कपड़घर : फणीश्वरनाथ रेणु
Kapadghar : Phanishwar Nath Renu
ग्यारह साल की सरकारी नौकरी से, गत माह मैंने इस्तीफा दे दिया है।
परिस्थिति के चाप से-और स्वेच्छा से भी। सब-डिप्टी मैजिस्ट्रेट होकर बिरनियाँ जिला आया।
ग्यारह साल तक सब-डिप्टी मैजिस्ट्रेट ही रहा। बिरनियाँ में ही रहा । नौकरी से अलग हो गया हूँ। लेकिन, बिरनियाँ से... ?
याद है, ग्यारह साल पहले की बात। जिला मैजिस्ट्रेट साहब ने अपने बँगले पर समझाते हुए कहा था-“मिस्टर अविनाश! दो महीना जीं को कड़ा करके यहाँ का पानी पचाइए। फिर देखिएगा ।...फिर मैं ही पूछूँगा।”
“नहीं सर? इस...इस...यहाँ यदि मैं दो महीना रह गया तो पागल हो जाऊँगा।
“गया शहर के ठीक चौक मुहल्ले में जन्मे-पले लड़के का, इस गँवई-जिले के गँवई-हेडक्वार्टर में जी नहीं लगेगा-जानता हूँ। लेकिन, पागल नहीं हो जाएगा-इतना . विश्वास मुझे है।...और, आप कहते हैं कि आपने साहित्य में एम.ए. किया है?”- साहब ने अच्छा खोंचा दिया।
जिला-मैजिस्ट्रेट साहब का वह खोंचा, काम कर गया ।...मैंने साहित्य में एम.ए किया है। मुझे जंगल, वीरान, मरुभूमि, सरस, नीरस; सभी प्रिय होना चाहिए।
दो महीना नहीं, दो सप्ताह के बाद ही जिला-मैजिस्ट्रेट साहब ने मुझे अपने बँगले पर बुला भेजा। मिलते ही जी का हाल पूछा उन्होंने, मुस्कुराकर। जवाब दिया-ठीक है।
जिला-मैजिस्ट्रेट साहब ने अपनी मुस्कुराहट को समेटते हुए कहा था-मिस्टर अविनाश! आप तो जानते ही हैं कि इस वर्ष, सब मिलाकर तेरह मेलों की व्यवस्था सरकार के हाथ में है। मैंने एक केन्द्रीय कमेटी गठित करने की बात सोची है।
सो, उसी वर्ष पहली बार केन्द्रीय मेला-कमिटी गठित हुई। मुझे सेक्रेटरी बनाकर मेलों की व्यवस्था में लगा दिया, जिला-मैजिस्ट्रेट साहब ने। वे आज सरकार के उच्च अधिकारियों में भी उच्च अधिकारी-पद पर हैं । उनको धन्यवाद! आज उनके प्रति हृदय में श्रद्धा का सागर लहरा रहा है।...जिस दिन, पहली बार बनानीपुर मेला में कैम्प डालने जा रहा था, दास साहब ने मेरे क्वार्टर में अपनी चरणधूलि दी-मेला हाकिम!
दास साहब ने बताया, अभी कमेटी को बने पाँच ही दिन हुए हैं और तुम्हारा नामकरण हो गया। अभी, तुम्हारे पड़ोसी ने कहा-हाँ, इसी क्वार्टर में मेला-हाकिम रहते हैं।
दास साहब ने मरी चाय-यानी, मेरी बनाई हुई चाय की खूब प्रशंसा की थी। बोले थे-कुँवारा आदमी चाय बहुत अच्छी बनाता है, ऐसा देखा गया है। लेकिन, मेले की व्यवस्था और बात है।...इसीलिए, मैं कहने चला आया ।...देखो अविनाश! ये मेले ?
जिला-भर में फैले हुए जमींदारों के इन मेलों की एक परम्परा है। मेला-मालिकों की भी...लेकिन, हम सरकारी-चाकरों के हाथ में पड़कर यह परम्परा...यह धारा...जो भी कह लो-यह विक्रुत न हो जाए! इन मेलों में, देश के प्रसिद्ध पहलवानों के दंगल हुए हैं-देश के प्रसिद्ध संगीतज्ञों की स्वर-लहरी लहराई है-भारत के प्रसिद्ध मे घोड़े दौड़े हैं-हर साल हजारों हाथी-घोड़े बिके हैं-अब हमारे हाथ में, सरकारी चाकरों के हाथ में इस जिले की यह सांस्कृतिक-लगाम है ।...इसलिए, मैं तुमसे कुछ कहने आ गया। डेढ़ घंटे तक दास साहब बोलते रहे!
बनानीपुर मेले में पैर रखते ही सुना-गोलमाल होनेवाला है!
गोलमाल मूर्ति को लेकर होनेवाला है। यह मेला पिछले साल सरकार के हाथ में आया। बनानीपुर-इस्टेट के वंशधरों ने, पिछले साल भी, मेले में असन्तोष का वातावरण फैलाने की चेष्टा की थी। इस. बार उन्हें अच्छा मौका मिला है। मेला के थानेदार साहब ने कहा-हुजूर! आर्म फोर्स के लिए टेलिग्राम लगा दिया जाए!
“लेकिन, मूर्ति में क्या हुआ?” रद ।
दाशेगा साहब ने कहा-लोग कहते हैं-देवीजी की मूर्ति छोटी है। अदूभुत हैं यहाँ के लोग। मूर्ति छोटी हो या बड़ी, है तो देवी की ही! मैंने दारोगा साहब के मन्तव्य पर कान नहीं देने की मुद्रा बनाई। और, दारोगा ने ऐसा भाव प्रदर्शित किया जिसका शाब्दिक अर्थ यही हो सकता है-सीधे कालेज से मेले में हाकिम बनाकर भेजे गए हैं। देखना है, कितने दिनों तक...मैं सीधे मेला-मैनेजर के पास पहुँचा। मेला-मैनेजर जमींदारी-ऑफिस का एक उच्च कर्मचारी है। पिछले साल भी यही कर्मचारी-साहब मैनेजर, मेला के सर्वेसर्वा थे। इस बार, अपने सिर पर एक हाकिम को आते सुनकर तनिक असन्तुष्ट थे। कुछ पूछते ही तुनककर जवाब देते।
“क्यों मैनेजर साहब। मूर्ति छोटी क्यों बनी?”
“हुजूर छोटी नहीं बनेगी तो क्या बनेगी? कुल एक सौ रुपये में पहाड़-जैसी देवी नहीं बनाई जा सकती?” मैनेजर-मेला बोला।
मैं शान्त रहा, हालाँकि मेरे अहं को इस व्यक्ति ने पाँच मिनट में दस बार चोट लगा दी। मैंने धीरे-से पूछा-पिछले साल ढाई-सौ रुपये की मूर्ति बनी थी? जी हॉ- बनी थी...एकाउन्ट सेक्शन से लम्बा चिट्ठा आया कि देवीजी की मूर्ति के लिए ढाई सौ रुपये क्यों खर्च हुए ?
सैंक्शन...देवीजी के भोग के लिए पहले ही सैंक्शन क्यों नहीं लिया गया...वाउचर पर देवीजी का दस्तखत नहीं माँगा रेवेन्यु-टिकट पर-गनीमत!
देखा, मेला-मैनेजर साहब रसदार आदमी हैं। मैं हँस नहीं सका जी खोलकर, क्योंकि देवी मन्दिर के पास 'जै जैकार” के बदले-इनकलाब जिन्दाबाद शुरू हो गया था-नहीं चलेगी, नहीं चलेगी-छोटी मूर्ति नहीं चलेगी। मैंने मैनेजर साहब से कहा- पहली पूजा तो परसों से ही शुरू होगी?...क्या, कहीं कोई मूर्ति...।
मेला-मैनेजर हैंसा-जी खोलकर, बावजूद इसके कि नारे और भी करीब, और भी तेज हो रहे थे। मैनेजर ने ठहाका लगाते हुए कहा-तीन दिन के अन्दर मूर्ति कहाँ से आवेगी, हुजूर ?...गाछ में तो...।
“शट अप! हाकिम होने के बाद, यह पहली बार मैंने अपने मातहत को डॉँटा- देवी-देवता को लेकर मजाक करते हो, शर्म नहीं आती?”
गोलमाल करनेवालों के भी लीडर होते हैं।
लीडर बोला-युग-युगान्तर से इस देवी-मन्दिर में बड़ी मूर्ति बनती आई है। इस बार, छोटी मूर्ति बनाकर हमें फुसलाना चाहती है सरकार! सारे इलाके की जनता का अकल्याण करवाना चाहती है सरकार? मैंने लीडर से कहा-परसों से पूजा शुरू है, क्या तीन दिन में मूर्ति बन सकती है?
कुछ क्षण के लिए सन्नाटा छा गया!
लेकिन,
पुरोहितजी आगे बढ़ आए अपना 'ग्रिवांस' लेकर-हुजूर! हमेशा से पूजा पर चढ़नेवाली 'प्रनामी'-पुरोहित पाता था। इस साल मैनेजर ने कहा है, पाई-पाई सरकार की...।मैंने पंडितजी से प्रार्थना की-पंडितजी!
पहले मूर्ति की बात तय हो ले-तब
प्रनामी-पूजा की बात!...बोलिए, यदि तीन दिन के अन्दर मूर्ति बन सके तो...दो सौ के बदले हम चार सौ देने को तैयार हैं... !भीड़ को चीरकर एक अधेड़, पागल-जैसा आदमी सामने आया-तैयार कर दे सकता हूँ देवीजी की कृपा से...लेकिन, नैन?
नैन कौन देगा ?
अब, सभी की आँखें उस अधेड़ पर मानो गड़ गई-कौन है?...शायद पागल है...भिखमंगा है...यह क्या बतावेगा?
उसके अन्दर में बैठे हुए कलाकार को चोट लगी-नैन माने आँख के बीच काली बिन्दी कौन देगा! मैं नहीं दूँगा। नैन देनेवाला कारीगर तैयार कीजिए । मैं आज से ही, अभी से-मिट्टी और कास-घास के काम में लग जाता हूँ। और, आश्चर्य ! देखते-देखते उस व्यक्ति ने देवी-मन्दिर की अँगनाई में जाकर जै दुर्गा कहा और काम में जुट पड़ा ।...मिट्टी 'सानने” के पहले सूरज की ओर देखकर कुछ बुदबुदाया!
दोनों मूर्तियों की पूजा होगी!...लेकिन, नैन? कौन देगा नैन? मैंने उस व्यक्ति से नाम पूछा तो उसने मुझे घूरते हुए कहा-नाम? नाम और क्या होगा-दुर्गालाल-लेकिन मेरे खानदान में देवी को नैन देने का रिवाज नहीं है। नैने देते ही मैं अन्धा हो जाऊँगा!...
छोटी मूर्ति बनाकर तैयार करनेवाले मूर्तिकारों से पूछा, वे भी नहीं तैयार हुए। उनके दलपति ने कहा-देखिए हुजूर। यह जाति के नियम की बात है।
हम दूसरे कीबनाई हुई मूर्ति में नैन कैसे दे सकते हैं? हम लोगों की जाति के सरगना सुनेंगे तो फिर हुक्का-पानी बन्द हो जाएगा!
जाति के सरगना का अता-पता लिया और मैंने तय किया कि मैं गाँव जाकर खुद उससे मिलूँगा। एक बार, दुर्गलाल का काम देखने गया...वह नशें में चूर व्यक्तियों की तरह बोल रहा धा-आँधी-पानी-झड़ी-झक्खड़-जो भी आवे, दुर्गालाल की माँ को कुछ नहीं कह सकता-जै माँ! आओ माँ!
के सारे मेले में एक अजीब-सा सन्नाटा छा गया। बसता हुआ मेला-जों “अब तक बसें या तोड़ें की अवस्था में पड़ा था' कई दिनों से-बसने लगा, अब ।...मूर्ति देखने के पहले इस मूर्तिकार को देखने के लिए लोग देवी-मन्दिर की ओर दौड़े !...
दारोगा साहब और मेला-मैनेजर साहब को विश्वास नहीं हुआ, किन्तु दारोगा साहब ने मुझे सुनाकर अपने हवलदार से कहा-छबीला सिंह! देवी-मन्दिर की अँगनाई में-दिन-रात एक सिपाही की ड्यूटी लगा दो..!
मेला-मैनेजर ने कहा-हुजूर! इस आदमी से कुछ लिखा-पढ़ी तो हुई नहीं। फिर, इसके खाने-पीने के लिए कितना सैंक्शन...जरूर, दारू माँगेगा!
बाईस माइल कच्ची सड़क और पाँच बरसाती नदियों को पार करने के बाद, हम साढ़े-आठ बजे रात में-दुलारगंज गाँव में पहुँचे।
देखा, सरगना सचमुच सरगना है! बड़ा-सा जमींदार चौखड़ा है। पोखर है, मन्दिर है।
बन्दूक है।
सरगना के दरवाजे पर पंचायत बैठी है! पेट्रोमेक्स जल रहा है।
तालेवर बाबू ने पंचायत के लोगों की ओर मुखातिब होकर कहा-पंचायत की कार्रवाई जारी रहे!...हाकिम साहब निजी काम से आए हैं।
पंचायत में, मुझे ऐसा लगा, असामी हाजिर नहीं है।
जाति का नियम तोड़ा है किसी ने! कौन है वह?-ध्यान से सुनने. पर कानून तोड़नेवाले का नाम ही नहीं-उसकी उम्र का भी पता लग गया। तो, कानून तोड़ने वाले का नाम है बासू और उसकी उम्र सोलह या सत्रह साल की है। क्योंकि तालेवर बाबू कह रहे हैं-देखिए, देख लीजिए सभी जाति भाई-कि किस श्षरह यह कल का छोकरा जाति के नियम को तोड़कर रख दिया है।
यह भी ज्ञात हुआ कि बासू को, अपराधी बनाने में ज्यादा हाथ उसकी बेवा बहन का है, जो उसे 'सहका” रही है। जातिवाले विचार करें-।
तालेवर पंडित ने हमें चाय पिलाते हुए कहा-जातिवाले तो विचार करेंगे ही, हुजूर आ गए हैं इस मौके पर तो, आप भी विचार कीजिए! बासू का कसूर !...बासू का कसूर उतना नहीं है जितना कि उसकी बेवा बड़ी बहन का ।...जाति के मुँह पर झाड़ू मारकर खिलौने बनाता है-मुर्गी-मुर्गा, कबूतर, बेंग और न जाने क्या-क्या... !
तालेवर पंडित ने बताया, उसकी जाति में खिलौने बनाना अपराध है। सिर्फ देवी-देवताओं की मूर्तियाँ बनाती है उसकी जाति।...जाति?
हर जाति में साढ़े तेरह उपजाति हैं और सभी के अपने-अपने रस्म-रिवाज हैं। वह जिस उपजाति का सरगना है-उसके सभी कारीगर तालेवर पंडित के घर को “गुरुस्थान' मानते हैं, पूजा-परबी से लेकर चढ़ीआ तक चढ़ा जाते हैं। हुए मूर्ति बनानेवालें को सालाना एक रुपया, सरगना के नाम सलामी भेजनी होती है। पहल्लों बार मूर्ति गढ़ेवाला एक जोड़ा धोती, एक नारियल, एक सेर सुपारी लेक्रर सरगना के पास आता है-संरगना की आज्ञा पाकर ही मूर्ति गढ़ सकता. है कोई... ।
तालेवर पंडित ने सुनाया कि स्वयं देवी ने अपने मुँह पर मिट्टी साटकर, अपने मुँह का 'साँचा” बना दिया था उसके परदादा को। तभी से, उसके कारीगरों की बनाई : हुई मूर्ति बिना 'प्राणप्रंतिष्ठा” किए ही 'जाग्रत” हो जाती है।...लेकिन, यह हरामजादा छोकरा बासू और उसकी बेवा बंहन आज सरगना की इज्जत लेने पर तुली हुई है!
सब जमाने का फेर है। नहीं तो मारते झाड़ के उसकी ऐंठ...! हाँ, हुजूर ।-सरगना तालेवर पंडित ने पान से सड़े हुए दाँतों को पीसते हुए कहा था-मौरे आर उसे र बसुवा छोकरे की दुर्गत बना डालता और. उसकी बहन का झोंटा' धरकर घसीः घर से निकलवाकर-पंचायत में...।
तालेवर पंडित को मैंने शान्त किया-तालेवर बाबू, गुस्सा करने से काम नहीं चलेगा, कप पक कह तालेवर पंडित सें मैंने अपना दुखड़ा कहा तो वह मौन ही गया। कुछ सोचने के बाद बोला-हुजूर!
काम तो कठिन है। लेकिन, देखा जाएगा। अभी ख़ा-पीकर सोइए। सुबह में कोई 'हीला! निकाला ही जाएगा।...जब आप खुद तकलीफ करके आए हैं तो कुछ-न-कुछ करना ही होगा। लेकिन, मुश्किल है।
आप जरा सुबह उस बासू को बुलाकर डॉट दीजिए तो उसकी बुद्धि ठिकाने पर आजाए। _ ।
सुबह होते ही सरगना साहब ने हमें चाय पिलाकर बासू का घर दिखा दिया। हुजूर! चपरासी भेजकर मँगवाइए न, साले को! आप खुद. क्यों जाइएगा।
लेकिन, मैंने खुद जाना अच्छा समझा। बासू अपने आँगन से निकला । गोरा-गोरा और घुँघराले बालोंवाला नौजवान। मैंने पूछा-तुम्हारा ही नाम बासू है?
बासू ने नम्रतापूर्वक जवाब दिया-जी!
बासू ने बताया कि सरगना कई कारणों से उस पर नाराज है। पहली बात तो यह है कि मैं उनके यहाँ नौकरी को तैयार नहीं हुआ। बाबूजी और माँ के मरने के बाद भी नहीं। फिर, मेरी तीन बीघे पर उनकी नजर है क्योंकि, मेरी इस जमीन में चिकनी मिट्टी है...और तीसरी बात...सरगना मेरी दीदी से “चुमौना' करना चाहता है।...मेरी दीदी बेवा नहीं हुई, घरवाला लापता हो गया, न जाने कहाँ। दस साल हो गए। अब यह सरगना कहता है, वह तो मर गया ।...इसी बीच, गाँव के कई लोग आ गए। मैंने बासू से कहा, क्या मुझे अपने बनाए हुए खिलौने नहीं दिखलाओगे?
बासू जरा हिचकिचाया। फिर वह आँगन के अन्दर चला गया ।...दीदी से बूझ आया, शायद।
चलिए
बासू का पहला खिलौना देखकर ही मैं चकित हो गया-एक हिरण।हू-ब-हू जीवित हिरण ?-कृष्ण नगर की कला यहाँ कैसे आई? बाघ की आँखें चमकती हैं- जीवन्त मूर्तियाँ?
सरगना के नौकर ने कहा-हुजूर, सरगना साहब बुला रहे हैं। हम, बासू के आँगन में से बाहर निकल आए। उन्हें देखते ही मैंने कहा-तालेवर बाबू, जाति का नियम इसने जरूर तोड़ा है। लेकिन, देश का-देश को-। सरगना तालेवर पंडित ने मुँह विकृत करके कहा-हुजूर! कोई आदमी दूसरे कारीगर की मूर्ति में नैन देने को तैयार नहीं। ऐसा काम कोई नहीं करेगा। हजार रुपया देने पर भी नहीं-।
रात में मैंने दुर्गालाल को समझा-बुझाकर थोड़ा खिलाया और अपने ही कैम्प में सुलाया ।...सिर्फ खिलाया ।...सिर्फ खिलाया कहना गलत होगा-पिलाया भी। उसकी आँखें चमक उठी थीं-व्हिस्की की बोतल को देखकर-तो, अंग्रेजी खेला होगा?- खाने-पीने के बाद मैंने उसको टटोलना शुरू किया...तुम तो कारीगर हो! फिर, अपना कारबार क्यों नहीं करते?
दुर्गालाल ने कहा-नैन कौन देगा? मेरे खानदान में नैन देना मना है। जिसके खानदान में नैन देना मना होता है, वह ऐसे घर में शादी करता है जो नैन देते हैं
“तो, तुमने भी शादी क्यों नहीं कर ली?” मैंने पूछ दिया।
“शादी? कौन कहता है शादी नहीं किया ?”
इतना कहने के बाद दुर्गालाल उत्तेजित हो गया। उसने मेरे तम्बू को गौर से देखा-यह तो कपड़घर है? राम-राम! मैं कपड़घर में नहीं सो सकता। छिः-छिः, कपड़घर!
दुर्गालाल देवी-मन्दिर में चला गया।
सुबह हुई और मैं लेटा ही रहा।
अहमद ने सूचना दी-हुजूर! कलक्टर साहब आए हैं। मुझे देखते ही कलक्टर साहब ने कहा-धोती-पंजाबी शुरू कर दिया न? ठीक-ठीक है। तुम सँभाल लोगे?- अच्छा, क्या हुआ? मैं सब सुन चुका हूँ। मूर्ति भी देख आया हूँ।...मिल गया नैन देनेवाला ?
मैंने धीमे स्वर में कहा-““नहीं सर!”
दास साहब का चेहरा उतर गया-“तब क्या करोगे?”
“स्वयं दूँगा।'
“तुम?”
“हाँ, सर! साहित्य ही नहीं, चित्रकला से कभी शौक था। मैं अपने को मूर्तिकार भी मानता हूँ-बहुत सारी मूर्तियाँ बनाई थीं, देवी-देवताओं की... ।” “लेकिन...सोच लो!”
सॉँझ हुई! दो घड़ी, तीन घड़ी-फिर, रात आई। दुर्गालाल ने देवी के अंग-अंग को गहनों से सजा दिया-रंग-टीप, सब दुरुस्त! अब? कहाँ है नैन देनेवाला? बुलवाइए- मेरा काम खत्म! कहाँ है-कौन नैन देगा?
रंग-टीप, गहना-कपड़ा से सजी देवी-नैन बिना...मैं देख नहीं सकता बिना नैन की देवी को? कहाँ है नैन देनेवाला?
मैं नहा-धोकर तैयार था, आगे बढ़कर बोला-रंग-कूची दो! दुर्गालाल ने मुँह बा दिया-आ...आ...प?
“हाँ!”
देवी-मन्दिर में भीड़ लगी हुई थी।
मूर्ति को कपड़े से घेर दिया गया है। पंडितजी अवाक् होकर देख रहे हैं। दुर्गालाल ने रंग में कूची डालकर मेरी ओर बढ़ाई!
हठातू, कपड़े के घेरे में बासू और यह कौन ?...
दुर्गलाल के हाथ से कूची लेकर यह कौन बढ़ी, देवी की ओर? बासू ने कहा- मेरी दीदी नैन देती है।...
दुर्गालाल को न जाने कया हुआ कि वह दोनों हाथ की तलहथियों से अपनी दोनों आँखें को मूँदकर चीख उठा-अरे? ओ माँ-ऊँऊँ-यह क्या? खोल, कपड़घर! खोल कपड़घर । कपड़े के घेरे को हटाकर दुर्गालाल भागा-ओ माँ-ऊँ-ऊँ-ऊँ!! भाग रे, भाग रे!
ढोल-ढाक-डम्प-शंख-झाँझ-घड़ियाल एकसाथ घनघना उठेजै - जै दुर्गा! जै दुर्गा!
बासू ने कहा-दीदी की ससुराल में दीदी ही नैन देती थी... ।
मैं कुछ भी नहीं सुन सका। मैं देख रहा था, सिर्फ तुरन्त नैन पाई हुई प्रतिमा को जो हँस रही थी-या यह नैन देनेवाली देवी...छोटी देवी...बड़ी देवी...बासू की दीदी? बड़ी-बड़ी जलती हुई आँखें।
दुर्गालाल? कहाँ गया दुर्गालाल...कारीगर ?