कानून की बेबसी (मलयालम कहानी) : पायिप्रा राधाकृष्णन्

Kanoon Ki Bebasi (Malayalam Story in Hindi) : Paipra Radhakrishnan

आज के जमाने में सरकारी नौकरी कोई निकम्मी चीज नहीं है, इसलिए ही मैंने इतना बर्दाश्त किया। कितनी कठिन परीक्षाएँ तथा इनटव्यू (सुधार कर इंटरव्यू पढ़ें) से गुजरना पड़ा ? उसके बाद आयोग ने इस विभाग के निम्न श्रेणी लिपिक के पद पर मुझे नियुक्त करने की सिफारिश की है और मुझे कार्ड भेजने का कदम उठाया है। इन परिस्थितियों में एक बेरोजगार युवक की मन:स्थिति से मैं कैसे गुजरा ?

हल्के हरे रंग का कार्ड मिलने का वह दिन पिछले ही दिन के समान मुझे याद है। मैं खुशी से उछल पड़ा। इस भाग्योदय से घरवालों को अपार आनंद हुआ। ईश्वर की स्तुति में उन्होंने प्रार्थना की। खासकर मुझे मिट्टी संरक्षण विभाग में नियुक्ति मिली है। वह एक बेहतर विभाग है। सुविज्ञ सूत्रों ने बताया, यह विशाल क्षेत्र है। ऊपर उठने की काफी कुछ गुंजाइश है। तेज बहने वाले पहाड़ी पानी वाले किसी इलाके में नियुक्ति की संभावना है। दफ्तर वहीं कहीं होगा। मैंने सोचा कि अपनी शारीरिक-मानसिक स्थितियों का ख्याल कर मैं उधर ही रहूँगा। दफ्तर पुराना होगा किन्तु दुमंजिला मकान होगा। ऊपरी मंजिल में सड़क के आमने-सामने वाले कमरे में ही मुझे जगह मिलेगी।

चालू होते समय बिजली के पंखे की आवाज आयेगी। तब भी मुझे क्या कुछ चैन नहीं मिलेगा ? अपने लिए एक मेज, कुर्सी, अलमारी और उसकी चाबियाँ मिलना कोई छोटी-सी बात नहीं है। सच बताऊँ तो मेरे घर में भी इतनी सुविधाएँ नहीं हैं।

क्या ऊल-जलूल सपने देख रहा है अगर कोई ऐसा तर्क करेगा तो उसको सरासर बेबुनियाद साबित करते हुए जिम्मेदारी से पंजीकृत नियुक्ति पत्र मिलेगा!

आखिर खुशी से काँपते हाथों से मैंने वह नियुक्ति-पत्र खोलकर पढ़ा। उसका अंतिम निष्ठुर वाक्य भी मैंने पढ़ा। "इसके प्राप्त होते ही पंद्रह दिनों के अंदर हाज़िर होना है। अगर ऐसा नहीं होता तो पूर्वसूचना के बिना नियुक्ति-पत्र अवैध हो जायेगा।" बहुत सालों की मेहनत-मनौती के बाद मिलने वाली नौकरी है। इसमें जल्दी हाज़िर न होकर क्यों पंद्रह दिन की बात सोचनी है। ये सब सरकार की औपचारिक मज़ाकें होंगी। इनको गंभीरता से नहीं लेना है। यही सोच कर मैंने अपने को आश्वस्त किया।

मुझे इस बात का भी पता चला कि एक दूसरा अपूर्व सौभाग्य भी मुझे आश्वस्ति दे रहा है। बचपन से ही मुझे अपरिचित भूभागों में घूमने-फिरने की तीव्र लालसा थी। मुझे पहाड़ी जिले के पूलमण्णा मिट्टी संरक्षण क्षेत्रीय कार्यालय में नियुक्ति मिली है तो लगता है कि मुझे और मेरी इच्छाओं को जानकर ही ऐसा किया गया है। नियुक्ति-पत्र मैंने बार-बार पढ़ा। मेरा ही नाम व पता उस पर छपा है। यह पता बदल कर आया आदेश नहीं है।

फिर मैंने ही अपने आवेश को नियंत्रित किया। अब मैं अपने को याद दिलाता रहा कि वस्तुत: मैं एक सरकारी कर्मचारी हूँ। अब अतिरेक से कुछ नहीं करना चाहिए।

पूर्ण आत्मसंतोष से मैं पूलमण्णा बाजार में बस से उतरा। हाथ में चमड़े का बैग, काले डिजाइन वाली कमीज और पतलून पहनी है। बाजार की छोटी-मोटी चाय दुकानों जुटे लोग मुझे विस्मय से देखने लगे। उन अपरिष्कृत नज़रों का मुकाबला करते हुए मैं एक दुकानदार के पास गया। आत्मगौरव से एक सिगरेट खरीदकर सुलगाते हुए मैंने उससे मिट्टी संरक्षण कार्यालय के बारे में पूछा। मैंने बताया कि मुझे उधर नियुक्ति मिली है। यह बात सुनते ही दुकानदार में जैसे फुर्ती आयी। मर्तबानों के पीछे आलस से भरा बैठा दुकानदार खड़ा हो गया। उसने नाम-धाम और पहले की नौकरियाँ आदि के बारे में पूछा। नया कार्यालय दिखाने के लिए वह खुद बाहर आया। दूसरी दुकानों के बरामदों में एक नये शिकार की ताक में बैठे बाजार के स्थायी आदमी कुछ दूर तक मेरी गतिविधियों को देख रहे थे।

इस दुकानदार को भी अभिमान का एहसास हुआ। उसने वह प्रकट भी किया। यह उल्लेखनीय और परोपकार का मौका उसे ही मिला है। हम इमारत के नजदीक पहुँचे तो 'हम फिर मिलेंगे' जैसा तसल्ली का वाक्य बोलकर उसने विदाई ली।

पहले बायाँ पैर रखकर ऐश्वर्यपूर्वक मैं दफ्तर के बरामदे में आया। बरामदे के मध्य में एक दरवाजा है। बीच वाले रास्ते के दोनों ओर दरवाजे हैं। पहले दरवाजे से आगे बढ़कर मैंने दूसरे की ओर झाँका। कमरा ज्यादा बड़ा नहीं है। तीन-चार आदमियों की सीटें हैं, मैंने अंदाजा लगाया एक अवश्य सुप्रण्ड (सुपरिनटेंडेंट पढ़िए) की होगी, क्योंकि उधर बहुत फाइलें पड़ी हुई हैं। कालिंग बेल, मेजपोश, हाथ वाली कुर्सी, उस पर टर्की टावेल आदि बातें उस कुर्सी की खूबियों को प्रकट कर रही थीं।

किन्तु सारी कुर्सियाँ खाली पड़ी हैं। इससे मैं कुछ निराश हुआ। मैं उस दरवाजे को छोड़ कर दूसरे दरवाज़े की ओर चल पड़ा। उसके ऊपर एक नामपट्ट लगाया हुआ था मिट्टी बहाव निवारण क्षेत्रीय अधिकारी। इसलिए आसानी से बात समझ गया। उस दरवाजे पर एक छोटा-सा दरवाजा भी फिट हुआ था। उस कमरे और उसमें बैठे अफसर के पद की गंभीरता प्रकट हो गयी थी। क्या अफसर भीतर होंगे? चपरासी भी नहीं आया। ऐसी हालत में अफसर को क्यों तलाशना है ? अगर अफसर समय के पाबंद आदमी हैं तो ? उन्हें पहले आकर फाइल देखने की आदत है तो ? इस प्रकार के विचार मुझे परेशान करने लगे।

आखिर उस दुष्प्रेरणा का शिकार होकर मैंने हाफडोर से झाँकने का निर्णय किया। सिर नीचा करके देखने वाला था कि इतने में आहट सुनी। मैंने मुड़कर देखा। कोई आ रहा है। सौभाग्यवश मरे झुकने का दृश्य किसी ने नहीं देखा।

सुप्रण्ड के कथन का निचोड़ इतना ही है मौजूदा माहौल में मुझे उधर नौकरी में दाखिला कराने में कानून अनुकलू नहीं है। मुझे जिला ऑफिस से संपर्क करना पड़ेगा। मुझे नौकरी में दाखिला कराने का आदेश उधर से ही भेजना है।

कहने की जरूरत नहीं है कि यह सुनकर मुझे तीव्र निराशा हुई। सुप्रण्ड के सहयोगियों ने बताया कि उनके कानूनी रवैये में वे भी कुछ नहीं कर सकते हैं। सुप्रण्ड के सुझावों को हाथ जोड़कर शुक्रिया देकर मैं उधर से चला। कमरे से बाहर आया तो मेरे मन में अफसर से मिलने की उम्मीद हुई। किन्तु मैं उस हालत को आगे नहीं बढ़ा सका। इतने में एक वरिष्ठ अफसर कमरे से बाहर आया। बरामदे में आकर उन्होंने मेरा नाम-धाम वगैरह पूछा। उसके बाद उपदेश के लिहाज से बताया कि मुझे अविलंब जिला ऑफिस से संपर्क करना है। इस मामले में मुझे और भी फुर्ती और होशियारी दिखानी है।

इस अफसर से बातें करते समय पास के कमरे के दरवाजे से होकर मेरी संयत नजर एक खूबसूरत टाइपिस्ट पर पड़ी। उसने मेरे मामले में हिचक प्रकट नहीं की थी। फिर भी नौकरी में दाखिला होने की जल्दबाजी में मेरे मन ने ऐसी हल्की बातों पर ध्यान नहीं दिया।

जिला ऑफिस में मुझे उम्मीद से भी ज्यादा उदार स्वीकार-सत्कार मिला। खास कर काले फ्रेम और बड़े गालों तथा नुकीले नजर वाले अफसर से। उन्होंने कर्मचारियों के बेरहम और गलत कार्रवाइयों की टीका-टिप्पणी की। उन्होंने आगे कहा कि वह मेरा क्षेत्रीय कार्यालय में ही दाखिला कर सकते हैं। इस प्रकार के सुझाव के साथ मुझे इधर भेजने का मकसद उन्हें दुरूह लगता है। उन्होंने मुझे उपदेश दिया कि मुझे उदास न होकर लौटना है। अभी काफी दिन हैं। इसलिए नौकरी में दाखिला पाने के लिए जल्दबाजी नहीं करनी है। क्षेत्रीय कार्यालय में जल्दी ही दाखिला कराने के लिए उन्होंने कहा यह बात भी उधर बता देना है।

जिला अफसर के उदार उपदेशों के बलबूते मैं उधर से लौटा। पुनः मैं क्षेत्रीय कार्यालय में हाज़िर हो गया। तभी मामले की पेचीदगी से मैं ज्यादा अवगत हो गया। जिला अफसर के शाब्दिक सुझाव तृणवत हैं। उन्हीं बातों को कागज पर लिखकर एक आदेश का रूप देना है। तब हमारी हालत ठीक-ठाक हो जायेगी। पूर्वोदाहरणों को उद्धृत करके ऑफिस सुप्रण्ड ने ये सारी बातें कहीं। हाँ, मुझे एक बार और जिला ऑफिस जाना पड़ेगा और कागजी तौर पर कदम उठाना है।

जिला अफसर की राय पुनः बदल गयी। फिर क्षेत्रीय कार्यालय जाने का सुझाव। बीच-बीच में छुट्टी के दिन। कभी टोकन हड़ताल। कानून के तौर पर काम ये सब गुजरे। सिर्फ मेरे बारे में प्रगति अवश्य तनिक भी न हुई।

मुझे खुद याद नहीं है कि जिला कार्यालय, क्षेत्रीय कार्यालय और परिवार के वकील का कार्यालय इन सारी जगहों पर मैं कितनी बार गया था। ऊट-पटाँग बातें कह कर टाल-मटोल करते-करते नौकरी में दाखिला होने का अंतिम दिन भी आया। मेरी उत्कंठा, घबराहट और व्यकुलता का ख्याल न करके वकील ने आश्वासन दिया कि हम अदालत में लड़ेंगे। भले ही वकील की बातों से मुझे हौसला मिला तथापि कानून की तकनीकी अड़चनों की झंझटें मुझे तहस-नहस कर रही थीं। अंत में मैंने क्षेत्रीय कार्यालय के अफसर से सविनय निवेदन किया। इस बार वे कुछ झुंझला उठे। ये सब कानून हैं न ? कानून को हाथ में उठाने का हक किसको मिला है ? तुम होशियार हो—युवक हो। मैंने सोचा था कि तुम्हें इन सारी बातों की समझदारी होगी। अगर इस मामले में कुछ शिकायत है तो विभागाध्यक्ष के जरिये सरकार को लिखो। देख लेंगे सरकार का फैसला क्या होगा।

उधर से तसल्ली की बातें खोज कर मैं वकील के पास ही आया। परिवार के वकील पहले के समान मुझे आश्वासन देते रहे। उन्होंने कहा कि कल ही सरकार के खिलाफ एक बाण छोड़ेंगे। एक अर्जी ड्राफ्ट करके उन्होंने मुझे सुनाया भी। मुझे लगा इस बार मेरी मुसीबत सरकार समझ लेगी। जिला और क्षेत्रीय अफसरों को चेतावनी देकर मेरी समस्या को सरकार हल करेगी।

किन्तु उसका परिणाम अत्यंत क्रूर था। सरकार के जवाब में व्यक्त किया गया था कि मेरे सारे इल्जाम बेबुनियाद हैं। सरकारी आदेश के तहत उन कार्यालयों में मेरे जाने के सबूत नहीं हैं। यह जवाब पढ़कर मेरा मन टूट गया।

अब मैं जानता हूँ कि अब एक दूसरी नौकरी की तलाश व कोशिश की ऊर्जा मेरे पास नहीं है। अब हमारे परिवार के वकील बताते हैं कि कभी-कभी कानून बेबस बनते हैं। उसे व्यक्तियों के अयुक्तिपूर्ण विडंबनाओं की पहरेदारी करने की हालत भी कानून के सामने आयेगी।

(अनुवाद : डॉ. आरसु)

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