कथा : विश्वंभरनाथ शर्मा 'कौशिक'
Katha : Vishvambharnath Sharma Kaushik
( १ )
प्रातःकाल के छः बज रहे थे। इसी समय एक प्रौढ़ व्यक्ति जो शरीर का हृष्ट पुष्ट तथा स्वस्थ था गंगा-स्नान के लिए जा रहा था । इस व्यक्ति के हाथ में पीतल का एक छोटा कमण्डलु था, शरीर पर केवल एक रामनामी, बगल में धोती-अंगौछा, नंगे पैर, नंगे सिर !
गङ्गा-तट पर पहुँचकर उसने एक गंगापुत्र के तख्त पर आसन जमाया। गंगापुत्र उसे देखकर बोला—"सदा जय रहे, भागीरथी चोला प्रसन्न रक्खे । ठंडाई बनेगी। दादा ?"
"हाँ बनेगी क्यों नहीं।"
गंगापुत्र ने पुकारा-"अरे मोहना, ओ मोहना।" एक ओर से आवाज आई 'आये।'
"साले का तलुवा नहीं लगता। इधर-उधर घूमा करता है।"
"बच्चा है ! अभी उसकी खेलने खाने की उमर ही है।
"तो दद्द, यहाँ कौन खेत जोतना पड़ता है। खाली तखत पर बैठे रहने का काम है !"
इसी समय मोहन आ गया। १२, १३ बरस की वयस । आते ही पूछा-"का है चाचा ?"
"हैं तुम्हारा सिर ! ससुरा पूछता है, का है। चलो इधर आकर सिल धोओ। लोटा भर लाओ।"
"मसाला है कि मैंगावे?" दादा ने पूछा।
"अाज भर को तो है कल देखा जायगा।"
गंगापुत्र ने झटपट एक थैली से ठंडाई का मसाला तथा भांग निकाली और पीसने का कार्य आरम्भ कर दिया।
"शाम को यहाँ कथा होती है?" दादा ने प्रश्न किया।
"हाँ दद्दू।"
"रामायण की
"हाँ दद्दू।"
"अच्छी कहते है।"
"हाँ अच्छी कहते हैं। हमें तो अच्छी लगती है दूसरे की हम जानते नहीं।"
"भीड़-भाड़ होती है?"
"हाँ! बहुत स्त्री-पुरुष आते हैं।"
"आज हमारी भी इच्छा है कि हम भी सुनें।"
"जरूर सुनो दद्दू! सुनने लायक है।"
"आठ बजे से होती है?"
"हाँ! आठ ही समझो। आठ बजे लग्गा लग जाता है।"
"खतम कब होती है?"
"दस बजे! दो घंटे होती है डट के।"
"आज जरूर आवेंगे।"
"तो ठंडाई भी यहीं आकर छानना। हम बना रक्खेंगे।"
"अच्छी बात है---तब तो सात बजे आ जायेंगे।"
दद्दू ने झट टेंट से एक रुपया निकाल कर गंगापुत्र के सामने फेंका और कहा---"तो सामान मँगा लेना।"
"कौन जल्दी थी---शाम को ले लेते।"
"वह सब ठीक है।"
ठंडाई तैयार होने पर गंगापुत्र ने पहले दद को पिलाई तत्पश्चात् स्वयं पी! जब थोड़ी शेष रह गई तो मोहन को देकर कहा---"ले पी जा।"
मोहन ठण्डाई देखकर बोला---"हूँ! हमारे लिए इत्ती ही।"
"बहुत तो हैं!" गंगापुत्र बोला।
दद्दू बोल उठे---"अभी से ज्यादा भांग मत पिया करो।"
"अरे दद्दू यह साला बड़ा नसेवाज होता जा रहा है।"
"तुम्हीं बनाये दे रहे हो---इसका क्या दोष।"
"हम तो दद्दू इस मारे दे देते हैं कि आत्मा नहीं मानती। हम कोई चीज खायँ---पियें और यह खड़ा मुँह ताके---यह बात आत्मा स्वीकार नहीं करती।"
"नशे की चीज के सम्बन्ध में ऐसा नहीं करना चाहिए।"
"सो दद्दू हम न भी दें तब भी यह साला पियेगा तो जरूर ही। और भांग पीने में हर्ज भी नहीं है। हम भी बचपन से ही पीने लगे थे। भांग से तो हम लोग बच ही नहीं सकते।"
"यह बात दूसरी है!"
"हाँ दद्दू! अपना तो यही शौक है। दोनों समय भाँग छानना। गंगा माता की शरण में पड़े रहना और आप लोगों की जय जयकार मनाना। यही हमारा रोजगार समझो, काम समझो। हमारे बाप-दादा भी यही करते आये और आगे हमारे लड़के भी यही करेंगे। इस मारे भाँग को तो हम रोकते नहीं। हाँ और नशे के हम शत्रु हैं। चरस, अफीम, शराब इनसे दूर रहते हैं। इसके वास्ते भी इन्हीं चीजों की रोक-टोक है। भांँग की रोक-टोक हम लोग नहीं करते।"
"तब ठीक है।"
यह कह कर दद्दू स्नान करने चले गये।
( २ )
संध्या समय दद्दू पुनः गंगा-तट पहुँचे। देखा कि गङ्गापुत्र भाँग पीसने में जुटा है। दद्दू को देखते ही बोला---"आऔ दद्दू! बस तयार ही है---छानना बाकी है।"
"हाँ! हाँ! खूब मजे से छानो, कोई जल्दी नहीं है।"
"बस तैयार है। मोहन जाकर दो पैसे की बरफ तो ला, ले यह पैसे। दद्दू स्नान भी करोगे?"
"हां! इच्छा तो है। शौच भी जायँगे।"
"तो दद्दू उस पार रेती में जाओ।"
"सो तो जायँगे ही।"
थोड़ी देर में भाँग तैयार होगई। दद्दू ने भाँग पीकर एक नाव वाले को पुकारा। उसकी नौका में बैठ कर बीच गङ्गा की रेती में गये।
लोटे में पानी लेकर रेती में चले गये। कुछ दूर निकल जाने पर दद्दू ने कुछ दूरी पर दो मनुष्यों की धुँधली मूर्ति देखी। संध्या का अन्धकार बढ़ रहा था।
शौच से निवृत्त होकर जब दद्दू नौका की ओर लौटें तो वे दोनों मूर्तियाँ भी आगई थीं। उनकी नौका अलग खड़ी थी। उस नौका पर एक वृद्धा स्त्री बैठी हुई थी। दोनों मूर्तियों में एक तो पुरुष था दूसरी स्त्री। पुरुष की वयस चालीस के लगभग थी। स्त्री तरुणी, २५, २६ वर्ष की तथा साधारणतया सुन्दरी थी।
स्त्री वृद्धा के पास नौका में बैठ गई। नौका चल दी। पुरुष रह गया।
दद्दू की ओर बढ़कर उसने पूछा---"यह आपकी नाव है?"
"हाँ कहिये?"
"कुछ नहीं, उस पार जाना था।"
"तो आइये बैठिये---मैं जा रहा हूँ।"
"आपको कोई कष्ट....।"
"अजी साहब---नाव में तमाम जगह है। कष्ट की कौन बात है।"
"धन्यवाद!"
दोनों नौका में बैठकर चले। दद्दू ने पूछा----"आप यहीं रहते हैं।"
"जी नहीं। मैं तो परदेशी हूँ।"
"यहाँ रिश्तेदारी होगी।"
“जी नहीं। मैं कथा-वाचक हूं।"
"अच्छा! आपकी कथा कहाँ होती है?"
"यहीं तो होती है उस पार।"
"रामायण की कथा?"
"जी हां!"
"अच्छा! आप ही कथा कहते हैं मैं आज आपकी कथा सुनने ही आया हूँ।"
"अच्छा! यह मेरा सौभाग्य है।"
"आपकी बड़ी प्रशंसा सुनो इससे उत्सुकता उत्पन्न हुई।"
"हाँ लोग प्रशंसा करते हैं। परन्तु यह उनकी दया है। मुझ में तो कोई ऐसी बात नहीं है। मैं तो केवल रामगुणानुवाद करता हूँ।"
"खैर आपको यही कहना शोभा देता है।"
"आपने बड़ी कृपा की। आज कथा भी बड़ी अच्छी है।"
"आज कौन प्रसंग है?"
"आज फुलवारी का प्रसंग है।"
"वाह! बड़ा सुन्दर है।"
इसी प्रकार की बातें करते हुए दोनों इस पार आये। कथा-वाचक महोदय तो अन्यत्र चले गये । दद्दू पुनः उसी गङ्गापुत्र के तख्त पर आकर बैठ गये।
"अब स्नान कर डालो दद्दू।" गङ्गापुत्र बोला।
"हाँ"
दद्दू इस समय विचार-मग्न थे। कथा-वाचक के साथ वह तरुणी , कौन थी? दोनों अकेले रेती में क्यों गये थे? वृद्धा कौन है ? इत्यादि प्रश्न उनके मन में उठ रहे थे। यह सोचते-सोचते दद्दू ने स्नान किया और पुनः आ तख्त पर बैठ गये। तख्त पर बैठ कर गंगापुत्र से बोले---"यह कथा-वाचक कैसे आदमी हैं?"
"अच्छे हैं दद्दू!"
"चरित्र के भी अच्छे होंगे।"
"अभी तक कोई बात तो सुनने में नहीं आई।"
दद्दू ने सोचा---"संभव है वह तरुणी उनकी पत्नी हो। परन्तु फिर खयाल आया कि यदि पत्नी होती तो उन्हीं के साथ नौका में बैठकर आते। अलग से आने की क्या आवश्यकता थी।"
दद्दू के मन ने कहा---"जरूर दाल में कुछ काला है।"
दद्दू पहले भी अनेक कथावाचकों की कथा सुन चुके थे। उनमें अधिकांश विद्वान तथा चरित्रवान थे। परन्तु इन कथा-वाचक के सम्बन्ध में उनके हृदय में सन्देह उत्पन्न होगया। दद्दू ने सोचा--- "इनका पता लगाना चाहिए कि किस वेश में हैं।"
"अच्छा अब समय तो होगया---कथा आरंभ होने वाली है।"
"हाँ दद्दू! बस चलते ही हैं।"
थोड़ी देर में गङ्गापुत्र दद्दू को लेकर चला।
( ३ )
कथा-स्थान पर पहुँच कर दद्दू ने देखा कि काफी भीड़ जमा है। व्यास गद्दी के निकट स्त्रियों का समूह और उनके पीछे पुरुषों का। दद्दू को देखकर कथा-वाचक महोदय ने उन्हें बुलाकर अपने निकट ही बिठाया। पुरुषों में अनेक दद्दू के परिचित थे। उनसे दद्दू का प्रणाम नमस्कार हुआ
कथा आरम्भ हुई। कथा-वाचक महाशय खींच-तान करके अर्थ समझाने लगे। जनता वाह-वाह करने लगी। दद्दू चुपचाप बैठे सुनते रहे। कथा समाप्त होने पर जब दद्दू चले तो गंगापुत्र ने पूछा---"कैसी रही।"
"ठीक है! भई, अर्थ और व्याख्या करने में खींच-तान बहुत करते हैं।"
"दद्दू यह तो हम जानते नहीं! इतना पढ़े ही नहीं हैं। हमें तो सुनने में अच्छी लगती है।"
"हाँ! खैर तुम उन गूढ़ बातों को नहीं समझ सकते। लेकिन एक बात बताता हूँ।"
"कहिये।"
"कोई न कोई काण्ड होने ही वाला है।"
"काण्ड कैसा दद्दू?"
"बस देख लेना। इतनी बात बता दी है।"
"अरे नहीं दद्दू! काण्ड-वाण्ड कुछ न होगा। हम लोग यहाँ क्या खाली चन्दन घिसने को बैठे हैं। जरा कोई बात देखें तो मारे लाठियों के भुरकुस निकाल दें।"
"तुम्हें पता लगेगा तब तो।"
"हमसे कोई बात नहीं छिप सकती।"
"हमें जो नाव वाला ले गया था उससे पूछना।"
"अच्छा!"
"हाँ!"
"हम अभी बुलाते हैं।"
यह कहकर उसने मोहन से कहा---"जरा शिवनाथ को बुला लेना।"
थोड़ी देर में शिवनाथ आगया। शिवनाथ से दद्दू ने पूछा---"ये औरतें कौन थीं?"
"मैं नहीं जानता सरकार! जयदयाल की नाव पर गयी थीं।"
"अच्छा उसे बुलाओ।"
जयदयाल के पर उससे भी यही प्रश्न किया गया। जयदयाल बोला-"मेरी नाव पर तो आज ही दोनों गयी थीं।"
"कथा-वाचक भी साथ गये थे।"
"नहीं वह दूसरी नाव पर थे।"
"रेती में अकेले दोनों गये थे।'
"साथ तो गये नहीं। पहले कथा-वाचक जी चले गये थे, फिर वह औरत गयी थी। कथावाचक जी रोज जाते हैं।
चार दिन पश्चात् जब दद्दू सबेरे स्नान करने गये तो गंगापुत्र बोला--"दद्दू कल रात तो कथा-वाचक जी पकड़े गये।"
दद्दू किंचित् मुस्कराकर बोले---"अच्छा! क्यों?"
"एक औरत को भगाये लिये जा रहे थे। पहिले तो इधर से नाव द्वारा रेती में गये। रेती पार करके धारा में पहुँचे। वहाँ नाव लगी थी उस पर बैठकर उस पार पहुँचे। बस जैसे ही उस पार पहुँचे---धर लिए गये। जान पड़ता है पहले से ही वहाँ आदमी लगे थे।"
"मैंने कहा था कि कोई काण्ड होने वाला है।'
"हाँ दद्दू आपने तो कहा था।'
दूसरे दिन जब दद्दू स्नान करने गये तो गंगापुत्र बोला---'लाओ दादा तुम्हारे चरण छूलें।
"क्यों-क्यों?"
"हमें सब मालूम हो गया।"
"क्या मालूम हो गया। दद्दू ने पूछा।
"जिन्होंने कथा-वाचक को पकड़ा वह आपके ही आदमी थे।"
दद्दू हँसने लगे।
"खूब ताड़ा दद्दू!"
"यह कथा कैसी रही?"
"बहुत बढ़िया। वह औरत कौन थी।'
"अब इससे तुम्हें क्या मतलब! हमें किसी भले आदमी की बद- नामी नहीं करनी है।"
"कथा का असली पुण्य तो आपने लूटा।"
दद्दू ने हँसकर पूछा----"सो कैसे?
"एक अबला का उद्धार किया, एक भले आदमी की आबरू बचाई।"
"आबरू-बावरू तो खैर क्या बचाई! हाँ भागने नहीं पाई बस इतना ही समझो।"
"यह भी थोड़ी बात नहीं है। क्या पुलीस में दे दिया।'
"नहीं मार-पीट कर छोड़ दिया। पुलीस में देने से सब जगह बात फैल जाती।"
"सुना मार तो ऐसी पड़ी है कि जन्म भर याद रहेगी। कथा-वाचक जी तो भाग ही गये।"
"अब भी क्या रह सकते थे? परन्तु हमारी कथा अच्छी रही।"
'बहुत बढ़िया? आपने तो कथा-वाचक जी की ही कथा बना दी।"
दददू हँसने लगे।