कौन सुकुमारी : ओड़िआ/ओड़िशा की लोक-कथा

Kaun Sukumari : Lok-Katha (Oriya/Odisha)

चार औरतें थीं। एक से बढ़कर एक ख़ूबसूरत। तालाब के किनारे बैठकर अपनी-अपनी सुकुमारिता का बखान कर रही थीं।

एक ने कहा, “मेरे पति प्रवास में थे, जब घर आए तो मेरे लिए गुलाब के फूलों की एक माला लाए थे। जब मेरे गले में उस हार को डाला, तो उसकी पंखुड़ियों से मेरा गला छिल गया। महीना भर होने को आया अब तक दर्द नहीं गया है।”

दूसरी ने कहा, “डिमिर फल के केसर में जो कीड़ा होता है एक दिन मेरे गले के पास से उड़ गया तो उसके पंखों की हवा से मैं भी उड़कर एक कोस की दूरी पर जा गिरी।”

तीसरी ने कहा, “जितने भी महीन चावल का भात हो मेरे गले से नीचे नहीं उतरता। लाई के माँड़ को दूध में उबालकर फिर छानकर खाती हूँ, फिर भी गले से उतरने के समय चाक़ू सा लगता है।”

चौथी बोली, “मेरे पति मेरे लिए एक साड़ी लाए थे, जो इतनी महीन थी कि एक नली में रह जाए। पर उसे जैसे ही मैंने पहना, मेरा पूरा शरीर छिल गया।”

चारों नाज़नीन एक-दूसरे को देखकर हँसीं-कौन किससे ज़्यादा सुकुमारी?

(साभार : अनुवाद : सुजाता शिवेन, ओड़िशा की लोककथाएँ, संपादक : महेंद्र कुमार मिश्र)

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