कर्त्तव्य (कहानी) : कमलेश्वर

Kartavya (Hindi Story) : Kamleshwar

शाही हरम की बेगमों की डोलियाँ बीजापुर से दिल्ली की ओर जा रही थीं : रास्ता बीहड़ और सुनसान था। रास्ते में मराठा महाराज शिवाजी का इलाका तो पड़ता ही था। सेना के अपने दुश्मन और अपनी दक्षता होती है, साथ ही अपनी अपनी नैतिकता भी। यह सही है कि मराठा महाराज शिवाजी और दिल्ली के मुगल शासकों के बीच भयानक शत्रुता थी, परन्तु शत्रुता के चलते, कुछ ऐसे नैतिक नियम भी थे, जिन्हें किसी भी दशा में तोड़ा या मरोड़ा नहीं जा सकता था।

शाही हरम की जो डोलियाँ जा रही थीं, उन्हीं में थी गौहरबानू। उसे देखकर सरदार मीना जी का मन विचलित हो गया। वे उधर बढ़े और जाते हुए काफिले की उस डोली को रोकना ही चाहते थे, जिसमें गौहरबानू बैठी थी कि तभी सैनिक जादव रामचन्द्र ने मीना जी के इरादे को भाँप लिया। उसे लगा कि यह तो मराठा सेना के नैतिक नियमों के विरुद्ध होगा कि मुगल शाही हरम की डोलियों को रोककर किसी स्त्री पर अत्याचार किया जाए।

गौहरबानू मराठा सेना की छावनी देखकर स्वयं सतर्क हो गई थी कि तभी जादव रामचन्द्र अपनी टुकड़ी के सरदार मीना जी के इरादों के प्रतिकार के लिए दौड़ता हुआ गौहरबानू की डोली के पास पहुँचा। गौहरबानू चौकन्नी तो थी ही, उसने अवसर पाते ही रामचन्द्र के पेट में छुरी भोंक दी।
“आह, बहिन ! तुमने मुझे गलत समझा।” पेट के घाव को दबाता हुआ, कराहता जादव रामचन्द्र बोला।
“गलत समझा, सैनिक !” वह बोली।
“हां बहिन...आह...गलत...आह !” वह छटपटाते हुए क्षीण स्वर में बोला-“ हाँ...गलत !”

“दुश्मन सैनिक से हिफाजत की उम्मीद...दुनिया कहती है कि मरते समय इन्सान के ओठों पर सच्चाई रहती है, पर तुम मरते समय भी झूठ बोल रहे हो; तुम नीच हो, काफिर हो" इतना कहकर उसने दूसरी छुरी भी भोंक दी उसके सीने में !

“लेकिन हम काफिरों के छत्रपति का यही आदेश है...बहिन, आह...यही आदेश है, क्या सुना नहीं तुमने ?” कहते-कहते सैनिक कराहा भी और चीखा भी-''मीना जी ! सावधान...इसके तन को हाथ न लगाना, मीना जी ! यह पाप होगा...कर्त्तव्य से विमुख न होओ मीना जी, यह आज्ञा का उल्लंधन होगा...आह...नीच मीना जी, सावधान !” कहते-कहते वह एक बार जैसे-तैसे उठा, अपने घावों को दबाये। उसने एक हाथ से तलवार की मूठ पकड़ी, और वह उस पर वार करना ही चाहता था कि पहले घाव से रक्त का निर्झर फूट पड़ा। वह गिर पड़ा परन्तु फिर चीखा-

“कलंक ! यह कलंक लग गया...तुम, तुम कर्त्तव्य-विमुख हो गए मीना जी !” तभी दूसता घाव भी फूट पड़ा, रुधिर के दो फुहारे फूट पड़े उसकी देह से-लाल-लाल रक्त के ! जो दूर तक पृथ्वी को रंगते गए...वह बड़बड़ाया-'कर्त्तव्य..' और तभी उसका सिर झटके साथ गिर पड़ा एक ओर। उसकी देह निष्प्राण होकर कम्पनरहित पड़ी रह गई !

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बीजापुर पर आक्रमण की तैयारी हो रही थी। एक शिविर में बैठे सामन्त-सेनापति सभी गम्भीर विचार-विमर्श में तल्लीन थे, समय हो रहा था गुप्त सभा का, पास ही एक पर्वत कन्दरा थी। वहाँ प्रकाश दृष्टिगोचर हो रहा था। पास ही जंगली वृक्ष खड़े थे। वनस्पति भी बढ़ रही थी लम्बी-लम्बी। उस गहन, निर्जन वन के मध्य से एक पतली-सी टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडी गई थी दूर तक। और वह जाकर विलीन हो गई थी जंगल के वक्षस्थल में।

सब सचेत बैठे थे। टप...टप...टप...की ध्वनि ने उन्हें आकर्षित किया, धीरे-धीरे अश्व-टापों की ध्वनि निकट आती गई। थोड़ी ही देर में वहाँ अश्व आकर रुक गए। उस वनस्थली में...सेनिक चारों ओर से घेर कर खड़े हो गए। छत्रपति शिवाजी उतरे एक घोड़े से, उतर कर वह गुफा की ओर चल दिए। उनका अनुसरण करते ज्ञात स्थान की ओर सेनापति तथा सैनिक बढ़ चले। भीषण-सी वह गुफा थी। टेढ़ा-मेढ़ा गोल आकार-सा उसका दरवाजा था। पत्थरों की ऊंची-नीची कटानों से पता चलता था कि कितने कठिन हैं वे पत्थर। गुफा के मुख पर एक पत्थर पर बाघ चर्म बिछा हुआ था। उसी पर छत्रपति शिवाजी बैठ गए। सैनिकों का समूह भी अभ्यस्त-सा अर्ध चन्द्राकार में बैठ गया। तब शिवाजी बोले-“वीरों ! आप लोगों की क्‍या इच्छा है ?”
“जो छत्रपति की इच्छा...भवानी की आज्ञा !” मीना जी बोल उठे।
“कदाचित आप सबसे ऐसी ही आशा सदैव रही है, तथा आज भी है, मीना जी !” छत्रपति शिवाजी बोले।
“यह तो प्रत्येक सैनिक का धर्म है, छत्रपति !” जादव रामचन्द्र बोला।
“जादव ! तुमसे भविष्य में बहुत आशाएं हैं। ऐसा ही उत्तर तुम्हें शोभा देता है।”

शिवाजी कहते गए-“अच्छा तो वीरो ! महाराष्ट्रीय सपूतो सँभलो ! अभी तक हमने छोटे-छोटे राज्य ही जीते हैं, परन्तु अब बीजापुर के नवाब मुल्ला अहमद को ठीक करना है। उसके राज्य में पिसती हुई प्रजा को कष्ट से बचाना है। उसका उद्धार करना है। उसके पास अतुल-धनराशि भी है, जो उसने अपनी प्रजा को चूस-चूस और सता-सताकर इकट्ठी की है। उससे हमारे आर्थिक संकट भी यथेष्ट समय के लिए दूर हो जाएँगे तथा बीजापुर की भूमि को भी हम यवनों की दासता से मुक्त कर सकेंगे। वीरो ! तुम माँ के सच्चे सपूत हो। तुम पर देश की कीर्ति अवलम्बित है। तुम पर देश को गर्व है। तुम्हारे उज्ज्वल कार्यों से जननी की ख्याति है। तुम्हारे ही आचरण पर देश का उत्थान-पतन है। वीरो ! यह युद्ध धर्म-युद्ध है ! कर्त्तव्य के समक्ष दूसरे हित को स्थान न देना, इच्छा...मनुष्य को कर्त्तव्य-च्युत करने में कभी नहीं ठिठकती। इच्छा के वशीभूत न होना, वीरो कर्त्तव्य के समक्ष यदि इच्छा को प्रोत्साहन दिया, तो भूल होगी सैनिको ! गुरुतर भूल। इच्छा लिप्त रहने में यदि विरुद्ध फल मिला, तो क्लेश होता है। क्षोभ होता है और वही मनुष्य को उत्साहहीन बनाकर कायर बना देता है। अतः कर्त्तव्य को महत्व देना। कर्त्तव्य करके मिलने वाला सन्तोष हानि में भी सान्त्वना प्रदान करता है। परन्तु इस युद्ध में मैं तुम्हारे साथ न रह पाऊँगा। तुम्हारे साथ तुम्हारे कुशल वीर सेनापति आवाजी सोमदेव होंगे। सहकारी सेनापति वीर-रत्न मीनाजी होंगे। मेरी अन्तिम चेतावनी यही है कि अपने नियमों का पूर्णतः पालन करना । कहीं भी महिलाओं का अनादर न हो। धर्म-स्थलों पर अत्याचार न हो। वीरो ! विजय अपनी है। सदैव यह स्मरण रखना-धर्म है तुम्हारी तलवार की मूंठ। तुम्हारा कर्त्तव्य है, तेज तीखी-तलवार की धार...जिस पर अभी तक चले हो और अब भी उसी पर चलना है !!”

“छत्रपति महाराज शिवाजी की जय !” के घोष से वनस्थली गूंजने लगी। सैनिकों ने अपनी तलवारें माथे से लगाकर नियमों पर चलने का आश्वासन दिया, फिर गूंज उठा घोष-“छत्रपति महाराज शिवाजी की जय '” और शिवाजी अश्व को एड़ लगाकर विलीन हो गए, उस पगडंडी की राह सूने वन में।

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बीजापुर पर आक्रमण हो गया। नवाब की सेना जी खोल कर लड़ी। एक बार तो दूसरा ही दृश्य उपस्थित हो गया था, प्रथम तो नवाब की सेना भी अधिक थी। दूसरे मराठों की सेना ने तीन ओर से आक्रमण किया, अलग-अलग। एक सैनिक दौड़कर वनस्थली में पहुँचा, अपना घोड़ा रोककर आगे बढ़ा, आवाजी सोमदेव बैठे थे। गुफा में सैनिक ने प्रवेश किया। “छत्रपति महाराज शिवाजी की जय” की !
“क्या समाचार है सैनिक ?”
“श्रीमन्त जी ! अधिक सेना की आवश्यकता है, पासा पलटता-सा दीख पड़ता है।'”
“तो मैं अभी प्रबन्ध करता हूँ !”
“श्रीमन्‍त जी सैनिक तो अपने लड़ रहे हैं, परन्तु नवाब की सेना कहीं अधिक है। क्षति भी अपनी अधिक हो रही है।”
“अच्छा, हम प्रबन्ध करते हैं !”

तुरही बज गई। बचे हुए सैनिक वहाँ एकत्र हो गए, तत्काल ही गुफा के सामने। तब आवाजी सोमदेव बोले-“वीरो ! अधिक वीर-पुत्रों की आवश्यकता है। समझ लो, हमें आज इस नवाब की नवाबी और इसका शोषण समाप्त करना है। यह मुगल साम्राज्य का ही एक प्रमुख अंश है। हमें इस मुगल साम्राज्य को इस देश से समूल नष्ट करना है। हमारी लड़ाई मुगलों से नहीं, बल्कि मुगल साम्राज्य से है। जहाँ प्रजा पिसती है, तथा नवाब आनन्द करते हैं। किसी धर्म विशेष अथवा सम्प्रदाय से अपना बैर नहीं। मनुष्य मनुष्य है। चाहे वह किसी भी धर्म का अनुयायी हो हमें आज वीर-सैनिकों की आवश्यकता है। जो प्रत्यावर्तन करना चाहते हों, वे यहीं रहें, समय कठिन है !”
“इस प्रकार हम लोगों का अपमान करने एवं हमारे पुरुषत्व को चुनौती देने का अधिकार आपको भी नहीं, सेनापति !” एक सैनिक बोला।
“सत्य है वीरो ! मेरा आशय अपमान करने का नहीं था। तुम, तुम सब लोग धन्य हो ! एक सैनिक के पास ऐसा ही स्वाभिमान होना चाहिए !”

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और अब युद्ध का पासा पलट चुका था। विजयी मराठी सेना आगे बढ़ रही थी और बीजापुर का नवाब अपने पतन की प्रतीक्षा कर रहा था। उसी भगदड़ में सबसे पहले शाही हरम की महिलाओं को सुरक्षित दिल्ली पहुंचाने का कदम उठाया गया था...

डोलियाँ चली जा रही थीं, रेशमी वस्त्रों से ढँकी। प्रत्येक पालकी के साथ दस-दस यवन सैनिक थे। पालकियों का काफिला बड़ी तेजी से आगे बढ़ा जा रहा था। इतने में घोड़े दौड़ाते हुए कुछ मराठा सैनिकों ने पालकियों के उस काफिले को घेर लिया।
“डोलियाँ रोको !” एक चिल्लाया।

“ये डोलियाँ नहीं रुकेंगी "” एक मुगल सैनिक ने उत्तर देकर अपनी कमर से तलवार खींच ली। सबकी तलवारें आमने-सामने तन गईं...और अब डोलियाँ तलवारों के साये में आगे बढ़ रही थीं।
“तड़...तड़...तड़...” कुछेक डोलियाँ टूट गई। तीन शेष थीं !

“देखते क्‍या हो...इन्हें भी तोड़ो...” तभी सरदार मीनाजी ने आदेश दिया था और जादव रामचन्द्र ने उसका विरोध किया था-“इन डोलियों में स्त्रियाँ हैं मीनाजी !”

“नहीं ! स्त्रियों के वेश में स्त्रियाँ तो हैं, पर इनकी पालकियों में शाही खजाना है वह खजाना जो बीजापुर के नवाब ने शोषण से जमा किया है ! यही साम्राज्यवाद की निशानी है...यह धन लूट लो, इन्हें लूट लो, जो मिले उसे लूट लो ! यही है अपने सेनापति आवाजी सोमदेव का आदेश !'” मीनाजी सरदार ने अपने सैनिकों को आदेश दिया, पर मीनाजी की दृष्टि खजाने पर नहीं, यौवन से भरे खजाने गौहरबानू पर थी...

यही जादव रामचन्द्र ने देखा था और वह जान रहा था कि छत्रपति महाराज के आदेश का उल्लंधन होने वाला है। उसे याद आया, उन्होंने कहा था-“कर्त्तव्य के समक्ष दूसरे हित को स्थान मत देना ? इच्छा...मनुष्य को कर्त्तव्य-च्युत करने में कभी नहीं ठिठकती, इच्छा के वशीभूत न होना वीरो !...तुम्हारे ही आचरण पर देश का उत्थान-पतन है...” और तभी जादव रामचन्द्र ने अपने सरदार मीनाजी की लोलुप इच्छा देखकर उन्हें ललकारा था-

“सरदार ! सावधान...खजाने के नाम पर हम स्त्रियों का अपमान न करें, यही ठीक होगा...खजाना तो बाद में भी बहुत मिल जाएगा पर महिलाओं के अपमान करने का जो कलंक हम पर लग जाएगा, वह जन्म-जन्मान्तरों तक नहीं मिटेगा '...कहते हुए जादव रामचन्द्र गौहरबानू की रक्षा के लिए सरदार मीनाजी के सामने छाती रोपकर खड़ा हो गया था !

परन्तु गौहरबानू ने ही उसे गलत समझा था और पालकी के भीतर से जादव रामचन्द्र पर छुरी से वार करके उसे घायल कर दिया था। उसने गौहरबानू को बताने और मीना जी को समझाने का यत्न भी किया था परन्तु गौहरबानू विश्वास नहीं कर सकी थी और उसने दूसरी घातक छुरी जादव रामचन्द्र की पीठ में भोंक दी थी...

और वह सैनिक अपना कर्त्तव्य पूरा करते हुए वहीं धरती पर निष्प्राण होकर गिर पड़ा था...उसने अपना कर्त्तव्य पूरा कर दिया था।

(मैनपुरी, 1946)

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