करुणा का सन्देशवाहक (निबंध) : महादेवी वर्मा

Karuna Ka Sandeshvahak (Hindi Nibandh) : Mahadevi Verma

पराजय के क्षणों में यदि अपना मूल्य बढ़ाने के लिए दूसरे का मूल्य घटा देने की दुर्बलता हममें न उत्पन्न हो गयी होती तो बुद्ध और उनके सिद्धान्तों से अनुप्राणि संस्कृति को, इतने घने कुहरे ने न ढक लिया होता । साधारणतः बुद्ध का स्मरण होते ही हमारे सामने नारी जैसा करुण, कोमल, डबडबाये नेत्रोंवाला एक निष्फल भावुक स्वप्नदर्शी आ जाता है। कहना व्यर्थ है कि यह चित्र वास्तविक बुद्ध कोई साम्य नहीं रखता।

यह सत्य है कि उनके प्रवचन तक बहुत समय के उपरान्त लिपिबद्ध हो सके, परन्तु बौद्ध-साहित्य में जो कुछ प्रामाणिक सिद्ध हो चुका है वह भी और जिसमें कल्पना का अंश अधिक है वह भी, बुद्ध के पर्वत जैसे व्यक्तित्व का ही आभास देता है, जिससे टकराकर एक दिन गतिहीन भारतीय संस्कृति शत-शत धाराओं में फूटकर बह चली थी ।

जब हम अपने सामने ऐसे कर्मनिष्ठ तत्त्वान्वेषक को पाते हैं जिसने योग की शाखाओं तथा अन्य विचारधाराओं का अध्ययन किया, पूर्व प्रतिष्ठित हिं धर्म के अनुसार कठिन तप सहा, कहीं शान्ति न पाकर बहुत चिन्तन-मनन के उपरान्त एक सहज मानव धर्म खोज निकाला, एकान्त से भीड़ में लौटकर प्रचलित रूढ़ियों, परम्पराओं और विश्वासों के विरुद्ध विजय यात्रा की और जीवन के सन्ध्याकाल में एक दिन अस्वस्थ शरीर से पैदल यात्रा करते-करते थककर मार्ग के एक ओर शाल वृक्षों के नीचे लेटकर दूसरी महायात्रा आरम्भ की, तब हम आँखें मल-मलकर सोचते हैं - यह तो हमारी कल्पना की मूर्ति नहीं, यह तो वह बुद्ध नहीं ।

बुद्ध के व्यक्तित्व में दो विशेषताएँ ऐसी हैं जिनका संयोग सहज नहीं - कठोर बुद्धिवाद और कोमल मानवीय तत्त्व। उनके बुद्धवाद के सामने तो आधुनिक वैज्ञानिक युग का बुद्धिवादी भी बड़ा भावुक जान पड़ेगा। आज का बुद्धिवादी अध्यात्म की उपेक्षा करके भी अपने अहम् की पूजा-अर्चा में आस्तिक भक्त बन जाता है।

बुद्ध तो बुद्धि के सम्बन्ध में अहंकार शून्य विशुद्ध तार्किक हैं। जो तर्क से प्रमाणित नहीं किया जा सकता वह उन्हें स्वीकार नहीं। अपनी विशुद्ध बौद्धिकता के बल पर ही वे युगों से बद्धमूल विश्वासों का विरोध करने खड़े हुए और तर्क की सहज स्वाभाविकता के कारण ही हर दिशा में उनकी यात्रा विजय यात्रा ही सिद्ध हुई, पर उनकी असीम शुष्क बौद्धिकता में मानवीय सौहार्द की अति व्याप्ति आश्चर्य का कारण बनती रहती है। प्रायः उग्र बुद्धिवाद मानवीय तत्त्व को ऐसी उपेक्षित स्थिति में पहुँचा देता है कि मनुष्य जीवन का स्पर्श ही भूलने लगता है।

हमारे बुद्धिवाद की सूक्ष्मता में खोये हुए वीतराग दार्शनिक या अविश्वासी पर सुखलिप्सु चार्वाक ही नहीं, आज के विक्षिप्त तर्कवादी भी यही प्रमाणित करेंगे। इसके विपरीत मानवीय तत्त्व की प्रधानता एक प्रकार की भावुकता को विकास देने में समर्थ है, जो विश्वास ही नहीं अन्धविश्वासों के लिए भी द्वार खोल सकती है। मानव-कल्याण भावना पर केन्द्रित अनेक विचारधाराओं की अन्धविश्वासों में परिणति इसी सत्य का उदाहरण है।

बुद्ध विशुद्ध बौद्धिक और सहज मानव हैं, इसी से विद्वानों की परिषदों में उनका जय शंख बजता रहा और साधारण जीवों में उनकी करुणा की रागिनी गूँजती रही :

संसार के धर्म-संस्थापकों की पंक्ति में बुद्ध ही ऐसे अकेले हैं, जिन्होंने मनुष्य के सम्बन्धों में सामंजस्य लाने के लिए परमात्मा की मध्यस्थता नहीं स्वीकार की, मनुष्यता उत्पन्न करने के लिए किसी पारलौकिक अस्तित्व का सहारा नहीं लिया। जिस निर्मम बौद्धिकता के साथ वे अपने वचनों को भी तर्क की कसौटी पर कसकर ही स्वीकार करने के लिए कहते हैं, उसी के साथ वे जीवन के अन्तिम क्षणों में अपने संस्थापित धर्म के लिए कोई उत्तराधिकारी नहीं चुनते। उलटे अपने योग्य और प्रिय शिष्य से कह देते हैं- 'गुरु नहीं रहा यह न समझना आनन्द ! मेरे द्वारा जो धर्म विनय उपदिष्ट हुआ है, प्रज्ञप्त हुआ है, मेरे न रहने पर वही तुम्हारा गुरु है।'

अपने अन्तिम आदेश से अधिक उन्हें दूसरों की भ्रान्ति निवारण की चिन्ता है - 'भिक्षुओ ! बुद्ध धर्म-संघ में एक भिक्षु को भी शंका हो तो पूछ लो ।' पर यह बौद्धिकता उनकी सहज करुणा से आर्द्र है। इसी से जिसके यहाँ भोजन कर उन्हें प्राणान्तक व्याधि मिली उसके दुःख की चिन्ता है - 'आनन्द ! चुन्द कर्मारपुत्र के इस शोक को दूर करना, कहना-आवुस! लाभ है तुझे, तूने सुलाभ कमाया जो तथागत तेरे पिण्डपात का भोजन कर परिनिर्वाण को प्राप्त हुए।'

विशुद्ध तार्किकता और पूर्ण मानवता के अतिरिक्त उनकी दूरदर्शिता और संगठन-शक्ति भी विस्मित कर देनेवाली है, क्योंकि एक हमें निपुण नीतिज्ञ और दूसरी अनुभवी सेनानी का स्मरण दिलाती है।

ब्राह्मण-धर्म विद्वत्परिषदों और क्लिष्ट संस्कृत ग्रन्थों में सीमित होता जा रहा था। उसके विरोध में बुद्ध ने जिन अस्त्रों का प्रयोग किया वे उसके लिए अतर्कनीय थे। संस्कृत वाणी का स्थान साधारण जनता की भाषा को और विद्वानों का स्थान, प्रत्येक मनुष्य को देकर उन्होंने संघर्षों से पहले ही जय पा ली।

बौद्ध-धर्म के प्रसार का बहुत कुछ श्रेय उनकी संगठन-शक्ति को दिया जाना चाहिए। बौद्ध-संस्कृति के बुद्ध, धर्म, संघ तीन स्तम्भ हैं जिनमें पहला बुद्ध द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों से सम्बन्ध रखता है, दूसरा उनके द्वारा निश्चित नैतिक आचरण से और तीसरा सिद्धान्त और धर्म के प्रसारार्थ संगठन से सिद्धान्तों के सम्बन्ध में शुद्ध तार्किक दृष्टिकोण रखकर आचरण के सम्बन्ध में सहज व्यावहारिकता का ध्यान रखकर और संघ के सम्बन्ध में सद्भाव मूलक नियन्त्रण रखकर उन्होंने अपने निर्माण को गहराई और ऊँचाई दोनों ही दी थीं। 'हम वीर हैं, दुःख शमन के लिए वीर हैं' अंगुत्तर निकाय का यह वाक्य उनके लिए जितना सत्य है उतना और किसी के लिए नहीं। उनकी विजय मनुष्यता की देवत्व पर विजय है। विडम्बना यह है कि ऐसे पूर्ण मनुष्य को मनुष्य ने फिर देवताओं में निर्वासन दे डाला।

भारतीय विचार -परम्परा से बुद्ध की विचारधारा कोई साम्य नहीं रखती, ऐसी भ्रान्त धारणा का अभाव नहीं। यह सत्य है कि बुद्ध अपनी दिशा में मौलिक हैं। परन्तु तत्कालीन वातावरण से उनका सम्बन्ध नहीं, ऐसी कल्पना से न बुद्ध की विचारधारा का महत्त्व बढ़ता है, न हमारे चिन्तन की विविधता का । सम्भवतः बौद्ध-धर्म के अपनी ही जन्मभूमि से निर्वासित हो जाने पर उसके मूल सिद्धान्तों के सम्बन्ध में हमारे अज्ञान ने ही एक प्रकार के विश्वास का स्थान ले लिया हो । उसके अनेक सिद्धान्त हमारे जीवन में नित्य प्रयुक्त होते रहे, उसके कला-शिल्प आदि के आदर्श हमारे साथ चलते रहे, पर हमने उस धर्म को अपने से दूर ही माना। अवश्य ही इस धारणा ने हमारी सांस्कृतिक चेतना की एक महत्त्वपूर्ण धारा को उसकी मूल धारा से भिन्न स्थिति देकर हमें कुछ दरिद्र ही बनाया। उस विचारधारा के प्रति हमारा समन्वयात्मक दृष्टिकोण रहा अवश्य; पर उस समन्वय के प्रति हम जागरूक नहीं रहे। इसी से अन्तर ज्यों-का-त्यों बना रहा।

वास्तव में बुद्ध के समय तक उपनिषदों में मिलनेवाली चिन्तन-प्रणालियाँ बहुत विकसित हो चुकी थीं। और तत्कालीन विचार स्वातन्त्र्य के कारण उनकी विविधता उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही थी। सम्भवतः बढ़ते हुए आत्मवाद ने मनुष्य को इतना अन्तर्मुखी बना दिया कि बाह्य जीवन की समस्या का कोई समाधान खोजना अनिवार्य हो उठा। इस चिन्तन की विविधता के साथ-साथ जैन तीर्थंकरों का अहिंसा-धर्म भी विस्तार पा रहा था। बुद्ध ने आत्मवाद को और उलझानेवाला तत्त्व समझकर और जैन धर्म की नकारात्मक आस्तिकता और शरीर-संयम की प्रधानता में बौद्धिकता का विकास न देख कर वह मार्ग ग्रहण किया, जो उनके विचार में अधिक बौद्धिक और अधिक व्यावहारिक था।

संसार की नित्यता, अनित्यता आदि से संबंध रखने वाले प्रश्नों के उत्तर में या वे मौन ही रहे या किसी सहज रूपक द्वारा समझाते हुए प्रश्नकर्ता को उसके प्रश्न की व्यर्थता तक पहुँचा आए । उनके निकट चार आर्य सत्य हैं। दुःख, दुःख समुदाय (कारण), दुःख निरोध और दुःख निरोधगामिनी प्रति-पदा । यह दुःख न किसी अध्यात्मिक जगत् का दुःख है और न सूक्ष्म दार्शनिक जगत् के असंतोष का पर्याय है, प्रत्युत् प्रत्यक्ष जीवन का दुःख है ।

'क्या है आवुसो दुःख ? जन्म भी दुःख है, जरा भी दुःख है, व्याधि भी दुःख है, मृत्यु भी दुःख है, शोकक्रंदन भी दुःख है, मनस्ताप भी दुःख है, चिंता भी दुःख है, किसी चीज की इच्छा करके न पाना भी दुःख है। क्या है आबुसो दुःख निरोध ? जो उस तृष्णा का त्याग, विराग, निरोध, मुक्ति, नालय है वह कहा जाता है दुःख निरोध। क्या है आबुसो दुःख निरोधगामिनी प्रतिपदा ? यह अष्टांगिक मार्ग है, सम्यग् दृष्टि, सम्यग् संकल्प, सम्यग् वचन, सम्यग् कर्म, सम्यग् आजीव, सम्यग् व्यायाम, सम्यग् समाधि।' (सम्मादिट्ठि सुत्तंत)

उपर्युक्त दुःख के सभी रूप भौतिक जीवन से संबंध रखते हैं और उनसे दूर होने का उपाय आचरण का परिष्कार और चित्त की शुद्धि है ।

बुद्ध होने का प्रयत्न करने वाला बोधिसत्व है और बोधिसत्व के लिए दो गुण आवश्यक होते हैं। महामैत्री और महाकरुणा । महामैत्री उसे अन्य प्राणियों के लाभ के लिए अपना सर्वस्व त्यागने की शक्ति देती है और महाकरुणा के कारण वह सब को दुःख से विमुक्त करने के लिए प्रयत्नशील रहता है।

बुद्ध का निर्वाण भी जीवन के उपरांत कोई स्थिति न होकर जीवन की ही ऐसी स्थिति है, जिसमें तृष्णा के क्षय से दुःख का क्षय हो गया है। पर यह दुःख का क्षय केवल अपने लिए नहीं है, इसी से बोधिचर्यावतार में मिलता है- 'सर्वस्व त्याग में निर्वाण है, मेरा चित्त उस स्थिति के लिए प्रस्तुत है, अतः सब कुछ समर्पण कर देना उचित है। इसे सब को दे देना उचित है।'

मनुष्य के कल्याण-अकल्याण की भावना भी व्यावहारिक है।

'क्या है आवुसो अकुशल ? हिंसा अकुशल है; चोरी अकुशल है, दुराचार अकुशल है, असत्य बोलना अकुशल है, प्रतिहिंसा अकुशल है, झूठी धारणा अकुशल है ।' (मज्झिमनिकाय)

इन कार्यों को न करने से मनुष्य को कुशल की प्राप्ति होती है। इस प्रकार बुद्ध का मनुष्य समष्टि का मनुष्य है और उसका निर्वाण सब की दुःख-मुक्ति में अपनी दुःख - मुक्ति है। इसी से वे दीर्घ निकाय में कहते हैं- 'जैसे समुद्र का जल जहाँ उठाओ वहीं लवण-रस है वैसे ही मेरा धर्म-विनय सब जगह मुक्ति-रस है ।'

बुद्ध की विचारधारा में एक निराश दुःखवाद है - ऐसा आक्षेप भी सुना जाता है।

इस संबंध में यह स्मरण रखना उचित है कि प्रत्येक कल्याण-प्रतिपादक की स्थिति दोहरी होती है । वह अकल्याण की स्थिति को मानता है, अन्यथा कल्याण की चर्चा ही व्यर्थ हो जायगी। इस तरह अकल्याण मूलक दुःख पर केन्द्रित रहने के कारण उसकी दृष्टि दुःखवादिनी रहे, यह स्वाभाविक है । पर यह स्थिति कल्याण में बदल सकती है-इसमें उसका अटूट विश्वास रहता है; अन्यथा उसके प्रयत्न में कोई सार्थकता ही नहीं रहेगी। इस तरह कल्याण पर आश्रित उसका दृष्टिकोण आशावादी ही रहेगा।

समय-समय पर कल्याण की परिभाषा बदलती रही है और उसी के विपरीत तत्व दुःख समझे जाते रहे। जब भौतिक समृद्धि ही कल्याण का पर्याय थी, तब उसे अप्राप्य बताने वाली बाधाएँ ही, दुःख थीं। जब परमतत्व में आत्मतत्व का लीन हो जाना कल्याण माना गया, तब भौतिक जगत् दुःख का कारण बन गया। बुद्ध का मार्ग निवृत्ति का मार्ग है। धन, काम आदि की तृष्णा से ही मनुष्य स्वयं दुःखी होता और दूसरों के दुःख को बढ़ाता है, अतः ऐसी तृष्णा का क्षय ही कल्याण है। यह कल्याण चित्त और आचरण की शुद्धता से प्राप्त हो सकता है। उनकी कल्याण की भावना समष्टिगत है, अतः दुःख की व्यापकता के कोने-कोने का स्पर्श कर उनकी दृष्टि का विषाद भी विशालता पा गया है ।

बुद्ध द्वारा प्रतिपादित, इच्छा के एकांत त्याग पर तत्कालीन धर्म, समाज, जीवन आदि की व्यवस्थाओं का कोई प्रभाव नहीं पड़ा - यह विश्वास करना कठिन है, क्योंकि हमारे यहाँ एकांत स्वार्थ को पराजित करने के लिए ही एकांत त्याग का ब्रह्मास्त्र प्रयोग में आता रहता है। उदाहरण के लिए हम गीता के निष्काम कर्म को ले सकते हैं।

जहाँ तक विचारधारा का प्रश्न है, वह तत्कालीन उपनिषदों में मिलने वाली विचारधारा से इतना साम्य रखती है कि उसे उसी चिंतन प्रणाली का एक रूप मानना उचित होगा। उपनिषदों में किसी विशेष मत या धर्म का प्रतिपादन नहीं किया गया है। वे तो विविध विचारकों के चिंतन की समष्टि मात्र उपस्थित करते हैं। तत्कालीन आत्मवाद में भारतीय बुद्धिवाद अपनी चरम सीमा तक पहुँच चुका था। वह आत्मा जो अहंकार, मनस् और विज्ञान की समष्टि है, आत्मवाद का शुद्ध आत्मन् नहीं और जिस आत्मा को बुद्ध अस्वीकृत करते हैं, वह अहंकार, मनस और विज्ञान की समष्टि है। इस प्रकार एक ही धरातल पर स्वीकृति या अस्वीकृति का प्रश्न नहीं उठता। निर्वाण प्राप्ति के उपरांत की शून्यता और आत्मन् की शून्य व्यापकता विवाद का विषय रहेंगे।

अनेक प्रश्नों के सम्बन्ध में व्यावहारिक धरातल पर बुद्ध मौन हैं और अनेक प्रश्नों के सम्बन्ध में बौद्धिक धरातल पर उपनिषदों के मनीषी 'नहीं जानते, नहीं जानते' पुकार उठते हैं। इन प्रश्नों को छोड़ कर बुद्ध की विचारधारा में बहुत कुछ वही है, जो तत्कालीन विचारों में भी मिलता है । अवश्य ही सब की परिभाषाएँ भिन्न-भिन्न हैं ।

बुद्ध के प्रवचनों में बार-बार आने वाली अविद्या उपनिषदों में भी बार-बार उपस्थित हो जाती है । 'अन्धतमः प्रविशन्ति ये अविद्यामुपासते' जैसे वाक्यों में हम इस अज्ञान ही का संकेत पाते रहते हैं । बुद्ध जिस तृष्णा को दुःख का कारण मानते हैं वह भी काम के रूप में उपनिषद् तथा वेद में अपना परिचय देती रहती है- 'स कामाय जायते, कामो जज्ञे प्रथमः ।'

जहाँ तक शरीर के आयास के विरोध में चित्त-शुद्धि का प्रश्न है, उसे याज्ञवल्क्य विदेह आदि की स्वीकृति मिल चुकी थी। नैतिक आचरण के सम्बन्ध में ब्रह्मचर्य, शम, चित्त का संयमन, यम, इन्द्रियों का निग्रह आदि की भावना भी पर्याप्त विकसित हो चुकी थी । अतः बुद्ध ने उसे अपनी विचारधारा के अनुरूप बनाकर जो संगठित रूप दिया, वह नवीन होने पर भी भारतीय जीवन के लिए परिचित कहा जायगा।

('क्षणदा' से)

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