कसौटी पर (निबंध) : महादेवी वर्मा

Kasauti Par (Hindi Nibandh) : Mahadevi Verma

किसी भी विकासोन्मुखी जाति के सिद्धांत और जीवन- आदर्श और आचरण तथा स्वप्न और निर्माण मात्राओं का चाहे जितना न्यूनाधिक्य रहे; परंतु एक दूसरे को निष्क्रिय कर देने वाली विरोधी तत्वों की उपस्थिति संभव नहीं । कारण स्पष्ट है। सृजनात्मक गतिशीलता में यह द्वंद्व, बिंब- प्रतिबिंब रहकर ही पूर्ण हो सकते हैं, परस्पर पूरक होकर ही जीवन का विकास कर सकते हैं। जैसे-जैसे जीवन का परिष्कार होता चलता है, वैसे-वैसे इनकी सापेक्ष स्थिति उत्तरोत्तर परिष्कृत और दृढ़ होती जाती है।

इस सामान्य नियम का व्यतिक्रम वहीं मिलेगा, जहाँ किसी जाति का विकास-क्रम रुक गया है, क्योंकि उस स्थिति में उसके अंतर्जगत् और जीवन के बीच एक ऐसी खाई आ पड़ती है, जो समय के साथ-साथ चौड़ी होती हुई एक को दूसरे से दूर करती रहती है, अंत में मनुष्य अपने मानसिक ऐश्वर्य को शून्य आकाश में तथा बाह्य जीवन के दारिद्र्य को अँधेरे पाताल में बंदी रखने के लिए बाध्य हो जाता है।

एक असभ्य जाति अपने अंतर्जगत् और व्यवहार जगत् में समान रूप से असंस्कृत होगी; परंतु जिस अनुपात से उसका मानसिक विकास होता रहेगा, उसी अनुपात से उसका बाह्य जीवन भी परिष्कृत होता चलेगा। इसके विपरीत ह्रासोन्मुख सभ्यता में मनुष्य का बाह्य जीवन उसके अंतर्जगत् से दूर जा पड़ता है। उसके सिद्धांत, संस्कारमात्र बनकर रह जाते हैं, आदर्श अलंकारों के समान बोझिल निष्क्रियता प्राप्त कर लेते हैं। कल्पना और विचार रूढ़ियों में बँध जाते हैं और उसका संपूर्ण बाह्य जीवन या तो लीक पीटने में सीमित हो जाता है, या सस्ते अवसरवाद में बिखर जाता है। ऐसी स्थिति में किसी प्रकार की भी चेतना पानी के ऊपर तैरती हुई तेल की बूँदों के समान जीवन से भिन्न दिखाई देती रह सकती है; परंतु उसमें घुलकर प्रेरणा बनने की शक्ति नहीं रखती ।

हमारा आज का जीवन भी इस नियम का अपवाद नहीं। एक ही परिधि में हमारे सिद्धांत और धर्म स्वर्ग बसाते रहते हैं और हमारा जीवन नए-नए नरकों की सृष्टि करता रहता है। एक ही क्षितिज-रेखा पर हमारे आदर्श और स्वप्न, किरणों के रंग भरते रहते हैं और हमारा यथार्थ अंधकार के बादल पुंजीभूत करता रहता है। एक ही मंदिर में हमारी भावना और कल्पना अतिमानव में दिव्यता की प्राणप्रतिष्ठा करने में तन्मय रहती है और हमारा आचरण पशुता की मूर्ति गढ़ने में लगा रहता है।

इस प्रकार हमारी शक्तियाँ, न अंतर्जगत् को इतना मूर्त रूप दे सकीं कि हमारे आदर्श जी उठते और न हमारे बाह्य जीवन में इतनी चेतना भर सकीं कि वह अपने नरक से ऊब उठता। हम एक ही जीवन में अनेक परस्पर विरोधी जीवनों का बोझ लादे, अपने ही बनाए को मिटाते और उजाड़े को बसाते न जाने कब से दिग्भ्रांत के समान कहीं न पहुँचने के लिए चल रहे हैं।

शताब्दियों की दासता ने हमारी नैतिकता नष्ट कर दी, यह भी सत्य है और हमारी सक्रिय नैतिकता का अंत हो जाने पर ही, दूसरों की सृजनात्मक शक्ति के सामने हमें नतमस्तक होना पड़ा, यह भी मिथ्या नहीं कहा जा सकता। वास्तव में यह प्रश्न पृथ्वी के समान छोर हीन वृत्त है। चाहे जहाँ से चला जावे, सारी सीमा पार कर फिर वहीं पहुँचना निश्चित है।

जब तक हम स्वप्नों को सत्य करने के लिए गतिशील रहे, आदर्शों को मूर्त रूप देने के लिए कर्मठ रहे और सिद्धांतों का खरापन कसने के लिए उतावले रहे, तब तक व्यावहारिक जीवन का बड़े से बड़ा मूल्य देने को प्रस्तुत रहे, क्योंकि हमारे अंतर्जगत् की साकारता वहीं संभव है। जब हमारे लिए स्वप्न, आदर्श और सिद्धांतों को, एक सुखमय भार के समान ढोना भर शेष रह गया, तब बाह्य जीवन के लिए तुच्छ से तुच्छ मूल्य देना भी हमारे निकट जीवन का असह्य अपव्यय हो उठा।

हमारे ज्ञान-युग के ऐश्वर्य के चरणों से, व्यक्त जीवन का जो दैन्य बँधा है, वह किसी सर्वांग सुंदरी माता की कुरूप और विकलांग संतान के समान भिन्न और विस्मय की वस्तु होकर भी उसी के अस्तित्व से निर्मित है। जब हमने भौतिक जगत् को माया और भ्रांति की संज्ञा देकर अपने अंतर्जगत् से निर्वासित कर दिया, तब उसने हमारे मानसिक वैभव को प्रेत का अशरीरी अस्तित्व देकर मानो अपने प्रतिशोध का ऋण पाई-पाई चुकता कर लिया।

जब किसी जाति की मानसिक स्थिति ऐसी हो जाती है, तब उसे उनके लिए मार्ग छोड़ देना पड़ता है, जो जीवन का अधिक से अधिक मूल्य दे सकते हैं। व्यावहारिक जगत् में हमारा दान जिस परिणाम तक गुरु होता है, आदान उसी परिमाण तक मूल्यवान बन जाता है। दूसरे शब्दों में जो देने की चरम सीमा छू लेता है, वही आदान की असीमता का मापदंड निश्चित करता है ।

जब हम अपने सिद्धांत, आदर्श और स्वप्नों के अभिषेक के लिए हृदय का अंतिम रक्त-बिंदु तक दे सकते थे और भौतिक जीवन के धूल भरे पैरों को दिव्यता के शिखर तक पहुँचाने के लिए अपने मनोजगत् की अमूल्य निधियों को सीढ़ियों में चुन सकते थे, तब अन्य संस्कृतियाँ पर्वत से टकराई लहरों के समान या तो हमसे टकरा टकरा कर लौट गईं, या हमारे चरणों के मूल में टिकी रहीं। पर, जिस दिन उसी दधीचि की धरती पर बैठकर, जिसने दानवी शक्तियों के चुनौती देने पर अपने तपोधन को सुरक्षित रखने वाले शरीर की अस्थियाँ तक दे डालीं, हम अपने बुद्धि-कोष के हीरों मोतियों को गिनने लगे और बाहर फैलते हुए क्रंदन को भ्रांति-भ्रांति कहकर जीवन की करुण पुकार को अनसुनी करने लगे, उसी दिन क्षमाहीन काल ने हमारे विकास के इतिहास को उलटी ओर से लिखना आरंभ किया। और आज तो हम वहाँ पहुँचे हैं, जहाँ से कभी चले थे। अंतर केवल इतना ही है कि तब हमारे पास आत्मविश्वास का संबल था और आज कंधों पर असंख्य भूलों का भार है।

जिस युग में हम एक दूसरे से स्वतंत्र समूहों में सीमित थे, उस युग में जीवन की कसौटी सहज थी और जीवन का मूल्य अल्प था । ज्यों-ज्यों हमारे संपर्क का विस्तार बढ़ता गया, जीवन का मूल्य चढ़ता गया और उसकी कसौटी भी कठिन होती गई। आज जब हम पृथ्वी के एक छोर पर रहकर भी दूसरे छोर से इस प्रकार बँधे हैं कि एक ओर से उठा स्वर दूसरी ओर का राग भी बन सकता है और चीत्कार भी, तब न जीवन का मूल्यांकन सहज है और न कसौटी का एक रूप रह गया है। ऐसी दशा में यदि हम अपनी भूलें न सुधार लेंगे, तो जीवन ही संभव न हो सकेगा। यदि हम शुतुर्मुर्ग के समान मिट्टी में सिर छिपाकर पड़े भी रहें, तो इससे इतना ही लाभ हो सकता है कि बाणों के आने की दिशा न जानें, पर उनके स्थायी लक्ष्य बनते रहें ।

हमारी वर्तमान विकृति में अंधकार जैसी व्यापकता और मृत्यु जैसी एकरसता तो है ही, साथ ही उसकी व्यावहारिकता विभिन्नता में विचित्र एकरूपता भी मिलेगी। जो ग्वाला अठगुना दाम लेकर भी दूध में पानी मिलाए बिना नहीं मानता और अपनी सत्यता प्रमाणित करने के लिए प्रचलित तालिका में से एक भी शपथ नहीं छोड़ता, उसका मिथ्या, मंदिर में देवता के चरणों के पास बैठकर धर्म का व्यापार करने वाले पुजारी के मिथ्यावाद का सहोदर है। दूसरे के अर्थ पर संपाती जैसी तीक्ष्ण दृष्टि रखने वाले पूँजीपति की क्रूरता, उदास साम्योपासक की उस हृदयहीनता की सहचरी है, जो उसे थके घोड़े और टूटे शरीर वाले इक्केवान और आधी रात के समय बरसते पानी में सामान उतारने वाले कुली की मजदूरी में से दो पैसे काट लेने पर बाध्य कर देती है। दुर्बल भिखारी की उपेक्षा कर चीटियों को चीनी आटे पर पालने वाले तिलकधारी जपी में सहानुभूति का जो अभाव है, वही, त्यागी, सुधारवादी को दूसरों की भूख पर अपने स्वार्थ का प्रासाद खड़ा करने की दुर्बलता देता रहता है।

जो विकृत वासना, विलास के कीटों को, जीवन का घुन बना देती है, वही शिक्षित और संभ्रांत वर्ग की दृष्टि में एक अस्वस्थ प्यास बनकर झाँकती रहती है। अनेकों आँखों के सामने तुला से खेल करने वाली वणिक् की उँगलियों में जो बाजीगरी है, उससे वे हाथ भी परिचित नहीं, जो महँगे सस्ते कागज़ पर आश्रित होकर बहुमूल्य और मूल्यहीन लेखनियों को आश्रय देते हैं । यह कथन कटु हो सकता है, पर असत्य नहीं। चाहे हम समाज, राजनीति, धर्म, साहित्य आदि किसी भी क्षेत्र का तत्वतः अध्ययन करें और चाहे अपने अनन्य अध्यात्मवादी से लेकर घोर भौतिकवादी नेताओं के अनुभवों को एकत्र कर लावें, इस सत्य को मिथ्या प्रमाणित करना कठिन ही नहीं असंभव होगा।

हमारी इस मूलगत एकता का कारण है। विकृति विषैली गैस के समान वातावरण में व्याप्त होकर प्रत्येक साँस में समाती रही और इतनी शताब्दियों के उपरांत आज तो वह हमारे जीवन का ऐसा जीर्ण ज्वर बन चुकी है, जिसकी उपस्थिति का बोध हमें अपंग अंगों की शिथिलता में ही होता है। जब गंतव्य पथ पर हमारे पैर कहीं के कहीं पड़ते हैं, तब प्राप्य की ओर हमारे हाथ नहीं बढ़ते और जब लक्ष्य पर हमारी दृष्टि नहीं ठहरती, तब हम इसे अपनी व्याधिजनित असमर्थता न मान कर कहते हैं... मार्ग दुर्गम है, प्राप्य दुर्लभ है और क्षितिज भ्रांत है।

सब जगह हमारा दंभ गहरा है और विवेक उथला है। सर्वत्र हमारी हृदयहीनता स्वभावगत हो गई है और स्वार्थपरता चरित्र में रम रही है। सब स्थितियों में मिथ्या हमारे प्राणों में बस गया है और कपट मज्जागत बन रहा है। सर्वदा हमारे सिद्धांत धरोहर बनकर ही ठहर सकते हैं और परिवर्तन बहुरूपियापन में ही अस्तित्व पाता है। हमारा नैतिक पतन आज उस अजगर के समान हो उठा है, जो सौंदर्य और सत्य की सजीव प्रतिमाओं को भी साँस के साथ खींच कर उदरस्थ कर लेता है और फिर अपने शरीर को तोड़-मोड़ कर उन्हें चूर-चूर बना ऐसी स्थिति में पहुँचा देता है, जिसमें वे उस अजगर के शरीर के अतिरिक्त और कुछ नहीं रहती ।

विकास की पहली आवश्यकता है कि हमारे बौद्धिक ऐश्वर्य, हृदय की प्रेरणा और क्रिया में ऐसा सामंजस्यपूर्ण तारतम्य हो, जो हमारे जीवन के राग को विरोधी स्वरों से बेसुरा न कर सके । वह सक्रियता जो दूसरों के अमूल्य अलंकारों को धरोहर बना कर व्यवसाय करने वाले महाजन में मिलती है, हमें किसी दिशा में भी निर्माण न करने देगी, यह कटु सत्य अनेक बार परीक्षित हो चुका है। हमारे जीवन को पारस होने का वरदान तो अब तक प्राप्त नहीं हो सका, जिससे उसके स्पर्श मात्र से सब कुछ सोना हो जाता; पर भस्मासुर का अभिशाप हर समय उसके साथ है, जिससे वह जब चाहे स्वयं सोने से राख का ढेर बन सकता है।

कोई भी सत्य सिद्धांत, भव्य स्वप्न और पूर्ण आदर्श जीवन से शून्य होकर न कुछ मूल्य रखता है, न किसी रूप में ढलता है और न किसी प्रकार का स्पंदन पाता है। वह तो उसी अंश तक सारवान है, जिस अंश तक जीवन की कसौटी पर परखा जा चुका है।

स्वयं ईसा के अनुयायी ही उनके सिद्धांत की अवहेलना कर रहे हैं। परंतु ऐसी स्थिति में भी कोई उस सिद्धांत को खोटा सिक्का मानने को क्यों प्रस्तुत नहीं है ? केवल इसलिए कि वह ईसा के जीवन पर कसा जाकर खरा उतरा है। स्वयं बुद्ध के उपासक ही उनके आदर्श के विरुद्ध आचरण कर रहे हैं। फिर भी संसार उस आदर्श को भ्रांति की संज्ञा क्यों नहीं देना चाहता ? केवल इसलिए कि वह आदर्श बुद्ध के जीवन में स्पंदित होकर अपने युग की कठिन से कठिन अग्नि परीक्षा पार कर आया है। आज के रक्तपिपासु युग में भी अहिंसा को मृत्युदंड नहीं दिया जा सकता, क्योंकि वह एक साधक की वज्र अस्थियों में पल चुकी है।

जब हम किसी सत्य को भीतर आने वाली साँस में स्वीकार करते हैं और बाहर जाने वाली निश्वास में अस्वीकार कर देते हैं, तब न उसकी कोई कसौटी संभव है और न उसका कोई मूल्य निश्चित हो सकता है। ऐसी दशा में वह केवल हमारा बोझ बढ़ाता रहता है।

अपनी दुर्बलता की बैसाखी बनाने के लिए हमने जो दो आधार ढूँढ़ लिए हैं, वे हमारी असमर्थता के दयनीय विज्ञापन मात्र हैं। एक ओर हम बहुत अलंकृत भाषा और ओज भरे स्वर में संसार को सुनाते रहते हैं कि व्यावहारिक जीवन में काम न आने पर भी हमारे भव्य आदर्श, सुंदर सिद्धांत और सुनहले स्वप्न जीवन की समृद्धि बढ़ाते हैं और दूसरी ओर दबे कंठ और अस्फुट शब्दों में स्वीकार करते रहते हैं कि परिस्थितियों की विषमता ने ही हमें दो भिन्न प्रकार के जीवन वहन करने पर बाध्य कर दिया है।

हमारा बौद्धिक ऐश्वर्य और मानसिक वैभव जीवन का अक्षय वरदान है; परंतु जब हम इसे व्यक्त जगत् की विषमताओं के समर्थन के लिए खड़ा करने लगते हैं, तब यह हमारी असंख्य त्रुटियों और दुर्बलताओं का सफल वकील बनकर ही रह जाता है। फिर उसका समर्थन पाकर हमारे बाह्य जीवन की विषमताएँ अमरबेल के समान फैलने लगती हैं और व्यक्त जगत् की सीमाओं से मुक्त होकर हमारे स्वप्न, आदर्श और सिद्धांत अशरीरी बनते रहते हैं ।

वह सत्य जो हमारे असत्य के समर्थन में काम आता है, मिथ्या से सहस्रगुण अधिक कुत्सित है । उस डाकू की अनैतिकता से, जो केवल पशुता का संबल लिए हुए है, उस सूदखोर महाजन की नैतिकता अधिक भयानक है, जो धर्म के ऊँचे न्यायासन पर बैठकर लुटेरेपन का समर्थन करने का साहस रखती है। नग्न पशुता को मनुष्य के चरम विकास तक पहुँचा देना सहज है; परंतु उस दिव्यता को, जो पशु के लिए आवरण बन चुकी है, बदलना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य होगा ।

इस व्यापक नियम को जाने बिना, हम अपने जीवन को ऐसे दो भिन्न पक्षों में विभाजित कर बैठते हैं, जिनकी संधि यदा-कदा अवसरवाद में ही संभव हो सकती है। जब तक हम इन पक्षों को एक नहीं कर लेते, तब तक हमारी गति कुंठित रहेगी और जब तक हम अपने बाह्य जीवन को अंतर्जगत् का महाभाष्य नहीं बना सकते, तब तक उनकी एकता की कामना दुराशामात्र है । परिस्थितियों का प्रश्न, उनकी विषमता से अधिक हमारी दुर्बलता से संबंध रखता है। युग विशेष में जीवन के पास कितना खरा सोना है, इसकी एकमात्र परीक्षक उस युग की परिस्थितियाँ ही रहेंगी। जो अपने युग का हलाहल पीकर उसे अमृत नहीं बना सकती, उस जाति की मृत्यु तो निश्चित ही है। फिर परिस्थितियों का परिवर्तनमात्र, जीवन में आमूल परिवर्तन लाने में समर्थ नहीं होता, क्योंकि उसके लिए परिस्थितियों की अनुकूलता के साथ ही जीवन का विकासोन्मुख आवेग भी अपेक्षित रहता है । राज्यच्युत होने मात्र से ही कोई सम्राट् त्यागी साधक नहीं बन जाता, क्योंकि उस स्वभाव की प्राप्ति के लिए बाह्य ही नहीं, मानसिक परिवर्तन भी आवश्यक है। कठोर विधानों से घिरे रहने के कारण चोरी करने में असमर्थ व्यक्ति धर्मप्राण संयमी नहीं हो जाता, क्योंकि वह गुण बाह्य बंधनों से अधिक हृदय के परिष्कार पर निर्भर रहेगा ।

व्यष्टि से लेकर समष्टि तक ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं, जब जीवन के प्रवाह ने कण-कण जोड़कर परिस्थितियों के शिलाखंड बनाए और फिर तिल-तिल कर उन्हें बहा दिया ।

सभ्यता में हमसे भी वृद्ध चीन की परिस्थितियाँ पहले नहीं बदलीं; पर जब उसके जीवन की गति प्रखरतम हो उठी, तब युग-युगांतर से पुंजीभूत रूढ़ियों और अन्ध-विश्वासों के बादल फटने लगे और कठोर परिस्थितियों को रोकनेवाला क्षितिज भी मार्ग बनाने लगा। दूसरी ओर जीवन-शक्ति के नितांत अभाव के कारण ही फ्रांसीसी जाति अनुकूल परिस्थितियों में भी विकास पथ पर न बढ़ सकी और अंत में जीवन में सामान्य नियम के अनुसार उसे अतीत युग का संचित गौरव भी हार जाना पड़ा, जो नव-निर्माण की सुदृढ़ नींव बन सकता था ।

पर्वत हट हट कर नदी के लिए राह नहीं बनाते और पृथ्वी विषम भागों को भर-भर कर जल को समतल नहीं देती। उसका प्रवाह ही पर्वतों को चीरता, विषम भू-भागों में अपनी समता की रक्षा करता और कूलों का अटूट-क्रम रचता हुआ अपना पथ और अपनी दिशा बना लेता है। तट पर गूँजते हुए स्तुति के स्वरों से समुद्र पर सेतु नहीं बन सकता; किंतु उसकी रचना उस शक्ति से संभव हो सकी, जिसके इंगित की उपेक्षा न जल की अतल गहराई कर सकती थी और न चट्टानों की गुरुता।

बाह्य जीवन की विषम परिस्थितियों को अपनी बेड़ियाँ बना कर हम विकास पथ पर चल ही नहीं सकते, क्योंकि उस दशा में वे हमारी गति को रुद्ध कर सकती हैं। निर्माण-युग में उनका इतना ही उपयोग है कि वे जीवन के कोमल और उजले स्वर्ण को परखने के लिए काली और कठोर कसौटी बन सकें। यदि हमारे रंग-बिरंगे स्वप्न सुनहले रुपहले आदर्श और रूप-अरूप सिद्धांत इस कसौटी पर नहीं ठहर सकते, तब उनमें खरेपन का अभाव निश्चित है।

पिछले युगों में मनुष्य का मूल्य उसके सिद्धांत की व्यापकता से आँका जाता था; परंतु आज के व्यक्ति प्रधान युग में सिद्धांत की गुरुता मनुष्य के जीवन की गहराई में ही नापी जा सकती है। आज तो प्रत्येक व्यक्ति एक संस्था है। उसकी प्रत्येक साँस जीवित स्वप्न है, उसका प्रत्येक शब्द बोलता आदर्श है और उसका प्रत्येक कार्य साकार सिद्धांत है। ऐसी स्थिति में स्वच्छ आकाश जैसे व्यापक सत्य को चाहे कोई न देखे, पर असत्य के रंगीन बादल सबकी दृष्टि को आकर्षित कर सकते हैं। इस युग में जीवन के साथ हमारा मिथ्याचार कितनी व्यापकता के साथ भयानक हो सकता है, इसकी यदि एक बार हम कल्पना कर सकें, तो हमारे निर्माण के अनेक प्रश्न सुलझ जावें ।

('क्षणदा' से)

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