कौमी भाषा के विषय में कुछ विचार (हिन्दी निबंध) : मुंशी प्रेमचंद

बहनो और भाइयो ,

किसी कौम के जीवन और उसकी तरक्की में भाषा का कितना बड़ा हाथ है, इसे हम सब जानते हैं, और उसकी तशरीह करना आप – जैसे विद्वानों की तौहीन करना है। यह दो पैरों वाला जीव उसी वक्त आदमी बना, जब उसने बोलना सीखा। यों तो सभी जीवधारियों की एक भाषा होती है। वह उसी भाषा में अपनी खुशी और रंज , अपना क्रोध और भय, अपनी हाँ या नहीं बतला दिया करता है। कितने ही जीव तो केवल इशारों में ही अपने दिल का हाल और स्वभाव जाहिर करते हैं। यह दर्जा आदमी को ही हासिल है कि वह अपने मन के भाव और विचार सफाई और बारीकी से बयान करे। समाज की बुनियाद भाषा है। भाषा के बगैर किसी समाज का खयाल भी नहीं किया जा सकता। किसी स्थान की जलवायु, उसके नदी और पहाड़, उसकी सर्दी और गर्मी और अन्य मौसमी हालतें सब मिल-जुलकर वहाँ के जीवों में एक विशेष आत्मा का विकास करती हैं, जो प्राणियों की शक़्ल-सूरत, व्यवहार-विचार और स्वभाव पर अपनी छाप लगा देती हैं और अपने को व्यस्त करने के लिए एक विशेष भाषा या बोली का निर्माण करती हैं। इस तरह हमारी भाषा का सीधा संबंध हमारी आत्मा से है। यों कह सकते हैं कि भाषा हमारी आत्मा का बाहरी रूप है। वह हमारी शक़्ल-सूरत, हमारे रंग-रूप ही की भांति हमारी आत्मा से निकलती है। उसके एक-एक अक्षर में हमारी आत्मा का प्रकाश है। ज्यों-ज्यों हमारी आत्मा का विकास होता है, हमारी भाषा भी प्रौढ़ और पुष्ट होती जाती है। आदि में जो लोग इशारों में बात करते थे, फिर अक्षरों में अपने भाव प्रकट करने लगे, वही लोग फिलॉसफी लिखते और शायरी करते हैं, और जब जमाना बदल जाता है और हम उस जगह से निकलकर दुनिया के दूसरे हिस्सों में आबाद हो जाते हैं, हमारा रंग-रूप भी बदल जाता है। फिर भी भाषा सदियों तक हमारा साथ देती रहती है और जितने लोग हम-जबान हैं, उनमें एक अपमान, एक आत्मीयता, एक निकटता का भाव जगाती रहती है। मनुष्य में मेल-मिलाप के जितने साधन हैं, उनमें सबसे मजबूत, असर डालने वाला रिश्ता भाषा का है। राजनीतिक, व्यापारिक या धार्मिक नाते जल्द या देर में कमजोर पड़ सकते हैं और अक्सर टूट जाते हैं, लेकिन भाषा का रिश्ता समय की और दूसरी बिखरने वाली शक्तियों की परवाह नहीं करता, और एक तरह से अमर हो जाता है।

लेकिन आदि में मनुष्यों के जैसे छोटे-छोटे समूह होते हैं, वैसी ही छोटी- छोटी भाषाएँ भी होती हैं। अगर गौर से देखिये, तो बीस-पचीस कोस के अंदर ही भाषाओं में कुछ-न-कुछ फर्क हो जाता है। कानपुर और झांसी की सरहदें मिली हुई हैं। केवल एक नदी का अंतर है, लेकिन नदी की उत्तर तरफ कानपुर में जो भाषा बोली जाती है, उसमे और नदी की दक्षिण तरफ की भाषा में साफ-साफ फर्क नजर आता है। सिर्फ प्रयाग में कम-से-कम दस तरह की भाषाएँ बोली जाती हैं। लेकिन जैसे-जैसे सभ्यता का विकास होता जाता है, यह स्थानीय भाषाएँ किसी सूबे की भाषा में जा मिलती हैं और सूबे की भाषा एक सार्वदेशिक भाषा का अंग बन जाती है। हिन्दी ही में ब्रजभाषा, बुंदेलखंडी, अवधी, मैथिली, भोजपुरी आदि भिन्न-भिन्न शाखाएँ हैं , लेकिन जैसे छोटी-छोटी धाराओं के मिल जाने से एक बड़ा दरिया बन जाता है, जिसमे मिलकर नदियाँ अपने को खो देती हैं, उसी तरह ये सच्ची प्रांतीय भाषाएँ हिन्दी की मातहत हो गयी हैं और आज उत्तर भारत का एक देहाती भी हिन्दी समझता है और अवसर पड़ने पर बोलता है; लेकिन हमारे मुल्की फैलाव के साथ हमें एक ऐसी भाषा को जरूरत पड़ गयी है, जो सारे हिन्दुस्तान में समझी और बोली जाए, जिसे हम हिन्दी या गुजराती या मराठी या उर्दू न कहकर हिन्दुस्तानी भाषा कह सकें, जिसे हिन्दुस्तान का पढ़ा-बेपढ़ा आदमी उसी तरह समझे या बोले, जैसे हर एक अंग्रेज या जर्मन या फ्रांसीसी फ्रेंच या जर्मन या अंग्रेजी भाषा बोलता और समझता है। हम सूबे की भाषाओं के विरोधी नहीं हैं। आप उनमें जितनी उन्नति कर सकें, करें। लेकिन एक कौमी भाषा का मरकज़ी सहारा लिये बगैर आपके राष्ट्र की जड़ कभी मजबूत नहीं हो सकती। हमें रंज के साथ कहना पड़ता है कि अब तक हमने कौमी भाषा की ओर जितना ध्यान देना चाहिए, उतना नहीं दिया है। हमारे पूज्य नेता सब के सब ऐसी जबान की जरूरत को मानते हैं, लेकिन अभी तक उनका ध्यान खास तौर पर इस विषय की ओर नहीं आया। हम ऐसा राष्ट्र बनाने का स्वप्न देख रहे हे जिसकी बुनियाद इस वक्त सिर्फ अंग्रेजी हुकूमत है। इस बालू की बुनियाद पर हमारी क़ौमियत का मीनार खड़ा किया जा रहा है। और अगर हमने क़ौमियत की सबसे बड़ी शर्तें, यानी कौमी जबान की तरफ से लापरवाही की, तो इसका अर्थ यह होगा कि आपकी कौम को जिंदा रखने के लिए अंग्रेजी की मरकज़ी हुकूमत का कायम रहना लाजिम होगा वरना कोई मिलाने वाली ताकत न होने के कारण हम सब बिखर जायेंगे और प्रांतीयता जोर पकड़कर राष्ट्र का गला घोंट देगी, और जिस बिखरी हुआ दशा में हम अंग्रेजों के आने के पहले थे, उसी में फिर लौट जायेंगे।

इस लापरवाही का खास सबब है – अंग्रेजी जबान का बढ़ता हुआ प्रचार और हममें आत्म-सम्मान की वह कमी, जो गुलामी की शर्म को नहीं महसूस करती। यह दरुस्त है कि आज भारत की दफ्तरी जबान अंग्रेजी है और भारत की जनता पर शासन करने में अंग्रेजों का हाथ बँटाने के लिए हमारा अंग्रेजी जानना जरूरी है। इल्म और हुनर और खयालात में जो इनकलाब होते रहते हैं, उनसे वाकिफ होने के लिए भी अंग्रेजी जबान सीखना लाजिमी हो गया है। जाती शोहरत और तरक्की की सारी कुंजियाँ अंग्रेजी के हाथ में हैं और कोई भी उस खजाने को नाचीज नहीं समझ सकता। दुनिया की तहजीबी या सांस्कृतिक बिरादरी में मिलने के लिए अंग्रेजी ही हमारे लिए एक दरवाजा है और उसकी तरफ से हम आँख नहीं बन्द कर सकते। लेकिन हम दौलत और अख्तियार की दौड़ में, और बेतहाशा दौड़ में कौमी भाषा की जरूरत बिलकुल भूल गये और उस जरूरत की याद कौन दिलाता? आपस में तो अंग्रेजी का व्यवहार था ही, जनता से ज्यादा सरोकार था ही नहीं, और अपनी प्रांतीय भाषा से सारी जरूरत पूरी हो जाती थीं। कौमी भाषा का स्थान अंग्रेजी ने ले लिया और उसी स्थान पर विराजमान है। अंग्रेजी राजनीति का, व्यापार का, साम्राज्यवाद का, हमारे ऊपर जैसा आतंक है, उससे कहीं ज्यादा अंग्रेजी भाषा का है। अंग्रेजी राजनीति से, व्यापर से, साम्राज्यवाद से तो आप बगावत करते हैं, लेकिन अंग्रेजी भाषा को आप गुलामी का तौक की तरह गर्दन में डाले हुए हैं। अंग्रेजी राज्य की जगह आप स्वराज्य चाहते हैं। उनके व्यापार की जगह अपना व्यापार चाहते हैं। लेकिन अंग्रेजी भाषा का सिक्का हमारे दिलों पर बैठ गया है। उसके बगैर हमारा पढ़ा-लिखा समाज अनाथ हो जाएगा। पुराने समय में आर्य और अनार्य का भेद था, आज अंग्रेजीदाँ और गैर अंग्रेजीदाँ का भेद है। अंग्रेजीदाँ आर्य है। उसके हाथ में, अपने स्वामियों की कृपा-दृष्टि की बदौलत, कुछ अख्तियार है, रोब है, सम्मान है। गैर-अंग्रेजीदाँ अनार्य है और उसका काम केवल आर्यों की सेवा-टहल करना है और उनके भोग-विलास और भोजन के लिए सामग्री जुटाना है। यह आर्यवाद बड़ी तेजी से बढ़ रहा है, दिन-दूना रात-चौगुना। अगर सौ दो सौ साल में भी वह सारे भारत में फैल जाता, तो हम कहते बला से, विदेशी जबान है, हमारा काम तो चलता है, लेकिन इधर तो हजार-दो हजार साल में भी उसके जनता में फैलने का इमकान नहीं। दूसरे वह पढ़े-लिखे को जनता से अलग किये चली जा रही है। यहाँ तक कि इनमें एक दीवार खिंच गयी है। साम्राज्यवादी जाति की भाषा में कुछ तो उसके घमंड और दबदबे का असर होना ही चाहिए। हम अंग्रेजी पढ़कर अगर अपने को महकूम जाति का अंग भूलकर हाकिम जाति का अंग समझने लगते हैं, कुछ वही गरूर, कुछ वही अहम्मन्यता, ‘हम चुनीं दीगरे नेस्त’ वाला भाव, बहुतों में कसदन, और थोड़े आदमियों में बेजाने पैदा हो जाता है, तो कोई ताज्जुब नहीं। हिन्दुस्तानी साहबों की अपनी बिरादरी हो गयी है, उनका रहन-सहन, चाल-ढाल, पहनावा, बर्ताव सब साधारण जनता से अलग है, साफ मालूम होता है कि यह कोई नयी उपज है। जो हमारा अंग्रेजी साहब करता है, वही हमारा हिन्दुस्तानी साहब करता है , करने पर मजबूर है। अंग्रेजियत ने उसे हिप्नोटाइज कर दिया है, उसमे बेहद उदारता आ गयी है, छूत-छात से सोलहों आना नफरत हो गयी है, वह अंग्रेजी साहब की मेज का जूठन भी खा लेगा और उसे गुरु का प्रसाद समझ लेगा, लेकिन जनता उसकी उदारता में स्थान नहीं पा सकती, उसे वह काला आदमी समझता है। हाँ, जब कभी अंग्रेजी साहबों से उसे ठोकर मिलती है, तो वह दौड़ा हुआ जनता के पास फरियाद करने जाता है, उसी जनता के पास, जिसे वह काला आदमी और अपना भोग्य समझता है। अगर अंग्रेजी स्वामी उसे नौकरियाँ देता जाए, उसे, उसके लड़कों, पोतों, सबको, तो उसे अपने हिन्दुस्तानी या गुलाम होने का भी कभी ख्याल न आयगा।! मुश्किल तो यही है कि वहाँ भी गुंजाइश नहीं है। ठोकरों पर ठोकरें मिलती हैं, तब यह क्लास देश-भक्त बन जाता है और जनता का वकील और नेता बनकर उसका जोर लेकर अंग्रेज साहब का मुकाबला करना चाहता है। तब उसे ऐसी भाषा की कमी महसूस होती है, जिसके द्वारा वह जनता तक पहुँच सके । कांग्रेस को थोडा बहुत यश मिला. वह जनता को उसी भाषा में अपील करने से मिला। हिन्दुस्तान में इस वक्त करीब चौबीस-पचीस करोड़ आदमी हिन्दुस्तानी भाषा समझ सकते हैं। यह क्या दु:ख की बात नहीं कि वे जो भारतीय जनता की वकालत के दावेदार हैं, वह भाषा न बोल सकें और न समझ सकें, जो पचीस करोड़ की भाषा हैं, और जो थोड़ी सी कोशिश से सारे भारतवर्ष की भाषा में अपनी निपुणता और कुशलता दिखाने का रोग इतना बढ़ा हुआ है कि हमारी कौमी सभाओं में सारी कार्रवाई होती है, अंग्रेजी में भाषण दिये जाते हैं, प्रस्ताव पेश किये जाते हैं, सारी लिखा-पढ़ी अंग्रेजी में होती है, उस संस्था में भी, जो अपने को जनता की संस्था कहती है। यहाँ तक कि सोशलिस्ट और कम्युनिस्ट भी, जो जनता के खासुलखास झंडे बरदार हैं, सभी कार्रवाई अंग्रेजी में करते हैं। जब हमारी कौमी संस्थाओं की यह हालत है, तो हम सरकारी महकमों और यूनिवर्सिटियों से क्या शिकायत करें? मगर सौ वर्ष तक अंग्रेजी पढ़ने- लिखने और बोलने के बाद भी एक हिन्दुस्तानी भी ऐसा नहीं निकला, जिसकी रचना का अंग्रेजी में आदर हो। हम अंग्रेजी भाषा की खैरातखाने के इतने आदी हो गये हैं कि अब हमें हाथ-पाँव हिलाते कष्ट होता है। हमारी मनोवृत्ति कुछ वैसी ही हो गयी है, जैसी अक्सर भिखमंगों को होती है जो इतने आरामतलब हो जाते हैं कि मजदूरी मिलने पर भी नहीं करते। यह ठीक है कि कुदरत अपना काम कर रही है और जनता कौमी भाषा बनाने में लगी हुई है, उसका अंग्रेजी न जानना, कौम की भाषा के लिए अनुकूल जलवायु दे रहा है। इधर सिनेमा के प्रचार ने भी इस समस्या को हल करना शुरू कर दिया है और ज्यादातर फिल्में हिन्दुस्तानी भाषा में ही निकल रही हैं। सभी ऐसी भाषा में बोलना चाहते हैं, जिसे ज्यादा-से-ज्यादा आदमी समझ सकें, लेकिन जब जनता अपने रहनुमाओं को अंग्रेजी में बोलते और लिखते देखती है, तो कौमी भाषा से उसे जो हमदर्दी है, उसमे जोर का धक्का लगता है, उसे कुछ ऐसा खयाल होने लगता है कि कौमी भाषा कोई जरूरी चीज नहीं है। जब उसके नेता, जिनके कदमों के निशान पर वह चलती है, और जो जनता की रुचि बनाते हैं, कौमी भाषा को हकीर समझें – सिवाय इसके कि कभी-कभी श्रीमुख से तारीफ कर दिया करें – तो जनता से यह उम्मीद करना कि वह कौमी भाषा के मुर्दे को पूजती जाएगी, उसे बेवकूफ समझना है। और जनता को आप जो चाहें इल्जाम दे लें, वह बेवकूफ नहीं है। अपनी समझदारी का जो तराजू अपने दिल में बना रखा है, उस पर वह चाहे पूरी न उतरे, लेकिन हम दावे से कह सकते हैं कि कितनी ही बातों में वह आपसे और हमसे कहीं ज्यादा समझदार है। कौमी भाषा के प्रचार का एक बड़ा ज़रिया हमारे अखबार हैं, लेकिन अखबारों की सारी शक्ति नेताओं के भाषणों, व्याख्यानों और बयानों के अनुवाद करने में ही खर्च हो जाती है, और चूँकि शिक्षित समाज ऐसे अखबार खरीदने और पढ़ने में अपनी हतक समझता है, इसलिए ऐसे पत्रों का प्रचार बढ़ने नहीं पाता और आमदनी कम होने के सबब से वे पत्र को मनोरंजन नहीं बना सकते। वाइसराय या गवर्नर अंग्रेजी में बोलें, हमें कोई ऐतराज नहीं। लेकिन अपने ही भाइयों के खयालात तक पहुँचने के लिए हमें अंग्रेजी से अनुवाद करना पड़े, यह हालात भारत जैसे गुलाम देश के सिवा और कहीं नजर नहीं आ सकती। और जबान की गुलामी ही असली गुलामी है। ऐसे भी देश संसार में हैं, जिन्होंने हुक्मराँ जाति की भाषा को अपना लिया लेकिन उन जातियों के पास न अपनी तहजीब या सभ्यता थी, और न अपना कोई इतिहास था, न अपनी कोई भाषा थी। वे उन बच्चों की तरह थे, जो थोड़े ही दिनों में अपनी मातृभाषा भूल जाते हैं और नयी भाषा में बोलने लगते हैं। क्या हमारा शिक्षित भारत वैसा ही बालक है? ऐसा मानने की इच्छा नहीं होती, हालांकि लक्षण सब वही हैं।

सवाल यह होता है कि जिस कौमी भाषा पर इतना जोर दिया जा रहा है उसका रूप क्या है? हमें खेद है कि अभी तक हम उसकी कोई खास सूरत नहीं बना सके हैं, इसलिए कि जो लोग उसका रूप बना सकते थे, वे अंग्रेजी के पुजारी थे और हैं, मगर उसकी कसौटी यही है कि उसे ज्यादा से-ज्यादा आदमी समझ सकें। हमारी कोई सूबे वाली भाषा इस कसौटी पर पूरी नहीं उतरती। सिर्फ हिन्दुस्तानी करती है , क्योंकि मेरे ख्याल में हिन्दी और उर्दू दोनों एक जबान हैं। क्रिया और कर्त्ता, फेल और फाइल, जब एक है, तो उनके एक होने में कोई संदेह नहीं हो सकता। उर्दू वह हिन्दुस्तानी जबान है, जिसमे फारसी-अरबी के लफ्ज ज्यादा हों, उसी तरह हिन्दी वह हिन्दुस्तानी है , जिसमे संस्कृत के शब्द ज्यादा हों। लेकिन जिस तरह अंग्रेजी में चाहे लैटिन या ग्रीक शब्द अधिक हों या एंग्लोसेक्सन, दोनों ही अंग्रेजी हैं, उसी भाँति हिन्दुस्तानी भी अन्य भाषाओं के शब्दों में मिल जाने से कोई भिन्न भाषा नहीं हो सकती। साधारण बातचीत में तो हम हिन्दुस्तानी का व्यवहार करते ही हैं। थोड़ी-सी कोशिश से हम इसका व्यवहार उन सभी कामों में कर सकते हैं, जिनसे जनता का संबंध है। मैं यहाँ एक उर्दू पत्र से दो -एक उदाहरण देकर अपना मतलब साफ कर देना चाहता हूँ –

‘एक जमाना था, जब देहातों में चरखा और चक्की के बगैर कोई घर खाली न था। चक्की-चूल्हे से छुट्टी मिली, तो चरखे पर सूत कात लिया। औरतें चक्की पीसती थीं, इससे उनकी तंदरुस्ती बहुत अच्छी रहती थी, उनके बच्चे मजबूत और जफाकश होते थे। मगर अब तो अंग्रेजी तहजीब और मुआशरत ने सिर्फ शहरों में ही नहीं देहातों में भी कायापलट दी है। हाथ की चक्की के बजाए अब मशीन का पिसा हुआ आटा इस्तेमाल किया जाता है। गांवों में चक्की न रही, तो चक्की पर गीत कौन गाये? जो बहुत गरीब हैं, वे अब भी घर की चक्की का आटा इस्तेमाल करते हैं। चक्की पीसने का वक्त अमूमन रात का तीसरा पहर होता है। सरे शाम ही से पीसने के लिए अनाज रख लिया जाता है और पिछले पहर से उठकर औरतें चक्की पीसने बैठ जाती हैं।’

इस पैराग्राफ को मैं हिन्दुस्तानी का बहुत अच्छा नमूना समझता हूँ, जिसे समझने में किसी भी हिन्दी समझने वाले आदमी को जरा भी मुश्किल न पड़ेगी। अब मैं उर्दू का तीसरा पैरा देता हूँ –

‘उसकी वफा का जज्बा सिर्फ जिंदा हस्तियों के लिए महदूद न था। वह ऐसी परवाना थी, कि न सिर्फ जलती हुई शमा पर निसार होती थी, बल्कि बुझी हुई शमा पर भी खुद को कुरबान कर देती थी। अगर मौत का जालिम हाथ उसके रफ़ीक़ हयात को छीन लेता था तो वह बाकी जिन्दगी उसके नाम और उसकी याद में बसर कर देती थी। एक को कहलाने और एक की हो जाने के बाद फिर दूसरे किसी शख़्स का खयाल भी उसके वफा-परस्त दिल में भूलकर भी न उठता था।

अगर पहले जुमले को हम तरह लिखें [‘वह सिर्फ जिंदा आदमियों के साथ वफा न करती थी], और ‘वफा-परस्त’ की जगह ‘प्रेमी’, ‘रफ़ीक़ हयात` की जगह ‘जीवन साथी’ का व्यवहार करें, तो वह साफ हिन्दुस्तानी बन जायेगी और फिर उसके, समझने में किसी को दिक्कत न होगी। अब मैं एक हिन्दी पत्र से एक पैरा बयान करता हूँ –

‘मशीनों के प्रयोग से आदमियों का बेकार होना और नये-नये आविष्कारों से बेकारी बढ़ना, फिर बाजार की कमी, रही सही कमी को और भी पूरा कर दे है। बेकारी की समस्या को अधिक भयंकर रूप देने के लिए काफी था, लेकिन इसके उपर संसार में हर दसवें साल की जनगणना देखने से मालूम हो रहा है कि जनसंख्या बढ़ती ही जा रही है। पूँजीवादी कुछ लोगों को धनी बनाकर उसके लिए सुख और विलास की नयी-नयी सामग्री जुटा सकता है।’

यह हिन्दी के एक मशहूर और माने हुए विद्वान् की शैली का नमूना है, इसमें प्रयोग, आविष्कार, समस्या यह तीन शब्द ऐसे हैं, जो उर्दूदाँ लोगों को अपरिचित लगेंगे। बाकी सभी भाषाओं के बोलने वालों की समझ में आ सकते हैं। इससे साबत हो रहा है कि हिन्दी या उर्दू में कितने थोड़े रद्दोबदल से उसे हम कौमी भाषा बना सकते हैं। हमें सिर्फ अपने शब्दों का कोष बढ़ाना पड़ेगा और वह भी ज्यादा नहीं, एक दूसरे लेख की शैली का नमूना और लीजिए –

‘अपने साथ रहने वाले नागरिकों के साथ हमारा जो रोज-रोज का संबंध होता है, उसमे क्या आप समझते हैं कि वस्तुतः न्यायकर्ता, जेल के अधिकारी और पुलिस के कारण ही समाज-विरोधी कार्य बढ़ने नहीं पाते? न्यायकर्ता तो सदा ख़ूँख्वार बना रहता हैं, क्योंकि वह कानून का पागल है। अभियोग लगाने वाला, पुलिस को खबर देने वाला, पुलिस का गुप्तचर, तथा इसी श्रेणी के और लोग जो अदालतों के इर्द गिर्द मँडराया करते हैं और किसी प्रकार अपने पेट पालते हैं, क्या यह लोग व्यापक रूप से समाज में दुर्नीति का प्रचार नहीं करते? मामलों-मुकदमों की रिपोर्ट पढ़िये पर्दे के अंदर नजर डालिये, अपनी विश्लेषक बुद्धि को अदालतों के बाहरी भाग तक ही परिमित न रखकर भीतर ले जाइये, तब आपको जो कुछ मालूम होगा, उसमे आपका सिर बिल्कुल भन्ना उठेगा।’

यहाँ अगर हम ‘समाज विरोधी’ की जगह ‘समाज को नुकसान पहुँचाने वाले’ ‘अभियोग’ की जगह ‘जुर्म’, ‘गुप्तचर’ की जगह ‘मुखबिर’, ‘श्रेणी’ की जगह ‘दरजा’, ‘दुर्नीत’ की जगह ‘बुराई’ ‘विश्लेषक बुद्धि’ की जगह ‘परख’, ’परिमित’ की जगह ‘बन्द’ लिखें, तो वह सरल और सुबोध हो जाती है और हम उसे हिन्दुस्तानी कर सकते हैं।

इन उदाहरणों या मिसालों से जाहिर है कि हिन्दी-कोष में उर्दू के और उर्दू कोष में हिन्दी के शब्द बढ़ाने से काम चल सकता है। यह भी निवेदन कर देना चाहता हूँ कि थोड़े दिन पहले फारसी और उर्दू के दरबारी भाषा होने के सबब से फारसी के शब्द जितना रिवाज पा गए हैं उतना संस्कृत के शब्द नहीं। संस्कृत शब्दों के उच्चारण में जो कठिनाई होती है, उसको हिन्दी के विद्वानों ने पहले ही देख लिया और उन्होंने हजारों संस्कृत शब्दों को इस तरह बदल दिया कि वह आसानी से बोले जा सकें । ब्रजभाषा और अवधी में इसकी बहुत सी मिसालें मिलती हैं, जिन्हें यहाँ लाकर मैं आपका समय नहीं खराब करना चाहता। इसलिए कौमी भाषा में उसका वही रूप रखना पड़ेगा, और संस्कृत शब्दों की जगह, जिन्हें सर्व-साधारण नहीं समझते ऐसे फारसी शब्द रखने पड़ेंगे, जो विदेशी होकर भी इतने आम हो गए हैं कि उसको समझने में जनता को कोई दिक्कत नहीं होती। ‘अभियोग’ का अर्थ वही समझ सकता है, जिसने संस्कृत पढ़ी हो। जुर्म का मतलब बेपढ़े भी समझते हैं। ‘गुप्तचर’ की जगह ’मुखबिर’, ‘दुर्नीति’ की जगह ‘बुराई’ ज्यादा सरल शब्द है। शुद्ध हिन्दी के भक्तों को मेरे इस बयान से मतभेद हो सकता है। लेकिन अगर हम ऐसी कौमी जबान चाहते हैं, जिसे ज्यादा-से-ज्यादा आदमी समझ सकें, तो हमारे लिए दूसरा रास्ता तहीं है , और यह कौन नहीं चाहता कि उसकी बात ज्यादा-से ज्यादा लोग समझें, ज्यादा से-ज्यादा आदमियों के साथ उसका आत्मिक संबंध हो। हिन्दी में एक फरीक ऐसा है, जो यह कहता है कि चूँकि हिन्दुस्तान की सभी सूबे वाली भाषाएँ संस्कृत से निकली हैं और उनमें संस्कृत के शब्द अधिक हैं इसलिए हिन्दी में हमें अधिक-से-अधिक संस्कृत के शब्द लाने चाहिएँ, ताकि अन्य प्रांतों के लोग उसे आसानी से समझें। उर्दू की मिलावट करने से हिन्दी का कोई फायदा नहीं। उन मित्रों को मैं यही जवाब देना चाहता हूँ कि ऐसा करने से दूसरे सूबों के लोग चाहे आपकी भाषा समझ लें , लेकिन खुद हिन्दी बोलने वाले न समझेंगे। क्योंकि, साधारण हिन्दी बोलने वाले आदमी शुद्ध संस्कृत शब्दों का जितना व्यवहार करता है, उससे कहीं ज्यादा फारसी शब्दों का। हम इस सत्य की ओर से आँखें नहीं बन्द कर सकते और फिर इसकी जरूरत ही क्या है, कि हम भाषा को पवित्रता की धुन में तोड़-मरोड़ डालें। यह जरूर सच है कि बोलने की भाषा में और लिखने की भाषा में कुछ-न-कुछ अंतर होता है, लेकिन लिखित भाषा सदैव बोल-चाल की भाषा से मिलते- जुलते रहने की कोशिश किया करती है। लिखित भाषा की खूबी यही है कि वह बोलचाल की भाषा से मिले। इस आदर्श से वह जितनी ही दूर जाती है , उतनी ही अस्वाभाविक हो जाती है। बोलचाल की भाषा भी अक्सर परिस्थिति अनुसार बदलती रहती है। विद्वानों के समाज में जो भाषा बोली जाती है, वह बाजार की भाषा से अलग होती है। शिष्ट भाषा की कुछ-न-कुछ मर्यादा तो होनी ही चाहिए, लेकिन इतनी नहीं कि उससे भाषा के प्रचार में बाधा पड़े। फारसी शब्दों में शीन काफ की बड़ी कैद है, लेकिन कौमी भाषा में यह कैद ढीली करनी पड़ेगी। पंजाब के बड़े-बड़े विद्वान भी ‘क़’ की जगह ‘क’ ही का व्यवहार करते हैं। मेरे खयाल में तो भाषा के लिए सबसे महत्त्व की चीज है कि उसे ज्यादा-से-ज्यादा आदमी चाहे वे किसी प्रांत के रहने वाले हों, समझें, बोले और लिखें।। ऐसी भाषा पंडिताऊ होगी और न मौलवियों की। उसका स्थान इन दोनों के बीच में है। यह जाहिर है कि अभी इस तरह की भाषा में इबारत की चुस्ती ओर शब्दों के विकास की बहुत थोड़ी गुंजाइश है। और जिसे हिन्दी या उर्दू पर अधिकार है, उसके लिए चुस्त और सजीली भाषा लिखने का लालच बड़ा जोरदार होता है। लेखक केवल अपने मन का भाव नहीं प्रकट करना चाहता, बल्कि उसे बना संवारकर रखना चाहता है। बल्कि यों कहना चाहिए कि वह लिखता है रसिकों के लिए, साधारण जनता के लिए नहीं। उसी तरह, जैसे कलावंत राग-रागिनियाँ गाते समय केवल संगीत के आचार्यों ही से दाद चाहता है, सुनने वालों में कितने अनाड़ी बैठे हैं, इसकी उसे कुछ भी परवाह नहीं होती। अगर हमें राष्ट्रभाषा का प्रचार करना है, तो हमें इस लालच को दबाना पड़ेगा। हमें इबारत की चुस्ती पर नहीं, अपनी भाषा को सलीस बनाने पर खासतौर से ध्यान रखना होगा। उसे वक्त ऐसी भाषा कानों और आँखों को खटके जरूर, कहीं गंगामदार का जोड़ नजर आयगा, कहीं एक उर्दू शब्द हिन्दी के बीच में इस तरह डटा हुआ मालूम होगा, जैस कौओं के बीच में हंस आ गया हो। कहीं उर्दू के बीच में हिन्दी शब्द हलुए में नमक के डले की तरह मजा बिगाड़ देंगे, पंडितजी भी खिलखिलाएँगे और मौलवी साहब भी नाक सिकोड़ेंगे और चारों तरफ से शोर मचेगा कि हमारी भाषा का गला रेता जा रहा है, कुंद छु री से उसे जिबह किया जा रहा है। उर्दू को मिटाने के लिए यह साजिश की गई है, हिन्दी को डुबाने के लिए यह माया रची गई है। लेकिन हमें इन बातों को कलेजा मजबूत करके सहना पड़ेगा। राष्ट्र-भाषा केवल रईसों और अमीरों की भाषा नहीं हो सकती। उसे किसानों और मजदूरों की भी बनना पड़ेगा। जैसे रईसों और अमीरों ही से राष्ट्र नहीं बनता, उसी तरह उनकी गोद में पली हुई भाषा राष्ट्र की भाषा नहीं हो सकती। यह मानते हुए कि सभाओं में बैठकर हम राष्ट्रभाषा की तामीर नहीं कर सकते, राष्ट्रभाषा तो बाजारों और गलियों में बनती है, लेकिन सभाओं में बैठकर हम उसकी चाल को तेज जरूर कर सकते हैं। इधर तो हम राष्ट्र-राष्ट्र का गुल मचाते हैं, उधर अपनी अपनी जबानों के दरवाजों पर संगीनें लिए खड़े रहते हैं कि कोई उसकी तरफ आँख न उठा सके । हिन्दी में हम उर्दू शब्दों को बिना तकल्लुफ स्थान देते हैं , लेकिन उनके लेखक संस्कृत के मामूली शब्दों को भी अंदर नहीं आने देते। वह चुन-चुनकर हिन्दी की तरह फारसी और अरबी के शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। जरा-जरा में मुजक्कर और मुअन्नज के भेद पर तूफान मच जाया करता है। उर्दू जबान सिरात का पुल बनकर रह गई है, जिससे जरा इधर-उधर हुए और जहन्नुम में पहुँचे। जहाँ राष्ट्रभाषा के प्रचार करने का प्रयत्न हो रहा है, वहाँ सबसे बड़ी दिक्कत इस लिंग भेद के कारण पैदा हो रही है। हमें उर्दू के मौलवियों और हिन्दी के पंडितों से उम्मीद नहीं कि वे इन फंदों में कुछ को नर्म करेंगे। यह काम हिन्दुस्तानी भाषा को होगा कि वह जहाँ तक हो सके, निरर्थक, कैदों से आजाद हो। आँख क्यों स्त्रीलिंग है और कान क्यों पुल्लिंग है, इसका कोई संतोष के लायक जवाब नहीं दिया जा सकता।

मेरी समझ में यह बात नहीं आती कि जो संस्था जनता की भाषा का बायकाट करती है, उस पर दूर ही से लाठी लेकर उठती है , वह राष्ट्रीय संस्था किस लिहाज से है और जो लोग जनता की भाषा नहीं बोल सकते, वह जनता के वकील कैसे बन सकते हैं, फिर चाहे समाजवाद या समष्टिवाद या किसी और वाद का लेबल लगाकर आयें। संभव है, इस वक्त आपको राष्ट्रभाषा की जरूरत न मालूम होती हो और अंग्रेजी से आपका काम मजे से चल सकता हो, लेकिन अगर आगे चलकर हमें फिर हिन्दुस्तान को घरेलू लड़ाइयों से बचाना है , तो हमें उन सारे नातों को मजबूत बनाना पड़ेगा, जो राष्ट्र के अंग हैं और जिनमे कौमी भाषा का स्थान सबसे ऊँचा नहीं, किसी से कम भी नहीं है। जब तक आप अंग्रेजी को अपनी कौमी भाषा बनाये हुए हैं, तब तक आपकी आजादी की धुन पर किसी को विश्वास नहीं आता! वह भीतर की आत्मा से निकली हुई तहरीक नहीं है, केवल आजादी के शहीद बन जाने की हविस है। यहाँ जय-जय के नारे और फूलों की वर्षा नहीं। लेकिन जो लोग हिन्दुस्तान को एक कौम देखना चाहते हैं – इसलिए नहीं कि वह कौम कमजोर कौमों को दबाकर, भांति-भांति के मायाजाल फैलाकर, रोशनी और ज्ञान फैलाने का ढोंग रचकर, अमीरों का व्यापार बढ़ाए और अपनी ताकत पर घमंड करे, बल्कि इसीलिए कि वह आपस में हमदर्दी, एकता और सद्भाव पैदा करे और हमें इस योग्य बनाए कि हम अपने भाग्य का फैसला अपनी इच्छानुसार कर सकें – उनका यह फर्ज है कि कौमी भाषा के विकास और विचार में वे हर तरह मदद करें। और यहाँ सब हमारे हाथ में है। विद्यालयों में हम कौमी भाषा के दर्जे खोल सकते हैं। हर एक ग्रेजुएट के लिए कौमी भाषा में बोलना और लिखना लाजिमी बना सकते हैं। हम हरेक पत्र में चाहे वह मराठी हो या गुजराती या अंग्रेजी या बंगला, एक-दो कॉलम कौमी भाषा के लिए अलग करा सकते हैं। अपने प्लेटफार्म पर कौमी भाषा का व्यवहार कर सकते है। आपस में कौमी भाषा में बातचीत कर सकते हैं। जब तक मुल्की दिमाग अंग्रेजी की गुलामी में खुश होता रहेगा, उस वक्त तक भारत सच्चे मानी में राष्ट न बन सकेगा। यह भी जाहिर है कि प्रांत या एक भाषा के बोलने वाले कौमी भाषा नहीं बना सकते। कौमी भाषा तो तभी बनेगी, जब सभी प्रांतों के दिमागदार लोग उसमे सहयोग देंगे। संभव है कि दस-पाँच साल भाषा का कोई रूप स्थिर न हो, कोई पूरब जाएँ कोई पश्चिम, लेकिन कुछ दिनों के बाद तूफान शांत हो जाएगा और जहाँ केवल धूल और अंधकार और गुबार था, वहाँ हरा-भरा साफ-सुथरा मैदान निकल आयेगा। जिनके कलम में दो मुर्दा को जिलाने और सोतों को जगाने की ताकत है, वे सब वहाँ विचरते हुए नजर आएँगे। तब हमें टैगोर, मुंशी, देसाई और जोशी की कृतियों से आनंद और लाभ उठाने के लिए मराठी और बंगला या गुजराती न सीखनी पड़ेगी। कौमी भाषा के साथ कौमी साहित्य का उदय होगा और हिन्दुस्तानी भी दूसरी संपन्न और सरसब्ज भाषाओं की मजलिस में बैठेगी। हमारा साहित्य प्रांतीय न होकर कौमी हो जाएगा। इस अंग्रेजी प्रभुत्व की यह बरकत है कि आज एडगर वेलेस, गाई बूथबी जैसे लेखकों से हम जितने मनहूस हैं, उसका शतांश भी अपने शरत् और मुंशी और ‘प्रसाद’ की रचनाओं से नहीं। डॉक्टर टैगोर भी अंग्रेजी न लिखते, तो शायद बंगाली दायरे के बाहर बहुत कम आदमी उनसे वाकिफ होते। मगर कितने खेद की बात हे कि महात्मा गांधी के सिवा किसी भी दिमाग ने कौमी भाषा की जरूरत नहीं समझी और उस पर जोर नहीं दिया। यह काम कौमी सभाओं का हे कि वह कौमी भाषा के प्रचार के लिए इनाम और तमगे दें उसके लिए विद्यालय खोलें, पत्र निकालें और जनता में प्रोपेगेंडा करें। राष्ट के रूप के संगठित हुए बगैर हमारा दुनिया में जिंदा रहना मुश्किल है। यकीन के साथ कुछ नहीं कहा जा सकता कि इस मंजिल पर पहुँचने की शाही सड़क कौन-सी है मगर दूसरी कौमों के साथ कौमी भाषा को देखकर सिद्ध होता है कि क़ौमियत के लिए लाजिमी चीजों में भाषा भी है और जिसे एक राष्ट बनना है, उसे एक कौमी भाषा भी बनानी पड़ेगी। इस हकीकत को मानते हैं, लेकिन सिर्फ खयाल में। उस पर अमल करने का हममें साहस नहीं है। यह काम इतना बड़ा और मार्के का है कि इसके लिए एक ऑल इंडिया संस्था का होना जरूरी है जो इसके महत्त्व को समझती हुई इसके प्रचार के उपाय सोचे और करे।

भाषा और लिपि का संबंध इतना करीबी है कि आप एक को लेकर दूसरे को छोड़ नहीं सकते। संस्कृत से निकली हुई जितनी भाषाएँ हैं, उनको एक लिपि में लिखने में कोई बाधा नहीं है, थोड़ा सा प्रांतीय संकोच चाहे हो। पहले भी स्व. बाबू शारदाचरण मित्र ने एक लिपि विस्तार परिषद बनाई थी और कुछ दिनों तक एक पत्र निकालकर वह आंदोलन चलाते रहे, लेकिन उससे कोई खास फायदा न हुआ केवल लिपि एक हो जाने से भाषाओं का अंतर कम नहीं होता और हिन्दी लिपि में मराठी समझना उतना ही मुश्किल है, जितना मराठी लिपि में। प्रांतीय भाषाओं को हम प्रांतीय लिपियों में लिखते जाएँ, कोई एतराज नहीं; लेकिन हिन्दुस्तानी भाषा के लिए एक लिपि रखना ही सुविधा की बात है, इसलिए नहीं कि हमें हिन्दी लिपि से खास मोह है बल्कि इसलिए कि हिन्दी लिपि का प्रचार बहुत ज्यादा है और उसके सीखने में भी किसी को दिक्कत नहीं हो सकती। लेकिन उर्दू लिपि हिन्दी से बिल्कुल जुदा है और जो लोग उर्दू लिपि के आदी हैं, उन्हें हिन्दी लिपि का व्यवहार करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। अगर जबान एक हो जाएँ तो लिपि का भेद कोई महत्त्व नहीं रखता। अगर उर्दूदाँ आदमी को मालूम हो जाए कि केवल हिन्दी अक्षर सीखकर वह डॉ. टैगोर या महात्मा गांधी के विचारों को पढ़ सकता है, तो वह हिन्दी सीख लेगा। यू. पी. के प्राइमरी स्कूलों में तो दोनों लिपियों की शिक्षा दी जाती है। हर एक बालक उर्दू और हिन्दी की वर्णमाला जानता है। जहाँ तक हिन्दी लिपि पढ़ने की बात है, किसी उर्दूदाँ को ऐतराज न होगा। स्कूल में हफ्ते में एक घंटा दे देने से हिन्दी वालों को उर्दू और उर्दू वालों को हिन्दी लिपि सिखाई जा सकती है। लिखने के विषय में यह प्रश्न इतना सरल नहीं है। उर्दू में स्वर आदि के ऐब होने पर भी उसमे गति का एक ऐसा गुण है कि उर्दू जानने वाले उसे छोड़ नहीं सकते और जिन लोगों का इतिहास और संस्कृति और गौरव उर्दू लिपि में सुरक्षित है, उनसे मौजूदा हालत में उसके छोड़ने की आशा भी नहीं की जा सकती। उर्दूदाँ लोग हिन्दी जितनी आसानी से सीख सकते हैं, इसका लाजिम नतीजा यह होगा कि ज्यादातर लोग लिपि सीख जाएँगे और राष्ट्रभाषा का प्रचार दिन-दिन बढ़ता जाएगा। लिपि का फैसला समय करेगा। जो ज्यादा जानदार है, वह आगे आयेगी। दूसरी पीछे रह जायेगी। लिपि के भेद का विषय छेड़ना घोड़े के आगे गाड़ी को रखना होगा। हमें इस शर्त को मानकर चलना है कि हिन्दी और उर्दू दोनों ही राष्टर-लिपियाँ है और हमें अख्तियार है, हम चाहे जिस लिपि में उसका व्यवहार करें। हमारी सुविधा, हमारी मनोवृत्ति, और हमारे संस्कार इसका फैसला करेंगे।

[राष्ट्रभाषा सम्मेलन, बंबई में 27 अक्टूबर, 1934 को स्वागताध्यक्ष पद से दिया गया भाषण। ‘हंस’, नवम्बर, 1934 ]

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