कानून का रखवाला (कहानी) : प्रकाश मनु
Kanoon Ka Rakhwala (Hindi Story) : Prakash Manu
1
घायल बजरंगी किसी तरह घिसटता हुआ चारपाई तक आया।
चारपाई पर पड़ते ही वह बुरी तरह कराह उठा। उसकी साँस धोंकनी की तरह चल रही थी। हड्डी-हड्डी से दर्द उठ रहा था। जैसे नागफनी के जहरीले काँटों पर उसे लिटा दिया गया हो, या हजारों मधुमक्खियों ने एक साथ काट खाया हो!
उसका सारा शरीर बुरी तरह चोटिल था, खून से लथपथ। सिर से बहकर खून अब नाक और होंठों तक आ गया था। साँस लेने में भी दिक्कत होने लगी थी। मांस कहीं-कहीं एकदम उधड़ गया था और नंगी, चमकती हड्डियाँ...! खुद ही वह डर से सिहर-सा गया था।
होंठ दबाए वह चुपचाप दर्द पीने की कोशिश करने लगा।
असहनीय पीड़ा और घबराहट के मारे उसने आँखें बंद कर ली थीं। पर इस तरह आँखें बंद कर लेने से दर्द का जहरीला दंश थोड़े ही जा सकता था और न रिसता हुआ खून और चोट के निशान। सब मिलकर एक वीभत्स हँसी हँसते हुए, “हा...हा...हा...!” वे अब भी थे और उनकी मारक तड़प से उसकी आँखें रह-रहकर बंद होती जा रही थीं।
पर उन बंद आँखों में भी उन लोगों के क्रूर, हिंसक चेहरे घूम रहे थे। एक अजीब-सा खौफ पैदा करते हुए। सिर पर अँगोछा बाँधे, मुँह ढके, लंबे-तगड़े शरीर। केवल आँखें दिख रही थीं और उन आँखों में नशे की खुमारी। लाल डोरे और खून की प्यास...।
“मारो स्साले को!” और एक के बाद एक तड़ातड़ लाठियाँ पीछे से आकर उसकी गरदन पर पड़ी थीं।
और फिर उसे कुछ याद नहीं रहा था। एक घना अँधेरा उसे लील गया था।
अँधेरा!...अँधेरे की भी एक स्याह खोह, जहाँ कहीं कुछ नहीं था। न रोशनी। न जिंदगी।
अभी थोड़ी देर पहले उसे कुछ होश आया तो वह फिर से सारी घटना पर विचार करने लगा था। उसका दिमाग फिर से काम करने लगा था।
कौन हो सकते हैं वे लोग?...हाँ, निश्चित रूप में ठाकुर जगदेव सिंह के लोग रहे होंगे। उसने सुबह ही मना किया था उन्हें खेत में गन्ने काटने से। वे आठ-दस लोग थे। बड़ी-बड़ी चादरों में गट्ठर बाँधकर ले जाना चाहते थे। चोरी-छिपे तो यह अरसे से चल ही रहा था पर आज तो उसके सामने ही...
*
वह कब तक बर्दाश्त करे? आखिर उसका भी घर-परिवार है। बीवी-बच्चों का पेट तो पालना है। कहाँ से खिलाए उन्हें? दिन भर पसीना बहाने पर भी साल में मुश्किल से चार पैसे जुड़ते हैं। उस पर महँगाई! जैसे पेट में एक छुरी गड़ी हुई है, जो हर साल कुछ और भीतर धँस जाती है।
ऊपर से ये लोग...गाँव के खलीफा। इन्हें किसी के दुख-दर्द से तो हमदर्दी है नहीं। कोई मरे या जिए, इनकी बला से। मगर सभी किसान का माल बाप का समझते हैं। इन्हें क्या पता, खेत में कैसे जान गलानी पड़ती है। मिट्टी में मिट्टी होना पड़ता है, तब धरती के अंतस से पैदा होती है फसल। किसान जान होम करके उसे सींचता है, पसीने से, लहू से...उस पर भी गिद्धों की नजर।
“दो-चार चाहिए तो मुझसे कहो, मैं खुद दे दूँगा। पर इतने नहीं ले जाने दूँगा।” उसने विनयपूर्वक, लेकिन दृढ़ता से कहा था।
सुनते ही वे लोग आगबबूला हो गए थे। गंदी गालियाँ बकते हुए, अच्छी तरह ‘खबर लेने’ की धमकी देकर चले गए थे।
और वह सोचता रह गया था। यह कैसा वक्त, कैसी व्यवस्था है? एक तो चोरी, ऊपर से सीनाजोरी। ऐसे में गरीब आदमी कैसे जी पाएगा? क्या गरीब की कहीं सुनवाई नहीं होगी। कुछ भी हो, रोज-रोज की इस आफत से वह तंग आ गया है। अब वह और नहीं सहेगा, यह अधिक बर्दाश्त नहीं करेगा।
यों उसने पूरी विनय से काम लिया था। कोई कठोर शब्द जबान पर लाए बगैर अपनी मजबूरी बता दी थी। पर वे ठाकुर की शह पर थे, गरमा गए थे, “हड्डियाँ काटकर नहर में फिंकवा देंगे, ससुरे। दो पैसे के आदमी, इनकी ये मजाल...! हमें टोकें? हम राजा हैं ससुरे और तुम हमारी परजा, हम चाहे जो करें।”
और रात में ही उन्होंने यह करके दिखा भी दिया था।
वे तो शायद उसे मार ही डालते, पर आसपास के खेतों में कुछ कदमों की आहट पाकर शायद उन्होंने इरादा बदल दिया और भाग निकले थे।
2
अचानक उसे पास से गुजरती कोई परछाईं दिखाई दी। उसने पहचानने की कोशिश की। पड़ोस के बूढ़े रामदीन काका थे।
“काका...!” उसकी भयग्रस्त, कराहती आवाज में एक बहुत हलकी, धूमिल उम्मीद चमकी। अँधेरी रात में जुगनू की तरह।
रामदीन काका चौंके। उसके पास खिसक आए, “कौन...बजरंगी? क्या बात है, बेटा? ठीक तो हो न!”
“पास आकर देख लो, काका!” बजरंगी की आवाज की बेबसी और कंपन छिप नहीं सका था।
रामदीन काका पास आए तो उसकी हालत देखकर त्रस्त हो उठे। “अरे बजरंगी, कैसे हुआ यह सब? बता न, किसने मारा तुझे?” उनका पीड़ा से सना वात्सल्य उमड़ पड़ा था।
बचपन से ही उसे प्यार करते हैं रामदीन काका। उन्हीं की गोद में उसका बचपन पला है। उनसे कहानियाँ सुनते और उन कहानियों से दुनिया-जहान की बातें सीखते उसने जीवन का पहला पाठ पढ़ा था। और फिर उन्हीं से डगमग-डगमग चलना सीखा।
काका उसे हिम्मत और आत्मविश्वास से जीने की प्रेरणा देते थे। “मेहनत और सचाई को जीवन का मूलमंत्र बना लो और हिम्मत से जियो। किसी के आगे झुको नहीं। बस, एक ऊपर वाला है, वही सबको देता है। उसके आगे तो कोई छोटा-बड़ा नहीं!” रामदीन काका के होंठों पर यही शब्द रहते थे और उसके जीवन पर इन बातों का गहरा असर पड़ा था।
पर आज इन बातों के अर्थ को बेमानी करता हुआ, एक काला-सा प्रश्नचिह्न उसकी आँखों के आगे झूल गया था। अभी तक झूल रहा था।
खुद रामदीन काका उसकी यह हालत देखकर कुछ टूट-से गए थे।
“यह सब कैसे हुआ, बजरंगी?” पास आकर उन्होंने उसके माथे पर हाथ रख दिया था।
“कोई चोरी करता रहे और अन्य चुपचाप देखते रहो तो ठीक। नहीं तो इसकी सजा!”
“ठाकुर के लोग थे...?” अब रामदीन काका की समझ में कुछ कुछ आ रहा था।
“हाँ।” बजरंगी के स्वर में एक असहाय आदमी की टूटन थी।
रामदीन काका सोच में पड़ गए।
“चलो, बाद में देखेंगे। पहले मेरे साथ चलो, मास्टर अयोध्या बाबू के यहाँ। कुछ टिंचर-विंचर, पट्टी वगैरह का सामान उनके पास रहता है। पट्टी बँधने से कुछ तो आराम आएगा। चल लोगे न बेटे, मेरा सहारा लेकर?”
“नहीं काका, मुझसे उठा नहीं जाएगा। तुम घर जाकर बनवारी भैया और गिरीश को बुला लाओ।”
बनवारी बजरंगी का बड़ा भाई था। यों खूब लंबा-तगड़ा, हृष्ट-पुष्ट शरीर था, लेकिन स्वभाव से सीधा। कभी किसी से लड़ाई-झगड़ा तो क्या, तू-तू, मैं-मैं तक नहीं हुई थी। छोटे भाई गिरीश ने इसी साल बी.ए. पास किया था और अब नौकरी की तलाश में था।
बजरंगी को पीटे जाने की बात सुनकर बनवारी और गिरीश हाथों में लाठियाँ लिए, अड़ोस-पड़ोस के कुछ लोगों को साथ लेकर दौड़े-दौड़े खेत पर पहुँचे।
पीछे-पीछे बनवारी का परिवार। बजरंगी की पत्नी और दो छोटे-छोटे बच्चे भी दौड़ते हुए आ पहुँचे। सबके चेहरे बदहवास। आँखों में भय की परछाइयाँ तैर रही थीं।
बजरंगी के बच्चे देवी और बबुआ सबसे ज्यादा त्रस्त थे। चारपाई पर लहूलुहान, गठरी से पड़े बाप को वे फटी-फटी आँखों से देख रहे थे। बजरंगी की पत्नी कमला जोर-जोर से रोती हुई ठाकुर को गालियाँ दे रही थी। जेठानी कालिंदी उसे समझाते-समझाते खुद रो पड़ी थी।
‘क्यों लोग नहीं जीने देते मेहनत करने वाले सीधे सादे आदमी को?’ सबके चेहरे पर एक करुण, लेकिन तीखा सवाल था। अनुत्तरित।
अब क्या होगा? क्या...? क्या...? अगला सवाल। वह भी अनुत्तरित।
हालाँकि पूरे माहौल में एक साथ भय और गुस्से का पसारा था।
“इम देख लेंगे! लुच्चों, बदमाशों से निबटना हमें भी आता है।” बनवारी ने अपनी लाठी सँभालते हुए कहा। उत्तेजना में उसका सारा शरीर काँप रहा था। लोगों ने पहली बार उसे इतने गुस्से में देखा था।
“पर भैया, हमें थाने में रिपोर्ट लिखानी चाहिए। आखिर कानून किसलिए है? पुलिस किसलिए है?” छोटे भाई ने, जो शहर में रह चुका था और बी.ए. पास था, सलाह दी।
“कुछ नहीं होगा, देख लेगा। ये ससुर कौन कम ठग हैं? ये रच्छक नहीं, भच्छक है, भच्छक! ये भी गुंडों का ही साथ देंगे।” बनवारी ने गुस्से से कहा।
“तो भी हमारा फर्ज बनता है, भाई। एक बार देखना तो चाहिए।” रामदीन काका ने सलाह दी।
अब तक काफी लोग इकट्ठे हो गए थे। सभी ठाकुर के प्रति रोष प्रकट कर रहे थे।
“कब तक यह गुंडाशाही बर्दाशत करोगे, भाई?” एक ने कहा।
और फिर सात-आठ लोग थाने रिपोर्ट लिखाने चलने के लिए तैयार हो गए।
पर बजरंगी को इस हालत में कैसे ले जाए? उसके घावों पर फौन मरहम-पट्टी होनी जरूरी थी, वरना जान खतरे में पड़ सकती थी।
एक छोटा बच्चा रमुआ दौड़कर गया और मास्टर अयोध्या बाबू को बुला लाया। अयोध्या बाबू अध्यापक थे, पर चिकित्सा के बारे में भी उन्हें ठीक-ठाक जानकारी थी। थोड़ा-बहुत प्राथमिक चिकित्सा का सामान घर में रखते थे। बनवारी की हालत देखकर वे भी दुखी हो उठे, “हे भगवान, बनवारी जैसे सीधे-सादे आदमी पर हाथ उठाते इन्हें शर्म नहीं आई। ये आदमी हैं या...दरिंदे?”
मास्टर जी ने झट पेटी खोली। रूई, पट्टी और दूसरा सामान निकाला। फिर उन्होंने सावधानी से घाव साफ करके, टिंचर लगाकर पट्टी बाँध दी।
*
हालाँकि पट्टी बाँधते हुए भी उनके हाथ काँप रहे थे।
“जुल्मी कहीं के! उफ, किस बुरी तरह मारा है...राच्छस ससुरे!” उनके होंठ लगातार बुदबुदा रहे थे।
एक बेबस पुकार! निरीह जनता की निरीह आवाज। हवा में भाप की तरह शब्द...
शायद जनता इसी तरह बोलती है।
3
थोड़ी देर बाद आठ-दस लोग बैलगाड़ी पर बैठकर थाने चल पड़े। बजरंगी की खाट ऊपर डालकर उसे लिटा दिया गया था।
सर्दियों की कँपकँपाती रात। तीखी हवा सूइयों की तरह चुभ रही थी। रात के नौ बज चुके थे। पर वे रात में ही थाने पहुँच जाना चाहते थे, ताकि सुबह लड़के ही उन गुंडों को पकड़ लिया जाए।
घंटा, डेढ़ घंटा ऊबड़-खाबड़ रास्ते की धूल फाँकते और हवा की नुकीली सूइयाँ झेलते वे थाने आ गए।
पर वहाँ गहरे अँधेरे का साम्राज्य था।...एक अशुभ प्रेत-सन्नाटा सिर्फ एक हलका-सा बल्ब टिमटिमा रहा था, जिसकी पीली रोशनी आसपास के पेड़ों के झुरमुट में खो गई थी।
दो नवयुवक बजरंगी की चारपाई उठाए आगे-आगे चले। बाकी लोग पीछे हो लिए। भीतर जाकर देखा, थानेदार साहब ऊँघ रहे थे। एक सिपाही आराम से कुरसी में धँसा हुआ बीड़ी पी रहा था।
उन्हें देखकर सिपाही ने ऐसा मुँह बनाया, जैसे उसके आराम में खलल पड़ गया हो।
“क्या काम है? क्यों चले आए आधी रात को? घर पर चैन नहीं पड़ता?” उसने अपनी गरदन अकड़ाकर पूछा।
खून में लथपथ बजरंगी की चारपाई की ओर इशारा करके रामदीन काका ने कहा, “देखो भाई, अब तो यह भी होने लगा। हम लोग कहाँ जाएँ? कोई ठौर है सीधे-सादे आदमी के लिए...?”
“देखो, यहाँ ज्यादा भाषणबाजी की जरूरत नहीं है। यह तो हमेशा से होता आया है, होता रहेगा। तुम अपनी बात कहो, ज्यादा चौधराहट मत झाड़ो।” सिपाही की जबान से अब भी ‘फूल’ झड़ रहे थे।
“बात यह है जी, ठाकुर के दस-बारह लठैत आए और बगैर बात पीट-पीटकर अधमरा कर दिया बेचारे को। वो तो जान ही लेने पर उतारू थे, मगर...!” इस बार मास्टर अयोध्या बाबू ने बात सँभाली।
ठाकुर का नाम सुनकर सिपाही का उत्साह और कम हो गया। उसकी मुख-मुद्रा कठोर हो गई।
अब जैसे वह ठाकुर के पाले में जाकर पूछ रहा था, “तुम्हें कैसे पता कि ठाकुर के लोग थे?”
“...इसलिए कि वे पड़ोस के गाँव के हैं। हर वक्त घूमते-फिरते रहते हैं। लोगों पर बगैर बात रोब झाड़ते हैं और ठाकुर की हवेली के बाहर बगीचिया में पसरे रहते हैं। और फिर दिन में वे धमकी देकर गए थे कि हड्डी-हड्डी काटकर फेंक देंगे!”
“ठीक है...ठीक है, पर गवाह कौन है, बताओ? किसने देखा इसे पिटते हुए?” सिपाही के चेहरे पर धूर्तता थी।
सब लोग पलटकर बनवारी की ओर देखने लगे।
“वो तो जी, वो तो...उस वक्त कोई था ही नहीं वहाँ। रात का वक्त था, सर्दी का मौसम। बजरंगी रखवाली कर रहा था खेत की कि...” बनवारी की समझ में नहीं आया कि वह क्या जवाब दे?
“तो गवाह कोई नहीं है न? फिर क्या कर रहे हो यहाँ, दफा हो जाओ।” सिपाही ने क्रूर हँसी के साथ कहा, “कानून गवाही पर चलता है। ऐसा थोड़ेई है कि मुँह उठाया और चले आए!”
हवा में सन्नाटा छा गया।
बस, हलकी बुद-बुद...बुद!
4
इतने में थानेदार जो या तो सो रहा था या सोने का अभिनय कर रहा था, जाग गया। कानूनी नाटक के पहले अंक के ‘पटाक्षेप’ के बाद शायद उसे अपनी भूमिका याद हो आई थी। एक लंबी ‘ऊँ...’ और संक्षिप्त-सी अँगड़ाई से उसने अपनी भूमिका की शुरुआत की।
“बात क्या है! भई, तुम लोग इतनी रात गए क्यों तंग करने आ गए?” उसका नींद से बोझिल स्वर उभरा।
“रिपोर्ट लिखानी है जी।” सिपाही मूँछें फड़फड़ाता हुआ बोला।
“हूँ!” थानेदार की आँखों में चमक आई और चली गई। जैसे बिजली चमकी हो और अचानक गुल हो गई हो।
“सर, ये ठाकुर जगदेवसिंह के खिलाफ...!”
“ऐं, अच्छा-अच्छा!” थानेदार ने सारी स्थिति के समीकरण पर सोचते हुए, अपने फायदे का अनुमान लगाते हुए कहा।
“बहुत बड़े आदमी के खिलाफ जा रहे हो। सोच लो, कहीं उलटे न फँस जाओ।”
“आप तो रिपोर्ट लिखिए, साहब। आदमी बड़ा है या छोटा, हमारी बला से। गुंडा आखिर गुंडा है। वो चाहे कोई भी हो। भला हद है, यह कैसा कानून है कि...आम आदमी की सुरक्षा तक नहीं!” गिरिश जो अब तक गुस्सा दबाए चुप था, झल्लाकर बोला।
थानेदार की मुख-मुद्रा अचानक कठोर हो गई।
उसने एक क्षण के लिए तो जलती हुई निगाहों से गिरीश की ओर देखा, जैसे कच्चा खा जाएगा। पर फिर थोड़ी देर में ही उसने रंग बदल लिया। ऊपर से पहले की तरह सहज, सामान्य लगने लगा।
“ठीक है, रिपोर्ट लिख ली जाएगी।” उसके चेहरे पर अब ‘जन-गण-मन अधिनायक’ वाली शांत मुद्रा थी।
“तो फिर लिखिए।” गिरीश अब भी तैश में था।
“पहले यह बताओ कि रिपोर्ट लिखूँ किससे?”
“किससे...क्या मतलब?” अब तो सभी अचकचाए। यह कैसा सवाल?
“मतलब यह कि रिपोर्ट चाँदी की कलम से लिखूँ या लकड़ी की कलम से...?”
“आप तो कानून की कलम से लिख दीजिए, साहब। हम पहले ही बहुत तंग हो चुके हैं। देखिए, हमें बहुत परेशान किया जा रहा है। ऐसे में कोई कैसे जी सकता है? आप हालत देख रहे हैं न बजरंगी की! देखिए, उनका हौसला बढ़ेगा तो कल को वे फिर...! देखिए, हम...आप...कानून, थानेदार साहब, कुछ तो खयाल...!” विनती करते हुए, बल्कि गिड़गिड़ाते हुए बनवारी के शब्द लाचार बेबसी में टूटकर बिखर गए।
“ठीक है, तो कानून की कलम लकड़ी की होती है। रिपोर्ट कल लिखी जाएगी, पर पहले डाक्टरी रिपोर्ट लाना कि इसे वाकई चोट लगी है और खून निकला है।” थानेदार का चेहरा बिलकुल निर्भाव था।
“पर वह तो आपके सामने है। आप देख तो रहे हैं कि इसके माथे पर, छाती पर, सारे शरीर पर घाव के निशान हैं, खून निकल रहा है, पट्टियाँ बँधी हैं। कितनी मुश्किल से तो यहाँ लेकर आए हैं। पूरे शरीर पर टूट-फूट...! अब इसके लिए कोई और सबूत चाहिए?”
रामदीन काका इस समय महाभारत के युधिष्ठर लग रहे हैं। सचाई के प्रवक्ता। एक करुण और बेचैन स्वर।
“हम कुछ नहीं जानते। तुम्हें पता ही है कि कानून अंधा होता है। हम बहते हुए खून पर नहीं, खून की रिपोर्ट पर यकीन करते हैं, समझे।”
कहकर थानेदार साहब ने झल्लाकर आरामकुर्सी पर ही बैठे पहलू बदला और बाएँ की बजाए अब दाएँ हाथ पर सिर रखकर ओंघने लगे।
“पर, साहब...!” फिर एक समवेत गिड़गिड़ाहट उभरी। हर काल की जनता की लाचार अभिव्यक्ति।
मक्खी...भिन-भिन-भिन...!
मच्छर...भिन्न।
“साहब-वाहब कुछ नहीं! ज्यादा चीं-चपड़ की तो तुम्हारे खिलाफ रिपोर्ट लिख लूँगा कि तुम सब हमें मारने आए थे। थाने का सम्मान और कानून की प्रतिष्ठा के नाम पर तुम सबके सब जेल में होगे। चक्की पीसोगे...चक्की!”
थोड़ी देर तक भीड़ में खुसर-पुसर होती रही। एक गूँगा आक्रोश और हिकारतभरा गुस्सा उभरा और देखते-देखते धुआँ होकर कातर चुप्पी में बिला गया।
सबके सामने अपनी-अपनी लाचारियाँ उभर आईं। लोग एक-एक कर खिसकने लगे।
लोग नहीं।...घास, निरीह घास, जो पैरों से रौंदे जाने के लिए उगती है।
हमारा प्रेत-तंत्र, तंत्र-मंत्र, थाना-तंत्र उसी पर खिलता है।
लिहाजा बनवारी और गिरीश भी बजरंगी की चारपाई उठाए, सिर झुकाए बाहर आ गए।
पीछे-पीछे रामदीन काका थे। विवर्ण चेहरा, दरका हुआ विश्वास और एक टूटा, जर्जर अस्तित्व लिए।
कानून का रक्षक अब तक आरामकुर्सी पर और अधिक टाँगें फैलाकर खर्राटे भरने लगा था।