Karbala-2 (Hindi Nibandh) : Munshi Premchand
कर्बला-2 (हिन्दी निबंध) : मुंशी प्रेमचंद
मित्रवर श्रीयुत रामचन्द्र टंडन ने मेरे ‘कर्बला’ नामी ड्रामा की आलोचना करते हैं, यह शंका प्रकट की है कि वह नाटक में हिन्दू पात्र क्यों लाए गए। उनका कहना है – ‘हिन्दू पात्रों के समावेश से न हिन्दुओं को प्रसन्नता होगी, न मुसलमानों की तुष्टि इसलिए हिन्दू पात्र न लाए जाते तो कोई हानि न होती।’ यह ड्रामा ऐतिहासिक है और इतिहास से यह पता चलता है कि कर्बला के संग्राम में कुछ हिन्दू योद्धाओं ने भी हजरात हुसैन का पक्ष लेकर प्राणोत्सर्ग किए थे, अतः उन पात्रों का बहिष्कार करना किसी भांति युक्ति संगत न होता। रही यह बात कि उनके समावेश से हिन्दू और मुसलमान, दो में से एक को भी प्रसन्नता न होगी, इसके लिए लेखक क्यों कुसूरवार ठहराया जाए? आज हिन्दू और मुसलमान दोनों जातियों में वैमनस्य है, इसलिए संभव है कि ऐसे मिश्रित दृश्य रुचिकर न हों, लेकिन जरा गौर से देखिए, तो इन दृश्य में ऐसी कोई बात नहीं है, जिस पर किसी हिन्दू या मुसलमान को आपत्ति हो। हिन्दू जाति यदि अपने पुरुखाओं को किसी धर्म-संग्राम में आत्मोत्सर्ग करते हुए देखकर प्रसन्न न हो तो सिवाय इसके और क्या कहा जा सकता है कि हममें वीर पूजा की भावना भी नहीं रही, जो किसी जाति के अध:पतन का अंतिम लक्षण है। जब तक हम अर्जुन, प्रताप, शिवाजी आदि वीरों की पूजा और उनकी कीर्ति पर गर्व करते हैं तब तक हमारे पुनरुद्धार की कुछ आशा हो सकती है। जिस दिन से हम इतने जातिगौरव-शून्य हो जाएँगे कि अपने पूर्वजों की अमरकीर्ति पर आपत्ति करने लगें, उस दिन हमारे लिए कोई आशा न रहेगी। हम तो उस चित्तवृत्ति की कल्पना करने में भी असमर्थ हैं जो हमारे अतीत गौरव की ओर इतनी उदासीन हो। हमारा तो अनुमान है कि हिन्दू इच्छा न रहने पर भी इस बात से प्रसन्न होंगे और उस पर गर्व करेंगे। हाँ, मुसलमानों की तुष्टि के विषय में हम निश्चयात्मक रूप से कुछ नहीं कह सकते। लेकिन चूँकि मुसलमान लेखकों ने यह अन्वेषण किया है और उन्हीं के आधार पर हमने हिन्दू पात्रों का समावेश किया है इसलिए इस विषय में शंका करने के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता कि मुसलमान संतुष्ट होंगे। याद मुसलमानों को एक महान् संकट में आर्यों से सहायता पाने पर खेद होता तो वह इसका उल्लेख ही क्यों करते। आजकल की समुन्नत जातियाँ भी संकट के अवसर पर दी गई सहायता का एहसान मानने में अपमान नहीं समझतीं। फिर कोई कारण नहीं कि मुसलमान क्यों आर्यों की प्राणपण से दी गई सहायता का अनादर करें। हाँ, यदि हिन्दू लोग आज उस एहसान के बल पर मुसलमानों के सामने शेखी बघारने लगें तो संभव है, मुसलमानों के मन में कृतज्ञता की जगह द्वेष का भाव उत्पन्न हों जाए और वे उस घटना को भूल जाने की चेष्टा करन लगें।
समालोचक महोदय को दूसरी शंका यह हुई है कि यदि आर्यों का अरब में जाकर बसना मान लिया जाएँ तो यह क्योंकर हो सकता है कि महाभारत काल से हुसैन के समय तक वे लोग अपने धार्मिक आचार विचार की रक्षा कर सके, कैसे मंदिर बनवा सके, कैसे रियासत बना सके? अतएव उनकी वेष भूषा तथा भाषा भी अरबों ही से मिलनी चाहिए थी। अरब जैसी मूर्ति विध्वंसक जाति के बच में रहकर वे कैसे अपना जातीयता का पालन कर सके?
हमारे मित्र को मालूम होगा कि महाभारत काल में अरब या ईरान आर्यों के लिए कोई अपरिचित स्थान न थे। परस्पर गमनागमन होता रहता था। उस समय मुसलमान धर्म का जन्म न हुआ था और अरब जाति मूर्तिपूजा में रत थी। एक नहीं, अनेक देवता की पूजा होती थी। बहुत संभव है उनकी वेश-भूषा भी आर्यों से मिलती-जुलती रही हो। सिदियन, हूण, कुशन आदि जातियाँ उत्तर-पश्चिम से आकर आर्यों में सम्मिलित हो गईं। इससे प्रकट होता है कि उस समय उनमें और आर्यों में विशेष सादृश्य था। कम-से-कम यह अनुमान किया जा सकता है कि महाभारत काल में प्रतिमा-पूजा का प्रसार न हुआ था और इसका कोई प्रमाण नही कि आर्यों और अरबों में उतनी विभिन्नता न थी जितनी इस समय है। हुसैन के समय तक मुसलमान धर्म का प्रादुर्भाव हुए पचास वर्ष से अधिक न हुए थे। उस वक्त ईरान भी पूर्णरीति से मुसलमान सेनाओं के सामने परास्त न हुआ था। जब हम लोग जानते हैं कि अश्वत्थामा के अरब निवासी वंशज मूर्ति पूजक थे तो मुसलमानों को उनसे ख्वामख्वाह लड़ने का क्या कारण हो सकता था? ऐसी दशा में यदि वे आर्य अपने आचरण का पालन कर सके तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। उनका नामकरण हमने नहीं किया हमने उनके वही नाम लिख दिए हैं, जो हमें इतिहास में मिले। यह इस बात की एक और दलील है कि इतना जमाना गुजरने पर भी जे आर्य वीर अपनी वंश-परंपरा को भूले न थे। जब हम देखते हैं कि पारसी जाति शताब्दियों से भारतवर्ष में रहने पर भी अपने धर्म और आचरण को निभाती चली जाती है, तो आर्यों के विषय में ऐसी शंका करना सर्वथा निर्मूल है।
[‘माधुरी’, जनवरी 1925]