड़ता । व्यक्तिगत रुचि, संस्कार, पूर्वार्जित ज्ञान, ज्ञान-करणों की पूर्णता, अपूर्णता, अभाव आदि मिलकर स्थूल जगत् के ज्ञान को इतनी विविधता देते रहते हैं कि हम व्यक्ति के महत्त्व से ज्ञान का महत्त्व निश्चित करने पर बाध्य हो जाते हैं। जो ऊँचा सुनता या जो स्टेथेस्कोप की सहायता से फेफड़ों का अस्फुट शब्द मात्र सुनता है, वे दोनों हमारे स्वर - सामंजस्य के सम्बन्ध में कोई निष्कर्ष नहीं दे सकते। पर जो आहट की ध्वनि से लेकर मेघ के गर्जन तक सब स्वर सुनने की क्षमता भी रखता है और विभिन्न स्वरों में सामंजस्य लाने की साधना भी कर चुका है, वही इस दिशा में हमारा प्रमाण है।
समाज, नीति आदि से सम्बन्ध रखनेवाले इन्द्रियानुभूत ज्ञान ही नहीं, सूक्ष्म बौद्धिक ज्ञान के सम्बन्ध में भी अपने से अधिक पूर्ण व्यक्तियों को प्रमाण मानकर मनुष्य विकास करता आया है! अतः अध्यात्म के सम्बन्ध में ही ऐसा तर्कवाद क्यों महत्त्व रखेगा ! फिर यह आत्मानुभूत ज्ञान इतना विच्छिन्न भी नहीं, जितना समझा जाता है। साधारणतः तो प्रत्येक व्यक्ति किसी-न-किसी अंश तक इसका उपयोग करता रहता है। प्रत्यक्ष ज्ञान के साथ इस ज्ञान का वैसा ही अज्ञात सम्बन्ध और अव्यक्त स्पर्श है, जैसा प्रकृति की प्रत्यक्ष और प्रशान्त निःस्तब्धता के साथ आँधी के अव्यक्त पूर्वाभास का हो सकता है, जो स्थितिहीनता में भी स्थिति रखता है। इसके अव्यक्त स्पर्श का अनुभव कर अनेक बार मनुष्य प्रत्यक्ष प्रमाण, बौद्धिक निष्कर्ष और अनुकूल परिस्थितियों की सीमाएँ पार कर लेने के लिए विवश हो उठता है।
कठोर विज्ञानवादी के पास भी ऐसा बहुत कुछ बच जाता है, जो कार्यकारण से नहीं बाँधा जा सकता, स्थूलता के एकान्त उपासक के पास भी बहुत कुछ शेष रह जाता है, जो उपभोग की कसौटी पर नहीं परखा जा सकता। और यदि केवल संख्या ही महत्त्व रखती हो, तो संसार के सब कोनों में ऐसे व्यक्तियों की स्थिति सम्भव हो सकती है, जो आत्मानुभूत ज्ञान का अस्तित्व सिद्ध करती रहे ।
अगोचर जगत् से सम्बन्ध रखनेवाली रहस्यानुभूति की स्थिति भी ऐसी ही है । जहाँ तक अनुभूति का प्रश्न है, वह तो स्थूल और गोचर जगत् में भी सामान्य नहीं । प्रत्येक व्यक्ति की दृष्टि फूल को ग्रहण कर ले, यह स्वाभाविक है, परन्तु सबके अन्तर्जगत् में अनुभूति एक-सी स्थिति नहीं पा सकती । अपने संस्कार, रुचि के अनुसार, कोई फूल से तादात्म्य प्राप्त करके भावतन्मय हो सकेगा, कोई उदासीन दर्शक मात्र रह जाएगा। स्थूल जगत् के सम्पर्क का रूप भी अनुभूति की मात्रा निश्चित कर सकता है। जिसने अंगारे उठा-उठाकर हाथ को कठोर कर लिया है, उसकी उँगलियाँ अंगारे पर पड़कर भी जलने की तीव्र अनुभूति नहीं उत्पन्न करेंगी; पर जिसका हाथ अचानक अंगारे पर पड़ गया है, उसे छाले का तीव्र मर्मानुभव करना पड़ेगा। जिसने काँटों पर लेटने का अभ्यास कर लिया है, उसके शरीर में अनेक काँटों का स्पर्श तीव्र व्यथा नहीं उत्पन्न करता पर जो चलते-चलते अचानक काँटे पर पैर रख देता है, उसके लिए एक काँटा ही तीव्र दुःखानुभूति का कारण बन जाता है।
परन्तु इन सब खण्डशः अनुभूतियों के पीछे हमारे अन्तर्जगत् में एक ऐसा व्यापक, अखण्ड और संवेदनात्मक धरातल भी है, जिस पर सारी विविधताएँ ठहर सकती हैं। काव्य इसी को स्पर्श कर संवेदनीयता प्राप्त करता है। इसी कारण जिन सुख-दुःखों की प्रत्यक्ष स्थिति भी हमें तीव्र अनुभूति नहीं देती, उन्हीं की काव्यस्थिति से साक्षात् कर हम अस्थिर हो उठते हैं।
व्यापक अर्थ में तो यह कहा जा सकता है कि प्रत्येक सौन्दर्य या प्रत्येक सामंजस्य की अनुभूति भी रहस्यानुभूति है । यदि एक सौन्दर्य अंश या सामंजस्य खण्ड हमारे सामने किसी व्यापक सौन्दर्य या अखण्ड सामंजस्य का द्वार नहीं खोल देता, तो हमारे अन्तर्जगत् का उल्लास से आन्दोलित हो उठना सम्भव नहीं । इतना ही नहीं, किसी कर्म के सौन्दर्य और सामंजस्य की अनुभूति भी रहस्यात्मक हो सकती है, इसी से मनुष्य ऐसे कर्मों को आलोक-स्तम्भ बना-बनाकर जीवन पथ में स्थापित करता रहा है।
सौन्दर्य अपने समर्थन के लिए जिस सामंजस्य की ओर इंगित करता है, विरूपता भी अपने विरोध के लिए उसी की ओर संकेत करती है; पर दोनों के संकेत में अन्तर है। प्रत्येक सौन्दर्य-खण्ड अखण्ड सौन्दर्य से जुड़ा है और इस तरह हमारे हृदयगत सौन्दर्य-बोध से भी जुड़ा है; पर विरूप, व्यापक सामंजस्य का विरोधी होने के कारण, हमारे भीतर कोई स्वभावगत स्थिति नहीं रखता। सौन्दर्य से हमारा वह परिचय है, जो अनन्त जलराशि में एक लहर का दूसरी लहर से होता है; पर विरूपता से हमारा वैसा ही मिलन है, जैसा पानी में फेंके हुए पत्थर और उससे उठी लहर में सहज है। सौन्दर्य चिरपरिचय में भी नवीन है, पर विरूपता अति परिचय में नितान्त साधारण बन जाती है; इसी से सौन्दर्य की रहस्यानुभूति ही, अन्तहीन काव्यकथा में नये परिच्छेद जोड़ती रही है।
आधुनिक युग में कलाकार की सीमाएँ जानने के लिए जीवन-व्यापी वातावरण की विषमताओं से परिचित होना अपेक्षित रहेगा।
हमारी सामाजिक परिस्थिति में अभी तक प्रतिक्रियात्मक ध्वंस युग ही चल रहा है। उसके सम्बन्ध में ऐसा कोई स्वस्थ और पूर्ण चित्र अंकित नहीं किया जा सका, जिसे दृष्टि का केन्द्र बनाकर निर्माण का क्रम आरम्भ किया जा सकता। इस दिशा में हम अपने व्यक्तिगत स्वार्थ और सुविधा के अनुसार ही तोड़ने-फोड़ने का कार्य करते चलते हैं; अतः कहीं चट्टान पर सुनार की हथौड़ी का हल्का स्पर्श होता है और कहीं राख के ढेर पर लोहार की गहरी चोट । क्या संस्कृति, क्या आदर्श, सबमें हमारी शक्तियों का विक्षिप्त जैसा प्रयोग है, इसी से जो टूट जाता है, वह हमारी ही आँखों की किरकिरी बनने के लिए वायुमण्डल में मँडराने लगता है और जो हमारे प्रहार से नहीं बिखरता, वह विषम तथा विरूप बनकर हमारे ही पैरों को आहत और गति को कुण्ठित करता रहता है। निर्माण की दिशा में किसी सामूहिक लक्ष्य के अभाव में व्यक्तिगत प्रयास, अराजकता के आकस्मिक उदाहरणों से अधिक महत्त्व नहीं पाते।
किसी भी उत्थानशील समाज और उसके प्रबुद्ध कलाकारों में जो सक्रिय सहयोग और परस्परपूरक आदान-प्रदान स्वाभाविक है, वह हमारे समाज के लिए कल्पनातीत बन गया। समाज की एक बिन्दु पर अचलता और कलाकार की लक्ष्यहीन गति-विह्वलता ने उसे एक प्रकार से असामाजिक प्राणी की स्थिति में डाल दिया है।
प्रत्येक सच्चे कलाकार की अनुभूति, प्रत्यक्ष सत्य ही नहीं, अप्रत्यक्ष सत्य का भी स्पर्श करती है; उसका स्वप्न वर्तमान ही नहीं, अनागत को भी रूपरेखा में बाँधता है और उसकी भावना यथार्थ ही नहीं, सम्भाव्य यथार्थ को भी मूर्तिमत्ता देती है । परन्तु इन सबकी व्यक्तिगत और अनेक रूप अभिव्यक्तियाँ दूसरों तक पहुँचकर ही तो जीवन की समष्टिगत एकता का परिचय देने में समर्थ हैं।
कलाकार के निर्माण में जीवन के निर्माण का लक्ष्य छिपा रहता है, जिसकी स्वीकृति के लिए जीवन की विविधता आवश्यक होगी। जब समाज उसके किसी भी स्वप्न का मूल्य नहीं आँकता, किसी भी आदर्श को जीवन की कसौटी पर परखना स्वीकार नहीं करता, तब साधारण कलाकार तो सब कुछ धूल में फेंककर रूठे बालक के समान क्षोभ प्रकट कर देता है और महान् समाज की उपस्थिति ही भुलाने लगता है। हमारे कला क्षेत्र में जो एक उच्छृंखल गति है, उसके मूल में निर्माण की सन्तुलित सक्रियता से अधिक, विवश क्षोभ की अस्थिरता ही मिलेगी।
एक ओर समाज पक्षाघात से पीड़ित है और दूसरी ओर धर्म विक्षिप्त । एक चल ही नहीं सकता, दूसरा वृत्त के भीतर वृत्त बनाता हुआ एक पैर से दौड़ लगा रहा है। गर्म और ठण्डे जल से भरे पात्रों की निकटता जैसे उनका तापमान एक-सा कर देती है, उसी प्रकार हमारे धर्म और समाज की सापेक्ष स्थिति उन्हें एक-सी निर्जीवता देती रहती है। आज तो बाह्य और आन्तरिक विकृति ने धर्म को ऐसी परिस्थिति में पहुँचा दिया है, जहाँ रूढ़िग्रस्त रहने का नाम निष्ठा और रीतिकालीन प्रवृत्तियों की चंचल क्रीड़ा ही गतिशीलता है। इतना ही नहीं, इस स्वर्ग के खँडहर का द्वारपाल अर्थ बन गया है। कलाकार यदि धर्म के क्षेत्र में प्रवेश चाहे तो उसे हाथी पर गंगायमुनी काम की अम्बारी में जाना होगा, जो उसकी निर्धनता में सम्भव नहीं।
हमारी संस्कृति ने धर्म और कला का ऐसा ग्रन्थिबन्धन किया था, जो जीवन से अधिक मृत्यु में दृढ़ होता गया। क्या काव्य, क्या मूर्ति, क्या चित्र सबकी यथार्थ रेखाओं और स्थूल रूपों में अध्यात्म ने सूक्ष्म आदर्श की प्रतिष्ठा की। परन्तु जब ध्वंस के असंख्य स्तरों के नीचे दबकर वह अध्यात्म-स्पन्दन रुक गया, तब धर्म के निर्जीव कंकाल में हमें मृत्यु का ठण्डा स्पर्श मिलने लगा ।
शरीर को चलानेवाली चेतना का अशरीरी गमन तो प्रत्यक्ष नहीं होता, परन्तु उसके अभाव में अचल शरीर का गल-गलकर नष्ट होना प्रत्यक्ष भी रहेगा और वातावरण को दूषित भी करेगा। समन्वयात्मक अध्यात्म कब खो गया, यह तो हम न जान सके, परन्तु व्यावहारिक धर्म की विविध विकृतियाँ हमारे जीवन के साथ रहीं। ऐसी स्थिति में काव्य तथा कलाओं की स्वस्थ गतिशीलता असम्भव हो उठी। निर्माण-युग में जो कलासृष्टि अमृत की संजीवनी देकर ही सफल हो सकती थी, वही पतन युग में मदिरा की उत्तेजना मात्र बनकर विकासशील मानी गयी। मदिरा का उपयोग तो स्वयं को भुलाने के लिए है, स्मरण करने के लिए नहीं, और जीवन का सृजनात्मक विकास अपनेपन की चेतना में ही सम्भव है। परिणामतः कलाएँ और काव्य जैसे-जैसे हममें विक्षिप्त की चेष्टाएँ भरने लगे, वैसे-वैसे हम विकास पथ पर लक्ष्यभ्रष्ट होते गये।
जागरण के प्रथम चरण में हमारी राष्ट्रीयता ने अपनी व्यापकता के लिए जिस अध्यात्म का आह्वान किया, काव्य ने सौन्दर्य काया में उसी की प्राण-प्रतिष्ठा कर दी। कवि ने धर्म के धरातल पर किसी विकृत रूढ़ि को स्वीकार नहीं किया, परन्तु सक्रिय विरोध के साधनों का अभाव-सा रहा।
कुछ ने सम्प्रदायों की संकीर्णता के बाहर रहकर, आदर्श चरित्रों को नवीन रूपरेखा में ढाला और इस प्रकार पुरानी सांस्कृतिक परम्परा और नयी लोकभावना का समन्वय उपस्थित किया। कुछ ने धर्म के मूलगत अध्यात्म को व्यक्तिगत साधना के उस धरातल पर स्थापित कर दिया, जहाँ वह हमारे अनेक रूप जीवन की, अरूप एकता का आधार भी बन सका और सौन्दर्य की विविधता की व्यापक पीठिका भी ।
कुछ ने उसे स्वीकार ही नहीं किया; परन्तु उसके स्थान में किसी अन्य व्यापक आदर्श की प्रतिष्ठा न होने के कारण यह अस्वीकृति एक उच्छृंखल विरोध प्रदर्शन मात्र रह गयी। नास्तिकता उसी दशा में सृजनात्मक विकास दे सकती है, जब ईश्वरता से अधिक सजीव और सामंजस्यपूर्ण आदर्श जीवन के साथ चलता रहे । जहाँ केवल अविश्वास ही उसका सम्बल है, वहाँ वह जीवन के प्रति भी अनास्था उत्पन्न किये बिना नहीं रहती। और जीवन के प्रति अविश्वासी व्यक्ति का, सृजन के प्रति भी अनास्थावान हो जाना अनिवार्य है। ऐसी स्थिति का अन्तिम और अवश्यम्भावी परिणाम, जीवन के प्रति व्यर्थता की भावना और निराशा ही होती है। इसी से सच्चा कवि या कलाकार किसी-न-किसी आदर्श के प्रति आस्थावान रहेगा।
धर्म ने यदि अपने-आपको कूप के समान पत्थरों से बाँध लिया है तो राजनीति ने धरती के ढाल पर पड़े पानी के समान अनेक धाराओं में विभक्त होकर शक्ति को बिखरा डाला है।
पिछले पच्चीस वर्षों में विश्व के राजनीतिक जीवन में जो आदर्श उपस्थित किये गये, उनमें से एक को भी अभी तक पूर्ण विकास का अवसर नहीं मिल सका। पुराना पर स्वार्थी साम्राज्यवाद, नवीन पर क्रूर नात्सीज़्म और फासिज़्म, अधात्म-प्रधान गाँधीवाद, जनसत्तात्मक साम्यवाद, समाजवाद आदि सब रेल के तीसरे दर्जे के छोटे डिब्बे में ठसाठस भरे उन यात्रियों जैसे हो रहे हैं, जो एक-दूसरे के सिर पर सवार होकर ही खड़े रहने का अवकाश और लड़ने-झगड़ने में ही मनोरंजन के साधन पा सकते हैं। इनमें से मानव-कल्याण पर केन्द्रित विचारधाराओं को भी शताब्दियाँ तो दूर रहीं, अभी विकास के लिए पचास वर्ष भी नहीं मिल सके। एक की सीमाएँ स्पष्ट हुए बिना ही दूसरी अपने लिए स्थान बनाने लगती हैं और इस प्रकार विश्व का राजनीतिक जीवन परस्पर विरोधिनी शक्तियों का मेल मात्र रह गया है।
हमारा राजनीतिक वातावरण भी कुछ कम विषम और छिन्न-भिन्न नहीं । वास्तव में हमारी राष्ट्रीयता जनता की पुत्री होने के साथ-साथ धर्म और पूँजी की पोष्य पुत्री भी तो है; अतः दोनों ओर के गुण-अवगुण उसे उत्तराधिकार में मिलते रहे हैं। उसकी छाया में धार्मिक विरोध भी पनप सके और आर्थिक वैषम्य से उत्पन्न बौद्धिक मतभेद भी विकास पाते रहे।
इसके अतिरिक्त हमारी राष्ट्रीयता की गतिशीलता के लिए आध्यात्मिक धरातल पर भी एक सैनिक संगठन अपेक्षित था और सैनिक संगठन की कुछ अपनी सीमाएँ रहेंगी ही। सेना में सब वीर और जय के विश्वासी ही रहें, ऐसी सम्भावना सत्य नहीं हो सकती। पर जो व्यक्ति स्वार्थ या परार्थ के लिए, विवशता या अन्तर की प्रेरणा से, यथार्थ की असुविधा या आदर्श की चेतना के कारण, सेना की परिधि में आ गये, उन सभी को बाह्य वेशभूषा और गति की दृष्टि से एक-सा रहना पड़ेगा । इस प्रकार सैनिक संगठन में बाह्य एकता का जो महत्त्व है, वह आन्तरिक विशेषता का नहीं, और यह त्रुटि हमारी राष्ट्रीयता में भी अनजाने ही अपना स्थान बनाने लगी ।
यह कुछ संयोग की ही बात नहीं कि इस युग में कोई महान् कलाकार राजनीति की कठिन रेखा के भीतर स्वच्छन्दता की साँस न ले सका। जहाँ तक हमारी कविता और कलाओं का प्रश्न है, वे अनाथालय के जीवों के समान सब द्वारों पर अपना अनाथपन गाने को स्वतन्त्र रहीं; परन्तु हर द्वार पर उनके गीत के लिए स्वर-ताल निर्दिष्ट और विषय निश्चित थे। जो नीति ने सुनना चाहा, वह समाज को नहीं भाया और जो समाज को रुचिकर हुआ, वह राष्ट्रीयता की स्वीकृति न पा सका।
ऐसी स्थिति में कलाकार यदि नवीन प्रेरणाओं को, जीवन की व्यापक पीठिका पर प्रतिष्ठित कर सकता तो उसका लक्ष्य स्पष्ट और पथ परिष्कृत हो जाता; परन्तु हमारे समाज की छिन्न-भिन्नता ने यह कार्य सहज नहीं रहने दिया। इस विषम मानव- समष्टि में, सौ में चौरानबे मनुष्य तो जड़ और निर्धन श्रमजीवी हैं, जिनकी स्थिति का एकमात्र उपयोग शेष छः के लिए सुविधाएँ जुटाना है और शेष छः में अकर्मण्य धनजीवी, उच्च बुद्धिजीवी, बुद्धिजीवी श्रमिक आदि इस प्रकार एकत्र हैं कि एक की विकृति से दूसरा गलता-छीजता रहता है।
केवल धनजीवियों में, किसी जाति की स्वस्थ विशेषताओं और व्यापक गुणों को खोजना व्यर्थ का प्रयास है। उनकी स्थिति तो उस रोग के समान है, जो जितना अधिक स्थान घेरता है, उतना ही अधिक स्वास्थ्य का अभाव प्रकट करता है और जैसे-जैसे तीव्र होता है, वैसे-वैसे जीवन के संकट का विज्ञापन बनता जाता है। नितान्त निर्धन बुद्धिजीवी वर्ग जैसे एक ओर उच्च बनने की आकांक्षा, दूसरी ओर अभाव की शिलाओं से दबकर टूट जाता है, उसी प्रकार सर्वथा समृद्ध भी, उच्चता-जनित गर्व और सुविधाओं के दृढ़ साँचे से पथराता रहता है।
जिस बुद्धिजीवी वर्ग को इस विराट् पर निश्चेष्ट जाति का मस्तिष्क बनने का अधिकार है, उसने धनजीवी की सुखलिप्सा और अपने समाज की संकीर्णता के साथ ही नवजागरण को स्वीकृति दी है। अतः एक शरीर में दो प्रेतात्माओं के समान, उसके जीवन में दो भिन्न प्रवृत्तियाँ उछल-कूद मचाती रहती हैं। विषमताओं से उत्पन्न और संकीर्णता से पोषित स्वभाव को इस युग की विशेषताओं ने ऐसा रूप दे दिया है, जिसमें पुराना स्वार्थ घनीभूत है और नवीन ज्ञान पुंजीभूत ।
विज्ञान के चरम विकास ने हमारी आधुनिकता को एकांगी बुद्धिवाद में इस तरह सीमित किया है कि आज जीवन के किसी भी आदर्श को उसके निरपेक्ष सत्य के लिए स्वीकार करना कठिन है। परिणामतः एक निस्सार बौद्धिक उलझन भी हमारे हृदय की सम्पूर्ण सरल भावनाओं से अधिक सारवती जान पड़े तो आश्चर्य ही क्या है ! इस ज्ञान- व्यवसायी युग में बिना स्थायी पूँजी के ही सिद्धान्तों का व्यापार सहज हो गया है; अतः न अब हमें किसी विश्वास का खरापन जाँचने के लिए अपने जीवन को कसौटी बनाना पड़ता है और न किसी आदर्श का मूल्य आँकने के लिए जीवन की विविधता समझने की आवश्यकता होती है । हमारा बिखरा जीवन इतना व्यक्तिप्रधान है कि प्रायः वैयक्तिक भ्रान्तियाँ भी समष्टिगत सत्य का स्थान ले लेती हैं और स्वार्थ साधन के प्रयास ही व्यापक गतिशीलता के पर्याय बन जाते हैं।
जहाँ तक जीवन का प्रश्न है, उसे सजीवता के वैभव में देखने का न बुद्धिवादी को अवकाश है, न इच्छा। वह तो उसे दर्पण की छाया के समान स्पर्श से दूर रखकर देखने का अभ्यास करते-करते स्वयं इतना निर्लिप्त हो गया है कि उसे ज्ञान का रजिस्टर मात्र कहना चाहिए। जीवन के व्यापक स्पन्दन से वह जितना दूर हटता जाता है, उतना ही विकास के मूलतत्त्वों से अपरिचित बनता जाता है । और अन्त में उसका भारी पर अज्ञानात्मक ज्ञान उसी के जीवन की उष्णता को ऐसे दबा देता है, जैसे छोटी-सी चिनगारी को राख का ढेर आज की आवश्यकताओं के अनुसार वह संसार भर के सम्बन्ध में बहुत कुछ ज्ञातव्य जानता है । परन्तु अपनी धरती की अनुभूति के बिना यह ज्ञान - बीज घुनते रहने के लिए ही उनके मस्तिष्क की सारी सीमा घेरे रहते हैं।
हमारे बुद्धिजीवी वर्ग में अधिकांश तो मानसिक हीनता की भावना में ही पलते और बढ़ते हैं। उनका बाह्य जीवन ही समुद्र पार के कतरे-ब्योंते आच्छादनों से अपनी नग्नता नहीं छिपाये है, अन्तर्जगत् को भी वहीं से लोहार की धौंकनी जैसा स्पन्दन मिल रहा है। उनका पंगु से पंगु स्वप्न भी विदेशी पंख लगा लेने पर स्वर्ग का सन्देश वाहक मान लिया जाता है। उनका विरूप-से-विरूप आदर्श भी पश्चिमी साँचे में ढलकर सुन्दरतम के अतिरिक्त और कोई संज्ञा नहीं पाता। उनका मूल्यहीन से - मूल्यहीन सिद्धान्त भी दूसरी संस्कृति की छाया का स्पर्श करते ही पारसों का शिरोमणि कहलाने लगता है। उनका दरिद्र-से-दरिद्र विचार भी देशी परिधान में विदेशी पैबन्द लगाकर समस्त विचार-जगत् का एकछत्र सम्राट स्वीकार कर लिया जाता है।
ऐसे अव्यवस्थित बुद्धिजीवियों में संस्कृति की रेखाएँ टूटी हुई और जीवन का चित्र अधूरा ही मिलेगा।
केवल श्रम ही जिसे स्पन्दन देता है, उस विशाल मानव समूह की कथा कुछ दूसरी ही है। बुद्धिजीवियों से उसका सम्पर्क छूटे हुए कितना समय बीता होगा, इसका अनुमान, बिन्दु-बिन्दु से समुद्र बने हुए उसके अज्ञान और तिल-तिल करके पहाड़ बने हुए उसके अभावों से लगाया जा सकता है। आज उसकी जड़ता की खाई इतनी गहरी और चौड़ी हो गयी है कि बुद्धिजीवी उस ओर झाँकने के विचारमात्र से सभीत हो जाता है, पार करना तो दूर की बात है ।
साधारणतः शारीरिक श्रम और बुद्धि-व्यवसाय एक-दूसरे की गति के अवरोधक हैं, इसी से प्रायः विचारों की उलझन से छुटकारा पाने का इच्छुक एक न एक श्रम का कार्य आरम्भ कर देता है। इसके अतिरिक्त और भी एक स्पष्ट अन्तर है। बुद्धि जीवन को सूक्ष्मता से स्पर्श करती है, परन्तु उसकी सम्पूर्णता पर एक व्यापक अधिकार बनाए रखना नहीं भूलती। इसके विपरीत, श्रम पूरा भार डालकर ही जीवन को अपना परिचय देता है, परन्तु उसकी सम्पूर्णता को सब ओर से नहीं घेरता । प्रायः बुद्धि-व्यवसाय जितनी शीघ्रता से जीवनशक्ति का क्षय कर सकता है, उतनी शीघ्रता की क्षमता श्रम में नहीं। इसी से जीवन के व्यावहारिक धरातल पर, बुद्धिव्यवसायी का कुछ शिथिल और अस्त-व्यस्त मिलना जितना सम्भव है, श्रमिक का दृढ़ और व्यवस्थित रहना उतना ही निश्चित । नैतिकता की दृष्टि से भी श्रम मनुष्य को नीचे गिरने की इतनी सुविधा नहीं देता जितनी बुद्धि दे सकती है, क्योंकि श्रमिक के श्रम के साथ उसकी आत्मा का बिक जाना सम्भाव्य ही है; परन्तु बुद्धि-विक्रेता की तुला पर उसकी आत्मा का चढ़ जाना अनिवार्य रहता है।
श्रम की स्फूर्तिदायक पवित्रता के कारण ही सब देशों में सब युगों के सन्देशवाहक और साधक उसे महत्त्व दे सके हैं। अनेक तो जीवन के आदि से अन्त तक उसी को आजीविका का साधन बनाये रहे। इस प्रकार जहाँ कहीं जीवन की स्वच्छ और स्वाभाविक गति है, वहाँ श्रम की किसी-न-किसी रूप में स्थिति आवश्यक रहती है।
केवल श्रम ही श्रम के भार और विश्राम देनेवाले साधनों के नितान्त अभाव ने हमारे श्रमजीवी जीवन का समस्त सौन्दर्य नष्ट कर दिया है। यह स्वाभाविक भी था जिस मिट्टी से घर बनाकर हम आँधी, पानी, धूप, अन्धड़ आदि से अपनी रक्षा करते हैं, वही जब अपनी निश्चित स्थिति छोड़कर हमारे ऊपर ढह पड़ती है, तब वज्रपात से कम संहारक नहीं होती। इस मानव समष्टि में ज्ञान के अभाव ने रूढ़ियों को अतल गहराई दे दी है, यह मिथ्या नहीं और अर्थ वैषम्य ने इसकी दयनीयता को असीम बना डाला है, यह सत्य है; परन्तु सब कुछ कह सुन चुकने पर इतना तो स्वीकार करना ही होगा कि श्रम का यह उपासक, केवल बुद्धिव्यापारी से अधिक स्वाभाविक मनुष्य भी है और जातीय गुणों का उससे अधिक विश्वसनीय रक्षक भी। इतना ही नहीं, युगों से सूक्ष्म परिष्कार और सीमित विस्तार पानेवाली नृत्य, गीत, चित्र आदि कलाओं के मूलरूप भी वह सँजोये है और उपयोगी शिल्पों की विविध व्यावहारिकता भी वह सँभाले है। जीवन के संघर्ष में ठहरने की वह जितनी क्षमता रखता है, उतनी किसी बुद्धिवादी में सम्भव नहीं । वास्तव में उसके पारस प्रसाद के लिए बुद्धिजीवी ही विभीषण बन गया, अन्यथा उसके जीवन में विकृतियों की इतनी बिखरी सेना का प्रवेश सहज न हो पाता ।
हमारे कवि, कलाकार आदि बुद्धिजीवियों के विभिन्न स्तरों में उत्पन्न हुए और वहीं पले हैं। अतः अपने वर्ग के संस्कारों का अंशभागी और गुण-अवगुणों का उत्तराधिकारी होना उसके लिए स्वाभाविक ही रहेगा। उनके मस्तिष्क ने अपने वातावरण की विषमता का ज्ञान, बहुत विस्तार से संचित किया और उनके हृदय ने व्यक्तिगत सीमा में सुख-दुःखों को बहुत तीव्रता से अनुभव किया। विभिन्न संस्कारों की धूप-छाया, विविधता भरी भावभूमि और चिन्तन की अनेक दिशाओं ने मिलकर उनके जीवन को एक सीमित स्थिति दे दी थी। परन्तु उस एक स्थिति को सम्पूर्ण वातावरण में सार्थकता देने के लिए समष्टि का वही स्पर्श अपेक्षित था, जो फूल को समीर से मिलता है-सजीव, निश्चित पर व्यापक । जिस समाज में उनकी स्वाभाविक स्थिति थी, वह विषमताओं में बिखर चुका था, उससे ऊँचे वर्ग के अहंकार और कृत्रिमता ने उससे परिचय असम्भव कर दिया था और निम्न में उतरने पर उन्हें आभिजात्य के खो जाने का भय था । फलतः उन्होंने अपने एकाकीपन के शून्य को, अपनी ही प्यास की आग और निराशा के पाले से, इस तरह भर लिया कि उनका हर स्वप्न मुकुलित होते ही झुलस गया और प्रत्येक आदर्श अंकुरित होते ही ठिठुर चला ।
बीज केवल अकेले रहने के लिए, अन्य बीजों की समष्टि नहीं छोड़ता । वह तो नूतन समष्टि सम्भव करने के लिए ही ऐसी पृथक् स्थिति स्वीकार करता है । यदि वही बीज पुरानी धरती और सनातन आकाश की अवज्ञा करके, असाधारणता बनाये रखने के लिए वायु पर उड़ता ही रहे, तो संसार के निकट अपना साधारण परिचय भी खो बैठेगा।
कवि, कलाकार, साहित्यकार सब, समष्टिगत विशेषताओं को नव-नव रूपों में साकार करने के लिए ही उससे कुछ पृथक् खड़े जान पड़ते हैं, परन्तु यदि वे अपनी असाधारण स्थिति को जीवन की व्यापकता में साधारण न बना सकें तो आश्चर्य की वस्तुमात्र रह जाएँगे। महान् से महान् कलाकार भी हमारे भीतर कौतुक का भाव न जगाकर एक परिचय-भरा अपनापन ही जगाएगा, क्योंकि वह धूमकेतु-सा आकस्मिक और विचित्र नहीं, किन्तु ध्रुव-सा निश्चित और परिचित रहकर ही हमें मार्ग दिखाने में समर्थ है।
आज कलाकर समष्टि का महत्त्व समझता है; परन्तु इस बोध के साथ भी उसके सम्पूर्ण जीवन की स्वीकृति नहीं है। बौद्धिक धरातल पर चिर उपेक्षित मानवों की प्रतिष्ठा करते समय उसे अपनी विशालता की जितनी चेतना है, उतनी अपने देवताओं की नहीं। ऐसी स्थिति बहुत स्पृहणीय नहीं; क्योंकि वह सिद्धान्तों को व्यापार का सहज साधन बन जाने की सुविधा दे देती है। जीवन के स्पन्दन से शून्य होकर सिद्धान्त जब धर्म, समाज, नीति आदि की संकीर्ण पीठिका पर प्रतिष्ठित हो जाते हैं, तब वे व्यवसाय वृत्ति को जैसी स्वीकृति देते हैं, वैसी जीवन के विकास को नहीं दे पाते । साहित्य, काव्य आदि के धरातल पर भी इस नियम का अपवाद नहीं मिलेगा।
नवीन साहित्यकार और कवि के बुद्धि-वैभव और अनुभूति की दरिद्रता ने, ऐसी क्रियाशीलता को जन्म दे दिया है, जो सिद्धान्तों को माँज-धोकर रात-दिन चमकाती रहती है, पर जीवन में जंग लग जाने देती है। वे जीवन से बिना कुछ दिये ही एक पक्ष से सब कुछ ले आना चाहते हैं और दूसरे को बहुत मूल्य पर देने की इच्छा रखते हैं। इस बनजारा- वृत्ति से उन दोनों पक्षों को लाभ होने की सम्भावना कम रहती है। काव्य में तो जीवन का निरन्तर स्पर्श और उसकी मार्मिक अनुभूति सबसे अधिक अपेक्षित है; अतः यह प्रवृत्ति न उसे गहराई देती है, न व्यापकता। यह युग यथार्थवादी है; जीवन के स्पन्दन के बिना उसका यथार्थ इतना शीतल हो उठता है कि अश्लील उत्तेजनाओं से उसमें कृत्रिम उष्णता भरी जाती है।
काव्य की उत्कृष्टता किसी विशेष विषय पर निर्भर नहीं; उसके लिए हमारे हृदय को ऐसा पारस होना चाहिए, जो सबको अपने स्पर्श मात्र से सोना कर दे। एक पागल से चित्रकार को जब फटा कागज, टूटी तूलिका और धब्बे डाल देनेवाला रंग मिल जाता है, तब क्षण भर में वह निर्जीव कागज जीवित हो उठता है, रंगों में कल्पना साकार हो उठती है, रेखाओं में जीवन प्रतिबिम्बित हो उठता है, उस पार्थिव वस्तु के अपार्थिव रूप के साथ हम हँसते हैं, रोते हैं, और उसे मानवीय सम्बन्धों में बाँध रखना चाहते हैं। एक निरर्थक झनझन से पूर्ण टूटे एकतारे के जर्जर तारों में, गायक की कुशल उँगलियाँ उलझ जाने पर, उन्हीं तारों में हमारे सारे सुख-दुःख रो-हँस उठते हैं, सारी सीमा के संकीर्ण बन्धन छिन्न-भिन्न होकर बह जाते हैं और हम किसी अज्ञात सौन्दर्य-लोक में पहुँचकर चकित से, मुग्ध से उसे सदा सुनते रहने की इच्छा करने लगते हैं। निरन्तर पैरों से ठुकराये जानेवाले कुरूप पाषाण से शिल्पी के कुशल हाथ का स्पर्श होते ही, वही पाषाण मोम के समान अपना आकार बदल डालता है, उसमें हमारे सौन्दर्य के शक्ति के आदर्श जाग उठते हैं और तब उसी को हम देवता के समान प्रतिष्ठित कर चन्दन, फूल से पूजकर अपने को धन्य मानते हैं। जल का एक रंग भिन्न-भिन्न रंगवाले पात्रों में जैसे अपना रंग बदल लेता है, उसी प्रकार चिरन्तन सुख-दुःख हमारे हृदयों की सीमा और रंग के अनुसार बनकर प्रकट होते हैं। हमें अपने हृदयों की सारी अभिव्यक्तियों को एक ही रूप देने को आकुल न होना चाहिए, क्योंकि यह प्रयत्न हमें किसी भी दिशा में सफल न होने देगा।
मनुष्य स्वयं एक सजीव कविता है । कवि की कृति तो उस सजीव कविता का शब्दचित्र मात्र है, जिससे उसका व्यक्तित्व और संसार के साथ उसकी एकता जानी जाती है। वह एक संसार में रहता है और उसने अपने भीतर एक और इस संसार से अधिक सुन्दर, अधिक सुकुमार संसार बसा रखा है। मनुष्य में जड़ और चेतन दोनों एक प्रगाढ़ आलिंगन में आबद्ध रहते हैं। उसका बाह्याकार पार्थिव और सीमित संसार का भाग है और अन्तस्तल अपार्थिव असीम का एक उसको विश्व से बाँध रखता है तो दूसरा उसे कल्पना द्वारा उड़ाता ही रहना चाहता है।
जड़ चेतन के बिना विकासशून्य है और चेतन जड़ के बिना आकारशून्य । इन दोनों की क्रिया और प्रतिक्रिया ही जीवन है। चाहे कविता किसी भाषा में हो, चाहे किसी 'वाद' के अन्तर्गत, चाहे उसमें पार्थिव विश्व की अभिव्यक्ति हो, चाहे अपार्थिव की और चाहे दोनों के अविच्छिन्न सम्बन्ध की, उसके अमूल्य होने का रहस्य यही है कि वह मनुष्य के हृदय से प्रवाहित हुई है। कितनी ही भिन्न परिस्थितियों में होने पर भी हम हृदय से एक ही हैं; यही कारण है कि दो मनुष्यों के देश, काल, समाज आदि में समुद्र के तटों जैसा अन्तर होने पर भी वे एक-दूसरे के हृदयगत भावों को समझने में समर्थ हो सकते हैं। जीवन की एकता का यह छिपा हुआ सूत्र ही कविता का प्राण है। जिस प्रकार वीणा के तारों के भिन्न स्वरों में एक प्रकार की एकता होती है, जो उन्हें एकसाथ मिलकर चलने की और अपने साम्य से संगीत की सृष्टि करने की क्षमता देती है, उसी प्रकार मानव हृदयों में एकता छिपी हुई है। यदि ऐसा न होता तो विश्व का संगीत ही बेसुरा हो जाता ।
फिर भी न जाने क्यों हम लोग अलग-अलग छोटे-छोटे दायरे बनाकर उन्हीं में बैठे-बैठे सोचा करते हैं कि दूसरा हमारी पहुँच से बाहर है। एक कवि विश्व का या मानव का बाह्य-सौन्दर्य देखकर सब कुछ भूल जाता है, सोचता है उसके हृदय से निकला हुआ स्वर अलग एक संगीत की सृष्टि करेगा; दूसरा विश्व की आन्तरिक वेदनाबहुल- सुषमा पर मतवाला हो उठता है, समझता है उसके हृदय से निकला हुआ स्वर सबसे अलग एक निराले संगीत की सृष्टि कर लेगा। परन्तु वे नहीं सोचते कि उन दोनों के स्वर मिलकर ही विश्व संगीत की सृष्टि कर रहे हैं।
मनुष्य चाहे प्रकृति के जड़ उपादानों का संघात विशेष माना जावे और चाहे किसी व्यापक चेतना का अंशभूत; परन्तु किसी भी अवस्था में उसका जीवन इतना सरल नहीं है कि हम उसकी पूर्ण तृप्ति के लिए गणित के अंकों के समान एक निश्चित सिद्धान्त दे सकें। जड़ द्रव्य से अन्य पशु तथा वनस्पति जगत् के समान ही उसका शरीर निर्मित और विकसित होता है; अतः प्रत्यक्ष रूप से उसकी स्थिति बाह्य जगत् में ही रहेगी और प्राणिशास्त्र के सामान्य नियमों से संचालित होगी। यह सत्य है कि प्रकृति में जीवन के जितने रूप देखे जाते हैं, मनुष्य उनमें इतना विशिष्ट जान पड़ता है कि सृजन की स्थूल समष्टि में भी उसका निश्चित स्थान खोज लेना कठिन हो जाता है; परन्तु इस कठिनाई के मूल में तत्त्वतः कोई अन्तर न होकर विकास क्रम में मनुष्य का अन्यतम और अन्तिम होना ही है।
यदि सबके लिए सामान्य यह बाह्य संसार ही, उसके जीवन को पूर्ण कर देता तो शेष प्राणिजगत् के समान वह बहुत-सी जटिल समस्याओं से बच जाता। परन्तु ऐसा हो नहीं सका। उसके शरीर में जैसा भौतिक जगत् का चरम विकास है, उसकी चेतना भी उसी प्रकार प्राणिजगत् की चेतना का उत्कृष्टतम रूप है।
मनुष्य का निरन्तर परिष्कृत होता चलनेवाला यह मानसिक जगत् वस्तुजगत् के संघर्ष से प्रभावित होता है, उसके संकेतों में अपनी अभिव्यक्ति चाहता है, परन्तु उसके बन्धनों को पूर्णता में स्वीकार नहीं करना चाहता। अतः जो कुछ प्रत्यक्ष है, केवल उतना ही मनुष्य नहीं कहा जा सकता - उसके साथ-साथ उसका जितना विस्तृत और गतिशील अप्रत्यक्ष जीवन है, उसे भी समझना होगा, प्रत्यक्ष जगत् में उसका भी मूल्यांकन करना होगा, अन्यथा मनुष्य के सम्बन्ध में हमारा सारा ज्ञान अपूर्ण और सारे समाधान अधूरे रहेंगे।
मनुष्य के इस दोहरे जीवन के समान ही उसके निकट बाह्य जगत् की सब वस्तुओं का उपयोग भी दोहरा है। ओस की बूँदों से जड़े गुलाब के दल जब हमारे हृदय में सुप्त, एक अव्यक्त सौन्दर्य और सुख की भावना को जाग्रत् कर देते हैं, उनकी क्षणिक सुषमा हमारे मस्तिष्क को चिन्तन की सामग्री देती है, तब हमारे निकट उनका जो उपयोग है, वह उस समय के उपयोग से सर्वथा भिन्न होगा, जब हम उन्हें मिश्री में गलाकर और गुलकन्द नाम देकर औषध के रूप में ग्रहण करते हैं। समय, आवश्यकता और वस्तु के अनुसार इस दोहरे उपयोग की मात्रा तथा तज्जनित रूप कभी-कभी इतने भिन्न हो जाते हैं कि हमारा अन्तर्जगत् बहिर्जगत् का पूरक होकर भी उसका विरोधी जान पड़ता है और हमारा बाह्य जीवन मानसिक से संचालित होकर भी उसके सर्वथा विपरीत।
मनुष्य के अन्तर्जगत् का विकास उसके मस्तिष्क और हृदय का परिष्कृत होते चलना है, परन्तु इस परिष्कार का क्रम इतना जटिल होता है कि वह निश्चित रूप से केवल बुद्धि या भावना का सूत्र पकड़ने में असमर्थ ही रहता है। अभिव्यक्ति के बाह्य रूप में बुद्धि या भावपक्ष की प्रधानता ही हमारी इस धारणा का आधार बन सकती है कि हमारे मस्तिष्क का विशेष परिष्कार चिन्तन में हो सका है और हृदय का जीवन में एक में हम बाह्य जगत् के संस्कारों को अपने भीतर लाकर उनका निरीक्षण-परीक्षण करते हैं और दूसरे में अपने अन्तर्जगत् की अनुभूतियों को बाहर लाकर उनका मूल्य आँकते हैं।
चिन्तन में हम अपनी बहिर्मुखी वृत्तियों को समेटकर किसी वस्तु के सम्बन्ध में अपना बौद्धिक समाधान करते हैं, अतः कभी-कभी वह इतना ऐकान्तिक होता है कि अपने से बाहर प्रत्यक्ष जगत् के प्रति हमारी चेतना पूर्ण रूप से जागरूक ही नहीं रहती और यदि रहती है तो हमारे चिन्तन में बाधक होकर । दार्शनिक में हम बुद्धि-वृत्ति का ऐसा ही ऐकान्तिक विकास पाते हैं, जो उसे जैसे-जैसे संसार के अव्यक्त सत्य की गहराई तक बढ़ाता चलता है, वैसे-वैसे उसके व्यक्त रूप के प्रति वीतराग करता जाता है। वैज्ञानिक के निरन्तर अन्वेषण के मूल में भी यही वृत्ति मिलेगी; अन्तर केवल इतना ही है कि उसके चिन्तनमय मनन का विषय सृष्टि के व्यक्त विविध रूपों की उलझन है, उन रूपों में छिपा हुआ अव्यक्त सूक्ष्म नहीं। अपनी-अपनी खोज में दोनों ही वीतराग हैं, क्योंकि न दार्शनिक अव्यक्त सत्य से रागात्मक सम्बन्ध स्थापित करने की प्रेरणा पाता है और न वैज्ञानिक व्यक्त जड़ द्रव्य के विविध रूपों में रागात्मक स्पर्श का अनुभव करता है। एक व्यक्त के रहस्य की गहराई तक पहुँचना चाहता है, दूसरा उसी के प्रत्यक्ष विस्तार की सीमा तक; परन्तु दोनों ही दिशाओं में बुद्धि से अनुशासित हृदय को मौन रहना पड़ता है, इसी से दार्शनिक और वैज्ञानिक जीवन का वह सम्पूर्ण चित्र, जो मनुष्य और शेष सृष्टि के रागात्मक सम्बन्ध से अनुप्राणित है, नहीं दे सकते।
मनुष्य के ज्ञान की कुछ शाखाएँ, दर्शन, विज्ञान आदि के समान अपनी दिशा में व्यापक न रहकर जीवन के किसी अंश विशेष से सम्बन्ध रखती हैं, अतः जहाँ वे आगे बढ़ते हैं, वहाँ ये जीवन की परिवर्तित परिस्थितियों के साथ परिवर्तित होकर अपनी तात्कालिक नवीनता में ही विकसित कहलाती हैं।
मनुष्य एक ओर अपने मानसिक जगत् की दुरूहता को स्पष्ट करता चलता है, दूसरी ओर अपने बाह्य संसार की समस्याओं को सुलझाने का प्रयत्न करता है। उसके समाजशास्त्र, राजनीति आदि उसकी बाह्य स्थिति की व्याख्या हैं, उसका विज्ञान प्रकृति के मूलतत्त्वों से उसके संघर्ष का इतिहास है, उसका दर्शन उसके तथा सृष्टि के रहस्यमय जीवन का बौद्धिक निरूपण है और उसका साहित्य उसके उस समग्र जीवन का सजीव चित्र है, जो राजनीति से शासित, समाजशास्त्र से नियमित, विज्ञान से विकसित तथा दर्शन से व्यापक हो चुका है ।
साहित्य में मनुष्य की बुद्धि और भावना इस प्रकार मिल जाती हैं, जैसे धूप-छाँही वस्त्र में दो रंगों के तार, जो अपनी-अपनी भिन्नता के कारण ही अपने रंगों से भिन्न एक तीसरे रंग की सृष्टि करते हैं। हमारी मानसिक वृत्तियों की ऐसी सामंजस्यपूर्ण एकता साहित्य के अतिरिक्त और कहीं सम्भव नहीं। उसके लिए न हमारा अन्तर्जगत् त्याज्य है और न बाह्य, क्योंकि उसका विषय सम्पूर्ण जीवन है, आंशिक नहीं।
मनुष्य के बाह्य जीवन में जो कुछ ध्वंस और निर्माण हुआ है, उसकी शक्ति और दुर्बलता की जो परीक्षाएँ हुई हैं, जीवन-संघर्ष में उसे जितनी हार-जीत मिली है, केवल उसी का ऐतिहासिक विवरण दे देना, साहित्य का लक्ष्य नहीं । उसे यह भी खोजना पड़ता है कि इस ध्वंस के पीछे कितनी विरोधी मनोवृत्तियाँ काम कर रही थीं, निर्माण मनुष्य की किस सृजनात्मक प्रेरणा का परिणाम था, उसकी शक्ति के पीछे कौन-सा आत्मबल अक्षय था, दुर्बलता उसके किस अभाव से प्रसूत थी, हार उसकी किस निराशा की संज्ञा थी और जीत में उसकी कौन-सी कल्पना साकार हो गयी।
जीवन का वह असीम और चिरन्तन सत्य, जो परिवर्तन की लहरों में अपनी क्षणिक अभिव्यक्ति करता रहता है, अपने व्यक्त और अव्यक्त दोनों ही रूपों की एकता लेकर साहित्य में व्यक्त होता है। साहित्यकार जिस प्रकार यह जानता है कि बाह्य जगत् में मनुष्य जिन घटनाओं को जीवन का नाम देता है, वे जीवन के व्यापक सत्य की गहराई और उसके आकर्षण की परिचायक हैं, जीवन नहीं; उसी प्रकार यह भी उससे छिपा नहीं कि जीवन के जिस अव्यक्त रहस्य की वह भावना कर सकता है, उसी की छाया इन घटनाओं को व्यक्त रूप देती है। इसी से देश और काल की सीमा में बँधा साहित्य रूप में एकदेशीय होकर भी अनेकदेशीय और युग-विशेष से सम्बद्ध रहने पर भी युग-युगान्तर के लिए संवेदनीय बन जाता है।
साहित्य की विस्तृत रंगशाला में हम कविता को कौन-सा स्थान दें, यह प्रश्न भी स्वाभाविक ही है। वास्तव में जीवन में कविता का वही महत्त्व है, जो कठोर भित्तियों से घिरे कक्ष के वायुमण्डल को अनायास ही बाहर के उन्मुक्त वायुमण्डल से मिला देनेवाले वातायन को मिला है। जिस प्रकार वह आकाशखण्ड को अपने भीतर बन्दी कर लेने के लिए अपनी परिधि में नहीं बाँधता, प्रत्युत् हमें उस सीमारेखा पर खड़े होकर क्षितिज तक दृष्टि-प्रसार की सुविधा देने के लिए; उसी प्रकार कविता हमारे व्यष्टि-सीमित जीवन को समष्टि व्यापक जीवन तक फैलाने के लिए ही व्यापक सत्य को अपनी परिधि में बाँधती है। साहित्य के अन्य अंग भी ऐसा करने का प्रयत्न करते हैं, परन्तु न उनमें सामंजस्य की ऐसी परिणति होती है, न आयास-हीनता। जीवन की विविधता में सामंजस्य को खोज लेने के कारण ही कविता उन ललित कलाओं में उत्कृष्टतम स्थान पा सकती है, जो गति की विभिन्नता, स्वरों की अनेकरूपता या रेखाओं की विषमता के सामंजस्य पर स्थित हैं।
कविता मनुष्य के हृदय के समान ही पुरातन है, परन्तु अब तक उसकी कोई ऐसी परिभाषा न बन सकी, जिसमें तर्क-वितर्क की सम्भावना न रही हो । धुँधले अतीत भूत से लेकर वर्तमान तक और 'वाक्यं रसात्मकं काव्यम्' से लेकर आज के शुष्क बुद्धिवाद तक, जो कुछ काव्य के रूप और उपयोगिता के सम्बन्ध में कहा जा चुका है, वह परिणाम में कम नहीं; परन्तु अब तक न मनुष्य के हृदय का पूर्ण परितोष हो सका है और न उसकी बुद्धि का समाधान। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि प्रत्येक युग अपनी विशेष समस्याएँ लेकर आता है, जिनमें समाधान के लिए नयी दिशाएँ खोजती हुई मनोवृत्तियाँ उस युग के काव्य और कलाओं को एक विशिष्ट रूपरेखा देती हैं। मूलतत्त्व न जीवन के कभी बदले हैं और न काव्य के, कारण वे उस शाश्वत चेतना से सम्बद्ध हैं, जिसके तत्त्वतः एक रहने पर ही जीवन की अनेकरूपता निर्भर है।
अतीत युगों के जितने संचित ज्ञानकोष के हम अधिकारी हैं, उसके आधार पर कहा जा सकता है कि कविता मानव-ज्ञान की अन्य शाखाओं की सदैव अग्रजा रही है। यह क्रम अकारण और आकस्मिक न होकर सकारण और निश्चित है, क्योंकि जीवन में चिन्तन के शैशव में ही भावना तरुण हो जाती है। मनुष्य बाह्य संसार के साथ कोई बौद्धिक समझौता करने के पहले ही, उसके साथ एक रागात्मक सम्बन्ध स्थापित कर लेता है, यह उसके शिशु-जीवन से ही स्पष्ट हो जाएगा। यदि हम मनुष्य के मस्तिष्क के विकास की तुलना फल के विकास से करें, जो अपनी सरसता में सदा ही परिमित है, तो उसके हृदय के विकास को फूल का विकास कहना उचित होगा, जो अपने सौरभ में अपरिमित होकर ही खिला हुआ माना जाता है। एक अपनी परिपक्वता में पूर्ण है और दूसरा अपने विस्तार में।
यह सत्य है कि मनुष्य के ज्ञान की समष्टि में कविता को और विशेषतः उसके बाह्य रूप को इतना महत्त्व मनुष्य की भावुकता से नहीं, उसके व्यावहारिक दृष्टिकोण से भी मिला था। जिस युग में मानव जाति के समस्त ज्ञान को एक कण्ठ से दूसरे कण्ठ में संचरण करते हुए ही रहना पड़ता था, उस युग में उसकी प्रत्येक शाखा को अपने अस्तित्व के लिए छन्दबद्धता के कारण स्मृति-सुलभ पद्य का ही आश्रय लेना पड़ा। इसके अतिरिक्त शुष्क ज्ञान ने, अधिक ग्राह्य होने के लिए भी, पद्य की रूपरेखा का वह बन्धन स्वीकार किया, जिसमें विशेष ध्वनि और प्रवाह से युक्त शब्द अधिक प्रभावशाली हो जाते हैं। कहना व्यर्थ होगा कि काव्य के उस धुँधले आदिम काल से लेकर जब आवश्यकतावश ही मनुष्य प्रायः अपने बौद्धिक निरूपणों को भी काव्य काया में प्रतिष्ठित करने के लिए बाध्य हो जाता था, आज गद्य के विकास काल तक ऐसी कविता का अभाव नहीं रहा ।
साधारणतः हमारे विचार विज्ञापक होते हैं और भाव संक्रामक; इसी से एक की सफलता पहले मननीय होने में है और दूसरे की पहले संवेदनीय होने में कविता अपनी संवेदनीयता में ही चिरन्तन है, चाहे युग-विशेष के स्पर्श से उसकी बाह्य रूपरेखा में कितना ही अन्तर क्यों आ जावे। और यह संवेदनीयता भावपक्ष ही में अक्षय है।
('साहित्यकार की आस्था तथा अन्य निबन्ध' से)