कवि सम्मेलन में (निबंध) : विवेकी राय
Kavi Sammelan Mein (Hindi Nibandh) : Viveki Rai
अब सोचता हूँ कि कवि सम्मेलन में हमारा न जाना ही अच्छा होता। रात-भर नींद
बुलाता रहा और आती रहीं कवि-सम्मेलन की कड़ुई यादें। सवेरे चारपाई से
उठाने पर उठा हूँ। मन आहत है। रह-रहकर रात की बातें चोट कर जाती हैं।
न जाने कहाँ से यह रोग गाँवों में भी आ गया। कवि सम्मेलन क्या है, शुद्ध
नाच है। शरीफ लोग नाचते हैं। अजब-अजब नाच नाचते हैं। सिर के बल नाचते हैं।
रुपया नचाता है। लोग ताली पीटते हैं। वाह-वाह करते हैं। गालियाँ देते हैं।
किसी को पसन्द करते हैं, किसी को नापसन्द करते हैं। यह सब क्या है ? सस्ते
कवि, सस्ती कविता। कितनी कविताएँ मन को छू पाती हैं ? यह सब मुझे एकदम
नापसन्द है; परन्तु मेरी पसन्द और नापसन्द का कोई सवाल नहीं।
अब रात की बात बताऊँ। कवि सम्मेलन पास के ही एक गाँव में था। दूर-दूर के
कवि आये थे। काफ़ी सज-धजकर और बन सँवरकर। गाँव में ऐसे साफ़-साफ़ चेहरे और
चमकीली पोशाक कहाँ दिखलाई पड़ती है। फुलवारी की तरह मंच उग गया। सबका नाम
नहीं बता सकता। मेरे एक परिचित थे ‘सुकुमार’ जी। नीचे
से
घसीटकर हमें ऊपर बिठा दिया। मैंने कहा, ‘भाई, अब मैं न कविता
लिखता
हूँ और न सुनाता हूँ। सब भूल गया। मौज-मस्ती के दिन लद गये। अब मैं आदमी
नहीं मास्टर (शायद कथित देवता) हूँ, कवि नहीं कौआ हूँ। दिन भर टर-टर करता
हूँ, रातभर आमदनी खर्च का हिसाब करता हूँ। ऊपर से जगत् का गुरु हूँ और
नीचे से गोबर हूँ। खाद बनता हूँ। समाज के अँखुये निकलते हैं।
इन सब बातों का मेरे मित्र पर कोई असर नहीं हुआ और अब मैं मंच पर था। कुछ
बड़प्पन-सा लगा। ऐसा लगा कि बिलकुल मर नहीं गया हूँ। इसी समय एक
लम्बे-चौड़े डील डौलवाले खद्दरधारी ग्रामीण रईस उठ खड़े हुए। कई लोग
फुसफुसाये, ‘‘ग्राम सभापति जी हैं
!’’ उन्होंने
सभापति के प्रस्ताव के लिए भूमिका बाँधी। सबके कान खड़े हो गये।
ग्राम-सभापति ने अजब शान से कहा कि जब हमारे मान्य-मालिक श्री आर.बी. दयाल
एम.एल.ए. यहाँ मौजूद हैं तब दूसरा और कौन सभापति बन सकता है ?
कवियों ने सिर झुका लिये और पण्डाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा।
‘सुकुमार जी’ ने धीरे से पूछा कि इस एम.एल.ए. साहब के
कौन-कौन
से काव्य ग्रन्थ प्रकाशित हैं ? मैंने बताया, ‘‘अजी
पूरा आदमी
है। किसी प्रकार हस्ताक्षर कर लेता है। रोबदाब, ज़ोर-ज़बरदस्ती और काली
करामातों का कबीर समझो। यह एम.एल.ए. का पद ही इसका प्रख्यात काव्य-ग्रन्थ
है।’’
अब सभापति रघुबर जी फूल-मालाओं में डूबे मुख्य आसान पर विराजमान थे। एक
बार मैंने ध्यानपूर्वक उनकी ओर देखा। एकाएक बिना जोर लगाये ही ढेर-सी
बातें याद आ गयीं। मेरा मन उखड़कर उड़ गया। तबीयत उचाट हो गयी। याद की
रेखाएँ गहराई के साथ उभरने लगीं। फिर तो मेरा शरीर भर उस पण्डाल में रह
गया। उधर कवि सम्मेलन शुरू था और इधर मैं सिनेमा देख रहा था। लगभग सत्रह
मासकी एक दिलचस्प घटना चित्र की तरह मेरी आँखों के सामने नाचने लगी।
वसन्त की सन्ध्या, मधुर उदासी, हलकी गरमी, पछिवाँ की धूल के साथ उड़ती
मेरी साइकिल उस छोटे से कस्बे के सिरे पर स्थित चौमुहानी पर आ रुकी। एक
पान की, एक सत्तू-भूजा की और दो पूड़ी-मिठाई की दूकानें, पास ही सड़क के
एक ओर नीम तले रिक्शे और इक्के। कुछ खड़े, कुछ टहलते, कुछ बैठे हुए
मन-चर्चा में लीन अनेक लोग। चेहरे पर उत्सुकता, आँखों में खोज चाल-ढाल में
मौज, पोशाक, असाधारण नहीं साधारण भी नहीं, बिना सरो-सामान के पान चबाते,
छड़ी घुमाते, सिगरेट का धुआँ उड़ाते और कुछ अखबारों में डूबे हुए लोग।
अजब-सा लगा। बिना लगन के ये कैसे बाराती लोग हैं ?
ज्ञात हुआ कि यहाँ से आज जुलूस निकलनेवाला है। काँग्रेस की शानदार विजय
हुई है। एम.एल.ए. साहब खुद तशरीफ ला रहे हैं।
टूटी झोंपड़ियों के सामने खड़ी कार देखी, प्रचार का हंगामा, देखा, जुलूस
देखा, हवा बनाना देखा, भारी धूम-धाम देखी और वोट के दिन की चहल-पहल देखी।
पद-सेवकों के सामने हाथ जोड़कर खड़े सिरमौर लोगों को देखा; लक्खू-भिक्खू
की अभूतपूर्व मिलनी देखी; तिकड़म, मकड़जाल सब्ज़बाग और 420 के नये नये
नज़ारें देखे और अब आज इन सबका उपसंहार भी देख लूँ। यह जीत का जुलूस
वास्तव में दर्शनीय होगा।
तो मैं रुक गया। मगर किसी भी आदमी के हाथ में झण्डा वगैरह न देखकर सन्देह
हुआ। बिना झण्डे-झण्डियों का कैसा जुलूस होगा ? पानवाली दूकान पर एक आदमी
ने बाताया कि जुलूस का वक़्त चार बजे दिन था। इधर छह बजने ही वाला था।
वहीं यह भी सुना-‘‘अजी, आते होंगे। आएँगे-छह बजे, सात
बजे आठ
बजे, नहीं भी आएँगे। ग़रज़वाले आज क्या, रोज जुलूस
निकालेंगे।’’
मुझे कुछ निराशा-सी हुई। साइकिल उठाकर चलने की बात सोच रहा था कि बाजा बज
उठा। शायद ये बजाने लगे यह सोचकर कि यदि जुलूस न भी निकले तो कुछ पैसे के
हक़दार तो हो जाएँ। फिर आदमी भी तो बटोरना था। दस-पाँच गिने चुने लोगों से
ही जुलूस कैसे निकलेगा ! उसके लिए चाहिए थी जनता की भीड़, नर-वानरों का
पीछे से जय-जयकार करनेवाला जमघट।
एक जीप आती दिखाई पड़ी। ‘‘बस, आ गये
!’’ खलबली मच
गयी। एक आदमी ने झट पाकिट से तिरंगा झण्डा निकाला और चट सोंटे में खोंसकर
कन्धे पर रख लिया गया। अचानक कई और झण्डे उग गये। अनेक नंगे सिर टोपियों
से विभूषित होने लगे। अरे ! लोगों के हाथों में यह क्या है ? ये
फूल-मालाएँ कहाँ से आ गयीं ? कई लोगों को सावधानी के साथ पाकिट से निकालते
देखकर रहस्य खुला। भीड़ खिल उठी और हवा गमक उठी। जीप पास आ गयी। लोग दोनों
ओर कतार बाँधकर खड़े हो गये। जय-निनाद हुआ। हाथ भाँजकर, उछलकर और गला
फाड़कर नारे लगे। जीप आयी और सर्र से निकल गयी। लोगों ने देखा, केवल
ड्राइवर बैठा था, और गाड़ी किसी और की थी।
सब धूल झाड़ते पीछे हटे। बाजा बन्द हो गया। उल्लास किरकिरा पड़ गया किसी
ने ज़ोर का ठहाका लगाया। मेरी दृष्टि उधर जाए तब तक पास से सुना,
‘‘अरे यार, बाज़ार-भाव बिगड़
गया।’’ उधर पश्चिम
ओर बगीचे के पेड़ों की फाँक से सूर्य का ईंगुर-जैसा लाल गोला दिखाई पड़ा,
आधा डूबा हुआ।
मालाएँ सावधानी से समेटकर रख ली गयीं और लोग पूरब ओर सड़क पर आँख बिछाकर
इधर-उधर बैठ गये। थोक-के-थोक आदमियों के बीच यदि कोई अकेला था तो यह
मास्टर ! मास्टर को इसी में मज़ा था। वह सुनता था कि जैसे हरआदमी यह सिद्ध
कर रहा है कि एम.एल.ए साहब को जिताने में पहला नम्बर उसी का है।
वातस्व में वहाँ की चर्चाएँ बड़ी मज़ेदार थीं, पर यह मज़ा देर तक नहीं चखा
जा सका। एकजीप फिर आती दिखाई पड़ी और शायद तिरंगे से शोभित जीप वही थी
जिसका घण्टों से इन्तज़ार था।
जीप रुकी। लोगों ने घेर लिया। जयकार तोप के समान छूट पड़ी। बाजा बिगुल के
समान बज उठा। क्या ही रोमांचक दृश्य था ! आह्लाद में मुस्कराते हुए लोग
माला पहनाते हैं, गले मिलते हैं और एक ओर हट जाते हैं। दूसरा आता है, माला
पहनाता है और एक ओर हट जाता है। कोई-कोई खूब मिलते हैं एक सज्जन बढ़े। गोद
में एक सुन्दर सजा हुआ बालक हाथ में माला लिये है। माला एम.एल.ए. साहब के
गले में पड़ी और बालक उनकी गोद में था। चूमकर प्यार किया। कितना विशाल और
सरल हृदय है ! वह सज्जन भी खूब मिले। बच्चे को लेकर एक ओर आये। मालूम हुआ,
कस्बे के सबसे बड़े रईस हैं। अच्छा ! ये एक भरे-पूरे शरीरवाले सज्जन हैं।
विजयी नेता को माला पहनाकर इन्होंने गोद में उठा लिया। फिर दोनों खूब
हँसे। चेहरा खिल गया। लोगों ने कहा कि यह सेठ कोरा सेठ नहीं है। फिर अनेक
लोगों का क्रम चला। एक बूढ़े बाबा आये। एम.एल.ए. साहब ने चरण छू लिया।
बाबा ने माला पहनायी। ये महन्तजी थे।
सब धूल झाड़ते पीछे हटे । बाजा बन्द हो गया। उल्लास किरकिरा पड़ गया । किसी ने ज़ोर का ठहाका लगाया। मेरी दृष्टि उधर जाए तब तक पास से सुना, “अरे यार, बाजार भाव बिगड़ गया।" उधर पश्चिम ओर बगीचे के पेड़ों की फाँक से सूर्य का ईंगुर - जैसा लाल गोला दिखाई पड़ा, आधा डूबा हुआ ।
मालाएँ सावधानी से समेटकर रख ली गयीं और लोग पूरब ओर सड़क पर आँख बिछाकर इधर-उधर बैठ गये। थोक के थोक आदमियों के बीच यदि कोई अकेला था तो यह मास्टर! मास्टर को इसी में मज़ा था। वह सुनता था कि जैसे हर आदमी यह सिद्ध कर रहा है कि एम.एल.ए. साहब को जिताने में पहला नम्बर उसी का है। वातस्व में वहाँ की चर्चाएँ बड़ी मज़ेदार थीं, पर यह मज़ा देर तक नहीं चखा जा सका। एक जीप फिर आती दिखाई पड़ी और शायद तिरंगे से शोभित जीप वही थी जिसका घण्टों से इन्तजार था ।
जीप रुकी। लोगों ने घेर लिया। जयकार तोप के समान छूट पड़ी। बाजा बिगुल के समान बज उठा। क्या ही रोमांचक दृश्य था ! आह्लाद में मुस्कराते हुए लोग माला पहनाते हैं, गले मिलते हैं और एक ओर हट जाते हैं। दूसरा आता है, माला पहनाता है और एक ओर हट जाता है। कोई-कोई खूब मिलते हैं। एक सज्जन बढ़े। गोद में एक सुन्दर सजा हुआ बालक हाथ में माला लिये है। माला एम.एल. ए. साहब के गले में पड़ी और बालक उनकी गोद में था। चूमकर प्यार किया। कितना विशाल और सरल हृदय है ! वह सज्जन भी खूब मिले। बच्चे को लेकर एक ओर आये। मालूम हुआ, क़स्बे के सबसे बड़े रईस हैं। अच्छा ! ये एक भरे-पूरे शरीरवाले सज्जन हैं। विजयी नेता को माला पहनाकर इन्होंने गोद में उठा लिया। फिर दोनों खूब हँसे । चेहरा खिल गया। लोगों ने कहा कि यह सेठ कोरा सेठ नहीं है । फिर अनेक लोगों का क्रम चला। एक बूढ़े बाबा आये। एम.एल.ए. साहब ने चरण छू लिया। बाबा ने माला पहनायी। ये महन्तजी थे ।
मैं निकट आ गया। देखता हूँ, एक व्यक्ति है। खादी की पोशाक है। कुछ मैला जरूर है। देखने में यह भी मास्टर जैसा लगता है। आगे बढ़ता है, मिलना चाहता है, तब तक दूसरा माला लिये पहुँच जाता है और यह पीछे सरक आता है। बेचारा माला नहीं लिये है । उत्सुकता, अधीरता और श्रद्धा उसे ठेलकर फिर आगे बढ़ाती है। आँख फाड़-फाड़कर उनकी ओर देखता है। कभी मुसकराता है। जैसे यह व्यक्त कर रहा है कि जीत के इस मिलन पर्व पर उसे भारी खुशी है, क्योंकि एम. एल. ए. साहब उसके अपने हैं। उधर एम. एल. ए. साहब की आँखें ऐसे ख़ास ढंग पर अधमुँदी-सी होकर झुक गयी थीं जैसे वे आज सबको देख नहीं रहे थे। मैंने मन में सोचा, एक वह दिन होता है कि ये धा धाकर सबको गले लगाते फिरते हैं। और आज यह समय है कि लोग इनसे मिलने के लिए भारी तप कर रहे हैं।
मेरी दृष्टि उसी मिलनेवाले युवक की ओर थी। वह अपने को दिखाने के लिए ठीक उनके आगे चला गया। मिलने के लिए कुछ हाथ निकाल चुका था कि एक ने एम. एल. ए. साहब के गले में माला डाल दी और उसे उन्होंने छाती से चिपटा लिया। सौ मुट्ठी का एक मुट्ठी होकर वह पीछे सरक गया। मैंने कल्पना की, वोट के ज़माने में उसने झण्डा लेकर खूब जय-जयकार किया होगा। उन दिनों इसे खूब वाहवाही मिली होगी। एम. एल. ए. साहब से परिचय हुआ होगा और आज भी समझता है कि वे हमारे हैं।
मैंने साधारण तौर पर पूछा, “क्या भाई, मिल लिये?” उसने कहा, “देखते हैं, फ़ुरसत है? तमाम क़स्बे और जवार-भर के रईस और बड़े-बड़े आदमी आये हैं। एम. एल.ए. साहब तो हमारे ख़ास आदमी हैं। आँख के इशारे से बताया है कि मीटिंग में मिलना।”
मुझे उसकी समझ पर बड़ी दया आयी । भाग्यवान हैं ये बड़े आदमी । इनके यहाँ से कोई उपवास करके आ जाए तब भी वह यही कहेगा कि बड़ी भारी ख़ातिरदारी हुई है।
मिलन - अध्याय समाप्त हुआ। अब बिना मालावाले हाथ मिलाने लगे। ये भी ख़ास लोग हैं। आम लोग चारों ओर से तमाशा देख रहे हैं, इधर-उधर चक्कर काट रहे हैं। मैंने इन्हीं लोगों में अपने मित्र महमूद को देखा। बड़ा भक्त है एम.एल.ए. साहब का । शायद गले मिलने में असफल होकर अन्तिम बार भाग्य आजमा रहा है। मौक़ा नहीं पा रहा है। मैंने देखा, वह उनके सामने पहुँचा ही था कि वह पानवाला पान लिये पहुँच गया। फिर जुलूस आगे बढ़ा। पीछे था बाजा और महात्मा गाँधी की जय बोलनेवालों का दल ।
महमूद मिला। सारी बातें ज्ञात हुईं। मैंने कहा, “तुमने बेवक़ूफ़ी की। मुक़दमे में तारीख पड़ गयी तो तीन बजेवाली ट्रेन से तुमको घर चले जाना चाहिए था। तुम रह गये जुलूस देखने के लिए, गले मिलने और मुबारकबाद देने के लिए। अब रात को मोदी की दूकान आबाद करो। सड़ा-गला खाकर फटे टाट पर सोना, मच्छरों से शरीर कटवाना और एक-आध रुपये का खून कराना तुम्हारी तक़दीर में लिखा था।”
उसने कहा, “मुझे क्या पता था कि फूल-मालावाले घेर लेंगे ! क्या बिना मालावाला उनका प्रेमी नहीं हो सकता?"
मुझे लगा कि महमूद काफ़ी दुःखी है और उसे मैंने समझाया कि यह आयोजन जिन लोगों का था वे लोग गले मिले। तुम भी एक आयोजन अपने यहां करो और खूब मिलो।
पर मैं जानता था कि इससे न तो उसे ही सन्तोष था और न मुझे ही। अब हमें लौटना था। चलते-चलते एक बार फिर एम. एल. ए. साहब को देख लेना चाहा। वह गौरवर्णवाला भरा चेहरा फूल-मालाओं में डूब-सा गया था।
अँधेरा हो गया। जुलूस पीछे छूट गया। साइकिल पर लौट रहा हूँ। रह-रहकर वह फूल-मालाओं में डूबा चेहरा याद आ रहा है। तभी सनसनाती हुई किसी कवि की एक कविता कानों में आ घुसी-
“कुछ ऐसे नदिया बढ़ी किनारे डूब गये,
कुछ ऐसे बादल उठे सितारे डूब गये !
पथ के काँटों से कौन हमें आगाह करे-
जब फूलों में रहनुमा हमारे डूब गये !"
कविता जैसे साकार रूप में हमारे सामने आ गयी। मैं उसे गुनगुनाने लगा ।...
तभी संचालक ने हमारा नाम पुकार दिया। मैं चौंक पड़ा। भारी हड़बड़ी में पड़ गया। 'सुकुमार जी' ने ठेलकर स्टेज पर आगे को कर दिया। मेरी सारी याद कविताएँ न जाने कहाँ चली गयीं। कोई याद ही नहीं आयी माइक हाथ में लिया तो ललाट पसीने से चकचका उठा। सिर चकराने लगा और दिल धड़कने लगा। क्या सुनाऊँ? एक बार सभापति जी की ओर देखा और जल्दी में सुना गया-
“कुछ ऐसे नदिया बढ़ी किनारे डूब गये,
कुछ ऐसे बादल उठे सितारे डूब गये !
पथ के काँटों से कौन हमें आगाह करे-
जब फूलों में रहनुमा हमारे डूब गये।"
पण्डाल से आवाज़ें आयीं यह तो जौनपुर के पण्डित रूपनारायण त्रिपाठी की कविता है और पण्डितजी ने इसे अभी-अभी सुनाया है। आप अपनी सुनाइए । कुछ लोग हँसने लगे और कुछ मुस्कराने लगे। कुछ हमें घूर घूरकर देखने लगे। कुछ साँयफुस करने लगे । सभापति ने व्यंग्य किया “मास्टरों के दिमाग़ लड़के चर डालते हैं।"
मैंने ज़ोर से कहा, “सज्जनो ! श्री रूपनारायण त्रिपाठी ने अपनी जिस कविता को सुनाया है उसे मैंने यहीं अभी-अभी प्रत्यक्ष रूप से देखा है। आप क्षमा करें।”
जब तक मैं पण्डाल से बाहर निकलूँ एक भारी ठहाका लगा और सारा पण्डाल गूँज उठा ।